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________________ ご गाथा २२६ ] [ १९५ देता है । हे मुनीश ! आपकी मन-वचन-कायको प्रवृत्तियां इच्छापूर्वक नहीं होती, हे घोर असमीक्षापूर्वक (बिना विचारे) आपकी प्रवृत्तियां नहीं होतो इसलिए आपकी प्रवृत्ति अचिन्त्य है । कहनेकी इच्छा होनेपर भी वचनप्रवृत्ति कदाचित् नहीं देखी जाती, जैसे मन्दबुद्धि लोग शास्त्रोंके वक्ता होनेकी इच्छा रखते हुए भी मन्दबुद्धिके कारण कुछ कह नहीं सकता ।" इसलिए परमोपेक्षासंयम विशुद्धिमें स्थित केवलीके विशेष व्यतिशय व्याहार ( दिव्यध्वनि) आदि व्यापार स्वाभाविक हैं, पुण्यबन्धके कारण नही हैं । आर्षमें कहा भी है क्षपणासार "तित्ययरस विहारो लोयसुहो णेव तस्स पुण्णफलो । वयणं व दाणपूजारंभयरं तण्ण लेवेइ' " भगवानका बिहाररूप अतिशय भूमिको स्पर्श न करते हुए आकाश में भक्तिसे प्रेरित देवोंके द्वारा रचित स्वर्णमयी कमलोंवर प्रयत्न विशेष के बिना ही अपने माहारम्यातिशय से होता है ऐसा जानना चाहिए क्योंकि उनको कहा भी है- है। "नभस्तलं पल्लवयन्निव त्वं सहस्रपत्राम्बुजगर्भचारः । पादाम्बुजं पातितमारदप भूमौ प्रजानां विजथं भूत्यै ।। हे जिनेन्द्र ! कामदेवके गर्वको नष्ट करनेवाले आपने सहस्रदल कमलोंके मध्य में चलनेवाले अपने चरणकमलोंके द्वारा आकाशतलको पल्लवोंसे युक्त जैसा करते हुए पृथ्वीपर स्थित प्रजाजनोंकी विभूतिके लिए बिहार किया था । सयोगिजिनके प्रथमसमय से लेकर केवलीस मुदुप्रातके अभिमुख केवली के प्रथमसमयतक अवस्थित एकरूप से गुणश्रेणि निक्षेपका क्रम जानना चाहिए, क्योंकि प्रतिसमय परिणाम अवस्थित हैं और परिणामोंके निमित्तसे होनेवाला कर्मप्रदेशोंका अपकर्षण व गुणश्रेणिनिक्षेपका श्रायाम सहा अर्थात् अवस्थितरूपको छोड़कर विसदृशरूप परिणमन नहीं करता यानि अपकर्षित कर्मप्रदेशोंकी संख्या में या गुणश्रेणियायाममें होनाधिकता नहीं होती, किन्तु क्षीणकषायगुणस्थान में गुणश्रेणिके निमित्तसे जो द्रव्य अपकर्षित किया ३. जयधवल मूल पृष्ठ २२७१ । २. स्वयंभू स्तोत्र फ्लोक ३० ।
SR No.090261
Book TitleLabdhisar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages644
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Karma, Philosophy, & Religion
File Size16 MB
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