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________________ ४२ ] क्षपणासार [ गाथा ४०-४१ जिन आचार्योंने आगे श्रेष्ठबुद्धिवाले पुरुषोंका अभाव देखा और जो अत्यन्त पापभीरु थे, जिन्होंने गुरुपरम्परासे श्रुतार्थ ग्रहण किया था उन आचार्योंने तीर्थविच्छेद के भयसे उससमय अवशिष्ट रहे हुए अङ्गसम्बन्धी अर्थको पोथियों में लिपिबद्ध किया अतएव उनमें असूत्रपना नहीं आ सकता । शङ्काः-यदि ऐसा है, इन दोनों वचनोंको द्वादशाङ्गका अवयव होनेसे सूत्रपमा प्राप्त हो जावेगा ? ___समाधानः-दोनों में से किसी एक वचनको सूत्रपना भले ही प्राप्त होओ, किन्तु दोनोंको सूत्रपना प्राप्त नहीं हो सकता है, क्योंकि उन दोनों बचनों में परस्पर विरोध पाया जाता है । शङ्काः-उत्सूत्र लिखनेवाले प्राचार्य पापभीरु कैसे हो सकते हैं ? समाधानः-यह कोई दोष नहीं, क्योंकि दोनों प्रकारके वचनों में से किसी एक ही बचनके संग्रह करने पर पापभीरुता निकल जाती है अर्थात् उच्छृखलता आ जाती है, किन्तु दोनों प्रकारके वचनोंका संग्रह करनेवाले आचार्योंके पापभीरुता नष्ट नहीं होती है अर्थात् बनी रहती है। शङ्काः--दोनों प्रकार के वचनोंमेंसे किस वचनको सत्य माना जावे ? समाधान:-इस बातको के वली या श्रुत के वली जानते हैं, दुसरा कोई नहीं जानता, क्योंकि इस समय उसका निर्णय नहीं हो सकता है, इसलिए पापभीरु वर्तमानकालके आचार्यों को दोनों का संग्रह करना चाहिए, अन्यथा पापभीस्ताका विनाश हो जावेगा। अथानन्तर देशघातिकरणका कथन करते हैं--- 'ठिदिबंधषुधत्तगदे मणदाणा तत्तियेवि ओहि दुगं । लाभं च पुणोवि सुदं अचक्खुभोगं पुणो चक्रवू ॥४०॥४३१।। पुणरवि मदिपरिभोगं पुणरवि विस्यं कमेण अशुभागो। बंधेण देसघादी पल्लासंखं तु ठिदिबंधो ॥४१॥४३२।। १. ये दोनों गाथाएं ल० सा० गाथा २३९.४० के समान हैं। क० पा० सुत्त पृष्ठ ७५१-५२ सूत्र २०० से २०५। जयधवल मूल प० १९६४-६५ । धवल पु० ६ पृष्ठ ३५६-३:५७ ।
SR No.090261
Book TitleLabdhisar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages644
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Karma, Philosophy, & Religion
File Size16 MB
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