SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 348
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ गाया ३६ 1 क्षपणासार [ ४१ अधिक स्थिति और अधिक अनुभागों के अविरोधीपने को प्राप्त नहीं हो सकता है, क्योंकि, अन्यत्र वैसा देखने में नहीं आता, किन्तु इस कथनसे अनिवृत्तिकरणके एकसमय में स्थित सम्पूर्ण जीवोंके प्रदेशबन्ध सदृश होता है ऐसा नहीं समझ लेना चाहिए, क्योंकि प्रदेशबन्ध योगके निमित्तसे होता है, परन्तु अनिवृत्तिकरणके एकसमयवर्ती उन सर्व जीवोंके योगकी सदृशताका कोई नियम नहीं पाया जाता। जिस प्रकार लोकपूरण समुद्रात में स्थित केलियोंके योगकी समानताका प्रतिपादक परमागम है, उसप्रकार अनिवृत्ति करणमें योगकी समानताका प्रतिपादक परमागमका अभाव है। इसलिये समान (एक) समयमें स्थित अनिवृत्तिकरण गुणस्थानवाले सम्पूर्ण जीवोंके सहशपरिणाम होने के कारण स्थितिकाण्डकघात, अनुभागकाण्डकघात तथा उनका बन्धापसरण, गुणश्रेणीनिर्जरा और संक्रमण में भी समानता सिद्ध हो जाती है । शङ्काः-इसप्रकार समान समय में स्थित सम्पूर्ण अनिवृत्तिकरणगुणस्थानवालोंके स्थितिखण्ड और अनुभागखण्डोंके समानरूपसे पतित होनेपर घात करने के पश्चात् शेष रहे हुए स्थिति और अनुभागोंके समानरूपसे विद्यमान रहने पर और प्रकृतियोंके अपना-अपना प्रशस्त और मप्रशस्तपनाके नहीं छोड़नेपर व्युच्छिन्न होनेवाली प्रकृतियों के विनाशमें विपर्यास कैसे हो सकता है ? अर्थात् किन्हीं जीवोंके पहले आठकषायोंके नष्ट हो जानेपर सोलहप्रकृतियोंका नाश होता है यह बात कसे सम्भव हो सकती है ? इसलिए दोनों प्रकार के वचनों में से कोई एकवचन ही सूत्ररूप हो सकता है, क्योंकि जिनेन्द्र अन्यथावादी नहीं होते अत: उनके वचनोंमें विरोध नहीं होना चाहिए । समाधान:-यह कहना सत्य है कि उनके वचनों में विरोध नहीं होना चाहिए, किन्तु ये जिनेन्द्रदेवके वचन न होकर इस युगके आचार्योंके वचन हैं अतः उन वचनोंमें विरोध होना सम्भव है। शडाः-तो फिर इस युग के आचार्यों द्वारा कहे गये सत्कर्मप्राभृत और कषाय प्राभृतको सूत्रपना कैसे प्राप्त हो सकता है ? समाधान:-नहीं, क्योंकि जिनका अर्थरूपसे तीर्थङ्करोंने प्रतिपादन किया है और गणधरदेवने जिनकी ग्रन्थरचना की ऐसे बारहअन आचार्य परम्परांसे निरन्तर चले आ रहे हैं, किन्तु कालप्रभावसे उत्तरोत्तर बुद्धि के क्षीण होनेपर और उन अंगों को धारण करनेवाले योग्यपात्रके अभाव में उत्तरोत्तर क्षीण होते हुए आ रहे हैं। इसलिये
SR No.090261
Book TitleLabdhisar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages644
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Karma, Philosophy, & Religion
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy