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लब्धिसार
[ गाथा १४०-१४२ अन्य स्थितियों को भी ग्रहण करता है ।" इस कथन द्वारा अन्तिम स्थितिकाण्डकका प्रमाण पृथक् दिखलाया गया जानना चाहिये। इसलिए अवस्थित गणश्रेरिणशीर्षसे उपरिम सर्व गोपुच्छायें और अवस्थितरूपसे किया गया समस्त गुण श्रेणिशीर्षस्थान इन सबको ग्रहण कर तथा अपूर्वकरण के प्रथम समयसे लेकर अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरणके कालसे विशेष अधिकरूपसे रचित पुराने म.गणिशीर्षके उपरिम भागमें अन्तर्मुहर्तप्रमाण स्थितियोंको ग्रहणकर अन्तिम स्थितिकाण्डकको घात के लिए ग्रहण करता है'।
___ सम्यक्त्या प्रकृति के अन्तिमकाण्डकको प्रथमफालोके प्रथम समयसे लेकर उसके द्विचरमफालोके पतनसमय पर्यन्त उस काण्डकोत्कोरणकालमें फालिद्रव्य व अपकृष्ट द्रव्य के निक्षेप विशेषका विधाम कहते है
सम्मत्तरिमखंडे दुचरिमफालिति सिरिण पवाभो। संपहियपुत्वगुणसेढीसीसे सीसे य चरिमम्हि ॥१४०॥ तत्थ असंखेज्जगुणं असंखगुणहीणयं विसेसूर्ण । संखातीदगुणणं विसेसहीणं च दत्तिकमो ॥१४१॥ मोक्कट्टिद बहुभागे पढमे सेसेक्कभागबहुभागे । विदिए पव्वेवि सेसिगभागं तदिये जहा देदि ॥१४२॥
अर्थ-सम्यक्त्व प्रकृतिके अन्तिम स्थितिकाण्डककी द्विचरमफालि तक दीयमान द्रव्यके तीन पर्व (श्रेणियां) हैं । वर्तमान इस समयकी गणश्रेरिणशीर्ष तक, प्राचीन गणश्रेणिशीर्ष तक, अन्तिम स्थिति काण्डक के अन्त तक । प्रथम पर्व में अपकर्षित द्रव्यका असंख्यात बहुभाग असंख्यातग गणे क्रमसे दिया जाता है, उससे अनन्तर स्थिति में प्रसंख्यातगुणा हीन द्रव्य दिया जाता है । दूसरे पर्वमें शेष असंख्यातवें भागका असंख्यातबहुभाग द्रव्य विशेष हीन कमसे दिया जाता है, उससे अनन्तर स्थितिमें असंख्यातगणा हीन द्रव्य दिया जाता है। तृतीय पर्व में शेष एकभाग प्रमाण द्रव्य विशेष हीन क्रमसे दिया जाता है ।
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ज.ध. पु. १३ पृ.७१-७२-७३ ।