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लब्धिसार
[ गाथा २४९ लोभका असंक्रम यह दूसरा करण है। यहां गाथामें 'लोहस्स' ऐसा सामान्य निर्देश करने पर भी लोभसंज्वलनका ही ग्रहण करना चाहिए, क्योंकि ब्याख्यानसे विशेषकी प्रतिपत्ति होती है ऐसा न्याय है। इसलिये पहले आनुपूर्वीके बिना लोभसंज्वलनका भी शेष संज्वलन और पुरुषवेदमें प्रवृत्त होनेवाला संक्रम यहां अानपूर्वी संक्रमका प्रारम्भ होने पर प्रतिलोमसंक्रमका अभाव होनेसे रुक गया। यहां से लेकर लोभसंज्वलनका संक्रम नहीं ही होता, ऐसा ग्रहण करना नाहिये । यद्यपि प्रानुपूर्वीसंक्रमसे ही यह अर्थ उपलब्ध हो जाता है तथापि मन्दबुद्धिजनोंका अनुग्रह करनेके लिए पृथक् निर्देश किया, इसलिए पुनरुक्त दोष प्राप्त नहीं होता।
मोहनीयका एकस्थानीय बन्ध यह तीसरा करण है। इसका तात्पर्य-इससे पूर्व देशघाति द्विस्थानीयरूपसे मोहनीयका अनुभागबंध होता रहा, अब परिणामोंके माहात्म्यवश घटकर वह एक स्थानीय हो गया ऐसा यहां ग्रहण करना चाहिए । नपुसकबेदका प्रथम समय उपशामक यह चौथा करण यहांपर आरम्भ हुआ है, क्योंकि प्रथम आयुक्तकरण (उद्यतकरण) के द्वारा नपुसकवेदकी ही उपशामनक्रियामें यहांसे प्रवृत्ति देखी जाती है । छह प्रावलियोंके जाने पर उदीरणा इस पांचवें करण को यहां आरम्भ करता है । मोहनीयका एक स्थानीय उदय यह छठा करण है । इसका अर्थ-- पहले द्विस्थानीय देशघातिरूपसे प्रवृत्त हुआ मोहनीयकर्मका अनुभागउदय अन्तरकरणके अनन्तर ही एकस्थानीयरूपसे परिणत हो गया यह उक्त कथनका तात्पर्य है । 'मोहनीयकर्मका संख्यातवर्षप्रमाण स्थितिबन्ध' यह सातवां करण है। इसका अर्थ-पहले मोहनीयकर्मका जो स्थितिबन्ध असंख्यातवर्षप्रमाण होता रहा उसका इस समय काफी घटकर संख्यातहजार वर्षप्रमाणरूपसे अवस्थान होता है, परन्तु शेष कर्मोंका असंख्यात वर्षप्रमाण ही स्थितिबन्ध होता है, क्योंकि उनका अभी भी संख्यातवर्षप्रमाण स्थितिबंध प्रारम्भ नहीं हुआ है । इसप्रकार इन सातों करणोंका अन्तरकर चुकनेके प्रथम समयसे ही युगपत् प्रारम्भ होता है ।
छह श्रावलियोंके व्यतीत होनेपर उदीरणा होती है, इस करणका विशेष कथन इसप्रकार है-जैसे पहले सर्वत्र ही समयप्रबद्ध बन्धावलिके व्यतीत होने के बाद ही नियमसे उदीररणाके लिए शक्य रहता आया है उसप्रकार यहां शक्य नहीं है, किन्तु अन्तर किये जानेके प्रथम समयसे लेकर जो कर्मबंधते हैं मोहनीय या मोहनीयके प्रतिरिक्त अन्य ज्ञानावरणादिक वे कर्म छह आवलियोंके व्यतीत होनेके बाद उदीरणाके