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________________ गाथा २६८-२६६ ] लब्धिसार लिए उस स्थितिबन्धके समाप्त होने पर अपगतवेदी जीव अवेदभागके प्रथम समयमें अन्य स्थितिबन्धको प्रारम्भ करता हुआ संज्वलनोंके पूर्व के स्थितिबन्धसे अन्तर्मुहूर्तकम स्थितिबन्धको आरम्भ करता है, क्योंकि यहांसे लेकर संज्वलनोंके स्थितिवन्धका उत्तरोत्तर अपसरण अन्तर्मुहर्तप्रमाण होता है, परन्तु शेष कर्मोंका स्थितिबन्ध संख्यातगुणी हानिके क्रमसे बन्धको प्राप्त होता हुआ संख्यातहजार वर्षप्रमाण जानना चाहिए । अपगतवेदोके अन्य भी कार्य दो गाथाओंमें कहते हैंपढमावेदो तिविहं कोहे उबसमदि पुवपडमठिदी। समयाहिय आवलियं जाव य तत्काल टिदिबंधो ॥२६८॥ संजलणचउक्काणं मासचउक्कं तु सेसपयडीणं । वस्साणं संखेज्जसहस्साणि हवंति णिय मेण ॥२६॥ अर्थ-प्रथम समयवर्ती अपगतवेदी जीव तीनप्रकारके क्रोधको उपशमाता है। इनकी वही पुरानी प्रथम स्थिति होती है । (पूर्वस्थिति में) जब समय अधिक प्रावलीकाल शेष रह जाता है, उस समय स्थितिबन्ध नियमसे संज्वलन चतुष्कका चार मास और शेष कर्मोंका संख्यातहजार वर्षप्रमाण होता है । विशेषार्थ-पुरुषवेदके पुरातन सत्कर्म उपशान्त होने पर उसके नवकबन्धको यथोक्त क्रमसे उपशमाता हुअा उस अवस्था में ही तीनप्रकारके क्रोधको यहांसे उपशमाना आरम्भ करता है । पूर्व में अन्तर करते समय पुरुषवेदकी प्रथमस्थितिसे विशेष अधिक संज्वलनक्रोधकी प्रथम स्थिति स्थापित की थी, गलित होने से जितनी शेष बची वही यहां पर प्रवृत्त रहती है ! जिस प्रकार आगे मानादिककी उपशामना करते समय सवेदकके कालसे एक प्रावलि अधिक अपूर्व प्रथम स्थिति की जाती है उसप्रकार यहां पर तीन प्रकारके क्रोधको उपशमानेके लिए अपूर्व प्रथम स्थिति नहीं की जाती, किन्तु रची गई वही पुरातन प्रथमस्थिति तीनप्रकारके क्रोधको उपशमाने तक बिना प्रतिबन्धके प्रवत्त रहती है । प्रत्येक स्थितिबन्धके पूर्ण होने पर अन्य स्थितिबन्ध अन्तर्मुहूर्त हीन होता है । शेष कर्मोका स्थितिबन्ध संख्यातगुणा हीन होता है । २. क. पा. सुत्त पृ. ६६७-६८; ज. घ. पु. १३ पृ. २८६-२६० ।
SR No.090261
Book TitleLabdhisar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages644
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Karma, Philosophy, & Religion
File Size16 MB
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