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________________ गाथा २२६ ] क्षपणासार [ १६३ जिस सुख में अनन्तज्ञान-दर्शन-वीर्य-चारित्र प्रघान हैं जो अनुपरतवृत्ति अर्थात् विच्छिन्न वहीं होता, निरतिशय अर्थात् उस सुखसे बढ़कर कोई अतिशय नहीं है, प्रात्मासे उत्पन्न होता है, ऐसा अनन्तसुख अतीन्द्रिय और निष्प्रतिद्वन्द्व (विरोधरहित) है। किसी वादीको यह दृढ़निश्चय है कि सयोगकेवलोके असातावेदनीयका उदय होनेसे अनन्तसुख का अभाव और यह बात उल्लघन भी नहीं की जा सकती, क्योंकि सयोगकेवलोके कवलाहारवृत्ति पाई जाती है। इसके उत्तरमें आचार्य कहते हैं कि सयोगके वलीके असातावेदनीयके उदय में सहकारीकारणका अभाव होनेसे वह (उदय) अकिचिस्कर (व्यर्थ) है । जैसे सहकारीकारणके अभाव में परघातका उदय अकिंचित्कर है । अतः अनन्तज्ञान-दर्शन-वोर्य चारित्र व सुख परिणामी होने से सयोगकेवलो कवलाहार (भोजन) नहीं करते, जैसे सिद्ध परमेष्ठी अनन्त ज्ञान-दर्शन-वीर्य चारित्र व सुखपरिणामि होनेसे कवलाहार नहीं करते, क्योंकि सयोगके वली और सिद्धपरमेष्ठी इन दोनों के समस्त अन्तरायकर्म का पूर्णरूपसे क्षय हो जाने के कारण अनन्तवीर्य के द्वारा उपलक्षित अनन्तदान-लाभ-भोग व उपभोगलब्धिमें कोई विशेषता नहीं है । सयोगकेवलोके स्वरूपका निरूपण करनेवाली निम्नलिखित दो गाथाएं हैं "केवलणाणदिवायरकिरणकलापप्पणासियण्णाणो । णवकेवललधुग्गमसुजणिय परमप्पवयएसो ॥ असहायणाणदंसरण सहिओ इदि केवली हु जोएण । जुतो त्ति सजोगो इदि अरणाइ-णिणारिसे उत्तो' ॥" केवलज्ञानरूपी सूर्य की किरणों के समूहसे अज्ञानरूपी अन्धकार सर्वथा नष्ट हो गया है और जिसने नवकेवललब्धियोंके प्रगट होनेसे 'परमात्मा' इस संज्ञाको प्राप्त कर लिया है, यह इन्द्रियादिकी अपेक्षा न रखनेवाले असहायज्ञान व दर्शनसे युक्त होनेके कारण केवली, तीनों योगोंसे युक्त होने के कारण सयोगी और घातियाकोको जीत लेने अर्थात क्षय कर देनेसे जिन कहे जाते हैं ऐसा अनादिनिधन आर्ष में कहा गया है। १. धवल पु० १ पृष्ठ १६१-६२ । २. जयधवल मूल पृष्ठ २२७० ।
SR No.090261
Book TitleLabdhisar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages644
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Karma, Philosophy, & Religion
File Size16 MB
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