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क्षपणासार
[ गाया २२६ "तव वोविघ्नविलयेन समभवदनन्तवीर्यता । तत्र सकल भुवनाधिगमप्रभृति स्वशक्तिभिरवस्थितो भवानिति' ।"
हे भगवन् ! आपके वीर्यान्तराय कर्मका विलय हो जाने से अनन्त थीयं हो गया है । अपने वीर्य के द्वारा समस्तभुवन को जानने आदिरूप प्रवृत्तिमें अवस्थित है अर्थात आपका उपयोग किंचित् भी चलायमान नहीं होता। इसके द्वारा के वलीके आत्यन्तिक सुखका व्याख्यान हो जाता है, क्योंकि अनन्त ज्ञान-दर्शन-वीर्य उप हित सामर्थ्य वाले, वीतमोहस्वरूप, ज्ञान और वैराग्यकी अतिशय पराकाष्ठापर आरूढ़, परमनिर्वाण, लक्षणवाले, सुखकी आत्यन्तिक (अविनाशी) रूपसे उपलब्धि होती है | अतिशय ज्ञान व वैराग्यसे उत्पन्न वीतरागसुखसे अन्य किंचित् सुख नहीं । सरागसुख तो एकान्ततः दुःख ही है । कहै. जी है--
"सरं बाहासहियं विच्छिण्णं बंधकारणं विसमं । जं इदिएहिं लद्धतं सोक्खं दुक्खमेव सदा ॥ विरागहेतु प्रभवं न चेत्सुखं न नाम किचित्तदिति स्थितावयम् । स चेन्निमित्त स्फुटमेव वास्ति तत् त्वदन्यतस्सत्त्वयि येन केवलम् ।।"
जो सुख पांचों इन्द्रियों के द्वारा प्राप्त होता है वह परद्रव्यों की अपेक्षासे होता है कारण पराधीन है, क्षुधा-तृषा आदि अनेक रोगोंके कारण बाधासहित है, असाता. वेदनीयकर्मोदयके कारण नाशवान तथा अन्तरसहित है, देखे-सुने व अनुभव किये हुए भोगोंकी इच्छादि अनेक दुष्परिणामोंसे नरकति आदि अशुभकर्म बन्धते हैं जिनका उदय होनेपर नरकादि गतियों में जाकर नानाप्रकारके दुःख भोगने पड़ते हैं, हानिद्धि होने से एकसा नहीं रहता अतः विषम है इन पांच कारणोंसे यह सांसारिकसुख दु:ख. रूप ही है।
"विरागहेतुसे उत्पन्न हुआ सुख यदि सुख नहीं है तो निश्चय से कोई सूख है ही नहीं, ऐसा हमें निश्चय हो गया है, विराग हेतु निमित्त है यह स्पष्ट है । आपसे अर्थात् केवलीसे अन्य में वह हेतु नहीं है, क्योंकि यह हेतु केवल आपमें ही है।" इसलिए
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१. जयधवल मूल पृष्ठ २२६६ । २. प्रवचनसार गाथा ७६ ।