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________________ क्षपणासाय १४०] [ गापा १५८ विशेषार्थ- शङ्का-जैसे क्रोधको प्रथमसंग्रहकष्टिका वेदन करनेवाला चारों कषायोंको प्रथमकृष्टियोंका बन्ध करता है उसी प्रकार क्रोधको द्वितीयकृष्टि का वेदन करनेवाला क्या चारों ही कषायोंकी द्वितीयकृष्टियोंका बन्ध करता है ? समाधान--जिसकषायकी जिसकृष्टिका वेदन करता है अर्थात् प्रथम द्वितीय या तृतीयकृष्टिका बेदन करता है तो उस कषायकी उसी कृष्टि को बांधता है । वेद्यमान कषायके अतिरिक्त अन्य अधस्तनवर्ती कषायों की प्रथमसंग्रहकष्टि का बन्ध करता है, क्योंकि अन्यप्रकार असम्भव है। क्रोधकी द्वितीयकृष्टि का वेदन करने वाला क्रोधकी द्वितीय. कृष्टिका बन्ध करता है, किन्तु मान-माया व लोभकी प्रथमसंग्रहकष्टि का बन्ध करता है । इसीप्रकार उपरितनकृष्टियोंका वेदनकरने बालोंके भी लगा लेना चाहिए। 'माणतिय कोहत दिये मायालोहस्स तिय तिये सहिया। संखगुणं वेदिज्जे अंतरकिट्टी पदेसो य ॥१५८।५४६।। अर्थ-यहां संग्रहकृष्टियों में अवयवकृष्टियोंके द्रव्यका अल्पबहुत्व कहते हैं ~~~ मानकी तीन, क्रोधकी एक तृतीयकृष्टि तथा माया व लोभको तीन-तीन, इन संग्रहकृष्टियों में तो विशेष अधिक और वेद्यमान क्रोधकी द्वितीयकृष्टि में कृष्टियोंका और प्रदेशोंका संख्यातगुणाप्रमाण क्रमसे है। विशेषार्थ-क्रोधकी द्वितीयसंग्रहकृष्टिके वेदन करनेवाले जीवके ग्यारहसंग्रहकृष्टियोंका अल्पबहुत्य इसप्रकार है-कृष्टिवेदकके मानको प्रथम संग्नहकुष्टिको अवयवकष्टियां व प्रदेशाग्न अभव्योंसे अनन्तगुणे और सिद्धोंके अनन्तवेंभाग होते हुए भी सबसे अल्प है, क्योंकि स्तोकद्रव्यसे निर्वतित हुई है । मानकषायको द्वितीयसंग्रहकृष्टि में अंतर. कृष्टियां विशेष अधिक हैं । पल्यके असंख्यातवैभागका भाग देने पर जो लब्ध पावे उतनी अधिक है, क्योंकि स्वस्थानमें यह प्रतिभाग है । तृतीयसंग्रहकृष्टि भी उतनी ही अधिक है । मानको तृतीयसंग्रहकृष्टिसे क्रोधकषायकी तृतीयसंग्रहकृष्टि की अवयवकृष्टियां विशेष अधिक है । आवलिके असंख्यातवेंभागका भाग देने से जो लब्ध आवे उतनी अधिक है, क्योंकि पर १. क. पा० सुत्त पृष्ठ ८५७ सूत्र ११५७ । जयघवल मूल पृष्ठ २१८४ । २. जय ५० मूल पृष्ठ २१८४ । ३. क. पा० सुत्त पृष्ठ ८५७ सूत्र ११६३ से ११७४ । घ० पु० ६ पृष्ठ ३६०-६१ ।
SR No.090261
Book TitleLabdhisar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages644
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Karma, Philosophy, & Religion
File Size16 MB
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