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गाथा १६५ ]
लब्धिसार
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प्रतिपातस्थान सबसे अल्प हैं उनसे प्रतिपद्यमानस्थान असंख्यातगुणे हैं । उनसे अनुभवस्थान असंख्यात गुणे हैं। उनसे सभी चारित्रलब्धिस्थान विशेषाधिक हैं । विशेषाधिक होते हुए भी वे प्रतिपातस्थान और प्रतिपद्यमानस्थानोंका जितना प्रमाण है उतने अधिक हैं । जहाँ असंख्यातगुला कहा नहीं गुणाकार स्यातलोकप्रमाण है' । तीन प्रकारके प्रतिपातस्थानोंके जघन्य व उत्कृष्ट परिणामोंका तीव्रता-मन्दताकी अपेक्षा संदृष्टि द्वारा अल्पबहुत्व गाथा २०४ के अन्तमें बतलाया जावेगा ।
अथानन्तर प्रतिपद्यमान स्थानों का कथन करते हैंतत्तो पडिवज्जगया अज्जमिलिच्छे मिलेच्छज्जे य । कमसो अवरं अवरं वरं वरं होदि संखं वा ॥१५॥
अर्थ-प्रतिपातस्थानोंके ऊपर असंख्यातलोकप्रमाण प्रतिपद्यमान स्थान हैं । वे आर्य मनष्यका जघन्य, म्लेच्छ मनुष्य का जघन्य, म्लेच्छ मनुष्यका उत्कृष्ट, आर्य मनुष्यका उत्कृष्ट इस क्रमसे हैं ।
विशेषार्थ-भरत, ऐरावत और विदेहमें मध्यम खण्ड आर्यखण्ड है; वहांके निवासी मनुष्य प्रार्य हैं। मध्यम खण्डके अतिरिक्त शेष पांचखण्ड मलेच्छखंड हैं और बहांके निवासी मनुष्य मलेच्छ कहलाते हैं। उनमें धर्म-कर्मकी प्रवृत्ति असम्भव होनेसे म्लेच्छपनेकी उत्पत्ति बन जाती है ।
दिग्विजयमें प्रवृत्त हुए चक्रवर्तीको सेनाके साथ जो म्लेच्छ मध्यम अर्थात् आर्यखण्डमें आये हैं तथा चक्रवर्ती प्रादिके साथ जिन्होंने वैवाहिक सम्बन्ध किया है ऐसे म्लेच्छ राजाओंके संयमकी प्राप्ति में विरोधका प्रभाव हैं। अथवा उनको जो कन्याए चक्रवर्ती प्रादिके साथ विवाही गई उनके गर्भसे उत्पन्न हुई सन्तान मातृपक्षकी अपेक्षा स्वयं मलेच्छ है । इनके दीक्षाग्रह सम्भव है । इसलिये कुछ निषिद्ध नहीं है, क्योंकि इसप्रकारकी जातिवालोंके दीक्षाके योग्य होने में प्रतिषेध नहीं है । तीवमन्दताकी अपेक्षा अल्पबहुत्वका कथन गाथा २०४ के अन्तमें किया जावेगा।
१. ज.ध. पु. १३ पृ. १७६ ।