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प्रशुद्ध ११४ २३-२४ लब्ध में से एक माम ११५ ६ था उसको ११६ ६-७ उपरितन कृष्टि प्रमाण का ११६ १६ द्वितीयादि अधस्तन ११६ २० प्रमाण पश्चात्
अघस्तन व उपरितन मनभय प्रादि बर्तमान में उत्तर. नीचे की केवल . संप्रति
उदय कृष्टि में १२० २ अनुभाग वाली है । इसप्रकार
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लब्ध एक भाग है उसको उपरितन; कुष्टि प्रमाण का द्वितीयादि निचली प्रमाण है । पश्चात् निचली अनुभय कृष्टि नादि बर्तमान उत्तर. नीचे की कृष्टि केवल साम्प्रतिक उदय की उत्कृष्ट कृष्टि में अनुभाग वाली है। उससे दूसरे समय में बन्ध की जधन्य कृष्टि अनन्तगुणे हीन मनुभाग युक्त है। उससे उसी समय में जघन्य उदय कृष्टि अनन्तगुरणे हीन अनुभागयुक्त । इसप्रकार द्वितीय तृतीय संग्रह कृष्टि वेदक के घात तथ्य से व्ययद्रव्य पौर एक भाग का नदुसुहाणेसु रची जाती हैं, क्योंकि बध्यमान द्रव्य एक समयबद्ध प्रमाण है । संक्रम्यमारण प्रदेशाग्र से असंख्यात गुणी अपूर्वकृष्टियां रची जाती हैं। क्योंकि [अर्थात अपकषित समस्त द्रव्य]
१२० ५ १२४ १६ १२५७ १२६ २२ १२७ १०
द्वितीयसंग्रवकृष्टिवेदक के घातक द्रव्य से व्यय और एक भाग के चदुसट्ठाणेतु रची जाती हैं, क्योंकि
अर्थात् अपापित समस्त द्रव्य
जो
१२९ १२९ १२९ १३०
१३० १३०
रची माती हैं उससे "इदरारणाम कृष्टिबेदककाल की प्रथमसमय में निर्वय॑मान चरमकृष्टि में निर्वतित
जघन्य कृष्टि के प्रथम समय में २० उसके आने ७ पूर्व कृष्टि में से १५ अर्थात प्रथम १९-२१ प्रघम समय में विनष्ट कृष्टियों से
रहित शेष बची हुई कुष्टियों के
रची जाती हैं। 'इदराणं कृष्टिवेदककाल में प्रथम समय में उस प्रदेशाग्र के द्वारा निर्वत्यमान चरमकृष्टि के जघन्य अर्थात् प्रथम कृष्टि में उसके मागे पूर्व संग्रहकृष्टि में से अर्थात् पल्योपम के प्रथम द्वितीय समय में असंख्यात गुणीहीन कृष्टियों का नाश करता है। क्योंकि पाते गये अनुभाग के बाद शेष रहे
१३० १३१ १३१ १६२