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[ गाथा २६६
चयको आदिरूप स्थापित करना, क्योंकि द्वितीयकृष्टिमें एक चय देना है । एक चय उत्तर ( प्रागे) स्थापित करना; क्योंकि, तृतीयादि कृष्टियों में क्रमशः एक-एक चय अधिक देना है । तथा एककम पूर्वकृष्टि प्रमाण गच्छ स्थापित करना चाहिए, क्योंकि प्रथम कृष्टि में चय नहीं मिलाना है । ऐसे स्थापित करके “पदमेगेग विहीण" इत्यादि श्रेणिव्यवहाररूप गणितसूत्र से एक कम गच्छको दो का भाग देकर, उसको ( लब्धको) उत्तरसे ( जो कि एक चयरूप है, उससे ) गुणा करके उसमें प्रभव अर्थात् आदिके एक चयको मिलानेपर तथा फिर गच्छसे गुणा करने पर चयधन प्राप्त होता है । अंकसंदृष्टि की अपेक्षा -- जैसे एक कम कृष्टिप्रमाण गच्छ ७, इसमें से एक घटाने पर छः आये । ६ में २ का भाग देनेपर ३ आये । इसे चय ( १६ ) से गुणा करनेपर ४८ प्राये । इसमें प्रभव (एक चय यानी १६ ) को मिलाने पर ६४, पुनः इसको गच्छ ( ७ ) से गुणा करने पर ४४८ वयधन होता है । इस विधानसे जो प्रमाण द्यावे उतना अधस्तन शीर्ष विशेषद्रव्य जानना' । अब जो पूर्वकृष्टि में से प्रथमकृष्टिका प्रमाण था उसीके समान
१. इसके ( पूर्व ॠष्टिके) नीचे अपूर्वकृष्टिकी रचना करता है वे ४ हैं तथा
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तुल्य-तुल्य ही हैं अर्थात् २५६ - २५६ परमाणु प्रमाण हैं अतः द्वितीय समय में श्रधस्तन कृष्टिद्रव्य २५६४४८१०२४ हुआ; तब संदृष्टि इसप्रकार होगी
चरमपूर्वकृष्टि
युक्त हैं । अधस्तनशीषं विशेष द्रव्य से प्रथमसमयकृत पूर्व कृष्टियां जो
कृष्टियां समयकृत अपूर्व
द्वितीय -
२५६
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लब्धिसार
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-प्रथमपूर्वकृष्टि
चरम अपूर्वकृष्टि
प्रथम प्रपूर्वकष्टि ।
अपूर्व समपट्टिका
द्रव्य