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गाया १२७ ॥ लब्धिसार
[ ११७ इन तीनों प्रकृतियोंका सदृशं स्थितिकाण्डक होता था, किन्तु सबसे पहले विनाशको प्राप्त होनेवाली मिथ्यात्वप्रकृतिका इस स्थानपर विशेष घात होता है इसमें कोई विरोध नहीं है।
मिथ्यात्वके अन्तिमकाण्डक की अन्तिमफालीका द्रव्य सर्वसंक्रमण द्वारा संक्रान्त होनेपर सम्यक्त्व और सम्यन्मिथ्यात्वका शेष स्थितिसत्कर्मके असंख्यात बहुभागको घात करनेवाले स्थितिकाण्डक होते हैं । इसप्रकार संख्यातहजार स्थितिकांडकों के व्यतीत होनेपर सम्यग्मिथ्यात्वके उदयावलीके बाहर स्थित समस्त द्रव्यका कांडकघात द्वारा ग्रहण होता है तथा मिश्र (सम्य ग्मिथ्यात्व) प्रकृतिको मात्र उच्छिष्टावलिप्रमारा स्थिति सत्कर्म शेष रह जाता है । उस समय सम्यक्त्वकी आठवर्षप्रमाण स्थिति शेष रहती है, शेष सर्वस्थितियां स्थितिकाण्डकरूप से घातको प्राप्त हो चुकी हैं ।
मिथ्यात्वके अन्तिमकाण्डकको अन्तिमफालिका पतन होने पर मिथ्यात्वका जघन्य स्थितिसंक्रम होता है, क्योंकि मिथ्यात्वका इससे जघन्य अन्य स्थिति संक्रम नहीं पामा पला। तर यी वा स्वका उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम होता है, क्योंकि मिथ्यात्व के समस्तद्रव्यका सर्वसंक्रम करनेवाले जीवके उत्कृष्ट प्रदेश संक्रनकी व्यवस्था बन जाती है । इतनी विशेषता है कि गुगित कर्माशिक नारक भवसे आकर अतिशीत्र पदुम पर्यायको ग्रहणकर दर्शनमोहक़ी क्षपणा करनेवाला होना चाहिये, अन्यथा अजधन्य-अनुत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम होता है तथा उसी समय सम्यन्मिथ्यात्वका उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म उत्पन्न होता है, क्योंकि मिथ्यात्वका कुछ कम डेढगुणहानि गुणित समयप्रबद्धप्रमाण समस्त द्रव्य उसरूपसे परिणम जाता है। इसलिये मिथ्यात्व के जघन्यस्थितिसंक्रमके साथ होनेवाले उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रमके प्रतिग्रहवश उसी समय सम्यग्मिथ्यात्व का उत्कृष्ट प्रदेश सत्कर्म होता है, यह सिद्ध हो जाता है । तदनन्तर मिथ्यात्व दो समयकम एक प्रावलि प्रमाण स्थितियोंको क्रमसे गलाकर जिससमय दो समयमात्र कालवाली स्थिति शेष रहती है, उससमय मिथ्यात्वका जघन्य स्थितिसत्कर्म होता है, क्योंकि मिथ्यात्वका इससे जघन्य स्थितिसत्कर्म उपलब्ध नहीं होता । जिस समय
१. ज. प. पु. पृ. ४८-५०। २. ज. ध. पु. १३ पृ. ५३। ३. ज. ध. पु. १३ पृ. ५४ ।।