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________________ [१२७ पाथा १८४.६६ 1 सपणासार अर्थ-सूक्ष्मसाम्परायिककृष्टिकारक लोभको द्वितीय व तृतीयसंग्रहकृष्टियोंमें से असंख्यातवेंभाग प्रदेशाग्नका अपकर्षणकरके संक्रमण के द्वारा सूक्ष्मसाम्परायिककृष्टिरूप संक्रमित करता है। इसप्रकार संक्रमण करनेवाला तृतीयबादरसाम्परायिक कृष्टि से अपकर्षणकरके जो प्रदेशाग्र सूक्ष्मसाम्परायिक कृष्टिरूप संक्रमण करता है वे प्रदेशाग्र थोड़े हैं, उससे संख्यातगुणे प्रदेशाग्र लोभकी द्वितीयसंग्रहकुष्टिसे तृतीयसंग्रह कृष्टि में संक्रमण करता है, क्योंकि लोभको तृतीयसंग्रह कृष्टिके प्रदेशाग्रसे द्वितीयसंग्रहकृष्टिके प्रदेशाग्र संख्यातगुणे हैं। लोभको द्वितीयसंग्रहकृष्टिसे जो प्रदेशाग्र तृतीयसंग्रहकुष्टिरूप संक्रमित किये जाते हैं उनसे संख्यात गुणे प्रदेशाग्र द्वितीयसंग्रहकृष्टि से सूक्ष्म माम्परायिकरूप संक्रामित होते हैं, क्योंकि लोभके तृतीयसंग्रहकष्टिआयामसे सूक्ष्म साम्प रायिककृष्टिका आयाम संख्यातगुमा है और आयामके अनुसार ही प्रदेशात्रों की संख्याका प्रमाण जानना चाहिए । प्रतिमाह्य के अल्पबहुत्वके अनुसार 'पडिमेज्झमाण' अर्थात् प्रतिग्राह संक्रमणद्रव्यका अल्पबहुत्व कहना चाहिए । 'किट्टीवेदगपडमे कोहस्स य विदियदो दु तदियादो। माणस्त य पडमगदोमाणतियादो दु मायपढमगदो॥१८४॥५७५॥ मायतियादो लोभस्सादिगदो लोभपढमदो विदियं । तदियं च गदा दव्या दसपदमद्धियकमा होति ।।१८५॥५७६।। 'कोहस्त य पढमादो माणादी कोहतदियविदियगदं । तत्तो संस्लेजगुणं अहियं संखेजसंगुणियं ॥ १८६॥तियलं ५७७।। अर्थ-कृष्टिवेदकके प्रथमसमयमें क्रोधको द्वितीयकृष्टि से जो प्रदेशाग्र मानकी प्रथमसंग्रहकृष्टि में संक्रमण होता है वह स्तोक है। क्रोध का तृतीयसंग्रहकृष्टि से जो प्रदेशाग्र मानकी प्रथम संग्रहकृष्टि में संक्रमित होता है वह विशेष अधिक है, मानको प्रथमसंग्रह कृष्टि से मायाको प्रथमसग्रहष्टि में विशेष अधिक प्रदेशाग्रका संक्रमण होता है, १. जयधवल मूल पृष्ठ २२०३ । २. क. पा. सुत्त पृष्ठ १६७-६८ सूत्र १२८० से १२०६ । धवल पु० ६ पृष्ठ ४०१ । ३. क. पा० सुत्त पृष्ट ८६ सूत्र १२६० से १२६२ । धवल पु० ६ पृष्ठ ४०१-४०२ ।
SR No.090261
Book TitleLabdhisar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages644
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Karma, Philosophy, & Religion
File Size16 MB
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