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क्षपणासार
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[ गाथा २०७-२०॥ 'णामदुगे वेदणीये अडवारमुहत्तयं तिघादीणं । अंतोमुद्दुत्तमेत्तं ठिदिबंधो चरिम सुहमम्हि ॥२०७॥५६८।।
अर्थ- सूक्ष्म साम्परायके चरमसमयमें नाम व गोत्रकर्मका आठ मुहूर्तप्रमाण, वेदनीयकर्मका बारह मुहूर्तप्रमाण तथा तोन चातियाकर्मोका अन्तर्मुहूर्तप्रमाण स्थितिबन्ध होता है।
'तिगह घादीणं ठिदिसंतो अंतोमुहत्तमेत्तं तु । तिहमघादीणं ठिदिसंतमसंखेज्जवस्ताणि ॥२०८॥५६६।।
अर्थ--सूक्ष्मसाम्परायके चरमसमयमें तोनघातिया (ज्ञानावरण, दर्शनावरण व अन्तराय) कोका स्थिति सत्व अन्तमुहर्तप्रमाण तथा तीन अघातिया (वेदनीय, नाम व गोत्र) कोंकर स्थितिसत्त्व असंख्यातवर्षप्रमाण है।
विशेषार्थ-धातियाक के स्थितिसत्त्यका प्रमाण अन्तमुहर्त कहा गया है वह क्षीणकषायगुणस्थानके काल से संख्यातगुणा है । मोहनीयकर्मका स्थितिसत्त्व क्षयके सम्मुख है अर्थात् पर्यायाथिक तयको अपेक्षासे यद्यपि इस समय विद्यमान है, तथापि उपपादानुच्छेदकी अपेक्षा नष्ट ही हो गया है । इसप्रकार क्षयके सम्मुख लोभको संग्रहकृष्टिका अनुभव करता है, सो सूक्ष्मसाम्परायचारित्रसे युक्त सूक्ष्मसाम्परायिकगुणस्थानवर्ती जीव है ऐसा जानना । इसप्रकार कृष्टिवेदनाधिकार पूर्ण हुआ।
से काले सो खीणकसामो ठिदिरसगबंधपरिहीणो। सम्मत्तडवस्सं वा गुणसेढी दिज्ज दिस्सं च ॥२०६॥६००॥
प्रर्थ--जो अनन्तर अगले समय में क्षीणकषाय हो जाता है उसके स्थितिबन्ध व अनुभागबन्ध नहीं होता है । दर्शनमोहकी क्षपणामें जब सम्यक्त्वप्रकृतिको आठवर्ष.
१. क. पा. सुत्त पृष्ठ ८६४ सूत्र १५५७-१५५८ । धवल पु. ६ पृष्ट ४१०-११ । जयधरल मूल
पृष्ठ २२६३ । २. क. पा. सुत्त पृष्ठ ८१४ सूत्र १५५६-६० । धवल पु० ६ पृष्ठ ४०७ । ज. घ. मूल पृष्ठ २२६३ । ३. क. पा० सुस पृष्ठ ८९४ सूत्र १५६२ । धवल पु. ६ पृष्ठ ४११ ।