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माथा २०६]
क्षपणासार
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प्रमाण स्थिति रह जाती है तब जिसप्रकार गुणश्रेणोनिर्जरा, देय द्रव्य व दृश्यमानद्रव्य कथन है उसीप्रकार यहां भी जानना ।
विशेषार्थ-चारित्रमोहनीयकर्मका क्षय होनेके अनन्तरवर्ती समयमें द्रव्य व भावकषायसमूहले उपरम (हित) हो जावेसे पाय संज्ञाको प्राप्त होता है और यथाख्यातविहार शुद्धिसंयमी हो जाता है। प्रथमसमयमें निम्रन्थ वीतरागगुणस्थानको प्रास कर लेता है । क्षीणकषायगुणस्थानका लक्षण इसप्रकार कहा है
हिस्से सखोणमोहो फलिहामलभायणुदय समचित्तो।
खोणकसाओ भण्णदि णिग्गंथो वीयराएहिं ॥'
मोहकर्मके नि:शेष क्षीण हो जानेसे जिसका चित्त स्फटिकके निर्मलभाजनमें रखे हुए सलोलके समान स्वच्छ हो गया है ऐसे निग्रंन्थसाधुको वीतरागिर्योने क्षोणकषायसंयत कहा है।
उस क्षीणकषायावस्थामें सर्वकर्मों के स्थिति, अनुभाग व प्रदेशका प्रबन्धक हो जाता है। स्थिति व अनुभागबन्धका कारण कषाय है, क्योंकि कषायका स्थिति आदि बन्धके साथ अन्वय-व्यतिरेक है । संश्लेषरूप कषायपरिणामों के अपगत (व्यतीत) हो जानेसे लोणकषायो जीवके स्थितिमादि बन्ध सम्भव नहीं हैं। प्रकृतिबन्धका कारण योग है जो शीणकषायी जीवके भी सम्भव है इसलिए प्रकृतिबन्धका निषेध नहीं किया गया । सातावेदनीयके अतिरिक्त अन्य प्रकृतियोंका बन्ध क्षीणकषायगुणस्थातमें नहीं होता, क्योंकि सूखे भाजनपर धूलके समान बन्धके अनन्तरसमयमें गल जाती हैं अर्थात् अकर्मभावको प्राप्त हो जाती है। स्थिति और अनुभागबन्धको कारणभूत कषायकी संगतिका अभाव होनेसे दूसरे समय में ढक (निर्जीर्ण) हो जाता है, ईर्यापथ बन्धकी निर्जराका इसप्रकार उपदेश है। जहाँपर ईर्यापथ कर्मवर्गणाओंके लक्षणका विस्तारपूर्वक कथन है वहांसे विस्तार जानना चाहिए । क्षोणकषायसे अधस्तनवर्ती गुणस्थानों
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१. गोम्प्रटसार जीवकाण्ड गाथा ६२ । २, नयघवलाकारने क्षीणकषायवर्ती को प्रदेशका भी अबन्धक कहा है और योगसे मात्र प्रकृतिबन्ध
कहा है, किन्तु गो० क. माथा २५७ में योगको प्रकृति व प्रदेश दोनों के बन्धका कारण कहा है। ३. धवल पु० १३ पृष्ठ ४७ से ५४ तक ।