SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 508
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 149 गाथा २३६ ] [ २०१ और अप्रशस्तप्रकृतियों के शेष अनुभाग के अनन्त बहुभागका घात कपाटसमुद्घात में होता है। यहां गुणश्रेणी रुपणा आवर्जितकरण में कथित गुणश्रेणिप्ररूपणा के समान ही है । क्षपणासार केवली समुद्घातके तृतीयसमय में मंथ ( प्रतर ) समुद्धात होता है, जिसके द्वारा कर्मो का मथन किया जावे वह मन्थ है । अघातिया कर्मोकी स्थिति व अनुभागका हनन होता है और श्रात्मप्रदेशोंकी अवस्थाविशेष ( प्रतररूपसे फैल जाते हैं) को प्रतरसंज्ञावाला मन्थ कहा गया है । इस अवस्थाविशेष में वर्तन करनेवाले केवलीके जीवप्रदेश चारों ओर प्रतराकारसे फैल जाते हैं, वातवलयोंके अतिरिक्त शेष समस्त लोकाकाशके प्रदेशों में व्याप्त हो जाते हैं, क्योंकि इस अवस्था में वातवलयों में केवलोके जीवप्रदेशों के संचारका प्रभावरूप स्वभाव है, जीवप्रदेशोंकी ऐसी अवस्थाको प्रतरसंज्ञा आगमरुढ़िके बलसे जानना । इस अवस्था में केवली कामंणकाययोगी व अनाहारक हो जाते हैं। मूलशरीर के अवलम्बनसे उत्पन्न जीवावे परिमन कसम है मोंकि शरीर के तत्प्रायोग्य नोकर्म पुद्गलपिण्डके ग्रहणका अभाव है । स्थितिसत्कर्मके असंख्यात बहुभाग और अप्रशस्तप्रकृतियों के अनुभाग सत्कर्म के अनन्तबहुभागका पूर्वके समान हो घात होता है और उसीप्रकार प्रदेश निर्जरा भी होती है । स्वस्थानके वलीको गुणश्रेणिनिर्जरासे असंख्यातगुणी गुणश्रेणी निर्जरा आवर्जितकरण आदि अवस्थामों में होती है । तदनन्तर चतुर्थ समय में लोकपूरणसमुदुघात होता है । वातवलय से अविरुद्ध लोकाकाशके प्रदेशों में जीवप्रदेश प्रवेशकर जानेपर जीवप्रदेश व लोकाकाशके प्रदेशों में समानता होने से सम्पूर्ण लोकाकाशमें जीवप्रदेश निरन्तर ( अन्तररहित) व्याप्त हो जाते है इसलिए 'लोकपूरण' संज्ञावाला यह चतुर्थ केवलसमुदुधात है । यहांपर भी काण काययोग व अनाहारकअवस्था होती है, क्योंकि शरीरनिर्वृतिके लिए प्रदारिकरूप नोकर्मणाओंका निरोध देखा जाता है । लोकपूरणसमुद्घात में वर्तन करनेवाले केवलोके लोकप्रमाण समस्त जीय प्रदेशों में वृद्धि हानिके बिना योग अविभागप्रतिच्छेद सदृश होकर परिणमन करते हैं इसलिए सर्वजीवप्रदेशों में एक योगवर्गणा हो जाती है अर्थात् सर्वजीय प्रदेशों में समान योग होता है । सर्व जीवप्रदेशों में सदृशयोगशक्तिके अतिरिक्त विसदृशयोग शक्तिकी अनुपलब्धि है । सूक्ष्मनिगोदिया जीवके जघन्ययोगसे असंख्यातगुणा तत्प्रायोग्य मध्यमयोगस्वरूप वह सदृशयोग परिणाम होता है । लोकपूरण समुद्घात में असंख्यात बहुभाग प्रमाण स्थितिका घात हो जानेपर शेषस्थिति अन्तर्मुहूर्त प्रमाण रह
SR No.090261
Book TitleLabdhisar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages644
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Karma, Philosophy, & Religion
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy