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________________ के लिए पू. महाराज श्री को प्रेरणा मिली जिसे मैंने सिरोवाय दिया। इन दिनों में उस (गोम्मटसार जीयकाण्ड को) टोका को लिख रहा हूं। ___ सन् १९३५ तदनुसार वि. सं. १६६१ में विद्वज्जगत् के सुप्रसिद्ध विद्वान् स्व. माणिकचन्द्रजी कोन्देय 'न्यायाचार्य' दस लक्षण पर्व पर सहारनपुर पधारे थे। तत्त्वार्थसूत्र की व्याख्या करते हुए उन्होंने उपशम सम्यग्दर्शन का स्वरूप बताया किन्तु ज्ञान के भल्पक्षयोपशमवश उनके द्वारा मागमानुमोदित वह व्याख्या मैं समझ नहीं पाया । हां! इतमा अवश्य समझ सका कि सम्यग्दर्शन की प्राप्ति से ही मेरा भात्म हित हो सकता है। शास्त्र प्रवचन के अनन्तर मैंने पंडितजी से पूछा कि सम्बग्दर्शन की प्राप्ति का उपाय और उसका स्वरूप जैन दर्शन के किस ग्रन्थ में विस्तार पूर्वक मिल सकता है ? मेरे इस प्रश्न का सहजिक उत्तर देते हुए पंडितजी बोले प्राचार्य श्री नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती विरचित 'लब्धिसार-क्षपणासार' ग्रन्थ में सम्यग्दर्शन की विस्तृत प्ररूपणा की गई है। उस समय मुझे ऐसा लगा जैसे 'अंधे को दो प्रांखें ही मिल गई हों उक्ति के अनुसार मुझं निधि प्राप्ति ही हुई हो। सहारनपुर में उन दिनों मुद्रित प्रथ उपलब्ध नहीं थे। मतः हस्तलिखित ब्धसार-क्षपणासार स स्वाध्याय प्रारम्भ किया। कई दिनों तक विषय स्पष्ट नहीं हमा फिर भी मन में निराशा नहीं हुई और बार-बार के प्रयत्न से सफलता मिली। कछ दिनों के पश्चात तो वकालात का कार्य छोड़कर जैन सिद्धान्त के विभिन्न ग्रंथों का (धवल-जयधवल-महाधवल, गोम्मटसार-समयसारप्रवचनसार-त्रिलोकसारादि) अपने लघुभ्राता नेमिचन्द्र बकोल के साथ स्वाध्याय किया। मुझे अत्यन्त हर्ष है कि जिस ग्रन्थ के अध्ययन से मुझे सम्यग्दर्शन के सम्बन्ध में विस्तृत जानकारी मिली उसी ग्रन्थ की टीका लिखने का जीवन के अन्तिम चरणों में सुअवसर मिला। यह मत्यन्त सुखद संयोग है। पू. आ. क. श्री श्रुतसागरजी महाराज का अत्यन्त कृतज्ञहूं कि जिन्होने टीका की याचना को उपयोग पूर्वक श्रवणकर यथायोग्य सुझाव दिये। उन्हीं की प्रेरणा एवं प्राशीबदि से मैं इस कार्य को करने में सक्षम हो सका हूं। प्रागे भी इसी प्रकार जिनवाणी सेवा में मेरा जीवन व्यतीत हो इसी मंगल भावना से विराम लेता हूं। भाशा है अ. लाडमलजी के सप्रयत्न से इस टीका का शीघ्र प्रकाशन होगा। दीपावली वि.सं. २०३६ निवाई रतनचन्द जैन मुख्तार सहारनपुर (उ.प्र.) विशेष : प्रम्प को यह प्रस्तावना स्व. मुख्तार साहब प्राय की नवीन टीका को वाचना के अवसर पर जब निवाई चातुर्मास में माये ये तभी वाचना के धनम्तर ही लिख गये थे। एक वर्ष के पश्चात उनका स्वर्गवास ही हो गया। प्रत्यन्त खेव रहा कि इस प्राय के प्रकाशन को नहीं देशसके। चमके द्वारा लिखित उसो प्रस्तावना को अब अन्य प्रकाशन साप हा प्रकाशित किया जा रहा है। (प्रकाशाकीय टिप्पण)
SR No.090261
Book TitleLabdhisar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages644
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Karma, Philosophy, & Religion
File Size16 MB
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