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क्षपणासार
[गाथा ३१६ एक-एक निषेकरूपसे उदयमान स्पर्धकों के निषेकोंमें स्तुविक संक्रमण द्वारा तद्रप परि- णमन कर' उदय होंगे । उसी प्रथम समयमें मोहका प्रानुपूर्वी संक्रम भी नष्ट हुआ । इतना विशेष जानना कि यद्यपि अप्रत्याख्यानावरण, प्रत्याख्यानावरण लोभका बध्यमान संज्वलनलोभमें हो संक्रमण होना प्रारम्भ हुअा, तथापि इसमें प्रानुपूर्वी संक्रमको विवक्षा नहीं है। तथा सञ्ज्वलन लोभके कोई बध्यमान स्वजातीय प्रकृति नहीं है, अतः व्यक्ति की अपेक्षा अभी भो आनुपूर्वी संक्रम है ।' शक्तिकी अपेक्षा संज्वलनलोभके अनानुपूर्वी से अन्य प्रकृति में संक्रम होनेका परिणाम हुमा है। सूक्ष्म साम्पराय गुरगस्थानमें मोहके बन्धके अभावसे संक्रम सम्भव नहीं है। स्पर्धकरूप उदित बादरलोभ का वेदन करता हुआ यह प्रथमसमयवर्ती अनिवृत्तिकरण बादर साम्पराय मुनि संज्वलन लोभके द्रव्यका अपकर्षण करके उदयरूप समयसे लेकर पावली से अधिक बादरलोभ वेदककाल [ अवरोहकके लोभवेदक कालका साधिक दो बटे तीन भाग ] प्रमाण गुणश्रेणो प्राधाममें असंख्यातगुणे क्रमसे निक्षिप्त करता है। प्रत्याख्यान तथा अप्रत्याख्यान लोभके द्रव्यको उदयावलोसे बाह्य पूर्वोक्त गुणश्रेणि पायाममें असंख्यात. गुणे क्रमसे निक्षिप्त करता है। तथा अनिवृत्तिकरणकालके दितीयादि समयमें असंख्यातगुणा हीन – (घटता) क्रम लिये द्रव्यका अपकर्षण करके अवस्थित गुणश्रेणी-आयाम में पूर्वोक्त प्रकार निक्षेपण करता है। अन्य कर्मों को गलितावशेषगुणश्रेणी जाननी चाहिए।
मोदरपादरपढमे लोहस्संतो मुहुत्तियो बंधो ।
दुदिणंतो घादितियं चउवस्संतो अघादितियं ॥३१६॥
अर्थः- सूक्ष्मसाम्परायसे उतरने पर बादर लोभके प्रथमसमयमें संज्वलनलोभका स्थितिबन्ध अन्तर्मुहूर्तप्रमाण, ज्ञानाबरण, दर्शनावरण और अन्तराय इन तीन
१. क्योंकि स्पधकों के वेदन होनेपर उदयावली में प्रविष्ट कृष्टियोंका भी स्पर्धकभावसे उदय-विपाकको
छोड़कर प्रकारान्तरपने का सम्भव नहीं पाया जाता है । जयधवल मूल १८६६ २. गवरि जाप्रो उदयावलियम्भतरामोतानो स्थिवुक्कसंफमेण फड्डासु विपच्चहिति । ज.ध, १८६६ ३. वत्तोए पुरण प्रज्जवि प्राणुपुब्बिसंकमो चेव । ज० धवल १८६६ ४. लोभं परिव्यय प्रन्याषा प्रकृतीनो बन्धो अस्मिन्नवसरे नास्ति । जयधवल १८९७