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________________ २३४ ] लब्धिसार [ गाथा २६० उतना' (पूर्व अवस्थित द्रव्य) कम करके पुनः एक गोपुच्छ विशेष' और कम करके प्रदेश विन्यास होता है, अन्यथा कृष्टियोंमें एक गोपुच्छश्रेणिकी उत्पत्ति नहीं हो सकती। इससे मागे प्रोष उत्कृष्ट कष्टिकी अपेक्षा प्रथम समयमें रची गई कुष्टियों में अन्तिमकृष्टिके प्राप्त होने तक सर्वत्र अनन्तवांभागप्रमाण विशेषहीन विन्यास होता है। पुनः उससे जघन्य स्पर्धककी प्रादिकी वगरणा में अनन्तगुणा हीन प्रदेशपुञ्ज दिया जाता है । उससे उत्कृष्ट स्पर्धकसे जघन्य अतिस्थापना प्रमाण स्पर्धक नीचे सरककर स्थित हुए वहां के स्पर्धकही उत्कृष्ट दर्गणारे साज होतक असन्तान भाग प्रमाण विशेष हीन प्रदेश बिन्यास होता है। प्रदेश विन्यासका जैसा क्रम दूसरे समय में कहा गया है वैसा शेष समयोंमें जानना चाहिए, क्योंकि दीयमान द्रव्य अर्थात दिये जाने वाले द्रव्यकी यह श्रेणिप्ररूषणा है । दृश्यमान द्रव्यको श्रेणीकी अपेक्षा-प्रथमकृष्टि में दृश्यमान प्रदेशज बहुत है, उससे दूसरीमें अनन्तवां भागप्रमाण विशेष हीन है। इसप्रकार अन्तिमकृष्टि तक उत्तरोत्तर विशेष हीन है । स्पर्धकको वर्गणानोंमें भी दृश्यमान द्रव्य विशेष हीन ही होता है । अब कृष्टियोंका शक्ति सम्बन्धी अल्पबहुत्व कहते हैंप्रवरादो चरिमेत्ति य अणंतगुणिदक्कमा सत्तीदो। इदि किट्टीकरणद्धा बादरलोहस्स विदियद्धं ॥२६॥ अर्थ-अनुभागकी अपेक्षा जघन्य अपूर्वकृष्टिके अविभाग प्रतिच्छेदोंसे द्वितीय. कृष्टिके अविभाग प्रतिच्छेद अनन्तगुणे हैं । इसी प्रकार अनन्तगुरिणत क्रम पूर्वकृष्टिको अन्तिम कृष्टितक ले जाना चाहिए। इसप्रकार बादरलोभ वेदक कालका द्वितीया कृष्टिकरणकाल व्यतीत होता है। विशेषार्थ- जघन्यकृष्टि सदृश घनवाले परमाणुओं में से एक परमाणुके अविभाग प्रतिच्छेदों को ग्रहणकर एक कृष्टि होती है, यह स्तोक है । दूसरी कृष्टिके अर्थात् दूसरी कृष्टिके एक परमाणु सम्बन्धी अविभागप्रतिच्छेद अनन्तगुणे हैं । इसप्रकार एकएक परमाणु को ग्रहणकर अनन्तगुणित क्रमसे अन्तिमकृष्टिके प्राप्त होने तक ले जाना १. अर्थात् अधस्तन कृष्टिद्रव्य । २. अर्थात् उभय द्रव्यविशेष । ३. ज. प. पु. १३ पृ. ३१०-३१४ ।
SR No.090261
Book TitleLabdhisar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages644
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Karma, Philosophy, & Religion
File Size16 MB
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