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क्षपणासार
! गाथा ३६६ कांडकोत्कोरण जानना और मोहनीयकर्मका अन्तर करते हुए अन्तिम अनुभाग काण्डकोत्कोरणकाल जानना (१)। इससे उत्कृष्ट अनुभाग काण्डकोत्कीरणकाल विशेष अधिक है सो यह भी सर्व कर्मोके आरोहक-अपूर्वकरण के प्रथमसमय में सम्भव है (२) । इससे सूक्ष्मसाम्परायकी अन्तिम अवस्था में पाया जानेवाला ज्ञानावरणादि कर्मोका जघन्य स्थितिकाण्डकोत्कीरणकाल व स्थितिबन्धकाल और अनिवृत्तिकरणकी अन्तिम अवस्थामें मोहनीयकर्मका जघन्य स्थितिबन्धकाल संख्यातगुणा' है तथा दोनों परस्पर समान हैं (३) । अनिवृत्तिकरणके अन्तिमसमयके पश्चात् मोहनीयकर्मका स्थितिबन्ध नहीं होता।
पडणजहएणढिदिवंधद्धा तह अंतरस्स करणद्धा। जेठिदिबंध ठिदीउक्कीरद्धा य अहियकमा ॥३६६॥
अर्थः- इससे गिरते हुए का जघन्य स्थितिबन्धकाल विशेष अधिक है (४) । इससे अन्तर करनेका विशेष अधिक है {५)। दासे उत्कृष्ट स्थितिबन्धकाल व उत्कृष्ट स्थितिकाण्डकोत्कीरणकाल दो तुल्य होकर विशेष अधिक हैं (६) ।
विशेषार्थः- उससे अवरोहक के सूक्ष्मसाम्परायमें ज्ञानावरणादि कर्मोका प्रथमस्थितिबन्ध और अवरोहकके अनिवृत्तिकरणमें मोहनीयकर्मका प्रथमस्थितिबन्ध विशेष अधिक है, क्योंकि चढ़नेवाले के स्थितिबन्ध कालसे उतरनेवालेका स्थितिबन्धकाल विशेष अधिक होता है, इसमें कारण संक्लेश परिणाम हैं । अवरोहकके सभी अवस्थानों में स्थितिघात व अनुभागधात नहीं होता । यदि होता है तो स्थितिबन्धकालके साथ स्थितिकाण्डोत्कीरणकालको भो कहना चाहिए और ऐसा नहीं, क्योंकि ऐसा अनुपदिष्ट है (४)। उससे अन्तरकरणका काल अर्थात् अन्तरकी फालियोंका उत्कीरणकाल तथा वहांपर होने वाला स्थितिकाण्डकोत्कीरणकाल व स्थितिबन्धकाल
१. इनका पूर्व वाले से अर्थात् उत्कृष्ट अनुभागकाण्डकोत्कोरण कालसे संख्यातगुणत्व असिद्ध भी नहीं
है, क्योंकि सवंजघन्य एक स्थितिकाण्डकोत्कीरणकालमें भी संख्यात सहस्र प्रमाण अनुभागखण्ड
के अस्तित्वके उपदेशके बल से इसकी सिद्धि हो जाती है । (ज. प. मूल पृ. १६२६) २. जयधवल मूल पृ० १९२६ । ३. जयधवल मूल पृ० १९२६, १६१३, १६३७ प्रादि ।