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________________ प्र. सः चूलिका ] लब्धिसार [६६ सम्मत्तपढमलंभी सस्दोवसमेण तह विय?ण । भजियो य अभिववं सम्बोधसमेश देसेण ।।२।। अर्थ- सम्यवत्व का प्रथम लाभ सर्वोपशम से ही होता है तथा विप्रकृष्ट जीव के द्वारा भी सम्यक्त्व का लाभ सर्वोपशम से ही होता है, किन्तु शीघ्र ही पुनः पुनः सम्यक्त्व को प्राप्त करने वाला जीव सर्वोपशम और देशोपशम से भजनीय है । विशेषार्थ-यह कषायपाहुड़ की १०४ वी गाथा है। अनादि मिथ्यादृष्टि जीव को जो सम्यक्त्व का प्रथम लाभ होता है वह सर्वोपशम से ही होता है, क्योंकि उसके अन्यप्रकार से सम्यक्त्व की प्राप्ति सम्भव नहीं है 1 तह थियण' मिथ्यात्व को प्राप्त हो जो वहत काल के पश्चात् सम्यक्त्व को प्राप्त करता है वह भी सर्वोपशम से ही प्राप्त करता है । इसका भावार्थ इस प्रकार है--सम्यक्त्व को ग्रहण कर पुनः मिथ्यात्व को प्राप्त होकर सम्यक्त्वप्रकृति और सम्यग्मिथ्यात्वप्रकृति की उद्वेलना कर पल्योपम के असंख्यातवेंभाग प्रमाण काल द्वारा या अर्द्ध पुद्गल परावर्तन काल द्वारा जो सम्यक्त्वको प्राप्त करता है वह भी सर्वोपशम से ही प्राप्त करता है। भजियम्यो य अभिक्ख' जो सम्यक्त्वसे पतित होता हुआ पुनः पुनः सम्यक्त्वग्रहण के अभिमुख होता है, वह सर्वोपशम से अथवा देशोपशमसे सम्यक्त्व को प्राप्त करता है, क्योंकि यदि वह वेदक प्रायोग्यकाल के भीतर ही सम्यक्त्व को प्राप्त करता है तो देशोपशम से, अन्यथा सर्वोपशमसे प्राप्त करता है । इसप्रकार वहां भजनीयपना देखा जाता है। तीनों (मिथ्यात्व, सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व) कर्म प्रकृतियों के उदयाभावका नाम सर्वोपशम है और सम्यक्त्वप्रकृति के देशघातिस्पर्धकों का उदय देशोपशम कहलाता है। मिच्छत्तवेदरणीय कम्मं उक्सामगस्स बोहब्ध । उपसंते प्रासाणे तेरण परं होवि भजिदयो ॥३॥ अर्थ---दर्शनमोहनीय का उपशम करने वाले जीव के मिथ्यात्वकर्म का उदय जानना चाहिए। दर्शनमोह की उपशान्त अवस्था में मिथ्यात्वकर्म का उदय नहीं होता । उपशमसम्यक्त्व की प्रासादना के अनन्तर उसका ( मिथ्यात्वका) उदय भजनीय है। १. गो. क. गा. ६१४-१५ । . २. ज. प. पु. १२ पृ. ३१६-१७ ।
SR No.090261
Book TitleLabdhisar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages644
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Karma, Philosophy, & Religion
File Size16 MB
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