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सपणासार
गाथा ३४१
समाधान:-पावाधा सहित स्थितिको ज-स्थिति' कहते हैं । इस स्थलसे अर्थात् मोहनीयकर्मका पल्यप्रमाण स्थितिबन्ध होने के पश्चात् प्रत्येक स्थितिबन्धके पूर्ण होने पर तबतक पल्योपमके संख्यातवेंभागसे वृद्धि होती है जबतक जितना अनिवत्तिकरणकाल शेष है और सर्व अपूर्वकरणकाल है। अर्थात् अनिवृत्तिकरणका संख्यातबहभागप्रमाण काल और अपूर्वकरणका सर्वकाल शेष है। पल्यके स्थितिबन्धके पश्चात् संख्यातहजार स्थितिबन्धोंके द्वारा वृद्धिको प्राप्त, अनिवृत्तिकरणकालमें, मोहनीयकर्म का स्थितिबन्ध एकसागरके चार बटै सात (७) एकेन्द्रियके स्थितिबन्ध सदृश हो जाता है। शेष कर्मोका अपने-अपने प्रतिभागसे एकेन्द्रियके समान बन्ध होता है। अर्थात् ज्ञानावरणादि चारकर्मोंका एकसागरके सात भाग में से तीनभाग प्रमाण (सागर) तथा नाम व गोत्रकर्मका एकसागरके सातभागोंमेंसे दोभाग प्रमाण ( : सागर) स्थितिबंध होता है । इसी क्रमसे स्थितिबंध पुनः बढ़ता हुया यथाक्रम द्वीन्द्रियके समान, श्रीन्द्रियके समान, चतुरिन्द्रियके समान और असंजीपंचेन्द्रियके समान २५, ५०, १००. १००० सागरके , , प्रमाण हो जाता है। यह सब अनिवृत्तिकरणकालके भीतर ही हो जाता है।
अव अवरोहक अनिवृत्तिकरणके चरमसमयका स्थितिबन्ध कहते हैं
तत्तो अणियटिस्स य अंतं पत्तो हु तत्थ उदधीणं ।
लक्ख पुधत्तं बंधो से काले पुवकरणो हु ॥३४१॥
अर्थ:- उसके पश्चात् श्रेणिसे गिरता हुआ अनिवृत्तिकरण गुणास्थानके अंत को प्राप्त हो जाता है उससमय लक्षपृथक्त्वसागरका स्थितिबन्ध होता है पुनः अनन्तरसमयमें अपूर्वकरण गणस्थानको प्राप्त हो जाता है। १. अर्थात् वृद्धिसहित पूरा स्थितिबन्ध । अथवा सवृद्धि, मूलस्थितिबन्धः-ज-स्थितिबन्ध ( जयघवल
मूल पृ. १९१२) २. "सादस्स उक्कसमो विदिबंधो विसेसाहियो ।॥ २२७ ॥ जििहदिबंधो विसेसाहियो ।। २८८ ॥
केत्तियमेत्तेण? सग-माबाधामेत्तए । भसादरस उक्कस्सा दबंधो विसेसाहिमो ।। २३१॥ जटिदिबंधी विसेसाहियो ॥२३२॥ केत्तियमेतोण ? तिपिणवाससहस्स मेत्तए । जढिदिबंधो रणाम प्राबाहाए सहिद" ( ध० पु० ११ पृ० ३३६-३४०-३४१) ३. जयधवल मूल पृ० १९१२ सूत्र ५२३-५२५ ।