Book Title: Dighnikayo Part 4
Author(s): Vipassana Research Institute Igatpuri
Publisher: Vipassana Research Institute Igatpuri
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धम्मगिरि - पालि- गन्थमाला [देवनागरी ] दीघनिकाये सुमङ्गलविलासिनी पठमो भागो सीलक्खन्धवग्गट्ठकथा विपश्यना विशोधन विन्यास इगतपुरी १९९८ 1 Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धम्मगिरि-पालि-गन्थमाला-४ [ देवनागरी] दीघनिकाय एवं तत्संबंधित पालि साहित्य ग्यारह ग्रंथों में प्रकाशित किया गया है। प्रथम आवृत्तिः १९९८ ताइवान में मुद्रित, १२०० प्रतियां मूल्य : अनमोल यह ग्रंथ निःशुल्क वितरण हेतु है, विक्रयार्थ नहीं। सर्वाधिकार मुक्त। पुनर्मुद्रण का स्वागत है। इस ग्रंथ के किसी भी अंश के पुनर्प्रकाशन के लिए लिखित अनुमति आवश्यक नहीं। ISBN 81-7414-053-0 यह ग्रंथ छट्ठ संगायन संस्करण के पालि ग्रंथ से लिप्यंतरित है। इस ग्रंथ को विपश्यना विशोधन विन्यास के भारत एवं म्यंमा स्थित पालि विद्वानों ने देवनागरी में लिप्यंतरित कर संपादित किया। कंप्यूटर में निवेशन और पेज-सेटिंग का कार्य विपश्यना विशोधन विन्यास, भारत में हुआ। प्रकाशक : विपश्यना विशोधन विन्यास धम्मगिरि, इगतपुरी, महाराष्ट्र- ४२२ ४०३, भारत फोन : (९१-२५५३) ८४०७६, ८४०८६ फैक्स : (९१-२५५३) ८४१७६ सह-प्रकाशक, मुद्रक एवं दायक : दि कारपोरेट बॉडी ऑफ दि बुद्ध एज्युकेशनल फाउंडेशन ११ वीं मंजिल, ५५ हंग चाउ एस. रोड, सेक्टर १, ताइपे, ताइवान आर. ओ. सी. फोन : (८८६-२)२३९५-११९८, फैक्स : (८८६-२)२३९१-३४१५ Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Dhammagiri-Päli-Ganthamālā [Devanāgarī] Dighanikāye Sumangalavilāsini Pathamo Bhāgo Sīlakkhandhavagga-Atthakathā .. Devanāgari edition of the Pāli text of the Chattha Sangāyana Published by Vipassana Research Institute Dhammagiri, Igatpuri -422403, India Co-published, Printed and Donated by The Corporate Body of the Buddha Educational Foundation 11th Floor, 55 Hang Chow S. Rd. Sec 1, Taipei, Taiwan R.O.C. Tel: (886-2)23951198, Fax: (886-2)23913415 Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Dhammagiri-Pāli-Ganthamālā-4 [Devanāgari ] The Digha Nikāya and related literature is being published together in eleven volumes. First Edition: 1998 Printed in Taiwan, 1200 copies Price: Priceless This set of books is for free distribution, not to be sold. No Copyright-Reproduction Welcome. All parts of this set of books may be freely reproduced without prior permission. ISBN 81-7414-053-0 This volume is prepared from the Pali text of the Chattha Sangāyana edition. Typing and typesetting on computers have been done by Vipassana Research Institute, India. MS was transcribed into Devanāgarī and thoroughly examined by the scholars of Vipassana Research Institute in Myanmar and India. Publisher: Vipassana Research Institute Dhammagiri, Igatpuri, Maharashtra - 422 403, India Tel: (91-2553) 84076, 84086, 84302 Fax: (91-2553) 84176 Co-publisher, Printer and Donor: The Corporate Body of the Buddha Educational Foundation 11th Floor, 55 Hang Chow S. Rd. Sec 1, Taipei, Taiwan R.O.C. Tel: (886-2)23951198, Fax: (886-2)23913415 Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विसय-सूची प्रस्तुत ग्रंथ Present Text संकेत-सूची 6WW० ur wwwwwwwww my my my my ५२ गन्थारम्भकथा निदानकथा पठममहासङ्गीतिकथा १. ब्रह्मजालसुत्तवण्णना परिब्बाजककथावण्णना चूळसीलवण्णना मज्झिमसीलवण्णना महासीलवण्णना पूब्बन्तकप्पिकसस्सतवादवण्णना एकच्चसस्सतवादवण्णना अन्तानन्तवादवण्णना अमराविक्खेपवादवण्णना अधिच्चसमुप्पन्नवादवण्णना अपरन्तकप्पिकवण्णना सञ्जीवादवण्णना असञ्जीवादवण्णना उच्छेदवादवण्णना दिट्ठधम्मनिब्बानवादवण्णना परितस्सितविष्फन्दितवारवण्णना फस्सपच्चयवारवण्णना १०५ दिह्रिगतिकाधिट्ठानवट्टकथावण्णना १०६ विवट्टकथादिवण्णना १०७ २. सामञफलसुत्तवण्णना राजामच्चकथावण्णना ११३ कोमारभच्चजीवककथावण्णना १२२ सामफलपुच्छावण्णना पूरणकस्सपवादवण्णना मक्खलिगोसालवादवण्णना अजितकेसकम्बलवादवण्णना पकुधकच्चायनवादवण्णना निगण्ठनाटपुत्तवादवण्णना १३८ सञ्चयबेलठ्ठपुत्तवादवण्णना १३८ पठमसन्दिट्ठिकसामञफलवण्णना १३९ दुतियसन्दिट्ठिकसामञफलवण्णना १४० पणीततरसामञफलवण्णना १४० चूळसीलवण्णना इन्द्रियसंवरकथा १५० सतिसम्पजञकथा १५१ सन्तोसकथा १६६ नीवरणप्पहानकथा १६९ पठमज्झानकथा १७६ दुतियज्झानकथा १७७ ततियज्झानकथा १७७ V N ० or WOW NOW ० ० ० wwwwww ० ० ० १४९ ہل س १०३ १०५ Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४० १८६ २०८ २५६ चतुत्थज्झानकथा १७७ विपस्सनाजाणकथा १७८ मनोमयिद्धिप्राणकथा १७९ इद्धिविधजाणादिकथा १८० आसवक्खयाणकथा १८१ अजातसत्तुउपासकत्तपटिवेदनाकथा १८३ सरणगमनकथा ३. अम्बट्ठसुत्तवण्णना १९४ अद्धानगमनवण्णना १९४ पोक्खरसातिवत्थुवण्णना १९७ अम्बट्ठमाणवकथा २०० पठमइब्भवादवण्णना २०५ दुतियइब्भवादवण्णना २०७ ततियइब्भवादवण्णना दासिपुत्तवादवण्णना २०८ अम्बट्ठवंसकथा खत्तियसेट्ठभाववण्णना २१५ विज्जाचरणकथावण्णना चतुअपायमुखकथावण्णना २१७ पुब्बकइसिभावानुयोगवण्णना २२० द्वेलक्खणदस्सनवण्णना २२२ पोक्खरसातिबुद्धपसङ्कमनवण्णना २२३ पोक्खरसातिउपासकत्तपटिवेदनावण्णना२२४ ४. सोणदण्डसुत्तवण्णना २२५ सोणदण्डगुणकथा २२६ बुद्धगुणकथा सोणदण्डपरिवितक्कवण्णना २३३ ब्राह्मणपञत्तिवण्णना २३३ सीलपञआकथावण्णना २३४ सोणदण्डउपासकत्तपटिवेदनाकथा ५. कूटदन्तसुत्तवण्णना २३७ चतुपरिक्खारवण्णना २३९ अट्ठपरिक्खारवण्णना चतुपरिक्खारादिवण्णना २४१ निच्चदानअनुकुलयञवण्णना २४३ कूटदन्तउपासकत्तपटिवेदनावण्णना २४८ ६. महालिसुत्तवण्णना २४९ ब्राह्मणदूतवत्युवण्णना २४९ ओट्ठद्धलिच्छवीवत्थुवण्णना २४९ चतुअरियफलवण्णना २५२ अरियअट्ठङ्गिकमग्गवण्णना २५२ द्वे पब्बजितवत्थुवण्णना २५४ ७. जालियसुत्तवण्णना २५६ द्वे पब्बजितवत्थुवण्णना ८. महासीहनादसुत्तवण्णना २५९ अचेलकस्सपवत्थुवण्णना २५९ समनुयुञ्जापनकथावण्णना २६२ अरियअट्ठङ्गिकमग्गवण्णना २६३ तपोपक्कमकथावण्णना २६३ तपोपक्कमनिरत्थकतावण्णना २६६ सीलसमाधिपसम्पदावण्णना २६६ सीहनादकथावण्णना २६७ तिथियपरिवासकथावण्णना २६९ ९. पोट्टपादसुत्तवण्णना २७१ पोट्ठपादपरिब्बाजकवत्थुवण्णना २७१ अभिसानिरोधकथावण्णना २७४ अहेतुकसझुप्पादनिरोधकथावण्णना २७५ सञ्जाअत्तकथावण्णना २७९ चित्तहत्थिसारिपुत्तपोठ्ठपादवत्थुवण्णना २८१ २१६ २२८ २३६ Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९२ २९६ २९६ एकंसिकधम्मवण्णना तयोअत्तपटिलाभवण्णना १०. सुभसुत्तवण्णना सुभमाणवकवत्थुवण्णना सीलक्खन्धवण्णना समाधिक्खन्धवण्णना ११. केवट्टसुत्तवण्णना केवट्टगहपतिपुत्तवत्थुवण्णना इद्धिपाटिहारियवण्णना आदेसनापाटिहारियवण्णना अनुसासनीपाटिहारियवण्णना ૨૮૨ भूतनिरोधेसकवत्थुवण्णना २८२ १२. लोहिच्चसुत्तवण्णना २८६ लोहिच्चब्राह्मणवत्थुवण्णना २८६ लोहिच्चब्राह्मणानुयोगवण्णना ૨૮૮ तयो चोदनारहवण्णना २८९ न चोदनारहसत्थुवण्णना २९० १३. तेविज्जसुत्तवण्णना अचिरवतीनदीउपमाकथा २९१ | सद्दानुक्कमणिका २९१ गाथानुक्कमणिका संदर्भ-सूची २९७ २९८ २९८ ३०० ३०३ २९० [१] [५९] २९१ Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चिरं तितु सद्धम्मो! चिरस्थायी हो सद्धर्म! द्वेमे, भिक्खवे, धम्मा सद्धम्मस्स ठितिया असम्मोसाय अनन्तरधानाय संवत्तन्ति। कतमे द्वे ? सुनिक्खित्तञ्च पदव्यञ्जनं अत्थो च सुनीतो। सुनिक्खित्तस्स, भिक्खवे, पदव्यञ्जनस्स अत्थोपि सुनयो होति। अ०नि०१.२.२१, अधिकरणवग्ग भिक्षुओ, दो बातें हैं जो कि सद्धर्म के कायम रहने का, उसके विकृत न होने का, उसके अंतर्धान न होने का कारण बनती हैं। कौनसी दो बातें ? धर्म वाणी सुव्यवस्थित, सुरक्षित रखी जाय और उसके सही, स्वाभाविक, मौलिक अर्थ कायम रखे जांय । भिक्षुओ, सुव्यवस्थित, सुरक्षित वाणी से अर्थ भी स्पष्ट, सही कायम रहते हैं। ...ये वो मया धम्मा अभिञा देसिता, तत्थ सब्बेहेव सङ्गम्म समागम्म अत्थेन अत्थं ब्यञ्जनेन ब्यञ्जनं सङ्गायितब्बं न विवदितब्बं, यथयिदं ब्रह्मचरियं अद्धनियं अस्स चिरद्वितिकं...। दी०नि० ३.१७७, पासादिकसुत्त ....जिन धर्मों को तुम्हारे लिए मैंने स्वयं अभिज्ञात करके उपदेशित किया है. उसे अर्थ और व्यंजन सहित सब मिल-जुल कर, बिना विवाद किये संगायन करो, जिससे कि यह धर्माचरण चिर स्थायी हो...। Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तुत ग्रंथ दीघनिकाय साधना की दृष्टि से महत्वपूर्ण ग्रंथ है । यह भगवान बुद्ध के चौंतीस दीर्घाकार उपदेशों का संग्रह है जो कि तीन खंडों में विभक्त है - सीलक्खन्धवग्ग, महावग्ग, पाथिकवग्ग । इन उपदेशों में शील, समाधि तथा प्रज्ञा पर सरल ढंग से प्रचुर सामग्री उपलब्ध है । व्यावहारिक जीवन में आगत वस्तुओं एवं घटनाओं से जुड़ी हुई उपमाओं के सहारे इसमें साधना के विभिन्न अंगों पर प्रकाश डाला गया है। बुद्ध की देशना सरल तथा हृदयस्पर्शी हुआ करती थी । उनकी यह शैली व्याख्यात्मिका थी पर कभी-कभी धर्म को सुबोध बनाने के लिये 'चूळनिद्देस' जैसी अट्ठकथाओं का उन्होंने सृजन किया । प्रथम धर्मसंगीति में बुद्धवचन के संगायन के साथ इनका भी संगायन हुआ। तदनंतर उनके अन्य वचनों पर भी अट्ठकथाएं तैयार हुईं। जब स्थविर महेन्द्र बुद्ध वचन को लेकर श्रीलंका गये, तो वे अपने साथ इन अट्ठकथाओं को भी ले गये । श्रीलंकावासियों ने इन अट्ठकथाओं को सिंहली भाषा में सुरक्षित रखा | पांचवी सदी के मध्य में बुद्धघोष ने उनका पालि में पुनः परिवर्तन किया । दीघनिकाय के अर्थों को प्रकाश में लाते हुए बुद्धघोष ने 'सुमङ्गलविलासिनी' नामक दीघनिकाय - अट्ठकथा का प्रणयन किया। यह भी तीन भागों में विभक्त है । इसके प्रथम भाग - सीलक्खन्धवग्ग-अट्ठकथा का मुद्रित संस्करण आपके सम्मुख प्रस्तुत 1 हमें पूर्ण विश्वास है कि यह प्रकाशन विपश्यी साधकों और विशोधकों के लिए अत्यधिक लाभदायक सिद्ध होगा । 11 निदेशक, विपश्यना विशोधन विन्यास Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Dighanikāye Sumangalavilāsini Pathamo Bhāgo Sīlakkhandhavagga-Atthakathā Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Ciram Titthatu Saddhammo! May the Truth-based Dhamma Endure for A Long Time! "Dveme, Bhikkhave, Dhamma saddhammassa thitiya asammosāya anantaradhanaya samvattanti. Katame dve? Sunikkhittañca padabyanjanam attho ca sunito. Sunikkbittassa, Bhikkhave, padabyanjanassa atthopi sunayo boti." "There are two things, O monks, which A. N. 1. 2. 21, Adhikaranavagga make the Truth-based Dhamma endure ...ye vo maya dhammā abbiññā desita, tattha sabbeheva sangamma samagamma atthena attham byanjanena byañjanam sangayitabbam na vivaditabbam, yathayidam brahmacariyam addhaniyam assa ciraṭṭhitikam... D. N. 3.177, Päsädikasutta. for a long time, without any distortion and without (fear of) eclipse. Which two? Proper placement of words and their natural interpretation. Words properly placed help also in their natural interpretation." ...the dhammas (truths) which I have taught to you after realizing them with my super-knowledge, should be recited by all, in concert and without dissension, in a uniform version collating meaning with meaning and wording with wording. In this way, this teaching with pure practice will last long and endure for a long time... 15 Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Present Text Sumangala vilāsini Vol.I (Silakkhandhavagga-Atthakathā) The Digha Nikāya is an important collection from the perspective of meditation practice. It contains thirty-four important long discourses of the Buddha, divided into three sections—the Silakkhandhavagga, Mahāvagga and Pāthikavagga. In these discourses a lot of material related to sila, samādhi and pañña is available. Various aspects of practice have been elucidated by means of similes drawn from familiar objects and the everyday life of the times. The Buddha's teachings were simple and endearing. His distinctive style was self-explanatory but, still, in order to make the Dhamma all the more lucid, he introduced the use of atthakathā (commentaries), such as the Cūļaniddesa and the Mahāniddesa. These were recited, along with the discourses of the Buddha, at the first Dhamma Council. In time the other asphakathā commenting on all his discourses came into being. When Ven. Mahinda conveyed the words of the Buddha to Sri Lanka he also took the atthakathā with him. The Sinhalese monks preserved these atphakathā in their own language. Later on, when they had been lost in India, Ven. Buddhaghosa was able to translate them back to Pāli, during the middle of the fifth century A.D. He then compiled the commentary on the Digha Nikāya named Sumangalavilāsini in three volumes to help clarify its meaning. We sincerely hope that this publication, Silakkhandhavagga-Athakathā will provide immense benefit to practitioners of Vipassana as well as research scholars. Director, Vipassana Research Institute, Igatpuri, India. Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ The Pāli alphabets in Devanagari and Roman characters: Vowels: 37 a 377 à i * i I u 5 ū Pe 390 Consonants with Vowel 37 (a): क ka ख kha ग ga घ gha 3 na a ca 8 cha ja झ jha ञ ia & ţa ţha 3 da dha oņa ta tha Ida gdha 7 na q pa 4 pha aba 4 bha ma य ya र ra ल la व va स sa ह ha ळ la One nasal sound (niggahīta): 31 am Vowels in combination with consonants “k” and “kh”: (exceptions: 5 ru, trū) क ka का ka कि ki की ki कु ku कू kā के ke को ko ख kha खा khā खि khi खी khi खु khu खू khā खे khe खो kho Conjunct-consonants: क्क kka ख kkha क्य kya क्र kra क्ल kla क्व kva 4 khya 59khva ग्ग gga ggha ग्य gya ग्र gra gva Inka nikha वय nkhya nga ngha cca ery ccha ज्ज jja ज्झ jjha 55 ñña ज्ह nha ñca 3 ñcha ज्झ njha दृ tta 8 ttha dda Tddha ਹਰ ntha ण्ड nda nna nya ण्ह nha त्त tta स्थ ttha त्य tya tra tva dda द्ध ddha न dma य dya द्र dra dva 2 dhya ध्व dhva न्त nta ntva न्थ ntha nda ndra mendha nna nha ppa up ppha pya प्ल pla bba bbha ब्य bya a bra म्प mpa म्फ mpha mba mbha mma म्य mya F mha य्य yya व्य vya यह yha ल्ल lla ल्य lya ल्ह lha vha स्त्र stra sna स्य sya स्स ssa स्म sma sva hma hya hva Elha ? 1 82 83 84 45 € 6 67 68 $9 00 ग्घ s ण्ट nja nta ण्ण mi sono her Eleny Nyhe A4 nya nya sta Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Notes on the pronunciation of Pāli Pāli was a dialect of northern India in the time of Gotama the Buddha. The earliest known script in which it was written was the Brāhmi script of the third century B.C. After that it was preserved in the scripts of the various countries where Pāli was maintained. In Roman script, the following set of diacritical marks has been established to indicate the proper pronunciation. The alphabet consists of forty-one characters: eight vowels, thirty-two consonants and one nasal sound (niggahita). Vowels (a line over a vowel indicates that it is a long vowel): a - as the “a” in about a - as the "a" in father i - as the “” in mint i - as the "ee" in see u - as the “u” in put û - as the "00" in cool e is pronounced as the "ay" in day, except before double consonants when it is pronounced as the "e" in bed: deva, mettā; o is pronounced as the “o” in no, except before double consonants when it is pronounced slightly shorter: loka, photthabba. Consonants are pronounced mostly as in English. g - as the “g” in get c - soft like the "ch” in church v - a very soft -v- or -WAll aspirated consonants are pronounced with an audible expulsion of breath following the normal unaspirated sound. th - not as in 'three'; rather 't followed by 'h' (outbreath) ph - not as in 'photo'; rather 'p' followed by 'h' (outbreath) The retroflex consonants: t, th, d, dh, n are pronounced with the tip of the tongueturned back; and l'is pronounced with the tongue retroflexed, almost a combined 'rl'sound. The dental consonants: t, th, d, dh, n are pronounced with the tongue touching the upper front teeth. The nasal sounds: n - guttural nasal, like -ng- as in singer ñ - as in Spanish señor n - with tongue retroflexed m - as in hung, ring Double consonants are very frequent in Pāli and must be strictly pronounced as long consonants, thus -nn- is like the English 'nn' in "unnecessary". 20 Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ० नि० अट्ठ० = अट्ठकथा अनु टी० अप० = अपदान अभि० टी० इतिवु० = इतिवृत्तक = उदा० = उदान कङ्क्षा० टी० = = = अङ्गुत्तरनिकाय अनुटीका कथाव० = कथावत्थु खु०नि० = खुद्दकनिकाय खु० पा० = खुद्दक पाठ चरिया० पि० चरियापिटक चूळनि० चूळनिद्देस चूळवग्ग = चूळव० जा० = जातक टी० टीका = अभिनवटीका ध० स० = कङ्क्षावितरणी टीका थेरगा० = थेरगाथा थेरीगा० = थेरीगाथा दी० नि० दीघनिकाय ध० प० = धम्मपद = • धम्मसङ्गणी धातु० = धातुकथा नेत्ति० = पटि० म० = नेत्तिपकरण पटिसम्भिदामग्ग संकेत-सूची 21 पट्ठा० परि० पाचि० = पट्टान परिवार = पारा० पु० टी० = पुराणटीका पुग्गलपञ्ञत्ति पाचित्तिय पाराजिक पु० प० = पे० ० = पेटको० = बु० वं० बुद्धवंस म० नि० महाव० = महावग्ग महानि० महानिस मि० प० = मिलिन्दपञ्ह मूल टी० = मूलटीका यम० = यमक विमानवत्थु वि० व० = वि० वि० टी० = विमतिविनोदनी टीका वि० सङ्ग० अट्ठ० = विनयसङ्गह अट्ठकथा विनय वि० टी० = विनयविनिच्छय टीका विभं० विभङ्ग = = पेतवत्थु पेटकोपदेस = = विसुद्धि० = विसुद्धिमग्ग सं० नि० संयुत्तनिकाय सारत्थ० टी० = सारत्थदीपनी टीका सु० नि० सुत्तनिपात मज्झिमनिकाय = = Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीघनिकाये सुमङ्गलविलासिनी पठमो भागो सीलक्खन्धवग्गट्ठकथा Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ।। नमो तस्स भगवतो अरहतो सम्मासम्बुद्धस्स ।। दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गट्ठकथा गन्थारम्भकथा करुणासीतलहदयं, पापज्जोतविहतमोहतमं । सनरामरलोकगरुं, वन्दे सुगतं गतिविमुत्तं ।। बुद्धोपि बुद्धभावं, भावेत्वा चेव सच्छिकत्वा च । यं उपगतो गतमलं, वन्दे तमनुत्तरं धम्मं ।। सुगतस्स ओरसानं, पुत्तानं मारसेनमथनानं । अठ्ठन्नम्पि समूह, सिरसा वन्दे अरियसङ्गं ।। Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गट्ठकथा इति मे पसन्नमतिनो, रतनत्तयवन्दनामयं पुञ्ज । यं सुविहतन्तरायो, हुत्वा तस्सानुभावेन । । दीघस्स दीघसुत्तङ्कितस्स, निपुणस्स आगमवरस्स। बुद्धानुबुद्धसंवण्णितस्स, सद्धावहगुणस्स ।। अत्थप्पकासनत्थं, अट्ठकथा आदितो वसिसतेहि । पञ्चहि या सङ्गीता, अनुसङ्गीता च पच्छापि ।। सीहळदीपं पन आभताथ, वसिना महामहिन्देन । ठपिता सीहळभासाय, दीपवासीनमत्थाय ।। अपनेत्वान ततोहं, सीहळभासं मनोरमं भासं । तन्तिनयानुच्छविकं, आरोपेन्तो विगतदोसं । । समयं अविलोमेन्तो, थेरानं थेरवंसपदीपानं । सुनिपुणविनिच्छयानं, महाविहारे निवासीनं ।। हित्वा पुनप्पुनागतमत्थं, अत्थं पकासयिस्सामि । सुजनस्स च तुट्टत्थं, चिरहितत्थञ्च धम्मस्स ।। सीलकथा धुतधम्मा,कम्मट्ठानानि चेव सब्बानि । चरियाविधानसहितो, झानसमापत्तिवित्थारो ।। सब्बा च अभिज्ञायो, पञ्जासङ्कलननिच्छयो चेव । खन्धधातायतनिन्द्रियानि, अरियानि चेव चत्तारि ।। सच्चानि पच्चयाकारदेसना, सुपरिसुद्धनिपुणनया । अविमुत्ततन्तिमग्गा, विपस्सना भावना चेव ।। Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पठममहासङ्गीतिकथा इति पन सब्बं यस्मा, विसुद्धिमग्गे मया सुपरिसुद्धं । वुत्तं तस्मा भिय्यो, न तं इध विचारयिस्सामि ।। "माझे विसुद्धिमग्गो, एस चतुन्नम्पि आगमानहि । ठत्वा पकासयिस्सति, तत्थ यथा भासितं अत्थं' ।। इच्चेव कतो तस्मा, तम्पि गहेत्वान सद्धिमेताय । अट्ठकथाय विजानथ, दीघागमनिस्सितं अत्थन्ति ।। निदानकथा तत्थ दीघागमो नाम सीलक्खन्धवग्गो, महावग्गो, पाथिकवग्गोति वग्गतो तिवग्गो होति; सुत्ततो चतुत्तिंससुत्तसङ्गहो। तस्स वग्गेसु सीलक्खन्धवग्गो आदि, सुत्तेसु ब्रह्मजालं। ब्रह्मजालस्सापि “एवं मे सुत''न्तिआदिकं आयस्मता आनन्देन पठममहासङ्गीतिकाले वुत्तं निदानमादि । पठममहासङ्गीतिकथा पठममहासङ्गीति नाम चेसा किञ्चापि विनयपिटके तन्तिमारूळ्हा, निदानकोसल्लत्थं पन इधापि एवं वेदितब्बा। धम्मचक्कप्पवत्तनहि आदि कत्वा याव सुभद्दपरिब्बाजकविनयना कतबुद्धकिच्चे, कुसिनारायं उपवत्तने मल्लानं सालवने यमकसालानमन्तरे विसाखपुण्णमदिवसे पच्चूससमये अनुपादिसेसाय निब्बानधातुया परिनिब्बुते भगवति लोकनाथे, भगवतो धातुभाजनदिवसे सन्निपतितानं सत्तन्नं भिक्खुसतसहस्सानं सङ्घत्थेरो आयस्मा महाकस्सपो सत्ताहपरिनिब्बुते भगवति सुभद्देन वुड्डपब्बजितेन - "अलं, आवुसो, मा सोचित्थ, मा परिदेविस्थ, सुमुत्ता मयं तेन महासमणेन, उपकुता च होम – 'इदं वो कप्पति, इदं वो न कप्पती'ति, इदानि पन मयं यं इच्छिस्साम, तं करिस्साम, यं न इच्छिस्साम न तं करिस्सामा''ति (चूळव० ४३७) वुत्तवचनमनुस्सरन्तो, ईदिसस्स च सङ्घसन्निपातस्स पुन दुल्लभभावं मञमानो, Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४ दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गट्ठकथा “ठानं खो पनेतं विज्जति, यं पापभिक्खू 'अतीतसत्थुकं पावचन 'न्ति मञ्ञमाना पक्खं लभित्वा नचिरस्सेव सद्धम्मं अन्तरधापेय्युं, याव च धम्मविनयो तिट्ठति, ताव अनतीतसत्थुकमेव पावचनं होति । वृत्तहेतं भगवता - 'यो वो, आनन्द, मया धम्मो च विनयो च देसितो पञ्ञत्तो, सो वो ममच्चयेन सत्था' ति ( दी० नि० २.२१६) । 'यंनूनाहं धम्मञ्च विनयञ्च सङ्गायेय्यं यथयिदं सासनं अद्धनियं अस्स चिरट्टितिकं' | यञ्चाहं भगवता 'धारेस्ससि पन मे त्वं कस्सप, साणानि पंसुकूलानि निब्बसनानी 'ति (सं० नि० १.२.१५४) वत्वा चीवरे साधारणपरिभोगेन । 'अहं, भिक्खवे, यावदेव आकङ्क्षामि विविच्चेव कामेहि विविच्च अकुसलेहि धम्मेहि सवितक्कं सविचारं विवेकजं पीतिसुखं पठमं झानं उपसम्पज्ज विहरामि ; कस्सपोपि, भिक्खवे, यावदेव, आकङ्क्षति विविच्चेव कामेहि विविच्च अकुसलेहि धम्मेहि सवितक्कं सविचारं विवेकजं पीतिसुखं पठमं ज्ञानं उपसम्पज्ज विहरती 'ति (सं० नि० १.२.१५२) । एवमादिना नयेन नवानुपुब्बविहारछळभिञ्ञाप्पभेदे उत्तरिमनुस्सधम्मे अत्तना समसमट्ठपनेन च अनुग्गहितो, तथा आकासे पाणिं चालेत्वा अलग्गचित्तताय व चन्दोपमपटिपदाय च पसंसितो, तस्स किमञ्ञ आणण्यं भविस्सति । ननु मं भगवा राजा विय सककवचइस्सरियानुप्पदानेन अत्तनो कुलवंसप्पतिट्ठापकं पुत्तं ' सद्धम्मवंसप्पतिट्ठापको मे अयं भविस्सती 'ति मन्त्वा इमिना असाधारणेन अनुग्गहेन अनुग्गहेसि, इमाय च उळाराय पसंसाय पसंसीति चिन्तयन्तो धम्मविनयसङ्गायनत्थं भिक्खून उत्साहं जनेसि। यथाह - "अथ खो आयस्मा महाकस्सपो भिक्खू आमन्तेसि - 'एकमिदाहं, आवुसो, 4 Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पठममहासङ्गीतिकथा समयं पावाय कुसिनारं अद्धानमग्गप्पटिपन्नो महता भिक्खुसङ्खेन सद्धिं पञ्चमत्तेहि भिक्खुसतेही "ति (चूळव० ४३७) सब्बं सुभद्दकण्डं वित्थारतो वेदितब्बं । अत्थं पनस्स महापरिनिब्बानावसाने आगतट्ठानेयेव कथयिस्साम । ततो परं आह “हन्द मयं, आवुसो, धम्मञ्च विनयञ्च सङ्गायाम, पुरे अधम्मो दिप्पति, धम्मो पटिबाहिय्यति; पुरे अविनयो दिप्पति, विनयो पटिबाहिय्यति; पुरे अधम्मवादिनो बलवन्तो होन्ति, धम्मवादिनो दुब्बला होन्ति, पुरे अविनयवादिनो बलवन्तो होन्ति, विनयवादिनो दुब्बला होन्ती " ति ( चूळव० ४३७) । भिक्खू आहंसु - " तेन हि भन्ते, थेरो भिक्खू उच्चिनतू 'ति । थेरो पन सकलनवङ्गसत्थुसासनपरियत्तिधरे पुथुज्जनसोतापन्नसकदागामि अनागामि सुक्खविपक खीणासवभिक्खू अनेकसते, अनेकसहस्से च वज्जेत्वा तिपिटकसब्बपरियत्तिप्पभेदधरे पटिसम्भिदाप्पत्ते महानुभावे येभुय्येन भगवतो एतदग्गं आरोपिते तेविज्जादिभेदे खीणासवभिक्खूयेव एकूनपञ्चसते परिग्गहेसि । ये सन्धाय इदं वुत्तं - "अथ खो आयस्मा महाकस्सपो एकेनूनानि पञ्च अरहन्तसतानि उच्चिनी 'ति ( चूळव० ४३७) । किस्स पन थेरो एकेनूनमकासीति ? आयस्मतो आनन्दत्थेरस्स ओकासकरणत्थं । तेनहायस्मता सहापि, विनापि न सक्का धम्मसङ्गीतिं कातुं । सो हायस्मा सेक्खो सकरणीयो, तस्मा सहापि न सक्का । यस्मा पनस्स किञ्चि दसबलदेसितं सुत्तगेय्यादिकं अप्पच्चक्खं नाम नत्थि । यथाह - “द्वासीति बुद्धतो गहिं, द्वे सहस्सानि भिक्खुतो । चतुरासीति सहस्सानि ये मे धम्मा पवत्तिनो 'ति । । (थेरगा० १०२७) तस्मा विनापि न सक्का । यदि एवं सेक्खोपि समानो धम्मसङ्गीतिया बहुकारत्ता थेरेन उच्चिनितब्बो अस्स, अथ कस्मा न उच्चिनितोति ? परूपवादविवज्जनतो । थेरो हि आयस्मन्ते आनन्दे 5 Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गट्ठकथा अतिविय विस्सत्थो अहोसि, तथा हि नं सिरस्मिं पलितेसु जातेसुपि 'न वायं कुमारको मत्तमञासी'ति, (सं० नि० १.२.१५४) कुमारकवादेन ओवदति । सक्यकुलप्पसुतो चायस्मा तथागतस्स भाता चूळपितुपुत्तो । तत्थ केचि भिक्खू छन्दागमनं विय मञ्जमाना - "बहू असेक्खपटिसम्भिदाप्पत्ते भिक्खू ठपेत्वा आनन्दं सेक्खपटिसम्भिदाप्पत्तं थेरो उच्चिनी''ति उपवदेव्युं । तं परूपवादं परिवज्जेन्तो, 'आनन्दं विना धम्मसङ्गीतिं न सक्का कातुं, भिक्खू येव नं अनुमतिया गहेस्सामी'ति न उच्चिनि । अथ सयमेव भिक्खू आनन्दस्सत्थाय थेरं याचिंसु । यथाह - “भिक्खू आयस्मन्तं महाकस्सपं एतदवोचुं- 'अयं, भन्ते, आयस्मा आनन्दो किञ्चापि सेक्खो अभब्बो छन्दा दोसा मोहा भया अगतिं गन्तुं, बहु चानेन भगवतो सन्तिके धम्मो च विनयो च परियत्तो, तेन हि, भन्ते, थेरो आयस्मन्तम्पि आनन्दं उच्चिनतू'ति । अथ खो आयस्मा महाकस्सपो आयस्मन्तम्पि आनन्दं उच्चिनी"ति (चूळव० ४३७)। एवं भिक्खूनं अनुमतिया उच्चिनितेन तेनायस्मता सद्धिं पञ्चथेरसतानि अहेसुं । अथ खो थेरानं भिक्खूनं एतदहोसि- “कत्थ नु खो मयं धम्मञ्च विनयञ्च सङ्गायेय्यामा'"ति ? अथ खो थेरानं भिक्खूनं एतदहोसि- "राजगहं खो महागोचरं पहूतसेनासनं, यंनून मयं राजगहे वस्सं वसन्ता धम्मञ्च विनयञ्च सङ्गायेय्याम, न अझे भिक्खू राजगहे वस्सं उपगच्छेय्यु"न्ति (चूळव० ४३७) । कस्मा पन नेसं एतदहोसि ? "इदं पन अम्हाकं थावरकम्मं, कोचि विसभागपुग्गलो सङ्घमज्झं पविसित्वा उक्कोटेय्या''ति । अथायस्मा महाकस्सपो अत्तिदुतियेन कम्मेन सावेसि "सुणातु मे, आवुसो सङ्घो, यदि सङ्घस्स पत्तकल्लं सङ्घो इमानि पञ्च भिक्खुसतानि सम्मन्नेय्य राजगहे वस्सं वसन्तानि धम्मञ्च विनयञ्च सङ्गायितुं, न अञहि भिक्खूहि राजगहे वस्सं वसितब्बन्ति । एसा उत्ति । Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पठममहासङ्गीतिकथा “सुणातु मे, आवुसो सङ्घो, सङ्घो इमानि पञ्चभिक्खुसतानि सम्मन्न''ति 'राजगहे वस्सं वसन्तानि धम्मञ्च विनयञ्च सङ्गायितुं, न अ हि भिक्खूहि राजगहे वस्सं वसितब्बन्ति । यस्सायस्मतो खमति इमेसं पञ्चन्नं भिक्खुसतानं सम्मुति' राजगहे वस्सं वसन्तानं धम्मञ्च विनयञ्च सङ्गायितुं, न अजेहि भिक्खूहि राजगहे वस्सं वसितब्बन्ति, सो तुण्हस्स; यस्स नक्खमति, सो भासेय्य । "सम्मतानि सङ्घन इमानि पञ्चभिक्खुसतानि राजगहे वस्सं वसन्तानि धम्मञ्च विनयञ्च सङ्गायितुं, न अ हि भिक्खूहि राजगहे वस्सं वसितब्बन्ति, खमति सङ्घस्स, तस्मा तुण्ही, एवमेतं धारयामी''ति (चूळव० ४३८)। अयं पन कम्मवाचा तथागतस्स परिनिब्बानतो एकवीसतिमे दिवसे कता । भगवा हि विसाखपुण्णमायं पच्चूससमये परिनिब्बुतो, अथस्स सत्ताहं सुवण्णवण्णं सरीरं गन्धमालादीहि पूजयिंसु । एवं सत्ताहं साधुकीळनदिवसा नाम अहेसुं। ततो सत्ताहं चितकाय अग्गिना झायि, सत्ताहं सत्तिपञ्जरं कत्वा सन्धागारसालायं धातुपूजं करिसूति, एकवीसति दिवसा गता। जेट्ठमूलसुक्कपक्खपञ्चमियंयेव धातुयो भाजयिंसु । एतस्मिं धातुभाजनदिवसे सन्निपतितस्स महाभिक्खुसङ्घस्स सुभद्देन वुड्डपब्बजितेन कतं अनाचारं आरोचेत्वा वुत्तनयेनेव च भिक्खू उच्चिनित्वा अयं कम्मवाचा कता। इमञ्च पन कम्मवाचं कत्वा थेरो भिक्खू आमन्तेसि- “आवुसो, इदानि तुम्हाकं चत्तालीस दिवसा ओकासो कतो, ततो परं 'अयं नाम नो पलिबोधो अत्थी'ति, वत्तुं न लब्भा, तस्मा एत्थन्तरे यस्स रोगपलिबोधो वा आचरियुपज्झायपलिबोधो वा मातापितुपलिबोधो वा अस्थि, पत्तं वा पन पचितब्ब, चीवरं वा कातब्बं, सो तं पलिबोधं छिन्दित्वा तं करणीयं करोतू"ति । एवञ्च पन वत्वा थेरो अत्तनो पञ्चसताय परिसाय परिवुतो राजगहं गतो । अञपि महाथेरा अत्तनो अत्तनो परिवारे गहेत्वा सोकसल्लसमप्पितं महाजनं अस्सासेतुकामा तं तं दिसं पक्कन्ता । पुण्णत्थेरो पन सत्तसतभिक्खुपरिवारो 'तथागतस्स परिनिब्बानट्ठानं आगतागतं महाजनं अस्सासेस्सामी'ति कुसिनारायंयेव अट्ठासि । आयस्मा आनन्दो यथा पुब्बे अपरिनिब्बुतस्स, एवं परिनिब्बुतस्सापि भगवतो Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८ दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गट्ठकथा सयमेव पत्तचीवरमादाय पञ्चहि भिक्खुसतेहि सद्धिं येन सावत्थि तेन चारिकं पक्कामि । गच्छतो गच्छतो पनस्स परिवारा भिक्खू गणनपथं वीतिवत्ता । तेनायस्मता गतगतद्वाने महापरिदेवो अहोसि। अनुपुब्बेन पन सावत्थिमनुप्पत्ते थेरे सावत्थिवासिनो मनुस्सा “थेरो किर आगतो 'ति सुत्वा गन्धमालादिहत्था पच्चुग्गन्त्वा - " भन्ते, आनन्द, पुब्बे भगवता सद्धिं आगच्छथ, अज्ज कुहिं भगवन्तं ठपेत्वा आगतत्था 'तिआदीनि वदमाना परोदिंसु । बुद्धस्स भगवतो परिनिब्बानदिवसे विय महापरिदेवो अहोसि | तत्र सुदं आयस्मा आनन्दो अनिच्चतादिपटिसंयुत्ताय धम्मियाकथाय तं महाजनं सञ्ञापेत्वा जेतवनं पविसित्वा दसबलेन वसितगन्धकुटिं वन्दित्वा द्वारं विवरित्वा मञ्चपीठं नीहरित्वा पप्फोटेत्वा गन्धकुटिं सम्मज्जित्वा मिलातमालाकचवरं छड्डेत्वा मञ्चपीठं अतिहरित्वा पुन यथाठाने ठपेत्वा भगवतो ठितकाले करणीयं वत्तं सब्बमकासि । कुरुमानो च न्हानकोट्ठकसम्मज्जनउदकुपट्ठापनादिकालेसु गन्धकुटिं वन्दित्वा – “ननु भगवा, अयं तुम्हाकं न्हानकालो, अयं धम्मदेसनाकालो, अयं भिक्खूनं ओवाददानकालो, अयं सीहसेय्यकप्पनकालो, अयं मुखधोवनकालो' तिआदिना नयेन परिदेवमानोव अकासि, यथा तं भगवतो गुणगणामतरसञ्जताय पतिट्ठितपेमो चेव अखीणासवो च अनेकेसु च जातिसतसहस्सेसु अञ्ञमञ्जस्सूपकारसञ्जनितचित्तमद्दवो । तमेनं अञ्ञतरा देवता" भन्ते, आनन्द, तुम्हे एवं परिदेवमाना कथं अञ्जे अस्सासेस्सथा "ति संवेजेसि । सो तस्सा वचनेन संविग्गहदयो सन्थम्भित्वा तथागतस्स परिनिब्बानतो भुति ठाननिसज्जबहुलत्ता उस्सन्नधातुकं कायं समस्सासेतुं दुतियदिवसे खीरविरेचनं पिवित्वा विहारेयेव निसीदि । यं सन्धाय सुभेन माणवेन पहितं माणवकं एतदवोच - " अकालो खो माणवक, अत्थि मे अज्ज भेसज्जमत्ता पीता, अप्पेव नाम स्वेपि उपसङ्कमेय्यामा " ति ( दी० नि० १.४४७) । दुतियदिवसे चेतकत्थेरेन पच्छासमणेन गन्त्वा सुभेन माणवेन पुट्ठो इमस्मिं दीघनिकाये सुभसुतं नाम दसमं सुत्तं अभासि । अथ आनन्दत्थेरो जेतवनमहाविहारे खण्डफुल्लप्पटिसङ्घरणं कारापेत्वा उपकट्ठाय वस्सूपनायिकाय भिक्खुस ओहाय राजगहं गतो तथा अञ्ञपि धम्मसङ्गाहका भिक्खूति । एवञ्हि गते, ते सन्धाय च इदं वुत्तं - " अथ खो थेरा भिक्खू राजगहं अगमंसु, धम्मञ्च 8 Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पठममहासङ्गीतिकथा विनयञ्च सङ्ग्रायितु'न्ति ( चूळव० ४३८ ) । ते आसळहीपुण्णमायं उपोसथं कत्वा पाटिपददिवसे सन्निपतित्वा वस्सं उपगच्छिंसु । तेन खो पन समयेन राजगहं परिवारेत्वा अट्ठारस महाविहारा होन्ति, ते सब्बेपि छड्डितपतितउक्लापा अहेसुं । भगवतो हि परिनिब्बाने सब्बेपि भिक्खू अत्तनो अत्तनो पत्तचीवरमादाय विहारे च परिवेणे च छड्डेत्वा अगमंसु । तत्थ कतिकवत्तं कुरुमाना थेरा भगवतो वचनपूजनत्थं तित्थियवादपरिमोचनत्थञ्च - 'पठमं मासं खण्डफुल्लप्पटिसङ्घरणं करोमा'ति चिन्तेसुं। तित्थिया हि एवं वदेय्युं - " समणस्स गोतमस्स सावका सत् ठितेयेव विहारे पटिजग्गिंसु, परिनिब्बुते छड्डेसुं, कुलानं महाधनपरिच्चागो विनस्सती 'ति । तेसञ्च वादपरिमोचनत्थं चिन्तेसुन्ति वृत्तं होति । एवं चिन्तयित्वा च पन कतिकवत्तं करिंसु । यं सन्धाय वुत्तं - ९ "अथ खो थेरानं भिक्खूनं एतदहोसि - भगवता, खो आवुसो, खण्डफुल्लप्पटिसङ्घरणं वण्णितं, हन्द मयं, आवुसो, पठमं मासं खण्डफुल्लप्पटिसङ्घरणं करोम, मज्झिमं मासं सन्निपतित्वा धम्मञ्च विनयञ्च सङ्गायिस्सामा ''ति (चूळव० ४३८ ) । ते दुतियदिवसे गन्त्वा राजद्वारे अट्ठसु । राजा आगन्त्वा वन्दित्वा - " किं भन्ते, आगतत्था”ति अत्तना कत्तब्बकिच्चं पुच्छि । थेरा अट्ठारस महाविहारपटिसङ्घरणत्थाय हत्थकम्मं पटिवेदेसुं। राजा हत्थकम्मकारके मनुस्से अदासि । थेरा पठमं मासं सब्बविहारे पटिसङ्घरापेत्वा रञ्ञो आरोचेसुं - "निट्ठितं, महाराज, विहारपटिसङ्घरणं, इदानि धम्मविनयसङ्गहं करोमा’ति । " साधु भन्ते विसट्टा करोथ, मय्हं आणाचक्कं, तुम्हाकञ्च धम्मचक्कं होतु, आणापेथ, भन्ते, किं करोमी 'ति । “सङ्ग्रहं करोन्तानं भिक्खूनं सन्निसज्जद्वानं महाराजा " ति । " कत्थ करोमि, भन्ते 'ति ? " वेभारपब्बतपस्से सत्तपण्णि गुहाद्वारे कातुं युत्तं महाराजा "ति । " साधु, भन्ते 'ति खो राजा अजातसत्तु विस्सकम्मुना निम्मितसदिसं सुविभत्तभित्तिथम्भसोपानं नानाविधमालाकम्मलताकम्मविचित्तं, अभिभवन्तमिव राजभवनविभूतिं, अवहसन्तमिव देवविमान सिरिं, सिरिया निकेतनमिव एकनिपाततित्थमिव च देवमनुस्सनयनविहंगानं, लोकरामणेय्यकमिव सम्पिण्डितं दट्ठब्बसारमण्डं मण्डपं कारापेत्वा विविधकुसुमदामोलम्बकविनिग्गलन्तचारुवितानं नानारतनविचित्तमणिकोट्टिमतलमिव नं नानापुप्फूपहारविचित्तसुपरिनिट्ठितभूमिकम्मं ब्रह्मविमानसदिसं अलङ्करित्वा, तस्मिं च, 9 Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गट्ठकथा महामण्डपे पञ्चसतानं भिक्खूनं अनग्घानि पञ्च कप्पियपच्चत्थरणसतानि पञ्ञपेत्वा, दक्खिणभागं निस्साय उत्तराभिमुखं थेरासनं, मण्डपमज्झे पुरत्थाभिमुखं बुद्धस्स भगवतो आसनारहं धम्मासनं पञ्ञपेत्वा, दन्तखचितं बीजनिञ्चेत्थ ठपेत्वा, भिक्खुसङ्घस्स आरोचापेसि – “निट्ठितं, भन्ते मम किच्च "न्ति । , तस्मिञ्च पन दिवसे एकच्चे भिक्खू आयस्मन्तं आनन्दं सन्धाय एवमाहंसु“इमस्मिं भिक्खुसङ्घे एको भिक्खु विस्सगन्धं वायन्तो विचरतीति । थेरो तं सुत्वा इमस्मिं भिक्खुसङ्घे अञ्ञो विस्सगन्धं वायन्तो विचरणकभिक्खु नाम नत्थि । अद्धा एते मं सन्धाय वदन्तीति संवेगं आपज्जि । एकच्चे नं आहंसुयेव - "स्वे आवुसो, आनन्द, सन्निपातो, त्वञ्च सेक्खो सकरणीयो, तेन ते न युत्तं सन्निपातं गन्तुं, अप्पमत्तो होही 'ति । अथ खो आयस्मा आनन्दो - 'स्वे सन्निपातो, न खो मेतं पतिरूपं वाहं सेक्खो समानो सन्निपातं गच्छेय्यन्ति, बहुदेव रत्तिं कायगताय सतिया वीतिनामेत्वा रत्तिया पच्चूससमये चङ्कमा ओरोहित्वा विहारं पविसित्वा "निपज्जिस्सामी 'ति कार्य आवज्जेसि, द्वे पादा भूमितो मुत्ता, अपत्तञ्च सीसं बिम्बोहनं, एतस्मिं अन्तरे अनुपादाय आसवेहि चित्तं विमुच्चि । अयहि आयस्मा चङ्कमेन बहि वीतिनामेत्वा विसेसं निब्बत्तेतुं असक्कोन्तो चिन्तेसि – “ननु मं भगवा एतदवोच - 'कतपुञ्ञोसि त्वं, आनन्द, पधानमनुयुञ्ज, खिप्पं होहिसि अनासवो ति ( दी० नि० २.२०७) । बुद्धानञ्च कथादोसो नाम नत्थि, मम पन अच्चारद्धं वीरियं तेन मे चित्तं उद्धच्चाय संवत्तति । हन्दाहं वीरियसमतं योजेमी "ति, चङ्कमा ओरोहित्वा पादधोवनट्टाने ठत्वा पादे धोवित्वा विहारं पविसित्वा मञ्चके निसीदित्वा, “थोकं विस्समिस्सामी 'ति कायं मञ्चके अपनामेसि । द्वे पादा भूमितो मुत्ता, सीसं बिम्बोहनमप्पत्तं, एतस्मिं अन्तरे अनुपादाय आसवेहि चित्तं विमुत्तं चतुइरियापथविरहितं थेरस्स अरहत्तं । तेन " इमस्मिं सासने अनिपन्नो अनिसिन्नो अट्ठितो अचङ्कमन्तो को भिक्खु अरहत्तं पत्तो 'ति वुत्ते " आनन्दत्थेरो "ति वत्तुं वट्टति । अथ थेरा भिक्खू दुतियदिवसे पञ्चमियं काळपक्खस्स कतभत्तकिच्चा पत्तचीवरं पटिसामेत्वा धम्मसभायं सन्निपतिंसु । अथ खो आयस्मा आनन्दो अरहा समानो सन्निपातं अगमासि । कथं अगमासि ? " इदानिम्हि सन्निपातमज्झं पविसनारहो "ति हट्ठतुट्ठचित्तो एकंसं चीवरं कत्वा बन्धना मुत्ततालपक्कं विय, पण्डुकम्बले निक्खित्तजातिमणि विय, विगतवलाहके नभे समुग्गतपुण्णचन्दो विय, बालातपसम्फस्सविकसितरेणुपिञ्जरगब्भं पदुमं 10 Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विय च, परिसुद्धेन परियोदातेन सप्पभेन सस्सिरीकेन च मुखवरेन अत्तनो अरहत्तप्पत्तिं आरोचयमानो विय अगमासि । अथ नं दिस्वा आयस्मतो महाकस्सपस्स एतदहोसि - " सोभति वत भो अरहत्तप्पत्तो आनन्दो, सचे सत्था धरेय्य, अद्धा अज्जानन्दस्स साधुकारं ददेय्य, दानिस्साहं सत्थारा दातब्बं साधुकारं ददामी"ति, तिक्खत्तुं साधुकारमदासि । हन्द, पठममहासङ्गीतिकथा मज्झिमभाणका पन वदन्ति - “आनन्दत्थेरो अत्तनो अरहत्तप्पत्तिं जपेतुकामो भिक्खूहि सद्धिं नागतो, भिक्खू यथावुङ्कं अत्तनो अत्तनो पत्तासने निसीदन्ता आनन्दत्थेरस्स आसनं ठपेत्वा निसिन्ना । तत्थ केचि एवमाहंसु - 'एतं आसनं कस्सा'ति ? 'आनन्दस्सा 'ति । 'आनन्दो पन कुहिं गतो 'ति ? तस्मिं समये थेरो चिन्तेसि महं गमनकालो'ति । ततो अत्तनो आनुभावं दस्सेन्तो पथवियं निमज्जित्वा अत्तनो आसनेयेव अत्तानं दस्सेसी "ति, आकासेन गन्त्वा निसीदीतिपि एके । यथा वा तथा वा होतु । सब्बथापि तं दिस्वा आयस्मतो महाकस्सपस्स साधुकारदानं युत्तमेव । 'इदानि एवं आगते पन तस्मिं आयस्मन्ते महाकरसपत्थेरो भिक्खू आमन्तेसि - " आवुसो, किं पठमं सङ्गायाम, धम्मं वा विनयं वा "ति ? भिक्खू आहंसु - “भन्ते, महाकस्सप, विनयो नाम बुद्धसासनस्स आयु । विनये ठिते सासनं ठितं नाम होति । तस्मा पठमं विनयं सङ्गायामा ''ति । “कं धुरं कत्वा" ति ? " आयस्मन्तं उपालि "न्ति । “किं आनन्दो नप्पहोती 'ति ? "नो नप्पहोति" । अपि च खो पन सम्मासम्बुद्धो धरमानोयेव विनयपरियत्तिं निस्साय आयस्मन्तं उपालं एतदग्गे ठपेसि - " एतदग्गं, भिक्खवे, मम सावकानं भिक्खूनं विनयधरानं यदिदं उपाली 'ति (अ० नि० १.१.२२८)। ' तस्मा उपालित्थेरं पुच्छित्वा विनयं सङ्गायामा 'ति । ततो थेरो विनयं पुच्छनत्थाय अत्तनाव अत्तानं सम्मन्नि । उपालित्थेरोपि विस्सज्जनत्थाय सम्मन्नि । तत्रायं पाळि - अथ खो आयस्मा महाकस्सपो सङ्घ आपेसि - “सुणातु मे, आवुसो, सङ्घी, यदि सङ्घस्स पत्तकल्लं, अहं उपालं विनयं पुच्छेय्यन्ति ।। आयस्मापि उपालि सङ्घं ञपेसि - ११ 11 Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गट्ठकथा “सुणातु मे, भन्ते, सङ्घो, यदि सङ्घस्स पत्तकल्लं, अहं आयस्मता महाकस्सपेन विनयं पुट्ठो विस्सज्जेय्य'न्ति ।। (चूळव० ४३९) एवं अत्तानं सम्मन्नित्वा आयस्मा उपालि उवायासना एकंसं चीवरं कत्वा थेरे भिक्खू वन्दित्वा धम्मासने निसीदि दन्तखचितं बीजनिं गहेत्वा, ततो महाकस्सपत्थेरो थेरासने निसीदित्वा आयस्मन्तं उपालिं विनयं पुच्छि। “पठमं आवुसो, उपालि, पाराजिकं कत्थ पञत्त"न्ति ? "वेसालियं, भन्ते''ति | "कं आरब्भा'"ति ? “सुदिन्नं कलन्दपुत्तं आरब्भा''ति । “किस्मिं वत्थुस्मिन्ति ? “मेथुनधम्मे'ति । “अथ खो आयस्मा महाकस्सपो आयस्मन्तं उपालिं पठमस्स पाराजिकस्स वत्थुम्पि पुच्छि, निदानम्पि पुच्छि, पुग्गलम्पि पुच्छि, पञत्तिम्पि पुच्छि, अनुपञत्तिम्पि पुच्छि, आपत्तिम्पि पुच्छि, अनापत्तिम्पि पुच्छि” (चूळव० ४३९)। पुट्ठो पुट्ठो आयस्मा उपालि विस्सज्जेसि। किं पनेत्थ पठमपाराजिके किञ्चि अपनेतब्बं वा पक्खिपितब्बं वा अस्थि नत्थीति ? अपनेतब्बं नत्थि । बुद्धस्स हि भगवतो भासिते अपनेतब्बं नाम नत्थि । न हि तथागता एकब्यञ्जनम्पि निरत्थकं वदन्ति । सावकानं पन देवतानं वा भासिते अपनेतब्बम्पि होति, तं धम्मसङ्गाहकत्थेरा अपनयिंसु । पक्खिपितब्बं पन सब्बत्थापि अस्थि, तस्मा यं यत्थ पक्खिपितुं युत्तं, तं पक्खिपिंसुयेव । किं पन तन्ति ? 'तेन समयेना'ति वा, 'तेन खो पन समयेना'ति वा, “अथ खोति वा', 'एवं वुत्तेति' वा, 'एतदवोचा'ति वा, एवमादिकं सम्बन्धवचनमत्तं । एवं पक्खिपितब्बयुत्तं पक्खिपित्वा पन - "इदं पठमपाराजिक''न्ति ठपेसुं। पठमपाराजिके सङ्गहमारूळ्हे पञ्च अरहन्तसतानि सङ्गहं आरोपितनयेनेव गणसज्झायमकंसु- “तेन समयेन बुद्धो भगवा वेरञ्जायं विहरती''ति । तेसं सज्झायारद्धकालेयेव साधुकारं ददमाना विय महापथवी उदकपरियन्तं कत्वा अकम्पित्थ । एतेनेव नयेन सेसानि तीणि पाराजिकानि सङ्गहं आरोपेत्वा “इदं पाराजिककण्ड"न्ति ठपेसुं । तेरस सङ्घादिसेसानि “तेरसक"न्ति ठपेसुं । द्वे सिक्खापदानि "अनियतानी"ति ठपेसुं। तिंस सिक्खापदानि "निस्सग्गियानि पाचित्तियानी"ति ठपेसुं । द्वेनवुति सिक्खापदानि “पाचित्तियानी"ति ठपेसुं। चत्तारि सिक्खापदानि 12 Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पठममहासङ्गीतिकथा “पाटिदेसनीयानी''ति ठपेसुं । पञ्चसत्तति सिक्खापदानि “सेखियानी"ति ठपेसुं । सत्त धम्मे “अधिकरणसमथा"ति ठपेसुं। एवं सत्तवीसाधिकानि द्वे सिक्खापदसतानि "महाविभङ्गो''ति कित्तेत्वा ठपेसुं । महाविभङ्गावसानेपि पुरिमनयेनेव महापथवीअकम्पित्थ । ततो भिक्खुनीविभङ्गे अट्ठ सिक्खापदानि “पाराजिककण्डं नाम इद"न्ति ठपेसुं । सत्तरस सिक्खापदानि “सत्तरसक"न्ति ठपेसुं। तिंस सिक्खापदानि “निस्सग्गियानि पाचित्तियानी''ति ठपेसुं। छसट्ठिसतसिक्खापदानि “पाचित्तियानी''ति ठपेसुं। अट्ठ सिक्खापदानि “पाटिदेसनीयानी"ति ठपेसुं। पञ्चसत्तति सिक्खापदानि “सेखियानी"ति ठपेसुं । सत्त धम्मे “अधिकरणसमथा''ति ठपेसुं । एवं तीणि सिक्खापदसतानि चत्तारि च सिक्खापदानि “भिक्खुनीविभङ्गो''ति कित्तेत्वा - “अयं उभतो विभङ्गो नाम चतुसट्ठिभाणवारो''ति ठपेसुं । उभतोविभङ्गावसानेपि वुत्तनयेनेव महापथविकम्पो अहोसि । एतेनेवुपायेन असीतिभाणवारपरिमाणं खन्धकं, पञ्चवीसतिभाणवारपरिमाणं परिवारञ्च सङ्गहं आरोपेत्वा “इदं विनयपिटकं नामा''ति ठपेसुं । विनयपिटकावसानेपि वुत्तनयेनेव महापथविकम्पो अहोसि । तं आयस्मन्तं उपालिं पटिच्छापेसुं- “आवुसो, इमं तुम्हं निस्सितके वाचेही''ति। विनयपिटकसङ्गहावसाने उपालित्थेरो दन्तखचितं बीजनिं निक्खिपित्वा धम्मासना ओरोहित्वा थेरे भिक्खू वन्दित्वा अत्तनो पत्तासने निसदि । विनयं सनायित्वा धम्म सङ्गायितकामो आयस्मा महाकस्सपो भिक्ख पच्छि- “धम्म सङ्गायन्ते हि कं पुग्गलं धुरं कत्वा धम्मो सङ्गायितब्बो"ति ? भिक्खू- “आनन्दत्थेरं धुरं कत्वा'"ति आहंसु । अथ खो आयस्मा महाकस्सपो सङ्ख आपेसि - “सुणातु मे, आवुसो, सङ्घो, यदि सङ्घस्स पत्तकल्लं, अहं आनन्दं धम्मं पुच्छेय्य"न्ति । अथ खो आयस्मा आनन्दो सङ्घ आपेसि - 13 Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गट्ठकथा "सुणातु मे, भन्ते, सङ्घो, यदि सङ्घस्स पत्तकल्लं, अहं आयस्मता महाकस्सपेन धम्मं पुट्ठो विस्सज्जेय्य''न्ति । अथ खो आयस्मा आनन्दो उठायासना एकंसं चीवरं कत्वा थेरे भिक्खू वन्दित्वा धम्मासने निसीदि दन्तखचितं बीजनिं गहेत्वा । अथ खो आयस्मा महाकस्सपो भिक्खू पुच्छि – “कतरं, आवुसो, पिटकं पठमं सनायामाति ? “सुत्तन्तपिटकं, भन्ते"ति । "सुत्तन्तपिटके चतस्सो सङ्गीतियो, तासु पठमं कतरं सङ्गीति"न्ति ? “दीघसङ्गीति, भन्ते'ति । “दीघसङ्गीतियं चतुतिंस सुत्तानि, तयो वग्गा, तेसु पठमं कतरं वग्ग"न्ति ? "सीलक्खन्धवग्गं, भन्ते"ति । “सीलक्खन्धवग्गे तेरस सुत्तन्ता, तेसु पठमं कतरं सुत्त'न्ति ? "ब्रह्मजालसुत्तं नाम भन्ते, तिविधसीलालङ्कतं, नानाविधमिच्छाजीवकहनलपनादिविद्धंसनं, द्वासहिदिट्ठिजालविनिवेठनं, दससहस्सिलोकधातुकम्पनं, तं पठमं सङ्गायामा"ति । अथ खो आयस्मा महाकस्सपो आयस्मन्तं आनन्दं एतदवोच, "ब्रह्मजालं, आवुसो आनन्द, कत्थ भासित''न्ति ? “अन्तरा च, भन्ते, राजगहं अन्तरा च नाळन्दं राजागारके अम्बलट्टिकाय"न्ति । "कं आरब्भा''ति ? "सुप्पियञ्च परिब्बाजकं, ब्रह्मदत्तञ्च माणव"न्ति । “किस्मिं वत्थुस्मि"न्ति ? “वण्णावण्णे''ति । अथ खो आयस्मा महाकस्सपो आयस्मन्तं आनन्दं ब्रह्मजालस्स निदानम्पि पुच्छि, पुग्गलम्पि पुच्छि, वत्थुम्पि पुच्छि (चूळव० ४४०)। आयस्मा आनन्दो विस्सज्जेसि । विस्सज्जनावसाने पञ्च अरहन्तसतानि गणसज्झायमकंसु । वुत्तनयेनेव च पथविकम्पो अहोसि । एवं ब्रह्मजालं सङ्गायित्वा ततो परं “सामञफलं, पनावुसो आनन्द, कत्थ भासित''न्तिआदिना नयेन पुच्छाविस्सज्जनानुक्कमेन सद्धिं ब्रह्मजालेन सब्बेपि तेरस सुत्तन्ते सङ्गायित्वा – “अयं सीलक्खन्धवग्गो नामा"ति कित्तेत्वा ठपेसुं । तदनन्तरं महावग्गं, तदनन्तरं पाथिकवग्गन्ति, एवं तिवग्गसङ्गह चतुतिंससुत्तपटिमण्डितं चतुसट्ठिभाणवारपरिमाणं तन्तिं सङ्गायित्वा “अयं दीघनिकायो नामा''ति वत्वा आयस्मन्तं आनन्दं पटिच्छापेसुं- “आवुसो, इमं तुम्हं निस्सितके वाचेही''ति । Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पठममहासङ्गीतिकथा १५ ततो अनन्तरं असीतिभाणवारपरिमाणं मज्झिमनिकायं सङ्गायित्वा धम्मसेनापतिसारिपुत्तत्थेरस्स निस्सितके पटिच्छापेसुं- "इमं तुम्हे परिहरथा''ति ।। ततो अनन्तरं सतभाणवारपरिमाणं संयुत्तनिकायं सङ्गायित्वा महाकस्सपत्थेरं पटिच्छापेसुं- “भन्ते, इमं तुम्हाकं निस्सितके वाचेथा''ति । ततो अनन्तरं वीसतिभाणवारसतपरिमाणं अङ्गुत्तरनिकायं सङ्गायित्वा अनुरुद्धत्थेरं पटिच्छापेसुं- “इमं तुम्हाकं निस्सितके वाचेथा''ति । ततो अनन्तरं धम्मसङ्गहविभङ्गधातुकथापुग्गलपञत्तिकथावत्थुयमकपट्टानं अभिधम्मोति वुच्चति । एवं संवण्णितं सुखुमञाणगोचरं तन्तिं सङ्गायित्वा - “इदं अभिधम्मपिटकं नामा'"ति वत्वा पञ्च अरहन्तसतानि सज्झायमकंसु । वुत्तनयेनेव पथविकम्पो अहोसीति । ततो परं जातकं, निद्देसो, पटिसम्भिदामग्गो, अपदानं, सुत्तनिपातो, खुद्दकपाठो, धम्मपदं, उदानं, इतिवृत्तकं, विमानवत्थु, पेतवत्थु, थेरगाथा, थेरीगाथाति इमं तन्तिं सङ्गायित्वा "खुद्दकगन्थो नामाय"न्ति च वत्वा "अभिधम्मपिटकस्मिंयेव सङ्गहं आरोपयिंसू''ति दीघभाणका वदन्ति । मज्झिमभाणका पन “चरियापिटकबुद्धवंसेहि सद्धिं सब्बम्पेतं खुद्दकगन्थं नाम सुत्तन्तपिटके परियापन्न''न्ति वदन्ति । एवमेतं सब्बम्पि बुद्धवचनं रसवसेन एकविधं, धम्मविनयवसेन दुविधं, पठममज्झिमपच्छिमवसेन तिविधं । तथा पिटकवसेन । निकायवसेन पञ्चविधं, अङ्गवसेन नवविधं, धम्मक्खन्धवसेन चतुरासीतिसहस्सविधन्ति वेदितब्बं । ___ कथं रसवसेन एकविधं ? यहि भगवता अनुत्तरं सम्मासम्बोधिं अभिसम्बुज्झित्वा याव अनुपादिसेसाय निब्बानधातुया परिनिब्बायति, एत्थन्तरे पञ्चचत्तालीसवस्सानि देवमनुस्सनागयक्खादयो अनुसासन्तेन वा पच्चवेक्खन्तेन वा वुत्तं, सब् तं एकरसं विमुत्तिरसमेव होति । एवं रसवसेन एकविधं । कथं धम्मविनयवसेन दुविधं ? सब्बमेव चेतं धम्मो चेव विनयो चाति सङ्ख्यं गच्छति । तत्थ विनयपिटकं विनयो, अवसेसं बुद्धवचनं धम्मो । तेनेवाह “यन्नून मयं Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गट्ठकथा धम्मञ्च विनयञ्च सङ्गायेय्यामा"ति (चूळव० ४३७)। “अहं उपालिं विनयं पुच्छेय्यं, आनन्दं धम्म पुच्छेय्य"न्ति च । एवं धम्मविनयवसेन दुविधं । कथं पठममज्झिमपच्छिमवसेन तिविधं ? सब्बमेव मज्झिमबुद्धवचनं, पच्छिमबुद्धवचनन्ति तिप्पभेदं होति । तत्थ - हिदं पठमबुद्धवचनं, "अनेकजातिसंसार, सन्धाविस्सं अनिब्बिसं । गहकारं गवेसन्तो, दुक्खा जाति पुनप्पुनं । । गहकारक दिट्ठोसि, पुन गेहं न काहसि । सब्बा ते फासुका भग्गा, गहकूटं विसङ्खतं । विसङ्खारगतं चित्तं, तण्हानं खयमज्झगा''ति ।। (ध० प० १५३-५४) इदं पठमबुद्धवचनं । केचि “यदा हवे पातुभवन्ति धम्मा"ति (महाव० १) खन्धके उदानगाथं वदन्ति । एसा पन पाटिपददिवसे सब्ब भावप्पत्तस्स सोमनस्समयजाणेन पच्चयाकारं पच्चवेक्खन्तस्स उप्पन्ना उदानगाथाति वेदितब्बा । __ यं पन परिनिब्बानकाले अभासि - "हन्द दानि, भिक्खवे, आमन्तयामि वो, वयधम्मा सङ्खारा, अप्पमादेन सम्पादेथा'"ति (दी० नि० २.२१८) इदं पच्छिमबुद्धवचनं । उभिन्नमन्तरे यं वुत्तं, एतं मज्झिमबुद्धवचनं नाम | एवं पठममज्झिमपच्छिमबुद्धवचनवसेन तिविधं । ___ कथं पिटकवसेन तिविधं ? सब्बम्पि चेतं विनयपिटकं सुत्तन्तपिटकं अभिधम्मपिटकन्ति तिप्पभेदमेव होति । तत्थ पठमसङ्गीतियं सङ्गीतञ्च असङ्गीतञ्च सब्बम्पि समोधानेत्वा उभयानि पातिमोक्खानि, द्वे विभङ्गा, द्वावीसति खन्धका, सोळसपरिवाराति- इदं विनयपिटकं नाम । ब्रह्मजालादिचतुत्तिंससुत्तसङ्गहो दीघनिकायो, मूलपरियायसुत्तादिदियड्ढसतद्वेसुत्तसङ्गहो मज्झिमनिकायो, ओघतरणसुत्तादिसत्तसुत्तसहस्ससत्तसतद्वासट्ठिसुत्तसङ्गहो संयुत्तनिकायो, चित्तपरियादानसुत्तादिनवसुत्तसहस्सपञ्चसतसत्तपञाससुत्तसङ्गहो अङ्गुत्तरनिकायो, खुद्दकपाठ-धम्मपद-उदान-इतिवृत्तक-सुत्तनिपात-विमानवत्थु-पेतवत्थु-थेरगाथाथेरीगाथा-जातक-निद्देस-पटिसम्भिदामग्ग-अपदान-बुद्धवंस-चरियापिटकवसेन पन्नरसप्पभेदो 16 Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पठममहासङ्गीतिकथा खुद्दकनिकायोति इदं सुत्तन्तपिटकं नाम । धम्मसङ्गहो, विभङ्गो, धातुकथा, पुग्गलपञ्ञत्ति, कथावत्थु, यमकं, पट्ठानन्ति - इदं अभिधम्मपिटकं नाम । तत्थ - “विविधविसेसनयत्ता, विनयनतो चेव कायवाचानं । विनयत्थविदूहि अयं, विनयो विनयोति अक्खातो" ।। विविधा हि एत्थ पञ्चविधपातिमोक्खुद्देसपाराजिकादि सत्त आपत्तिक्खन्धमातिका विभङ्गादिप्पभेदा नया। विसेसभूता च दळहीकम्मसिथिलकरणप्पयोजना अनुपञ्ञत्तिनया । कायिकवाचसिकअज्झाचारनिसेधनतो चेस कायं वाचञ्च विनेति, तस्मा विविधनयत्ता विसेसनयत्ता कायवाचानं विनयनतो चेव विनयोति अक्खातो । तेनेतमेतस्स वचनत्थकोसल्लत्थं वुत्तं - "विविधविसेसनयत्ता, विनयनतो चेव कायवाचानं । विनयत्थविदूहि अयं, विनयो विनयोति अक्खातो 'ति । । इतरं पन - " अत्थानं सूचनतो सुवुत्ततो, सवनतोथ सूदनतो । सुत्ताणा सुत्तसभागतो च, सुत्तन्ति अक्खातं । । तञ्हि अत्तत्थपरत्थादिभेदे अत्थे सूचेति । सुवुत्ता चेत्थ अत्था, वेनेय्यज्झासयानुलोमेन वुत्तत्ता। सवति चेतं अत्थे सस्समिव फलं, पसवतीति वुत्तं होति । सूदति तं व खीरं, पग्घरापेतीति वुत्तं होति । सुटु च ने तायति, रक्खतीति वुत्तं होति । सुत्तसभागञ्चेतं, यथा हि तच्छकानं सुतं पमाणं होति, एवमेतम्पि विञ्जूनं । यथा च सुत्तेन सङ्गहितानि पुप्फानि न विकिरीयन्ति, न विद्धंसीयन्ति एवमेव तेन सङ्गहिता अत्था । तेनेतमेतस्स वचनत्थकोसल्लत्थं वुत्तं – " अत्थानं सूचनतो, सुवुत्ततो सवनतोथ सूदनतो । सुत्ताणा सुत्तसभागतो च, सुत्तन्ति अक्खात "न्ति । । १७ 17 9 Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८ दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गट्ठकथा इतरो पन - "यं एत्थ वुड्डिमन्तो, सलक्खणा पूजिता परिच्छिन्ना । वुत्ताधिका च धम्मा, अभिधम्मो तेन अक्खातो' || अयहि अभिसद्दो वुड्डिलक्खणपूजितपरिच्छिन्नाधिकेसु दिस्सति । तथा हेस “बाळहा मे दुक्खा वेदना अभिक्कमन्ति, नो पटिक्कमन्ती"तिआदीसु (म० नि० ३.३८९) बुड्वियं आगतो । “या ता रत्तियो अभिञाता अभिलक्खिता"तिआदीसु (म० नि०१.४९) सलक्खणे । “राजाभिराजा मनुजिन्दो"तिआदीसु (म० नि० २.३९९) पूजिते । “पटिबलो विनेतुं अभिधम्मे अभिविनये''तिआदीसु (महाव० ८५) परिच्छिन्ने । अञमञसङ्करविरहिते धम्मे च विनये चाति वुत्तं होति । “अभिक्कन्तेन वण्णेना"तिआदीसु (वि० व० ८१९) अधिके । __एत्थ च “रूपूपपत्तिया मग्गं भावेति' (ध० स० २५१), "मेत्तासहगतेन चेतसा एकं दिसं फरित्वा विहरती"तिआदिना (विभं० ६४२) नयेन वुड्डिमन्तोपि धम्मा वुत्ता । “रूपारम्मणं वा सद्दारम्मणं वा''तिआदिना (ध० स० १) नयेन आरम्मणादीहि लक्खणीयत्ता सलक्खणापि । “सेक्खा धम्मा, असेक्खा धम्मा, लोकुत्तरा धम्मा"तिआदिना (ध० स० तिकमातिका ११, दुकमातिका १२) नयेन पूजितापि, पूजारहाति अधिप्पायो । "फस्सो होति, वेदना होती''तिआदिना (ध० स० १) नयेन सभावपरिच्छिन्नत्ता परिच्छिन्नापि । “महग्गता धम्मा, अप्पमाणा धम्मा (ध० स० तिकमातिका ११), अनुत्तरा धम्मा'"तिआदिना (ध० स० दुकमातिका ११) नयेन अधिकापि धम्मा वुत्ता । तेनेतमेतस्स वचनत्थकोसल्लत्थं वुत्तं - . "यं एत्थ ड्विमन्तो, सलक्खणा पूजिता परिच्छिन्ना । वुत्ताधिका च धम्मा, अभिधम्मो तेन अक्खातो''ति ।। यं पनेत्थ अविसिटुं, तं “पिटकं पिटकत्थविदू, परियत्तिब्भाजनत्थतो आहु । तेन समोधानेत्वा, तयोपि विनयादयो ।य्या' ।। 18 Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पठममहासङ्गीतिकथा परियत्तिपि हि " मा पिटकसम्पदानेना "तिआदीसु (अ० नि० १.३.६६) पिटकन्ति वुच्चति । “अथ पुरिसो आगच्छेय्य कुदालपिटकमादाया 'तिआदीसु (अ० नि० १.३.७०) यं किञ्चि भाजनम्पि। तस्मा 'पिटकं पिटकत्थविदू परियत्तिभाजनत्थतो आहु । इदानि 'तेन समोधानेत्वा तयोपि विनयादयो जेय्या'ति, तेन एवं दुविधत्थेन पिटकसद्देन सह समासं कत्वा विनयो च सो पिटकञ्च परियत्तिभावतो, तस्स तस्स अत्थस्स भाजनतो चाति विनयपिटकं, यथावुत्तेनेव नयेन सुत्तन्तञ्च तं पिटकञ्चाति सुत्तन्तपिटकं, अभिधम्मो च सो पिटकञ्चाति अभिधम्मपिटकन्ति । एवमेते प विनयादयो य्या । एवं ञत्वा च पुनपि तेसुयेव पिटकेसु नानप्पकारकोसल्लत्थं - “देसनासासनकथाभेदं तेसु यथारहं । सिक्खाप्पहानगम्भीरभावञ्च परिदीपये । । परियत्तिभेदं सम्पत्तिं, विपत्तिञ्चापि यं यहिं । पापुणाति यथा भिक्खु, तम्पि सब्बं विभावये" ।। १९ तत्रायं परिदीपना विभावना च । एतानि हि तीणि पिटकानि यथाक्कमं आणावोहारपरमत्थदेसना, यथापराधयथानुलोमयथाधम्मसासनानि, संवरासंवरदिट्ठिविनिवेठननामरूपपरिच्छेदकथाति च वुच्चन्ति । एत्थ हि विनयपिटकं आणारहेन भगवता आणाबाहुल्ल देसितत्ता आणादेसना, सुत्तन्तपिटकं वोहारकुसलेन भगवता वोहार बाहुल्लतो देसितत्ता वोहारदेसना, अभिधम्मपिटकं परमत्थकुसलेन भगवता परमत्थबाहुल्लतो देसितत्ता परमत्थदेसनाति वुच्चति । तथा पठमं- 'ये ते पचुरापराधा सत्ता, ते यथापराधं एत्थ सासिता 'ति यथापराधसासनं, दुतियं - 'अनेकज्झासयानुसयचरियाधिमुत्तिका सत्ता यथानुलोमं एत्थ सासिता 'ति यथानुलोमसासनं, ततियं - 'धम्मपुञ्जमत्ते " अहं ममा' 'ति सञ्ञिनो सत्ता यथाधम्मं एत्थ सासिता ' ति यथाधम्मसासनन्ति वुच्चति । तथा पठमं - अज्झाचारपरिपक्खभूतो संवरासंवरो एत्थ कथितोति संवरासंवरकथा । 19 Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गट्ठकथा संवरासंवरोति खुद्दको चेव महन्तो च संवरो, कम्माकम्मं विय, फलाफलं विय च, दुतियं - "द्वासट्ठिदिट्ठिपटिपक्खभूता दिट्ठिविनिवेठना एत्थ कथिता''ति दिविविनिवेठनकथा, ततियं - "रागादिपटिपक्खभूतो नामरूपपरिच्छेदो एत्थ कथितो''ति नामरूपपरिच्छेदकथाति वुच्चति । तीसुपि चेतेसु तिस्सो सिक्खा, तीणि पहानानि, चतुब्बिधो च गम्भीरभावो वेदितब्बो। तथा हि विनयपिटके विसेसेन अधिसीलसिक्खा वुत्ता, सुत्तन्तपिटके अधिचित्तसिक्खा, अभिधम्मपिटके अधिपञासिक्खा। विनयपिटके च वीतिक्कमप्पहानं, किलेसानं वीतिक्कमपटिपक्खत्ता सीलस्स | सुत्तन्तपिटके परियुट्ठानप्पहानं, परियुट्टानपटिपक्खत्ता समाधिस्स । अभिधम्मपिटके अनुसयप्पहानं, अनुसयपटिपक्खत्ता पञ्जाय। पठमे च तदङ्गप्पहानं, इतरेसु विक्खम्भनसमुच्छेदप्पहानानि। पठमे च दुच्चरितसंकिलेसप्पहानं, इतरेसु तण्हादिट्ठिसंकिलेसप्पहानं। एकमेकस्मिञ्चेत्थ चतुब्बिधोपि धम्मत्थदेसना पटिवेधगम्भीरभावो वेदितब्बो। तत्थ धम्मोति तन्ति । अत्थोति तस्सायेव अत्थो । देसनाति तस्सा मनसा ववत्थापिताय तन्तिया देसना। पटिवेधोति तन्तिया तन्तिअत्थस्स च यथाभूतावबोधो। तीसुपि चेतेसु एते धम्मत्थदेसनापटिवेधा। यस्मा ससादीहि विय महासमुद्दो मन्दबुद्धीहि दुक्खोगाळहा अलब्भनेय्यपतिट्ठा च, तस्मा गम्भीरा । एवं एकमेकस्मिं एत्थ चतुब्बिधोपि गम्भीरभावो वेदितब्बो। अपरो नयो, धम्मोति हेतु । वुत्त हेतं- “हेतुम्हि आणं धम्मपटिसम्भिदा''ति अत्थोति हेतुफलं, वुत्त हेतं- “हेतुफले आणं अत्थपटिसम्भिदा''ति (विभं० ७२०)। देसनाति पञत्ति, यथा धम्मं धम्माभिलापोति अधिप्पायो । अनुलोमपटिलोमस पवित्थारादिवसेन वा कथनं । पटिवेधोति अभिसमयो, सो च लोकियलोकुत्तरो विसयतो असम्मोहतो च, अत्थानुरूपं धम्मेसु, धम्मानुरूपं अत्थेसु, पञत्तिपथानुरूपं पञत्तीसु अवबोधो । तेसं तेसं वा तत्थ तत्थ वुत्तधम्मानं पटिविज्झितब्बो सलक्खणसङ्घातो अविपरीतसभावो । 20 Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पठममहासङ्गीतिकथा इदानि यस्मा एतेसु पिटकेसु यं यं धम्मजातं वा अत्थजातं वा, या चायं यथा यथा आपेतब्बो अत्थो सोतूनं आणस्स अभिमुखो होति, तथा तथा तदत्थजोतिका देसना, यो चेत्थ अविपरीतावबोधसङ्घातो पटिवेधो, तेसं तेसं वा धम्मानं पटिविज्झितब्बो सलक्खणसङ्घातो अविपरीतसभावो। सब्बम्पेतं अनुपचितकुसलसम्भारेहि दुप्प हि ससादीहि विय महासमुद्दो दुक्खोगाळ्हं अलब्भनेय्यपतिठ्ठञ्च, तस्मा गम्भीरं । एवम्पि एकमेकस्मिं एत्थ चतुब्बिधोपि गम्भीरभावो वेदितब्बो । एत्तावता च “देसनासासनकथा, भेदं तेसु यथारहं । सिक्खाप्पहानगम्भीर, भावञ्च परिदीपये''ति अयं गाथा वुत्तत्थाव होति । “परियत्तिभेदं सम्पत्तिं, विपत्तिञ्चापि यं यहिं । पापुणाति यथा भिक्खु, तम्पि सब्बं विभावये''ति - एत्थ पन तीसु पिटकेसु तिविधो परियत्तिभेदो दट्ठब्बो । तिस्सो हि परियत्तियोअलगद्दूपमा, निस्सरणत्था, भण्डागारिकपरियत्तीति । तत्थ या दुग्गहिता, उपारम्भादिहेतु परियापुटा, अयं अलगद्दूपमा। यं सन्धाय वुत्तं “सेय्यथापि, भिक्खवे, पुरिसो अलगद्दत्थिको अलगद्दगवेसी अलगद्दपरियेसनं चरमानो, सो पस्सेय्य महन्तं अलगद, तमेनं भोगे वा नङ्गुढे वा गण्हेय्य, तस्स सो अलगद्दो पटिपरिवत्तित्वा हत्थे वा बाहायं वा अञ्जतरस्मिं वा अङ्गपच्चङ्गे डंसेय्य, सो ततो निदानं मरणं वा निगच्छेय्य, मरणमत्तं वा दुक्खं । तं किस्स हेतु ? दुग्गहितत्ता, भिक्खवे, अलगद्दस्स । एवमेव खो, भिक्खवे, इधेकच्चे मोघपुरिसा धम्मं परियापुणन्ति, सुत्तं...पे०... वेदल्लं, ते तं धम्मं परियापुणित्वा तेसं धम्मानं पञाय अत्थं न उपपरिक्खन्ति, तेसं ते धम्मा पञ्जाय अत्थं अनुपपरिक्खतं न निज्झानं खमन्ति, ते उपारम्भानिसंसा चेव धम्म परियापुणन्ति, इतिवादप्पमोक्खानिसंसा च, यस्स चत्थाय धम्मं परियापुणन्ति, तञ्चस्स Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गट्ठकथा अत्थं नानुभोन्ति, तेसं ते धम्मा दुग्गहिता दीघरत्तं अहिताय दुक्खाय संवत्तन्ति । तं किस्स हेतु ? दुग्गहितत्ता, भिक्खवे, धम्मान"न्ति (म० नि० १.२३८)। या पन सुग्गहिता सीलक्खन्धादिपारिपूरियेव आकङ्खमानेन परियापुटा, न उपारम्भादिहेतु, अयं निस्सरणत्था। यं सन्धाय वुत्तं- “तेसं ते धम्मा सुग्गहिता दीघरत्तं हिताय सुखाय संवत्तन्ति । तं किस्स हेतु ? सुग्गहितत्ता, भिक्खवे, धम्मान''न्ति (म० नि० १.२३९)। यं पन परिञातक्खन्धो पहीनकिलेसो भावितमग्गो पटिविद्धाकुप्पो सच्छिकतनिरोधो खीणासवो केवलं पवेणीपालनत्थाय वंसानुरक्खणत्थाय परियापुणाति, अयं भण्डागारिकपरियत्तीति । विनये पन सुप्पटिपन्नो भिक्खु सीलसम्पदं निस्साय तिस्सो विज्जा पापुणाति, तासंयेव च तत्थ पभेदवचनतो। सुत्ते सुप्पटिपन्नो समाधिसम्पदं निस्साय छ अभिज्ञा पापुणाति, तासंयेव च तत्थ पभेदवचनतो । अभिधम्मे सुप्पटिपन्नो पासम्पदं निस्साय चतस्सो पटिसम्भिदा पापुणाति, तासञ्च तत्थेव पभेदवचनतो, एवमेतेसु सुप्पटिपन्नो यथाक्कमेन इमं विज्जात्तयछळभिज्ञाचतुप्पटिसम्भिदाभेदं सम्पत्तिं पापुणाति । विनये पन दुप्पटिपन्नो अनुज्ञातसुखसम्फस्सअत्थरणपावुरणादिफस्ससामञतो पटिक्खित्तेसु उपादिन्नकफस्सादीसु अनवज्जसञी होति । वुत्तम्पि हेतं - "तथाहं भगवता धम्म देसितं आजानामि, यथा ये मे अन्तरायिका धम्मा अन्तरायिका वुत्ता भगवता, ते पटिसेवतो नालं अन्तरायाया"ति (म० नि० १.२३४)। ततो दुस्सीलभावं पापुणाति । सुत्ते दुप्पटिपन्नो – “चत्तारो मे, भिक्खवे, पुग्गला सन्तो संविज्जमाना''तिआदीसु (अ० नि० १.४.५) अधिप्पायं अजानन्तो दुग्गहितं गण्हाति, यं सन्धाय वुत्तं- “अत्तना दुग्गहितेन अम्हे चेव अब्भाचिक्खति, अत्तानञ्च खणति, बहुञ्च अपुञ्ज पसवती"ति (म० नि० १.२३६)। ततो मिच्छादिट्टितं पापुणाति । अभिधम्मे दुप्पटिपन्नो धम्मचिन्तं अतिधावन्तो अचिन्तेय्यानिपि चिन्तेति । ततो चित्तक्खेपं पापुणाति, वुत्तव्हेतं"चत्तारिमानि, भिक्खवे, अचिन्तेय्यानि, न चिन्तेतब्बानि, यानि चिन्तेन्तो उम्मादस्स विघातस्स भागी अस्सा"ति (अ० नि० १.४.७७)। एवमेतेसु दुप्पटिपन्नो यथाक्कमेन इमं दुस्सीलभाव मिच्छादिट्ठिता चित्तक्खेपभेदं विपत्तिं पापुणाती"ति । Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पठममहासङ्गीतिकथा २३ एत्तावता च “परियत्तिभेदं सम्पत्तिं, विपत्तिञ्चापि यं यहिं । पापुणाति यथा भिक्खु, तम्पि सब्बं विभावये''ति अयम्पि गाथा वुत्तत्थाव होति । एवं नानप्पकारतो पिटकानि ञत्वा तेसं वसेनेतं बुद्धवचनं तिविधन्ति ज्ञातब्बं । कथं निकायवसेन पञ्चविधं ? सब्बमेव चेतं दीघनिकायो, मज्झिमनिकायो, संयुत्तनिकायो, अङ्गुत्तरनिकायो, खुद्दकनिकायोति पञ्चप्पभेदं होति । तत्थ कतमो दीघनिकायो ? तिवग्गसङ्गहानि ब्रह्मजालादीनि चतुत्तिंस सुत्तानि | "चतुत्तिंसेव सुत्तन्ता, तिवग्गो यस्स सङ्गहो । एस दीघनिकायोति, पठमो अनुलोमिको''ति ।। कस्मा पनेस दीघनिकायोति वुच्चति ? दीघप्पमाणानं सुत्तानं समूहतो निवासतो च । समूहनिवासा हि निकायोति वुच्चन्ति । “नाहं, भिक्खवे, अचं एकनिकायम्पि समनुपस्सामि एवं चित्तं, यथयिदं, भिक्खवे, तिरच्छानगता पाणा" (सं० नि० २.२.१००)। पोणिकनिकायो चिक्खल्लिकनिकायोति एवमादीनि चेत्थ साधकानि सासनतो लोकतो च । एवं सेसानम्पि निकायभावे वचनत्थो वेदितब्बो । पञ्चदसवग्गसङ्गहानि कतमो मज्झिमनिकायो? मज्झिमप्पमाणानि मूलपरियायसुत्तादीनि दियड्डसतं द्वे च सुत्तानि । “दियड्डसतसुत्तन्ता, द्वे च सुत्तानि यत्थ सो । निकायो मज्झिमो पञ्च, दसवग्गपरिग्गहो''ति ।। कतमो संयुत्तनिकायो? देवतासंयुत्तादिवसेन कथितानि सुत्तसहस्सानि सत्त च सुत्तसतानि द्वासहि च सुत्तानि । ओघतरणादीनि सत्त 23 Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गट्ठकथा “सत्तसुत्तसहस्सानि, सत्तसुत्तसतानि च । द्वासट्टि चेव सुत्तन्ता, एसो संयुत्तसङ्गहो''ति ।। कतमो अङ्गत्तरनिकायो ? एकेकअङ्गातिरेकवसेन कथितानि चित्तपरियादानादीनि नव सुत्तसहस्सानि पञ्च सुत्तसतानि सत्तपञासञ्च सुत्तानि । "नव सुत्तसहस्सानि, पञ्च सुत्तसतानि च । सत्तपास सुत्तानि, सङ्ख्या अङ्गुत्तरे अय"न्ति ।। कतमो खुद्दकनिकायो? सकलं विनयपिटकं, अभिधम्मपिटकं, खुद्दकपाठादयो च पुब्बे दस्सिता पञ्चदसप्पभेदा, ठपेत्वा चत्तारो निकाये अवसेसं बुद्धवचनं । "ठपेत्वा चतुरोपेते, निकाये दीघआदिके । तदनं बुद्धवचनं, निकायो खुद्दको मतो"ति ।। एवं निकायवसेन पञ्चविधं । कथं अङ्गवसेन नवविधं ? सब्बमेव हिदं सुत्तं, गेय्यं, वेय्याकरणं, गाथा, उदानं, इतिवृत्तकं, जातकं, अब्भुतधम्मं, वेदल्लन्ति नवप्पभेदं होति। तत्थ उभतोविभङ्गनिहेसखन्धकपरिवारा. सत्तनिपाते मङ्गलसत्तरतनसत्तनालकसत्ततवट्टकसत्तानि च अचम्पि च सत्तनामकं तथागतवचनं सत्तन्ति वेदितब्बं | सब्बम्पि सगाथकं सत्तं गेय्यन्ति वेदितब्बं । विसेसेन संयुत्तके सकलोपि सगाथवग्गो, सकलम्पि अभिधम्मपिटकं, निग्गाथकं सुत्तं, यञ्च अझम्पि अट्ठहि अङ्गेहि असङ्गहितं बुद्धवचनं, तं वेय्याकरणन्ति वेदितब्बं । धम्मपदं, थेरगाथा,थेरीगाथा, सुत्तनिपाते नोसुत्तनामिका सुद्धिकगाथा च गाथाति वेदितब्बा । सोमनस्साणमयिकगाथा पटिसंयुत्ता द्वेअसीति सुत्तन्ता उदानन्ति वेदितब्बं । “वुत्तव्हेतं भगवता''तिआदिनयप्पवत्ता दसुत्तरसतसुत्तन्ता इतिवृत्तकन्ति वेदितब्बं । अपण्णकजातकादीनि पञ्जासाधिकानि पञ्चजातकसतानि 'जातक'न्ति वेदितब्बं । “चत्तारोमे, भिक्खवे, अच्छरिया अब्भुता धम्मा आनन्दे"तिआदिनयप्पवत्ता (दी० नि० २.२०९) सब्बेपि अच्छरियब्भुतधम्मपटिसंयुत्तसुत्तन्ता अन्भुतधम्मन्ति वेदितब्। चूळवेदल्ल-महावेदल्ल Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पठममहासङ्गीतिकथा सम्मादिट्ठि-सक्कपञ्ह-सङ्घारभाजनिय- महापुण्णमसुत्तादयो सब्बेपि वेदञ्च तुट्ठिञ्च लद्धा लद्धा पुच्छितसुत्तन्ता वेदल्लन्ति वेदितब्बं । एवं अङ्गवसेन नवविधं । कथं धम्मक्खन्धवसेन चतुरासीतिसहस्सविधं ? सब्बमेव चेतं बुद्धवचनं - “द्वासीति बुद्धतो गण्हिं, द्वे सहस्सानि भिक्खुतो । चतुरासीति सहस्सानि, ये मे धम्मा पवत्तिनो 'ति । । एवं परिदीपितधम्मक्खन्धवसेन चतुरासीतिसहस्सप्पभेदं होति । तत्थ एकानुसन्धिकं सुतं एको धम्मक्खन्धो । यं अनेकानुसन्धिकं, तत्थ अनुसन्धिवसेन धम्मक्खन्धगणना गाथाबन्धे पञ्हापुच्छनं एको धम्मक्खन्धो, विस्सज्जनं एको । अभिधम्मे एकमेकं तिकदुकभाजनं, एकमेकञ्च चित्तवारभाजनं, एकमेको धम्मक्खन्धो । विनये अस्थि वत्थु, अत्थि मातिका, अस्थि पदभाजनीयं, अत्थि अन्तरापत्ति, अत्थि आपत्ति, अत्थि अनापत्ति, अस्थि तिकच्छेदो । तत्थ एकमेको कोट्ठासो एकमेको धम्मक्खन्धोति वेदितब्बो । एवं धम्मक्खन्धवसेन चतुरासीतिसहस्सविधं । २५ " एवमेतं अभेदतो रसवसेन एकविधं भेदतो धम्मविनयादिवसेन दुविधादिभेदं बुद्धवचनं सङ्गायन्तेन महाकस्सपप्पमुखेन वसीगणेन " अयं धम्मो, अयं विनयो, इदं पठमबुद्धवचनं, इदं मज्झिमबुद्धवचनं, इदं पच्छिमबुद्धवचनं, इदं विनयपिटकं, इदं सुत्तन्तपिटकं, इदं अभिधम्मपिटकं, अयं दीघनिकायो...पे०... अयं खुद्दकनिकायो, इमानि सुत्तादीनि नवङ्गानि, इमानि चतुरासीति धम्मक्खन्धसहस्सानी "ति, इमं पभेदं ववत्थत्वाव सङ्गीतं । न केवलञ्च इममेव, अञ्ञम्पि उद्दानसङ्ग्रह-वग्गसङ्गह-पेय्यालसङ्ग्रह-एककनिपातदुकनिपातादिनिपातसङ्ग्रह-संयुत्तसङ्ग्रह-पण्णाससङ्ग्रहादि - अनेकविधं तीसु पिटकेसु सन्दिस्समानं सङ्गहप्पभेदं ववत्थपेत्वा एव सत्तहि मासेहि सङ्गीतं । सङ्गीतिपरियोसाने चस्स - “इदं महाकस्सपत्थरेन दसबलस्स सासनं पञ्चवस्ससहस्सपरिमाणकालं पवत्तनसमत्थं कत "न्ति सञ्जातप्पमोदा साधुकारं विय ददमाना अयं महापथवी उदकपरियन्तं कत्वा अनेकप्पकारं कम्पि सङ्कम्पि सम्पकम्पि सम्पवेधि, अनेकानि च अच्छरियानि पातुरहेसुन्ति, अयं पठममहासङ्गीति नाम । या लोके - 25 Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६ दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गट्ठकथा "सतेहि पञ्चहि कता, तेन पञ्चसताति च । थेरेहेव कतत्ता च, थेरिकाति पवुच्चती'ति ।। 26 Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १. ब्रह्मजालसुत्तवण्णना परिब्बाजककथावण्णना इमिस्सा पठममहासङ्गीतिया वत्तमानाय विनयसङ्ग्रहावसाने सुत्तपिटके आदिनिकायस्स आदिसुत्तं ब्रह्मजालं पुच्छन्तेन आयस्मता महाकस्सपेन- " ब्रह्मजालं, आवुसो आनन्द, कत्थ भासित "न्ति, एवमादिवुत्तवचनपरियोसाने यत्थ च भासितं, यञ्चारब्भ भासितं तं सब्बं पकासेन्तो आयस्मा आनन्दो एवं मे सुतन्तिआदिमाह । तेन वृत्तं "ब्रह्मजालस्सापि एवं मे सुतन्तिआदिकं आयस्मता आनन्देन पठममहासङ्गीतिकाले वृत्तं निदानमादी 'ति । १. तत्थ एवन्ति निपातपदं । मेतिआदीनि नामपदानि । पटिपन्नो होतीति एत्थ पटीति उपसग्गपदं, होतीति आख्यातपदन्ति । इमिना ताव नयेन पदविभागो वेदितब्बो | "" अत्थतो पन एवं सद्द ताव उपमूपदेससम्पहंसनगरहणवचनसम्पटिग्गहाकारनिदस्सनावधारणादिअनेकत्थप्पभेदो । तथाहेस - “ एवं जातेन मच्चेन, कत्तब्बं कुसलं बहु "न्ति (ध० प० ५३) एवमादीसु उपमायं आगतो । एवं ते अभिक्कमितब्बं, एवं ते पटिक्कमितब्ब"न्तिआदीसु (अ० नि० १.४.१२२) उपदेसे । " एवमेतं भगवा, एवमेतं सुगता 'तिआदीसु (अ० नि० १.३.६६) सम्पहंसने । “ एवमेवं पनायं वसली यस्मिं वा तस्मिं वा तस्स मुण्डकस्स समणकस्स वण्णं भासती' तिआदीसु (सं० नि० १.१८७) गरहणे । “एवं, भन्तेति खो ते भिक्खू भगवतो पच्चस्सोसु "न्तिआदीसु (म० नि० १.१ ) वचनसम्पटिग्गहे । “एवं ब्या खो अहं, भन्ते, भगवता धम्मं देसितं आजानामी 'तिआदीसु (म० नि० १.३९८) आकारे । “एहि त्वं, माणवक, येन समणो आनन्दो तेनुपसङ्कम, उपसङ्कमित्वा मम वचनेन समणं आनन्दं 27 Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८ दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गट्ठकथा (१.१-१) अप्पाबाधं अप्पातङ्कं लहुट्टानं बलं फासुविहारं पुच्छ । “सुभो माणवो तोदेय्यपुत्तो भवन्तं आनन्दं अप्पाबाधं अप्पातङ्कं लहुट्ठानं बलं फासुविहारं पुच्छती''ति । “एवञ्च वदेहि, साधु किर भवं आनन्दो येन सुभस्स माणवस्स तोदेय्यपुत्तस्स निवेसनं, तेनुपसङ्कमतु अनुकम्पं उपादाया'तिआदीसु (दी० नि० १.४४५) निदस्सने । “तं किं मञथ, कालामा, इमे धम्मा कुसला वा अकुसला वाति ? अकुसला, भन्ते । सावज्जा वा अनवज्जा वाति ? सावज्जा, भन्ते । विझुगरहिता वा विझुप्पसत्था वाति ? वि गरहिता, भन्ते । समत्ता समादिन्ना अहिताय दुक्खाय संवत्तन्ति नो वा, कथं वो एत्थ होतीति ? समत्ता, भन्ते, समादिन्ना अहिताय दुक्खाय संवत्तन्ति, एवं नो एत्थ होती''तिआदीसु (अ० नि० १.३.६६) अवधारणे । स्वायमिध आकारनिदस्सनावधारणेसु दट्ठब्बो । तत्थ आकारत्थेन एवं सद्देन एतमत्थं दीपेति, नानानयनिपुणमनेकज्झासयसमुट्ठानं, अत्थब्यञ्जनसम्पन्नं, विविधपाटिहारियं, धम्मत्थदेसनापटिवेधगम्भीरं, सब्बसत्तानं सकसकभासानुरूपतो सोतपथमागच्छन्तं तस्स भगवतो वचनं सब्बप्पकारेन को समत्थो विज्ञातुं, सब्बथामेन पन सोतुकामतं जनेत्वापि ‘एवं मे सुतं' मयापि एकेनाकारेन सुतन्ति । निदस्सनत्थेन - “नाहं सयम्भू, न मया इदं सच्छिकतन्ति अत्तानं परिमोचेन्तो‘एवं मे सुतं', 'मयापि एवं सुत'न्ति इदानि वत्तब् सकलं सुत्तं निदस्सेति । अवधारणत्थेन - "एतदग्गं, भिक्खवे, मम सावकानं भिक्खून बहुस्सुतानं यदिदं आनन्दो, गतिमन्तानं, सतिमन्तानं, धितिमन्तानं, उपट्ठाकानं यदिदं आनन्दो"ति (अ० नि० १.१.२२३)। एवं भगवता - "आयस्मा आनन्दो अत्थकुसलो, धम्मकुसलो ब्यञ्जनकुसलो, निरुत्तिकुसलो, पुब्बापरकुसलो''ति (अ० नि० २.५.१६९)। एवं धम्मसेनापतिना च पसत्थभावानुरूपं अत्तनो धारणबलं दस्सेन्तो सत्तानं सोतुकामतं जनेति - ‘एवं मे सुतं', तञ्च खो अत्थतो वा ब्यञ्जनतो वा अनूनमनधिकं, एवमेव न अञथा दट्ठब्ब''न्ति । मेसद्दो तीसु अत्थेसु दिस्सति । तथा हिस्स- "गाथाभिगीतं मे अभोजनेय्य''न्तिआदीसु (सु० नि० ८१) मयाति अत्थो । “साधु मे, भन्ते, भगवा सङ्कित्तेन धम्म देसेतू''तिआदीसु (सं० नि० ३.४.८८) मय्हन्ति अत्थो । “धम्मदायादा मे, 28 Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१.१-१) परिब्बाजककथावण्णना भिक्खवे, भवथा'"तिआदीसु (म० नि० १.२९) ममाति अत्थो । इध पन मया सुतन्ति च, मम सुतन्ति च अत्थद्वये युज्जति । सुतन्ति अयं सुत-सद्दो सउपसग्गो च अनुपसग्गो च- गमनविस्सुतकिलिन्नउपचितानुयोग-सोतविज्ञेय्य-सोतद्वारानुसार-विज्ञातादिअनेकत्थप्पभेदो, तथा हिस्स “सेनाय पसुतो''तिआदीसु गच्छन्तोति अत्थो। “सुतधम्मस्स पस्सतो"तिआदीसु (उदा० ११) विस्सुतधम्मस्साति अत्थो। “अवस्सुता अवस्सुतस्सा''तिआदीसु (पाचि० ६५७) किलिन्नाकिलिन्नस्साति अत्थो । “तुम्हेहि पुजं पसुतं अनप्पक''न्तिआदीसु (खु० पा० ७.१२) उपचितन्ति अत्थो । “ये झानपसुता धीरा'"तिआदीसु (ध० प० १८१) झानानुयुत्ताति अत्थो । 'दिटुं सुतं मुत'न्तिआदीसु (म० नि० १.२४१) सोतविद्येय्यन्ति अत्थो। “सुतधरो सुतसन्निचयो'"तिआदीसु (म० नि० १.३३९) सोतद्वारानुसारविज्ञातधरोति अत्थो। इध पनस्स सोतद्वारानुसारेन उपधारितन्ति वा उपधारणन्ति वाति अत्थो । 'मे' सदस्स हि ‘मया'ति अत्थे सति ‘एवं मया सुतं' सोतद्वारानुसारेन उपधारितन्ति युज्जति। ‘ममा’ति अत्थे सति एवं मम सुतं सोतद्वारानुसारेन उपधारणन्ति युज्जति । __एवमेतेसु तीसु पदेसु एवन्ति सोतविज्ञाणादिविज्ञाणकिच्चनिदस्सनं । मेति वुत्तविज्ञाणसमङ्गिपुग्गलनिदस्सनं । सुतन्ति अस्सवनभावपटिक्खेपतो अनूनाधिका विपरीतग्गहणनिदस्सनं । तथा एवन्ति तस्सा सोतद्वारानुसारेन पवत्ताय विज्ञाणवीथिया नानप्पकारेन आरम्मणे पवत्तिभावप्पकासनं । मेति अत्तप्पकासनं । सुतन्ति धम्मप्पकासनं । अयञ्हेत्थ सङ्ग्रेपो - "नानप्पकारेन आरम्मणे पवत्ताय विज्ञाणवीथिया मया न अनं कतं, इदं पन कतं, अयं धम्मो सुतो"ति। तथा एवन्ति निद्दिसितब्बधम्मप्पकासनं। मेति पुग्गलप्पकासनं। सुतन्ति पुग्गलकिच्चप्पकासनं । इदं वुत्तं होति । “यं सुत्तं निद्दिसिस्सामि, तं मया एवं सुत"न्ति । तथा एवन्ति यस्स चित्तसन्तानस्स नानाकारप्पवत्तिया नानत्थब्यञ्जनग्गहणं होति, तस्स नानाकारनिद्देसो। एवन्ति हि अयमाकारपञत्ति । मेति कत्तुनिद्देसो । सुतन्ति विसयनिद्देसो। एत्तावता नानाकारप्पवत्तेन चित्तसन्तानेन तं समङ्गिनो कत्तु विसयग्गहणसन्निट्ठानं कतं होति । 29 Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गट्ठकथा (१.१-१) अथवा एवन्ति पुग्गलकिच्चनिद्देसो । सुतन्ति विज्ञाणकिच्चनिद्देसो। मेति उभयकिच्चयुत्तपुग्गलनिद्देसो । अयं पनेत्थ सोपो, “मया सवनकिच्चविणसमङ्गिना पुग्गलेन विज्ञाणवसेन लद्धसवनकिच्चवोहारेन सुत"न्ति । तत्थ एवन्ति च मेति च सच्चिकट्ठपरमत्थवसेन अविज्जमानपञ्जत्ति । किव्हेत्थ तं परमत्थतो अत्थि, यं एवन्ति वा मेति वा निद्देसं लभेथ ? सुतन्ति विज्जमानपञत्ति | यहि तं एत्थ सोतेन उपलद्धं, तं परमत्थतो विज्जमानन्ति । तथा ‘एव'न्ति च, मेति च, तं तं उपादाय वत्तब्बतो उपादापत्ति । 'सुत'न्ति दिवादीनि उपनिधाय वत्तब्बतो उपनिधापत्ति । एत्थ च एवन्ति वचनेन असम्मोहं दीपेति। न हि सम्मूळ्हो नानप्पकारपटिवेधसमत्थो होति । 'सुत'न्ति वचनेन सुतस्स असम्मोसं दीपेति । यस्स हि सुतं सम्मुटुं होति, न सो कालन्तरेन मया सुतन्ति पटिजानाति । इच्चस्स असम्मोहेन पासिद्धि, असम्मोसेन पन सतिसिद्धि। तत्थ पञापुब्बङ्गमाय सतिया ब्यञ्जनावधारणसमत्थता, सतिपुब्बङ्गमाय पञाय अत्थपटिवेधसमत्थता मदुभयसमत्थतायोगेन अत्थब्यञ्जनसम्पन्नस्स धम्मकोसस्स अनुपालनसमत्थतो धम्मभण्डागारिकत्तसिद्धि । अपरो नयो, एवन्ति वचनेन योनिसो मनसिकारं दीपेति । अयोनिसो मनसिकरोतो हि नानप्पकारपटिवेधाभावतो । सुतन्ति वचनेन अविक्खेपं दीपेति, विक्खित्तचित्तस्स सवनाभावतो । तथा हि विक्खित्तचित्तो पुग्गलो सब्बसम्पत्तिया वुच्चमानोपि “न मया सुतं, पुन भणथा''ति भणति । योनिसो मनसिकारेन चेत्थ अत्तसम्मापणिधिं पुब्बे च कतपुतं साधेति, सम्मा अप्पणिहितत्तस्स पुब्बे अकतपुञस्स वा तदभावतो । अविक्खेपेन सद्धम्मस्सवनं सप्पुरिसूपनिस्सयञ्च साधेति। न हि विक्खित्तचित्तो सोतुं सक्कोति, न च सप्पुरिसे अनुपस्सयमानस्स सवनं अस्थीति ।। अपरो नयो, यस्मा एवन्ति यस्स चित्तसन्तानस्स नानाकारप्पवत्तिया नानत्थब्यञ्जनग्गहणं होति, तस्स नानाकारनिद्देसोति वुत्तं, सो च एवं भद्दको आकारो न सम्माअप्पणिहितत्तनो पुब्बे अकतपुञ्जस्स वा होति, तस्मा एवन्ति इमिना भद्दकेनाकारेन पच्छिमचक्कद्वयसम्पत्तिमत्तनो दीपेति । सुतन्ति सवनयोगेन पुरिमचक्कद्वयसम्पत्तिं । न हि अप्पतिरूपदेसे वसतो सप्पुरिसूपनिस्सयविरहितस्स वा सवनं अत्थि । इच्चस्स पच्छिमचक्कद्वयसिद्धिया आसयसुद्धिसिद्धा होति, पुरिमचक्कद्वयसिद्धिया पयोगसुद्धि, ताय च आसयसुद्धिया अधिगमब्यत्तिसिद्धि, पयोगसुद्धिया आगमब्यत्तिसिद्धि | 30 Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१.१-१) परिब्बाजककथावण्णना इति पयोगासयसुद्धस्स आगमाधिगमसम्पन्नस्स वचनं अरुणुग्गं विय सूरियस्स उदयतो योनिसो मनसिकारो विय च कुसलकम्मस्स अरहति भगवतो वचनस्स पुब्बङ्गमं भवितुन्ति ठाने निदानं ठपेन्तो- "एवं मे सुत"न्तिआदिमाह । अपरो नयो, 'एव'न्ति इमिना नानप्पकारपटिवेधदीपकेन वचनेन अत्तनो अत्थपटिभानपटिसम्भिदासम्पत्तिसब्भावं दीपेति । 'सुत'न्ति इमिना सोतब्बप्पभेदपटिवेधदीपकेन धम्मनिरुत्तिपटिसम्भिदासम्पत्तिसब्भावं । 'एव'न्ति च इदं योनिसो मनसिकारदीपकं वचनं भासमानो - "एते मया धम्मा मनसानुपेक्खिता, दिट्ठिया सुप्पटिविद्धा'ति दीपेति । 'सुत'न्ति इदं सवनयोगदीपकं वचनं भासमानो– “बहू मया धम्मा सुता धाता वचसा परिचिता''ति दीपेति । तदुभयेनापि अत्थब्यञ्जनपारिपूरिं दीपेन्तो सवने आदरं जनेति । अत्थब्यञ्जनपरिपुण्णहि धम्मं आदरेन अस्सुणन्तो महता हिता परिबाहिरो होतीति, तस्मा आदरं जनेत्वा सक्कच्चं अयं धम्मो सोतब्बोति । "एवं मे सुत"न्ति इमिना पन सकलेन वचनेन आयस्मा आनन्दो तथागतप्पवेदितं धम्मं अत्तनो अदहन्तो असप्पुरिसभूमि अतिक्कमति । सावकत्तं पटिजानन्तो सप्पुरिसभूमि ओक्कमति । तथा असद्धम्मा चित्तं वुढापेति, सद्धम्मे चित्तं पतिठ्ठापेति । “केवलं सुतमेवेतं मया, तस्सेव भगवतो वचन"न्ति दीपेन्तो अत्तानं परिमोचेति, सत्थारं अपदिसति, जिनवचनं अप्पेति, धम्मनेत्तिं पतिट्ठापेति । अपिच “एवं मे सुत"न्ति अत्तना उप्पादितभावं अप्पटिजानन्तो पुरिमवचनं विवरन्तो- “सम्मुखा पटिग्गहितमिदं मया तस्स भगवतो चतुवेसारज्जविसारदस्स दसबलधरस्स आसभट्ठानहायिनो सीहनादनादिनो सब्बसत्तुत्तमस्स धम्मिस्सरस्स धम्मराजस्स धम्माधिपतिनो धम्मदीपस्स धम्मसरणस्स सद्धम्मवरचक्कवत्तिनो सम्मासम्बुद्धस्स वचनं, न एत्थ अत्थे वा धम्मे वा पदे वा ब्यञ्जने वा कसा वा विमति वा कातब्बा"ति सब्बेसं देवमनुस्सानं इमस्मिं धम्मे अस्सद्धियं विनासेति, सद्धासम्पदं उप्पादेति । तेनेतं वुच्चति - "विनासयति अस्सद्धं, सद्धं वड्वेति सासने । एवं मे सुतमिच्चेवं, वदं गोतमसावको''ति ।। 31 Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गट्ठकथा (१.१-१) एकन्ति गणनपरिच्छेदनिद्देसो। समयन्ति परिच्छिन्ननिद्देसो। एकं अनियमितपरिदीपनं । तत्थ समयसदो समयन्ति “समवाये खणे काले, समूहे हेतुदिट्ठिसु । पटिलाभे पहाने च, पटिवेधे च दिस्सति" ।। तथा हिस्स- “अप्पेवनाम स्वेपि उपसङ्कमेय्याम कालञ्च समयञ्च उपादाया''ति एवमादीसु (दी० नि० १.४४७) समवायो अत्थो । “एकोव खो भिक्खवे, खणो च समयो च ब्रह्मचरियवासाया''तिआदीसु (अ० नि० ३.८.२९) खणो । “उण्हसमयो परिळाहसमयो"तिआदीस (पाचि० ३५८) कालो। “महासमयो पवनस्मि'"न्तिआदीस (दी० नि० २.३३२) समूहो । “समयोपि खो ते, भद्दालि, अप्पटिविद्धो अहोसि, भगवा खो सावत्थियं विहरति, भगवापि मं जानिस्सति, भद्दालि नाम भिक्खु सत्थुसासने सिक्खाय अपरिपूरकारी'ति । अयम्पि खो, ते भद्दालि, समयो अप्पटिविद्धो अहोसी''तिआदीसु (म० नि० २.१३५) हेतु । “तेन खो पन समयेन उग्गहमानो परिब्बाजको समणमुण्डिकापुत्तो समयप्पवादके तिन्दुकाचीरे एकसालके मल्लिकाय आरामे पटिवसती''तिआदीसु (म० नि० २.२६०) दिट्ठि । "दिवे धम्मे च यो अत्थो, यो चत्थो सम्परायिको । अत्थाभिसमया धीरो, पण्डितोति पवुच्चती'ति ।। (सं० नि० १.१.१२८) आदीसु पटिलाभो । “सम्मा मानाभिसमया अन्तमकासि दुक्खस्सा''तिआदीसु (अ० नि० २.७.९) पहानं । “दुक्खस्स पीळनट्ठो सङ्घतट्ठो सन्तापट्ठो विपरिणामट्ठो अभिसमयट्ठो''तिआदीसु (पटि० १०८) पटिवेधो। इध पनस्स कालो अत्थो । तेन संवच्छरउतुमासड्ढमासरत्तिदिवपुब्बण्हमज्झन्हिकसायन्हपठममज्झिमपच्छिमयाममुहुत्तादीसु कालप्पभेदभूतेसु समयेसु एकं समयन्ति दीपेति । तत्थ किञ्चापि एतेसु संवच्छरादीसु समयेसु यं यं सुत्तं यस्मिं यस्मिं संवच्छरे उतुम्हि मासे पक्खे रत्तिभागे वा दिवसभागे वा वुत्तं, सब्बं तं थेरस्स सुविदितं सुववत्थापितं पञाय । यस्मा पन – “एवं मे सुतं' असुकसंवच्छरे असुकउतुम्हि असुकमासे असुकपक्खे असुकरत्तिभागे असुकदिवसभागे वाति एवं वुत्ते न सक्का Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१.१-१) परिब्बाजककथावण्णना ३ ३ सुखेन धारेतुं वा उद्दिसितुं वा उद्दिसापेतुं वा, बहु च वत्तब्ध होति, तस्मा एकेनेव पदेन तमत्थं समोधानेत्वा “एकं समयन्ति आह । ये वा इमे गब्भोक्कन्तिसमयो, जातिसमयो, संवेगसमयो, अभिनिक्खमनसमयो, दुक्करकारिकसमयो, मारविजयसमयो, अभिसम्बोधिसमयो दिट्ठधम्मसुखविहारसमयो, देसनासमयो, परिनिब्बानसमयोति, एवमादयो भगवतो देवमनुस्सेसु अतिविय पकासा अनेककालप्पभेदा एव समया । तेसु समयेसु देसनासमयसङ्घातं एकं समयन्ति दीपेति। यो चायं जाणकरुणाकिच्चसमयेसु करुणाकिच्चसमयो, अत्तहितपरहितपटिपत्तिसमयेसु परहितपटिपत्तिसमयो, सन्निपतितानं करणीयद्वयसमयेसु धम्मिकथासमयो देसनापटिपत्तिसमयेसु देसनासमयो, तेसुपि समयेसु अञ्जतरं समयं सन्धाय “एकं समय"न्ति आह । कस्मा पनेत्थ यथा अभिधम्मे “यस्मिं समये कामावचरन्ति (ध० स० १) च, इतो अजेसु च सुत्तपदेसु - “यस्मिं समये, भिक्खवे, भिक्खु विविच्चेव कामेही''ति च भुम्मवचननिद्देसो कतो, विनये च – “तेन समयेन बुद्धो भगवा''ति करणवचनेन, तथा अकत्वा “एकं समय"न्ति उपयोगवचननिद्देसो कतोति ? तत्थ तथा इध च अञथा अत्थसम्भवतो । तत्थ हि अभिधम्मे इतो अजेसु सुत्तपदेसु च अधिकरणत्थो भावेन भावलक्खणत्थो च सम्भवति । अधिकरणहि कालत्थो, समूहत्थो च समयो, तत्थ तत्थ वुत्तानं फस्सादिधम्मानं खणसमवायहेतुसङ्घातस्स च समयस्स भावेन तेसं भावो लक्खीयति, तस्मा तदत्थजोतनत्थं तत्थ भुम्मवचननिद्देसो कतो। विनये च हेतुअत्थो करणत्थो च सम्भवति । यो हि सो सिक्खापदपञत्तिसमयो सारिपुत्तादीहिपि दुब्बि य्यो, तेन समयेन हेतुभूतेन करणभूतेन च सिक्खापदानि पञापयन्तो सिक्खापदपञत्तिहेतुञ्च अपेक्खमानो भगवा तत्थ तत्थ विहासि, तस्मा तदत्थजोतनत्थं तत्थ करणवचनेन निद्देसो कतो । इध पन अझस्मिञ्च एवं जातिके अच्चन्तसंयोगत्थो सम्भवति । यहि समयं भगवा इमं अझं वा सुत्तन्तं देसेसि, अच्चन्तमेव तं समयं करुणाविहारेन विहासि, तस्मा तदत्थजोतनत्थं इध उपयोगवचननिद्देसो कतोति । तेनेतं वुच्चति - 33 Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४ दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गट्ठकथा (१.१-१) “तं तं अस्थमपेक्खित्वा, भुम्मेन करणेन च । अञत्र समयो वुत्तो, उपयोगेन सो इधा'ति ।। पोराणा पन वण्णयन्ति - "तस्मिं समयेति वा, “तेन समयेना''ति वा, “एकं समय"न्ति वा, अभिलापमत्तभेदो एस, सब्बत्थ भुम्ममेवत्थोति । तस्मा “एकं समय"न्ति वुत्तेपि “एकस्मिं समये''ति अत्थो वेदितब्बो । भगवाति गरु। गरुम्हि लोके भगवाति वदन्ति । अयञ्च सब्बगुणविसिट्ठताय सब्बसत्तानं गरु, तस्मा भगवाति वेदितब्बो । पोराणेहिपि वुत्तं - "भगवाति वचनं सेलु, भगवाति वचनमुत्तमं । गरु गारवयुत्तो सो, भगवा तेन वुच्चती''ति ।। अपि च - "भाग्यवा भग्गवा युत्तो, भगेहि च विभत्तवा । भत्तवा वन्तगमनो, भवेसु भगवा ततो"ति ।। इमिस्सा गाथाय वसेनस्स पदस्स वित्थारअत्थो वेदितब्बो। सो च विसुद्धिमग्गे बुद्धानुस्सतिनिद्देसे वुत्तोयेव ।। एत्तावता चेत्थ एवं मे सुतन्ति वचनेन यथासुतं धम्मं दस्सेन्तो भगवतो धम्मकायं पच्चक्खं करोति । तेन “नयिदं अतिक्कन्तसत्थुकं पावचनं, अयं वो सत्था''ति सत्थु अदस्सनेन उक्कण्ठितं जनं समस्सासेति । एकं समयं भगवाति वचनेन तस्मिं समये भगवतो अविज्जमानभावं दस्सेन्तो रूपकायपरिनिब्बानं साधेति । तेन “एवंविधस्स नाम अरियधम्मस्स देसको दसबलधरो वजिरसङ्घात समानकायो सोपि भगवा परिनिब्बुतो, केन अञ्जेन जीविते आसा जनेतब्बा''ति जीवितमदमत्तं जनं संवेजेति, सद्धम्मे चस्स उस्साहं जनेति । 34 Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १.१ - १) परिब्बाजककथावण्णना एवन्ति च भणन्तो देसनासम्पत्तिं निद्दिसति । मे सुतन्ति सावकसम्पत्तिं । एकं समयन्ति कालसम्पत्तिं । भगवाति देसकसम्पत्तिं । अन्तरा च राजगहं अन्तरा च नाळन्दन्ति अन्तरा - सद्दो कारणखणचित्तवेमज्झविवरादीसु दिस्सति । " तदन्तरं को जानेय्य अञ्ञत्र तथागता "ति (अ० नि० २.६.४४) च, "जना सङ्गम्म मन्तेन्ति मञ्च तञ्च किमन्तर "न्ति (सं० नि० १.१.२२८) च आदीसु हि कारणे अन्तरा-सद्दो । “अद्दस मं, भन्ते, अञ्ञतरा इत्थी विज्जन्तरिकाय भाजनं धोवन्तीतिआदीसु (म० नि० २.१४९) खणे । “यस्सन्तरतो न सन्ति कोपा 'तिआदीसु (उदा० २०) चित्ते । “अन्तरा वोसानमापादी' 'तिआदीसु (चूळव० ३५०) वेमज्झे । " अपि चायं, भिक्खवे, तपोदा द्विन्नं महानिरयानं अन्तरिकाय आगच्छतीतिआदीसु ( पारा० २३१) विवरे । स्वायमिध विवरे वत्तति, तस्मा राजगहस्स च नालन्दाय च विवरेति एवमेत्थत्थो वेदितब्बो । अन्तरा - सद्देन पन युत्तत्ता उपयोगवचनं तं । ईदिसे च ठानेसु अक्खरचिन्तका “ अन्तरा गामञ्च नदिञ्च याती 'ति एवं एकमेव अन्तरासदं पयुज्जन्ति, सो दुतियपदेनपि योजेतब्बो होति, अयोजियमाने उपयोगवचनं न पापुणाति । इध पन योजेत्वायेव वृत्तोति । अद्धानमग्गप्पटिपन्नो होतीति अद्धानसङ्घातं मग्गं पटिपन्नो होति, “ दीघमग्ग”न्ति अत्थो । अद्धानगमनसमयस्स हि विभङ्गे “अड्ढयोजनं गच्छस्सामीति भुञ्जितब्ब''न्तिआदिवचनतो ( पाचि० २१८) अड्ढयोजनम्पि अद्धानमग्गो होति । राजगहतो पन नालन्दा योजनमेव । ३५ महता भिक्खुसङ्गेन सद्धिन्ति 'महता'ति गुणमहत्तेनपि महता, सङ्ख्यामहत्तेनपि महता । सो हि भिक्खुसङ्घो गुणेहिपि महा अहोसि, अप्पिच्छतादिगुणसमन्नागतत्ता । सङ्ख्यायपि महा, पञ्चसतसङ्ख्यत्ता । भिक्खूनं सङ्घो 'भिक्खुसङ्घो', तेन भिक्खुसङ्घेन । दिट्ठिसीलसामञ्ञसङ्घातसङ्घातेन समणगणेनाति अत्थो । सद्धिन्ति एकतो । पञ्चमत्तेहि भिक्खुसतेहीति पञ्चमत्ता एतेसन्ति पञ्चमत्तानि । मत्ताति पमाणं वुच्चति, तस्मा यथा “भोजने मत्तञ् "ति वुत्ते “भोजने मत्तं जानाति, पमाणं जानाती”ति अत्थो होति, एवमिधापि – “तेसं भिक्खुसतानं पञ्चमत्ता पञ्चपमाणन्ति एवमत्थो दट्ठब्बो । भिक्खूनं सतानि भिक्खुसतानि तेहि पञ्चमत्तेहि भिक्खुसतेहि । 7 35 Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६ दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गट्ठकथा सुप्पियोपि खो परिब्बाजकोति सुप्पियोति तस्स नामं । पि-कारो मग्गप्पटिपन्नसभागताय पुग्गलसम्पिण्डनत्थो । खो-कारो पदसन्धिकरो, ब्यञ्जनसिलिट्ठतावसेन वुत्तो । परिब्बाजकोि सञ्जयस्स अन्तेवासी छन्नपरिब्बाजको । इदं वुत्तं होति - “यदा भगवा तं अद्धानमग्गं पटिपन्नो, तदा सुप्पियोपि परिब्बाजको पटिपन्नो अहोसी 'ति । अतीतकालत्थो हेत्थ होतिसद्दो | सद्धिं अन्तेवासिना ब्रह्मदत्तेन माणवेनाति एत्थ अन्ते वसतीति अन्तेवासी । समीपचारो सन्तिकावचरो सिस्सोति अत्थो । ब्रह्मदत्तोति तस्स नामं । माणवोति सत्तोपि चोरोपि तरुणोपि वुच्चति । “चोदिता देवदूतेहि, ये पमज्जन्ति माणवा । ते दीघरत्तं सोचन्ति हीनकायूपगा नरा "ति । । (म० नि० ३.२७१) - ( १.१-१) " आदीसु हि सत्तो माणवोति वुत्तो । “माणवेहिपि समागच्छन्ति कतकम्मेहिपि अकतकम्मेहिपी’”तिआदीसु (म० नि० २.१४९) चोरो । “ अम्बट्ठो माणवो, अङ्गको माणवो 'तिआदीसु (दी० नि० १.३१६) तरुणी माणवो 'ति वुत्तों । इधापि अयमेवत्थो । इदहि वृत्तं होति - ब्रह्मदत्तेन नाम तरुणन्तेवासिना सद्धिन्ति । तत्राति तस्मिं अद्धानमग्गे, तेसु वा द्वीसु जनेसु । सुदन्ति निपातमत्तं । अनेकपरियायेनाति परियायसद्दो ताव वारदेसनाकारणेसु वत्तति । “कस्स नु खो, आनन्द, अज्ज परियायो भिक्खुनियो ओवदितु "न्तिआदीसु (म० नि० ३.३९८) हि वारे परियायसद्दो वत्तति । “मधुपिण्डिकपरियायोत्वेव नं धारेही "तिआदीसु (म० नि० १.२०५ ) देसनायं। “इमिनापि खो, ते राजञ्ञ, परियायेन एवं होतू 'तिआदीसु (दी० नि० २.४११) कारणे । स्वायमिधापि कारणे वत्तति, तस्मा अयमेत्थ अत्थो - "अनेकविधेन कारणेना'ति, “बहूहि कारणेही ति वृत्तं होति । बुद्धस्स अवणं भासतीति अवण्णविरहितस्स अपरिमाणवण्णसमन्नागतस्सापि बुद्धस्स भगवतो - “यं लोके जातिवुड्ढेसु कत्तब्बं अभिवादनादिसामीचिकम्मं 'सामग्गिरसो 'ति वुच्चति, तं समणस्स गोतमस्स नत्थि तस्मा अरसरूपो समणो गोतमो, निब्भोगो, अकिरियवादो, उच्छेदवादो, जेगुच्छी, वेनयिको, तपस्सी, अपगब्भो । नत्थि समणस् 36 Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१.१-१) परिब्बाजककथावण्णना ३७ गोतमस्स उत्तरिमनुस्सधम्मो अलमरियाणदस्सनविसेसो। तक्कपरियाहतं समणो गोतमो धम्म देसेति, वीमंसानुचरितं, सयंपटिभानं । समणो गोतमो न सब्बञ्जू, न लोकविदू, न अनुत्तरो, न अग्गपुग्गलो''ति । एवं तं तं अकारणमेव कारणन्ति वत्वा तथा तथा अवण्णं दोसं निन्दं भासति । यथा च बुद्धस्स, एवं धम्मस्सापि तं तं अकारणमेव कारणतो वत्वा - "समणस्स गोतमस्स धम्मो दुरक्खातो, दुप्पटिवेदितो, अनिय्यानिको, अनुपसमसंवत्तनिको''ति तथा तथा अवण्णं भासति । __ यथा च धम्मस्स, एवं सङ्घस्सापि यं वा तं वा अकारणमेव कारणतो वत्वा - "मिच्छापटिपन्नो समणस्स गोतमस्स सावकसको कटिलपटिपन्नो. पच्च पच्चनीकपटिपदं अननुलोमपटिपदं अधम्मानुलोमपटिपदं पटिपन्नो''ति तथा तथा अवण्णं भासति । अन्तेवासी पनस्स – “अम्हाकं आचरियो अपरामसितब्बं परामसति, अनक्कमितब्ध अक्कमति, स्वायं अग्गिं गिलन्तो विय, हत्थेन असिधारं परामसन्तो विय, मुट्ठिना सिनेरुं पदालेतुकामो विय, ककचदन्तपन्तियं कीळमानो विय, पभिन्नमदं चण्डहत्थिं हत्थेन गण्हन्तो विय च वण्णारहस्सेव रतनत्तयस्स अवण्णं भासमानो अनयब्यसनं पापुणिस्सति । आचरिये खो पन गूथं वा अग्गिं वा कण्टकं वा कण्हसप्पं वा अक्कमन्ते, सूलं वा अभिरूहन्ते, हलाहलं वा विसं खादन्ते, खारोदकं वा पक्खलन्ते, नरकपपातं वा पपतन्ते, न अन्तेवासिना तं सब्बमनुकातब्बं होति । कम्मस्सका हि सत्ता अत्तनो कम्मानुरूपमेव गतिं गच्छन्ति । नेव पिता पुत्तस्स कम्मेन गच्छति, न पुत्तो पितु कम्मेन, न माता पुत्तस्स, न पुत्तो मातुया, न भाता भगिनिया, न भगिनी भातु, न आचरियो अन्तेवासिनो, न अन्तेवासी आचरियस्स कम्मेन गच्छति। मय्हञ्च आचरियो तिण्णं रतनानं अवण्णं भासति, महासावज्जो खो पनारियूपवादोति । एवं योनिसो उम्मुज्जित्वा आचरियवादं मद्दमानो सम्माकारणमेव कारणतो अपदिसन्तो अनेकपरियायेन तिण्णं रतनानं वण्णं भासितुमारद्धो, यथा तं पण्डितजातिको कुलपुत्तो'। तेन वुत्तं - “सुप्पियस्स पन परिब्बाजकस्स अन्तेवासी ब्रह्मदत्तो माणवो अनेकपरियायेन बुद्धस्स वण्णं भासति, धम्मस्स वण्णं भासति, सङ्घस्स वण्णं भासती''ति । तत्थ वण्णन्ति वण्ण-सद्दो सण्ठान-जाति-रूपायतन-कारण-पमाण-गुण-पसंसादीसु 37 Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८ दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गट्ठकथा (१.१-१) दिस्सति । तत्थ “महन्तं सप्पराजवण्णं अभिनिम्मिनित्वा''तिआदीसु (सं० नि० १.१.१४२) सण्ठानं वुच्चति । "ब्राह्मणोव सेट्ठो वण्णो, हीनो अञो वण्णो''तिआदीसु (म० नि० २.४०२) जाति । “परमाय वण्णपोक्खरताय समन्नागतो''तिआदीसु (दी० नि० १.३०३) रूपायतनं । "न हरामि न भजामि, आरा सिङ्घामि वारिजं । अथ केन नु वण्णेन, गन्धत्थेनोति वुच्चती''ति ।। (सं० नि० १.१.२३४) आदीसु कारणं । “तयो पत्तस्स वण्णा''तिआदीसु (पारा० ६०२) पमाणं । “कदा सञ्जूळ्हा पन, ते गहपति, इमे समणस्स गोतमस्स वण्णा"तिआदीसु (म० नि० २.७७) गणो । “वण्णारहस्स वण्णं भासती"तिआदीस (अ० नि० १.२.१३५) पसंसा। इध गुणोपि पसंसापि । अयं किर तं तं भूतमेव कारणं अपदिसन्तो अनेकपरियायेन रतनत्तयस्स गुणूपसहितं पसंसं अभासि। तत्थ - "इतिपि सो भगवा अरहं सम्मासम्बुद्धो''तिआदिना (पारा० १) नयेन, “ये भिक्खवे, बुद्धे पसन्ना अग्गे ते पसन्ना'"तिआदिना “एकपुग्गलो, भिक्खवे, लोके उप्पज्जमानो उप्पज्जति...पे०... असमो असमसमो''तिआदिना (अ० नि० १.१.१७४) च नयेन बुद्धस्स वण्णो वेदितब्बो । "स्वाक्खातो भगवता धम्मो''ति (दी० नि० २.१५९) च “आलयसमुग्घातो वट्टपच्छेदो''ति (इति० ९०, अ० नि० १.४.३४) च, “ये भिक्खवे, अरिये अट्ठङ्गिके मग्गे पसन्ना, अग्गे ते पसन्ना''ति च एवमादीहि नयेहि धम्मस्स वण्णो वेदितब्बो । "सुप्पटिपन्नो भगवतो सावकसङ्घो''ति (दी० नि० २.१५९) च, “ये, भिक्खवे, सङ्घ पसन्ना, अग्गे ते पसन्ना''ति (अ० नि० १.४.३४) च एवमादीहि पन नयेहि सङ्घस्स वण्णो वेदितब्बो। पहोन्तेन पन धम्मकथिकेन पञ्चनिकाये नवङ्गं सत्थुसासनं चतुरासीतिधम्मक्खन्धसहस्सानि ओगाहित्वा बुद्धादीनं वण्णो पकासेतब्बो । इमस्मिहि ठाने बुद्धादीनं गुणे पकासेन्तो अतित्थेन पक्खन्दो धम्मकथिकोति न सक्का वत्तुं । ईदिसेसु हि ठानेसु धम्मकथिकस्स थामो वेदितब्बो । ब्रह्मदत्तो पन माणवो अनुस्सवादिमत्तसम्बन्धितेन अत्तनो थामेन रतनत्तयस्स वण्णं भासति । इतिह ते उभो आचरियन्तेवासीति एवं ते द्वे आचरियन्तेवासिका। अञमञस्साति अञो अञस्स। उजुविपच्चनीकवादाति ईसकम्पि अपरिहरित्वा उजुमेव विविधपच्चनीकवादा, अनेकवारं विरुद्धवादा एव हुत्वाति अत्थो । आचरियेन हि 38 Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१.१-१) परिब्बाजककथावण्णना रतनत्तयस्स अवण्णे भासिते अन्तेवासी वण्णं भासति, पुन इतरो अवण्णं, इतरो वण्णन्ति एवं आचरियो सारफलके विसरुक्खआणिं आकोटयमानो विय पुनप्पुनं रतनत्तयस्स अवण्णं भासति । अन्तेवासी पन सुवण्णरजतमणिमयाय आणिया तं आणिं पटिबाहयमानो विय पुनप्पुनं रतनत्तयस्स वण्णं भासति । तेन वुत्तं - "उजुविपच्चनीकवादा''ति । भगवन्तं पिद्वितो पिडितो अनुबन्धा होन्ति भिक्खुसङ्घञ्चाति भगवन्तञ्च भिक्खुसङ्घञ्च पच्छतो पच्छतो दस्सनं अविजहन्ता इरियापथानुबन्धनेन अनुबन्धा होन्ति, सीसानुलोकिनो हुत्वा अनुगता होन्तीति अत्थो । ___ कस्मा पन भगवा तं अद्धानं पटिपन्नो ? कस्मा च सुप्पियो अनुबन्धो ? कस्मा च सो रतनत्तयस्स अवण्णं भासतीति ? भगवा ताव तस्मिं काले राजगहपरिवत्तकेसु अट्ठारससु महाविहारेसु अञतरस्मिं वसित्वा पातोव सरीरप्पटिजग्गनं कत्वा भिक्खाचारवेलायं भिक्खुसङ्घपरिवुतो राजगहे पिण्डाय चरति । सो तं दिवसं भिक्खुसङ्घस्स सुलभपिण्डपातं कत्वा पच्छाभत्तं पिण्डपातपटिक्कन्तो भिक्खुसङ्घ पत्तचीवरं गाहापेत्वा"नाळन्दं गमिस्सामी''ति, राजगहतो निक्खमित्वा तं अद्धानं पटिपन्नो। सुप्पियोपि खो तस्मिं काले राजगहपरिवत्तके अञतरस्मिं परिब्बाजकारामे वसित्वा परिब्बाजकपरिवुतो राजगहे भिक्खाय चरति । सोपि तं दिवसं परिब्बाजकपरिसाय सुलभभिक्खं कत्वा भुत्तपातरासो परिब्बाजके परिब्बाजकपरिक्खारं गाहापेत्वा - नाळन्दं गमिस्सामिच्चेव भगवतो तं मग्गं पटिपन्नभावं अजानन्तोव अनुबन्धो । सचे पन जानेय्य नानुबन्धेय्य । सो अजानित्वाव गच्छन्तो गीवं उक्खिपित्वा ओलोकयमानो भगवन्तं अद्दस बुद्धसिरिया सोभमानं रत्तकम्बलपरिक्खित्तमिव जङ्गमकनकगिरिसिखरं । तस्मिं किर समये दसबलस्स सरीरतो निक्खमित्वा छब्बण्णरस्मियो समन्ता असीतिहत्थप्पमाणे पदेसे आधावन्ति विधावन्ति रतनावेळरतनदामरतनचुण्णविप्पकिण्णं विय, पसारितरतनचित्तकञ्चनपटमिव, रत्तसुवण्णरसनिसिञ्चमानमिव, उक्कासतनिपातसमाकुलमिव, निरन्तरविप्पकिण्णकणिकारपुप्फमिव वायुवेगक्खित्तचीनपिठ्ठचुण्णमिव, इन्दधनुविज्जुलतातारागणप्पभाविसरविप्फुरितविच्छरितमिव च तं वनन्तरं होति । असीति अनुब्यञ्जनानुरञ्जितञ्च पन भगवतो सरीरं विकसितकमलुप्पलमिव, सरं 39 Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गट्ठकथा (१.१-१) सब्बपालिफुल्लमिव पारिच्छत्तकं, तारामरीचिविकसितमिव, गगनतलं सिरिया अवहसन्तमिव, ब्यामप्पभापरिक्खेपविलासिनी चस्स द्वत्तिंसवरलक्खणमाला गन्थेत्वा ठपितद्वत्तिंसचन्दमालाय द्वत्तिंससूरियमालाय पटिपाटिया ठपितद्वत्तिंसचक्कवत्तिद्वत्तिंससक्कदेवराजद्वत्तिंसमहाब्रह्मानं सिरिं सिरिया अभिभवन्तिमिव । तञ्च पन भगवन्तं परिवारेत्वा ठिता भिक्खू सब्बेव अप्पिच्छा सन्तुट्ठा पविवित्ता असंसट्ठा चोदका पापगरहिनो वत्तारो वचनक्खमा सीलसम्पन्ना समाधिपाविमुत्तिविमुत्तिञाणदस्सनसम्पन्ना । तेसं मज्झे भगवा रत्तकम्बलपाकारपरिक्खित्तो विय कञ्चनथम्भो, रत्तपदुमसण्डमज्झगता विय सुवण्णनावा, पवाळवेदिकापरिक्खित्तो विय अग्गिक्खन्धो, तारागणपरिवारितो विय पुण्णचन्दो मिगपक्खीनम्पि चक्खूनि पीणयति, पगेव देवमनुस्सानं । तस्मिञ्च पन दिवसे येभुय्येन असीतिमहाथेरा मेघवण्णं पंसुकूलं एकंसं करित्वा कत्तरदण्डं आदाय सुवम्मवम्मिता विय गन्धहत्थिनो विगतदोसा वन्तदोसा भिन्नकिलेसा विजटितजटा छिन्नबन्धना भगवन्तं परिवारयिंसु । सो सयं वीतरागो वीतरागेहि, सयं वीतदोसो वीतदोसेहि, सयं वीतमोहो वीतमोहेहि, सयं वीततण्हो वीततण्हेहि, सयं निक्किलेसो निक्किलेसेहि, सयं बुद्धो अनुबुद्धेहि परिवारितो; पत्तपरिवारितं विय केसरं, केसरपरिवारिता विय कण्णिका, अट्ठनागसहस्सपरिवारितो विय छद्दन्तो नागराजा, नवुतिहंससहस्सपरिवारितो विय धतरट्ठो हंसराजा, सेनगपरिवारितो विय चक्कवत्तिराजा, देवगणपरिवारितो विय सक्को देवराजा, ब्रह्मगणपरिवारितो विय हारितो महाब्रह्मा, अपरिमितकालसञ्चितपुञ्जबलनिब्बत्ताय अचिन्तेय्याय अनोपमाय बुद्धलीलाय चन्दो विय गगनतलं तं मग्गं पटिपन्नो होति । अथेवं भगवन्तं अनोपमाय बुद्धलीलाय गच्छन्तं भिक्खू च ओक्खित्तचक्खू सन्तिन्द्रिये सन्तमानसे उपरिनभे ठितं पुण्णचन्दं विय भगवन्तंयेव नमस्समाने दिस्वाव परिब्बाजको अत्तनो परिसं अवलोकेसि | सा होति काजदण्डके ओलम्बेत्वा गहितोलुग्गविलुग्गपिट्ठकतिदण्डमोरपिञ्छमत्तिकापत्तपसिब्बककुण्डिकादिअनेकपरिक्खारभारभरिता ।। "असुकस्स हत्था सोभणा, असुकस्स पादाति एवमादिनिरत्थकवचना मुखरा विकिण्णवाचा अदस्सनीया अपासादिका। तस्स तं दिस्वा विप्पटिसारो उदपादि । इदानि तेन भगवतो वण्णो वत्तब्बो भवेय्य । यस्मा पनेस लाभसक्कारहानिया चेव पक्खहानिया च निच्चम्पि भगवन्तं उसूयति । अञतित्थियानहि याव बुद्धो लोके नुप्पज्जति, तावदेव लाभसक्कारा निब्बत्तन्ति, बुद्धप्पादतो पन पट्ठाय परिहीनलाभसक्कारा 40 Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१.२-२) परिब्बाजककथावण्णना होन्ति, सूरियुग्गमने खज्जोपनका विय निस्सिरीकतं आपज्जन्ति । उपतिस्सकोलितानञ्च सञ्जयस्स सन्तिके पब्बजितकालेयेव परिब्बाजका महापरिसा अहेसुं, तेसु पन पक्कन्तेसु सापि तेसं परिसा भिन्ना । इति इमेहि द्वीहि कारणेहि अयं परिब्बाजको यस्मा निच्चम्पि भगवन्तं उसूयति, तस्मा तं उसूयविसुग्गारं उग्गिरन्तो रतनत्तयस्स अवण्णमेव भासतीति वेदितब्बो। २. अथ खो भगवा अम्बलट्ठिकायं राजागारके एकरत्तिवासं उपगच्छि सद्धिं भिक्खुसङ्केनाति भगवा ताय बुद्धलीलाय गच्छमानो अनुपुब्बेन अम्बलट्ठिकाद्वारं पापुणित्वा सूरियं ओलोकेत्वा - “अकालो दानि गन्तुं, अत्थसमीपं गतो सूरियो"ति अम्बलट्ठिकायं राजागारके एकरत्तिवासं उपगच्छि। तत्थ अम्बलटिकाति रञो उय्यानं । तस्स किर द्वारसमीपे तरुणअम्बरुक्खो अत्थि, तं “अम्बलट्ठिका"ति वदन्ति । तस्स अविदूरे भवत्ता उय्यानम्पि अम्बलट्ठिका त्वेव सङ्ख्यं गतं । तं छायूदकसम्पन्नं पाकारपरिक्खित्तं सुयोजितद्वारं मञ्जुसा विय सुगुत्तं । तत्थ रो कीळनत्थं पटिभानचित्तविचित्तं अगारं अकंसु । तं "राजागारक"न्ति वुच्चति । सुप्पियोपि खोति सुप्पियोपि तस्मिं ठाने सूरियं ओलोकेत्वा – “अकालो दानि गन्तुं, बहू खुद्दकमहल्लका परिब्बाजका, बहुपरिस्सयो च अयं मग्गो चोरेहिपि वाळयक्खेहिपि वाळमिगेहिपि । अयं खो पन समणो गोतमो उय्यानं पविठ्ठो, समणस्स च गोतमस्स वसनट्ठाने देवता आरक्खं गण्हन्ति, हन्दाहम्पि इध एकरत्तिवासं उपगन्त्वा स्वेव गमिस्सामी"ति तदेवुय्यानं पाविसि । ततो भिक्खुसङ्घो भगवतो वत्तं दस्सेत्वा अत्तनो अत्तनो वसनट्ठानं सल्लक्खेसि । परिब्बाजकोपि उय्यानस्स एकपस्से परिब्बाजकपरिक्खारे ओतारेत्वा वासं उपगच्छि सद्धिं अत्तनो परिसाय । पाळियमारूळहवसेनेव पन – “सद्धिं अत्तनो अन्तेवासिना ब्रह्मदत्तेन माणवेना''ति वुत्तं । ____ एवं वासं उपगतो पन सो परिब्बाजको रत्तिभागे दसबलं ओलोकेसि । तस्मिञ्च समये समन्ता विप्पकिण्णतारका विय पदीपा जलन्ति, मज्झे भगवा निसिन्नो होति, भिक्खुसङ्घो च भगवन्तं परिवारेत्वा । तत्थ एकभिक्खुस्सपि हत्थकुक्कुच्चं वा पादकुक्कुच्चं वा उक्कासितसद्दो वा खिपितसद्दो वा नत्थि। सा हि परिसा अत्तनो च सिक्खितसिक्खताय सत्थरि च गारवेनाति द्वीहि कारणेहि निवाते पदीपसिखा विय 41 Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२ दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गट्ठकथा (१.३-३) निच्चला सन्निसिन्नाव अहोसि । परिब्बाजको तं विभूतिं दिस्वा अत्तनो परिसं ओलोकेसि । तत्थ केचि हत्थं खिपन्ति, केचि पादं, केचि विप्पलपन्ति, केचि निल्लालितजिव्हा पग्धरितखेळा, दन्ते खादन्ता काकच्छमाना घरुघरुपस्सासिनो सयन्ति । सो रतनत्तयस्स गुणवण्णे वत्तब्बेपि इस्सावसेन पुन अवण्णमेव आरभि । ब्रह्मदत्तो पन वुत्तनयेनेव वण्णं । तेन वुत्तं - "तत्रापि सुदं सुप्पियो परिब्बाजको"ति सब्बं वत्तब् । तत्थ तनापीति तस्मिम्पि, अम्बलट्ठिकायं उय्यानेति अत्थो । ३. सम्बहुलानन्ति बहुकानं । तत्थ विनयपरियायेन तयो जना “सम्बहुला''ति वुच्चन्ति । ततो परं सङ्घो । सुत्तन्तपरियायेन पन तयो तयोव ततो पट्ठाय सम्बहुला । इध सुत्तन्तपरियायेन “सम्बहुला''ति वेदितब्बा। मण्डलमाळेति कत्थचि द्वे कण्णिका गहेत्वा हंसवट्टकच्छन्नेन कता कूटागारसालापि “मण्डलमाळो''ति वुच्चति, कत्थचि एकं कण्णिकं गहेत्वा थम्भपन्तिं परिक्खिपित्वा कता उपट्ठानसालापि “मण्डलमाळो''ति वुच्चति । इध पन निसीदनसाला “मण्डलमाळो"ति वेदितब्बो। सत्रिसित्रानन्ति निसज्जनवसेन | सनिपतितानन्ति समोधानवसेन । अयं सवियधम्मोति सङ्खिया बुच्चति कथा, कथाधम्मोति अत्थो । उदपादीति उप्पन्नो । कतमो पन सोति ? अच्छरियं आवुसोति एवमादि । तत्थ अन्धस्स पब्बतारोहणं विय निच्चं न होतीति अच्छरियं । अयं ताव सद्दनयो । अयं पन अट्ठकथानयो- अच्छरायोग्गन्ति अच्छरियं। अच्छरं पहरितुं युत्तन्ति अत्थो । अभूतपुब्बं भूतन्ति अब्भुतं। उभयं पेतं विम्हयस्सेवाधिवचनं | यावञ्चिदन्ति याव च इदं तेन सुप्पटिविदितताय अप्पमेय्यत्तं दस्सेति ।। तेन भगवता जानता...पे०... सुप्पटिविदिताति एत्थायं सङ्घपत्थो । यो सो भगवा समतिंस पारमियो पूरेत्वा सब्बकिलेसे भञ्जित्वा अनुत्तरं सम्मासम्बोधिं अभिसम्बुद्धो, तेन भगवता तेसं तेसं सत्तानं आसयानुसयं जानता, हत्थतले ठपितं आमलकं विय सब्बञय्यधम्म पस्सता। ____ अपि च पुब्बेनिवासादीहि जानता, दिब्बेन चक्खुना पस्सता। तीहि विज्जाहि छहि वा पन अभिञाहि जानता, सब्बत्थ अप्पटिहतेन समन्तचक्खुना पस्सता। सब्बधम्मजाननसमत्थाय वा पाय जानता, सब्बसत्तानं चक्खुविसयातीतानि तिरोकुट्टादिगतानिपि रूपानि अतिविसुद्धेन मंसचक्खुना पस्सता। अत्तहितसाधिकाय वा Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१.४-४) परिब्बाजककथावण्णना समाधिपदट्ठानाय पटिवेधपाय जानता, परहितसाधिकाय करुणापदट्ठानाय देसनापञ्जाय पस्सता। अरीनं हतत्ता पच्चयादीनञ्च अरहत्ता अरहता। सम्मा सामञ्च सब्बधम्मानं बुद्धत्ता सम्मासम्बुद्धेन अन्तरायिकधम्मे वा जानता, निय्यानिकधम्मे पस्सता, किलेसारीनं हतत्ता अरहता। सम्मा सामञ्च सब्बधम्मानं बुद्धत्ता सम्मासम्बुद्धेनाति । एवं चतूवेसारज्जवसेन चतूहाकारेहि थोमितेन सत्तानं नानाधिमुत्तिकता नानज्झासयता सुप्पटिविदिता याव च सुट्ठ पटिविदिता। इदानिस्स सुप्पटिविदितभावं दस्सेतुं अयज्हीतिआदिमाह । इदं वुत्तं होति या च अयं भगवता "धातुसो, भिक्खवे, सत्ता संसन्दन्ति समेन्ति, हीनाधिमुत्तिका हीनाधिमुत्तिकेहि सद्धिं संसन्दन्ति समेन्ति, कल्याणाधिमुत्तिका कल्याणाधिमुत्तिकेहि सद्धिं संसन्दन्ति समेन्ति । अतीतम्पि खो, भिक्खवे, अद्धानं धातुसोव सत्ता संसन्दिंसु समिंसु, हीनाधिमुत्तिका हीनाधिमुत्तिकेहि...पे०... कल्याणाधिमुत्तिका कल्याणाधिमुत्तिकेहि सद्धिं संसन्दिंसु समिंसु, अनागतम्पि खो, भिक्खवे, अद्धानं...पे०... संसन्दिस्सन्ति समेस्सन्ति, एतरहिपि खो, भिक्खवे, पच्चुप्पन्नं अद्धानं धातुसोव सत्ता संसन्दन्ति समेन्ति, हीनाधिमुत्तिका हीनाधिमुत्तिकेहि...पे०... कल्याणाधिमुत्तिका कल्याणाधिमुत्तिकेहि सद्धिं संसन्दन्ति समेन्ती"ति एवं सत्तानं नानाधिमुत्तिकता, नानज्झासयता, नानादिट्टिकता, नानाखन्तिता, नानारुचिता, नाळिया मिनन्तेन विय तुलाय तुलयन्तेन विय च नानाधिमुत्तिकताञाणेन सब्ब ताणेन विदिता, सा याव सुप्पटिविदिता । द्वेपि नाम सत्ता एकज्झासया दुल्लभा लोकस्मिं । एकस्मिं गन्तुकामे एको ठातुकामो होति, एकस्मिं पिवितुकामे एको भुजितुकामो । इमेसु चापि द्वीसु आचरियन्तेवासीसु अयहि "सुप्पियो परिब्बाजको...पे०... भगवन्तं पिट्टितो पिडितो अनुबन्धा होन्ति भिक्खुसङ्घञ्चा"ति । तत्थ इतिहमेति इतिह इमे, एवं इमेति अत्थो । सेसं वुत्तनयमेव । ४. अथ खो भगवा तेसं भिक्खूनं इमं सङ्घियधम्मं विदित्वाति एत्थ विदित्वाति सब्ब तञाणेन जानित्वा | भगवा हि कत्थचि मंसचक्खुना दिस्वा जानाति - “अद्दसा खो भगवा महन्तं दारुक्खन्धं गङ्गाय नदिया सोतेन वुव्हमान"न्तिआदीसु (सं० नि० २.४.२४१) विय । कत्थचि दिब्बचक्खुना दिस्वा जानाति- “अद्दसा खो भगवा दिब्बेन चक्खुना विसुद्धेन अतिक्कन्तमानुसकेन ता देवतायो सहस्सस्सेव पाटलिगामे वत्थूनि Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४ ( १.४-४) परिगण्हन्तियो”तिआदीसु ( दी० नि० २.१५२) विय । कत्थचि पकतिसोतेन सुत्वा जानाति – “अस्सोसि खो भगवा आयस्मतो आनन्दस्स सुभद्देन परिब्बाजकेन सद्धिं इमं कथासल्लाप''न्तिआदीसु ( दी० नि० २.२१३) विय । कत्थचि दिब्बसोतेन सुत्वा जानाति – “अस्सोसि खो भगवा दिब्बाय सोतधातुया विसुद्धाय अतिक्कन्तमानुसिकाय सन्धानस्स गहपतिस्स निग्रोधेन परिब्बाजकेन सद्धिं इमं कथासल्लाप "न्तिआदीसु (दी० नि० ३.५४) विय। इध पन सब्बञ्जतञ्ञाणेन सुत्वा अञ्ञासि । किं करोन्तो अञ्ञासि ? पच्छिमयामकिच्चं किच्चञ्च नामेतं सात्थकं, निरत्थकन्ति दुविधं होति । तत्थ निरत्थककिच्चं भगवता बोधिपल्लङ्केयेव अरहत्तमग्गेन समुग्धातं कतं । सात्थकंयेव पन भगवतो किच्चं होति। तं पञ्चविधं - पुरेभत्तकिच्चं, पच्छाभत्तकिच्चं, पुरिमयामकिच्चं, मज्झिमयामकिच्चं, पच्छिमयामकिच्चन्ति । तत्रिदं पुरेभत्तकिच्चं – भगवा हि पातोव उट्ठाय उपट्ठाकानुग्गहत्थं सरीरफासुकत्थञ्च मुखधोवनादिसरीरपरिकम्मं कत्वा याव भिक्खाचारवेला ताव विवित्तासने वीतिनामेत्वा, भिक्खाचारवेलायं निवासेत्वा कायबन्धनं बन्धित्वा चीवरं पारुपित्वा पत्तमादाय कदाचि एकको, कदाचि भिक्खुसङ्घपरिवुतो, गामं वा निगमं वा पिण्डाय पविसति; कदाचि पकतिया, कदाचि अनेकेहि पाटिहारियेहि वत्तमानेहि । सेय्यथिदं, पिण्डाय पविसतो लोकनाथस्स पुरतो पुरतो गन्त्वा मुदुगतवाता पथविं सोधेन्ति, वलाहका उदकफुसितानि मुञ्चन्ता मग्गे रेणुं वूपसमेत्वा उपरि वितानं हुत्वा तिट्ठन्ति, अपरे वाता पुप्फानि उपसंहरित्वा मग्गे ओकिरन्ति, उन्नता भूमिप्पदेसा ओनमन्ति, ओनता उन्नमन्ति, पादनिक्खेपसमये समाव भूमि होति, सुखसम्फस्सानि पदुमपुप्फानि वा पादे सम्पटिच्छन्ति । इन्दखीलस्स अन्तो ठपितमत्ते दक्खिणपादे सरीरतो छब्बण्णरस्मियो निक्खमित्वा सुवण्णरसपिञ्जरानि विय चित्रपटपरिक्खित्तानि विय च पासादकूटागारादीनि अलङ्करोन्तियो इतो चितो च धावन्ति, हत्थिअस्सविहङ्गादयो सकसकट्ठानेसु ठितायेव मधुरेनाकारेन सद्दं करोन्ति, तथा भेरिवीणादीनि तूरियानि मनुस्सानञ्च कायूपगानि आभरणानि । तेन सञ्ञाणेन मनुस्सा जानन्ति - “अज्ज भगवा इध पिण्डाय विट्ठोति । ते सुनिवत्था सुपारुता गन्धपुप्फादीनि आदाय घरा निक्खमित्वा अन्तरवीथिं पटिपज्जित्वा भगवन्तं गन्धपुप्फादीहि सक्कच्चं पूजेत्वा वन्दित्वा – “अम्हाकं, भन्ते, दस भिक्खू, अम्हाकं वीसति, पञ्ञासं... पे०. सतं देथा ''ति याचित्वा भगवतोपि पत्तं गहेत्वा दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गट्ठकथा 44 Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१.४-४) परिब्बाजककथावण्णना आसनं पञपेत्वा सक्कच्चं पिण्डपातेन पटिमानेन्ति । भगवा कतभत्तकिच्चो तेसं सत्तानं चित्तसन्तानानि ओलोकेत्वा तथा धम्मं देसेति, यथा केचि सरणगमनेसु पतिठ्ठहन्ति, केचि पञ्चसु सीलेसु, केचि सोतापत्तिसकदागामिअनागामिफलानं अञतरस्मिं; केचि पब्बजित्वा अग्गफले अरहत्तेति । एवं महाजनं अनुग्गहेत्वा उट्ठायासना विहारं गच्छति । तत्थ गन्त्वा मण्डलमाळे पञत्तवरबुद्धासने निसीदति, भिक्खूनं भत्तकिच्चपरियोसानं आगमयमानो । ततो भिक्खूनं भत्तकिच्चपरियोसाने उपट्ठाको भगवतो निवेदेति । अथ भगवा गन्धकुटिं पविसति । इदं ताव पुरेभत्तकिच्चं। अथ भगवा एवं कतपुरेभत्तकिच्चो गन्धकुटिया उपट्ठाने निसीदित्वा पादे पक्खालेत्वा पादपीठे ठत्वा भिक्खुसद्धं ओवदति- “भिक्खवे, अप्पमादेन सम्पादेथ, दुल्लभो बुद्धप्पादो लोकस्मिं, दुल्लभो मनुस्सत्तपटिलाभो, दुल्लभा सम्पत्ति, दुल्लभा पब्बज्जा, दुल्लभं सद्धम्मस्सवन"न्ति । तत्थ केचि भगवन्तं कम्मट्ठानं पुच्छन्ति । भगवापि तेसं चरियानुरूपं कम्मट्ठानं देति । ततो सब्बेपि भगवन्तं वन्दित्वा अत्तनो अत्तनो रत्तिट्ठानदिवाहानानि गच्छन्ति । केचि अरञ्ज, केचि रुक्खमूलं, केचि पब्बतादीनं अञ्जतरं, केचि चातुमहाराजिकभवनं...पे०... केचि वसवत्तिभवनन्ति । ततो भगवा गन्धकुटिं पविसित्वा सचे आकङ्घति, दक्खिणेन पस्सेन सतो सम्पजानो मुहत्तं सीहसेय्यं कप्पेति । अथ समस्सासितकायो वुठ्ठहित्वा दुतियभागे लोकं वोलोकेति । ततियभागे यं गामं वा निगमं वा उपनिस्साय विहरति तत्थ महाजनो पुरेभत्तं दानं दत्वा पच्छाभत्तं सुनिवत्थो सुपारुतो गन्धपुप्फादीनि आदाय विहारे सन्निपतति। ततो भगवा सम्पत्तपरिसाय अनुरूपेन पाटिहारियेन गन्त्वा धम्मसभायं पञत्तवरबुद्धासने निसज्ज धम्मं देसेति कालयुत्तं समययुत्तं, अथ कालं विदित्वा परिसं उय्योजेति, मनुस्सा भगवन्तं वन्दित्वा पक्कमन्ति । इदं पच्छाभत्तकिच्चं। सो एवं निहितपच्छाभत्तकिच्चो सचे गत्तानि ओसिञ्चितुकामो होति, बुद्धासना वुट्ठाय न्हानकोट्टकं पविसित्वा उपट्टाकेन पटियादितउदकेन गत्तानि उतुं गण्हापेति । उपट्ठाकोपि बुद्धासनं आनेत्वा गन्धकुटिपरिवेणे पञपेति। भगवा सरत्तदपटं निवासेत्वा कायबन्धनं बन्धित्वा उत्तरासङ्गं एकंसं करित्वा तत्थ गन्त्वा निसीदति एककोव महत्तं पटिसल्लीनो. अथ भिक्ख ततो ततो आगम्म भगवतो उपदानं आगच्छन्ति । तत्थ एकच्चे पहं पुच्छन्ति, एकच्चे कम्मट्ठानं, एकच्चे धम्मस्सवनं याचन्ति । भगवा तेसं अधिप्पायं सम्पादेन्तो पुरिमयामं वीतिनामेति । इदं पुरिमयामकिच्चं। 45 Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गट्ठकथा (१.४-४) पुरिमयामकिच्चपरियोसाने पन भिक्खूसु भगवन्तं वन्दित्वा पक्कन्तेसु सकलदससहस्सिलोकधातुदेवतायो ओकासं लभमाना भगवन्तं उपसङ्कमित्वा पहं पुच्छन्ति, यथाभिसङ्खतं अन्तमसो चतुरक्खरम्पि। भगवा तासं देवतानं पऽहं विस्सज्जेन्तो मज्झिमयामं वीतिनामेति । इदं मज्झिमयामकिच्चं । पच्छिमयामं पन तयो कोट्ठासे कत्वा पुरेभत्ततो पट्ठाय निसज्जाय पीळितस्स सरीरस्स किलासुभावमोचनत्थं एकं कोट्ठासं चङ्कमेन वीतिनामेति । दुतियकोट्ठासे गन्धकुटिं पविसित्वा दक्खिणेन पस्सेन सतो सम्पजानो सीहसेय्यं कप्पेति । ततियकोट्ठासे पच्चुट्ठाय निसीदित्वा पुरिमबुद्धानं सन्तिके दानसीलादिवसेन कताधिकारपुग्गलदस्सनत्थं बुद्धचक्खुना लोकं वोलोकेति । इदं पच्छिमयामकिच्चं । तस्मिं पन दिवसे भगवा पुरेभत्तकिच्चं राजगहे परियोसापेत्वा पच्छाभत्ते मग्गं आगतो, पुरिमयामे भिक्खूनं कम्मट्ठानं कथेत्वा, मज्झिमयामे देवतानं पज्हं विस्सज्जेत्वा, पच्छिमयामे चङ्कम आरुयह चङ्कममानो पञ्चन्नं भिक्खुसतानं इमं सब्ब ताणं आरब्भ पवत्तं कथं सब्ब ताणेनेव सुत्वा अञासीति । तेन वुत्तं - “पच्छिमयामकिच्चं करोन्तो अज्ञासी"ति । ञत्वा च पनस्स एतदहोसि - “इमे भिक्खू मय्हं सब्बञ्जतञाणं आरब्भ गुणं कथेन्ति, एतेसञ्च सब्ब ताणकिच्चं न पाकटं, मय्हमेव पाकटं | मयि पन गते एते अत्तनो कथं निरन्तरं आरोचेस्सन्ति, ततो नेसं अहं तं अट्ठप्पत्तिं कत्वा तिविधं सीलं विभजन्तो, द्वासट्ठिया ठानेसु अप्पटिवत्तियं सीहनादं नदन्तो, पच्चयाकारं समोधानेत्वा बुद्धगुणे पाकटे कत्वा, सिनेरुं उक्खिपेन्तो विय सुवण्णकूटेन नभं पहरन्तो विय च दससहस्सिलोकधातुकम्पनं ब्रह्मजालसुत्तन्तं अरहत्तनिकूटेन निट्ठापेन्तो देसेस्सामि, सा मे देसना परिनिब्बुतस्सापि पञ्चवस्ससहस्सानि सत्तानं अमतमहानिब्बानं सम्पापिका भविस्सती"ति । एवं चिन्तेत्वा येन मण्डलमाळो तेनुपसङ्कमीति । येनाति येन दिसाभागेन, सो उपसङ्कमितब्बो। भुम्मत्थे वा एतं करणवचनं, यस्मिं पदेसे सो मण्डलमाळो, तत्थ गतोति अयमेत्थ अत्थो । पञत्ते आसने निसीदीति बुद्धकाले किर यत्थ यत्थ एकोपि भिक्खु विहरति सब्बत्थ बुद्धासनं पञत्तमेव होति । कस्मा ? भगवा किर अत्तनो सन्तिके कम्मट्ठानं गहेत्वा 46 Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१.४-४) परिब्बाजककथावण्णना ४७ फासुकट्ठाने विहरन्ते मनसि करोति - “असुको महं सन्तिके कम्मट्ठानं गहेत्वा गतो, सक्खिस्सति नु खो विसेसं निब्बत्तेतुं नो वा''ति । अथ नं पस्सति कम्मट्ठानं विस्सज्जेत्वा अकुसलवितक्कं वितक्कयमानं, ततो “कथहि नाम मादिसस्स सत्थु सन्तिके कम्मट्ठानं गहेत्वा विहरन्तं इमं कुलपुत्तं अकुसलवितक्का अभिभवित्वा अनमतग्गे वट्टदुक्खे संसारेस्सन्ती''ति तस्स अनुग्गहत्थं तत्थेव अत्तानं दस्सेत्वा तं कुलपुत्तं ओवदित्वा आकासं उप्पतित्वा पुन अत्तनो वसनट्ठानमेव गच्छति। अथेवं ओवदियमाना ते भिक्खू चिन्तयिंसु - "सत्था अम्हाकं मनं जानित्वा आगन्त्वा अम्हाकं समीपे ठितंयेव अत्तानं दस्सेति" । तस्मिं खणे - "भन्ते, इध निसीदथ, इध निसीदथा'"ति आसनपरियेसनं नाम भारोति । ते आसनं पञपेत्वाव विहरन्ति । यस्स पीठं अस्थि, सो तं पञपेति | यस्स नत्थि, सो मञ्चं वा फलकं वा कटुं वा पासाणं वा वालुकपुजं वा पञपेति। तं अलभमाना पुराणपण्णानिपि सङ्कड्डित्वा तत्थ पंसुकूलं पत्थरित्वा ठपेन्ति । इध पन रो निसीदनासनमेव अत्थि, तं पप्फोटेत्वा पञ्जपेत्वा परिवारेत्वा ते भिक्खू भगवतो अधिमुत्तिकजाणमारब्भ गुणं थोमयमाना निसीदिंसु । तं सन्धाय वुत्तं- “पञत्ते आसने निसीदी''ति । एवं निसिन्नो पन जानन्तोयेव कथासमुट्ठापनत्थं भिक्खू पुच्छि। ते चस्स सब्बं कथयिंसु । तेन वुत्तं- "निसज्ज खो भगवा"तिआदि । तत्थ काय नुत्थाति कतमाय नु कथाय सन्निसिन्ना भवथाति अत्थो । काय नेत्थातिपि पाळि, तस्सा कतमाय नु एत्थाति अत्थो काय नोत्थातिपि पाळि | तस्सापि पुरिमोयेव अत्थो । अन्तराकथाति, कम्मट्ठानमनसिकारउद्देसपरिपुच्छादीनं अन्तरा अजा एका कथा । विप्पकताति, मम आगमनपच्चया अपरिनिहिता सिखं अप्पत्ता । तेन किं दस्सेति ? “नाहं तुम्हाकं कथाभङ्गत्थं आगतो, अहं पन सब्बञ्जताय तुम्हाकं कथं निट्ठापेत्वा मत्थकप्पत्तं कत्वा दस्सामीति आगतो''ति निसज्जेव सब्ब पवारणं पवारेति । अयं खो नो, भन्ते, अन्तराकथा विप्पकता, अथ भगवा अनुप्पत्तोति एत्थापि अयमधिप्पायो । अयं भन्ते अम्हाकं भगवतो सब्ब ताणं आरब्भ गुणकथा विप्पकता, न राजकथादिका तिरच्छानकथा,अथ भगवा अनुप्पत्तो; तं नो इदानि निट्ठापेत्वा देसेथाति | एत्तावता च यं आयस्मता आनन्देन कमलकुवलयुज्जलविमलसाधुरससलिलाय पोक्खरणिया निम्मलसिलातलरचनविलाससोभितरतनसोपानं, सुखावतरणत्थं 47 Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८८ दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गट्ठकथा विप्पकिण्णमुत्तातलसदिसवालुकाकिण्णपण्डरभूमिभागं तित्थं विय सुविभत्तभित्तिविचित्रवेदिकापरिक्खित्तस्स नक्खत्तपथं फुसितुकामताय विय, विजम्भितसमुस्सयस्स पासादवरस्स सुखारोहणत्थं दन्तमयसण्हमुदुफलककञ्चनलताविनद्धमणिगणप्पभासमुदयुज्जलसोभं सोपानं विय, सुवण्णवलयनूपुरादिसङ्घट्टनसद्दसम्मिस्सितकथितहसितमधुरस्सरगेहजनविचरितस्स उळारिस्सरियविभवसोभितस्स महाघरस्स सुखप्पवेसनत्थं सुवण्णरजतमणिमुत्तपवाळादिजुतिविस्सरविज्जोतितसुप्पतिट्टितविसालद्वारबाहं महाद्वारं विय च अत्थब्यञ्जनसम्पन्नस्स बुद्धगुणानुभावसंसूचकस्स इमस्स सुत्तस्स सुखावगहणत्थं कालदेसदेसकवत्थुपरिसापदेसपटिमण्डितं निदानं भासितं, तस्सत्थवण्णना समत्ताति। ५. इदानि- "ममं वा, भिक्खवे, परे अवण्णं भासेय्यु"न्तिआदिना नयेन भगवता निक्खित्तस्स सुत्तस्स वण्णनाय ओकासो अनुप्पत्तो । सा पनेसा सुत्तवण्णना। यस्मा सुत्तनिवखेपं विचारेत्वा वुच्चमाना पाकटा होति, तस्मा सुत्तनिक्खेपं ताव विचारयिस्साम | चत्तारो हि सुत्तनिक्खेपा - अत्तज्झासयो, परज्झासयो, पुच्छावसिको, अट्ठप्पत्तिकोति । तत्थ यानि सुत्तानि भगवा परेहि अनज्झिट्ठो केवलं अत्तनो अज्झासयेनेव कथेसि; सेय्यथिदं, आकङ्खय्यसुत्तं, वत्थसुत्तं, महासतिपट्टानं, महासळायतनविभङ्गसुत्तं, अरियवंससुत्तं, सम्मप्पधानसुत्तन्तहारको, इद्धिपादइन्द्रियबलबोज्झङ्गमग्गङ्गसुत्तन्तहारकोति एवमादीनि; तेसं अत्तज्झासयो निक्खेपो। यानि पन “परिपक्का खो राहुलस्स विमुत्तिपरिपाचनिया धम्मा; यंनूनाहं राहुलं उत्तरं आसवानं खये विनेय्य"न्ति; (सं० नि० २.४.१२१) एवं परेसं अज्झासयं खन्तिं मनं अभिनीहारं बुज्झनभावञ्च अवेक्खित्वा परज्झासयवसेन कथितानि; सेय्यथिदं, चूळराहुलोवादसुत्तं, महाराहुलोवादसुत्तं, धम्मचक्कप्पवत्तनं, धातुविभङ्गसुत्तन्ति एवमादीनि; तेसं परज्झासयो निक्खेपो। भगवन्तं पन उपसङ्कमित्वा चतस्सो परिसा, चत्तारो वण्णा, नागा, सुपण्णा, गन्धब्बा, असुरा, यक्खा, महाराजानो, तावतिसादयो देवा, महाब्रह्माति एवमादयो"बोज्झङ्गा बोज्झङ्गा'"ति, भन्ते, वुच्चन्ति । “नीवरणा नीवरणा'ति, भन्ते, वुच्चन्ति; “इमे नु खो, भन्ते, पञ्चुपादानक्खन्धा" । "किं सूध वित्तं पुरिसस्स सेट्ठ"न्तिआदिना नयेन 48 Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिब्बाजककथावण्णना पहं पुच्छन्ति । एवं पुढेन भगवता यानि कथितानि बोज्झङ्गसंयुत्तादीनि, यानि वा पनञ्जानिपि देवतासंयुत्त-मारसंयुत्त-ब्रह्मसंयुत्त-सक्कपञ्ह-चूळवेदल्ल-महावेदल्ल-सामञफलआळवक-सूचिलोम-खरलोमसुत्तादीनि; तेसं पुच्छावसिको निक्खेपो। ___ यानि पन तानि उप्पन्नं कारणं पटिच्च कथितानि, सेय्यथिदं - धम्मदायाद, चूळसीहनादं, चन्दूपमं, पुत्तमंसूपमं, दारुक्खन्धूपमं, अग्गिक्खन्धूपम, फेणपिण्डूपमं, पारिच्छत्तकूपमन्ति एवमादीनि; तेसं अटुप्पत्तिको निक्खेपो। ___ एवमेतेसु चतूसु निक्खेपेसु इमस्स सुत्तस्स अट्ठप्पत्तिको निखेपो । अट्ठप्पत्तिया हि इदं भगवता निक्खित्तं । कतराय अठ्ठप्पत्तिया ? वण्णावण्णे | आचरियो रतनत्तयस्स अवण्णं अभासि, अन्तेवासी वण्णं । इति इमं वण्णावण्णं अट्ठप्पत्तिं कत्वा देसनाकुसलो भगवा - "ममं वा, भिक्खवे, परे अवण्णं भासेय्यु"न्ति देसनं आरभि | तत्थ ममन्ति, सामिवचनं, ममाति अत्थो । वा सद्दो विकप्पनत्थो । परेति, पटिविरुद्धा सत्ता | तत्राति ये अवण्णं वदन्ति तेसु । न आघातोतिआदीहि किञ्चापि तेसं भिक्खूनं आघातोयेव नत्थि, अथ खो आयतिं कुलपुत्तानं ईदिसेसुपि ठानेसु अकुसलुप्पत्तिं पटिसेधेन्तो धम्मनेत्तिं ठपेति । तत्थ आहनति चित्तन्ति 'आघातो': कोपस्सेतं अधिवचनं । अप्पतीता होन्ति तेन अतवा असोमनस्सिकाति अप्पच्चयो; दोमनस्सस्सेतं अधिवचनं । नेव अत्तनो न परेसं हितं अभिराधयतीति अनभिरद्धिः कोपस्सेतं अधिवचनं । एवमेत्थ द्वीहि पदेहि सङ्घारक्खन्धो, एकेन वेदनाक्खन्धोति द्वे खन्धा वुत्ता । तेसं वसेन सेसानम्पि सम्पयुत्तधम्मानं कारणं पटिक्खित्तमेव । एवं पठमेन नयेन मनोपदोसं निवारेत्वा, दुतियेन नयेन तत्थ आदीनवं दस्सेन्तो आह -- “तत्र चे तुम्हे अस्सथ कुपिता वा अनत्तमना वा, तुम्हं येवस्स तेन अन्तरायो"ति । तत्थ 'तत्र चे तुम्हे अस्सथा'ति तेसु अवण्णभासकेसु, तस्मिं वा अवण्णे तुम्हे भवेय्याथ चे; यदि भवेय्याथाति अत्थो । 'कुपिता' कोपेन, अनत्तमना दोमनस्सेन । 'तुम्हं येवस्स तेन अन्तरायोति तुम्हाकंयेव तेन कोपेन, ताय च अनत्तमनताय पठमज्झानादीनं अन्तरायो भवेय्य । Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५० दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गट्ठकथा एवं दुतियेन नयेन आदीनवं दस्सेत्वा, ततियेन नयेन वचनत्थसल्लक्खणमत्तेपि असमत्थतं दस्सेन्तो - " अपि नु तुम्हे परेस"न्तिआदिमाह । तत्थ परेसन्ति येसं केसं चि । कुपितो हि नेव बुद्धपच्चेकबुद्धअरियसावकानं, न मातापितूनं, न पच्चत्थिकानं सुभासितदुब्भासितस्स अत्थं आजानाति । यथाह - " कुद्धो अत्थं न जानाति, कुद्धो धम्मं न पस्सति । अन्धं तमं तदा होति, यं कोधो सहते नरं । । अनत्थजननो कोधो, कोधो चित्तप्पकोपनो । भयमन्तरतो जातं, तं जनो नावबुज्झती 'ति ।। (अ० नि० २.७.६४) (१.६-६) एवं सब्बथापि अवण्णे मनोपदोसं निसेधेत्वा इदानि पटिपज्जितब्बाकारं दस्सेन्तो - " तत्र तुम्हेहि अभूतं अभूततो" तिआदिमाह । तत्र तत्थ तत्र तुम्हेहीति, तस्मिं अवण्णे तुम्हेहि । अभूतं अभूततो निब्बेठेतब्बन्ति यं अभूतं तं अभूतभावेनेव अपनेतब्बं । कथं? इतिपेतं अभूतन्तिआदिना नयेन । तत्रायं योजना - " तुम्हाकं सत्था न सब्बञ्जू, धम्मो दुरक्खातो, सङ्घो दुप्पटिपन्नो 'तिआदीनि सुत्वा न तुम्ही भवितब्बं । एवं पन वत्तब्बं- " इति पेतं अभूतं यं तुम्हेहि वुत्तं, तं इमिनापि कारणेन अभूतं इमिनापि कारणेन अतच्छं, 'नत्थि चेतं अम्हेसु', 'न च पनेतं अम्हेसु संविज्जति', सब्बञ्ञयेव अम्हाकं सत्था, स्वाक्खातो धम्मो, सुप्पटिपन्नो सङ्घो, इदञ्चिदञ्च कारण "न्ति । एत्थ च दुतियं पदं पठमस्स, चतुत्थञ्च ततियस्स वेवचनन्ति वेदितब्बं । इदञ्च अवण्णेयेव निब्बेठनं कातब्बं न सब्बत्थ । यदि हि " त्वं दुस्सीलो, तवाचरियो दुस्सीलो, इदञ्चिदञ्च तया कतं, तवाचरियेन कत "न्ति वुत्ते तुम्हीभूतो अधिवासेति, आसङ्कनीयो होति । तस्मा मनोपदोसं अकत्वा अवण्णो निब्बेठेतब्बो । " ओट्टोसि, गोणोसी "तिआदिना पन नयेन दसहि अक्कोसवत्थूहि अक्कोसन्तं पुग्गलं अपेक्खित्वा अधिवासनखन्तियेव तत्थ कातब्बा । ६. एवं अवण्णभूमियं तादिलक्खणं दस्सेत्वा इदानि वण्णभूमियं दस्सेतुं “ममं वा, भिक्खवे, परे वण्णं भासेय्यु "न्तिआदिमाह । तत्थ परेति ये केचि पसन्ना देवमनुस्सा । आनन्दन्ति एतेनाति आनन्दो, पीतिया एतं अधिवचनं । सुमनस्स भावो सोमनस्सं, 50 Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१.६-६) परिब्बाजककथावण्णना चेतसिकसुखस्सेतं अधिवचनं । उप्पिलाविनो भावो उप्पिलावितत्तं । कस्स उप्पिलावितत्तन्ति ? चेतसोति । उद्धच्चावहाय उप्पिलापनपीतिया एतं अधिवचनं । इधापि द्वीहि पदेहि सङ्खारक्खन्धो, एकेन वेदनाक्खन्धो वुत्तो । एवं पठमनयेन उप्पिलावितत्तं निवारेत्वा, दुतियेन तत्थ आदीनवं दस्सेन्तो- "तत्र चे तुम्हे अस्सथा"तिआदिमाह । इधापि तुम्हं येवस्स तेन अन्तरायोति तेन उप्पिलावितत्तेन तुम्हाकंयेव पठमज्झानादीनं अन्तरायो भवेय्याति अत्थो वेदितब्बो । कस्मा पनेतं वुत्तं ? ननु भगवता "बुद्धोति कित्तयन्तस्स, काये भवति या पीति । वरमेव हि सा पीति, कसिणेनापि जम्बुदीपस्स ।। धम्मोति कित्तयन्तस्स, काये भवति या पीति । वरमेव हि सा पीति, कसिणेनापि जम्बुदीपस्स ।। सङ्घोति कित्तयन्तस्स, काये भवति या पीति । वरमेव हि सा पीति, कसिणेनापि जम्बुदीपस्सा"ति च ।। “ये, भिक्खवे, बुद्धे पसन्ना, अग्गे ते पसन्ना"ति च एवमादीहि अनेकसतेहि सुत्तेहि रतनत्तये पीतिसोमनस्समेव वण्णितन्ति । सच्चं वण्णितं, तं पन नेक्खम्मनिस्सितं । इध– “अम्हाकं बुद्धो, अम्हाकं धम्मो''तिआदिना नयेन आयस्मतो छन्नस्स उप्पन्नसदिसं गेहस्सितं पीतिसोमनस्सं अधिप्पेतं । इदहि झानादिपटिलाभाय अन्तरायकरं होति । तेनेवायस्मा छन्नोपि याव बुद्धो न परिनिब्बायि, ताव विसेसं निब्बत्तेतुं नासक्खि, परिनिब्बानकाले पञत्तेन पन ब्रह्मदण्डेन तज्जितो तं पीतिसोमनस्सं पहाय विसेसं निब्बत्तेसि । तस्मा अन्तरायकरंयेव सन्धाय इदं वुत्तन्ति वेदितब् । अयहि लोभसहगता पीति | लोभो च कोधसदिसोव । यथाह - “लुद्धो अत्थं न जानाति, लुद्धो धम्मं न पस्सति । अन्धं तमं तदा होति, यं लोभो सहते नरं ।। Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२ दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गट्ठकथा (१.७-७) अनत्थजननो लोभो, लोभो चित्तप्पकोपनो । भयमन्तरतो जातं, तं जनो नावबुज्झती"ति ।। (इति० ८८) ततियवारो पन इध अनागतोपि अत्थतो आगतो येवाति वेदितब्बो। यथेव हि कुद्धो, एवं लुद्धोपि अत्थं न जानातीति | पटिपज्जितब्बाकारदस्सनवारे पनायं योजना - "तुम्हाकं सत्था सब्बञ्जू अरहं सम्मासम्बुद्धो, धम्मो स्वाक्खातो, सङ्घो सुप्पटिपन्नो'"तिआदीनि सुत्वा न तुण्ही भवितब्बं । एवं पन पटिजानितब्बं - "इतिपेतं भूतं, यं तुम्हेहि वुत्तं, तं इमिनापि कारणेन भूतं, इमिनापि कारणेन तच्छं । सो हि भगवा इतिपि अरहं, इतिपि सम्मासम्बुद्धो; धम्मो इतिपि स्वाक्खातो, इतिपि सन्दिट्ठिको; सङ्घो इतिपि सुप्पटिपन्नो, इतिपि उजुप्पटिपन्नोति । "त्वं सीलवाति पुच्छितेनापि सचे सीलवा, “सीलवाहमस्मी''ति पटिजानितब्बमेव । “त्वं पठमस्स झानस्स लाभी...पे०... अरहा''ति पुढेनापि सभागानं भिक्खूनंयेव पटिजानितब्बं । एवहि पापिच्छता चेव परिवज्जिता होति, सासनस्स च अमोघता दीपिता होतीति । सेसं वुत्तनयेनेव वेदितब्बं । चूळसीलवण्णना ७. अप्पमत्तकं खो पनेतं, भिक्खवेति को अनुसन्धि ? इदं सुत्तं द्वीहि पदेहि आबद्धं वण्णेन च अवण्णेन च। तत्थ अवण्णो- “इति पेतं अभूतं इति पेतं अतच्छ''न्ति, एत्थेव उदकन्तं पत्वा अग्गिविय निवत्तो। वण्णो पन भूतं भूततो पटिजानितब्बं - “इति पेतं भूत''न्ति एवं अनुवत्ततियेव । सो पन दुविधो ब्रह्मदत्तेन भासितवण्णो च भिक्खुसङ्घन अच्छरियं आवुसोतिआदिना नयेन आरद्धवण्णो च । तेसु भिक्खुसङ्घन वुत्तवण्णस्स उपरि सुञतापकासने अनुसन्धिं दस्सेस्सति । इध पन ब्रह्मदत्तेन वुत्तवण्णस्स अनुसन्धिं दस्सेतुं “अप्पमत्तकं खो पनेतं, भिक्खवे''ति देसना आरद्धा । तत्थ अप्पमत्तकन्ति परित्तस्स नामं । ओरमत्तकन्ति तस्सेव वेवचनं । मत्ताति वुच्चति पमाणं | अप्पं मत्ता एतस्साति अप्पमत्तकं । ओरं मत्ता एतस्साति ओरमत्तकं। सीलमेव सीलमत्तकं। इदं वुत्तं होति - 'अप्पमत्तकं खो, पनेतं भिक्खवे, ओरमत्तकं सीलमत्तकं' Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१.७-७) (१.७-७) ५3 चूळसीलवण्णना _ चूळसीलवण्णना नाम येन "तथागतस्स वण्णं वदामी''ति उस्साहं कत्वापि वण्णं वदमानो पुथुज्जनो वदेय्याति । तत्थ सिया - ननु इदं सीलं नाम योगिनो अग्गविभूसनं ? यथाहु पोराणा - “सीलं योगिस्स'लङ्कारो, सीलं योगिस्स मण्डनं । सीलेहि'लङ्कतो योगी, मण्डने अग्गतं गतो"ति ।। भगवतापि च अनेकेसु सुत्तसतेसु सीलं महन्तमेव कत्वा कथितं । यथाह - "आकङ्ग्रेय्य चे, भिक्खवे, भिक्खु ‘सब्रह्मचारीनं पियो चस्सं मनापो च गरु च भावनीयो चा'ति, सीलेस्वेवस्स परिपूरकारी"ति (म० नि० १.६५) च । “किकीव अण्डं, चमरीव वालधिं । पियंव पुत्तं, नयनंव एककं ।। तथेव सीलं, अनुरक्खमाना । सुपेसला होथ, सदा सगारवा"ति च ।। “न पुप्फगन्धो पटिवातमेति । न चन्दनं तग्गरमल्लिका वा ।। सतञ्च गन्धो पटिवातमेति । सब्बा दिसा सप्पुरिसो पवायति ।। चन्दनं तगरं वापि, उप्पलं अथ वस्सिकी । एतेसं गन्धजातानं, सीलगन्धो अनुत्तरो ।। अप्पमत्तो अयं गन्धो, य्वायं तगरचन्दनं । यो च सीलवतं गन्धो, वाति देवेसु उत्तमो । । तेसं सम्पन्नसीलानं, अप्पमादविहारिनं । सम्मदञा विमुत्तानं, मारो मग्गं न विन्दती''ति च ।। (ध० प० ५७) 53 Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४ दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गट्ठकथा "सीले पतिट्ठाय नरो सपञ्ञ, चित्तं पञ्ञञ्च भावयं । आतापी निपको भिक्खु, सो इमं विजटये जट "न्ति च ।। (सं० नि० १.१.२३) “सेय्यथापि, भिक्खवे, ये केचि बीजगामभूतगामा वुद्धिं विरूळ्हिं वेपुल्लं आपज्जन्ति, सब्बे ते पथविं निस्साय, पथवियं पतिट्ठाय; एवमेते बीजगामभूतगामा वुडिं विरूळ्हिं वेपुल्लं आपज्जन्ति । एवमेव खो, भिक्खवे, भिक्खु सीलं निस्साय सीले पतिट्ठाय सत्तबोज्झङ्गे भावेन्तो सत्तबोज्झने बहुलीकरोन्तो वुद्धिं विरूहिं वेल्लं पाणाति धम्मेसू "ति (सं० नि० ३.५.१५० ) च । एवं अञ्ञानिपि अनेकानि सुत्तानि दट्ठब्बानि । एवमनेकेसु सुत्तसतेसु सीलं महन्तमेव कत्वा कथितं । तं " कस्मा इमस्मिं ठाने अप्पमत्तक’”न्ति आहाति ? उपरि गुणे उपनिधाय । सीलहि समाधिं न पाणाति, सम पञ्ञ न पापुणाति, तस्मा उपरिमं उपनिधाय हेट्ठिमं ओरमत्तकं नाम होति । कथं सीलं समाधिं न पापुणाति ? भगवा हि अभिसम्बोधितो सत्तमे संवच्छरे सावत्थिनगर- द्वारे कण्डम्बरुक्खमूले द्वादसयोजने रतनमण्डपे योजनप्पमाणे रतनपल्लङ्के निसीदित्वा तियोजनिके दिब्बसेतच्छत्ते धारियमाने द्वादसयोजनाय परिसाय अत्तादानपरिदीपनं तित्थियमद्दनं - “उपरिमकायतो अग्गिक्खन्धो पवत्तति, हेट्टिमकायतो उदकधारा पवत्तति...पे०... एकेकलोमकूपतो अग्गिक्खन्धो पवत्तति, एकेकलोमकूपतो उदकधारा पवत्तति, छन्नं वण्णान''न्तिआदिनयप्पवत्तं यमकपाटिहारियं दस्सेति । तस्स सुवण्णवण्णसरीरतो सुवण्णवण्णा रस्मियो उग्गन्त्वा याव भवग्गा गच्छन्ति, सकलदससहस्सचक्कवाळस्स अलङ्करणकालो विय होति, दुतिया दुतिया रस्मियो पुरिमाय पुरिमाय यमकयमका विय एकक्खणे विय पवत्तन्ति । (१.७-७) द्विन्नञ्च चित्तानं एकक्खणे पवत्ति नाम नत्थि । बुद्धानं पन भगवन्तानं भवङ्गपरिवासस्स लहुकताय पञ्चहाकारेहि आचिण्णवसिताय च ता एकक्खणे व पवत्तन्ति । तस्सा तस्सा पन रस्मिया आवज्जनपरिकम्माधिट्ठानानि विसुं विसुंयेव । नीलरस्मिअत्थाय हि भगवा नीलकसिणं समापज्जति, पीतरस्मिअत्थाय पीतकसिणं, लोहितओदातरस्मिअत्थाय लोहितओदातकसिणं, अग्गिक्खन्धत्थाय तेजोकसिणं, उदकधारत्थाय आपोकसिणं समापज्जति । सत्था चङ्कमति, निम्मितो तिट्ठति वा निसीदति वा सेय्यं वा 54 Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१.७-७) चूळसीलवण्णना कप्पेतीति सब्बं वित्थारेतब्बं । एत्थ एकम्पि सीलस्स किच्चं नत्थि, सब्बं समाधिकिच्चमेव । एवं सीलं समाधिं न पापुणाति । __यं पन भगवा कप्पसतसहस्साधिकानि चत्तारि असङ्ख्येय्यानि पारमियो पूरेत्वा, एकूनतिंसवस्सकाले चक्कवत्तिसिरीनिवासभूता भवना निक्खम्म अनोमानदीतीरे पब्बजित्वा, छब्बस्सानि पधानयोगं कत्वा, विसाखपुण्णमायं उरुवेलगामे सुजाताय दिन्नं पक्खित्तदिब्बोजं मधुपायासं परिभुजित्वा, सायन्हसमये दक्खिणुत्तरेन बोधिमण्डं पविसित्वा अस्सत्थदुमराजानं तिक्खत्तुं पदक्खिणं कत्वा, पुब्बुत्तरभागे ठितो तिणसन्थारं सन्थरित्वा, तिसन्धिपल्लवं आभुजित्वा, चतुरङ्गसमन्नागतं मेत्ताकम्मट्ठानं पुब्बङ्गमं कत्वा, वीरियाधिट्ठानं अधिट्ठाय, चुद्दसहत्थपल्लङ्कवरगतो सुवण्णपीठे ठपितं रजतक्खन्धं विय पञ्जासहत्थं बोधिक्खन्धं पिट्टितो कत्वा, उपरि मणिछत्तेन विय बोधिसाखाय धारियमानो, सुवण्णवण्णे चीवरे पवाळसदिसेसु बोधिअङ्कुरेसु पतमानेसु, सूरिये अत्थं उपगच्छन्ते मारबलं विधमित्वा, पठमयामे पुब्बेनिवासं अनुस्सरित्वा, मज्झिमयामे दिब्बचक्टुं विसोधेत्वा, पच्चूसकाले सब्बबुद्धानमाचिण्णे पच्चयाकारे आणं ओतारेत्वा, आनापानचतुत्थज्झानं निब्बत्तेत्वा, तदेव पादकं कत्वा विपस्सनं वड्वेत्वा, मग्गपटिपाटिया अधिगतेन चतुत्थमग्गेन सब्बकिलेसे खेपेत्वा सब्बबुद्धगुणे पटिविज्झि, इदमस्स पाकिच्चं । एवं समाधि पझं न पापुणाति । तत्थ यथा हत्थे उदकं पातियं उदकं न पापुणाति, पातियं उदकं घटे उदकं न पापुणाति, घटे उदकं कोलम्बे उदकं न पापुणाति, कोलम्बे उदकं चाटियं उदकं न पापुणाति, चाटियं उदकं महाकुम्भियं उदकं न पापुणाति, महाकुम्भियं उदकं कुसोब्भे उदकं न पापुणाति, कुसोब्भे उदकं कन्दरे उदकं न पापुणाति, कन्दरे उदकं कुन्नदियं उदकं न पापुणाति, कुन्नदियं उदकं पञ्चमहानदियं उदकं न पापुणाति, पञ्चमहानदियं उदकं चक्कवाळमहासमुद्दे उदकं न पापुणाति, चक्कवाळमहासमुद्दे उदकं सिनेरुपादके महासमुद्दे उदकं न पापुणाति । पातियं उदकं उपनिधाय हत्थे उदकं परित्तं...पे०... सिनेरुपादकमहासमुद्दे उदकं उपनिधाय चक्कवाळमहासमुद्दे उदकं परित्तं । इति उपरूपरि उदकं बहुकं उपादाय हेट्ठा हेट्ठा उदकं परित्तं होति । ___ एवमेव उपरि उपरि गुणे उपादाय हेट्ठा हेट्ठा सीलं अप्पमत्तकं ओरमत्तकन्ति वेदितब्बं । तेनाह – “अप्पमत्तकं खो पनेतं, भिक्खवे, ओरमत्तकं सीलमत्तक''न्ति । 55 Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६ दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गट्ठकथा (१.७-७) येन पुथुज्जनोति, एत्थ - “दुवे पुथुज्जना वुत्ता, बुद्धेनादिच्चबन्धुना । अन्धो पुथुज्जनो एको, कल्याणेको पुथुज्जनो"ति ।। तत्थ यस्स खन्धधातुआयतनादीसु उग्गहपरिपुच्छासवनधारणपच्चवेक्खणानि नत्थि, अयं अन्धपुथुज्जनो। यस्स तानि अत्थि, सो कल्याणपुथुज्जनो। दुविधोपि पनेस - "पुथूनं जननादीहि, कारणेहि पुथुज्जनो । पुथुज्जनन्तोगधत्ता, पुथुवायं जनो इति” ।। सो हि पुथूनं नानप्पकारानं किलेसादीनं जननादीहि कारणेहि पुथुज्जनो। यथाह - "पुथु किलेसे जनेन्तीति पुथुज्जना, पुथु अविहतसक्कायदिट्टिकाति पुथुज्जना, पुथु सत्थारानं मुखुल्लोकिकाति पुथुज्जना, पुथु सब्बगतीहि अवुट्टिताति पुथुज्जना, पुथु नानाभिसङ्खारे अभिसङ्घरोन्तीति पुथुज्जना, पुथु नानाओघेहि वुय्हन्ति, पुथु सन्तापेहि सन्तप्पन्ति, पुथु परिळाहेहि परिडरहन्ति, पुथु पञ्चसु कामगुणेसु रत्ता गिद्धा गथिता मुच्छिता अज्झोपन्ना लग्गा लग्गिता पलिबुद्धाति पुथुज्जना, पुथु पञ्चहि नीवरणेहि आवुता निवुता ओवुता पिहिता पटिच्छन्ना पटिकुज्जिताति पुथुज्जना''ति । पुथूनं गणनपथमतीतानं अरियधम्मपरम्मुखानं नीचधम्मसमाचारानं जनानं अन्तोगधत्तापि पुथुज्जनो, पुथुवायं विसुंयेव सङ्ख्यं गतो विसंसट्ठो सीलसुतादिगुणयुत्तेहि अरियेहि जनेहीति पुथुज्जनोति । तथागतस्साति अट्ठहि कारणेहि भगवा तथागतो। तथा आगतोति तथागतो, तथा गतोति तथागतो, तथलक्खणं आगतोति तथागतो, तथधम्मे याथावतो अभिसम्बुद्धोति तथागतो, तथदस्सिताय तथागतो, तथवादिताय तथागतो, तथाकारिताय तथागतो, अभिभवनटेन तथागतोति । कथं भगवा तथा आगतोति तथागतो? यथा सब्बलोकहिताय उस्सुक्कमापन्ना पुरिमका सम्मासम्बुद्धा आगता, यथा विपस्सी भगवा आगतो, यथा सिखी भगवा, यथा वेस्सभू भगवा, यथा ककुसन्धो भगवा, यथा कोणागमनो भगवा, यथा कस्सपो भगवा 56 Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१.७-७) चूळसीलवण्णना ५७ आगतो। किं वुत्तं होति ? येन अभिनीहारेन एते भगवन्तो आगता, तेनेव अम्हाकम्पि भगवा आगतो। अथ वा यथा विपस्सी भगवा...पे०... यथा कस्सपो भगवा दानपारमिं पूरेत्वा, सीलनेक्खम्मपावीरियखन्तिसच्चअधिट्टानमेत्ताउपेक्खापारमिं पूरेत्वा, इमा दस पारमियो, दस उपपारमियो, दस परमत्थपारमियोति समतिंसपारमियो पूरेत्वा अङ्गपरिच्चागं, नयनधनरज्जपुत्तदारपरिच्चागन्ति इमे पञ्च महापरिच्चागे परिच्चजित्वा पुब्बयोगपुब्बचरियधम्मक्खानसातत्थचरियादयो पूरेत्वा बुद्धिचरियाय कोटिं पत्वा आगतो; तथा अम्हाकम्पि भगवा आगतो। अथ वा यथा विपस्सी भगवा...पे०... कस्सपो भगवा चत्तारो सतिपट्टाने, चत्तारो सम्मप्पधाने, चत्तारो इद्धिपादे, पञ्चिन्द्रियानि, पञ्च बलानि, सत्त बोज्झङ्गे, अरियं अट्ठङ्गिकं मग्गं भावेत्वा ब्रूहेत्वा आगतो, तथा अम्हाकम्पि भगवा आगतो । एवं तथा आगतोति तथागतो। "यथेव लोकम्हि विपस्सिआदयो, सब्बअभावं मुनयो इधागता । तथा अयं सक्यमुनीपि आगतो, - तथागतो वुच्चति तेन चक्खुमा"ति ।। एवं तथा आगतोति तथागतो । कथं तथा गतोति तथागतो ? यथा सम्पतिजातो विपस्सी भगवा गतो...पे०... कस्सपो भगवा गतो। कथञ्च सो भगवा गतो ? सो हि सम्पति जातोव समेहि पादेहि पथवियं पतिट्ठाय उत्तराभिमुखो सत्तपदवीतिहारेन गतो । यथाह - “सम्पतिजातो खो, आनन्द, बोधिसत्तो समेहि पादेहि पतिठ्ठहित्वा उत्तराभिमुखो सत्तपदवीतिहारेन गच्छति, सेतम्हि छत्ते अनुधारियमाने सब्बा च दिसा अनुविलोकेति, आसभिं वाचं भासति - ‘अग्गोहमस्मि लोकस्स, जेट्ठोहमस्मि लोकस्स, सेट्ठोहमस्मि लोकस्स, अयमन्तिमा जाति, नत्थिदानि पुनब्भवो'ति' (दी० नि० २.३१) । तञ्चस्स गमनं तथं अहोसि ? अवितथं अनेकेसं विसेसाधिगमानं पुब्बनिमित्तभावेन । Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८ दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गट्ठकथा यहि सो सम्पतिजातोव समेहि पादेहि पतिट्ठहि । इदमस्स चतुरिद्धिपादपटिलाभस्स पुब्बनिमित्तं । उत्तराभिमुखभावो पन सब्बलोकुत्तरभावस्स पुब्बनिमित्तं । सत्तपदवीतिहारी, सत्तबोज्झङ्गरतनपटिलाभस्स । “सुवण्णदण्डा सब्बतित्थियनिम्मद्दनस्स । वीतिपतन्ति चामरा"ति, एत्थ “मुहुत्तजातोव गवम्पती यथा, समेहि पादेहि फुसी वसुन्धरं । सो विक्कमी सत्त पदानि गोतमो, सेतञ्च छत्तं अनुधारयुं मरू ।। गन्त्वान सो सत्त पदानि गोतमो, दिसा विलोकेसि समा समन्ततो । अट्ठङ्गुपेतं गिरमब्भुदीरयि, सीहो यथा पब्बतमुद्धनिट्ठितो 'ति । । सेतच्छत्तधारणं, अरहत्तविमुत्तिवरविमलसेतच्छत्तपटिलाभस्स । सत्तमपदूपरि ठत्वा सब्बदिसानुविलोकनं, सब्बञ्जतानावरणञाणपटिलाभस्स । आसभिवाचाभासनं अप्पटिवत्तियवरधम्मचक्कप्पवत्तनस्स पुब्बनिमित्तं । तथा अयं भगवापि गतो, तञ्चस्स गमनं तथं अहोसि, अवितथं, तेसंयेव विसेसाधिगमानं पुब्बनिमित्तभावेन । तेनाहु पोराणा - 58 (१.७-७) चा पन Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१.७-७) चूळसीलवण्णना एवं तथा गतोति तथागतो । अथ वा यथा विपस्सी भगवा...पे०... यथा कस्सपो भगवा, अयम्पि भगवा तथेव नेक्खम्मेन कामच्छन्दं पहाय गतो, अब्यापादेन ब्यापादं, आलोकसञ्जाय थिनमिद्धं, अविक्खेपेन उद्धच्चकुक्कुच्चं, धम्मववत्थानेन विचिकिच्छं पहाय आणेन अविज्जं पदालेत्वा, पामोज्जेन अरतिं विनोदेत्वा, पठमज्झानेन नीवरणकवाटं उग्घाटेत्वा, दुतियज्झानेन वितक्कविचारं वूपसमेत्वा, ततियज्झानेन पीतिं विराजेत्वा, चतुत्थज्झानेन सुखदुक्खं पहाय, आकासानञ्चायतनसमापत्तिया रूपसापटिघसञानानत्तसञ्जायो समतिक्कमित्वा, विज्ञाणञ्चायतनसमापत्तिया आकासानञ्चायतनसलं, आकिञ्चज्ञायतनसमापत्तिया विज्ञाणञ्चायतनसलं, नेवसञ्जानासज्ञायतनसमापत्तिया आकिञ्चायतनसलं समतिक्कमित्वा गतो। अनिच्चानुपस्सनाय निच्चसनं पहाय, दुक्खानुपस्सनाय सुखसञ्ज, अनत्तानुपस्सनाय अत्तसञ्ज, निब्बिदानुपस्सनाय नन्दिं, विरागानुपस्सनाय रागं, निरोधानुपस्सनाय समुदयं, पटिनिस्सग्गानुपस्सनाय आदानं, खयानुपस्सनाय घनसलं, वयानुपस्सनाय आयूहनं, विपरिणामानुपस्सनाय धुवसलं, अनिमित्तानुपस्सनाय निमित्तं, अप्पणिहितानुपस्सनाय पणिधिं, सुञतानुपस्सनाय अभिनिवेसं, अधिपञ्जाधम्मविपस्सनाय सारादानाभिनिवेसं, यथाभूतञाणदस्सनेन सम्मोहाभिनिवेसं, आदीनवानुपस्सनाय आलयाभिनिवेसं, पटिसङ्खानुपस्सनाय अप्पटिसङ्ख, विवट्टानुपस्सनाय संयोगाभिनिवेसं, सोतापत्तिमग्गेन दिढेकट्ठे किलेसे भजित्वा, सकदागामिमग्गेन ओळारिके किलेसे पहाय, अनागामिमग्गेन अणुसहगते किलेसे समुग्घाटेत्वा, अरहत्तमग्गेन सब्बकिलेसे समुच्छिन्दित्वा गतो । एवम्पि तथा गतोति तथागतो । कथं तथलक्खणं आगतोति तथागतो? पथवीधातुया कक्खळत्तलक्खणं तथं अवितथं । आपोधातुया पग्घरणलक्खणं । तेजोधातुया उण्हत्तलक्खणं । वायोधातुया वित्थम्भनलक्खणं । आकासधातुया असम्फुट्ठलक्खणं । विज्ञाणधातुया विजाननलक्खणं । रूपस्स रुप्पनलक्खणं । वेदनाय वेदयितलक्खणं। सजाय सञ्जाननलक्खणं । सङ्खारानं अभिसङ्खरणलक्खणं । विज्ञाणस्स विजाननलक्खणं । 59 Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गट्ठकथा (१.७-७) वितक्कस्स अभिनिरोपनलक्खणं । विचारस्स फरणलक्खणं। सुखस्स सातलक्खणं । चित्तेकग्गताय फुसनलक्खणं। अनुमज्जनलक्खणं पीतिया अविखेपलक्खणं । फस्सस्स सद्धिन्द्रियस्स अधिमोक्खलक्खणं। वीरियिन्द्रियस्स पग्गहलक्खणं। सतिन्द्रियस्स उपट्ठानलक्खणं । समाधिन्द्रियस्स अविखेपलक्खणं । पञ्जिन्द्रियस्स पजाननलक्खणं । सद्धाबलस्स अस्सद्धिये अकम्पियलक्खणं। वीरियबलस्स कोसज्जे, सतिबलस्स मुट्ठस्सच्चे । समाधिबलस्स उद्धच्चे, पञ्जाबलस्स अविज्जाय अकम्पियलक्खणं । सतिसम्बोज्झङ्गस्स उपट्ठानलक्खणं। धम्मविचयसम्बोज्झङ्गस्स पविचयलक्खणं । वीरियसम्बोज्झङ्गस्स पग्गहलक्खणं । पीतिसम्बोज्झङ्गस्स फरणलक्खणं । पस्सद्धिसम्बोज्झङ्गस्स वूपसमलक्खणं । समाधिसम्बोज्झङ्गस्स अविक्खेपलक्खणं । उपेक्खासम्बोज्झङ्गस्स पटिसङ्कानलक्खणं । सम्मादिट्ठिया दस्सनलक्खणं । सम्मासङ्कप्पस्स अभिनिरोपनलक्खणं । सम्मावाचाय परिग्गहलक्खणं । सम्माकम्मन्तस्स समुट्ठानलक्खणं। सम्माआजीवस्स वोदानलक्खणं । सम्मावायामस्स पग्गहलक्खणं । सम्मासतिया उपट्ठानलक्खणं । सम्मासमाधिस्स अविक्खेपलक्खणं। अविज्जाय अाणलक्खणं । सङ्घारानं चेतनालक्खणं । विज्ञाणस्स विजाननलक्खणं । नामस्स नमनलक्खणं। रूपस्स रुप्पनलक्खणं। सळायतनस्स आयतनलक्खणं । फस्सस्स फुसनलक्खणं । वेदनाय वेदयितलक्खणं । तण्हाय हेतुलक्खणं । उपादानस्स गहणलक्खणं । भवस्स आयूहनलक्खणं । जातिया निब्बत्तिलक्खणं । जराय जीरणलक्खणं । मरणस्स चुतिलक्खणं । धातूनं सुझतालक्खणं । आयतनानं आयतनलक्खणं । सतिपट्ठानानं उपट्ठानलक्खणं । सम्मप्पधानानं पदहनलक्खणं । इद्धिपादानं इज्झनलक्खणं । इन्द्रियानं अधिपतिलक्खणं । बलानं अकम्पियलक्खणं । बोज्झङ्गानं निय्यानलक्खणं । मग्गस्स हेतुलक्खणं । Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१.७-७) चूळसीलवण्णना सच्चानं तथलक्खणं । समथस्स अविक्खेपलक्खणं । विपस्सनाय अनुपस्सनालक्खणं । समथविपस्सनानं एकरसलक्खणं । युगनद्धानं अनतिवत्तनलक्खणं । सीलविसुद्धिया संवरलक्खणं । चित्तविसुद्धिया अविखेपलक्खणं । दिट्ठिविसुद्धिया दस्सनलक्खणं । खये आणस्स समुच्छेदनलक्खणं । अनुप्पादे आणस्स पस्सद्धिलक्खणं । छन्दस्स मूललक्खणं । मनसिकारस्स समुट्ठापनलक्खणं । फस्सस्स समोधानलक्खणं । वेदनाय समोसरणलक्खणं । समाधिस्स पमुखलक्खणं । सतिया आधिपतेय्यलक्खणं । पञ्जाय ततुत्तरियलक्खणं । विमुत्तिया सारलक्खणं... अमतोगधस्स निब्बानस्स परियोसानलक्खणं तथं अवितथं । एवं तथलक्खणं जाणगतिया आगतो अविरज्झित्वा पत्तो अनुप्पत्तोति तथागतो । एवं तथलक्खणं आगतोति तथागतो । कथं तथधम्मे याथावतो अभिसम्बुद्धोति तथागतो? तथधम्मा नाम चत्तारि अरियसच्चानि । यथाह – “चत्तारिमानि, भिक्खवे, तथानि अवितथानि अनजथानि । कतमानि चत्तारि ? 'इदं दुक्ख'न्ति भिक्खवे, तथमेतं अवितथमेतं अनाथमेत''न्ति (सं० नि० ३.५.१०९०) वित्थारो । तानि च भगवा अभिसम्बुद्धो, तस्मा तथानं धम्मानं अभिसम्बुद्धत्ता तथागतोति वुच्चति । अभिसम्बुद्धत्थो हेत्थ गतसद्दो । अपि च जरामरणस्स जातिपच्चयसम्भूतसमुदागतठ्ठो तथो अवितथो अनाथो...पे०..., सङ्घारानं अविज्जापच्चयसम्भूतसमुदागतठ्ठो तथो अवितथो अनाथो...पे०..., तथा अविज्जाय सङ्घारानं पच्चयट्ठो, सङ्घारानं विज्ञाणस्स पच्चयट्ठो...पे०..., जातिया जरामरणस्स पच्चयट्ठो तथो अवितथो अनाथो । तं सब्बं भगवा अभिसम्बुद्धो, तस्मापि तथानं धम्मानं अभिसम्बुद्धत्ता तथागतोति वुच्चति । एवं तथधम्मे याथावतो अभिसम्बुद्धोति तथागतो । कथं तथदस्सिताय तथागतो ? भगवा यं सदेवके लोके...पे०..., सदेवमनुस्साय पजाय अपरिमाणासु लोकधातूसु अपरिमाणानं सत्तानं चक्खुद्वारे आपाथमागच्छन्तं रूपारम्मणं नाम अत्थि, तं सब्बाकारतो जानाति पस्सति । एवं जानता पस्सता च, तेन Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गट्ठकथा (१.७-७) तं इट्ठानिट्ठादिवसेन वा दिट्ठसुतमुतविञातेसु लब्भमानकपदवसेन वा। “कतमं तं रूपं रूपायतनं ? यं रूपं चतुन्नं महाभूतानं उपादाय वण्णनिभा सनिदस्सनं सप्पटिघं नीलं पीतक"न्तिआदिना (ध० स० ६१६) नयेन अनेकेहि नामेहि तेरसहि वारेहि द्वेपासाय नयेहि विभज्जमानं तथमेव होति, वितथं नत्थि । एस नयो सोतद्वारादीसुपि आपाथं आगच्छन्तेसु सद्दादीसु । वुत्तञ्चेतं भगवता - "यं भिक्खवे, सदेवकस्स लोकस्स...पे०... सदेवमनुस्साय पजाय दिटुं सुतं मुतं विज्ञातं पत्तं परियेसितं अनुविचरितं मनसा, तमहं जानामि । तमहं अब्भञासिं, तं तथागतस्स विदितं, तं तथागतो न उपट्ठासी"ति (अ० नि० १.४.२४) । एवं तथदस्सिताय तथागतो । तत्थ तथदस्सी अत्थे तथागतोति पदसम्भवो वेदितब्बो। ___ कथं तथवादिताय तथागतो ? यं रत्तिं भगवा बोधिमण्डे अपराजितपल्लङ्के निसिन्नो तिण्णं मारानं मत्थकं महित्वा अनुत्तरं सम्मासम्बोधिं अभिसम्बुद्धो, यञ्च रत्तिं यमकसालानमन्तरे अनुपादिसेसाय निब्बानधातुया परिनिब्बायि, एत्थन्तरे पञ्चचत्तालीसवस्सपरिमाणे काले पठमबोधियापि मज्झिमबोधियापि पच्छिमबोधियापि यं भगवता भासितं- सुत्तं, गेय्यं...पे०... वेदल्लं, तं सब्बं अत्थतो च ब्यञ्जनतो च अनुपवज्जं, अनूनमनधिकं, सब्बाकारपरिपुण्णं, रागमदनिम्मदनं, दोसमोहमदनिम्मदनं । नत्थि तत्थ वालग्गमत्तम्पि अवक्खलितं, सब्बं तं एकमुद्दिकाय लञ्छितं विय, एकनाळिया मितं विय, एकतुलाय तुलितं विय च, तथमेव होति अवितथं अनचथं | तेनाह – “यञ्च, चुन्द, रत्तिं तथागतो अनुत्तरं सम्मासम्बोधिं अभिसम्बुज्झति, यञ्च रत्तिं अनुपादिसेसाय निब्बानधातुया परिनिब्बायति, यं एतस्मिं अन्तरे भासति लपति निद्दिसति, सब्बं तं तथेव होति, नो अञथा । तस्मा 'तथागतो ति वुच्चती"ति (अ० नि० १.४.२३) । गदत्थो हेत्थ गतसद्दो । एवं तथवादिताय तथागतो । अपि च आगदनं आगदो, वचनन्ति अत्थो । तयो अविपरीतो आगदो अस्साति, द-कारस्स त-कारं कत्वा तथागतोति एवमेतस्मिं अत्थे पदसिद्धि वेदितब्बा । कथं तथाकारिताय तथागतो? भगवतो हि वाचाय कायो अनुलोमेति, कायस्सपि वाचा, तस्मा यथावादी तथाकारी, यथाकारी तथावादी च होति । एवंभूतस्स चस्स यथावाचा, कायोपि तथा गतो पवत्तोति अत्थो । यथा च कायो, वाचापि तथा गता पवत्ताति तथागतो। तेनेवाह - “यथावादी, भिक्खवे, तथागतो तथाकारी, यथाकारी 62 Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१.७-७) चूळसीलवण्णना तथावादी । इति यथावादी तथाकारी यथाकारी तथावादी । तस्मा ' तथागतो 'ति वुच्चती 'ति (अ० नि० १.४.२३) । एवं तथाकारिताय तथागतो । कथं अभिभवनट्टेन तथागतो ? उपरि भवग्गं हेट्ठा अवीचिं परियन्तं कत्वा तिरियं अपरिमाणासु लोकधातूसु सब्बसत्ते अभिभवति सीलेनपि समाधिनापि पञ्ञायपि विमुत्तियापि, विमुत्तित्राणदस्सनेनपि न तस्स तुला वा पमाणं वा अत्थि; अतुलो अप्पमेय्यो अनुत्तरो राजातिराजा देवदेवो सक्कानं अतिसक्को ब्रह्मानं अतिब्रह्मा । तेनाह - “सदेवके, भिक्खवे, लोके...पे०... सदेवमनुस्साय पजाय तथागतो अभिभू अनभिभूतो अञ्ञदत्थुदसो वसवत्ती, तस्मा ' तथागतो 'ति वुच्चती 'ति । ६३ तत्रेवं पदसिद्धि वेदितब्बा । अगदो विय अगदो । को पनेस ? देसनाविलासमयो चेव पुञ्ञस्सयो च । तेन हेस महानुभावो भिसक्को दिब्बागदेन सप्पे विय सब्बपरप्पवादिनो सदेवकञ्च लोकं अभिभवति । इति सब्बालोकाभिभवने तथो अविपरीतो देसनाविलासमयो चेव पुञ्ञस्सयो च अगदो अस्साति । द-कारस्स त कारं कत्वा तथागतोति वेदितब्बो । एवं अभिभवनट्ठेन तथागतो । अपि च तथाय गतोतिपि तथागतो, तथं गतोतिपि तथागतो । गतोति अवगतो, अतीतो पत्तो पटिपन्नोति अत्थो । तत्थ सकललोकं तीरणपरिञ्ञाय तथाय गतो अवगतोति तथागतो । लोकसमुदयं पहानपरिञाय तथाय गतो अतीतोति तथागतो । लोकनिरोधं सच्छिकिरियाय तथाय गतो पत्तोति तथागतो। लोकनिरोधगामिनिं पटिपदं तथं गतो पटिपन्नोति तथागतो । तेन वृत्तं भगवता - “लोको, भिक्खवे, तथागतेन अभिसम्बुद्धो, लोकस्मा तथागतो विसंयुत्तो । लोकसमुदयो, भिक्खवे, तथागतेन अभिसम्बुद्धो, लोकसमुदयो तथागतस्स पहीनो । लोकनिरोधो, भिक्खवे, तथागतेन अभिसम्बुद्धो, लोकनिरोधो तथागतस्स सच्छिकतो । लोकनिरोधगामिनी पटिपदा, भिक्खवे, तथागतेन अभिसम्बुद्धा, लोकनिरोधगामिनी पटिपदा तथागतस्स भाविता । यं भिक्खवे, सदेवकस्स लोकस्स... पे०... सब्बं तं तथागतेन अभिसम्बुद्धं। तस्मा, तथागतोति वुच्चती 'ति (अ० नि० १.४.२३) । 63 Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४ दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गट्ठकथा दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गट्ठकथा (१.७-७) तस्सपि एवं अत्थो वेदितब्बो । इदम्पि च तथागतस्स तथागतभावदीपने मुखमत्तमेव । सब्बाकारेन पन तथागतोव तथागतस्स तथागतभावं वण्णेय्य । कतमञ्च तं भिक्खवेति येन अप्पमत्तकेन ओरमत्तकेन सीलमत्तकेन पुथुज्जनो तथागतस्स वण्णं वदमानो वदेय्य, तं कतमन्ति पुच्छति ? तत्थ पुच्छा नाम अदिठ्ठजोतना पुच्छा, दिट्ठसंसन्दना पुच्छा, विमतिच्छेदना पुच्छा, अनुमतिपुच्छा, कथेतुकम्यता पुच्छाति पञ्चविधा होति । तत्थ कतमा अदिट्ठजोतना पुच्छा ? पकतिया लक्खणं अज्ञातं होति, अदिटुं अतुलितं अतीरितं अविभूतं अविभावितं, तस्स आणाय दस्सनाय तुलनाय तीरणाय विभावनाय पऽहं पुच्छति, अयं अदिट्ठजोतना पुच्छा। कतमा दिट्ठसंसन्दना पुच्छा ? पकतिया लक्खणं जातं होति, दिटुं तुलितं तीरितं विभूतं विभावितं, तस्स अञ्जेहि पण्डितेहि सद्धिं संसन्दनत्थाय पऽहं पुच्छति, अयं दिट्ठसंसन्दना पुच्छा। कतमा विमतिच्छेदना पुच्छा ? पकतिया संसयपक्खन्दो होति, विमतिपक्खन्दो, द्वेळहकजातो, “एवं नु खो, न नु खो, किन्नु खो, कथं नु खो''ति । सो विमतिच्छेदनत्थाय पहं पुच्छति । अयं विमतिच्छेदना पुच्छा । कतमा अनुमतिपुच्छा? भगवा भिक्खूनं अनुमतिया पहं पुच्छति- "तं किं मञ्जथ, भिक्खवे, रूपं निच्चं वा अनिच्चं वा"ति । अनिच्चं, भन्ते । यं पनानिच्चं, दुक्खं वा तं सुखं वाति ? दुक्खं भन्तेति (महाव० २१) सब्बं वत्तब्द, अयं अनुमतिपुच्छा। कतमा कथेतुकम्यता पुच्छा ? भगवा भिक्खून कथेतुकम्यताय पहं पुच्छति । चत्तारोमे, भिक्खवे, सतिपट्ठाना। कतमे चत्तारो ?...पे०... अट्ठिमे भिक्खवे मग्गङ्गा । कतमे अठ्ठाति, अयं कथेतुकम्यता पुच्छा । इति इमासु पञ्चसु पुच्छासु अदिट्ठस्स ताव कस्सचि धम्मस्स अभावतो तथागतस्स Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१.८-८) चूळसीलवण्णना अदिट्ठजोतना पुच्छा नत्थि । “ इदं नाम अञ्ञेहि पण्डितेहि समणब्राह्मणेहि सद्धिं संसन्दित्वा देसेस्सामी 'ति समन्नाहारस्सेव अनुप्पज्जनतो दिट्ठसंसन्दना पुच्छापि नत्थि । यस्मा पन बुद्धानं एकधम्मेपि आसप्पना परिसप्पना नत्थि, बोधिमण्डेयेव सब्बा कङ्क्षा छिन्ना; तस्मा विमतिच्छेदना पुच्छापि नत्थियेव । अवसेसा पन द्वे पुच्छा बुद्धानं अत्थि, तासु अयं कथेतुकम्यता पुच्छा नाम । ८. इदानि तं कथेतुकम्यताय पुच्छाय पुच्छितमत्थं कथेतुं “पाणातिपातं पहाया ''तिआदिमाह । ६५ तत्थ पाणस्स अतिपातो पाणातिपातो, पाणवधो, पाणघातोति वुत्तं होति । पाणोति चेत्थ वोहारतो सत्तो, परमत्थतो जीवितिन्द्रियं तस्मिं पन पाणे पाणसञ्ञिनो जीवितिन्द्रियुपच्छेदकउपक्कमसमुट्ठापिका कायवचीद्वारानं अञ्ञतरद्वारप्पवत्ता वधकचेतना पाणातिपातो । सो गुणविरहितेसु तिरच्छानगतादीसु पाणेसु खुद्दके पाणे अप्पसावज्जो, महासरीरे महासावज्जो, कस्मा ? पयोगमहन्तताय । पयोगसमत्तेपि वत्थुमहन्तताय । गुणवन्ते मनुस्सादीसु अप्पगुणे पाणे अप्पसावज्जो, महागुणे महासावज्जो । सरीरगुणानं पन समभावे सति किलेसानं उपक्कमानञ्च मुदुताय अप्पसावज्जो, तिब्बताय महासावज्जोति वेदितब्बो । तस्स पञ्च सम्भारा होन्ति - पाणी, पाणसञ्ञिता, वधकचित्तं, उपक्कमो, तेन मरणन्ति । छ पयोगा- साहत्थिको, आणत्तिको, निस्सग्गियो, थावरो, विज्जामयो, इद्धिमयोति । इमस्मिं पनत्थे वित्थारियमाने अतिविय पपञ्चो होति, तस्मा तं न वित्थारयाम, अञ्ञञ्च एवरूपं । अत्थिकेहि पन समन्तपासादिकं विनयट्ठकथं ओलोकेत्वा गब्बं । पहायाति इमं पाणातिपातचेतनासङ्घातं दुस्सील्यं पजहित्वा । पटिविरतोति पहीनकालतो पट्ठाय ततो दुस्सील्यतो ओरतो विरतोव । नत्थि तस्स वीतिक्कमिस्सामीति चक्खसोतविय्या धम्मा पगेव कायिकाति इमिनाव नयेन असुपि एवरूपेसु पदेसु अत्थो वेदितब्बो | समणोति भगवा समितपापताय लद्धवोहारो । गोतमोति गोत्तवसेन । न केवलञ्च 65 Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गट्ठकथा (१.८-८) भगवायेव पाणातिपाता पटिविरतो, भिक्खुसङ्घोपि पटिविरतो, देसना पन आदितो पट्टाय एवं आगता, अत्थं पन दीपेन्तेन भिक्खुसङ्घवसेनापि दीपेतुं वट्टति । निहितदण्डो निहितसत्थोति परूपघातत्थाय दण्डं वा सत्थं वा आदाय अवत्तनतो निक्खित्तदण्डो चेव निक्खित्तसत्थो चाति अत्थो । एत्थ च ठपेत्वा दण्डं सब्बम्पि अवसेसं उपकरणं सत्तानं विहेठनभावतो सत्थन्ति वेदितब् | यं पन भिक्खू कत्तरदण्डं वा दन्तकहूँ वा वासिं पिप्फलिकं वा गहेत्वा विचरन्ति, न तं परूपघातत्थाय । तस्मा निहितदण्डो निहितसत्थो त्वेव सङ्ख्यं गच्छति । लज्जीति पापजिगुच्छनलक्खणाय लज्जाय समन्नागतो। दयापनोति दयं मेत्तचित्ततं आपन्नो। सब्बपाणभूतहितानुकम्पीति; सब्बे पाणभूते हितेन अनुकम्पको । ताय दयापन्नताय सब्बेसं पाणभूतानं हितचित्तकोति अत्थो । विहरतीति इरियति यति यापेति पालेति । इति वा हि, भिक्खवेति एवं वा भिक्खवे । वा सद्दो उपरि “अदिन्नादानं पहाया"तिआदीनि अपेक्खित्वा विकप्पत्थो वुत्तो, एवं सब्बत्थ पुरिमं वा पच्छिमं वा अपेक्खित्वा विकप्पभावो वेदितब्बो। अयं पनेत्थ सङ्केपो- भिक्खवे, पुथुज्जनो तथागतस्स वण्णं वदमानो एवं वदेय्य - “समणो गोतमो पाणं न हनति, न घातेति, न तत्थ समनुञो होति, विरतो इमस्मा दुस्सील्या; अहो, वत रे बुद्धगुणा महन्ता''ति, इति महन्तं उस्साहं कत्वा वण्णं वत्तुकामोपि अप्पमत्तकं ओरमत्तकं आचारसीलमत्तकमेव वक्खति । उपरि असाधारणभावं निस्साय वण्णं वत्तुं न सक्खिस्सति। न केवलञ्च पुथुज्जनोव सोतापन्नसकदागामिअनागामिअरहन्तोपि पच्चेकबुद्धापि न सक्कोन्तियेव; तथागतोयेव पन सक्कोति, तं वो उपरि वक्खामीति, अयमेत्थ साधिप्पाया अत्थवण्णना। इतो परं पन अपुब्बपदमेव वण्णयिस्साम ।। अदिनादानं पहायाति एत्थ अदिन्नस्स आदानं अदिन्नादानं, परसंहरणं, थेय्यं, चोरिकाति वुत्तं होति । तत्थ अदिनन्ति परपरिग्गहितं, यत्थ परो यथाकामकारितं आपज्जन्तो अदण्डारहो अनुपवज्जो च होति । तस्मिं परपरिग्गहिते परपरिग्गहितसञिनो, तदादायकउपक्कमसमुट्ठापिका थेय्यचेतना अदिन्नादानं । तं हीने परसन्तके अप्पसावज्जं, पणीते महासावज्ज, कस्मा ? वत्थुपणीतताय । वत्थुसमत्ते सति गुणाधिकानं सन्तके वत्थुस्मिं 66 Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१.९-९) चूळसीलवण्णना महासावज्जं । तं तं गुणाधिकं उपादाय ततो ततो हीनगुणस्स सन्तके वत्थुस्मिं अप्पसावज्ज । तस्स पञ्च सम्भारा होन्ति- परपरिग्गहितं, परपरिग्गहितसञ्जिता, थेय्यचित्तं, उपक्कमो, तेन हरणन्ति । छ पयोगा- साहत्थिकादयोव । ते च खो यथानुरूपं थेय्यावहारो, पसय्हावहारो, पटिच्छन्नावहारो, परिकप्पावहारो, कुसावहारोति इमेसं अवहारानं वसेन पवत्ता, अयमेत्थ सङ्केपो । वित्थारो पन समन्तपासादिकायं वुत्तो। दिन्नमेव आदियतीति दिनादायी। चित्तेनपि दिन्नमेव पटिकङ्घतीति दिनपाटिकवी । थेनेतीति थेनो । न थेनेन अथेनेन । अथेनत्तायेव सुचिभूतेन । अत्तनाति अत्तभावेन । अथेनं सुचिभूतं अत्तानं कत्वा विहरतीति वुत्तं होति । सेसं पठमसिक्खापदे वुत्तनयेनेव योजेतब्बं । यथा च इध, एवं सब्बत्थ । अब्रह्मचरियन्ति असेठ्ठचरियं । ब्रह्म सेहूं आचारं चरतीति ब्रह्मचारी। आराचारीति अब्रह्मचरियतो दूरचारी । मेथुनाति रागपरियुट्ठानवसेन सदिसत्ता मेथुनकाति लद्धवोहारेहि पटिसेवितब्बतो मेथुनाति सङ्ख्यं गता असद्धम्मा । गामधम्माति गामवासीनं धम्मा । ९. मुसावादं पहायाति एत्थ मुसाति विसंवादनपुरेक्खारस्स अत्थभञ्जनको वचीपयोगो कायपयोगो, वा विसंवादनाधिप्पायेन पनस्स परविसंवादककायवचीपयोगसमुट्ठापिका चेतना मुसावादो। ___ अपरो नयो, 'मुसा'ति अभूतं अतच्छं वत्थु । 'वादो'ति तस्स भूततो तच्छतो विज्ञापनं। लक्खणतो पन अतथं वत्थु तथतो परं विज्ञापेतुकामस्स तथावित्तिसमुट्ठापिका चेतना मुसावादो। सो यमत्थं भञ्जति, तस्स अप्पताय अप्पसावज्जो, महन्तताय महासावज्जो । अपि च गहट्ठानं अत्तनो सन्तकं अदातुकामताय नत्थीतिआदिनयप्पवत्तो अप्पसावज्जो, सक्खिना हुत्वा अत्थभञ्जनत्थं वुत्तो महासावज्जो, पब्बजितानं अप्पकम्पि तेलं वा सप्पिं वा लभित्वा हसाधिप्पायेन - "अज्ज गामे तेलं नदी मञ्चे सन्दती"ति Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८ दीघनिकाये सीलक्खन्धवरगट्ठकथा पूरणकथानयेन पवत्तो अप्पसावज्जो, अदिट्ठयेव पन दिट्ठन्तिआदिना नयेन वदन्तानं महासावज्जो । I तस्स चत्तारो सम्भारा होन्ति - अतथं वत्थु, विसंवादनचित्तं तज्जो वायामो, परस्स तदत्थविजाननन्ति । एको पयोगो साहत्थिकोव । सो कायेन वा कायपटिबद्धेन वा वाचाय वा परविसंवादनकिरियाकरणेन दट्ठब्बो । ताय चे किरियाय परो तमत्थं जानाति, अयं किरियसमुट्ठापिकचेतनाक्खणेयेव मुसावादकम्मुना बज्झति । ( १.९-९) यस्मा पन यथा कायकायपटिबद्धवाचाहि परं विसंवादेति, तथा “इदमस्स भणाही’ति आणापेन्तोपि पण्णं लिखित्वा पुरतो निस्सज्जन्तोपि, "अयमत्थो एवं दट्ठब्बो 'ति कुड्डादीसु लिखित्वा ठपेन्तोपि । तस्मा एत्थ आणत्तिकनिस्सग्गियथावपि पयोगा युज्जन्ति, अट्ठकथासु पन अनागतत्ता वीमंसित्वा गहेतब्बा । सच्चं वदतीति सच्चवादी । सच्चेन सच्चं सन्दहति घटेतीति सच्चसन्धो । न अन्तरन्तरा मुसा वदतीति अत्थो । यो हि पुरिसो कदाचि मुसा वदति, कदाचि सच्चं, तस्स मुसावादेन अन्तरितत्ता सच्चं सच्चेन न घटीयति; तस्मा सो न सच्चसन्धो । अयं पन न तादिसो, जीवितहेतुपि मुसा अवत्वा सच्चेन सच्चं सन्दहति येवाति सच्चसन्धो । थेतोति थिरो थिरकथोति अत्थो । एको हि पुग्गलो हलिद्दिरागो विय, थुसरासिम्हि निखातखाणु विय, अस्सपिट्ठे ठपितकुम्भण्डमिव च न थिरकथो होति, एको पासाणलेखा विय, इन्दखीलो विय च थिरकथो होति, असिना सीसं छिन्दन्तेपि द्वे कथा न कथेति, अयं वुच्चति तो । पच्चयिकोति पत्तियायितब्बको, सद्धायितब्बकोति अत्थो। एकच्चो हि पुग्गलो न पच्चयिको होति, “इदं केन वुत्तं, असुकेना" ति वुत्ते " मा तस्स वचनं सद्दहथा "ति वत्तब्बतं आपज्जति। एको पच्चयिको होति, “इदं केन वुत्तं, असुकेना "ति वुत्ते “यदि तेन वुत्तं, इदमेव पमाणं, इदानि उपपरिक्खितब्बं नत्थि, एवमेव इदन्ति वत्तब्बतं आपज्जति, अयं वुच्चति पच्चयिको । अविसंवादको लोकस्साति ताय सच्चवादिताय लोकं न विसंवादेतीति अत्थो । 68 Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१.९-९) चूळसीलवण्णना पिसुणं वाचं पहायातिआदीसु याय वाचाय यस्स तं वाचं भासति, तस्स हदये अत्तनो पियभावं, परस्स च सुञभावं करोति, सा पिसुणा वाचा ।। याय पन अत्तानम्पि परम्प फरुसं करोति, या वाचा सयम्पि फरुसा, नेव कण्णसुखा न हदयङ्गमा, अयं फरुसा वाचा। येन सम्फ पलपति निरत्थकं, सो सम्फप्पलापो। तेसं मूलभूता चेतनापि पिसुणवाचादिनामेव लभति, सा एव च इधाधिप्पेताति । तत्थ संकिलिट्ठचित्तस्स परेसं वा भेदाय अत्तनो पियकम्यताय वा कायवचीपयोगसमुट्ठापिका चेतना पिसुणवाचा । सा यस्स भेदं करोति, तस्स अप्पगुणताय अप्पसावज्जा, महागुणताय महासावज्जा । तस्सा चत्तारो सम्भारा - भिन्दितब्बो परो, “इति इमे नाना भविस्सन्ति, विना भविस्सन्ती''ति भेदपुरेक्खारता वा, “इति अहं पियो भविस्सामि विस्सासिको"ति पियकम्यता वा, तज्जो वायामो, तस्स तदत्थविजाननन्ति । इमेसं भेदायाति, येसं इतोति वुत्तानं सन्तिके सुतं तेसं भेदाय । भिन्नान वा सन्धाताति द्विन्नं मित्तानं वा समानुपज्झायकादीनं वा केनचिदेव कारणेन भिन्नानं एकमेकं उपसङ्कमित्वा “तुम्हाकं ईदिसे कुले जातानं एवं बहुस्सुतानं इदं न युत्त"न्तिआदीनि वत्वा सन्धानं कत्ता अनुकत्ता। अनुष्पदाताति सन्धानानुप्पदाता । द्वे जने समग्गे दिस्वा- “तुम्हाकं एवरूपे कुले जातानं एवरूपेहि गुणेहि समन्नागतानं अनुच्छविकमेतन्तिआदीनि वत्वा दळहीकम्मं कत्ताति अत्थो । समग्गो आरामो अस्साति समग्गारामो। यत्थ समग्गा नत्थि, तत्थ वसितुम्पि न इच्छतीति अत्थो । समग्गरामोतिपि पाळि, अयमेवेत्थ अत्थो । समग्गरतोति समग्गेसु रतो, ते पहाय अञत्थ गन्तुम्पि न इच्छतीति अत्थो । समग्गे दिस्वापि सुत्वापि नन्दतीति समग्गनन्दी, समग्गकरणिं वाचं भासिताति या वाचा सत्ते समग्गेयेव करोति, तं सामग्गिगुणपरिदीपिकमेव वाचं भासति, न इतरन्ति । 69 Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७० दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गट्ठकथा (१.९-९) परस्स मम्मच्छेदककायवचीपयोगसमुठ्ठापिका एकन्तफरुसचेतना फरुसावाचा । तस्सा आविभावत्थमिदं वत्थु- एको किर दारको मातुवचनं अनादियित्वा अरनं गच्छति, तं माता निवत्तेतुमसक्कोन्ती - “चण्डा तं महिंसी अनुबन्धतू"ति अक्कोसि । अथस्स तथेव अरचे महिंसी उट्ठासि । दारको “यं मम माता मुखेन कथेसि, तं मा होतु, यं चित्तेन चिन्तेसि तं होतू''ति, सच्चकिरियमकासि । महिंसी तत्थेव बद्धा विय अठ्ठासि । एवं मम्मच्छेदकोपि पयोगो चित्तसण्हताय न फरुसा वाचा होति । मातापितरो हि कदाचि पुत्तके एवं वदन्ति - "चोरा वो खण्डाखण्डं करोन्तू"ति, उप्पलपत्तम्पि च नेसं उपरि पतन्तं न इच्छन्ति । आचरियुपज्झाया च कदाचि निस्सितके एवं वदन्ति- " किं इमे अहिरीका अनोत्तप्पिनो चरन्ति, निद्धमथ ने"ति, अथ च नेसं आगमाधिगमसम्पत्तिं इच्छन्ति । यथा च चित्तसण्हताय फरुसा वाचा न होति, एवं वचनसण्हताय अफरुसा वाचा न होति । न हि मारापेतुकामस्स - "इमं सुखं सयापेथा"ति वचनं अफरुसा वाचा होति, चित्तफरुसताय पनेसा फरुसा वाचाव | सा यं सन्धाय पवत्तिता, तस्स अप्पगुणताय अप्पसावज्जा, महागुणताय महासावज्जा। तस्सा तयो सम्भाराअक्कोसितब्बो परो, कुपितचित्तं, अक्कोसनाति । नेलाति एलं वुच्चति दोसो, नास्सा एलन्ति नेला, निदोसाति अत्थो । “नेलङ्गो सेतपच्छादो''ति, (उदा० ६५) एत्थ वुत्तनेलं विय | कण्णसुखाति ब्यञ्जनमधुरताय कण्णानं सुखा, सूचिविज्झनं विय कण्णसूलं न जनेति । अत्थमधुरताय सकलसरीरे कोपं अजनेत्वा पेमं जनेतीति पेमनीया। हदयं गच्छति, अप्पटिहञ्जमाना सुखेन चित्तं पविसतीति हदयङ्गमा। गुणपरिपुण्णताय पुरे भवाति पोरी पुरे संवड्डनारी विय सुकुमारातिपि पोरी। पुरस्स एसातिपि पोरी। नगरवासीनं कथाति अत्थो । नगरवासिनो हि युत्तकथा होन्ति | पितिमत्तं पिताति वदन्ति, भातिमत्तं भाताति वदन्ति, मातिमत्तं माताति वदन्ति । एवरूपी कथा बहुनो जनस्स कन्ता होतीति बहुजनकन्ता। कन्तभावेनेव बहुनो जनस्स मनापा चित्तबुढिकराति बहुजनमनापा। अनत्थविज्ञापिका कायवचीपयोगसमुट्ठापिका अकुसलचेतना सम्पप्पलापो। सो आसेवनमन्दताय अप्पसावज्जो, आसेवनमहन्तताय महासावज्जो, तस्स द्वे सम्भारा - भारतयुद्धसीताहरणादिनिरत्थककथापुरेक्खारता, तथारूपी कथा कथनञ्च । कालेन वदतीति कालवादी वत्तब्बयुत्तकालं सल्लक्खेत्वा वदतीति अत्थो । भूतं तथं 70 Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १.१० - १० ) तच्छं सभावमेव वदतीति भूतवादी । दिट्ठधम्मिकसम्परायिकत्थसन्निस्सितमेव कत्वा वदतीति नवलोकुत्तरधम्मसन्निस्सितं वदतीति धम्मवादी अत्थवादी । कत्वा संवरविनयपहानविनयसन्निस्सितं कत्वा वदतीति विनयवादी । निधानं वुच्चति ठपनोकासो, निधानमस्सा अत्थीति निधानवती । हदये निधातब्बयुत्तकं वाचं भासिताति अत्थो । कालेनाति एवरूपिं भासमानोपि च - “अहं निधानवतिं वाचं भासिस्सामी'ति न अकालेन भासति, युत्तकालं पन अपेक्खित्वाव भासतीति अत्थो । सापदेसन्ति सउपमं, सकारणन्ति अत्थो । परियन्तवतिन्ति परिच्छेदं दस्सेत्वा यथास्सा परिच्छेदो पञ्ञायति, एवं भासतीति अत्थो । अत्थसंहितन्ति अनेकेहिपि नयेहि विभजन्तेन परियादातुं असक्कुणेय्यताय अत्थसम्पन्नं भासति । यं वा सो अत्थवादी अत्थं वदति, तेन अत्थेन सहितत्ता अत्थसंहितं वाचं भासति, न अञ्ञ निक्खिपित्वा अञ् भासतीति वुत्तं होति । ७१ १०. बीजगाम भूतगामसमारम्भाति मूलबीजं खन्धबीजं फळुबीजं अग्गबीजं बीजबीजन्ति पञ्चविधस्स बीजगामस्स चेव, यस्स कस्सचि नीलतिणरुक्खादिकस्स भूतगामस्स च समारम्भा, छेदनभेदनपचनादिभावेन विकोपना पटिविरतोति अत्थो । एकभत्तिकोति पातरासभत्तं सायमासभत्तन्ति द्वे भत्तानि, तेसु पातरासभत्तं अन्तोमज्झन्हिकेन परिच्छिन्नं, इतरं मज्झन्हिकतो उद्धं अन्तो अरुणेन । तस्मा अन्तोमज्झन्हिके दसक्खत्तुं भुञ्जमानोपि एकभत्तिकोव होति । तं सन्धाय वृत्तं “एकभत्तिको’”ति । रत्तिया भोजनं रत्ति, ततो उपरतोति स्तूपरतो । अतिक्कन्ते मज्झन्हिके याव सूरियत्थङ्गमना भोजनं विकालभोजनं नाम । ततो विरतत्ता विरतो विकालभोजना । कदा विरतो ? अनोमानदीतीरे पब्बजितदिवसतो पट्ठाय । सासनस्स अननुलोमत्ता विसूकं पटाणीभूतं दरसनन्ति विसूकदस्सनं । अत्तना नच्चननच्चापनादिवसेन नच्चा च गीता च वादिता च अन्तमसो मयूरनच्चादिवसेनपि पवत्तानं नच्चादीनं विसूकभूता दस्सना चाति नच्चगीतवादितविसूकदस्सना । नच्चादीनि हि 71 Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२ दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गट्ठकथा (१.१०-१०) अत्तना पयोजेतुं वा परेहि पयोजापेतुं वा पयुत्तानि पस्सितुं वा नेव भिक्खूनं न भिक्खुनीनञ्च वट्टन्ति । ___ मालादीसु मालाति यं किञ्चि पुष्पं । गन्धन्ति यं किञ्चि गन्धजातं । विलेपनन्ति छविरागकरणं । तत्थ पिळन्धन्तो धारेति नाम, ऊनट्ठानं पूरेन्तो मण्डेति नाम, गन्धवसेन छविरागवसेन च सादियन्तो विभूसेति नाम । ठानं वुच्चति कारणं। तस्मा याय दुस्सील्यचेतनाय तानि मालाधारणादीनि महाजनो करोति, ततो पटिविरतोति अत्थो । उच्चासयनं वुच्चति पमाणातिक्कन्तं । महासयनन्ति अकप्पियपच्चत्थरणं । ततो विरतोति अत्थो । जातरूपन्ति सुवण्णं । रजतन्ति कहापणो, लोहमासको, जतुमासको, दारुमासकोति ये वोहारं गच्छन्ति । तस्स उभयस्सापि पटिग्गहणा पटिविरतो, नेव नं उग्गण्हाति, न उग्गण्हापेति, न उपनिक्खित्तं सादियतीति अत्थो । आमकधपटिग्गहणाति, सालिवीहियवगोधूमकङ्गुवरककुद्रूसकसङ्घातस्स सत्तविधस्सापि आमकधस्स पटिग्गहणा । न केवलञ्च एतेसं पटिग्गहणमेव, आमसनम्पि भिक्खूनं न वट्टतियेव । आमकमंसपटिग्गहणाति एत्थ अझत्र ओदिस्स अनुज्ञाता आमकमंसमच्छानं पटिग्गहणमेव भिक्खूनं न वट्टति, नो आमसनं । इथिकुमारिकपटिग्गहणाति एत्थ इत्थीति पुरिसन्तरगता, इतरा कुमारिका नाम, तासं पटिग्गहणम्पि आमसनम्पि अकप्पियमेव । ___ दासिदासपटिग्गहणाति एत्थ दासिदासवसेनेव तेसं पटिग्गहणं न वद्दति । "कप्पियकारकं दम्मि, आरामिकं दम्मी"ति एवं वुत्ते पन वट्टति ।। अजेळकादीस खेत्तवत्थूपरियोसानेस कप्पियाकप्पियनयो विनयवसेन उपपरिक्खितब्बो । तत्थ खेत्तं नाम यस्मिं पुब्बण्णं रुहति । वत्थु नाम यस्मिं अपरण्णं रुहति । यत्थ वा उभयम्पि रुहति, तं खेत्तं । तदत्थाय अकतभूमिभागो वत्थु । खेत्तवत्थुसीसेन चेत्थ वापितळाकादीनिपि सङ्गहितानेव । Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १.१० -१० ) चूळसीलवण्णना दूतेय्यं वुच्चति दूतकम्मं, गिहीनं पहितं पण्णं वा सासनं वा गहेत्वा तत्थ तथ गमनं । पहिणगमनं वुच्चति घरा घरं पेसितस्स खुद्दकगमनं । अनुयोगो नाम तदुभयकरणं । तस्मा दूतेय्यपहिणगमनानं अनुयोगाति । एवमेत्थ अत्थो वेदितब्बो । कयविक्कयाति कया च विक्कया च । तुलाकूटादीसु कूटन्ति वञ्चनं । तत्थ तुलाकूटं नाम रूपकूटं अङ्गकूटं, गहणकूटं, पटिच्छन्नकूटन्ति चतुब्बिधं होति । तत्थ रूपकूटं नाम द्वे तुला समरूपा कत्वा गण्हन्तो महतिया गण्हाति, ददन्तो खुद्दिकाय देति । अङ्गकूटं नाम गहन्तो पच्छाभागे हत्थेन तुलं अक्कमति, ददन्तो पुब्बभागे । गहणकूटं नाम गण्हन्तो मूले रज्जुं गण्हाति, ददन्तो अग्गे । पटिच्छन्नकूटं नाम तुलं सुसिरं कत्वा अन्तो अयचुण्णं पक्खिपित्वा गण्हन्तो तं पच्छाभागे करोति, ददन्तो अग्गभागे । ७३ कंसो वुच्चति सुवण्णपाति, ताय वञ्चनं कंसकूटं । कथं ? एकं सुवण्णपतिं त्वा अञ्ञा द्वे तिस्सो लोहपातियो सुवण्णवण्णे करोति, ततो जनपदं गन्त्वा किञ्चिदेव अड्डुं कुलं पविसित्वा - “सुवण्णभाजनानि किणथा "ति वत्वा अग्घे पुच्छिते समग्घतरं दातुकामा होन्ति । ततो तेहि- “कथं इमेसं सुवण्णभावो जानितब्बो "ति वुत्ते, “वीमंसित्वा गण्हथा”ति सुवण्णपातिं पासाणे घंसित्वा सब्बा पातियो दत्वा गच्छति । मानकूटं नाम हदयभेदसिखाभेदरज्जुभेदवसेन तिविधं होति । तत्थ हृदयभेदो सप्पितेलादिमिननकाले लब्भति । तानि हि गण्हन्तो हेट्ठाछिद्देन मानेन - “सणिकं आसिञ्चा’”ति वत्वा अन्तोभाजने बहुं पग्घरापेत्वा गण्हाति, ददन्तो छिद्दं पिधाय सीघं पूत्वा देति । सिखाभेदो तिलतण्डुलादिमिननकाले लब्भति । तानि हि गण्हन्तो सणिकं सिखं उस्सापेत्वा गण्हाति, ददन्तो वेगेन पूरेत्वा सिखं छिन्दन्तो देति । रज्जुभेदो खेत्तवत्थुमिननकाले लब्भति । ल अलभन्ता हि खेत्तं अमहन्तम्पि महन्तं कत्वा मिनन्ति । उक्कोटनादीसु उक्कोटनन्ति अस्सामिके सामिके कातुं लञ्जग्गहणं । वञ्चनन्ति हि तेहि उपायेहि परेसं वञ्चनं । तत्रिदमेकं वत्थु - एको किर लुद्दको मिगञ्च मिगपोतकञ्च 73 Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४ दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गट्ठकथा गहेत्वा आगच्छति, तमेको धुत्तो- “ किं भो, मिगो अग्घति, किं मिगपोतको "ति आह । " मिगो द्वे कहापणे, मिगपोतको एक "न्ति च वुत्ते एकं कहापणं दत्वा मिगपोतकं गत्वा थोकं गन्त्वा निवत्तो- “न मे भो, मिगपोतकेन अत्थो, मिगं मे देही "ति आह । तेन हि द्वे कापणे देहीति । सो आह - " ननु ते भो, मया पठमं एको कहापणी दिन्नोति ? " आम, दिन्नोति । " इदं मिगपोतकं गण्ह, एवं सो च कहापणो, अयञ्च कहापणग्घनको मिगपोतकोति द्वे कहापणा भविस्सन्ती 'ति । सो “कारणं वदतीति सल्लक्खेत्वा मिगपोतकं गहेत्वा मिगं अदासीति । निकतीति योगवसेन वा मायावसेन वा अपामङ्गं पामङ्गन्ति, अमणि मणिन्ति, असुवण्णं सुवण्णन्ति कत्वा पतिरूपकेन वञ्चनं । साचियोगोति कुटिलयोगो, एतेसंयेव उक्कोटनादीनमेतं नामं । तस्मा - उक्कोटनसाचियोगो, वञ्चनसाचियोगो, निकतिसाचियोगोति, एवमेत्थ अत्थो दट्ठब्बो । केचि अञ्ञ दस्सेत्वा अञ्ञस्स परिवत्तनं साचियोगोति वदन्ति । तं पन वञ्चनेनेव सङ्गहितं । छेदनादीसु छेदनन्ति हत्थच्छेदनादि । वधोति मारणं । बन्धोति रज्जुबन्धनादीहि बन्धनं । विपरामोसोति हिमविपरामोसो, गुम्बविपरामोसोति दुविधो । यं हिमपातसमये हिमेन पटिच्छन्ना हुत्वा मग्गप्पटिपन्नं जनं मुसन्ति, अयं हिमविपरामोसो । यं गुम्ब पटिच्छन्ना मुसन्ति, अयं गुम्बविपरामोसो । आलोपो वुच्चति गामनिगमादीनं विलोपकरणं । सहसाकारोति साहसिककिरिया । गेहं पविसित्वा मनुस्सानं उरे सत्थं ठपेत्वा इच्छितभण्डानं गहणं । एवमेतस्मा छेदन... पे०... सहसाकारा पटिविरतो समणो गोतमोति । इति वा हि, भिक्खवे, पुथुज्जनो तथागतस्स वण्णं वदमानो वदेय्याति । एत्तावता चूळसीलं निट्ठितं होति । ( १.११-११) मज्झिमसीलवण्णना ११. इदानि मज्झिमसीलं वित्थारेन्तो “यथा वा पनेके भोन्तो 'ति आदिमाह । तत्रायं अनुत्तानपदवण्णना | सद्धादेय्यानीति कम्मञ्च फलञ्च इधलोकञ्च परलोकञ्च सद्दहित्वा दिन्नानि । 'अयं मे जाती'ति वा, 'मित्तो 'ति वा, इदं पटिकरिस्सति, इदं वा तेन कतपुब्बन्ति वा, एवं न दिन्नानीति अत्थो । एवं दिन्नानि हि न सद्धादेय्यानि नाम 74 Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १.१२-१२) मज्झिमसीलवण्णना होन्ति । भोजनानीति देसनासीसमत्तमेतं, अत्थतो पन सद्धादेय्यानि भोजनानि भुञ्जत्वा चीवरानि पारुपित्वा सेनासनानि सेवमाना गिलानभेसज्जं परिभुञ्जमानाति सब्बमेतं वुत्तमेव होति । सेय्यथिदन्ति निपातो । तस्सत्थो कतमो सो बीजगामभूतगामो, यस्स समारम्भं अनुयुत्ता विहरन्तीति । ततो तं दस्सेन्तो मूलबीजन्तिआदिमाह । तत्थ मूलबीजं नाम हलिि सिङ्गिवेरं, वचा, वचत्तं, अतिविसा, कटुकरोहिणी, उसीरं, भद्दमुत्तकन्ति एवमादि । खन्धबीजं नाम अस्सत्थो, निग्रोधो, पिलक्खो, उदुम्बरो, कच्छंको, कपित्थनोति एवमादि । फळुबीजं नाम उच्छु, नळी, वेळूति एवमादि। अग्गबीजं नाम अज्जकं, फणिज्जकं, हिरिवेरन्ति एवमादि । बीजबीजं नाम पुब्बण्णं अपरण्णन्ति एवमादि । सब्बतं रुक्खतो वियोजितं विरुहनसमत्थमेव "बीजगामो " ति वुच्चति । रुक्खतो पन अवियोजितं असुक्खं "भूतगामो "ति वुच्चति । तत्थ भूतगामसमारम्भो पाचित्तियवत्थु, जगामसमारम्भ दुक्कटवत्थूति वेदितब्बो । १२. सन्निधिकारपरिभोगन्ति सन्निधिकतस्स परिभोगं । तत्थ दुविधा कथा, विनयवसेन च सल्लेखवसेन च । विनयवसेन ताव यं किञ्चि अन्नं अज्ज पटिग्गहितं अपरज्जु सन्निधिकारकं होति, तस्स परिभोगे पाचित्तियं । अत्तना लद्धं पन सामणेरानं दत्वा, तेहि लद्धं ठपापेत्वा दुतियदिवसे भुञ्जितुं वट्टति, सल्लेखो पन न होति । ७५ पानसन्निधिम्हिपि एसेव नयो । तत्थ पानं नाम अम्बपानादीनि अट्ठ पानानि यानि च ते अनुलोमानि । तेसं विनिच्छयो समन्तपासादिकायं वृत्त । " वत्थसन्निधिम्हि अनधिट्ठितं अविकप्पितं सन्निधि च होति, सल्लेखञ्च कोपेति, अयं परियायकथा । निप्परियायतो पन तिचीवरसन्तुट्ठेन भवितब्बं चतुत्थं लभित्वा अञ्ञस्स दातब्बं । सचे यस्स कस्सचि दातुं न सक्कोति, यस्स पन दातुकामो होति, सो उद्देसत्थाय वा परिपुच्छत्थाय वा गतो, आगतमत्ते दातब्बं, अदातुं न वट्टति । चीवरे पन अप्पहोन्ते सतिया पच्चासाय अनुञ्ञातकालं ठपेतुं वट्टति । सूचित्तचीवरकारकानं अलाभेन ततो परम्पि विनयकम्मं कत्वा ठपेतुं वट्टति । “इमस्मिं जिणे पुन ईदिसं कुतो लभिस्सामी 'ति पन ठपेतुं न वट्टति, सन्निधि च होति, सल्लेखञ्च कोपेति । 75 1 Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६ दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गट्ठकथा यानसन्निधिम्हि यानं नाम वय्हं, रथो, सकटं, सन्दमानिका, सिविका, पाटङ्कीति; नेतं पब्बजितस्स यानं । उपाहना पन पब्बजितस्स यानंयेव । एकभिक्खुस्स हि एको अरञ्ञत्थाय, एको धोतपादकत्थायाति, उक्कंसतो द्वे उपाहनसङ्घाटा वट्टन्ति । ततियं लभित्वा अञ्ञस्स दातब्बो । “इमस्मिं जिणे अञ्ञ कुतो लभिस्सामी "ति हि ठपेतुं न वट्टति, सन्निधि च होति, सल्लेखञ्च कोपेति । सयनसन्निधिम्हि सयनन्ति मञ्चो । एकस्स भिक्खुनो एको गब्भे, एको दिवाठानेति उक्कंसतो द्वे मञ्चा वट्टन्ति । ततो उत्तरि लभित्वा अञ्ञस्स भिक्खुनो वा गणस्स वा दातब्बो; अदातुं न वट्टति । सन्निधि च होति, सल्लेखञ्च कोपेति । गन्धसन्निधिम्हि भिक्खुनो कण्डुकच्छुछविदोसादिआबाधे सति गन्धा वट्टन्ति । ते गन्धे आहरापेत्वा तस्मिं रोगे वूपसन्ते अञ्ञसं वा आबाधिकानं दातब्बा, द्वारे पञ्चङ्गुलिघर धूपनादीसु वा उपनेतब्बा । " पुन रोगे सति भविस्सन्ती 'ति पन ठपेतुं न वट्टति, सन्निधि च होति, सल्लेखञ्च कोपेति । उपकाराय ( १.१२-१२) आमिसन्ति वृत्तावसेसं दट्ठब्बं । सेय्यथिदं इधेकच्चो भिक्खु - " तथारूपे काले भविस्सी" तिलतण्डुलमुग्गमासनाळिकेरलोणमच्छमंसवल्लूरसप्पितेलगुळभाजनादीनि आहरापेत्वा ठपेति । सो वस्सकाले कालस्सेव सामणेरेहि यागुं पचापेत्वा परिभुञ्जित्वा “सामणेर, उदककद्दमे दुक्खं गामं पविसितुं गच्छ असुकं कुलं गन्त्वा मय्हं विहारे निसिन्नभावं आरोचेहि; असुककुलतो दधिआदीनि आहरा "ति पेसेति । भिक्खूहि - " किं, भन्ते, गामं पविसिस्सथा "ति वुत्तेपि “दुप्पवेसो, आवुसो, इदानि गामो 'ति वदति । ते - " होतु, भन्ते, अच्छथ तुम्हे, मयं भिक्खं परियेसित्वा आहरिस्सामा "ति गच्छन्ति । अथ सामणेरोपि दधिआदीनि आहरित्वा भत्तञ्च ब्यञ्जनञ्च सम्पादेत्वा उपनेति, तं भुञ्जन्तस्सेव उपट्ठाका भत्तं पहिणन्ति, ततोपि मनापं मनापं भुञ्जति । अथ भिक्खू पिण्डपातं गत्वा आगच्छन्ति, ततोपि मनापं मनापं गीवायामकं भुञ्जतियेव । एवं चतुमासम्प वीतिनामेति । अयं वुच्चति - “भिक्खु मुण्डकुटुम्बिकजीविकं जीवति, न समणजीविक"न्ति । एवरूपो आमिससन्निधि नाम होति । भिक्खुनो पन वसनट्ठाने एका तण्डुलनाळि, एको गुळपिण्डो, चतुभागमत्तं सप्पीति एत्तकं निधेतुं वट्टति, अकाले सम्पत्तचोरानं अत्थाय । ते हि एत्तकम्पि आमिसपटिसन्थारं 76 Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १.१३-१३) मज्झिमसीलवण्णना अलभन्ता जीवितापि वोरोपेय्युं, तस्मा सचे एत्तकं नत्थि, आहरापेत्वापि ठपेतुं वट्टति । अफासुककाले च यदेत्थ कप्पियं, तं अत्तनापि परिभुञ्जितुं वट्टति । कप्पियकुटियं पन बहुं ठपेन्तस्सापि सन्निधि नाम नत्थि । तथागतस्स पन तण्डुलनाळि आदीसु वा यं किञ्चि चतुरतनमत्तं वा पिलोतिकखण्डं “ इदं मे अज्ज वा स्वे वा भविस्सती 'ति ठपितं नाम नत्थि । १३. विसूकदस्सनेसु नच्चं नाम यं किञ्चि नच्चं तं मग्गं गच्छन्तेनापि गीवं पसारेत्वा दट्टु न वट्टति । वित्थारविनिच्छयो पनेत्थ समन्तपासादिकायं वुत्तनयेनेव वेदितब्बो। यथा चेत्थ एवं सब्बेसु सिक्खापदपटिसंयुत्तेसु सुत्तपदेसु । इतो परह एत्तकम्पि अवत्वा तत्थ तत्थ पयोजनमत्तमेव वण्णयिस्सामाति । ७७ पेक्खन्ति नटसमज्जं । अक्खानन्ति भारतयुज्झनादिकं । यस्मिं ठाने कथीयति, तत्थ गन्तुम्पिन वट्टति । पाणिस्सरन्ति कंसताळं, पाणिताळन्तिपि वदन्ति । वेताळन्ति घनताळं, मन्तेन मतसरीरुट्ठापनन्तिपि एके । कुम्भथूणन्ति चतुरस्सअम्बणकताळं, कुम्भसद्दन्तिपि एके । सोभनकन्ति नटानं अब्भोक्किरणं, सोभनकरं वा, पटिभानचित्तन्ति वुत्तं होति । चण्डालन्ति अयोगुळकीळा, चण्डालानं साणधोवनकीळातिपि वदन्ति । वंसन्ति वेकुं उस्सापेत्वा कीळनं । धोवनन्ति अट्ठिधोवनं, एकच्चेसु किर जनपदेसु कालङ्कते आतके न झापेन्ति निखणित्वा ठपेति । अथ नेसं पूतिभूतं कायं ञत्वा नीहरित्वा अट्ठीनि धोवित्वा गन्धेहि मक्खेत्वा ठपेन्ति । ते नक्खत्तकाले एकस्मिं ठाने अट्ठीनि ठपेत्वा एकस्मिं ठाने सुरादीनि ठपेत्वा रोदन्ता परिदेवन्ता सुरं पिवन्ति । वृत्तम्पि चेतं - “अत्थि, भिक्खवे, दक्खिणेसु जनपदेसु अट्ठिधोवनं नाम, तत्थ होति अन्नम्पि पानम्पि खज्जम्पि भोज्जम्पि लेय्यम्पि पेय्यम्पि नच्चम्पि गीतम्पि वादितम्पि । अत्थेतं, भिक्खवे, धोवनं, नेतं नत्थीति वदामी" ति (अ० नि० ३.१०.१०७) । एकच्चे पन इन्दजालेन अट्ठिधोवनं धोवनन्तिपि वदन्ति । हत्थियुद्धादीसु भिक्खुनो नेव हत्थिआदीहि सद्धिं युज्झितुं न ते युज्झापेतुं, न युज्झन्ते दट्टु वट्टति । निब्बुद्धन्ति मल्लयुद्धं । उय्योधिकन्ति यत्थ सम्पहारो दिस्सति । बलग्गन्ति बलगणनट्ठानं । सेनाब्यूहन्ति सेनानिवेसो, सकटब्यूहादिवसेन सेनाय निवेसनं । अनीकदस्सनन्ति – “तयो हत्थी पच्छिमं हत्थानीक "न्तिआदिना ( पाचि० ३२४) नयेन वुत्तस्स अनीकस्स दस्सनं । 77 Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गट्ठकथा (१.१४-१५) १४. पमादो एत्थ तिकृतीति पमादट्ठानं । जूतञ्च तं पमादट्ठानञ्चाति जूतप्पमादट्ठानं । एकेकाय पन्तिया अट्ट अट्ठ पदानि अस्साति अट्ठपदं दसपदेपि एसेव नयो । आकासन्ति अट्ठपददसपदेसु विय आकासेयेव कीळनं । परिहारपथन्ति भूमियं नानापथमण्डलं कत्वा तत्थ तत्थ परिहरितब्बं, पथं परिहरन्तानं कीळनं । सन्तिकन्ति सन्तिककीळनं । एकज्झं ठपिता सारियो वा सक्खरायो वा अचालेन्ता नखेनेव अपनेन्ति च उपनेन्ति च, सचे तत्थ काचि चलति, पराजयो होति, एवरूपाय कीळायेतं अधिवचनं । खलिकन्ति जूतफलके पासककीळनं । घटिका वुच्चति दीघदण्डकेन रस्सदण्डकं पहरणकीळनं । सलाकहत्थन्ति लाखाय वा मञ्जिट्ठिकाय वा पिट्ठोदकेन वा सलाकहत्थं तेमेत्वा – “किं होतू"ति भूमियं वा भित्तियं वा तं पहरित्वा हथिअस्सादिरूपदस्सनकीळनं । अक्खन्ति गुळकीळा । पञ्चीरं वुच्चति पण्णनाळिकं, तं धमन्ता कीळन्ति | वङ्ककन्ति गामदारकानं कीळनकं खुद्दकनङ्गलं । मोक्खचिका वुच्चति सम्परिवत्तनकीळा, आकासे वा दण्डकं गहेत्वा भूमियं वा सीसं ठपेत्वा हेटुपरियभावेन परिवत्तनकीळाति वुत्तं होति । चिङ्गुलिकं वुच्चति तालपण्णादीहि कतं वातप्पहारेन परिब्भमनचक्कं । पत्ताळ्हकं वुच्चति पण्णनाळिका । ताय वालुकादीनि मिनन्ता कीळन्ति । रथकन्ति खुद्दकरथं । धनुकन्ति खुद्दकधनुमेव । अक्खरिका वुच्चति आकासे वा पिट्ठियं वा अक्खरजाननकीळा | मनेसिका नाम मनसा चिन्तितजाननकीळा । यथावज्जं नाम काणकुणिज्जादीनं यं यं वज्ज, तं तं पयोजेत्वा दस्सनकीळा । १५. आसन्दिन्ति पमाणातिक्कन्तासनं । अनुयुत्ता विहरन्तीति इदं अपेक्खित्वा पन सब्बपदेसु उपयोगवचनं कतं । पल्लङ्कोति पादेसु वाळरूपानि ठपेत्वा कतो । गोनकोति दीघलोमको महाकोजवो, चतुरङ्गुलाधिकानि किर तस्स लोमानि । चित्तकन्ति वानविचित्तं उण्णामयत्थरणं । पटिकाति उण्णामयो सेतत्थरणो | पटलिकाति घनपुप्फको उण्णामयत्थरणो । यो आमलकपत्तोतिपि वुच्चति । तूलिकाति तिण्णं तूलानं अञतरपुण्णा तूलिका । विकतिकाति सीहब्यग्घादिरूपविचित्रो उण्णामयत्थरणो। उद्दलोमीति उभयतोदसं उण्णामयत्थरणं, केचि “एकतोउग्गतपुप्फ"न्ति वदन्ति । एकन्तलोमीति एकतोदसं उण्णामयत्थरणं । केचि "उभतोउग्गतपुप्फ''न्ति वदन्ति | कट्टिस्सन्ति रतनपरिसिब्बितं कोसेय्यकट्टिस्समयपच्चत्थरणं । कोसेय्यन्ति रतनपरिसिब्बितमेव कोसियसुत्तमयपच्चत्थरणं । सुद्धकोसेय्यं पन वट्टतीति विनये वुत्तं । दीघनिकायट्ठकथायं पन "ठपेत्वा तूलिकं सब्बानेव गोनकादीनि रतनपरिसिब्बितानि न वट्टन्ती"ति वुत्तं । कुत्तकन्ति सोळसन्नं नाटकित्थीनं ठत्वा नच्चनयोग्गं उण्णामयत्थरणं । हत्थत्थरं Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १.१६-१६) मज्झिमसीलवण्णना अस्सत्थरन्ति हत्थि अस्सपिट्ठीसु अत्थरणअत्थरकायेव । रथत्थरेपि एसेव नयो । अजिनप्पवेणीति अजिनचम्मेहि मञ्चप्पमाणेन सिब्बित्वा कता पवेणी । कदलीमिगपवरपच्चत्थरणन्ति कदलीमिगचम्मं नाम अत्थि, तेन कतं पवरपच्चत्थरणं; उत्तमपच्चत्थरणन्ति अत्थो । तं किर सेतवत्थस्स उपरि कदलीमिगचम्मं पत्थरित्वा सिब्बेत्वा करोन्ति । सउत्तरच्छदन्ति सह उत्तरच्छदेन, उपरिबद्धेन रत्तवितानेन सद्धिन्ति अत्थो । सेतवितानम्पि हेट्ठा अकप्पियपच्चत्थरणे सति न वट्टति, असति पन वट्टति । उभतोलोहितकूपधानन्ति सीसूपधानञ्च पादूपधानञ्चाति मञ्चस्स उभतोलोहितकं उपधानं एतं न कप्पति। यं पन एकमेव उपधानं उभोसु पस्सेसु रत्तं वा होति पदुमवण्णं वा विचित्रं वा, सचे पाणयुत्तं वट्टति । महाउपधानं पन पटिक्खित्तं । अलोहितकानि द्वेपि वट्टन्तियेव । ततो उत्तरि लभित्वा अञ्ञेसं दातब्बानि । दातुं असक्कोन्तो मञ्चे तिरियं अत्थरित्वा उपरि पच्चत्थरणं दत्वा निपज्जितुम्पि लभति । आसन्दी आदीसु पन वृत्तनयेनेव पटिपज्जितब्बं । वुत्तहेतं – “अनुजानामि, भिक्खवे, आसन्दिया पादे छिन्दित्वा परिभुञ्जितुं, पल्लङ्कस्स वाळे भिन्दित्वा परिभुञ्जितुं, तूलिकं विजटेत्वा बिम्बोहनं कातुं, अवसेसं भुम्मत्थरणं कातु 'न्ति (चूळव० २९७) । ७९ १६. उच्छादनादीसु मातुकुच्छितो निक्खन्तदारकानं सरीरगन्धो द्वादसवस्सपत्तकाले नस्सति, तेसं सरीरदुग्गन्धहरणत्थाय गन्धचुण्णादीहि उच्छादेन्ति, एवरूपं उच्छादनं न वट्टति । पुञ्ञवन्ते पन दारके ऊरूसु निपज्जापेत्वा तेलेन मक्खेत्वा हत्थपादऊरुनाभिआदीनं सण्ठानसम्पादनत्थं परिमद्दन्ति, एवरूपं परिमद्दनं न वट्टति । हापनन्ति तेसंयेव दारकानं गन्धादीहि न्हापनं । सम्बाहनन्ति महामल्लानं विय हत्थपादे मुग्गरादीहि पहरित्वा बाहुवड्डनं । आदासन्ति यं किञ्चि आदासं परिहरितुं न वट्टति । अञ्जनन्ति अलङ्कारञ्जनमेव । मालाति बद्धमाला वा अबद्धमाला वा । विलेपनन्ति यं किञ्चि छविरागकरणं । मुखचुण्णं मुखलेपनन्ति मुखे काळपीळकादीनं हरणत्थाय मत्तिककक्कं देन्ति, तेन लोहिते चलिते सासपकक्कं देन्ति, तेन दोसे खादिते तिलकक्कं देन्ति, तेन लोहिते सन्निसिन्ने हलिद्दिकक्कं देन्ति, तेन छविवण्णे आरूळहे मुखचुण्णकेन मुखं चुन्ति, तं सब्बं न वट्टति । हत्थबन्धादीसु हत्थे विचित्रसङ्घकपालादीनि बन्धित्वा विचरन्ति तं वा अवा सब्बम्पि हत्थाभरणं न वट्टति, अपरे सिखं बन्धित्वा विचरन्ति । सुवण्णचीरकमुत्तलतादीहि 79 Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गट्ठकथा च तं परिक्खिपन्ति; तं सब्बं न वट्टति । अपरे चतुहत्थदण्डं वा अञ्ञ वा पन अलङ्कतदण्डकं गत्वा विचरन्ति तथा इत्थिपुरिसरूपादिविचित्तं भेसज्जनाळिकं सुपरिक्खित्तं वामपस्से ओलग्गितं; अपरे कणिकरतनपरिक्खित्तकोसं अतितिखिणं असिं, पञ्चवण्णसुत्तसिब्बितं मकरदन्तकादिविचित्तं छत्तं, सुवण्णरजतादिविचित्रा मोरपिञ्छादिपरिक्खित्ता उपाहना, केचि रतनमत्तायामं चतुरङ्गुलवित्थतं केसन्तपरिच्छेदं दस्सेत्वा मेघमुखे विज्जुलतं विय नलाटे उण्हीसपट्टे बन्धन्ति, चूळामणि धारेन्ति, चामरवालबीजनिं धारेन्ति, तं सब्बं न वट्टति । ८० १७. अनिय्यानिकत्ता सग्गमोक्खमग्गानं तिरच्छानभूता कथाति तिरच्छानकथा । तत्थ राजानं आरम्भ महासम्मतो मन्धाता धम्मासोको एवं महानुभावोति आदिना नयेन पवत्ता कथा राजकथा। एस नयो चोरकथादीसु । तेसु असुको राजा अभिरूपो दस्सनीयोतिआदिना नयेन गेहस्सितकथाव तिरच्छानकथा होति । सोपि नाम एवं महानुभावो खयं गतोति एवं पवत्ता पन कम्मट्ठानभावे तिट्ठति । चोरेसु मूलदेवो एवं महानुभावो, मेघमालो एवं महानुभावोति तेसं कम्मं पटिच्च अहो सूराति गेहस्सितकथाव तिरच्छानकथा । युद्धेपि भारतयुद्धादीसु असुकेन असुको एवं मारितो एवं विद्धोति कामस्सादवसेनेव कथा तिरच्छानकथा । तेपि नाम खयं गताति एवं पवत्ता पन सब्बत्थ कम्मट्ठानमेव होति । अपि च अन्नादीसु एवं वण्णवन्तं गन्धवन्तं रसवन्तं फस्ससम्पन्नं खादिम्ह भुञ्जिम्हाति कामस्सादवसेन कथेतुं न वट्टति । सात्थकं पन कत्वा पुब्बे एवं वण्णादिसम्पन्नं अन्नं पानं वत्थं सयनं मालं गन्धं सीलवन्तानं अदम्ह चेतिये पूजं करिम्हाति कथेतुं वट्टति । ञातिकथादीसु पन " अम्हाकं ञातका सूरा समत्था " ति वा "पुब्बे मयं एवं विचित्रेहि यानेहि विचरिम्हा "ति वा अस्सादवसेन वत्तुं न वट्टति । सात्थकं पन कत्वा "तेपि नो आतका खयं गता”ति वा “पुब्बे मयं एवरूपा उपाहना सङ्घस्स अदम्हा" ति वा कथेतुं वट्टति | गामकथापि सुनिविट्ठदुन्निविट्ठसुभिक्खदुब्भिक्खादिवसेन वा “ असुकगामवासिनो सूरा समत्था "ति वा एवं अस्सादवसेन न वट्टति । सात्थकं पन कत्वा “सद्धा पसन्ना "ति वा " खयवयं गता "ति वा वत्तुं वट्टति । निगमनगरजनपदकथादीसुपि एसेव नयो । इत्थिकथापि वण्णसण्ठानादीनि पटिच्च अस्सादवसेन न वट्टति, सद्धा पसन्ना खयवयं गताति एवमेव वट्टति । सूरकथापि 'नन्दिमित्तो नाम योधो सूरो अहोसी 'ति अस्सादवसेन न वट्टति । सद्धो अहोसि खयं गतोति एवमेव वट्टति । विसिखाकथापि ( १.१७ -१७) 80 Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१.१८-१९) मज्झिमसीलवण्णना “असुका विसिखा सुनिविठ्ठा दुन्निविठ्ठा सूरा समत्था''ति अस्सादवसेन न वट्टति । सद्धा पसन्ना खयवयं गताति एवमेव वट्टति । कुम्भट्ठानकथाति उदकट्ठानकथा, उदकतित्थकथातिपि वुच्चति, कुम्भदासिकथा वा, सापि “पासादिका नच्चितुं गायितुं छेका''ति अस्सादवसेन न वट्टति; सद्धा पसन्नातिआदिना नयेनेव वट्टति । पुब्बपेतकथाति अतीतजातिकथा । तत्थ वत्तमानञातिकथासदिसो विनिच्छयो । नानत्तकथाति पुरिमपच्छिमकथाहि विमुत्ता अवसेसा नानासभावा निरत्थककथा | लोकक्खायिकाति अयं लोको केन निम्मितो, असुकेन नाम निम्मितो। काको सेतो, अट्ठीनं सेतत्ता; बलाका रत्ता। लोहितस्स रत्तत्ताति एवमादिका लोकायतवितण्डसल्लापकथा । __ समुद्दक्खायिका नाम कस्मा समुद्दो सागरो ? सागरदेवेन खतो, तस्मा सागरो । खतो मेति हत्थमुद्दाय सयं निवेदितत्ता “समुद्दो"ति एवमादिका निरत्थका समुद्दक्खायनकथा । भवोति बुड्डि। अभवोति हानि । इति भवो, इति अभवोति यं वा तं वा निरत्थककारणं वत्वा पवत्तितकथा इतिभवाभवकथा। १८. विग्गाहिककथाति विग्गहकथा, सारम्भकथा । तत्थ सहितं मेति महं वचनं सहितं सिलिटुं अत्थयुत्तं कारणयुत्तन्ति. अत्थो। असहितं तेति तुम्हं वचनं असहितं असिलिटुं । अधिचिण्णं ते विपरावत्तन्ति यं तुम्हं दीघरत्ताचिण्णवसेन सुप्पगुणं, तं मय्हं एकवचनेनेव विपरावत्तं परिवत्तित्वा ठितं, न किञ्चि जानासीति अत्थो। आरोपितो ते वादोति मया तव दोसो आरोपितो। चर वादप्पमोक्खायाति दोसमोचनत्थं चर, विचर; तत्थ तत्थ गन्त्वा सिक्खाति अत्थो । निब्बेठेहि वा सचे पहोसीति अथ सयं पहोसि, इदानिमेव निब्बेठेहीति । १९. दूतेय्यकथायं इध गच्छाति इतो असुकं नाम ठानं गच्छ। अमुत्रागच्छाति ततो असुकं नाम ठानं आगच्छ । इदं हराति इतो इदं नाम हर। अमुत्र इदं आहराति Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गट्ठकथा (१.२०-२१) असुकट्ठानतो इदं नाम इध आहर | सोपतो पन इदं दूतेय्यं नाम ठपेत्वा पञ्च सहधम्मिके रतनत्तयस्स उपकारपटिसंयुत्तञ्च गिहीसासनं अजेसं न वट्टति । २०. कुहकातिआदीसु तिविधेन कुहनवत्थुना लोकं कुहयन्ति, विम्हापयन्तीति कुहका । लाभसक्कारस्थिका हुत्वा लपन्तीति लपका। निमित्तं सीलमेतेसन्ति नेमित्तिका। निप्पेसो सीलमेतेसन्ति निप्पेसिका। लाभेन लाभं निजिगीसन्ति मग्गन्ति परियेसन्तीति लाभेन लाभं निजिगीसितारो। कुहना, लपना, नेमित्तिकता, निप्पेसिकता, लाभेन लाभं निजिगीसनताति एताहि समन्नागतानं पुग्गलानं एतं अधिवचनं । अयमेत्थ सोपो । वित्थारेन पनेता कुहनादिका विसुद्धिमग्गे सीलनिद्देसेयेव पाळिञ्च अट्ठकथञ्च आहरित्वा पकासिताति। एत्तावता मज्झिमसीलं निहित होति । महासीलवण्णना २१. इतो परं महासीलं होति । अङ्गन्ति हत्थपादादीसु येन केनचि एवरूपेन अङ्गेन समन्नागतो दीघायु यसवा होतीतिआदिनयप्पवत्तं अङ्गसत्थं । निमित्तन्ति निमित्तसत्थं । पण्डुराजा किर तिस्सो मुत्तायो मुट्ठियं कत्वा नेमित्तिकं पुच्छि - "किं मे हत्थे''ति ? सो इतो चितो च विलोकेसि, तस्मिञ्च समये घरगोलिकाय मक्खिका गव्हन्ती मुत्ता, सो "मुत्ता''ति आह । पुन “कती''ति पुट्ठो कुक्कुटस्स तिक्खत्तुं रवन्तस्स सबं सुत्वा “तिस्सो"ति आह । एवं तं तं आदिसित्वा निमित्तमनुयुत्ता विहरन्ति । उप्पातन्ति असनिपातादीनं महन्तानं उप्पतितं, तहि दिस्वा “इदं भविस्सति, एवं भविस्सती"ति आदिसन्ति । सुपिनन्ति यो पुब्बण्हसमये सुपिनं पस्सति, एवं विपाको होति; यो इदं नाम पस्सति, तस्स इदं नाम होतीतिआदिना नयेन सुपिनकं अनुयुत्ता विहरन्ति । लक्खणन्ति इमिना लक्खणेन समन्नागतो राजा होति, इमिना उपराजातिआदिकं । मूसिकच्छिन्नन्ति उन्दूरखायितं । तेनापि हि अहते वा वत्थे अनहते वा वत्थे इतो पट्ठाय एवं छिन्ने इदं नाम होतीति आदिसन्ति । अग्गिहोमन्ति एवरूपेन दारुना 82 Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१.२२-२२) महासीलवण्णना ८३ एवं हुते इदं नाम होतीति अग्गिजुहनं । दब्बिहोमादीनिपि अग्गिहोमानेव, एवरूपाय दब्बिया ईदिसेहि कणादीहि हुते इदं नाम होतीति एवं पवत्तिवसेन पन विसुं वुत्तानि | तत्थ कणोति कुण्डको | तण्डुलाति सालिआदीनञ्चेव तिणजातीनञ्च तण्डुला | सप्पीति गोसप्पिआदिकं । तेलन्ति तिलतेलादिकं । सासपादीनि पन मुखेन गहेत्वा अग्गिम्हि पक्खिपनं, विज्जं परिजप्पित्वा जुहनं वा मुखहोमं। दक्खिणक्खकजण्णुलोहितादीहि जुहनं लोहितहोमं। अङ्गविज्जाति पुब्बे अङ्गमेव दिस्वा ब्याकरणवसेन अङ्गं वुत्तं, इध अङ्गुलडिं दिस्वा विज्जं परिजप्पित्वा अयं कुलपुत्तो वा नो वा, सिरीसम्पन्नो वा नो वातिआदिब्याकरणवसेन अङ्गविज्जा वुत्ता। वत्थुविज्जाति घरवत्थुआरामवत्थादीनं गुणदोससल्लक्खणविज्जा । मत्तिकादिविसेसं दिस्वापि हि विज्जं परिजप्पित्वा हेट्ठा पथवियं तिसरतनमत्ते, आकासे च असीतिरतनमत्ते पदेसे गुणदोसं पस्सन्ति । खत्तविज्जाति अब्भेय्यमासुरक्खराजसत्यादिसत्थं । सिवविज्जाति सुसाने पविसित्वा सन्तिकरणविज्जा, सिङ्गालरुतविज्जातिपि वदन्ति । भूतविज्जाति भूतवेज्जमन्तो । भूरिविज्जाति भूरिघरे वसन्तेन उग्गहेतब्बमन्तो । अहिविज्जाति सप्पदठ्ठतिकिच्छनविज्जा चेव सप्पाव्हायनविज्जा च । विसविज्जाति याय, पुराणविसं वा रक्खन्ति, नवविसं वा करोन्ति विसवन्तमेव वा । विच्छिकविज्जाति विच्छिकदट्ठतिकिच्छनविज्जा । मूसिकविज्जायपि एसेव नयो । सकुणविज्जाति सपक्खकअपक्खकद्विपदचतुप्पदानं रुतगतादिवसेन सकुणजाणं। वायसविज्जाति काकरुतत्राणं, तं विसु व सत्थं, तस्मा विसुं वुत्तं । पक्कज्झानन्ति परिपाकगतचिन्ता । इदानि “अयं एत्तकं जीविस्सति, अयं एत्तक"न्ति एवं पवत्तं आदिठ्ठाणन्ति अत्थो। सरपरित्ताणन्ति सररक्खणं, यथा अत्तनो उपरि न आगच्छति, एवं करणविज्जा। मिगचक्कन्ति इदं सब्बसङ्गाहिकं सब्बसकुणचतुप्पदानं रुतत्राणवसेन वुत्तं । २२. मणिलक्खणादीसु एवरूपो मणि पसत्थो, एवरूपो अपसत्थो, सामिनो आरोग्यइस्सरियादीनं हेतु होति, न होतीति, एवं वण्णसण्ठानादिवसेन मणिआदीनं लक्खणं अनुयुत्ता विहरन्तीति अत्थो । तत्थ आवुधन्ति ठपेत्वा असिआदीनि अवसेसं आवुधं । इथिलक्खणादीनिपि यम्हि कुले ते इत्थिपुरिसादयो वसन्ति, तस्स वुड्डिहानिवसेनेव वेदितब्बानि । अजलक्खणादीसु पन एवरूपानं अजादीनं मंसं खादितब्बं, एवरूपानं न खादितब्बन्तिं अयं विसेसो वेदितब्बो । 83 Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गट्ठकथा (१.२३-२५) अपि चेत्थ गोधाय लक्खणे चित्तकम्मपिळन्धनादीसुपि एवरूपाय गोधाय सति इदं नाम होतीति अयं विसेसो वेदितब्बो । इदञ्चेत्थ वत्थु - एकस्मिं किर विहारे चित्तकम्मे गोधं अग्गिं धममानं अकंसु । ततो पट्ठाय भिक्खूनं महाविवादो जातो। एको आगन्तुकभिक्खु तं दिस्वा मक्खेसि । ततो पट्ठाय विवादो मन्दीभूतो होति । कण्णिकलक्खणं पिळन्धनकण्णिकायपि गेहकण्णिकायपि वसेन वेदितब्बं । कच्छपलक्खणं गोधालक्खणसदिसमेव । मिगलक्खणं सब्बसङ्गाहिकं सब्बचतुप्पदानं लक्खणवसेन वुत्तं । २३. रञ्ज निय्यानं भविस्सतीति असुकदिवसे असुकनक्खत्तेन असुकस्स नाम रो निग्गमनं भविस्सतीति एवं राजूनं पवासगमनं ब्याकरोति । एस नयो सब्बत्थ । केवलं पनेत्थ अनिय्यानन्ति विप्पवुत्थानं पुन आगमनं । अन्भन्तरानं रझं उपयानं भविस्सति, बाहिरानं रक्षं अपयानन्ति अन्तोनगरे अम्हाकं राजा पटिविरुद्धं बहिराजानं उपसङ्कमिस्सति, ततो तस्स पटिक्कमनं भविस्सतीति एवं रञ्ज उपयानापयानं ब्याकरोति । दुतियपदेपि एसेव नयो । जयपराजया पाकटायेव । २४. चन्दग्गाहादयो असुकदिवसे राहु चन्दं गहेस्सतीति ब्याकरणवसेनेव वेदितब्बा । अपि च नक्खत्तस्स अङ्गारकादिगाहसमायोगोपि नक्खत्तगाहोयेव । उक्कापातोति आकासतो उक्कानं पतनं । दिसाडाहोति दिसाकालुसियं अग्गिसिखधूमसिखादीहि आकुलभावो विय | देवदुद्रभीति सुक्खवलाहकगज्जनं । उग्गमनन्ति उदयनं । ओक्कमनन्ति अस्थङ्गमनं । संकिलेसन्ति अविसुद्धता। वोदानन्ति विसुद्धता। एवं विपाकोति लोकस्स एवं विविधसुखदुक्खावहो । २५. सुबुट्टिकाति देवस्स सम्माधारानुप्पवेच्छनं। दुब्बुट्टिकाति अवग्गाहो, वस्सविबन्धोति वुत्तं होति । मुद्दाति हत्थमुद्दा | गणना वुच्चति अच्छिद्दकगणना । सङ्खानन्ति सङ्कलनसटुप्पादनादिवसेन पिण्डगणना । यस्स सा पगुणा होति, सो रुक्खम्पि दिस्वा एत्तकानि एत्थ पण्णानीति जानाति । कावेय्यन्ति “चत्तारोमे, भिक्खवे, कवी। कतमे चत्तारो ? चिन्ताकवि, सुतकवि, अत्थकवि, पटिभानकवी"ति (अ० नि० १.४.२३१) । इमेसं चतुन्नं कवीनं अत्तनो चिन्तावसेन वा; “वेस्सन्तरो नाम राजा अहोसी''तिआदीनि सुत्वा सुतवसेन वा; इमस्स अयं अत्थो, एवं तं योजेस्सामीति एवं अत्थवसेन वा; किञ्चिदेव दिस्वा तप्पटिभागं कत्तब्बं करिस्सामीति एवं ठानुप्पत्तिकपटिभानवसेन वा; जीविकत्थाय कब्यकरणं । लोकायतं वुत्तमेव । 84 Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१.२६-२७) महासीलवण्णना २६. आवाहनं नाम इमस्स दारकस्स असुककुलतो असुकनक्खत्तेन दारिकं आनेथाति आवाहकरणं । विवाहनन्ति इमं दारिकं असुकस्स नाम दारकस्स असुकनक्खत्तेन देथ, एवमस्सा वुड्डि भविस्सतीति विवाहकरणं । संवरणन्ति संवरणं नाम 'अज्ज नक्खत्तं सुन्दरं, अज्जेव समग्गा होथ, इति वो वियोगो न भविस्सती'ति एवं समग्गकरणं । विवरणं नाम 'सचे वियुज्जितुकामत्थ, अज्जेव वियुज्जथ, इति वो पुन संयोगो न भविस्सती'ति एवं विसंयोगकरणं। सङ्किरणन्ति 'उद्यानं वा इणं वा दिन्नं धनं अज्ज सङ्कटथ, अज्ज सङ्कड्डितहि तं थावरं होती'ति एवं धनपिण्डापनं । विकिरणन्ति ‘सचे पयोगउद्धारादिवसेन धनं पयोजितुकामत्थ, अज्ज पयोजितं दिगुणचतुग्गुणं होती'ति एवं धनपयोजापनं । सुभगकरणन्ति पियमनापकरणं वा सस्सिरीककरणं वा। दुब्भगकरणन्ति तबिपरीतं । विरुद्धगम्भकरणन्ति विरुद्धस्स विलीनस्स अद्वितस्स मतस्स गब्भस्स करणं । पुन अविनासाय भेसज्जदानन्ति अत्थो । गब्भो हि वातेन, पाणकेहि, कम्मुना चाति तीहि कारणेहि विनस्सति । तत्थ वातेन विनस्सन्ते निब्बापनीयं सीतलं भेसज्जं देति, पाणकेहि विनस्सन्ते पाणकानं पटिकम्मं करोति, कम्मुना विनस्सन्ते पन बुद्धापि पटिबाहितुं न सक्कोन्ति । जिव्हानिबन्धनन्ति मन्तेन जिव्हाय बन्धकरणं । हनुसंहननन्ति मुखबन्धमन्तेन यथा हनुकं चालेतुं न सक्कोन्ति, एवं बन्धकरणं । हत्थाभिजप्पनन्ति हत्थानं परिवत्तनत्थं मन्तजप्पनं । तस्मिं किर मन्ते सत्तपदन्तरे ठत्वा जप्पिते इतरो हत्थे परिवत्तेत्वा खिपति | कण्णजप्पनन्ति कण्णेहि सदं अस्सवनत्थाय विज्जाय जप्पनं । तं किर जप्पित्वा विनिच्छयट्ठाने यं इच्छति, तं भणति, पच्चत्थिको तं न सुणाति, ततो पटिवचनं सम्पादेतुं न सक्कोति | आदासपहन्ति आदासे देवतं ओतारेत्वा पञ्हपुच्छनं । कुमारिकपहन्ति कुमारिकाय सरीरे देवतं ओतारेत्वा पञ्हपुच्छनं । देवपञ्हन्ति दासिया सरीरे देवतं ओतारेत्वा पञ्हपुच्छनं । आदिच्चुपट्टानन्ति जीविकत्थाय आदिच्चपारिचरिया । महतुपट्ठानन्ति तथेव महाब्रह्मपारिचरिया । अन्भुज्जलनन्ति मन्तेन मुखतो अग्गिजालानीहरणं । सिरिव्हायनन्ति “एहि सिरि, मय्हं सिरे पतिट्ठाही''ति एवं सिरेन सिरिया अव्हायनं । २७. सन्तिकम्मन्ति देवट्ठानं गन्त्वा सचे मे इदं नाम समिज्झिस्सति, तुम्हाकं इमिना च इमिना च उपहारं करिस्सामीति समिद्धिकाले कत्तबं सन्तिपटिस्सवकम्मं । तस्मिं पन समिद्धे तस्स करणं पणिधिकम्मं नाम। भरिकम्मन्ति भरिघरे वसित्वा गहितमन्तस्स पयोगकरणं । वस्सकम्मं वोस्सकम्पन्ति एत्थ वस्सोति पुरिसो, वोस्सोति 85 Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गट्ठकथा (१.२८-२८) पण्डको । इति वोस्सस्स वस्सकरणं वस्सकम्मं, वस्सस्स वोस्सकरणं वोस्सकम्मं । तं पन करोन्तो अच्छन्दिकभावमत्तं पापेति, न लिङ्गं अन्तरधापेतुं सक्कोति । वत्थुकम्मन्ति अकतवत्थुस्मिं गेहपतिट्ठापनं। वत्थुपरिकम्पन्ति “इदञ्चिदञ्चाहरथा''ति वत्वा वत्थुबलिकम्मकरणं । आचमनन्ति उदकेन मुखसुद्धिकरणं । न्हापनन्ति अञ्जेसं न्हापनं । जुहनन्ति तेसं अत्थाय अग्गिजुहनं । वमनन्ति योगं दत्वा वमनकरणं । विरेचनेपि एसेव नयो । उद्धंविरेचनन्ति उद्धं दोसानं नीहरणं । अधोविरेचनन्ति अधो दोसानं नीहरणं । सीसविरेचनन्ति सिरोविरेचनं । कण्णतेलन्ति कण्णानं बन्धनत्थं वा वणहरणत्थं वा भेसज्जतेलपचनं । नेत्ततप्पनन्ति अक्खितप्पनतेलं । नत्थुकम्मन्ति तेलेन योजत्वा नत्थुकरणं । अञ्जनन्ति द्वे वा तीणि वा पटलानि नीहरणसमत्थं खारञ्जनं । पच्चजनन्ति निब्बापनीयं सीतलभेसज्जञ्जनं । सालाकियन्ति सलाकवेज्जकम्मं । सल्लकत्तियन्ति सल्लकत्तवेज्जकम्मं । दारकतिकिच्छा वुच्चति कोमारभच्चवेज्जकम्मं । मूलभेसज्जानं अनुप्पादनन्ति इमिना कायतिकिच्छनं दस्सेति । ओसधीनं पटिमोक्खोति खारादीनि दत्वा तदनुरूपे वणे गते तेसं अपनयनं । एत्तावता महासीलं निहितं होति । पुबन्तकप्पिकसस्सतवादवण्णना २८. एवं ब्रह्मदत्तेन वुत्तवण्णस्स अनुसन्धिवसेन तिविधं सीलं वित्थारेत्वा इदानि भिक्खुसङ्घन वृत्तवण्णस्स अनुसन्धिवसेन – “अत्थि, भिक्खवे, अ व धम्मा गम्भीरा दुद्दसा'"तिआदिना नयेन सुञतापकासनं आरभि । तत्थ धम्माति गुणे, देसनायं, परियत्तियं, निस्सत्तेति एवमादीसु धम्मसद्दो वत्तति । "न हि धम्मो अधम्मो च, उभो समविपाकिनो। अधम्मो निरयं नेति, धम्मो पापेति सुग्गति"न्ति ।। (थेरगा० ३०४) आदीसु हि गुणे धम्मसद्दो। “धम्मं, वो भिक्खवे, देसेस्सामि आदिकल्याण"न्तिआदीसु (म० नि० ३.४२०) देसनायं । "इध भिक्खु धम्म परियापुणाति 86 Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१.२८-२८) पूब्बन्तकोप्पेकसस्सतवादवण्णना ८७ सुत्तं, गेय्य"न्तिआदीसु (अ० नि० २.५.७३) परियत्तियं । “तस्मिं खो पन समये धम्मा होन्ति, खन्धा होन्ती''तिआदीसु (ध० स० १२१) निस्सत्ते । इध पन गुणे वत्तति । तस्मा अत्थि, भिक्खवे, अञ्चेव तथागतस्स गुणाति एवमेत्थ अत्थो दट्ठब्बो । गम्भीराति महासमुद्दो विय मकसतुण्डसूचिया अञत्र तथागता अञ्जेसं आणेन अलब्भनेय्यपतिठ्ठा, गम्भीरत्तायेव दुद्दसा। दुद्दसत्तायेव दुरनुबोधा। निब्बुतसब्बपरिळाहत्ता सन्ता, सन्तारम्मणेसु पवत्तनतोपि सन्ता । अतित्तिकरणद्वेन पणीता, सादुरसभोजनं विय । उत्तमञआणविसयत्ता न तक्केन अवचरितब्बाति अतक्कावचरा। निपुणाति सण्हसुखुमसभावत्ता । बालानं अविसयत्ता, पण्डितेहियेव वेदितब्बाति पण्डितवेदनीया। ये तथागतो सयं अभिज्ञा सच्छिकत्वा पवेदेतीति ये धम्मे तथागतो अनञ्जनेय्यो हुत्वा सयमेव अभिविसिटेन आणेन पच्चक्खं कत्वा पवेदेति, दीपेति, कथेति, पकासेतीति अत्थो । येहीति येहि गुणधम्मेहि | यथाभुच्चन्ति यथाभूतं । वणं सम्मा वदमाना वदेय्युन्ति तथागतस्स वण्णं वत्तुकामा सम्मा वदेय्युं, अहापेत्वा वत्तुं सक्कुणेय्युन्ति अत्थो । कतमे च पन ते धम्मा भगवता एवं थोमिताति ? सब्ब ताणं । यदि एवं, कस्मा बहुवचननिद्देसो कतोति ? पुथुचित्तसमायोगतो चेव, पुथुआरम्मणतो च। तहि चतूसु जाणसम्पयुत्तमहाकिरियचित्तेसु लब्भति, न चस्स कोचि धम्मो आरम्मणं नाम न होति । यथाह - “अतीतं सब्बं जानातीति सब्ब तज्ञाणं, तत्थ आवरणं नत्थीति अनावरणञाण'"न्तिआदि (पटि० म० १.१२०)। इति पुथुचित्तसमायोगतो पुनप्पुनं उप्पत्तिवसेन पुथुआरम्मणतो च बहुवचननिद्देसो कतोति । "अञवा"ति इदं पनेत्थ ववत्थापनवचनं, “अञ्चेव, न पाणातिपाता वेरमणिआदयो । गम्भीराव न उत्ताना''ति एवं सब्बपदेहि योजेतब्बं । सावकपारमीजाणञ्हि गम्भीरं, पच्चेकबोधिञाणं पन ततो गम्भीरतरन्ति तत्थ ववत्थानं नत्थि, सब्ब ताणञ्च ततोपि गम्भीरतरन्ति तत्थापि ववत्थानं नत्थि, इतो पनङ गम्भीरतरं नत्थि; तस्मा गम्भीरा वाति ववत्थानं लब्भति । तथा दुद्दसाव दुरनुबोधा वाति सब्बं वेदितब्बं | कतमे च ते भिक्खवेति अयं पन तेसं धम्मानं कथेतुकम्यता पुच्छा। सन्ति, भिक्खवे, एके समणब्राह्मणातिआदि पुच्छाविस्सज्जनं । कस्मा पनेतं एवं आरद्धन्ति चे ? बुद्धानहि चत्तारि ठानानि पत्वा गज्जितं महन्तं होति, आणं अनुपविसति, बुद्धञाणस्स Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८८ दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गट्ठकथा (१.२८-२८) महन्तभावो पञ्जायति, देसना गम्भीरा होति, तिलक्खणाहता, सुञतापटिसंयुत्ता । कतमानि चत्तारि? विनयपत्तिं , भूमन्तरं, पच्चयाकारं, समयन्तरन्ति । तस्मा- "इदं लहुकं, इदं गरुकं, इदं सतेकिच्छं, इदं अतेकिच्छं, अयं आपत्ति, अयं अनापत्ति, अयं छेज्जगामिनी, अयं वुढानगामिनी, अयं देसनागामिनी, अयं लोकवज्जा, अयं पण्णत्तिवज्जा, इमस्मिं वत्थुस्मिं इदं पञपेतब्ब"न्ति यं एवं ओतिण्णे वत्थुस्मिं सिक्खापदपञापनं नाम, तत्थ अजेसं थामो वा बलं वा नत्थि; अविसयो एस अञ्जसं, तथागतस्सेव विसयो । इति विनयपत्तिं पत्वा बुद्धानं गज्जितं महन्तं होति, आणं अनुपविसति...पे०... सुञतापटिसंयुत्ताति ।। तथा इमे चत्तारो सतिपट्टाना नाम...पे०... अरियो अट्ठङ्गिको मग्गो नाम, पञ्च खन्धा नाम. द्वादस आयतनानि नाम. अवारस धातयो नाम. चत्तारि अरियसच्चानि नाम. बावीसतिन्द्रियानि नाम, नव हेतू नाम, चत्तारो आहारा नाम, सत्त फस्सा नाम, सत्त वेदना नाम, सत्त सञा नाम, सत्त चेतना नाम, सत्त चित्तानि नाम । एतेसु एत्तका कामावचरा धम्मा नाम, एत्तका रूपावचरअरूपावचरपरियापन्ना धम्मा नाम, एत्तका लोकिया धम्मा नाम, एत्तका लोकुत्तरा धम्मा नामाति चतुवीसतिसमन्तपट्टानं अनन्तनयं अभिधम्मपिटकं विभजित्वा कथेतुं अजेसं थामो वा बलं वा नत्थि, अविसयो एस अनेसं, तथागतस्सेव विसयो । इति भूमन्तरपरिच्छेदं पत्वा बुद्धानं गज्जितं महन्तं होति, आणं अनुपविसति...पे०... सुञतापटिसंयुत्ताति । ___ तथा अयं अविज्जा सङ्खारानं नवहाकारेहि पच्चयो होति, उप्पादो हुत्वा पच्चयो होति, पवत्तं हुत्वा, निमित्तं, आयूहनं, संयोगो, पलिबोधो, समुदयो, हेतु, पच्चयो हुत्वा पच्चयो होति, तथा सङ्घारादयो विज्ञाणादीनं । यथाह - "कथं पच्चयपरिग्गहे पञ्जा धम्मट्टितिञाणं ? अविज्जा सङ्घारानं उप्पादट्ठिति च पवत्तट्ठिति च, निमित्तट्ठिति च, आयूहनट्ठिति च, संयोगट्ठिति च, पलिबोधट्ठिति च, समुदयट्ठिति च, हेतुट्ठिति च, पच्चयट्ठिति च, इमेहि नवहाकारेहि अविज्जा पच्चयो, सङ्घारा पच्चयसमुप्पन्ना, उभोपेते धम्मा पच्चयसमुप्पन्नाति पच्चयपरिग्गहे पञा धम्मट्ठितिजाणं । अतीतम्पि अद्धानं, अनागतम्पि अद्धानं अविज्जा सङ्घारानं उप्पादट्ठिति च...पे०... जाति जरामरणस्स उप्पादट्ठिति च...पे०... पच्चयट्ठिति च, इमेहि नवहाकारेहि जाति पच्चयो, जरामरणं पच्चयसमुप्पन्नं, उभोपेते धम्मा पच्चयसमुप्पन्नाति पच्चयपरिग्गहे पञा धम्मट्ठितिआण"न्ति (पटि० म० १.४५) । एवमिमं तस्स तस्स धम्मस्स तथा तथा पच्चयभावेन पवत्तं तिवटै 88 Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुब्बन्तकप्पिकसस्सतवादवण्णना तियद्धं तिसन्धिं चतुसङ्क्षेपं वीसताकारं पटिच्चसमुप्पादं विभजित्वा कथेतुं असं थामो वा बलं वा नत्थि, अविसयो एस असं, तथागतस्सेव विसयो, इति पच्चयाकारं पत्वा बुद्धानं गज्जितं महन्तं होति, ञाणं अनुपविसति...पे०... सुञ्ञतापटिसंयुत्ताति । (१.२९-२९) तथा चत्तारो जना सस्सतवादा नाम, चत्तारी एकच्चसस्सतवादा, चत्तारो अन्तानन्तिका, चत्तारो अमराविक्खेपिका, द्वे अधिच्चसमुप्पन्निका, सोळस सञ्ञीवादा, अट्ठ असञ्ञीवादा, अट्ठ नेवसञ्जीनासञीवादा, सत्त उच्छेदवादा, पञ्च दिट्ठधम्मनिब्बानवादा नाम । ते इदं निस्साय इदं गण्हन्तीति द्वासट्ठि दिट्ठिगतानि भिन्दित्वा निज्जटं निग्गुम्बं कत्वा कथेतुं अञ्ञेसं थामो वा बलं वा नत्थि, अविसयो एस असं, तथागतस्सेव विसयो । इति समयन्तरं पत्वा बुद्धानं गज्जितं महन्तं होति, ञाणं अनुपविसति, बुद्धञाणस्स महन्तता पञ्ञायति, देसना गम्भीरा होति, तिलक्खणाहता, सुञ्ञतापटिसंयुत्ताति । इमस्मिं पन ठाने समयन्तरं लब्भति, तस्मा सब्बञ्जतञ्ञाणस्स महन्तभावदस्त्थं देसनाय च सुञ्ञतापकासनविभावनत्थं समयन्तरं अनुपविसन्तो धम्मराजा – “सन्ति, भिक्खवे, एके समणब्राह्मणा " ति एवं पुच्छाविस्सज्जनं आरभि । ८९ २९. तत्थ सन्तीति अत्थि संविज्जन्ति उपलब्भन्ति । भिक्खवेति आलपनवचनं । एकेति एकच्चे । समणब्राह्मणाति पब्बज्जूपगतभावेन समणा, जातिया ब्राह्मणा । लोकेन वा समणाति च ब्राह्मणाति च एवं सम्मता । पुब्बन्तं कप्पेत्वा विकप्पेत्वा गण्हन्तीति पुब्बन्तकप्पिका । पुब्बन्तकप्पो वा एतेसं अत्थीति पुब्बन्तकप्पिका । तत्थ अन्तोति अयं सद्दो अन्तअब्भन्तरमरियादलामकपरभागकोट्ठासेसु दिस्सति । “अन्तपूरो उदरपूरो "तिआदी हि अन्ते अन्तसद्दो । “चरन्ति लोके परिवारछन्ना अन्तो असुद्धा बहि सोभमाना 'तिआदी सु (सं० नि० १.१.१२२) अब्भन्तरे । “कायबन्धनस्स अन्तो जीरति ( चूळव० २७८ ) । " सा हरितन्तं वा पन्थन्तं वा सेलन्तं वा उदकन्तं वा तिआदीसु (म० नि० १.३०४) मरियादायं । “अन्तमिदं, भिक्खवे, जीविकानं यदिदं पिण्डोल्य"न्तिआदीसु (सं० नि० २.३.८०) लामके । “एसेवन्तो दुक्खस्सा 'तिआदीसु (सं० नि० १.२.५१) परभागे । सब्बपच्चयसङ्घयो हि दुक्खस्स परभागो कोटीति वुच्चति । “ सक्कायो खो, आवुसो, एको अन्तोतिआदीसु (अ० नि० २.६.६१) कोट्ठासे । स्वायं इधापि कोट्ठासे वत्तति । 89 Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गट्ठकथा (१.३०-३१) __कप्पसदोपि- “तिद्वतु, भन्ते भगवा कप्पं" (दी० नि० २.१६७), "अस्थि कप्पो निपज्जितुं' (अ० नि० ३.८.८०), "कप्पकतेन अकप्पकतं संसिब्बितं होती''ति, (पाचि० ३७१) एवं आयुकप्पलेसकप्पविनयकप्पादीसु सम्बहुलेसु अत्थेसु वत्तति । इध तण्हादिट्ठीसु वत्ततीति वेदितब्बो । वुत्तम्पि चेतं - "कप्पाति द्वे कप्पा, तण्हाकप्पो च दिट्ठिकप्पो चा''ति (महानि० २८)। तस्मा तण्हादिट्ठिवसेन अतीतं खन्धकोट्ठासं कप्पेत्वा पकप्पेत्वा ठिताति पुब्बन्तकप्पिकाति एवमेत्थ अत्थो वेदितब्बो । तेसं एवं पुब्बन्तं कप्पेत्वा ठितानं पुनप्पुनं उप्पज्जनवसेन पुब्बन्तमेव अनुगता दिट्ठीति पुब्बन्तानुदिविनो। ते एवंदिट्ठिनो तं पुब्बन्तं आरब्भ आगम्म पटिच्च अञम्पि जनं दिट्ठिगतिकं करोन्ता अनेकविहितानि अधिमुत्तिपदानि अभिवदन्ति अट्ठारसहि वत्थूहि । तत्थ अनेकविहितानीति अनेकविधानि । अधिमुत्तिपदानीति अधिवचनपदानि । अथ वा भूतं अत्थं अभिभवित्वा यथासभावतो अग्गहेत्वा पवत्तनतो अधिमुत्तियोति दिट्ठियो वुच्चन्ति । अधिमुत्तीनं पदानि अधिमुत्तिपदानि, दिट्ठिदीपकानि वचनानीति अत्थो । अद्वारसहि वत्थूहीति अट्ठारसहि कारणेहि । ३०. इदानि येहि अट्ठारसहि वत्थूहि अभिवदन्ति, तेसं कथेतुकम्यताय पुच्छाय “ते च खो भोन्तो'"तिआदिना नयेन प्रच्छित्वा तानि वत्थूनि विभजित्वा दस्सेतुं "सन्ति, भिक्खवे"तिआदिमाह । तत्थ वदन्ति एतेनाति वादो, दिविगतस्सेतं अधिवचनं । सस्सतो वादो एतेसन्ति सस्सतवादा, सस्सतदिट्ठिनोति अत्थो । एतेनेव नयेन इतो परेसम्पि एवरूपानं पदानं अत्थो वेदितब्बो । सस्सतं अत्तानञ्च लोकञ्चाति रूपादीसु अञतरं अत्ताति च लोकोति च गहेत्वा तं सस्सतं अमरं निच्चं धुवं पञपेन्ति । यथाह – “रूपं अत्ता चेव लोको च सस्सतो चाति अत्तानञ्च लोकञ्च पञपेन्ति तथा वेदनं, सञ्ज, सङ्गारे. विज्ञआणं अत्ता चेव लोको च सस्सतो चाति अत्तानञ्च लोकञ्च पझपेन्तीति । ३१. आतप्पमन्वायातिआदीसु वीरियं किलेसानं आतापनभावेन आतप्पन्ति वुत्तं । तदेव पदहनवसेन पधानं । पुनप्पुनं युत्तवसेन अनुयोगोति । एवं तिप्पभेदं वीरियं अन्वाय आगम्म पटिच्चाति अत्थो । अप्पमादो वुच्चति सतिया अविप्पवासो । सम्मा मनसिकारोति उपायमनसिकारो, पथमनसिकारो, अत्थतो आणन्ति वुत्तं होति । यस्मिहि मनसिकारे ठितस्स पुब्बेनिवासानुस्सति आणं इज्झति, अयं इमस्मिं ठाने मनसिकारोति अधिप्पेतो । तस्मा वीरियञ्च सतिञ्च जाणञ्च आगम्माति अयमेत्थ सोपत्थो । तथारूपन्ति तथाजातिकं । 90 Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१.३१-३१) पुब्बन्तकप्पिकसस्सतवादवण्णना चेतोसमाधिन्ति चित्तसमाधिं । फुसतीति विन्दति पटिलभति । यथा समाहिते चित्तेति येन समाधिना सम्मा आहिते सुटु ठपिते चित्तम्हि अनेकविहितं पुब्बेनिवासन्तिआदीनं अत्थो विसुद्धिमग्गे वुत्तो। सो एवमाहाति सो एवं झानानुभावसम्पन्नो हुत्वा दिट्ठिगतिको एवं वदति । वझोति वझपसुवझतालादयो विय अफलो कस्सचि अजनकोति। एतेन “अत्ता"ति च "लोको'"ति च गहितानं झानादीनं रूपादिजनकभावं पटिक्खिपति । पब्बतकटं विय ठितोति कूटट्ठो। एसिकट्ठायिद्वितोति एसिकट्ठायी विय हुत्वा ठितोति एसिकट्ठायिद्वितो | यथा सुनिखातो एसिकत्थम्भो निच्चलो तिठ्ठति, एवं ठितोति अत्थो। उभयेनपि लोकस्स विनासाभावं दीपेति । केचि पन ईसिकट्ठायिद्वितोति पाळिं वत्वा मुजे ईसिका विय ठितोति वदन्ति । तत्रायमधिप्पायो - यदिदं जायतीति वुच्चति, तं मुजतो ईसिका विय विज्जमानमेव निक्खमति । यस्मा च ईसिकट्ठायिट्टितो, तस्मा तेव सत्ता सन्धावन्ति, इतो अञत्थ गच्छन्तीति अत्थो । संसरन्तीति अपरापरं सञ्चरन्ति । चवन्तीति एवं सङ्ख्यं गच्छन्ति । तथा उपपज्जन्तीति । अट्ठकथायं पन पुब्बे “सस्सतो अत्ता च लोको चा"ति वत्वा इदानि ते च सत्ता सन्धावन्तीतिआदिना वचनेन अयं दिट्ठिगतिको अत्तनायेव अत्तनो वादं. भिन्दति, दिट्ठिगतिकस्स दस्सनं नाम न निबद्धं, थुसरासिम्हि निखातखाणु विय चञ्चलं, उम्मत्तकपच्छियं पूवखण्डगूथगोमयादीनि विय चेत्थ सुन्दरम्पि असुन्दरम्पि होति येवाति वुत्तं । अत्थित्वेव सस्सतिसमन्ति एत्थ सस्सतीति निच्चं विज्जमानताय महापथविंव मञ्जति, तथा सिनेरुपब्बतचन्दिमसूरिये। ततो तेहि समं अत्तानं मञमाना अस्थि त्वेव सस्सतिसमन्ति वदन्ति । इदानि सस्सतो अत्ता च लोको चातिआदिकाय पटिञाय साधनत्थं हेतुं दस्सेन्तो "तं किस्स हेतु ? अहम्हि आतप्पमन्वाया"तिआदिमाह । तत्थ इमिनामहं एतं जानामीति इमिना विसेसाधिगमेन अहं एतं पच्चक्खतो जानामि, न केवलं सद्धामत्तकेनेव वदामीति दस्सेति, मकारो पनेत्थ पदसन्धिकरणत्थं वुत्तो। इदं, भिक्खवे, पठमं ठानन्ति चतूहि वत्थूहीति वत्थुसद्देन वुत्तेसु चतूसु ठानेसु इदं पठमं ठानं, इदं जातिसतसहस्समत्तानुस्सरणं पठमं कारणन्ति अत्थो । 91 Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गट्ठकथा (१.३२-३३-३६) ३२-३३. उपरि वारद्वयेपि एसेव नयो। केवलहि अयं वारो अनेकजातिसतसहस्सानुस्सरणवसेन वुत्तो। इतरे दसचत्तालीससंवट्टविवट्टकप्पानुस्सरणवसेन | मन्दपओ हि तित्थियो अनेकजातिसतसहस्समत्तं अनुस्सरति, मज्झिमपञो दससंवट्टविवट्टकप्पानि, तिक्खपञो चत्तालीसं, न ततो उद्धं । ३४. चतुत्थवारे तक्कयतीति तक्की, तक्को वा अस्स अत्थीति तक्की। तक्केत्वा वितक्केत्वा दिट्ठिगाहिनो एतं अधिवचनं । वीमंसाय समन्नागतोति वीमंसी। वीमंसा नाम तुलना रुच्चना खमना । यथा हि पुरिसो यट्ठिया उदकं वीमंसित्वा ओतरति, एवमेव यो तुलयित्वा रुच्चित्वा खमापेत्वा दिहिँ गण्हाति, सो “वीमंसी"ति वेदितब्बो । तक्कपरियाहतन्ति तक्केन परियाहतं, तेन तेन परियायेन तक्केत्वाति अत्थो । वीमंसानचरितन्ति ताय वत्तप्पकाराय वीमंसाय अनचरितं। सयंपटिभानन्ति अत्तनो पटिभानमत्तसञ्जातं । एवमाहाति सस्सतदिढेि गहेत्वा एवं वदति । तत्थ चतुब्बिधो तक्की - अनुस्सुतिको, जातिस्सरो, लाभी, सुद्धतक्किकोति । तत्थ यो “वेस्सन्तरो नाम राजा अहोसी"तिआदीनि सुत्वा "तेन हि यदि वेस्सन्तरोव भगवा, सस्सतो अत्ता"ति तक्कयन्तो दिदि गण्हाति. अयं अनस्सतिको नाम | द्वे तिस्सो जातियो सरित्वा - "अहमेव पूब्बे असूकस्मिं नाम अहोसि, तस्मा सस्सतो अत्ता'ति तक्कयन्तो जातिस्सरतक्किको नाम । यो पन लाभिताय “यथा मे इदानि अत्ता सुखी होति, अतीतेपि एवं अहोसि, अनागतेपि भविस्सती"ति तक्कयित्वा दिहिँ गण्हाति, अयं लाभीतक्किको नाम । “एवं सति इदं होती''ति तक्कमत्तेनेव गण्हन्तो पन सुद्धतक्किको नाम । ___३५. एतेसं वा अञतरेनाति एतेसंयेव चतुन्नं वत्थूनं अञ्जतरेन एकेन वा द्वीहि वा तीहि वा। नत्थि इतो बहिद्धाति इमेहि पन वत्थूहि बहि अखं एकं कारणम्पि सस्सतपञत्तिया नत्थीति अप्पटिवत्तियं सीहनादं नदति । ३६. तयिदं, भिक्खवे, तथागतो पजानातीति भिक्खवे, तं इदं चतुब्बिधम्पि दिट्ठिगतं तथागतो नानप्पकारतो जानाति । ततो तं पजाननाकारं दस्सेन्तो इमे दिद्विद्वानातिआदिमाह । तत्थ दिट्ठियोव दिद्विवाना नाम । अपि च दिट्ठीनं कारणम्पि दिट्ठिट्ठानमेव । यथाह “कतमानि अट्ठ दिट्ठिट्ठानानि ? खन्धापि दिट्ठिट्ठानं, अविज्जापि, Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१.३६-३६) पुब्बन्तकप्पिकसस्सतवादवण्णना फस्सोपि, सापि, वितक्कोपि, अयोनिसोमनसिकारोपि, पापमित्तोपि, परतोघोसोपि दिट्टिवान''न्ति । “खन्धा हेतु, खन्धा पच्चयो दिट्ठिट्टानं उपादाय समुट्ठानटेन, एवं खन्धापि दिट्ठिट्टानं । अविज्जा हेतु...पे०... पापमित्तो हेतु । परतोघोसो हेतु, परतोघोसो पच्चयो दिट्ठिट्टानं उपादाय समुट्ठानटेन, एवं परतोघोसोपि दिट्ठिट्ठान"न्ति (पटि० म० १.१२४) । एवंगहिताति दिविसङ्खाता ताव दिठ्ठिट्टाना - "सस्सतो अत्ता च लोको चा"ति एवंगहिता आदिन्ना, पवत्तिताति अत्थो । एवंपरामट्ठाति निरासङ्कचित्तताय पुनप्पुनं आमट्ठा परामट्ठा, 'इदमेव सच्चं, मोघमञ'न्ति परिनिट्ठापिता । कारणसङ्खाता पन दिट्ठिट्ठाना यथा गव्हमाना दिट्ठियो समुट्ठापेन्ति, एवं आरम्मणवसेन च पवत्तनवसेन च आसेवनवसेन च गहिता । अनादीनवदस्सिताय पुनप्पुनं गहणवसेन परामट्ठा। एवंगतिकाति एवं निरयतिरच्छानपेत्तिविसयगतिकानं अञतरगतिका । एवं अभिसम्परायाति इदं पुरिमपदस्सेव वेवचनं, एवंविधपरलोकाति वुत्तं होति । तञ्च तथागतो पजानातीति न केवलञ्च तथागतो सकारणं सगतिकं दिट्ठिगतमेव पजानाति, अथ खो तञ्च सब्बं पजानाति, ततो च उत्तरितरं सीलञ्चेव समाधिञ्च सब्ब ताणञ्च पजानाति । तञ्च पजाननं न परामसतीति तञ्च एवंविधं अनुत्तरं विसेसं पजानन्तोपि अहं पजानामीति तण्हादिट्ठिमानपरामासवसेन तञ्च न परामसति । अपरामसतो चस्स पच्चत्त व निब्बुति विदिताति एवं अपरामसतो चस्स अपरामासपच्चया सयमेव अत्तनायेव तेसं परामासकिलेसानं निब्बुति विदिता । पाकटं, भिक्खवे, तथागतस्स निब्बानन्ति दस्सेति। इदानि यथापटिपन्नेन तथागतेन सा निब्बुति अधिगता, तं पटिपत्तिं दस्सेतुं यासु वेदनासु रत्ता तित्थिया "इध सुखिनो भविस्साम, एत्थ सुखिनो भविस्सामा''ति दिट्ठिगहनं पविसन्ति, तासंयेव वेदनानं वसेन कम्मट्ठानं आचिक्खन्तो वेदनानं समुदयञ्चातिआदिमाह । तत्थ यथाभूतं विदित्वाति “अविज्जासमुदया वेदनासमुदयोति पच्चयसमुदयटेन वेदनाक्खन्धस्स उदयं पस्सति, तण्हासमुदया वेदनासमुदयोति पच्चयसमुदयटेन वेदनाक्खन्धस्स उदयं पस्सति, कम्मसमुदया वेदनासमुदयोति पच्चयसमुदयटेन वेदनाक्खन्धस्स उदयं पस्सति, फस्ससमुदया वेदनासमुदयोति पच्चयसमुदयटेन वेदनाक्खन्धस्स उदयं पस्सति (पटि० म० १.५०)। निब्बत्तिलक्खणं पस्सन्तोपि वेदनाक्खन्धस्स उदयं पस्सती"ति इमेसं पञ्चन्नं लक्खणानं वसेन वेदनानं समुदयं यथाभूतं विदित्वा; "अविज्जानिरोधा वेदनानिरोधोति पच्चयनिरोधटेन वेदनाक्खन्धस्स वयं पस्सति, 93 Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९४ दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गट्ठकथा (१.३७-३९) तण्हानिरोधा वेदनानिरोधोति पच्चयनिरोधटेन वेदनाक्खन्धस्स वयं पस्सति, कम्मनिरोधा वेदनानिरोधोति पच्चयनिरोधटेन वेदनाक्खन्धस्स वयं पस्सति, फस्सनिरोधा वेदनानिरोधोति पच्चयनिरोधटेन वेदनाक्खन्धस्स वयं पस्सति । विपरिणामलक्खणं पस्सन्तोपि वेदनाक्खन्धस्स वयं पस्सती''ति (पटि० म० १.५०) इमेसं पञ्चन्नं लक्खणानं वसेन वेदनानं अत्थङ्गमं यथाभूतं विदित्वा, “यं वेदनं पटिच्च उप्पज्जति सुखं सोमनस्सं, अयं वेदनाय अस्सादो''ति (सं० नि० २.३.२६) एवं अस्सादञ्च यथाभूतं विदित्वा, “यं वेदना अनिच्चा दुक्खा विपरिणामधम्मा, अयं वेदनाय आदीनवो"ति एवं आदीनवञ्च यथाभूतं विदित्वा, “यो वेदनाय छन्दरागविनयो छन्दरागप्पहानं, इदं वेदनाय निस्सरण"न्ति एवं निस्सरणञ्च यथाभूतं विदित्वा विगतछन्दरागताय अनुपादानो अनुपादाविमुत्तो, भिक्खवे, तथागतो; यस्मिं उपादाने सति किञ्चि उपादियेय्य, उपादिन्नत्ता च खन्धो भवेय्य, तस्स अभावा किञ्चि धम्मं अनुपादियित्वाव विमुत्तो भिक्खवे तथागतोति । ___३७. इमे खो ते, भिक्खवेति ये ते अहं - “कतमे, च ते, भिक्खवे, धम्मा गम्भीरा''ति अपुच्छिं, “इमे खो ते, भिक्खवे, तञ्च तथागतो पजानाति ततो च उत्तरितरं पजानाती''ति एवं निद्दिट्ठा सब्ब ताणधम्मा गम्भीरा दुद्दसा...पे०... पण्डितवेदनीयाति वेदितब्बा। येहि तथागतस्स नेव पुथुज्जनो, न सोतापन्नादीसु अञतरो वण्णं यथाभूतं वत्तुं सक्कोति, अथ खो तथागतोव यथाभूतं वण्णं सम्मा वदमानो वदेय्याति एवं पुच्छमानेनापि सब्ब ताणमेव पुटुं, निय्यातेन्तेनापि तदेव निय्यातितं, अन्तरा पन दिट्ठियो विभत्ताति।। पठमभाणवारवण्णना निविता । एकच्चसस्सतवादवण्णना होन्ति - ३८. एकच्चसस्सतिकाति एकच्चसस्सतवादा। ते दुविधा सत्तेकच्चसस्सतिका, सङ्खारेकच्चसस्सतिकाति । दुविधापि इध गहितायेव । ३९. यन्ति निपातमत्तं । कदाचीति किस्मिञ्चि काले । करहचीति तस्सेव वेवचनं । 94 Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१.४०-४१) एकच्चसस्सतवादवण्णना दीघस्स अद्भुनोति दीघस्स कालस्स। अच्चयेनाति अतिक्कमेन । संवदृतीति विनस्सति । येभुय्येनाति ये उपरिब्रह्मलोकेसु वा अरूपेसु वा निब्बत्तन्ति, तदवसेसे सन्धाय वुत्तं । झानमनेन निब्बत्तत्ता मनोमया। पीति तेसं भक्खो आहारोति पीतिभक्खा। अत्तनोव तेसं पभाति सयंपभा। अन्तलिक्खे चरन्तीति अन्तलिक्खचरा। सुभेसु उय्यानविमानकप्परुक्खादीसु तिठ्ठन्तीति, सुभट्ठायिनो सुभा वा मनोरम्मवत्थाभरणा हुत्वा तिद्वन्तीति सुभट्टायिनो। चिरं दीघमद्धानन्ति उक्कंसेन अट्ठ कप्पे । ४०. विवट्टतीति सण्ठाति । सुझं ब्रह्मविमानन्ति पकतिया निब्बत्तसत्तानं नत्थिताय सुनं, ब्रह्मकायिकभूमि निब्बत्ततीति अत्थो । तस्स कत्ता वा कारेता वा नत्थि, विसुद्धिमग्गे वुत्तनयेन पन कम्मपच्चयउतुसमुट्ठाना रतनभूमि निब्बत्तति । पकतिनिब्बत्तिट्ठानेसुयेव चेत्थ उय्यानकप्परुक्खादयो निब्बत्तन्ति । अथ सत्तानं पकतिया वसितठ्ठाने निकन्ति उप्पज्जति, ते पठमज्झानं भावेत्वा ततो ओतरन्ति, तस्मा अथ खो अञतरो सत्तोतिआदिमाह । आयुक्खया वा पुञ्जक्खया वाति ये उळारं पुञकम्मं कत्वा यत्थ कत्थचि अप्पायुके देवलोके निब्बत्तन्ति, ते अत्तनो पुञ्जबलेन ठातुं न सक्कोन्ति, तस्स पन देवलोकस्स आयुप्पमाणेनेव चवन्तीति आयुक्खया चवन्तीति वुच्चन्ति । ये पन परित्तं पुञकम्म कत्वा दीघायुकदेवलोके निब्बत्तन्ति, ते यावतायुकं ठातुं न सक्कोन्ति, अन्तराव चवन्तीति पुञक्खया चवन्तीति वुच्चन्ति । दीघमद्धानं तिद्वतीति कप्पं वा उपड्डकप्पं वा । ४१. अनभिरतीति अपरस्सापि सत्तस्स आगमनपत्थना । या पन पटिघसम्पयुत्ता उक्कण्ठिता, सा ब्रह्मलोके नत्थि । परितस्सनाति उब्बिज्जना फन्दना, सा पनेसा तासतस्सना, तण्हातस्सना, दिद्वितस्सना, आणतस्सनाति चतुब्बिधा होति । तत्थ “जातिं पटिच्च भयं भयानकं छम्भितत्तं लोमहंसो चेतसो उत्रासो । जरं... ब्याधिं... मरणं पटिच्च...पे०... उत्रासो'"ति (विभं० ९२१) अयं तासतस्सना नाम । “अहो वत अञपि सत्ता इत्थत्तं आगच्छेय्यु"न्ति (दी० नि० ३.३८) अयं तण्हातस्सना नाम । “परितस्सितविप्फन्दितमेवा''ति अयं दिद्वितस्सना नाम । “तेपि तथागतस्स धम्मदेसनं सुत्वा येभुय्येन भयं संवेगं सन्तासं आपज्जन्ती"ति (अ० नि० १.४.३३) अयं आणतस्सना नाम । इध पन तण्हातस्सनापि दिट्टितस्सनापि वट्टति । ब्रह्मविमानन्ति इध पन पठमाभिनिब्बत्तस्स अत्थिताय सुचन्ति न वुत्तं । उपपज्जन्तीति उपपत्तिवसेन उपगच्छन्ति । सहब्यतन्ति सहभावं । 95 Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गट्ठकथा (१.४२-४४) ४२. अभिभूति अभिभवित्वा ठितो जेट्ठकोहमस्मीति । अनभिभूतोति अछेहि अनभिभूतो। अञदत्थूति एकंसवचने निपातो। दस्सनवसेन दसो, सब्बं पस्सामीति अत्थो । वसवत्तीति सब्बं जनं वसे वत्तेमि । इस्सरो कत्ता निम्माताति अहं लोके इस्सरो, अहं लोकस्स कत्ता च निम्माता च, पथवी- हिमवन्त-सिनेरु-चक्कवाळ-महासमुद्द-चन्दिमसूरिया मया निम्मिताति । सेट्ठो सजिताति अहं लोकस्स उत्तमो च सजिता च, “त्वं खत्तियो नाम होहि, त्वं ब्राह्मणो, वेस्सो, सुद्दो, गहट्ठो, पब्बजितो नाम । अन्तमसो त्वं ओट्ठो होहि, गोणो होही''ति “एवं सत्तानं संविसजेता अह''न्ति मञ्जति । वसी पिता भूतभब्यानन्ति (दी० नि० १.१७) अहमस्मि चिण्णवसिताय वसी, अहं पिता भूतानञ्च भब्यानञ्चाति मञति । तत्थ अण्डजजलाबुजा सत्ता अन्तोअण्डकोसे व अन्तोवत्थिम्हि च भव्या नाम, बहि निक्खन्तकालतो पट्ठाय भूता नाम । संसेदजा पठमचित्तक्खणे भव्या, दुतियतो पट्ठाय भूता। ओपपातिका पठमइरियापथे भव्या, दुतियतो पट्ठाय भूताति वेदितब्बा । ते सब्बेपि मम्हं पुत्ताति सञ्जाय “अहं पिता भूतभब्यान"न्ति मञति । इदानि कारणतो साधेतुकामो - "मया इमे सत्ता निम्मिता"ति पटिनं कत्वा "तं किस्स हेतू"तिआदिमाह । इत्थत्तन्ति इत्थभावं, ब्रह्मभावन्ति अत्थो । इमिना मयन्ति अत्तनो कम्मवसेन चुतापि उपपन्नापि च केवलं मचनामत्तेनेव “इमिना मयं निम्मिता''ति मञमाना वङ्कच्छिद्दे वङ्कआणी विय ओनमित्वा तस्सेव पादमूलं गच्छन्तीति । ४३. वण्णवन्ततरो चाति वण्णवन्ततरो, अभिरूपो पासादिकोति अत्थो । महेसक्खतरोति इस्सरियपरिवारवसेन महायसतरो । ४४. ठानं खो पनेतन्ति कारणं खो पनेतं । सो ततो चवित्वा अझत्र न गच्छति, इधेव आगच्छति, तं सन्धायेतं वुत्तं । अगारस्माति गेहा । अनगारियन्ति पब्बज्जं । पब्बज्जा हि यस्मा अगारस्स हि तं कसिगोरक्खादिकम्मं तत्थ नत्थि, तस्मा अनगारियन्ति वुच्चति । पब्बजतीति उपगच्छति । ततो परं नानुस्सरतीति ततो पुब्बेनिवासा परं न सरति, सरितुं असक्कोन्तो तत्थ ठत्वा दिष्टुिं गण्हाति । निच्चोतिआदीसु तस्स उपपत्तिं अपस्सन्तो निच्चोति वदति, मरणं अपस्सन्तो धुवोति, सदाभावतो सस्सतोति, जरावसेनापि विपरिणामस्स अभावतो अविपरिणामधम्मोति । सेसमेत्थ पठमवारे उत्तानमेवाति । 96 Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१.४५-४६-४७-४८) एकच्चसस्सतवादवण्णना ९७ ४५-४६. दुतियवारे खिड्डाय पदुस्सन्ति विनस्सन्तीति खिड्डापदोसिका, पदूसिकातिपि पाळिं लिखन्ति, सा अट्ठकथायं नत्थि | अतिवेलन्ति अतिकालं, अतिचिरन्ति अत्थो । हस्सखिड्डारतिधम्मसमापनाति हस्सरति धम्मञ्चेव खिड्डारतिधम्मञ्च समापन्ना अनुयुत्ता, केळिहस्ससुखञ्चेव कायिकवाचसिककीळासुखञ्च अनुयुत्ता, वुत्तप्पकाररतिधम्मसमङ्गिनो हुत्वा विहरन्तीति अत्थो। सति सम्मुस्सतीति खादनीयभोजनीयेसु सति सम्मुस्सति। ते किर पुञ्जविसेसाधिगतेन महन्तेन अत्तनो सिरिविभवेन . नक्खत्तं कीळन्ता ताय सम्पत्तिमहन्तताय – “आहारं परिभुजिम्ह, न परिभुजिम्हा''तिपि न जानन्ति । अथ एकाहारातिक्कमनतो पट्ठाय निरन्तरं खादन्तापि पिवन्तापि चवन्तियेव, न तिट्ठन्ति । कस्मा? कम्मजतेजस्स बलवताय. करजकायस्स मन्दताय. मनस्सानहि क म्मजतेजो मन्दो. करजकायो बलवा । तेसं तेजस्स मन्दताय करजकायस्स बलवताय सत्ताहम्पि अतिक्कमित्वा उण्होदकअच्छयागआदीहि सक्का वत्थं उपत्थम्भेतं । देवानं पन तेजो बलवा होति, करजं मन्दं । ते एकं आहारवेलं अतिक्कमित्वाव सण्ठातुं न सक्कोन्ति । यथा नाम गिम्हानं मज्झन्हिके तत्तपासाणे ठपितं पदमं वा उप्पलं वा सायन्हसमये घटसतेनापि सिञ्चियमानं पाकतिकं न होति. विनस्सतियेव । एवमेव पच्छा निरन्तरं खादन्तापि पिवन्तापि चवन्तियेव, न तिठ्ठन्ति । तेनाह "सतिया सम्मोसा ते देवा तम्हा काया चवन्ती"ति । कतमे पन ते देवाति ? इमे देवाति अट्ठकथायं विचारणा नत्थि, "देवानं कम्मजतेजो बलवा होति. करजं मन्द"न्ति अविसेसेन वत्तत्ता पन ये केचि कबळीकाराहारूपजीविनो देवा एवं करोन्ति. तेयेव चवन्तीति वेदितब्बा। केचि पनाह - “निम्मानरतिपरनिम्मितवसवत्तिनो ते देवा''ति । खिड्डापदुस्सनमत्तेनेव हेते खिड्डापदोसिकाति वुत्ता । सेसमेत्थ पुरिमनयेनेव वेदितब्बं । - ४७-४८. ततियवारे मनेन पदुस्सन्ति विनस्सन्तीति मनोपदोसिका, एते चातुमहाराजिका | तेसु किर एको देवपुत्तो- नक्खत्तं कीळिस्सामीति सपरिवारो रथेन वीथिं पटिपज्जति, अथो निक्खमन्तो तं पुरतो गच्छन्तं दिस्वा - ‘भो अयं कपणो', अदिठ्ठपुब्बं विय एतं दिस्वा - “पीतिया उद्धुमातो विय भिज्जमानो विय च गच्छती''ति कुज्झति । पुरतो गच्छन्तोपि निवत्तित्वा तं कुद्धं दिस्वा - कुद्धा नाम सुविदिता होन्तीति कुद्धभावमस्स ञत्वा - "त्वं कुद्धो, मय्हं किं करिस्ससि, अयं सम्पत्ति मया दानसीलादीनं वसेन लद्धा, न तुम्हं वसेना''ति पटिकुज्झति । एकस्मिहि कुद्धे इतरो 97 Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९८ दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गट्ठकथा अकुद्धो रक्खति, उभोसु पन कुद्धेसु एकस्स कोधो इतरस्स पच्चयो होति । तस्सपि कोधो इतरस्स पच्चयो होतीति उभो कन्दन्तानंयेव ओरोधानं चवन्ति । अयमेत्थ धम्मता । सेसं वृत्तनयेनेव वेदितब्बं । ४९-५२. तक्कीवादे अयं चक्खादीनं भेदं पस्सति, चित्तं पन यस्मा पुरिमं पुरिमं पच्छिमस्स पच्छिमस्स पच्चयं दत्वाव निरुज्झति, तस्मा चक्खादीनं भेदतो बलवतरम्पि चित्तस्स भेदं न पस्सति । सो तं अपस्सन्तो यथा नाम सकुणी एकं रुक्खं जहित्वा अञ्ञस्मिं निलीयति एवमेव इमस्मिं अत्तभावे भिन्ने चित्तं अञ्ञत्र गच्छतीति गहेत्वा एवमाह । समेत्थ वृत्तनयेनेव वेदितब्बं । - अन्तानन्तवादवण्णना ५३. अन्तानन्तिकाति अन्तानन्तवादा, अन्तं वा अनन्तं वा अन्तानन्तं वा नेवन्तानानन्तं वा आरम्भ पवत्तवादाति अत्थो । (१.४९-५२--६१) ५४-६०. अन्तसञ्ञी लोकस्मिं विहरतीति पटिभागनिमित्तं चक्कवाळपरियन्तं अवड्ढेत्वा तं - "लोको "ति गहेत्वा अन्तसञ्ञी लोकस्मिं विहरति, चक्कवाळपरियन्तं कत्वा वड्डितकसिणो पन अनन्तसञ्ञी होति, उद्धमधो अवड्डेत्वा पन तिरियं वड्डेत्वा उद्धमधो अन्तसञ्ञी, तिरियं अनन्तसञ्जी । तक्कीवादो वुत्तनयेनेव वेदितब्बो । इमे चत्तारोपि अत्तना दिट्ठपुब्बानुसारेनेव दिट्टिया गहितत्ता पुब्बन्तकप्पिकेसु पविट्ठा । अमराविक्खेपवादवण्णना ६१. न मरतीति अमरा । का सा ? एवन्तिपि मे नोतिआदिना नयेन परियन्तरहिता दिट्ठिगतिकस्स दिट्ठि चेव वाचा च । विविधो खेपोति विक्खेपो, अमराय दिट्ठिया वाचाय च विक्खेपोति अमराविक्खेपो, सो एतेसं अत्थीति अमराविक्खेपिका, अपरो नयो- अमरा नाम एका मच्छजाति, सा उम्मुज्जननिमुज्जनादिवसेन उदके सन्धावमाना गहेतुं न सक्काति एवमेव अयम्पि वादो इतोचितो च सन्धावति गाहं न उपगच्छतीति अमराविक्खेपोति वुच्चति । सो एतेसं अत्थीति अमराविक्खेपिका । 98 " Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१.६२-६३) अमराविक्खेपवादवण्णना ६२. "इदं कुसल"न्ति यथाभूतं नप्पजानातीति दस कुसलकम्मपथे यथाभूतं नप्पजानातीति अत्थो । अकुसलेपि दस अकुसलकम्मपथाव अधिप्पेता | सो ममस्स विघातोति "मुसा मया भणित"न्ति विप्पटिसारुप्पत्तिया मम विघातो अस्स, दुक्खं भवेय्याति अत्थो । सो ममस्स अन्तरायोति सो मम सग्गस्स चेव मग्गस्स च अन्तरायो अस्स । मुसावादभया मुसावादपरिजेगुच्छाति मुसावादे ओत्तप्पेन चेव हिरिया च । वाचाविक्खेपं आपज्जतीति वाचाय विक्खेपं आपज्जति । कीदिसं? अमराविक्खेपं, अपरियन्तविक्खेपन्ति अत्थो । एवन्तिपि मे नोतिआदीसु एवन्तिपि मे नोति अनियमितविक्खेपो । तथातिपि मे नोति “सस्सतो अत्ता च लोको चा"ति वुत्तं सस्सतवादं पटिक्खिपति । अञथातिपि मे नोति सस्सततो अञ्जथा वुत्तं एकच्चसस्सतं पटिक्खिपति । नोतिपि मे नोति - "न होति तथागतो परं मरणा'ति वुत्तं उच्छेदं पटिक्खिपति । नो नोतिपि मे नोति “नेव होति न न होती"ति वुत्तं तक्कीवादं पटिक्खिपति । सयं पन “इदं कुसल''न्ति वा "अकुसल''न्ति वा पुट्ठो न किञ्चि ब्याकरोति । "इदं कुसल'"न्ति पुट्ठो “एवन्तिपि मे नो''ति वदति । ततो “किं अकुसल''न्ति वुत्ते "तथातिपि मे नो"ति वदति। “किं उभयतो अञथा"ति वुत्ते “अचथातिपि मे नोति वदति। ततो “तिविधेनापि न होति, किं ते लद्धी''ति वुत्ते "नोतिपि मे नोति वदति । ततो "किं नो नोति ते लद्धी''ति वुत्ते “नो नोतिपि मे नोति एवं विक्खेपमेव आपज्जति, एकस्मिम्पि पक्खे न तिठ्ठति । ६३. छन्दो वा रागो वाति अजानन्तोपि सहसा कुसलमेव “कुसल''न्ति वत्वा अकुसलमेव “अकुसल"न्ति वत्वा मया असुकस्स नाम एवं ब्याकतं, किं तं सुब्याकतन्ति अछे पण्डिते पुच्छित्वा तेहि- “सुब्याकतं, भद्रमुख, कुसलमेव तया कुसलं, अकुसलमेव अकुसलन्ति ब्याकत"न्ति वुत्ते नत्थि मया सदिसो पण्डितोति एवं मे तत्थ छन्दो वा रागो वा अस्साति अत्थो। एत्थ च छन्दो दुब्बलरागो, रागो बलवरागो। दोसो वा पटियो वाति कुसलं पन “अकुसल"न्ति, अकुसलं वा “कुसल''न्ति वत्वा अछे पण्डिते पुच्छित्वा तेहि - “दुब्याकतं तया'ति वुत्ते एत्तकम्पि नाम न जानामीति तत्थ मे अस्स दोसो वा पटिघो वाति अत्थो। इधापि दोसो दुब्बलकोधो, पटिघो बलवकोधो। 99 Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०० दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गट्ठकथा तं ममस्स उपादानं, सो ममस्स विघातोति तं छन्दरागद्वयं मम उपादानं अस्स, दोसपटिघद्वयं विघातो । उभयम्पि वा दहग्गहणवसेन उपादानं, विहननवसेन विघातो । रागो हि अमुञ्चितुकामताय आरम्मणं गण्हाति जलूका विय। दोसो विनासेतुकामताय आसीविसो विय । उभोपि चेते सन्तापकट्ठेन विहनन्ति येवाति “ उपादान "न्ति च " विघातो " ति च वृत्ता । सेसं पठमवारसदिसमेव । ६४. पण्डिताति पण्डिच्चेन समन्नागता । निपुणाति सण्हसुखुमबुद्धिनो सुखुमअत्थन्तरं पटिविज्झनसमत्था । कतपरप्पवादाति विञ्ञातपरप्पवादा चेव परेहि सद्धिं कतवादपरिचया च । वालवेधिरूपाति वालवेधिधनुग्गहसदिसा । ते भिन्दन्ता मञेति वालवेधि विय वालं सुखुमानिपि परे दिट्ठगतानि अत्तनो पञ्ञागतेन भिन्दन्ता विय चरन्तीति अत्थो । ते मं तत्थाति ते समणब्राह्मणा मं तेसु कुसलाकुसलेसु । समनुयुञ्जेय्यन्ति “किं कुसलं, किं अकुसलन्ति अत्तनो लद्धिं वदा"ति लद्धिं पुच्छेय्युं । समनुगाहेय्युन्ति “ इदं नामा "ति वुत्ते “केन कारणेन एतमत्थं गाहेय्यु "न्ति कारणं पुच्छेय्युं । समनुभासेय्यन्ति “इमिना नाम कारणेना”ति वुत्ते कारणे दोसं दस्सेत्वा " न त्वं इदं जानासि इदं पन गण्ह, इदं विस्सज्जेही "ति एवं समनुयुञ्जेय्युं । न सम्पायेय्यन्ति न सम्पादेय्यं, सम्पादेत्वा कथेतुं न सक्कुय्यन्ति अत्थो । सो ममस्स विघातोति यं तं पुनप्पुनं वत्वापि असम्पायनं नाम, सो मम विघातो अस्स, ओट्ठतालुजिव्हागलसोसनदुक्खमेव अस्साति अत्थो । सेसमेत्थापि पठमवारसदिसमेव | (१.६४-६८-७३) ६५-६६. मन्दोति मन्दपञ्ञ अपञ्ञस्सेवेतं नामं । मोमूहोति अतिसम्मूळहो । होति तथागतोतिआदीसु सत्तो " तथागतो 'ति अधिप्पेतो । सेसमेत्थ उत्तानमेव । इमेपि चत्तारो पुब्बे पवत्तधम्मानुसारेनेव दिट्ठिया गहितत्ता पुब्बन्तकप्पिकेसु पविट्ठा । अधिच्चसमुप्पन्नवादवण्णना ६७. “अधिच्चसमुप्पन्नो अत्ता च लोको चा" ति दस्सनं अधिच्चसमुप्पन्नं । तं एतेसं अत्थीति अधिच्चसमुप्पन्निका। अधिच्चसमुप्पन्नन्ति अकारणसमुप्पन्नं । ६८-७३. असञ्ञसत्ताति देसनासीसमेतं, अचित्तुप्पादा रूपमत्तकअत्तभावात अत्थो । तेसं एवं उप्पत्ति वेदितब्बा - एकच्चो हि तित्थायतने पब्बजित्वा वायोकसिणे परिकम्मं 100 Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१.७४-७६-७७) अपरन्तकप्पिकवण्णना १०१ कत्वा चतुत्थज्झानं निब्बत्तेत्वा झाना वुट्ठाय - “चित्ते दोसं पस्सति, चित्ते सति हत्थच्छेदादिदुक्खञ्चेव सब्बभयानि च होन्ति, अलं इमिना चित्तेन, अचित्तकभावोव सन्तो"ति, एवं चित्ते दोसं पस्सित्वा अपरिहीनज्झानो कालं कत्वा असञ्जसत्तेसु निब्बत्तति, चित्तमस्स चुतिचित्तनिरोधेन इधेव निवत्तति, रूपक्खन्धमत्तमेव तत्थ पातुभवति । ते तत्थ यथा नाम जियावेगक्खित्तो सरो यत्तको जियावेगो, तत्तकमेव आकासे गच्छति । एवमेव झानवेगक्खित्ता उपपज्जित्वा यत्तको झानवेगो, तत्तकमेव कालं तिट्ठन्ति, झानवेगे पन परिहीने तत्थ रूपक्खन्धो अन्तरधायति, इध पन पटिसन्धिसञ्जा उप्पज्जति । यस्मा पन ताय इध उप्पन्नसाय तेसं तत्थ चुति पायति, तस्मा “सञ्जप्पादा च पन ते देवा तम्हा काया चवन्ती''ति वुत्तं । सन्ततायाति सन्तभावाय । सेसमेत्थ उत्तानमेव । तक्कीवादोपि वुत्तनयेनेव वेदितब्बोति । अपरन्तकप्पिकवण्णना ७४. एवं अट्ठारस पुब्बन्तकप्पिके दस्सेत्वा इदानि चतुचत्तारीसं अपरन्तकप्पिके दस्सेतुं- "सन्ति, भिक्खवे"तिआदिमाह । तत्थ अनागतकोट्ठाससङ्खातं अपरन्तं कप्पेत्वा गण्हन्तीति अपरन्तकप्पिका, अपरन्तकप्पो वा एतेसं अस्थीति अपरन्तकप्पिका। एवं सेसम्पि पुब्बे वुत्तप्पकारनयेनेव वेदितब्बं । सञ्जीवादवण्णना ७५. उद्धमाघातनिकाति आघातनं वुच्चति मरणं, उद्धमाघातना अत्तानं वदन्तीति उद्धमाघातनिका। सञ्जीति पवत्तो वादो, सञ्जीवादो, सो एतेसं अत्थीति सञ्जीवादा। - ७६-७७. रूपी अत्तातिआदीसु कसिणरूपं “अत्ता"ति तत्थ पवत्तसञञ्चस्स "सञ्जा'ति गहेत्वा वा आजीवकादयो विय तक्कमत्तेनेव वा “रूपी अत्ता होति, अरोगो परं मरणा सञ्जीति नं पञपेन्ति । तत्थ अरोगोति निच्चो । अरूपसमापत्तिनिमित्तं पन “अत्ता'"ति समापत्तिसञञ्चस्स “सञ्जा"ति गहेत्वा वा निगण्ठादयो विय तक्कमत्तेनेव वा “अरूपी अत्ता होति, अरोगो परं मरणा सञ्जी''ति नं पञपेन्ति । ततिया पन मिस्सकगाहवसेन पवत्ता दिट्ठि। चतुत्था तक्कगाहेनेव । दुतियचतुक्कं अन्तानन्तिकवादे वुत्तनयेनेव वेदितब्बं । ततियचतुक्के समापन्नकवसेन 101 Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२ दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गट्ठकथा एकत्तसञी, असमापन्नकवसेन नानत्तसञ्जी परित्तकसिणवसेन परित्तसञी, विपुलकसिणवसेन अप्पमाणसञ्जीति वेदितब्बा । चतुत्थचतुक्के पन दिब्बेन चक्खुना तिकचतुक्कज्झानभूमियं निब्बत्तमानं दिस्वा " एकन्तसुखी 'ति गण्हाति । निरये निब्बत्तमानं दिस्वा ‘“एकन्तदुक्खी’ति । मनुस्सेसु निब्बत्तमानं दिस्वा "सुखदुक्खी 'ति । वेहप्फलदेवेसु निब्बत्तमानं दिस्वा “अदुक्खमसुखी' हाति । विसेसतो हि पुब्बेनिवासानुस्सतिञाणलाभिनो पुब्बन्तकप्पिका होन्ति, दिब्बचक्खुका अपरन्तकप्पिकाति । असवादवा ७८-८३. असञ्ञीवादो सञ्ञीवादे आदिम्हि वृत्तानं द्विन्नं चतुक्कानं वसेन वेदितब्ब । तथा नेवसञ्जीनासञीवादो । केवलहि तत्थ “सञ्ञी अत्ता" ति गण्हन्तानं ता दिट्ठियो, इध " असञ्जी" ति च " नेवसञ्जीनासञ्जी "ति च । तत्थ न एकन्तेन कारणं परियेसितब्बं | दिट्ठिगतिकस्स हि गाहो उम्मत्तकपच्छिसदिसोति वृत्तमेतं । (१.७८-८३-८५) उच्छेदवादवण्णना ८४. उच्छेदवादे सतोति विज्जमानस्स । उच्छेदन्ति उपच्छेदं । विनासन्ति अदस्सनं । विभवन्ति भावविगमं । सब्बानेतानि अञ्ञमञ्ञवेवचनानेव । तत्थ द्वे जना उच्छेददिट्ठि गण्हन्ति, लाभी च अलाभी च । लाभी अरहतो दिब्बेन चक्खुना चुतिं दिस्वा उपपत्तिं अपस्सन्तो, यो वा चुतिमत्तमेव दट्टु सक्कोति, न उपपातं; सो उच्छेददिट्ठि गण्हाति । अलाभी च " को परलोकं न जानातीति कामसुखगिद्धताय वा । "यथा रुक्खो पण्णानि पतितानि न पुन विरुहन्ति, एवमेव सत्ता' 'तिआदिना तक्केन वा उच्छेदं गण्हाति । इध पन तण्हादिट्ठीनं वसेन तथा च अञ्ञथा च विकप्पेत्वाव इमा सत्त दिट्ठियो उप्पन्नाति वेदितब्बा । ८५. तत्थ रूपीति रूपवा । चातुमहाभूतिकोति चतुमहाभूतमयो । मातापितूनं एतन्ति मातापेत्तिकं । किं तं ? सुक्कसोणितं । मातापेत्तिके सम्भूतो जातोति मातापेत्तिकसम्भवो । इति रूपकायसीसेन मनुस्सत्तभावं " अत्ता "ति वदति । इत्थेकेति इत्थं एके एवमेकेति अत्थो । 102 Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १.८६-९५) दिट्ठधम्मनिब्बानवादवण्णना ८६. दुतियो तं पटिक्खिपित्वा दिब्बत्तभावं वदति । दिब्बोति देवलोके सम्भूतो । कामावचरोति छ कामावचरदेवपरियापन्नो । कबळीकारं आहारं भक्खतीति कबळीकाराहारभक्खो । ८७. मनोमयोति झानमनेन निब्बत्तो । सब्बङ्गपच्चङ्गीति सब्बङ्गपच्चङ्गयुत्तो । अहीनिन्द्रियोति परिपुण्णिन्द्रियो । यानि ब्रह्मलोके अत्थि, तेसं वसेन इतरेसञ्च सण्ठानवसेनेतं वृत्तं । ८८-९२. सब्बसो रूपसञ्जनं समतिक्कमाति आदीनं अत्थो विसुद्धिमग्गे वृत्तो । आकासानञ्चायतनूपगोतिआदीसु पन आकासानञ्चायतनभवं उपगतोति, एवमत्थो वेदितब्बो । सेसमेत्थ उत्तानमेवाति । १०३ दिट्ठधम्मनिब्बानवादवण्णना ९३. दिट्ठधम्मंनिब्बानवादे दिट्ठधम्मोति पच्चक्खधम्मो वुच्चति, तत्थ तत्थ पटिलद्धत्तभावस्सेतं अधिवचनं । दिट्ठधम्मे निब्बानं दिट्ठधम्मनिब्बानं, इमस्मियेव अत्तभावे दुक्खवूपसमनन्ति अत्थो । तं वदन्तीति दिट्ठधम्मनिब्बानवादा । परमदिट्ठधम्मनिब्बानन्ति परमं दिधम्मनिब्बानं उत्तमन्ति अत्थो । ९४. पञ्चहि कामगुणेहीति मनापियरूपादीहि पञ्चहि कामकोट्ठासेहि बन्धनेहि वा । समप्पितोति सुट्टु अप्पितो अल्लीनो हुत्वा । समङ्गीभूतोति समन्नागतो । परिचारेतीति सु कामगुणेसु यथासुखं इन्द्रियानि चारेति सञ्चारेति इतोचितो च उपनेति । अथ वा लळति रमति कीळति । एत्थ च दुविधा कामगुणा - मानुसका चेव दिब्बा च । मानुसका मन्धातुकामगुणसदिसा दट्ठब्बा, दिब्बा परनिम्मितवसवत्तिदेवराजस्स कामगुणसदिसाति एवरूपे कामे उपगतानञ्हि ते दिट्ठधम्मनिब्बानसम्पत्तिं पञ्ञपेन्ति । ९५. दुतियवारे हुत्वा अभावद्वेन अनिच्चा पटिपीळनट्ठेन दुक्खा, पकतिजहनट्ठेन विपरिणामधम्मात वेदितब्बा । तेसं विपरिणामञ्ञथाभावाति तेसं कामानं विपरिणामसङ्घाता अञ्ञथाभावा, यम्पि मे अहोसि, तम्पि मे नत्थीति वुत्तनयेन उप्पज्जन्ति सोकपरिदेवदुक्खदोमनस्सुपायासा । अन्तोनिज्झायनलक्खणो सोको, तत्थ 103 Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४ दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गट्ठकथा (१.९६-१००-१०४) तन्निस्सितलालप्पनलक्खणो परिदेवो, कायप्पटिपीळनलक्खणं दुक्खं, मनोविघातलक्खणं दोमनस्सं, विसादलक्खणो उपायासो, विविच्चेव कामेहीतिआदीनमत्थो विसुद्धिमग्गे वुत्तो । ९६. वितक्कितन्ति अभिनिरोपनवसेन पवत्तो वितक्को। विचारितन्ति अनुमज्जनवसेन पवत्तो विचारो | एतेनेतन्ति एतेन वितक्कितेन च विचारितेन च एतं पठमज्झानं ओळारिकं सकण्डकं विय खायति । ९७-९८. पीतिगतन्ति पीतियेव । चेतसो उप्पिलावितत्तन्ति चित्तस्स उप्पिलभावकरणं । चेतसो आभोगोति झाना वुट्ठाय तस्मिं सुखे पुनप्पुनं चित्तस्स आभोगो मनसिकारो समन्नाहारोति । सेसमेत्थ दिठ्ठधम्मनिब्बानवादे उत्तानमेव । एत्तावता सब्बापि द्वासट्ठिदिट्ठियो कथिता होन्ति । यासं सत्तेव उच्छेददिट्ठियो, सेसा सस्सतदिट्ठियो। १००-१०४. इदानि – “इमेहि खो ते, भिक्खवे"ति इमिना वारेन सब्बेपि ते अपरन्तकप्पिके एकझं निय्यातेत्वा सब्ब तञाणं विस्सज्जेति । पुन - “इमेहि, खो ते भिक्खवे''तिआदिना वारेन सब्बेपि ते पुब्बन्तापरन्तकप्पिके एकज्झं निय्यातेत्वा तदेव आणं विस्सज्जेति । इति “कतमे च ते, भिक्खवे, धम्मा''तिआदिम्हि पुच्छमानोपि सब्ब ताणमेव पुच्छित्वा विस्सज्जमानोपि सत्तानं अज्झासयं तुलाय तुलयन्तो विय सिनेरुपादतो वालुकं उद्धरन्तो विय द्वासट्टि दिट्ठिगतानि उद्धरित्वा सब्ब ताणमेव विस्सज्जेति । एवमयं यथानुसन्धिवसेन देसना आगतः ।। तयो हि सुत्तस्स अनुसन्धी - पुच्छानुसन्धि, अज्झासयानुसन्धि, यथानुसन्धीति । तत्थ “एवं वुत्ते अञ्जतरो भिक्खु भगवन्तं एतदवोच - किं नु खो, भन्ते, ओरिमं तीरं, किं पारिमं तीरं, को मज्झे संसीदो, को थले उस्सादो, को मनुस्सग्गाहो , को अमनुस्सग्गाहो, को आवट्टग्गाहो, को अन्तोपूतिभावो"ति (सं० नि० २.४.२४१) एवं पुच्छन्तानं भगवता विस्सज्जितसुत्तवसेन पुच्छानुसन्धि वेदितब्बो। ___ अथ खो अञतरस्स भिक्खुनो एवं चेतसो परिवितक्को उदपादि - “इति किर भो रूपं अनत्ता..., वेदना..., सञ्जा..., सङ्खारा..., विज्ञाणं अनत्ता, अनत्तकतानि किर 104 Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१.१०५-११७-११८-१३०) परितस्सितविप्फन्दितवारवण्णना १०५ कम्मानि कमत्तानं फुसिस्सन्ती'ति । अथ खो भगवा तस्स भिक्खुनो चेतसा चेतो परिवितक्कमञाय भिक्खू आमन्तेसि- "ठानं खो पनेतं, भिक्खवे, विज्जति, यं इधेकच्चो मोघपुरिसो अविद्वा अविज्जागतो तण्हाधिपतेय्येन चेतसा सत्थुसासनं अतिधावितब्बं मझेय्य - "इति किर भो रूपं अनत्ता...पे०... फुसिस्सन्ती''ति । तं किं मञथ, भिक्खवे, रूपं निच्चं वा अनिच्चं वा"ति (म० नि० ३.१०)। एवं परेसं अज्झासयं विदित्वा भगवता वुत्तसुत्तवसेन अज्झासयानुसन्धि वेदितब्बो । येन पन धम्मेन आदिम्हि देसना उट्टिता, तस्स धम्मस्स अनुरूपधम्मवसेन वा पटिपक्खवसेन वा येस सत्तेस उपरि देसना आगच्छति, तेस वसेन यथानुसा वेदितब्बो। सेय्यथिदं, आकडेय्यसुत्ते हेट्ठा सीलेन देसना उठ्ठिता, उपरि छ अभिज्ञा आगता । वत्थसुत्ते हेट्ठा किलेसेन देसना उहिता, उपरि ब्रह्मविहारा आगता | कोसम्बकसुत्ते हेट्ठा भण्डनेन उठ्ठिता, उपरि सारणीयधम्मा आगता। ककचूपमे हेट्ठा अक्खन्तिया उद्विता, उपरि ककचूपमा आगता | इमस्मिम्पि ब्रह्मजाले हेट्ठा दिट्ठिवसेन देसना उट्ठिता, उपरि सुञतापकासनं आगतं । तेन वुत्तं - "एवमयं यथानुसन्धिवसेन देसना आगता''ति । परितस्सितविष्फन्दितवारवण्णना १०५-११७. इदानि मरियादविभागदस्सनत्थं - "तत्र भिक्खवे"तिआदिका देसना आरद्धा। तदपि तेसं भवतं समणब्राह्मणानं अजानतं अपस्सतं वेदयितं तण्हागतानं परितस्सितविष्फन्दितमेवाति येन दिट्ठिअस्सादेन दिट्ठिसुखेन दिद्विवेदयितेन ते सोमनस्सजाता सस्सतं अत्तानञ्च लोकञ्च पञपेन्ति चतूहि वत्थूहि, तदपि तेसं भवन्तानं समणब्राह्मणानं यथाभूतं धम्मानं सभावं अजानन्तानं अपस्सन्तानं वेदयितं तण्हागतानं केवलं तण्हागतानंयेव तं वेदयितं, तञ्च खो पनेतं परितस्सितविष्फन्दितमेव । दिट्ठिसङ्घातेन चेव तण्हासङ्खातेन च परितस्सितेन विप्फन्दितमेव चलितमेव कम्पितमेव थुसरासिम्हि निखातखाणुसदिसं, न सोतापन्नस्स दस्सनमिव निच्चलन्ति दस्सेति । एस नयो एकच्चसस्सतवादादीसुपि । फस्सपच्चयवारवण्णना ११८-१३०. पुन - "तत्र, भिक्खवे, ये ते समणब्राह्मणा सस्सतवादा"तिआदि 105 Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६ दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गट्ठकथा (१.१३१-१४३-१४४) परम्परपच्चयदस्सनत्थं आरद्धं । तत्थ तदपि फस्सपच्चयाति येन दिट्ठिअस्सादेन दिट्ठिसुखेन दिट्ठिवेदयितेन ते सोमनस्सजाता सस्सतं अत्तानञ्च लोकञ्च पञपेन्ति चतूहि वत्थूहि, तदपि तण्हादिट्ठिपरिफन्दितं वेदयितं फस्सपच्चयाति दस्सेति । एस नयो सब्बत्थ । १३१-१४३. इदानि तस्स पच्चयस्स दिट्ठिवेदयिते बलवभावदस्सनत्थं पुन - "तत्र, भिक्खवे, ये ते समणब्राह्मणा सस्सतवादा''तिआदिमाह । तत्थ ते वत अञत्र फस्साति ते वत समणब्राह्मणा तं वेदयितं विना फस्सेन पटिसंवेदिस्सन्तीति कारणमेतं नत्थीति । यथा हि पततो गेहस्स उपत्थम्भनत्थाय थूणा नाम बलवपच्चयो होति, न तं थूणाय अनुपत्थम्भितं ठातुं सक्कोति, एवमेव फस्सोपि वेदनाय बलवपच्चयो, तं विना इदं दिट्ठिवेदयितं नत्थीति दस्सेति । एस नयो सब्बत्थ । दिद्विगतिकाधिट्ठानवट्टकथावण्णना १४४. इदानि तत्र भिक्खवे, ये ते समणब्राह्मणा सस्सतवादा सस्सतं अत्तानञ्च लोकञ्च पञपेन्ति चतूहि वत्थूहि, येपि ते समणब्राह्मणा एकच्चसस्सतिकातिआदिना नयेन सब्बदिद्विवेदयितानि सम्पिण्डेति । कस्मा ? उपरि फस्से पक्खिपनत्थाय । कथं ? सब्बे ते छहि फस्सायतनेहि फुस्स फुस्स पटिसंवेदेन्तीति । तत्थ छ फस्सायतनानि नाम - चक्खुफस्सायतनं, सोतफस्सायतनं, घानफस्सायतनं, जिव्हाफस्सायतनं, कायफस्सायतनं, मनोफस्सायतनन्ति इमानि छ। सञ्जाति-समोसरण-कारण-पण्णत्तिमत्तत्थेसु हि अयं आयतनसद्दो पवत्तति । तत्थ - "कम्बोजो अस्सानं आयतनं, गुन्नं दक्खिणापथो''ति सञ्जातियं पवत्तति, सञ्जातिट्ठानेति अत्थो । “मनोरमे आयतने, सेवन्ति नं विहङ्गमा"ति (अ० नि० २.५.३८) समोसरणे । “सति सतिआयतने"ति (अ० नि० १.३.१०२) कारणे । “अरञआयतने पण्णकुटीसु सम्मन्ती"ति (सं० नि० १.१.२५५) पण्णत्तिमत्ते । स्वायमिध सञ्जातिआदिअत्थत्तयेपि युज्जति । चक्खादीसु हि फस्सपञ्चमका धम्मा सञ्जायन्ति समोसरन्ति, तानि च तेसं कारणन्ति आयतनानि। इध पन “चक्खुञ्च पटिच्च रूपे च उप्पज्जति चक्खुविञाणं, तिण्णं सङ्गति फस्सो''ति (सं० नि० १.२.४३) इमिना नयेन फस्ससीसेनेव देसनं आरोपेत्वा फस्सं आदि कत्वा पच्चयपरम्परं दस्सेतं फस्सायतनादीनि वत्तानि । फुस्स फुस्स पटिसंवेदेन्तीति फुसित्वा फुसित्वा पटिसंवेदेन्ति । एत्थ च किञ्चापि 106 Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१.१४५ - १४५) विवट्टकथादिवण्णना आयतनानं फुसनकिच्चं विय वुत्तं, तथापि न तेसं फुसनकिच्चता वेदितब्बा । न हि आयतनानि फुसन्ति, फस्सोव तं तं आरम्मणं फुसति, आयतनानि पन फस्से उपनिक्खिपित्वा दस्सितानि; तस्मा सब्बे ते छ फस्सायतनसम्भवेन फरसेन रूपादीनि आरम्मणानि फुसित्वा तं दिट्ठिवेदनं पटिसंवेदयन्तीति एवमेत्थ अत्थो वेदितब्बो । तेसं वेदनापच्चया तहाति आदीसु वेदनाति छ फस्सायतनसम्भवा वेदना । सा रूपतण्हादिभेदाय तण्हाय उपनिस्सयकोटिया पच्चयो होति । तेन वुत्तं - "तेसं वेदनापच्चया तण्हा'ति । सा पन चतुब्बिधस्स उपादानस्स उपनिस्सयकोटिया चेव सहजातकोटिया च पच्चयो होति । तथा उपादानं भवस्स । भवो जातिया उपनिस्सयकोटिया पच्चयो होति । जातीति पत्थ सविकारा पञ्चक्खन्धा दट्ठब्बा, जाति जरामरणस्स चेव सोकादीनञ्च उपनिस्सयकोटिया पच्चयो होति । अयमेत्थ सङ्क्षेपो, वित्थारतो पन पटिच्चसमुप्पादकथा विसुद्धिमग्गे वृत्ता । इध पनस्स पयोजनमत्तमेव वेदितब्बं । भगवा हि वट्टकथं कथेन्तो - "पुरिमा, भिक्खवे, कोटि न पञ्ञायति अविज्जाय, इतो पुब्बे अविज्जा नाहोसि, अथ पच्छा समभवी'ति एवञ्चेतं, भिक्खवे, वुच्चति, अथ च पन पञ्ञायति “इदप्पच्चया अविज्जा”ति (अ० नि० ३.१०.६१ ) एवं अविज्जासीसेन वा, पुरिमा, भिक्खवे, कोटि न पञ्ञयति भवतण्हाय...पे०... "इदप्पच्चया भवतण्हा" ति ( अ० नि० ३.१०.६२) एवं तण्हासीसेन वा, पुरिमा, भिक्खवे, कोटि न पञ्ञायति भवदिट्ठिया... पे०... " इदप्पच्चया भवदिट्ठी "ति एवं दिट्ठिसीसेन वा कथेसि" । इध पन दिट्ठिसीसेन कथेन्तो वेदनारागेन उप्पज्जमाना दिट्ठियो कथेत्वा वेदनामूलकं पटिच्चसमुप्पादं कथेसि । तेन इदं दस्सेति – “एवमेते दिट्ठिगतिका, इदं दस्सनं गहेत्वा तीसु भवेसु चतूसु योनीसु पञ्चसु गतीसु सत्तसु विञ्ञणट्ठितीसु नवसु सत्तावासेसु इतो एत्थ एत्तो इधाति सन्धावन्ता संसरन्ता यन्ते युत्तगोणो विय, थम्भे उपनिबद्धकुक्कुरो विय, वातेन विप्पन्नट्टनावा विय च वट्टदुक्खमेव अनुपरिवत्तन्ति, वट्टदुक्खतो सीसं उक्खिपितुं न सक्कोन्ती 'ति । १०७ विवट्टकथादिवण्णना १४५. एवं दिट्ठिगतिकाधिट्ठानं वट्टं कथेत्वा इदानि युत्तयोगभिक्खुअधिट्ठानं वा विवट्टं दस्सेन्तो - "यतो खो, भिक्खवे, भिक्खू'"तिआदिमाह । तत्थ यतोति यदा । छन्नं 107 Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०८ दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गट्ठकथा (१.१४६-१४७) फस्सायतनानन्ति येहि छहि फस्सायतनेहि फुसित्वा पटिसंवेदयमानानं दिट्ठिगतिकानं वर्ल्ड वत्तति, तेसंयेव छन्नं फस्सायतनानं। समुदयन्तिआदीसु अविज्जासमुदया चक्खुसमुदयोतिआदिना वेदनाकम्मट्ठाने वुत्तनयेन फस्सायतनानं समुदयादयो वेदितब्बा । यथा पन तत्थ “फस्ससमुदया फस्सनिरोधा''ति वुत्तं, एवमिध, तं चक्खादीसु“आहारसमुदया आहारनिरोधा''ति वेदितब्बं । मनायतने "नामरूपसमुदया नामरूपनिरोधा''ति । उत्तरितरं पजानातीति दिह्रिगतिको दिट्ठिमेव जानाति । अयं पन दिविञ्च दिवितो च उत्तरितरं सीलसमाधिपाविमुत्तिन्ति याव अरहत्ता जानाति । को एवं जानातीति ? खीणासवो जानाति, अनागामी, सकदागामी, सोतापन्नो, बहुस्सुतो, गन्थधरो भिक्खु जानाति, आरद्धविपस्सको जानाति । देसना पन अरहत्तनिकूटेनेव निट्ठापिताति । १४६. एवं विवढें कथेत्वा इदानि “देसनाजालविमुत्तो दिह्रिगतिको नाम नत्थी"ति दस्सनत्थं पुन - "ये हि केचि, भिक्खवे"ति आरभि । तत्थ अन्तोजालीकताति इमस्स मव्हं देसनाजालस्स अन्तोयेव कता । एत्थ सिता वाति एतस्मिं मम देसनाजाले सिता निस्सिता अवसिताव । उम्मुज्जमाना उम्मुज्जन्तीति किं वुत्तं होति ? ते अधो ओसीदन्तापि उद्धं उग्गच्छन्तापि मम देसनाजाले सिताव हुत्वा ओसीदन्ति च उग्गच्छन्ति च । एत्थ परियापनाति एत्थ मय्हं देसनाजाले परियापन्ना, एतेन आबद्धा अन्तोजालीकता च हुत्वा उम्मुज्जमाना उम्मुज्जन्ति, न हेत्थ असङ्गहितो दिट्ठिगतिको नाम अत्थीति । सुखुमच्छिकेनाति सण्हअच्छिकेन सुखुमच्छिद्देनाति अत्थो । केवट्टो विय हि भगवा, जालं विय देसना, परित्तउदकं विय दससहस्सिलोकधातु, ओळारिका पाणा विय द्वासट्ठिदिह्रिगतिका। तस्स तीरे ठत्वा ओलोकेन्तस्स ओळारिकानं पाणानं अन्तोजालीकतभावदस्सनं विय भगवतो सब्बदिट्ठिगतानं देसनाजालस्स अन्तोकतभावदस्सनन्ति एवमेत्थ ओपम्मसंसन्दनं वेदितब् । १४७. एवं इमाहि द्वासट्ठिया दिट्ठीहि सब्बदिट्ठीनं सङ्गहितत्ता सब्बेसं दिह्रिगतिकानं एतस्मिं देसनाजाले परियापन्नभावं दस्सेत्वा इदानि अत्तनो कत्थचि अपरियापन्नभावं दस्सेन्तो - "उच्छिन्नभवनेत्तिको, भिक्खवे, तथागतस्स कायो"तिआदिमाह । तत्थ नयन्ति एतायाति नेत्ति। नयन्तीति गीवाय बन्धित्वा आकड्डन्ति, रज्जुया एतं नामं । इध पन 108 Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१.१४८-१४८) विवट्टकथादिवण्णना १०९ नेत्तिसदिसताय भवतण्हा नेत्तीति अधिप्पेता । सा हि महाजनं गीवाय बन्धित्वा तं तं भवं नेति उपनेतीति भवनेत्ति। अरहत्तमग्गसत्थेन उच्छिन्ना भवनेत्ति अस्साति उच्छिन्नभवनेत्तिको। कायस्स भेदा उद्धन्ति कायस्स भेदतो उद्धं । जीवितपरियादानाति जीवितस्स सब्बसो परियादिन्नत्ता परिक्खीणत्ता, पुन अप्पटिसन्धिकभावाति अत्थो । न तं दक्खन्तीति तं तथागतं । देवा वा मनुस्सा वा न दक्खिस्सन्ति, अपण्णत्तिकभावं गमिस्सतीति अत्थो । सेय्यथापि, भिक्खवेति, उपमायं पन इदं संसन्दनं । अम्बरुक्खो विय हि तथागतस्स कायो, रुक्खे जातमहावण्टो विय तं निस्साय पुब्बे पवत्ततण्हा। तस्मिं वण्टे उपनिबद्धा पञ्चपक्कद्वादसपक्कअट्ठारसपक्कपरिमाणा अम्बपिण्डी विय तण्हाय सति तण्हूपनिबन्धना हुत्वा आयतिं निब्बत्तनका पञ्चक्खन्धा द्वादसायतनानि अट्ठारस धातुयो । यथा पन तस्मिं वण्टे छिन्ने सब्बानि तानि अम्बानि तदन्वयानि होन्ति, तंयेव वण्टं अनुगतानि, वण्टच्छेदा छिन्नानि येवाति अत्थो; एवमेव ये भवनेत्तिवण्टस्स अनुपच्छिन्नत्ता आयतिं उप्पज्जेय्यु पञ्चक्खन्धा द्वादसायतनानि अट्ठारसधातुयो, सब्बे ते धम्मा तदन्वया होन्ति भवनेत्तिं अनुगता, ताय छिन्नाय छिन्ना येवाति अत्थो। ___ यथा पन तस्मिम्पि रुक्खे मण्डूककण्टकविससम्फस्सं आगम्म अनुपुब्बेन सुस्सित्वा मते - “इमस्मिं ठाने एवरूपो नाम रुक्खो अहोसी''ति वोहारमत्तमेव होति, न तं रुक्खं कोचि पस्सति, एवं अरियमग्गसम्फस्सं आगम्म तण्हासिनेहस्स परियादिन्नत्ता अनुपुब्बेन सुस्सित्वा विय भिन्ने इमस्मिं काये, कायस्स भेदा उद्धं जीवितपरियादाना न तं दक्खन्ति, तथागतम्पि देवमनुस्सा न दक्खिस्सन्ति, एवरूपस्स नाम किर सत्थुनो इदं सासनन्ति वोहारमत्तमेव भविस्सतीति अनुपादिसेसनिब्बानधातुं पापेत्वा देसनं निट्ठपेसि । १४८. एवं वुत्ते आयस्मा आनन्दोति एवं भगवता इमस्मिं सुत्ते वुत्ते थेरो आदितो पट्ठाय सब्बं सुत्तं समन्नाहरित्वा एवं बुद्धबलं दीपेत्वा कथितसुत्तस्स न भगवता नाम गहितं, हन्दस्स नामं गण्हापेस्सामीति चिन्तेत्वा भगवन्तं एतदवोच । तस्मातिह त्वन्तिआदीसु अयमत्थयोजना - आनन्द, यस्मा इमस्मिं धम्मपरियाये इधत्थोपि परत्थोपि विभत्तो, तस्मातिह त्वं इमं धम्मपरियायं “अत्थजाल''न्तिपि नं धारेहि; यस्मा पनेत्थ बहू तन्तिधम्मा कथिता, तस्मा “धम्मजाल''न्तिपि नं धारेहि; यस्मा च एत्थ 109 Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११० दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गट्ठकथा (१.१४९-१४९) सेट्ठद्वेन ब्रह्म सब्ब ताणं विभत्तं, तस्मा “ब्रह्मजाल''न्तिपि नं धारेहि; यस्मा एत्थ द्वासट्ठिदिट्ठियो विभत्ता, तस्मा “दिट्ठिजाल''न्तिपि नं धारेहि; यस्मा पन इमं धम्मपरियायं सुत्वा देवपुत्तमारम्पि खन्धमारम्पि मच्चुमारम्पि किलेसमारम्पि सक्का मद्दितुं, तस्मा "अनुत्तरो सङ्गामविजयोतिपि नं धारेही''ति । इदमवोच भगवाति इदं निदानावसानतो पभुति याव “अनुत्तरो सङ्गामविजयोतिपि नं धारेही''ति सकलं सुत्तन्तं भगवा परेसं पाय अलब्भनेय्यपतिद्वं परमगम्भीर सब्ब ताणं पकासेन्तो सूरियो विय अन्धकारं दिट्ठिगतमहन्धकारं विधमन्तो अवोच । १४९. अत्तमना ते भिक्खूति ते भिक्खू अत्तमना सकमना, बुद्धगताय पीतिया उदग्गचित्ता हुत्वाति वुत्तं होति । भगवतो भासितन्ति एवं विचित्रनयदेसनाविलासयुत्तं इदं सुत्तं करवीकरुतमञ्जुना कण्णसुखेन पण्डितजनहदयानं अमताभिसेकसदिसेन ब्रह्मस्सरेन भासमानस्स भगवतो वचनं । अभिनन्दुन्ति अनुमोदिंसु चेव सम्पटिच्छिंसु च । अयहि अभिनन्दसद्दो- “अभिनन्दति अभिवदती"तिआदीसु (सं० नि० २.३.५) तण्हायम्पि आगतो। “अन्नमेवाभिनन्दन्ति, उभये देवमानुसा'तिआदीसु (सं० नि० १.१.४३) उपगमनेपि। “चिरप्पवासिं पुरिसं, दूरतो सोत्थिमागतं । आतिमित्ता सुहज्जा च, अभिनन्दन्ति आगत"न्ति ।। (ध० प० २१९) आदीसु सम्पटिच्छनेपि। “अभिनन्दित्वा अनुमोदित्वा''तिआदीसु (म० नि० १.२०५) अनुमोदनेपि । स्वायमिध अनुमोदनसम्पटिच्छनेसु युज्जति । तेन वुत्तं - “अभिनन्दुन्ति अनुमोदिसु चेव सम्पटिच्छिंसु चा''ति । सुभासितं सुलपितं, “साधु साधू''ति तादिनो। अनुमोदमाना सिरसा, सम्पटिच्छिंसु भिक्खवोति ।। इमस्मिञ्च पन वेय्याकरणस्मिन्ति इमस्मिं निग्गाथकसुत्ते । निग्गाथकत्ता हि इदं वेय्याकरणन्ति वुत्तं । 110 Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विवट्टकथादिवण्णना दससहस्सी लोकधातूति दससहस्सचक्कवाळपरिमाणा लोकधातु । अकम्पित्थाति न सुत्तपरियोसानेयेव अकम्पित्थाति वेदितब्बा । भञ्ञमानेति हि वृत्तं । तस्मा द्वाट्ठिया दिट्ठिगतेसु विनिवेठेत्वा देसियमानेसु तस्स तस्स दिट्ठिगतस्स परियोसाने परियोसानेति द्वासट्ठिया ठानेसु अकम्पित्थाति वेदितब्बा | (१.१४९-१४९) तत्थ अट्ठहि कारणेहि पथवीकम्पो वेदितब्बो - धातुक्खोभेन इद्धिमतो आनुभावेन, बोधिसत्त गब्भोक्कन्तिया, माकुच्छितो निक्खमनेन, सम्बोधिप्पत्तिया, धम्मचक्कप्पवत्तनेन, आयुसङ्घारोस्सज्जनेन, परिनिब्बानेनाति । तेसं विनिच्छ्यं - "अट्ठ खो इमे, आनन्द, हेतू अट्ठ पच्चया महतो भूमिचालस्स पातुभावाया "ति एवं महापरिनिब्बाने आगताय तन्तिया वण्णनाकाले वक्खाम । अयं पन महापथवी अपरेसुपि अट्ठसु ठानेसु अकम्पित्थ - महाभिनिक्खमने, बोधिमण्डूपसङ्कमने, पंसुकूलग्गहणे, पंसुकूलधोवने, काळारामसुत् गोतमकत् वेस्सन्तरजातके, इमस्मिं ब्रह्मजालेति । तत्थ महाभिनिक्खमनबोधिमण्डूपसङ्कमनेसु वीरियबलेन अकम्पित्थ । पंसुकूलग्गहणे द्विसहस्सदीपपरिवारे चत्तारो महादीपे पहाय पब्बजित्वा सुसानं गन्त्वा पंसुकूलं गण्हन्तेन दुक्करं भगवता कतन्ति अच्छरियवेगाभिहता अकम्पित्थ । पंसुकूलधोवनवेस्सन्तरजातसु अकालकम्पनेन अकम्पित्थ । काळकारामगोतमकसुत्तेसु - “अहं सक्ख भगवा "ति सक्खिभावेन अकम्पित्थ । इमस्मिं पन ब्रह्मजाले द्वासट्ठिया दिट्ठिगतेसु विजटेत्वा निग्गुम्ब कत्वा देसियमानेसु साधुकारदानवसेन अकम्पित्थाति वेदितब्बा । न केवलञ्च एतेसु ठानेसुयेव पथवी अकम्पित्थ, अथ खो तीसु सङ्गसुप महामहिन्दत्थेरस्स इमं दीपं आगन्त्वा जोतिवने निसीदित्वा धम्मं देसितदिवसेपि अकम्पित्थ | कल्याणियविहारे च पिण्डपातियत्थेरस्स चेतियङ्गणं सम्मज्जित्वा तत्थेव निसीदित्वा बुद्धारम्मणं पीतिं गहेत्वा इमं सुत्तन्तं आरद्धस्स सुत्तपरियोसाने उदकपरियन्तं कत्वा अकम्पित्थ । लोहपासादस्स पाचीन अम्बलट्ठिकट्ठानं नाम अहोसि । तत्थ निसीदित्वा दीघभाणकत्थेरा ब्रह्मजालसुत्तं आरभिसु, तेसं सज्झायपरियोसानेपि उदकपरियन्तमेव कत्वा पथवी अकम्पित्थाति । एवं यस्सानुभावेन, अकम्पित्थ अनेकसो । मेदनी सुत्तसेट्ठस्स, देसितस्स सयम्भुना ।। १११ 111 Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२ दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गट्ठकथा (१.१४९-१४९) ब्रह्मजालस्स तस्सीध, धम्मं अत्थञ्च पण्डिता । सक्कच्चं उग्गहेत्वान, पटिपज्जन्तु योनिसोति ।। इति सुमङ्गलविलासिनिया दीघनिकायट्ठकथायं ब्रह्मजालसुत्तवण्णना निहिता। 112 Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २. सामञ्जफलसुत्तवण्णना राजामच्चकथावण्णना १५०. एवं मे सुतं...पे०... राजगहेति सामञफलसुत्तं । तत्रायं अपुब्बपदवण्णनाराजगहेति एवंनामके नगरे। तहि मन्धातुमहागोविन्दादीहि परिग्गहितत्ता राजगहन्ति वुच्चति । अञपि एत्थ पकारे वण्णयन्ति, किं तेहि ? नाममत्तमेतं तस्स नगरस्स । तं पनेतं बुद्धकाले च चक्कवत्तिकाले च नगरं होति, सेसकाले सुझं होति यक्खपरिग्गहितं, तेसं वसनवनं हुत्वा तिठ्ठति। विहरतीति अविसेसेन इरियापथदिब्बब्रह्मअरियविहारेसु अञ्जतरविहारसमङ्गिपरिदीपनमेतं। इध पन ठानगमननिसज्जसयनप्पभेदेसु इरियापथेसु अञतरइरियापथसमायोगपरिदीपनं । तेन ठितोपि गच्छन्तोपि निसिन्नोपि सयानोपि भगवा विहरति चेव वेदितब्बो। सो हि एकं इरियापथबाधनं अञ्जेन इरियापथेन विछिन्दित्वा अपरिपतन्तं अत्तभावं हरति पवत्तेति, तस्मा विहरतीति वुच्चति । जीवकस्स कोमारभच्चस्स अम्बवनेति इदमस्स यं गोचरगामं उपनिस्साय विहरति, तस्स समीपनिवासनट्ठानपरिदीपनं । तस्मा - राजगहे विहरति जीवकस्स कोमारभच्चस्स अम्बवनेति राजगहसमीपे जीवकस्स कोमारभच्चस्स अम्बवने विहरतीति एवमेत्थ अत्थो वेदितब्बो। समीपत्थे हेतं भुम्मवचनं । तत्थ जीवतीति जीवको, कुमारेन भतोति कोमारभच्चो। यथाह- “किं भणे, एतं काकेहि सम्परिकिण्णन्ति ? दारको देवाति । जीवति भणेति ? जीवति, देवाति । तेन हि, भणे तं दारकं अम्हाकं अन्तेपुरं नेत्वा धातीनं देथ पोसेतुन्ति । तस्स जीवतीति जीवकोति नामं अकंसु । कुमारेन पोसापितोति कोमारभच्चोति नामं अकंसूति (महाव० ३२८) अयं पनेत्थ सोपो। वित्थारेन पन जीवकवत्थुखन्धके आगतमेव । विनिच्छयकथापिस्स समन्तपासादिकाय विनयट्ठकथायं वुत्ता। 113 Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११४ दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गट्ठकथा अयं पन जीवको एकस्मिं समये भगवतो दोसाभिसन्नं कायं विरेचेत्वा सिवेय्यकं दुस्सयुगं दत्वा वत्थानुमोदनापरियोसाने सोतापत्तिफले पतिट्ठाय चिन्तेसि - " मया दिवसस्स द्वत्तिक्खत्तुं बुद्धपट्ठानं गन्तब्बं इदञ्च वेळुवनं अतिदूरे, मय्हं पन अम्बवनं उय्यानं आसन्नतरं, यंनूनाहं एत्थ भगवतो विहारं कारेय्यन्ति । सो तस्मिं अम्बवने रत्तिट्ठानदिवाठानलेणकुटिमण्डपादीनि सम्पादेत्वा भगवतो अनुच्छविकं गन्धकुटिं कारापेत्वा अम्बवनं अट्ठारसहत्थुब्बेधेन तम्बपट्टवण्णेन पाकारेन परिक्खिपापेत्वा बुद्धप्पमुखं भिक्खुस सचीवरभत्तेन सन्तप्पेत्वा दक्खिणोदकं पातेत्वा विहारं निय्यातेसि । तं सन्धाय वृत्तं - "जीवकस्स कोमारभच्चस्स अम्बवने 'ति । अडळसेहि भिक्खुसतेहीति अड्डसतेन ऊनेहि तेरसहि भिक्खुसतेहि । राजाति आदीसु राजति अत्तनो इस्सरियसम्पत्तिया चतूहि सङ्ग्रहवत्थूहि महाजनं रञ्जेति वड्ढेतीति राजा । मगधानं इस्सरोति मागधो । अजातोयेव रज्ञो सत्तु भविस्सतीति नेमित्त केहि निट्ठिोति अजातसत्तु । (२.१५० - १५० ) तस्मिं किर कुच्छिगते देविया एवरूपो दोहको उप्पज्जि - “ अहो वताहं रञ्ञो दक्खिणबाहुलोहितं पिवेय्यन्ति सा “भारिये ठाने दोहको उप्पन्नो, न सक्का सचि आरोचेतु "न्ति तं कथेतुं असक्कोन्ती किसा दुब्बण्णा अहोसि । तं राजा पुच्छि – “भद्दे, तुम्हं अत्तभावो न पकतिवण्णो, किं कारण "न्ति ? " मा पुच्छ, महाराजाति”। “भद्दे, त्वं अत्तनो अज्झासयं मय्हं अकथेन्ती कस्स कथेस्ससी "ति तथा तथा निबन्धित्वा कथापेसि | सुत्वा च - "बाले, किं एत्थ तुम्हं भारियसञ्ञा अहोसी" ति वेज्जं पक्कोसापेत्वा सुवण्णसत्थकेन बाहुं फालापेत्वा सुवण्णसरकेन लोहितं गहेत्वा उदकेन सम्भिन्दित्वा पायेसि । नेमित्तका तं सुत्वा- “एस गब्भो रञ्ञो सत्तु भविस्सति, इमिना राजा हञ्ञिस्तीति ब्याकरिंसु । देवी सुत्वा- " मव्हं किर कुच्छितो निक्खन्तो राजानं मारेस्सती 'ति गब्भं पातेतुकामा उय्यानं गन्त्वा कुच्छिं मद्दापेसि, गब्भो न पतति । सा पुनपुनं गन्त्वा तथेव कारेसि । राजा किमत्थं अयं अभिण्हं उय्यानं गच्छतीति परिवीमंसन्तो तं कारणं सुत्वा - “भद्दे, तव कुच्छियं पुत्तोति वा धीताति वा न पञ्ञायति, अत्तनो निब्बत्तदारकं एवमकासीति महा अगुणरासिपि नो जम्बुदीपतले आविभविस्सति, मा त्वं एवं करोही "ति निवारेत्वा आरक्खं अदासि । सा गब्भवुट्ठानकाले “मारेस्सामी’”ति चिन्तेसि । तदापि आरक्खमनुस्सा दारकं अपनयिंसु । अथापरेन समयेन 114 Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२.१५०-१५०) राजामच्चकथावण्णना ११५ किया गया कि कार का वुड्डिप्पत्तं कुमारं देविया दस्सेसुं । सा तं दिस्वाव पुत्तसिनेहं उप्पादेसि, तेन नं मारेतुं नासक्खि । राजापि अनुक्कमेन पुत्तस्स ओपरज्जमदासि | अथेकस्मिं समये देवदत्तो रहोगतो चिन्तेसि - “सारिपुत्तस्स परिसा महामोग्गल्लानस्स परिसा महाकस्सपस्स परिसाति, एवमिमे विसुं विसुं धुरा, अहम्पि एकं धुरं नीहरामी 'ति । सो “न सक्का विना लाभेन परिसं उप्पादेतुं, हन्दाहं लाभ निब्बत्तेमी"ति चिन्तेत्वा खन्धके आगतनयेन अजातसत्तुं कुमारं इद्धिपाटिहारियेन पसादेत्वा सायं पातं पञ्चहि रथसतेहि उपट्ठानं आगच्छन्तं अतिविस्सत्थं ञत्वा एकदिवसं उपसङ्कमित्वा एतदवोच - "पुब्बे खो, कुमार, मनुस्सा दीघायुका, एतरहि अप्पायुका, तेन हि त्वं कुमार, पितरं हन्त्वा राजा होहि, अहं भगवन्तं हन्त्वा बुद्धो भविस्सामीति कुमारं पितुवधे उय्योजेति । सो- “अय्यो देवदत्तो महानुभावो, एतस्स अविदितं नाम नत्थी'ति ऊरुया पोत्थनियं बन्धित्वा दिवा दिवस्स भीतो उब्बिग्गो उस्सङ्की उत्रस्तो अन्तेपुरं पविसित्वा वुत्तप्पकारं विप्पकारं अकासि । अथ नं अमच्चा गहेत्वा अनुयुजित्वा – “कुमारो च हन्तब्बो, देवदत्तो च, सब्बे च भिक्खू हन्तब्बा''ति सम्मन्तयित्वा रञो आणावसेन करिस्सामाति रो आरोचेसुं । __ राजा ये अमच्चा मारेतुकामा अहेसुं, तेसं ठानन्तरानि अच्छिन्दित्वा, ये न मारेतुकामा, ते उच्चेसु ठानेसु ठपेत्वा कुमारं पुच्छि – “किस्स पन त्वं, कुमार, मं मारेतुकामोसी"ति ? "रज्जेनम्हि, देव, अस्थिको''ति । राजा तस्स रज्जं अदासि । सो मय्हं मनोरथो निप्फन्नोति देवदत्तस्स आरोचेसि । ततो नं सो आह - “त्वं सिङ्गालं अन्तोकत्वा भेरिपरियोनद्धपुरिसो विय सुकिच्चकारिम्हीति मञ्जसि, कतिपाहेनेव ते पिता तया कतं अवमानं चिन्तेत्वा सयमेव राजा भविस्सती"ति । अथ, भन्ते, किं करोमीति ? मूलघच्चं घातेहीति। ननु, भन्ते, मय्हं पिता न सत्थवज्झोति ? आहारुपच्छेदेन नं मारेहीति । सो पितरं तापनगेहे पक्खिपापेसि, तापनगेहं नाम कम्मकरणत्थाय कतं धमघरं । "मम मातरं ठपेत्वा अञस्स दटुं मा देथा"ति आह । देवी सवण्णसरके भत्तं पक्खिपित्वा उच्छलेनादाय पविसति। राजा तं भजित्वा यापेति । सो- “महं पिता कथं यापेती"ति पुच्छित्वा तं पवत्तिं सुत्वा - "मय्हं मातु उच्छङ्गं 115 Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११६ दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गट्ठकथा (२.१५०-१५०) कत्वा पविसितुं मा देथा''ति आह । ततो पट्ठाय देवी मोळियं पक्खिपित्वा पविसति । तम्पि सुत्वा “मोळिं बन्धित्वा पविसितुं मा देथा''ति । ततो सुवण्णपादुकासु भत्तं ठपेत्वा पिदहित्वा पादुका आरुय्ह पविसति । राजा तेन यापेति । पुन “कथं यापेती"ति पुच्छित्वा तमत्थं सुत्वा “पादुका आरुय्ह पविसितुम्पि मा देथा"ति आह । ततो पट्ठाय देवी गन्धोदकेन न्हायित्वा सरीरं चतुमधुरेन मक्खेत्वा पारुपित्वा पविसति । राजा तस्सा सरीरं लेहित्वा यापेति । पुन पुच्छित्वा तं पवत्तिं सुत्वा “इतो पट्ठाय मय्हं मातु पवेसनं निवारेथा''ति आह । देवी द्वारमूले ठत्वा “सामि, बिम्बिसार, एतं दहरकाले मारेतुं न अदासि, अत्तनो सत्तुं अत्तनाव पोसेसि, इदं पन दानि ते पच्छिमदस्सनं, नाहं इतो पट्ठाय तुम्हे पस्सितुं लभामि, सचे मय्हं दोसो अत्थि, खमथ देवा"ति रोदित्वा कन्दित्वा निवत्ति । ततो पट्ठाय रञ्जो आहारो नत्थि । राजा मग्गफलसुखेन चङ्कमेन यापेति । अतिविय अस्स अत्तभावो विरोचति । सो- "कथं, मे भणे, पिता यापेती"ति पुच्छित्वा “चङ्कमेन, देव, यापेति; अतिविय चस्स अत्तभावो विरोचती"ति सुत्वा ‘चङ्कम दानिस्स हारेस्सामी'ति चिन्तेत्वा - "मय्हं पितु पादे खुरेन फालेत्वा लोणतेलेन मक्खेत्वा खदिरङ्गारेहि वीतच्चितेहि पचथा''ति न्हापिते पेसेसि । राजा ते दिस्वा - "नून मय्हं पुत्तो केनचि सञत्तो भविस्सति, इमे मम मस्सुकरणत्थायागता"ति चिन्तेसि । ते गन्त्वा वन्दित्वा अदंस । 'कस्मा आगतत्था'ति च पट्टा तं सासनं आरोचेसं। "तम्हाकं रज्जो मनं करोथा'ति च वुत्ता 'निसीद, देवा'ति वत्वा च राजानं वन्दित्वा – “देव, मयं रओ आणं करोम, मा अम्हाकं कुज्झित्थ, नयिदं तुम्हादिसानं धम्मराजूनं अनुच्छविक"न्ति वत्वा वामहत्थेन गोप्फके गहेत्वा दक्खिणहत्थेन खुरं गहेत्वा पादतलानि फालेत्वा लोणतेलेन मक्खेत्वा खदिरङ्गारेहि वीतच्चितेहि पचिंस । राजा किर पूब्बे चेतियङ्गणे सउपाहनो अगमासि, निसज्जनत्थाय पञत्तकटसारकञ्च अधोतेहि पादेहि अक्कमि, तस्सायं निस्सन्दोति वदन्ति । रो बलववेदना उप्पन्ना। सो- “अहो बुद्धो, अहो धम्मो, अहो सङ्घो''ति अनुस्सरन्तोयेव चेतियङ्गणे खित्तमाला विय मिलायित्वा चातुमहाराजिकदेवलोके वेस्सवणस्स परिचारको जनवसभो नाम यक्खो हुत्वा निब्बत्ति । तं दिवसमेव अजातसत्तुस्स पुत्तो जातो, पुत्तस्स जातभावञ्च पितुमतभावञ्च निवेदेतुं द्वे लेखा एकखणेयेव आगता। अमच्चा- “पठमं पुत्तस्स जातभावं आरोचेस्सामा''ति तं लेखं रओ हत्थे ठपेसुं। रओ तङ्खणेयेव पुत्तसिनेहो उप्पज्जित्वा 116 Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२.१५०-१५०) राजामच्चकथावण्णना ११७ सकलसरीरं खोभेत्वा अट्ठिमिजं आहच्च अट्ठासि । तस्मिं खणे पितुगुणमञ्जासि - “मयि जातेपि महं पितु एवमेव सिनेहो उप्पन्नोति । सो- “गच्छथ, भणे, मय्हं पितरं विस्सज्जेथा"ति आह । “किं विस्सज्जापेथ, देवा"ति इतरं लेखं हत्थे ठपयिंसु । ___सो तं पवत्तिं सुत्वा रोदमानो मातुसमीपं गन्त्वा - "अहोसि नु, खो, अम्म, मय्हं पितु मयि जाते सिनेहो"ति ? सा आह - "बालपुत्त, किं वदेसि, तव दहरकाले अङ्गुलिया पीळका उट्ठहि । अथ तं रोदमानं सापेतुं असक्कोन्ता तं गहेत्वा विनिच्छयट्ठाने निसिन्नस्स तव पितु सन्तिकं अगमंसु। पिता ते अङ्गुलिं मुखे ठपेसि । पीळका मुखेयेव भिज्जि । अथ खो पिता तव सिनेहेन तं लोहितमिस्सकं पुब्बं अनिट्ठभित्वाव अज्झोहरि । एवरूपो ते पितु सिनेहो''ति । सो रोदित्वा परिदेवित्वा पितु सरीरकिच्चं अकासि । देवदत्तोपि अजातसत्तुं उपसङ्कमित्वा - "पुरिसे, महाराज, आणापेहि, ये समणं गोतमं जीविता वोरोपेस्सन्ती''ति वत्वा तेन दिन्ने पुरिसे पेसेत्वा सयं गिज्झकूटं आरुय्ह यन्तेन सिलं पविज्झित्वा नाळागिरिहत्थिं मुञ्चापेत्वापि केनचि उपायेन भगवन्तं मारेतुं असक्कोन्तो परिहीनलाभसक्कारो पञ्च वत्थूनि याचित्वा तानि अलभमानो तेहि जनं सञापेस्सामीति सङ्घभेदं कत्वा सारिपुत्तमोग्गल्लानेसु परिसं आदाय पक्कन्तेसु उण्हलोहितं मुखेन छड्डत्वा नवमासे गिलानमञ्चे निपज्जित्वा विप्पटिसारजातो - "कुहिं एतरहि सत्था वसती''ति पुच्छित्वा “जेतवने''ति वुत्ते मञ्चकेन मं आहरित्वा सत्थारं दस्सेथाति वत्वा आहरियमानो भगवतो दस्सनारहस्स कम्मस्स अकतत्ता जेतवने पोक्खरणीसमीपेयेव द्वेधा भिन्नं पथविं पविसित्वा महानिरये पतिट्ठितोति । अयमेत्थ सङ्खपो । वित्थारकथानयो खन्धके आगतो । आगतत्ता पन सब् न वुत्तन्ति । एवं अजातोयेव रञो सत्तु भविस्सतीति नेमित्तकेहि निद्दिट्ठोति अजातसत्तु । वेदेहिपुत्तोति अयं कोसलरञो धीताय पुत्तो, न विदेहरो। वेदेहीति पन पण्डिताधिवचनमेतं । यथाह - “वेदेहिका गहपतानी (म० नि० १.२२६), अय्यो आनन्दो वेदेहमुनी''ति (सं० नि० १.२.१५४)। तत्रायं वचनत्थो- विदन्ति एतेनाति वेदो, आणस्सेतं अधिवचनं । वेदेन ईहति घटति वायमतीति वेदेही। वेदेहिया पुत्तो वेदेहिपुत्तो। तदहूति तस्मिं अहु, तस्मिं दिवसेति अत्थो । उपवसन्ति एत्थाति उपोसथो, 117 Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११८ (२.१५० - १५० ) उपवसन्तीति सीलेन वा अनसनेन वा उपेता हुत्वा वसन्तीति अत्थो । अयं पनेत्थ अत्थुद्धारो - “ आयामावुसो, कप्पिन, उपोसथं गमिस्सामा ''तिआदीसु पातिमोक्खुद्देसो उपोसथो । “एवं अट्ठङ्गसमन्नागतो खो, विसाखे, उपोसथो उपवुत्थो "तिआदीसु (अ० नि० ३.८.४३) सीलं । “सुद्धस्स वे सदा फग्गु, सुद्धस्सुपोसथो सदा 'तिआदीसु (म० नि० १.७९) उपवासो । “उपोसथो नाम नागराजा' 'तिआदीसु (दी० नि० २.२४६) पञ्ञत्ति । “न, भिक्खवे, तदहुपोसथे सभिक्खुका आवासा "तिआदीसु (महाव० १८१) उपवसितब्बदिवसो। इधापि सोयेव अधिप्पेतो । सो पनेस अट्टमी चातुद्दसी पन्नरसीभेदेन तिविधो । तस्मा सेसद्वयनिवारणत्थं पन्नरसेति वुत्तं । तेनेव वुत्तं - “ उपवसन्ति एत्थाति उपोसथो 'ति । दीघनिकाये सीलक्खन्धवरगट्ठकथा कोमुदियाति कुमुदवतिया । तदा किर कुमुदानि सुपुम्फितानि होन्ति, तानि एत्थ सन्तीति कोमुदी । चातुमासिनियाति चातुमासिया, सा हि चतुन्नं मासानं परियोसानभूताति चातुमासी । इध पन चातुमासिनीति वुच्चति । मासपुण्णताय उतुपुण्णताय संवच्छरपुण्णताय पुण्णा सम्पुण्णाति पुण्णा । मा इति चन्दो वुच्चति, सो एत्थ पुण्णोति पुण्णमा । एवं पुणाय पुण्णमायाति इमस्मिं पदद्वये च अत्थो वेदितब्बो । राजामच्चपरितोति एवरूपाय रजतघटविनिग्गताहि खीरधाराहि धोवियमानदिसाभागाय विय, रजतविमानविच्चुतेहि मुत्तावळिसुमनकुसुमदामसेतदुकूलकुमुदविसरेहि सम्परिकिण्णाय विय च, चतुरुपक्किलेसविमुत्तपुण्णचन्दप्पभासमुदयोभासिताय रत्तिया राजामच्चेहि परितोति अत्थो । उपरिपासादवरगतोति पासादवरस्स उपरिगतो । महार हे समुस्सित सेतच्छत्ते कञ्चनासने निसिन्नो होति । कस्मा निसिनो ? निद्दाविनोदनत्थं । अयहि राजा पितरि उपक्कन्तदिवसतो पट्ठाय “निद्दं ओक्कमिस्सामी”ति निमीलितमत्तेसुयेव अक्खी सत्तिसतअब्भाहतो विय कन्दमानोयेव पबुज्झि । किमेतन्ति च वुत्ते, न किञ्चीति वदति । तेनस्स अमनापा निद्दा, इति निद्दाविनोदनत्थं निसिन्नो । अपि च तस्मिं दिवसे नक्खत्तं सङ्घ होति । सब्ब नगरं सित्तसम्मट्ठे विप्पकिण्णवाकं पञ्चवण्णकुसुमलाजपुण्णघटपटिमण्डितघरद्वारं समुस्सितधजपटाकविचित्रसमुज्जलितदीपमालालङ्कतसब्बदिसाभागं वीथिसभागेन रच्छासभागेन नक्खत्तकीळं अनुभवमानेन महाजनेन समाकिण्णं होति । इति नक्खत्तदिवसतायपि निसिन्नोति वदन्ति । एवं पन वत्वापि - "राजकुलस्स नाम सदापि नक्खत्तमेव निद्दाविनोदनत्थंयेव पनेस निसिन्नो 'ति सन्निट्ठानं कतं । 118 Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२.१५०-१५०) राजामच्चकथावण्णना ११९ उदानं उदानेसीति उदाहारं उदाहरि, यथा हि यं तेलं मानं गहेतुं न सक्कोति, विस्सन्दित्वा गच्छति, तं अवसेकोति वुच्चति । यञ्च जलं तळाकं गहेतुं न सक्कोति, अज्झोत्थरित्वा गच्छति, तं ओघोति वुच्चति; एवमेव यं पीतिवचनं हदयं गहेतुं न सक्कोति, अधिकं हुत्वा अन्तो असण्ठहित्वा बहिनिक्खमति, तं उदानन्ति वुच्चति । एवरूपं पीतिमयं वचनं निच्छारेसीति अत्थो । दोसिनाति दोसापगता, अब्भा, महिका, धूमो, रजो, राहूति इमेहि पञ्चहि उपक्किलेसेहि विरहिताति वुत्तं होति । तस्मा रमणीयातिआदीनि पञ्च थोमनवचनानि । सा हि महाजनस्स मनं रमयतीति रमणीया। वुत्तदोसविमुत्ताय चन्दप्पभाय ओभासितत्ता अतिविय सुरूपाति अभिरूपा। दस्सितुं युत्ताति दस्सनीया। चित्तं पसादेतीति पासादिका। दिवसमासादीनं लक्खणं भवितुं युत्ताति लक्खञा। ___ कं नु ख्वज्जाति कं नु खो अज्ज | समणं वा ब्राह्मणं वाति समितपापताय समणं । बाहितपापताय ब्राह्मणं। यं नो पयिरुपासतोति वचनब्यत्तयो एस, यं अम्हाकं पञ्हपुच्छनवसेन पयिरुपासन्तानं मधुरं धम्मं सुत्वा चित्तं पसीदेय्याति अत्थो । इति राजा इमिना सब्बेनपि वचनेन ओभासनिमित्तकम्मं अकासि । कस्स अकासीति ? जीवकस्स । किमत्थं ? भगवतो दस्सनत्थं । किं भगवन्तं सयं दस्सनाय उपगन्तुं न सक्कोतीति ? आम, न सक्कोति । कस्मा ? महापराधताय । तेन हि भगवतो उपट्ठाको अरियसावको अत्तनो पिता मारितो, देवदत्तो च तमेव निस्साय भगवतो बहुं अनत्थमकासि, इति महापराधो एस, ताय महापराधताय सयं गन्तुं न सक्कोति । जीवको पन भगवतो उपट्ठाको, तस्स पिट्टिछायाय भगवन्तं पस्सिस्सामीति ओभासनिमित्तकम्मं अकासि | किं जीवको पन - "महं इदं ओभासनिमित्तकम्म"न्ति जानातीति ? आम जानाति । अथ कस्मा तुण्ही अहोसीति ? विक्खेपपच्छेदनत्थं । तस्सहि परिसति छन्नं सत्थारानं उपट्ठाका बहू सन्निपतिता, ते असिक्खितानं पयिरुपासनेन सयम्पि असिक्खिताव । ते मयि भगवतो गुणकथं आरद्धे अन्तरन्तरा उट्ठायुट्ठाय अत्तनो सत्थारानं गुणं कथेस्सन्ति, एवं मे सत्थु गुणकथा परियोसानं न गमिस्सति । राजा पन इमेसं कुलूपके उपसङ्कमित्वा गहितासारताय तेसं गुणकथाय 119 Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२० दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गट्ठकथा (२.१५१-१५२-१५१-१५२) अनत्तमनो हुत्वा मं पटिपुच्छिस्सति, अथाहं निबिक्खेपं सत्थु गुणं कथेत्वा राजानं सत्थु सन्तिकं गहेत्वा गमिस्सामीति जानन्तोव विक्खेपपच्छेदनत्थं तुण्ही अहोसीति । तेपि अमच्चा एवं चिन्तेसुं- “अज्ज राजा पञ्चहि पदेहि रत्तिं थोमेति, अद्धा किञ्चि समणं वा ब्राह्मणं वा उपसङ्कमित्वा पहं पुच्छित्वा धम्मं सोतुकामो, यस्स चेस धम्म सुत्वा पसीदिस्सति, तस्स च महन्तं सक्कारं करिस्सति, यस्स पन कुलूपको समणो राजकुलूपको होति, भदं तस्सा''ति । १५१-१५२. ते एवं चिन्तेत्वा- “अहं अत्तनो कुलूपकसमणस्स वण्णं वत्वा राजानं गहेत्वा गमिस्सामि, अहं गमिस्सामी"ति अत्तनो अत्तनो कुलूपकानं वण्णं कथेतुं आरद्धा । तेनाह - "एवं वुत्ते अञ्जतरो राजामच्चो"तिआदि । तत्थ पूरणोति तस्स सत्थुपटिचस्स नामं । कस्सपोति गोत्तं । सो किर अञ्जतरस्स कुलस्स एकूनदाससतं पूरयमानो जातो, तेनस्स पूरणोति नामं अकंसु । मङ्गलदासत्ता चस्स “दुक्कट"न्ति वत्ता नत्थि, अकतं वा न कतन्ति । सो “किमहं एत्थ वसामी"ति पलायि । अथस्स चोरा वत्थानि अच्छिन्दिंसु, सो पण्णेन वा तिणेन वा पटिच्छादेतुम्पि अजानन्तो जातरूपेनेव एकं गामं पाविसि । मनुस्सा तं दिस्वा “अयं समणो अरहा अप्पिच्छो, नत्थि इमिना सदिसो''ति पूवभत्तादीनि गहेत्वा उपसङ्कमन्ति । सो- "महं साटकं अनिवत्थभावेन इदं उप्पन्न"न्ति ततो पट्ठाय साटकं लभित्वापि न निवासेसि, तदेव पब्बज्जं अग्गहेसि, तस्स सन्तिके अञपि अजेपीति पञ्चसतमनुस्सा पब्बजिंसु । तं सन्धायाह - "पूरणो कस्सपो"ति । पब्बजितसमूहसङ्घातो सङ्घो अस्स अत्थीति सङ्घी । स्वेव गणो अस्स अत्थीति गणी। आचारसिक्खापनवसेन तस्स गणस्स आचरियोति गणाचरियो। जातोति पातो पाकटो । "अप्पिच्छो सन्तुट्ठो । अप्पिच्छताय वत्थम्पि न निवासेती''ति एवं समुग्गतो यसो अस्स अत्थीति यसस्सी। तित्थकरोति लद्धिकरो। साधुसम्मतोति अयं साधु, सुन्दरो, सप्पुरिसोति एवं सम्मतो। बहुजनस्साति अस्सुतवतो अन्धबालपुथुज्जनस्स। पब्बजिततो पट्ठाय अतिक्कन्ता बहू रत्तियो जानातीति रत्तजू। चिरं पब्बजितस्स अस्साति चिरपब्बजितो, अचिरपब्बजितस्स हि कथा ओकप्पनीया न होति, तेनाह “चिरपब्बजितो''ति । अद्धगतोति अद्धानं गतो, द्वे तयो राजपरिवट्टे अतीतोति अधिप्पायो । वयोअनुष्पत्तोति पच्छिमवयं अनुप्पत्तो । इदं उभयम्पि – “दहरस्स कथा ओकप्पनीया न होती"ति एतं सन्धाय वुत्तं । 120 Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२.१५३-१५६) राजामच्चकथावण्णना __ तुही अहोसीति सुवण्णवण्णं मधुररसं अम्बपक्कं खादितुकामो पुरिसो आहरित्वा हत्थे ठपितं काजरपक्कं दिस्वा विय झानाभिज्ञादिगुणयुत्तं तिलक्खणब्भाहतं मधुरं धम्मकथं सोतुकामो पुब्बे पूरणस्स दस्सनेनापि अनत्तमनो इदानि गुणकथाय सुट्ठतरं अनत्तमनो हुत्वा तुण्ही अहोसि । अनत्तमनो समानोपि पन “सचाहं एतं तज्जेत्वा गीवायं गहेत्वा नीहरापेस्सामि, 'यो यो कथेसि, तं तं राजा एवं करोती'ति भीतो अोपि कोचि किञ्चि न कथेस्सती"ति अमनापम्पि तं कथं अधिवासेत्वा तुण्ही एव अहोसि । अथो“अहं अत्तनो कुलूपकस्स वण्णं कथेस्सामी"ति चिन्तेत्वा वत्तुं आरभि । तेन वुत्तं - अञतरोपि खोतिआदि । तं सब् वुत्तनयेनेव वेदितब् । एत्थ पन मक्खलीति तस्स नाम । गोसालाय जातत्ता गोसालोति दुतियं नामं । तं किर सकद्दमाय भूमिया तेलघटं गहेत्वा गच्छन्तं - "तात, मा खली''ति सामिको आह । सो पमादेन खलित्वा पतित्वा सामिकस्स भयेन पलायितुं आरद्धो। सामिको उपधावित्वा दुस्सकण्णे अग्गहेसि । सो साटकं छड्डत्वा अचेलको हुत्वा पलायि । सेसं पूरणसदिसमेव । १५३. अजितोति तस्स नामं । केसकम्बलं धारेतीति केसकम्बलो। इति नामद्वयं संसन्दित्वा अजितो केसकम्बलोति वुच्चति । तत्थ केसकम्बलो नाम मनुस्सकेसेहि कतकम्बलो । ततो पटिकिट्ठतरं वत्थं नाम नत्थि । यथाह – “सेय्यथापि, भिक्खवे, यानि कानिचि तन्तावुतानं वत्थानं, केसकम्बलो तेसं पटिकिट्ठो अक्खायति । केसकम्बलो, भिक्खवे, सीते सीतो, उण्हे उण्हो, दुब्बण्णो दुग्गन्धो दुक्खसम्फस्सो''ति (अ० नि० १.३.१३८)। १५४. पकुधोति तस्स नामं । कच्चायनोति गोत्तं । इति नामगोत्तं संसन्दित्वा पकुधो कच्चायनोति वुच्चति । सीतुदकपटिक्खित्तको एस, वच्चं कत्वापि उदककिच्चं न करोति, उण्होदकं वा कञ्जियं वा लभित्वा करोति, नदिं वा मग्गोदकं वा अतिक्कम्म- “सीलं मे भिन्नन्ति वालिकथूपं कत्वा सीलं अधिट्ठाय गच्छति । एवरूपो निस्सिरीकलद्धिको एस | १५५. सञ्चयोति तस्स नामं । बेलट्ठस्स पुत्तोति बेलझुपुत्तो। १५६. अम्हाकं गण्ठनकिलेसो पलिबन्धनकिलेसो नत्थि, किलेसगण्ठरहिता मयन्ति एवंवादिताय लद्धनामवसेन निगण्ठो। नाटस्स पुत्तो नाटपुत्तो। 121 Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२ दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गटुकथा (२.१५७-१५७) कोमारभच्चजीवककथावण्णना १५७. अथ खो राजाति राजा किर तेसं वचनं सुत्वा चिन्तेसि - “अहं यस्स यस्स वचनं न सोतुकामो, सो सो एव कथेसि । यस्स पनम्हि वचनं सोतुकामो, एस नागवसं पिवित्वा ठितो सुपण्णो विय तुण्हीभूतो, अनत्थो वत मे"ति । अथस्स एतदहोसि - “जीवको उपसन्तस्स बुद्धस्स भगवतो उपट्ठाको, सयम्पि उपसन्तो, तस्मा वत्तसम्पन्नो भिक्खु विय तुण्हीभूतोव निसिन्नो, न एस मयि अकथेन्ते कथेस्सति, हथिम्हि खो पन मद्दन्ते हथिस्सेव पादो गहेतब्बो''ति तेन सद्धिं सयं मन्तेतुमारद्धो । तेन वुत्त - “अथ खो राजा"ति । तत्थ किं तुण्हीति केन कारणेन तुण्ही । इमेसं अमच्चानं अत्तनो अत्तनो कुलूपकसमणस्स वण्णं कथेन्तानं मुखं नप्पहोति । किं यथा एतेसं, एवं तव कुलूपकसमणो नत्थि, किं त्वं दलिद्दो, न ते मम पितरा इस्सरियं दिन्नं, उदाहु अस्सद्धोति पुच्छति । ततो जीवकस्स एतदहोसि - "अयं राजा मं कुलूपकसमणस्स गुणं कथापेति, न दानि मे तुण्हीभावस्स कालो, यथा खो पनिमे राजानं वन्दित्वा निसिन्नाव अत्तनो कुलूपकसमणानं गुणं कथयिंसु, न मय्हं एवं सत्थुगुणे कथेतुं युत्त"न्ति उठायासना भगवतो विहाराभिमुखो पञ्चपतिहितेन वन्दित्वा दसनखसमोधानसमुज्जलं अञ्जलिं सिरसि पग्गहेत्वा -- “महाराज, मा मं एवं चिन्तयित्थ, 'अयं यं वा तं वा समणं उपसङ्कमती'ति, मम सत्थुनो हि मातुकुच्छिओक्कमने, मातुकुच्छितो निक्खमने, महाभिनिक्खमने, सम्बोधियं, धम्मचक्कप्पवत्तने च, दससहस्सिलोकधातु कम्पित्थ, एवं यमकपाटिहारियं अकासि, एवं देवोरोहणं, अहं सत्थुनो गुणे कथयिस्सामि, एकग्गचित्तो सुण, महाराजा''ति वत्वा- “अयं देव, भगवा अरहं सम्मासम्बुद्धो"तिआदिमाह । तत्थ तं खो पन भगवन्तन्ति इत्थम्भूताख्यानत्थे उपयोगवचनं, तस्स खो पन भगवतोति अत्थो । कल्याणोति कल्याणगुणसमन्नागतो, सेट्ठोति वुत्तं होति । कित्तिसहोति कित्तियेव । थुतिघोसो वा । अन्भुग्गतोति सदेवकं लोकं अज्झोत्थरित्वा उग्गतो। किन्ति ? "इतिपि सो भगवा अरहं सम्मासम्बुद्धो...पे०... भगवा"ति । तत्रायं पदसम्बन्धो- सो भगवा इतिपि अरहं इतिपि सम्मासम्बुद्धो...पे०... इतिपि भगवाति । इमिना च इमिना च कारणेनाति वुत्तं होति । तत्थ आरकत्ता अरीनं, अरानञ्च हतत्ता, पच्चयादीनं अरहत्ता, पापकरणे रहाभावाति, इमेहि ताव कारणेहि सो 122 Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२.१५८-१५८) कोमारभच्चजीवककथावण्णना १२३ भगवा अरहन्ति वेदितब्बोतिआदिना नयेन मातिकं निक्खिपित्वा सब्बानेव चेतानि पदानि विसुद्धिमग्गे बुद्धानुस्सतिनिद्देसे वित्थारितानीति ततो नेसं वित्थारो गहेतब्बो । __ जीवको पन एकमेकस्स पदस्स अत्थं निट्ठापेत्वा – “एवं, महाराज, अरहं मय्हं सत्था, एवं सम्मासम्बुद्धो...पे०... एवं भगवा''ति वत्वा - "तं, देवो, भगवन्तं पयिरुपासतु, अप्पेव नाम देवस्स तं भगवन्तं पयिरुपासतो चित्तं पसीदेय्या"ति आह । एत्थ च तं देवो पयिरुपासतूति वदन्तो “महाराज, तुम्हादिसानहि सतेनपि सहस्सेनपि सतसहस्सेनपि पुट्ठस्स मय्हं सत्थुनो सब्बेसं चित्तं गहेत्वा कथेतुं थामो च बलञ्च अत्थि, विस्सत्थो उपसङ्कमित्वा पुच्छेय्यासि महाराजा"ति आह । रोपि भगवतो गुणकथं सुणन्तस्स सकलसरीरं पञ्चवण्णाय पीतिया निरन्तरं फुट अहोसि | सो तङ्क्षण व गन्तुकामो हुत्वा - "इमाय खो पन वेलाय मय्हं दसबलस्स सन्तिकं गच्छतो न अञ्जो कोचि खिप्पं यानानि योजेतुं सक्खिस्सति अझत्र जीवका''ति चिन्तेत्वा - "तेन हि, सम्म जीवक, हथियानानि कप्पापेही"ति आह । १५८. तत्थ तेन हीति उय्योजनत्थे निपातो। गच्छ, सम्म जीवकाति वुत्तं होति । हत्थियानानीति अनेकेसु अस्सरथादीसु यानेसु विज्जमानेसुपि हत्थियानं उत्तमं; उत्तमस्स सन्तिकं उत्तमयानेनेव गन्तब्बन्ति च, अस्सयानरथयानानि ससद्दानि, दूरतोव तेसं सद्दो सुय्यति, हत्थियानस्स पदानुपदं गच्छन्तापि सदं न सुणन्ति । निब्बुतस्स पन खो भगवतो सन्तिके निब्बतेहेव यानेहि गन्तब्बन्ति च चिन्तयित्वा हत्थियानानीति आह ।। पञ्चमत्तानि हस्थिनिकासतानीति पञ्च करेणुसतानि । कप्पापेत्वाति आरोहणसज्जानि कारेत्वा । आरोहणीयन्ति आरोहणयोग्गं, ओपगुटहन्ति अत्थो। किं पनेस रञा वुत्तं अकासि अवुत्तन्ति ? अवुत्तं । कस्मा ? पण्डितताय । एवं किरस्स अहोसि - राजा इमाय वेलाय गच्छामीति वदति, राजानो च नाम बहुपच्चत्थिका । सचे अन्तरामग्गे कोचि अन्तरायो होति, मम्पि गरहिस्सन्ति- “जीवको राजा मे कथं गण्हातीति अकालेपि राजानं गहेत्वा निक्खमती"ति । भगवन्तम्पि गरहिस्सन्ति "समणो गोतमो, 'महं कथा वत्ततीति कालं असल्लक्खेत्वाव धम्म कथेतीति । तस्मा यथा नेव महं, न भगवतो, गरहा उप्पज्जति; रो च रक्खा सुसंविहिता होति, तथा करिस्सामी'ति । 123 Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४ दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गट्ठकथा (२.१५९-१५९) ततो इत्थियो निस्साय पुरिसानं भयं नाम नत्थि, 'सुखं इत्थिपरिवुतो गमिस्सामी'ति पञ्च हस्थिनिकासतानि कप्पापेत्वा पञ्च इथिसतानि पुरिसवेसं गाहापेत्वा - “असितोमरहत्था राजानं परिवारेय्याथा'ति वत्वा पुन चिन्तेसि - “इमस्स रञो इमस्मिं अत्तभावे मग्गफलानं उपनिस्सयो नत्थि, बुद्धा च नाम उपनिस्सयं दिस्वाव धम्म कथेन्ति | हन्दाहं, महाजनं सन्निपातापेमि, एवहि सति सत्था कस्सचिदेव उपनिस्सयेन धम्म देसेस्सति, सा महाजनस्स उपकाराय भविस्सती''ति । सो तत्थ तत्थ सासनं पेसेसि, भेरिं चरापेसि - “अज्ज राजा भगवतो सन्तिकं गच्छति, सब्बे अत्तनो विभवानुरूपेन रो आरक्खं गण्हन्तू''ति । ततो महाजनो चिन्तेसि - “राजा किर सत्थुदस्सनत्थं गच्छति, कीदिसी वत भो धम्मदेसना भविस्सति, किं नो नक्खत्तकीळाय, तत्थेव गमिस्सामा''ति । सब्बे गन्धमालादीनि गहेत्वा रो आगमनं आकङ्खमाना मग्गे अटुंसु। जीवकोपि रो पटिवेदेसि - "कप्पितानि खो ते, देव, हथियानानि, यस्स दानि कालं मञ्जसी'ति । तत्थ यस्स दानि कालं मञ्जसीति उपचारवचनमेतं । इदं वुत्तं होति- “यं तया आणत्तं, तं मया कतं, इदानि त्वं यस्स गमनस्स वा अगमनस्स वा कालं मञ्जसि, तदेव अत्तनो रुचिया करोही''ति । १५९. पच्चेका इथियोति पाटियेक्का इत्थियो, एकेकिस्सा हत्थिनिया एकेकं इत्थिन्ति वुत्तं होति । उक्कासु धारियमानासूति दण्डदीपिकासु धारियमानासु । महच्च राजानुभावेनाति महता राजानुभावेन । महच्चातिपि पाळि, महतियाति अत्थो, लिङ्गविपरियायो एस । राजानुभावो वुच्चति राजिद्धि । का पनस्स राजिद्धि ? तियोजनसतानं द्विन्नं महारट्ठानं इस्सरियसिरी। तस्स हि असुकदिवसं राजा तथागतं उपसङ्कमिस्सतीति पठमतरं संविदहने असतिपि तङ्क्षण व पञ्च इत्थिसतानि पुरिसवेसं गहेत्वा पटिमुक्कवेठनानि अंसे आसत्तखग्गानि मणिदण्डतोमरे गहेत्वा निक्खमिंसु । यं सन्धाय वुत्तं - “पच्चेका इथियो आरोपेत्वा''ति। अपरापि सोळससहस्सखत्तियनाटकित्थियो राजानं परिवारेसुं। तासं परियन्ते खुज्जवामनककिरातादयो । तासं परियन्ते अन्तेपुरपालका विस्सासिकपुरिसा। तेसं परियन्ते विचित्रवेसविलासिनो सट्ठिसहस्समत्ता महामत्ता। तेसं परियन्ते विविधालङ्कारपटिमण्डिता नानप्पकारआवुधहत्था विज्जाधरतरुणा विय नवुतिसहस्समत्ता रट्ठियपुत्ता। तेसं परियन्ते 124 Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२.१५९-१५९) कोमारभच्चजीवककथावण्णना १२५ सतग्घनिकानि निवासेत्वा पञ्चसतग्घनिकानि एकंसं कत्वा सुन्हाता सुविलित्ता कञ्चनमालादिनानाभरणसोभिता दससहस्समत्ता ब्राह्मणा दक्खिणहत्थं उस्सापेत्वा जयसइं घोसन्ता गच्छन्ति । तेसं परियन्ते पञ्चङ्गिकानि तूरियानि। तेसं परियन्ते धनुपन्तिपरिक्खेपो । तस्स परियन्ते हथिघटा । हत्थीनं परियन्ते गीवाय गीवं पहरमाना अस्सपन्ति । अस्सपरियन्ते अञमजं सङ्घट्टनरथा । रथपरियन्ते बाहाय बाहं पहरयमाना योधा । तेसं परियन्ते अत्तनो अत्तनो अनुरूपाय आभरणसम्पत्तिया विरोचमाना अट्ठारस सेनियो। इति यथा परियन्ते ठत्वा खित्तो सरो राजानं न पापुणाति, एवं जीवको कोमारभच्चो रो परिसं संविदहित्वा अत्तना रो अविदूरेनेव गच्छति - "सचे कोचि उपद्दवो होति, पठमतर रो जीवितदानं दस्सामी'ति । उक्कानं पन एत्तकानि सतानि वा सहस्सानि वाति परिच्छेदो नत्थीति एवरूपिं राजिद्धिं सन्धाय वुत्तं - "महच्चराजानुभावेन येन जीवकस्स कोमारभच्चस्स अम्बवनं, तेन पायासी''ति । अहुदेव भयन्ति एत्थ चित्तुत्रासभयं, आणभयं, आरम्मणभयं, ओत्तप्पभयन्ति चतुब्बिधं भयं, तत्थ “जातिं पटिच्च भयं भयानक"न्तिआदिना नयेन वुत्तं चित्तुत्रासभयं नाम । "तेपि तथागतस्स धम्मदेसनं सुत्वा येभुय्येन भयं संवेगं सन्तासं आपज्जन्ती"ति (सं० नि० २.३.७८) एवमागतं आणभयं नाम | "एतं नून तं भयभेरवं आगच्छती''ति (म० नि० १.४९) एत्थ वुत्तं आरम्मणभयं नाम । "भीरुं पसंसन्ति, न हि तत्थ सूरं । भया हि सन्तो, न करोन्ति पाप"न्ति ।। (सं० नि० १.३३) इदं ओत्तप्पभयं नाम । तेसु इध चित्तुत्रासभयं, अहु अहोसीति अत्थो । छम्भितत्तन्ति छम्भितस्स भावो । सकलसरीरचलनन्ति अत्थो । लोमहंसोति लोमहंसनं, उद्धं ठितलोमताति अत्थो। सो पनायं लोमहंसो धम्मस्सवनादीसु पीतिउप्पत्तिकाले पीतियापि होति । भीरुकजातिकानं सम्पहारपिसाचादिदस्सनेसु भयेनापि । इध भयलोमहंसोति वेदितब्बो । कस्मा पनेस भीतोति ? अन्धकारेनाति एके वदन्ति । राजगहे किर द्वत्तिंस महाद्वारानि, चतुसट्ठि खुद्दकद्वारानि । जीवकस्स अम्बवनं पाकारस्स च गिज्झकूटस्स च अन्तरा होति । सो पाचीनद्वारेन निक्खमित्वा पब्बतच्छायाय पाविसि, तत्थ पब्बतकूटेन 125 Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२६ दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गट्ठकथा (२.१६०-१६०) चन्दो छादितो, पब्बतच्छायाय च रुक्खच्छायाय च अन्धकारं अहोसीति, तम्पि अकारणं । तदा हि उक्कानं सतसहस्सानम्पि परिच्छेदो नत्थि । __ अयं पन अप्पसद्दतं निस्साय जीवके आसङ्काय भीतो। जीवको किरस्स उपरिपासादेयेव आरोचेसि - “महाराज अप्पसद्दकामो भगवा, अप्पसदेनेव उपसङ्कमितब्बो''ति । तस्मा राजा तूरियसदं निवारेसि । तूरियानि केवलं गहितमत्तानेव होन्ति, वाचम्पि उच्चं अनिच्छारयमाना अच्छरासज्ञाय गच्छन्ति । अम्बवनेपि कस्सचि खिपितसद्दोपि न सुय्यति । राजानो च नाम सद्दाभिरता होन्ति । सो तं अप्पसद्दतं निस्साय उक्कण्ठितो जीवकेपि आसङ्कं उप्पादेसि । “अयं जीवको मय्हं अम्बवने अड्डतेळसानि भिक्खुसतानी"ति आह । एत्थ च खिपितसद्दमत्तम्पि न सुय्यति, अभूतं मझे, एस वञ्चेत्वा मं नगरतो नीहरित्वा पुरतो बलकायं उपट्ठपेत्वा मं गण्हित्वा अत्तना छत्तं उस्सापेतुकामो । अयहि पञ्चन्नं हत्थीनं बलं धारेति । मम च अविदूरेनेव गच्छति, सन्तिके च मे आवुधहत्थो एकपुरिसोपि नस्थि । अहो वत मे अनत्थो"ति । एवं भायित्वा च पन अभीतो विय सन्धारेतुम्पि नासक्खि । अत्तनो भीतभावं तस्स आवि अकासि । तेन वुत्तं । “अथ खो राजा...पे०... न निग्योसो"ति । तत्थ सम्माति वयस्साभिलापो एस, कच्चि मं वयस्साति वुत्तं होति । न पलम्भेसीति यं नत्थि तं अस्थीति वत्वा कच्चि मं न विप्पलम्भयसि । निग्योसोति कथासल्लापनिग्घोसो । मा भायि, महाराजाति जीवको – “अयं राजा मं न जानाति 'नायं परं जीविता वोरोपेती'ति; सचे खो पन नं न अस्सासेस्सामि, विनस्सेय्या"ति चिन्तयित्वा दळ्हं कत्वा समस्सासेन्तो "मा भायि महाराजा"ति वत्वा "न तं देवा"तिआदिमाह । अभिक्कमाति अभिमुखो कम गच्छ, पविसाति अत्थो । सकिं वुत्ते पन दळ्हं न होतीति तरमानोव द्विक्खत्तुं आह । एते मण्डलमाळे दीपा झायन्तीति महाराज, चोरबलं नाम न दीपे जालेत्वा तिट्ठति, एते च मण्डलमाळे दीपा जलन्ति । एताय दीपसाय याहि महाराजाति वदति। सामञफलपुच्छावण्णना १६०. नागस्स भूमीति यत्थ सक्का हत्थिं अभिरूळ्हेन गन्तुं, अयं नागस्स भूमि नाम | नागा पच्चोरोहित्वाति विहारस्स बहिद्वारकोळुके हत्थितो ओरोहित्वा । भूमियं 126 Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२.१६१ - १६१) सामञ्ञफलपुच्छावण्णना पतिट्ठितसमकालमेव पन भगवतो तेजो रञ्ञो सरीरं फरि । अथस्स तावदेव सकलसरीरतो सेदा मुच्चिंसु, साटका पीळेत्वा अपनेतब्बा विय अहेसुं । अत्तनो अपराधं सरित्वा महाभयं उपज्जि । सो उजुकं भगवतो सन्तिकं गन्तुं असक्कोन्तो जीवकं हत्थे गहेत्वा आरामचारिकं चरमानो विय “ इदं ते सम्म जीवक सुट्टु कारितं इदं सुटु कारित "न्ति विहारस्स वण्णं भणमानो अनुक्कमेन येन मण्डलमाळस्स द्वारं तेनुपसङ्कमि, सम्पत्तोति अत्थो । कहं पन सम्माति कस्मा पुच्छीति । एके ताव “ अजानन्तो 'ति वदन्ति । इमिना किर दहरकाले पितरा सद्धिं आगम्म भगवा दिट्ठपुब्बो, पच्छा पन पापमित्तसंसग्गेन पितुघातं कत्वा अभिमारे पेसेत्वा धनपालं मुञ्चापेत्वा महापराधो हुत्वा भगवतो सम्मुखीभावं न उपगतपुब्बोति असञ्जानन्तो पुच्छतीति । तं अकारणं, भगवा हि आकिण्णवरलक्खणो अनुब्यञ्जनपटिमण्डितो छब्बण्णाहि रस्मीहि सकलं आरामं ओभासेत्वा तारागणपरिवुतो विय पुण्णचन्दो भिक्खुगणपरिवुतो मण्डलमाळमज्झे निसिन्नो, तं को न जानेय्य । अयं पन अत्तनो इस्सरियलीलाय पुच्छति । पकति हेसा राजकुलानं, यं जानन्तापि अजानन्ता विय पुच्छन्ति । जीवको पन तं सुत्वा - 'अयं राजा पथवियं ठत्वा कुहिं पथवीति, नभं उल्लोकेत्वा कुहिं चन्दिमसूरियाति, सिनेरुमूले ठत्वा कुहिं सिनेरूति वदमानो विय दसबलस्स पुरतो ठत्वा कुहिं भगवा ति पुच्छति । “हन्दस्स भगवन्तं दस्सेस्सामी "ति चिन्तेत्वा येन भगवा तेनञ्जलिं पणामेत्वा “ एसो महाराजा "ति आदिमाह । पुरक्खतोति परिवारेत्वा निसिन्नरस पुरतो निसिन्नो । १२७ १६१. येन भगवा तेनुपसङ्गमीति यत्थ भगवा तत्थ गतो, भगवतो सन्तिकं उपगतोति अत्थो | एकमन्तं अट्ठासीति भगवन्तं वा भिक्खुसंघं वा असङ्घट्टयमानो अत्तनो ठातुं अनुच्छविके एकस्मिं पदेसे भगवन्तं अभिवादेत्वा एकोव अट्ठासि । तुहीभूतं तुम्हीभूतन्ति यतो यतो अनुविलोकेति ततो ततो तुम्हीभूतमेवाति अत्थो । तत्थ भिक्खु हत्थकुक्कुच्चं वा पादकुक्कुच्च वा खिपितसद्दो वा नत्थि, सब्बालङ्कारपटिमण्डितं नाटकपरिवारं भगवतो अभिमुखे ठितं राजानं वा राजपरिसं वा एक भिक्खुपि न ओलोकेसि । सब्बे भगवन्तंयेव ओलोकयमाना निसीदिंसु । राजा तेसं उपसमे पसीदित्वा विगतपङ्कताय विप्पसन्नरहदमिव उपसन्तिन्द्रियं भिक्खुस पुनप्पुनं अनुविलोकेत्वा उदानं उदानेसि। तत्थ इमिनाति येन कायिकेन च 127 Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२८ दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गट्ठकथा वाचसिकेन च मानसिकेन च सीलूपसमेन भिक्खुसङ्घो उपसन्तो, इमिना उपसमेनाति दीपेति । तत्थ “अहो वत मे पुत्तो पब्बजित्वा इमे भिक्खू विय उपसन्तो भवेय्या "ति नयिदं सन्धाय एस एवमाह । अयं पन भिक्खुसङ्घ दिस्वा पसन्नो पुत्तं अनुस्सरि । दुल्लभञ्हि लद्धा अच्छरियं वा दिस्वा पियानं ञतिमित्तादीनं अनुसरणं नाम लोकस्स पकतियेव । इति भिक्खुस दिस्वा पुत्तं अनुस्सरमानो एस एवमाह । अपि च पुत्ते आसङ्काय तस्स उपसमं इच्छमानो पेस एवमाह । एवं किरस्स अहोसि, पुत्तो मे पुच्छिस्सति - “ मय्हं पिता दहरो । अय्यको मे कुहि "न्ति । सो “पितरा ते घातितो 'ति सुत्वा " अहम्पि पितरं घातेत्वा रज्जं कारेस्सामीति मञ्ञिस्सति । इति पुत्ते आसङ्काय तस्स उपसमं इच्छमानो पेस एवमाह । किञ्चापि ि एस एवमाह । अथ खो नं पुत्तो घातेस्सतियेव । तस्मिहि वंसे पितुवधो पञ्चपरिवट्टे गतो । अजातसत्तु बिम्बिसारं घातेसि, उदयो अजातसत्तुं । तस्स पुत्तो महामुण्डिको नाम उदयं । तस्स पुत्तो अनुरुद्धो नाम महामुण्डिकं । तस्स पुत्तो नागदासो नाम अनुरुद्धं । नागदासं पन – “वंसच्छेदकराजानो इमे, किं इमेही 'ति रट्ठवासिनो कुपिता घातेसुं । (२.१६१-१६१) अगमा खो त्वन्ति कस्मा एवमाह ? भगवा किर रज्ञो वचीभेदे अकतेयेव चिन्तेसि “अयं राजा आगन्त्वा तुम्ही निरवो ठितो, किं नु खो चिन्तेसी 'ति । अथ चित्तं ञत्वा – “अयं मया सद्धिं सल्लपितुं असक्कोन्तो भिक्खुसङ्घं अनुविलोकेत्वा पुत्तं अनुरसरि, न खो पनायं मयि अनालपन्ते किञ्चि कथेतुं सक्खिस्सति, करोमि तेन सद्धिं कथासल्लाप”न्ति। तस्मा रज्ञो वचनानन्तरं " अगमा खो त्वं, महाराज, यथापे "न्ति आह। तस्सत्थो – महाराज, यथा नाम उन्नमे वुद्धं उदकं येन निन्नं तेन गच्छति, एवमेव त्वं भिक्खुसङ्घ अनुविलोकेत्वा येन पेमं तेन गतोति । अथ रञ्ञो एतदहोसि- “ अहो अच्छरिया बुद्धगुणा, मया सदिसो भगवतो अपराधकारको नाम नत्थि, मया हिस्स अग्गुपट्ठाको घातितो, देवदत्तस्स च कथं गत्वा अभिमारा पेसिता, नाळागिरि मुत्तो, मं निस्साय देवदत्तेन सिला पविद्धा, एवं महापराधं नाम मं आलपतो दसबलस्स मुखं नप्पहोति; अहो भगवा पञ्चहाकारेहि तादिलक्खणे सुप्पतिट्ठितो । एवरूपं नाम सत्थारं पहाय बहिद्धा न परियेसिस्सामा "ति सो सोमनस्सजातो भगवन्तं आलपन्तो “पियो मे, भन्ते "तिआदिमाह । 128 Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२.१६२-१६२) सामफलपुच्छावण्णना १२९ १६२. भिक्खुसङ्घस्स अञ्जलिं पणामेत्वाति एवं किरस्स अहोसि भगवन्तं वन्दित्वा इतोचितो च गन्त्वा भिक्खुसङ्घ वन्दन्तेन च भगवा पिट्टितो कातब्बो होति, गरुकारोपि चेस न होति । राजानं वन्दित्वा उपराजानं वन्दन्तेनपि हि रो अगारवो कतो होति । तस्मा भगवन्तं वन्दित्वा ठितट्ठानेयेव भिक्खुसङ्घस्स अञ्जलिं पणामेत्वा एकमन्तं निसीदि । कञ्चिदेव देसन्ति कञ्चि ओकासं । अथस्स भगवा पञ्हपुच्छने उस्साहं जनेन्तो आह - "पुच्छ, महाराज, यदाकङ्कसी"ति । तस्सत्थो- “पच्छ यदि आकसि. न मे पहविस्सज्जने भारो अस्थि"। अथ वा “पुच्छ, यं आकसि, सब्बं ते विस्सज्जेस्सामी"ति सब्ब पवारणं पवारेसि, असाधारणं पच्चेकबुद्धअग्गसावकमहासावकेहि । ते हि यदाकङ्घसीति न वदन्ति, सुत्वा वेदिस्सामाति वदन्ति । बुद्धा पन - "पुच्छ, आवुसो, यदाकङ्खसी''ति (सं० नि० १.१.२३७), वा “पुच्छ, महाराज, यदाकङ्खसी''ति वा, "पुच्छ, वासव, मं पहं, यं किञ्चि मनसिच्छसि । तस्स तस्सेव पञ्हस्स, अहं अन्तं करोमि ते''ति ।। (दी० नि० २.३५६) वा। तेन हि त्वं, भिक्खु, सके आसने निसीदित्वा पुच्छ, यदाकङ्खसीति वा, "बावरिस्स च तुम्हं वा, सब्बेसं सब्बसंसयं । कतावकासा पुच्छव्हो, यं किञ्चि मनसिच्छथा"ति ।। (सु० नि० १०३६) वा। "पुच्छ मं, सभिय, पहं, यं किञ्चि मनसिच्छसि । तस्स तस्सेव पञ्हस्स, अहं अन्तं करोमि तेति ।। (सु० नि० ५१७) वा। तेसं तेसं यक्खनरिन्ददेवसमणब्राह्मणपरिब्बाजकानं सब्ब पवारणं पवारेन्ति । अनच्छरियञ्चेतं, यं भगवा बुद्धभूमिं पत्वा एतं पवारणं पवारेय्य । यो बोधिसत्तभूमियं पदेसाणे ठितो 129 Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३० दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गट्ठकथा (२.१६३-१६३) “कोण्ड, पहानि वियाकरोहि । याचन्ति तं इसयो साधुरूपा ।। कोण्डा , एसो मनुजेसु धम्मो । यं वुद्धमागच्छति एस भारो''ति ।। (जा० २.१७.६०) एवं सक्कादीनं अत्थाय इसीहि याचितो - "कतावकासा पुच्छन्तु भोन्तो, यं किञ्चि पऽहं मनसाभिपत्थितं । अहहि तं तं वो वियाकरिस्सं, ञत्वा सयं लोकमिमं परञ्चा''ति ।। (जा० २.१७.६१) एवं सरभङ्गकाले । सम्भवजातके च सकलजम्बुदीपं तिक्खत्तुं विचरित्वा पञ्हानं अन्तकरं अदिस्वा सुचिरतेन ब्राह्मणेन, पऽहं पुटुं ओकासे कारिते जातिया सत्तवस्सिको रथिकाय पंसुं कीळन्तो पल्लङ्कमाभुजित्वा अन्तरवीथियं निसिन्नोव - "तग्घ ते अहमक्खिस्सं, यथापि कुसलो तथा। राजा च खो तं जानाति, यदि काहति वा न वा''ति ।। (जा० १.१६.१७२) सब्ब पवारणं पवारेसि। १६३. एवं भगवता सब्ब पवारणाय पवारिताय अत्तमनो राजा पऽहं पुच्छन्तो"यथा नु खो इमानि, भन्ते"तिआदिमाह । तत्थ सिप्पमेव सिप्पायतनं। पुथुसिप्पायतनानीति बहूनि सिप्पानि । सेय्यथिदन्ति कतमे पन ते । हत्थारोहातिआदीहि ये तं तं सिप्पं निस्साय जीवन्ति, ते दस्सेति । अयहि अस्साधिप्पायो- “यथा इमेसं सिप्पूपजीवीनं तं तं सिप्पं निस्साय सन्दिट्टिकं सिप्पफलं पञ्जायति । सक्का नु खो एवं सन्दिट्टिकं सामञफलं पञापेतु'न्ति । तस्मा सिप्पायतनानि आहरित्वा सिप्पूपजीविनो दस्सेति । तत्थ हत्थारोहाति सब्बेपि हत्थाचरियहत्थिवेज्जहत्थिमेण्डादयो दस्सेति । अस्सारोहाति 130 Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२.१६३-१६३) सामञफलपुच्छावण्णना १३१ सब्बेपि अस्साचरियअस्सवेज्जअस्समेण्डादयो। रथिकाति सब्बेपि रथाचरियरथयोधरथरक्खादयो । धनुग्गहाति धनुआचरिया इस्सासा । चेलकाति ये युद्धे जयधजं गहेत्वा पुरतो गच्छन्ति । चलकाति इध रो ठानं होतु, इध असुकमहामत्तस्साति एवं सेनाब्यूहकारका । पिण्डदायकाति साहसिकमहायोधा । ते किर परसेनं पविसित्वा परसीसं पिण्डमिव छेत्वा छत्वा दयन्ति, उप्पतित्वा उप्पतित्वा निग्गच्छन्तीति अत्थो । ये वा सङ्गाममज्झे योधानं भत्तपातिं गहेत्वा परिविसन्ति, तेसम्पेतं नामं । उग्गा राजपुत्ताति उग्गतुग्गता सङ्गामावचरा राजपुत्ता। पक्खन्दिनोति ये “कस्स सीसं वा आवुधं वा आहरामा'"ति “वत्वा असुकस्सा"ति वुत्ता सङ्गामं पक्खन्दित्वा तदेव आहरन्ति, इमे पक्खन्दन्तीति पक्खन्दिनो । महानागाति महानागा विय महानागा, हथिआदीसुपि अभिमुखं आगच्छन्तेसु अनिवत्तितयोधानमेतं अधिवचनं । सूराति एकन्तसूरा, ये सजालिकापि सचम्मिकापि समुई तरितुं सक्कोन्ति । चम्मयोधिनोति ये चम्मकञ्चुकं वा पविसित्वा सरपरित्ताणचम्मं वा गहेत्वा युज्झन्ति । दासिकपुत्ताति बलवसिनेहा घरदासयोधा । आळारिकाति पूविका । कप्पकाति न्हापिका । न्हापकाति ये न्हापेन्ति । सूदाति भत्तकारका | मालाकारादयो पाकटायेव । गणकाति अच्छिद्दकपाठका | मुद्दिकाति हत्थमुद्दाय गणनं निस्साय जीविनो । यानि वा पनज्ञानिपीति अयकारदन्तकारचित्तकारादीनि । एवंगतानीति एवं पवत्तानि । ते दिद्वेव धम्मेति ते हत्थारोहादयो तानि पुथुसिप्पायतनानि दस्सेत्वा राजकुलतो महासम्पत्तिं लभमाना सन्दिट्ठिकमेव सिप्पफलं उपजीवन्ति । सुखेन्तीति सुखितं करोन्ति । पीणेन्तीति पीणितं थामबलपेतं करोन्ति । उदग्गिकादीस उपरि फलनिब्बत्तनतो उन्हें अग्गमस्सा अत्थीति उद्धग्गिका। सग्गं अरहतीति सोवग्गिका। सुखो विपाको अस्साति सुखविपाका । सुट्ट अग्गे रूपसद्दगन्धरसफोटब्बआयुवण्णसुखयसआधिपतेय्यसङ्खाते दस धम्मे संवत्तेति निब्बत्तेतीति सग्गसंवत्तनिका। तं एवरूपं दक्खिणं दानं पतिठ्ठपेन्तीति अत्थो । सामफलन्ति एत्थ परमत्थतो मग्गो सामञ्ज। अरियफल सामञफलं | यथाह"कतमञ्च, भिक्खवे, सामनं? अयमेव अरियो अट्ठङ्गिको मग्गो। सेय्यथिदं, सम्मादिट्टि...पे०... सम्मासमाधि । इदं वुच्चति, भिक्खवे, सामञ्ज । कतमानि च, भिक्खवे, सामञफलानि ? सोतापत्तिफलं...पे०... अरहत्तफल'"न्ति (सं० नि० ३.५.३५)। तं एस राजा न जानाति । उपरि आगतं पन दासकस्सकोपमं सन्धाय पुच्छति । अथ भगवा पहं अविस्सज्जेत्वाव चिन्तेसि -- "इमे बहू अञतित्थियसावका राजामच्चा इधागता, ते कण्हपक्खञ्च सुक्कपक्खञ्च दीपेत्वा कथीयमाने अम्हाकं राजा 131 Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३२ दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गट्ठकथा महन्तेन उस्साहेन इधागतो, तस्सागतकालतो पट्ठाय समणो गोतमो समणकोलाहलं समणभण्डनमेव कथेतीति उज्झायिस्सन्ति, न सक्कच्चं धम्मं सोस्सन्ति, रञ्ञा पन कथीयमाने उज्झायितुं न सक्खिस्सन्ति, राजानमेव अनुवत्तिस्सन्ति । इस्सरानुवत्तको लोको । 'हन्दाहं रञ्ञोव भारं करोमी'ति रञ्ञो भारं करोन्तो “ अभिजानासि नो त्व "न्तिआदिमाह । १६४. तत्थ अभिजानासि नो त्वन्ति अभिजानासि नु त्वं । अयञ्च नो- सद्दो परतो पुच्छितात पदेन योजेतब्बो । इदहि वुत्तं होति - "महाराज, त्वं इमं पञ्हं अञ्ञे समणब्राह्मणे पुच्छिता नु, अभिजानासि च नं पुट्टभावं, न ते सम्मुट्ठ "न्ति । सचे ते अगरूति सचे तुम्हं यथा ते ब्याकरिंसु, तथा इध भासितुं भारियं न होति, यदि न कोचि अफासुकभावो अत्थि, भासस्सूति अत्थो । न खो मे भन्तेति किं सन्धायाह ? पण्डितपतिरूपकानञ्हि सन्तिके कथेतुं दुक्खं होति, ते पदे पदे अक्खरे अक्खरे दोसमेव वदन्ति । एकन्तपण्डिता पन कथं सुत्वा सुकथितं पसंसन्ति, दुक्कथितेसु पाळिपदअत्थब्यञ्जनेसु यं यं विरुज्झति, तं तं उजुकं कत्वा देन्ति । भगवता च सदिसो एकन्तपण्डितो नाम नत्थि । तेनाह - " न खो मे, भन्ते, गरु; यत्थस्स भगवा निसिन्नो भगवन्तरूपो वा "ति । (२.१६४-१६६) पूरणकस्सपवादवण्णना १६५. एक मिदाहन्ति एकं इध अहं । सम्मोदनीयं कथं सारणीयं वीतिसारेत्वाति सम्मोदजनकं सरितब्बयुत्तकं कथं परियोसापेत्वा । १६६. " करोतो खो, महाराज, कारयतो "तिआदीसु करोतोति सहत्था करोन्तस्स । कारयतोति आणत्तिया कारेन्तस्स । छिन्दतोति परेसं हत्थादीनि छिन्दन्तस्स । पचतोति परे दण्डेन पीळेन्तस्स । सोचयतोति परस्स भण्डहरणादीहि सोचयतो । सोचापयतोति सोकं सयं करोन्तस्सपि परेहि कारापेन्तस्सपि । किलमतोति आहारुपच्छेदबन्धनागारप्पवेसनादीहि सयं किलमन्तस्सपि परेहि किलमापेन्तस्सपि । फन्दतो फन्दापयतोति परं फन्दन्तं फन्दनकाले सयम्पि फन्दतो परम्पि फन्दापयतो । पाणमतिपातापयतोति पाणं हनन्तस्सपि हनापेन्तस्सपि । एवं सब्बत्थ करणकारणवसेनेव अत्थो वेदितब्बो । 132 Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२.१६७-१६९-१६७-१६९) मक्खलिगोसालवादवण्णना सन्धिन्ति घरसन्धिं । निल्लोपन्ति महाविलोपं । एकागारिकन्ति एकमेव घरं परिवारेत्वा विलुप्पनं । परिपन्थेति आगतागतानं अच्छिन्दनत्थं मग्गे तिट्ठतो । करोतो न करीयति पापन्ति यं किञ्चि पापं करोमीति सञाय करोतोपि पापं न करीयति, नत्थि पापं । सत्ता पन पापं करोमाति एवंसजिनो होन्तीति दीपेति। खुरपरियन्तेनाति खुरनेमिना, खुरधारसदिसपरियन्तेन वा। एकं मंसखलन्ति एकं मंसरासिं । पुजन्ति तस्सेव वेवचनं । ततोनिदानन्ति एकमंसखलकरणनिदानं । __ दक्खिणन्ति दक्खिणतीरे मनुस्सा कक्खळा - दारुणा, ते सन्धाय "हनन्तो"तिआदिमाह । उत्तरतीरे सत्ता सद्धा होन्ति पसन्ना बुद्धमामका धम्ममामका सङ्घमामका, ते सन्धाय ददन्तोतिआदिमाह । तत्थ यजन्तोति महायागं करोन्तो । दमेनाति इन्द्रियदमेन उपोसथकम्मेन वा। संयमेनाति सीलसंयमेन । सच्चवज्जेनाति सच्चवचनेन | आगमोति आगमनं, पवत्तीति अत्थो । सब्बथापि पापपुञानं किरियमेव पटिक्खिपति । अम्बं पुट्ठो लबुजं ब्याकरोति नाम, यो कीदिसो अम्बो कीदिसानि वा अम्बस्स खन्धपण्णपुप्फफलानीति वुत्ते एदिसो लबुजो एदिसानि वा लबुजस्स खन्धपण्णपुष्फफलानीति ब्याकरोति । विजितेति आणापवत्तिदेसे। अपसादेतब्बन्ति विहेठेतब्बं । अनभिनन्दित्वाति "साधु साधू"ति एवं पसंसं अकत्वा । अप्पटिक्कोसित्वाति बालदुब्भासितं तया भासितन्ति एवं अप्पटिबाहित्वा । अनुग्गण्हन्तोति सारतो अग्गण्हन्तो । अनिक्कुज्जन्तोति सारवसेनेव इदं निस्सरणं, अयं परमत्थोति हदये अट्ठपेन्तो। ब्यञ्जनं पन तेन उग्गहितञ्चेव निक्कुज्जितञ्च । मक्खलिगोसालवादवण्णना १६७-१६९. मक्खलिवादे पच्चयोति हेतुवेवचनमेव, उभयेनापि विज्जमानमेव कायदुच्चरितादीनं संकिलेसपच्चयं, कायसुचरितादीनञ्च विसुद्धिपच्चयं पटिक्खिपति । अत्तकारेति अत्तकारो। येन अत्तना कतकम्मेन इमे सत्ता देवत्तम्पि मारत्तम्पि ब्रह्मत्तम्पि सावकबोधिम्पि पच्चेकबोधिम्पि सब्ब तम्पि पापुणन्ति, तम्पि पटिक्खिपति । दुतियपदेन यं परकारं परस्स ओवादानुसासनिं निस्साय ठपेत्वा महासत्तं अवसेसो जनो मनुस्ससोभग्यतं आदि कत्वा याव अरहत्तं पापुणाति, तं परकारं पटिक्खिपति । एवमयं बालो जिनचक्के पहारं देति नाम । नत्थ पुरिसकारेति येन पुरिसकारेन सत्ता वुत्तप्पकारा सम्पत्तियो 133 Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३४ दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गट्ठकथा (२.१६७-१६९-१६७-१६९) पापुणन्ति, तम्पि पटिक्खिपति । नत्थि बलन्ति यम्हि अत्तनो बले पतिट्ठिता सत्ता वीरियं कत्वा ता सम्पत्तियो पापुणन्ति, तं बलं पटिक्खिपति । नत्थि वीरियन्तिआदीनि सब्बानि पुरिसकारवेवचनानेव । “इदं नो वीरियेन इदं पुरिसथामेन, इदं पुरिसपरक्कमेन पवत्त"न्ति एवं पवत्तवचनपटिक्खेपकरणवसेन पनेतानि विसुं आदियन्ति । सब्बे सत्ताति ओट्ठगोणगद्रभादयो अनवसेसे परिग्गण्हाति । सब्बे पाणाति एकिन्द्रियो पाणो, द्विन्द्रियो पाणोतिआदिवसेन वदति। सब्बे भूताति अण्डकोसवत्थिकोसेसु भूते सन्धाय वदति । सब्बे जीवाति सालियवगोधुमादयो सन्धाय वदति । तेसु हि सो विरूहनभावेन जीवसञी । अवसा अबला अवीरियाति तेसं अत्तनो वसो वा बलं वा वीरियं वा नत्थि । नियतिसङ्गतिभावपरिणताति एत्थ नियतीति नियता। सङ्गतीति छन्नं अभिजातीनं तत्थ तत्थ गमनं । भावोति सभावोयेव । एवं नियतिया च सङ्गतिया च भावेन च परिणता नानप्पकारतं पत्ता । येन हि यथा भवितब्बं, सो तथैव भवति । येन न भवितब्बं, सो न भवतीति दस्सेति । छस्वेवाभिजातीसूति छसु एव अभिजातीसु ठत्वा सुखञ्च दुक्खञ्च पटिसंवेदेन्ति । अञा सुखदुक्खभूमि नत्थीति दस्सेति ।। योनिपमुखसतसहस्सानीति पमुखयोनीनं उत्तमयोनीनं चुद्दससतसहस्सानि अञानि च सट्ठिसतानि अझानि च छसतानि । पञ्च च कम्मुनो सतानीति पञ्चकम्मसतानि च । केवलं तक्कमत्तकेन निरत्थकं दिष्टुिं दीपेति । पञ्च च कम्मानि तीणि च कम्मानीतिआदीसुपि एसेव नयो । केचि पनाहु- "पञ्च च कम्मानीति पञ्चिन्द्रियवसेन भणति। तीणीति कायकम्मादिवसेना"ति । कम्मे च उपड्ढकम्मे चाति एत्थ पनस्स कायकम्मञ्च वचीकम्मञ्च कम्मन्ति लद्धि, मनोकम्मं उपड्ढकम्मन्ति । दट्ठिपटिपदाति द्वासट्ठि पटिपदाति वदति । द्वट्ठन्तरकप्पाति एकस्मिं कप्पे चतुसट्ठि अन्तरकप्पा नाम होन्ति । अयं पन अझे द्वे अजानन्तो एवमाह । छळाभिजातियोति कण्हाभिजाति, नीलाभिजाति, लोहिताभिजाति, हलिद्दाभिजाति, सुक्काभिजाति, परमसुक्काभिजातीति इमा छ अभिजातियो वदति । तत्थ ओरब्मिका, साकुणिका, मागविका, सूकरिका, लुद्दा, मच्छघातका चोरा, चोरघातका, बन्धनागारिका, ये वा पनओपि केचि कुरूरकम्मन्ता, अयं कण्हाभिजातीति (अ० नि० २.६.५७) वदति । भिक्खू नीलाभिजातीति वदति, ते किर चतूसु पच्चयेसु कण्टके पक्खिपित्वा खादन्ति । “भिक्खू कण्टकवुत्तिका''ति (अ० नि० २.६.५७) अयहिस्स पाळियेव । अथ 134 Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२.१६७-१६९-१६७-१६९) मक्खलिगोसालवादवण्णना १३५ वा कण्टकवुत्तिका एव नाम एके पब्बजिताति वदति । लोहिताभिजाति नाम निगण्ठा एकसाटकाति वदति । इमे किर पुरिमेहि द्वीहि पण्डरतरा। गिही ओदातवसना अचेलकसावका हलिदाभिजातीति वदति । एवं अत्तनो पच्चयदायके निगण्ठेहिपि जेट्टकतरे करोति । आजीवका आजीवकिनियो सुक्काभिजातीति वदति । ते किर पुरिमेहि चतूहि पण्डरतरा । नन्दो, वच्छो, किसो, सङ्किच्छो, मक्खलिगोसालो, परमसुक्काभिजातीति (अ० नि० २.६.५७) वदति । ते किर सब्बेहि पण्डरतरा । अट्ठ पुरिसभूमियोति मन्दभूमि, खिड्डाभूमि, पदवीमंसभूमि, उजुगतभूमि, सेक्खभूमि, समणभूमि, जिनभूमि, पन्नभूमीति इमा अट्ठ पुरिसभूमियोति वदति । तत्थ जातदिवसतो पट्ठाय सत्तदिवसे सम्बाधट्ठानतो निक्खन्तत्ता सत्ता मन्दा होन्ति मोमूहा, अयं मन्दभूमीति वदति। ये पन दुग्गतितो आगता होन्ति, ते अभिण्हं रोदन्ति चेव विरवन्ति च, सुगतितो आगता तं अनुस्सरित्वा हसन्ति, अयं खिड्डाभूमि नाम | मातापितूनं हत्थं वा पादं वा मञ्चं वा पीठं वा गहेत्वा भूमियं पदनिक्खिपनं पदवीमंसभूमि नाम । पदसा गन्तुं समत्थकाले उजुगतभूमि नाम । सिप्पानि सिक्खितकाले सेक्खभूमि नाम। घरा निक्खम्म पब्बजितकाले समणभूमि नाम । आचरियं सेवित्वा जाननकाले जिनभूमि नाम | भिक्खु च पन्नको जिनो न किञ्चि आहाति एवं अलाभिं समणं पन्नभूमीति वदति । एकूनपञ्जास आजीवकसतेति एकूनपासआजीवकवुत्तिसतानि । परिब्बाजकसतेति परिब्बाजकपब्बज्जासतानि । नागावाससतेति नागमण्डलसतानि । वीसे इन्द्रियसतेति वीसतिन्द्रियसतानि । तिंसे निरयसतेति तिंस निरयसतानि । रजोधातुयोति रजओकिरणट्ठानानि, हत्थपिट्ठिपादपिट्ठादीनि सन्धाय वदति। सत्त सञीगम्भाति ओट्ठगोणगद्रभअजपसुमिगमहिंसे सन्धाय वदति। सत्त असञीगम्भाति सालिवीहियवगोधूमकङ्गुवरककुद्रूसके सन्धाय वदति। निगण्ठिगब्भाति गण्ठिम्हि जातगब्भा, उच्छुवेळुनळादयो सन्धाय वदति । सत्त देवाति बहू देवा । सो पन सत्ताति वदति । मनुस्सापि अनन्ता, सो सत्ताति वदति । सत्त पिसाचाति पिसाचा महन्तमहन्ता सत्ताति वदति । सराति महासरा, कण्णमुण्डरथकारअनोतत्तसीहप्पपातछद्दन्तमन्दाकिनीकुणालदहे गहेत्वा वदति । पवुटाति गण्ठिका। पपाताति महापपाता। पपातसतानीति खुद्दकपपातसतानि । सुपिनाति महासुपिना। सुपिनसतानीति खुद्दकसुपिनसतानि । महाकप्पिनोति महाकप्पानं । 135 Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३६ दीघनिकाये सीलक्खन्धवरगट्ठकथा तत्थ एकम्हा महासरा वस्ससते वस्ससते कुसग्गेन एकं उदकबिन्दुं नीहरित्वा सत्तक्खत्तुं तम्हि सरे निरुदके कते एको महाकप्पोति वदति । एवरूपानं महाकप्पानं चतुरासीतिसतसहस्सानि खेपेत्वा बाले च पण्डिते च दुक्खस्सन्तं करोतीति अयमस्स लद्धि । पण्डितोपि किर अन्तरा विसुज्झितुं न सक्कोति । बालोपि ततो उद्धं न गच्छति । सीलेनाति अचेलकसीलेन वा अञ्ञेन वा येन केनचि । वतेनाति तादिसेनेव वतेन । तपेनाति तपोकम्मेन । अपरिपक्कं परिपाचेति नाम, यो “अहं पण्डितो 'ति अन्तरा विसुज्झति । परिपक्कं फुस्स फुस्स व्यन्तिं करोति नाम यो " अहं बालो "ति वृत्तपरिमाणं कालं अतिक्कमित्वा याति । हेवं नत्थीति एवं नत्थि । तहि उभयम्पि न सक्का कातुन्ति दीपेति । दोणमितेति दोणेन मितं विय। सुखदुक्खेति सुखदुक्खं । परियन्तकतेति वृत्तपरिमाणेन कालेन कतपरियन्ते । नत्थि हायनवडनेति नत्थि हायनवड्ढनानि । न संसारो पण्डितस्स हायति, न बालस्स वड्ढतीति अत्थो । उक्कंसावकंसेति उक्कंसावकंसा । हायनवड्डनानमेतं अधिवचनं । (२.१७०-१७२ - १७०-१७२) इदानि तमत्थं उपमाय साधेन्तो “ सेय्यथापि नामा "तिआदिमाह । तत्थ सुत्तगुळेति वेठेत्वा कतसुत्तगुळे । निब्बेटियमानमेव पलेतीति पब्बते वा रुक्खग्गे वा ठत्वा खित्तं सुत्तप्पमाणेन निब्बेठियमानमेव गच्छति, सुत्ते खीणे तत्थेव तिट्ठति, न गच्छति । एवमेव वुत्तकालतो उद्धं न गच्छतीति दस्सेति । अजितकेसकम्बलवादवण्णना १७०-१७२. अजितवादे नत्थि दिन्नन्ति दिन्नफलाभावं सन्धाय वदति । ट्ठि वुच्चति महायागो। हुतन्ति पहेणकसक्कारो अधिप्पेतो । तम्पि उभयं फलाभावमेव सन्धाय पटिक्खिपति । सुकतदुक्कटानन्ति सुकतदुक्कटानं, कुसलाकुसलानन्ति अत्थो । फलं विपाकोति यं फलन्ति वा विपाकोति वा वुच्चति, तं नत्थीति वदति । नत्थि अयं लोकोति परलोके ठितस्स अयं लोको नत्थि, नत्थि परो लोकोति इध लोके ठितस्सापि परो लोको नत्थि, सब्बे तत्थ तत्थेव उच्छिज्जन्तीति दस्सेति । नत्थि माता नत्थि पिताति तेसु सम्मापटिपत्तिमिच्छापटिपत्तीनं फलाभाववसेन वदति । नत्थि सत्ता ओपपातिकाति चवित्वा उपपज्जनका सत्ता नाम नत्थीति वदति । 136 Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२.१७०-१७२-१७०-१७२) अजितकेसकम्बलवादवण्णना १३७ चातुमहाभूतिकोति चतुमहाभूतमयो। पथवी पथविकायन्ति अज्झत्तिकपथवीधातु बाहिरपथवीधातुं । अनुपेतीति अनुयायति । अनुपगच्छतीति तस्सेव वेवचनं । अनुगच्छतीतिपि अत्थो । उभयेनापि उपेति, उपगच्छतीति दस्सेति । आपादीसुपि एसेव नयो । इन्द्रियानीति मनच्छट्ठानि इन्द्रियानि आकासं पक्खन्दन्ति | आसन्दिपञ्चमाति निपन्नमञ्चेन पञ्चमा, मञ्चो चेव चत्तारो मञ्चपादे गहेत्वा ठिता चत्तारो पुरिसा चाति अत्थो । यावाळाहनाति याव सुसाना। पदानीति 'अयं एवं सीलवा अहोसि, एवं दुस्सीलो'तिआदिना नयेन पवत्तानि गुणागुणपदानि, सरीरमेव वा एत्थ पदानीति अधिप्पेतं । कापोतकानीति कपोतवण्णानि, पारावतपक्खवण्णानीति अत्थो । भस्सन्ताति भस्मन्ता, अयमेव वा पाळि । आहुतियोति यं पहेणकसक्कारादिभेदं दिन्नदानं, सब्बं तं छारिकावसानमेव होति, न ततो परं फलदायकं हुत्वा गच्छतीति अत्थो । दत्तुपञत्तन्ति दत्तूहि बालमनुस्सेहि पञत्तं । इदं वुत्तं होति - ‘बालेहि अबुद्धीहि पञत्तमिदं दानं, न पण्डितेहि । बाला देन्ति, पण्डिता गण्हन्तीति दस्सेति । तत्थ पूरणो “करोतो न करीयति पाप"न्ति वदन्तो कम्मं पटिबाहति । अजितो "कायस्स भेदा उच्छिज्जती"ति वदन्तो विपाकं पटिबाहति | मक्खलि “नत्थि हेतू''ति वदन्तो उभयं पटिबाहति | तत्थ कम्मं पटिबाहन्तेनापि विपाको पटिबाहितो होति, विपाकं पटिबाहन्तेनापि कम्मं पटिबाहितं होति । इति सब्बेपेते अत्थतो उभयप्पटिबाहका अहेतुकवादा चेव अकिरियवादा च नत्थिकवादा च होन्ति । ये वा पन तेसं लद्धिं गहेत्वा रत्तिट्ठाने दिवाठाने निसिन्ना सज्झायन्ति वीमंसन्ति, तेसं “करोतो न करीयति पापं, नत्थि हेतु, नत्थि पच्चयो, मतो उच्छिज्जतीति तस्मिं आरम्मणे मिच्छासति सन्तिट्ठति, चित्तं एकग्गं होति, जवनानि जवन्ति, पठमजवने सतेकिच्छा होन्ति, तथा दुतियादीसु, सत्तमे बुद्धानम्पि अतेकिच्छा अनिवत्तिनो अरिट्टकण्टकसदिसा । तत्थ कोचि एकं दस्सनं ओक्कमति, कोचि द्वे, कोचि तीणिपि, एकस्मिं ओक्कन्तेपि, द्वीसु तीसु ओक्कन्तेसुपि, नियतमिच्छादिछिकोव होति; पत्तो सग्गमग्गावरणञ्चेव मोक्खमग्गावरणञ्च, अभब्बो तस्सत्तभावस्स अनन्तरं सग्गम्पि गन्तुं, पगेव मोक्खं । वट्टखाणु नामेस सत्तो पथविगोपको, येभुय्येन एवरूपस्स भवतो वुट्टानं नत्थि । 137 Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३८ दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गट्ठकथा 'तस्मा अकल्याणजनं, आसीविसमिवोरगं । आरका परिवज्जेय्य, भूतिकामो विचक्खणो 'ति । । पकुधकच्चायनवादवण्णना १७३-१७५. पकुधवादे अकटाति अकता । अकटविधाति अकतविधाना । एवं करोहीति केनचि कारापितापि न होन्तीति अत्थो । अनिम्मिताति इद्धियापि न निम्मिता । अनिम्माताति अनिम्मापिता, केचि अनिम्मापेतब्बाति पदं वदन्ति तं नेव पाळियं, न अट्ठकथायं दिस्सति । वञ्झादिपदत्तयं वुत्तत्थमेव । न इञ्जन्तीति एसिकत्थम्भो विय ठितत्ता न चलन्ति । न विपरिणमन्तीति पकतिं न जहन्ति । न अञ्ञमञ्ञ ब्याबाधेन्तीति न अञ्ञमञ्ञ्जं उपहनन्ति । नालन्ति न समत्था । पथविकायोतिआदीसु पथवीयेव पथविकायो, पथविसमूहो वा । तत्थाति तेसु जीवसत्तमेसु कायेसु । सत्तन्नं त्वेव कायानन्ति यथा मुग्गरासिआदीसु पहतं सत्थं मुग्गादीनं अन्तरेन पविसति, एवं सत्तन्नं कायानं अन्तरेन छिद्देन विवरेन सत्थं पविसति । तत्थ अहं इमं जीविता वोरोपेमीति केवलं सञ्ञमत्तमेव होतीति दस्सेति । निगण्ठनाटपुत्तवादवण्णना १७६-१७८. नाटपुत्तवादे चातुयामसंवरसंवुतोति चतुकोट्ठासेन संवरेन संवुतो । सब्बवारिवारितो चाति वारितसब्बउदको पटिक्खित्तसब्बसीतोदकोति अत्थो । सो किर सीतोदके सत्तसञी होति, तस्मा न तं वळञ्जेति । सब्बवारियुत्तोति सब्बेन पापवारणेन युत्त । सब्बवारिधुतोति सब्बेन पापवारणेन धुतपापो । सब्बवारिफुटोति सब्बेन पापवारणेन फुट्ठो । गतत्तोति कोटिप्पत्तचित्तो । यतत्तोति संयतचित्तो । ठितत्तोति सुप्पतिट्ठितचित्तो । एतस्स वादे किञ्चि सासनानुलोमम्पि अत्थि, असुद्धलद्धिताय पन सब्बा दिट्ठियेव जाता । सञ्चयबेलपुत्तवादबण्णना १७९-१८१. सञ्चयवादो अमराविक्खेपे वुत्तनयो एव । (२.१७३-१७५ - १७९-१८१) 138 Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२.१८२-१८३) पठमसन्दिट्ठिकसामञफलवण्णना १३९ पठमसन्दिट्ठिकसामञफलवण्णना १८२. सोहं, भन्तेति सो अहं भन्ते, वालुकं पीळेत्वा तेलं अलभमानो विय तित्थियवादेसु सारं अलभन्तो भगवन्तं पुच्छामीति अत्थो । १८३. यथा ते खमेय्याति यथा ते रुच्चेय्य । दासोति अन्तोजातधनक्कीतकरमरानीतसामंदासब्योपगतानं अञ्जतरो। कम्मकारोति अनलसो कम्मकरणसीलोयेव । दूरतो दिस्वा पठममेव उट्ठहतीति पुब्बुट्ठायी। एवं उद्वितो सामिनो आसनं पञपेत्वा पादधोवनादिकत्तब्बकिच्चं कत्वा पच्छा निपतति निसीदतीति पच्छानिपाती। सामिकम्हि वा सयनतो अवुट्टिते पुब्बेयेव वुट्ठातीति पुबुट्ठायी। पच्चूसकालतो पट्ठाय याव सामिनो रत्तिं निद्दोक्कमनं, ताव सब्बकिच्चानि कत्वा पच्छा निपतति, सेय्यं कप्पेतीति पच्छानिपाती। किं करोमि, किं करोमीति एवं किंकारमेव पटिसुणन्तो विचरतीति किं कारपटिस्सावी। मनापमेव किरियं करोतीति मनापचारी। पियमेव वदतीति पियवादी। सामिनो तुट्ठपहटुं मुखं उल्लोकयमानो विचरतीति मुखुल्लोकको। देवो मजेति देवो विय । सो वतस्साहं पुञानि करेय्यन्ति सो वत अहं एवरूपो अस्सं, यदि पुञानि करेय्यन्ति अत्थो । “सो वतस्स'स्स"न्तिपि पाठो, अयमेवत्थो । यंनूनाहन्ति सचे दानं दस्सामि, यं राजा एकदिवसं देति, ततो सतभागम्पि यावजीवं न सक्खिस्सामि दातुन्ति पब्बज्जायं उस्साहं कत्वा एवं चिन्तनभावं दस्सेति । कायेन संवुतोति कायेन पिहितो हुत्वा अकुसलस्स पवेसनद्वारं थकेत्वाति अत्थो । एसेव नयो सेसपदद्वयेपि। घासच्छादनपरमतायाति घासच्छादनेन परमताय उत्तमताय, एतदथम्पि अनेसनं पहाय अग्गसल्लेखेन सन्तुट्ठोति अत्थो । अभिरतो पविवेकेति "कायविवेको च विवेकट्ठकायानं, चित्तविवेको च नेक्खम्माभिरतानं, परमवोदानप्पत्तानं उपधिविवेको च निरुपधीनं पुग्गलानं विसङ्घारगतान"न्ति एवं वुत्ते तिविधेपि विवेके रतो; गणसङ्गणिकं पहाय कायेन एको विहरति, चित्तकिलेससङ्गणिकं पहाय अट्ठसमापत्तिवसेन एको विहरति, फलसमापत्तिं वा निरोधसमापत्तिं वा पविसित्वा निब्बानं पत्वा विहरतीति अत्थो । यग्घेति चोदनत्थे निपातो । 139 Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४० दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गट्ठकथा (२.१८४-१८९) १८४. आसनेनपि निमन्तेय्यामाति निसिन्नासनं पप्फोटेत्वा इध निसीदथाति वदेय्याम । अभिनिमन्तेय्यामपि नन्ति अभिहरित्वापि नं निमन्तेय्याम । तत्थ दुविधो अभिहारो- वाचाय चेव कायेन च । तुम्हाकं इच्छितिच्छितक्खणे अम्हाकं चीवरादीहि वदेय्याथ येनत्थोति वदन्तो हि वाचाय अभिहरित्वा निमन्तेति नाम । चीवरादिवेकल्लं सल्लक्खेत्वा इदं गण्हाथाति तानि देन्तो पन कायेन अभिहरित्वा निमन्तेति नाम । तदुभयम्पि सन्धाय अभिनिमन्तेय्यामपि नन्ति आह । एत्थ च गिलानपच्चयभेसज्जपरिक्खारोति यं किञ्चि गिलानस्स सप्पायं ओसधं । वचनत्थो पन विसुद्धिमग्गे वुत्तो। रक्खावरणगुत्तिन्ति रक्खासङ्खातञ्चेव आवरणसङ्खातञ्च गुत्तिं । सा पनेसा न आवुधहत्थे पुरिसे ठपेन्तेन धम्मिका नाम संविदहिता होति । यथा पन अवेलाय कट्टहारिकपण्णहारिकादयो विहारं न पविसन्ति, मिगलुद्दकादयो विहारसीमाय मिगे वा मच्छे वा न गण्हन्ति, एवं संविदहन्तेन धम्मिका नाम रक्खा संविहिता होति, तं सन्धायाह – “धम्मिक'"न्ति ।। १८५. यदि एवं सन्तेति यदि तव दासो तुहं सन्तिका अभिवादनादीनि लभेय्य । एवं सन्ते । अद्धाति एकंसवचनमेतं । पठमन्ति भणन्तो अञस्सापि अत्थितं दीपेति । तेनेव च राजा सक्का पन, भन्ते, अञम्पीतिआदिमाह। दुतियसन्दिट्ठिकसामञफलवण्णना १८६-१८८. कसतीति कस्सको। गेहस्स पति, एकगेहमत्ते जेट्ठकोति गहपतिको। बलिसङ्खातं करं करोतीति करकारको। धारासिं धनरासिञ्च वड्वेतीति रासिवड्डको। अप्पं वाति परित्तकं वा. अन्तमसो तण्डुलनाळिमत्तकम्पि । भोगक्खन्धन्ति भोगरासिं । महन्तं वाति विपुलं वा । यथा हि महन्तं पहाय पब्बजितुं दुक्कर, एवं अप्पम्पीति दस्सनत्थं उभयमाह । दासवारे पन यस्मा दासो अत्तनोपि अनिस्सरो, पगेव भोगानं । यहि तस्स धनं, तं सामिकान व होति, तस्मा भोगग्गहणं न कतं । आतियेव जातिपरिवट्टो। पणीततरसामञफलवण्णना १८९. सक्का पन, भन्ते, अञम्पि दिवेव धम्मेति इध एवमेवाति न वुत्तं । तं 140 Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२.१८९-१८९) पणीततरसामञफलवण्णना १४१ कस्माति चे, एवमेवाति हि वुच्चमाने पहोति भगवा सकलम्पि रत्तिन्दिवं ततो वा भिय्योपि एवरूपाहि उपमाहि सामञफलं दीपेतुं । तत्थ किञ्चापि एतस्स भगवतो वचनसवने परियन्तं नाम नत्थि, तथापि अत्थो तादिसोयेव भविस्सतीति चिन्तेत्वा उपरि विसेसं पुच्छन्तो एवमेवाति अवत्वा – “अभिक्कन्ततरञ्च पणीततरञ्चा"ति आह । तत्थ अभिक्कन्ततरन्ति अभिमनापतरं अतिसेट्ठतरन्ति अत्थो । पणीततरन्ति उत्तमतरं । तेन हीति उय्योजनत्थे निपातो | सवने उय्योजेन्तो हि नं एवमाह । सुणोहीति अभिक्कन्ततरञ्च पणीततरञ्च सामञफलं सुणाति । साधुकं मनसिकरोहीति एत्थ पन साधुकं साधूति एकत्थमेतं । अयहि साधु-सद्दो आयाचनसम्पटिच्छनसम्पहंसनसुन्दर दळहीकम्मादीसु दिस्सति । “साधु मे, भन्ते, भगवा सङित्तेन धम्मं देसेतू'तिआदीसु (सं० नि० २.४.९५) हि आयाचने दिस्सति । “साधु, भन्ते,ति खो सो भिक्खु भगवतो भासितं अभिनन्दित्वा अनुमोदित्वा'"तिआदीसु (म० नि० ३.८६) सम्पटिच्छने । “साधु साधु, सारिपुत्ता"तिआदीसु (दी० नि० ३.३४९) सम्पहंसने । “साधु धम्मरुचि राजा, साधु पाणवा नरो । साधु मित्तानमद्दुब्भो, पापस्साकरणं सुख"न्ति ।। (जा० २.१७.१०१) आदीसु सुन्दरे । “तेन हि, ब्राह्मण, सुणोहि साधुकं मनसि करोही''तिआदीसु (अ० नि० २.५.१९२) साधुकसद्दोयेव दळहीकम्मे, आणत्तियन्तिपि वुच्चति । इधापि अस्स एत्थेव दळहीकम्मे च आणत्तियञ्च वेदितब्बो । सुन्दरेपि वट्टति । दळहीकम्मत्थेन हि दळ्हमिमं धम्मं सुणाहि, सुग्गहितं गण्हन्तो। आणत्तिअत्थेन मम आणत्तिया सुणाहि, सुन्दरत्थेन सुन्दरमिमं भद्दकं धम्मं सुणाहीति एवं दीपितं होति । मनसि करोहीति आवज्ज, समन्नाहराति अत्थो, अविक्खित्तचित्तो हुत्वा निसामेहि, चित्ते करोहीति अधिप्पायो । अपि चेत्थ सुणोहीति सोतिन्द्रियविक्खेपनिवारणमेतं । साधुकं मनसि करोहीति मनसिकारे दळहीकम्मनियोजनेन मनिन्द्रियविक्खेपनिवारणं । पुरिमञ्चेत्थ ब्यञ्जनविपल्लासग्गाहवारणं, पच्छिमं अत्थविपल्लासग्गाहवारणं । पुरिमेन च धम्मस्सवने नियोजेति, पच्छिमेन सुतानं धम्मानं धारणूपपरिक्खादीसु । पुरिमेन च सव्यञ्जनो अयं धम्मो, तस्मा सवनीयोति दीपेति । पच्छिमेन सत्थो, तस्मा साधुकं मनसि कातब्बोति । 141 Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४२ दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गट्ठकथा (२.१९०-१९०) साधुकपदं वा उभयपदेहि योजेत्वा यस्मा अयं धम्मो धम्मगम्भीरो चेव देसनागम्भीरो च, तस्मा सुणाहि साधुकं, यस्मा अत्थगम्भीरो च पटिवेधगम्भीरो च, तस्मा साधुकं मनसि करोहीति एवं योजना वेदितब्बा। भासिस्सामीति सक्का महाराजाति एवं पटिजातं सामञफलदेसनं वित्थारतो भासिस्सामि | “देसेस्सामी"ति हि सङित्तदीपनं होति । भासिस्सामीति वित्थारदीपनं । तेनाह वङ्गीसत्थेरो “सङ्घित्तेनपि देसेति, वित्थारेनपि भासति । साळिकायिव निग्योसो, पटिभानं उदीरयी"ति ।। (सं० नि० १.१.२१४) एवं वुत्ते उस्साहजातो हुत्वा - "एवं, भन्ते"ति खो राजा मागधो अजातसत्तु वेदेहिपुत्तो भगवतो पच्चस्सोसि भगवतो वचनं सम्पटिच्छि, पटिग्गहेसीति वुत्तं होति । १९०. अथस्स भगवा एतदवोच, एतं अवोच, इदानि वत्तब् “इध महाराजा''तिआदि सकलं सुत्तं अवोचाति अत्थो । तत्थ इधाति देसापदेसे निपातो, स्वायं कत्थचि लोकं उपादाय वुच्चति । यथाह - "इध तथागतो लोके उप्पज्जती"ति | कत्थचि सासनं यथाह – “इधेव, भिक्खवे, पठमो समणो, इध दुतियो समणो"ति (अ० नि० १.४.२४१) । कत्थचि ओकासं । यथाह - "इधेव तिठ्ठमानस्स, देवभूतस्स मे सतो । पुनरायु च मे लद्धो, एवं जानाहि मारिसा''ति ।। (दी० नि० २.३६९) कत्थचि पदपूरणमत्तमेव । यथाह "इधाहं, भिक्खवे, भुत्तावी अस्सं पवारितो"ति (म० नि० १.३०)। इध पन लोकं उपादाय वुत्तोति वेदितब्बो । महाराजाति यथा पटिञातं देसनं देसेतुं पुन महाराजाति आलपति । इदं वुत्तं होति - “महाराज इमस्मिं लोके तथागतो उप्पज्जति अरहं...पे०... बुद्धो भगवा''ति । तत्थ तथागतसद्दो ब्रह्मजाले वुत्तो । अरहन्तिआदयो विसुद्धिमग्गे वित्थारिता । लोके उप्पज्जतीति एत्थ पन लोकोतिओकासलोको सत्तलोको सङ्घारलोकोति तिविधो । इध पन सत्तलोको अधिप्पेतो। सत्तलोके उप्पज्जमानोपि च तथागतो न देवलोके, न ब्रह्मलोके, मनुस्सलोकेव उप्पज्जति । मनुस्सलोकेपि न अञ्जस्मिं चक्कवाळे, इमस्मिंयेव चक्कवाळे । तत्रापि न सब्बट्ठानेसु, "पुरथिमाय दिसाय गजङ्गलं नाम निगमो तस्सापरेन महासालो, ततो परा पच्चन्तिमा 142 Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२.१९० - १९० ) पणीततरसामञ्ञफलवण्णना जनपदा ओरतो मज्झे, पुरत्थिमदक्खिणाय दिसाय सलळवती नाम नदी । ततो परा पच्चन्तिमा जनपदा, ओरतो मज्झे, दक्खिणाय दिसाय सेतकण्णिकं नाम निगमो, ततो परा पच्चन्तिमा जनपदा, ओरतो मज्झे, पच्छिमाय दिसाय थूणं नाम ब्राह्मणगामो, ततो परा पच्चन्तिमा जनपदा, ओरतो मज्झे, उत्तराय दिसाय उसिरद्धजो नाम पब्बतो, ततो परा पच्चन्तिमा जनपदा ओरतो मज्झे 'ति एवं परिच्छिन्ने आयामतो तियोजनसते, वित्थारतो अड्ढतेय्ययोजनसते, परिक्खेपतो नवयोजनसते मज्झिमपदेसे उप्पज्जति । न केवलञ्च तथागतो, पच्चेकबुद्धा, अग्गसावका, असीतिमहाथेरा, बुद्धमाता, बुद्धपिता, चक्कवत्ती राजा अञे च सारप्पत्ता ब्राह्मणगहपतिका एत्थेवुप्पज्जन्ति । तत्थ तथागतो सुजाताय दिन्नमधुपायासभोजनतो याव अरहत्तमग्गो, ताव उप्पज्जति नाम, अरहत्तफले उप्पन्नो नाम । महाभिनिक्खमनतो वा याव अरहत्तमग्गो । सितभवनो वा याव अरहत्तमग्गो । दीपङ्करपादमूलतो वा याव अरहत्तमग्गो, ताव उप्पज्जति नाम, अरहत्तफले उप्पन्नो नाम । इध सब्बपठमं उप्पन्नभावं सन्धाय उप्पज्जतीति वृत्तं । तथागतो लोके उप्पन्नो होतीति अयञ्हेत्थ अत्थो । १४३ वचनेन सो इमं लोकन्ति सो भगवा इमं लोकं । इदानि वत्तब्बं निदस्सेति । सदेवकन्ति सह देवेहि सदेवकं । एवं सह मारेन समारकं, सह ब्रह्मना सब्रह्मकं, सह समणब्राह्मणेहि सस्समणब्राह्मणि । पजातत्ता पजा, तं पजं । सह देवमनुस्सेहि सदेवमनुस्सं । तत्थ सदेवकवचनेन पञ्च कामावचरदेवग्गहणं वेदितब्बं । समारक - छट्ठकामावचरदेवग्गहणं । सब्रह्मकवचनेन ब्रह्मकायिकादिब्रह्मग्गहणं । सस्समणब्राह्मणीवचनेन सासनस्स पच्चत्थिकपच्चामित्तसमणब्राह्मणग्गहणं, समितपापबाहितपापसमणब्राह्मणग्गहणञ्च । पजावचनेन सत्तलोकग्गहणं । सदेवमनुस्सवचनेन सम्मुतिदेवअवसेसमनुस्सग्गहणं । एवमेत्थ तीहि पदेहि ओकासलोकेन सद्धिं सत्तलोको । द्वीहि पजावसेन सत्तलोकोव हितोति वेदितब्बो | अपरो नयो, सदेवकग्गहणेन अरूपावचरदेवलोको गहितो । समारकग्गहणेन छ कामावचरदेवलोको । सब्रह्मकग्गहणेन रूपी ब्रह्मलोको | सस्समणब्राह्मणादिग्गहणेन चतुपरिसवसेन सम्मुतिदेवेहि वा सह मनुस्सलोको, अवसेससब्बसत्तलोको वा । अपि चेत्थ सदेवकवचनेन उक्कट्ठपरिच्छेदतो सब्बस्स लोकस्स सच्छिकतभावमाह । 143 Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४४ दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गट्ठकथा (२.१९०-१९०) ततो येसं अहोसि- "मारो महानुभावो छ कामावचरिस्सरो वसवत्ती, किं सोपि एतेन सच्छिकतो''ति, तेसं विमतिं विधमन्तो “समारक"न्ति आह । येसं पन अहोसि - "ब्रह्मा महानुभावो एकङ्गुलिया एकस्मिं चक्कवाळसहस्से आलोकं फरति, द्वीहि...पे०... दसहि अङ्गुलीहि दससु चक्कवाळसहस्सेसु आलोकं फरति । अनुत्तरञ्च झानसमापत्तिसुखं पटिसंवेदेति, किं सोपि सच्छिकतो"ति, तेसं विमतिं विधमन्तो सब्रह्मकन्ति आह । ततो ये चिन्तेसुं– “पुथू समणब्राह्मणा सासनस्स पच्चत्थिका, किं तेपि सच्छिकता''ति, तेसं विमतिं विधमन्तो सस्समणब्राह्मणिं पजन्ति आह । एवं उक्कढुक्कट्ठानं सच्छिकतभावं पकासेत्वा अथ सम्मुतिदेवे अवसेसमनुस्से च उपादाय उक्कट्ठपरिच्छेदवसेन सेससत्तलोकस्स सच्छिकतभावं पकासेन्तो सदेवमनुस्सन्ति आह । अयमेत्थ भावानुक्कमो । पोराणा पनाह सदेवकन्ति देवेहि सद्धिं अवसेसलोकं। समारकन्ति मारेन सद्धिं अवसेसलोकं । सब्रह्मकन्ति ब्रह्मेहि सद्धिं अवसेसलोकं । एवं सब्बेपि तिभवपगे सत्ते तीहाकारेहि तीसु पदेसु पक्खिपित्वा पुन द्वीहि पदेहि परियादियन्तो सस्समणब्राह्मणिं प सदेवमनुस्सन्ति आह । एवं पञ्चहिपि पदेहि तेन तेनाकारेन तेधातुकमेव परियादिन्नन्ति । ___ सयं अभिज्ञा सच्छिकत्वा पवेदेतीति एत्थ पन सयन्ति सामं अपरनेय्यो हुत्वा । अभिज्ञाति अभिज्ञाय, अधिकेन जाणेन ञत्वाति अत्थो । सच्छिकत्वाति पच्चक्खं कत्वा, एतेन अनुमानादिपटिक्खेपो कतो होति । पवेदेतीति बोधेति विज्ञापेति पकासेति । ___ सो धम्म देसेति आदिकल्याणं...पे०... परियोसानकल्याणन्ति सो भगवा सत्तेसु कारुतं पटिच्च हित्वापि अनुत्तरं विवेकसुखं धम्मं देसेति । तञ्च खो अप्पं वा बहु वा देसेन्तो आदिकल्याणादिप्पकारमेव देसेति । आदिम्हिपि, कल्याणं भद्दकं अनवज्जमेव कत्वा देसेति, मज्झेपि, परियोसानेपि, कल्याणं भद्दकं अनवज्जमेव कत्वा देसेतीति वुत्तं होति । तत्थ अस्थि देसनाय आदिमज्झपरियोसानं, अत्थि सासनस्स । देसनाय ताव चतुप्पदिकायपि गाथाय पठमपादो आदि नाम, ततो द्वे मज्झं नाम, अन्ते एको परियोसानं नाम । एकानुसन्धिकस्स सुत्तस्स निदानं आदि, इदमवोचाति परियोसानं, उभिन्नमन्तरा मज्झं। अनेकानुसन्धिकस्स सुत्तस्स पठमानुसन्धि आदि, अन्ते अनुसन्धि परियोसानं, मज्झे एको वा द्वे वा बहू वा मज्झमेव । सासनस्स पन सीलसमाधिविपस्सना आदि नाम । वुत्तम्पि चेतं - "को चादि 144 Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२.१९०-१९०) पणीततरसामञ्ञफलवण्णना कुसलानं धम्मानं ? सीलञ्च सुविसुद्धं दिट्ठि च उजुका ति (सं० नि० ३.५.३६९) । “अत्थि, भिक्खवे, मज्झिमा पटिपदा तथागतेन अभिसम्बुद्धा" ति एवं वुत्तो पन अरियमग्गो मज्झं नाम । फलञ्चेव निब्बानञ्च परियोसानं नाम । " एतदत्थमिदं ब्राह्मण, ब्रह्मचरियं, एतं सारं, एतं परियोसान "न्ति (म० नि० १.३२४) हि एत्थ फलं परियोसानन्ति वृत्तं । “निब्बानोगधं हि आवुसो विसाख, ब्रह्मचरियं वुस्सति, निब्बानपरायनं निब्बानपरियोसान "न्ति (म० नि० १.४६६) एत्थ निब्बानं परियोसानन्ति वृत्तं । इध देसाय आदिमज्झपरियोसानं अधिप्पेतं । भगवा हि धम्मं देसेन्तो आदिम्हि सीलं दस्सेत्वा मज्झे मग्गं परियोसाने निब्बानं दस्सेति । तेन वुत्तं - "सो धम्मं देसेति आदिकल्याणं मज्झेकल्याणं परियोसानकल्याण "न्ति । तस्मा अञ्ञोपि धम्मकथिको धम्मं कथेन्तो - "आदिम्हि सीलं दस्सेय्य, मज्झे मग्गं विभावये । परियोसानम्हि निब्बानं, एसा कथिकसण्ठितीति । । वा, तस्स सात्थं सब्यञ्जनन्ति यस्स हि यागुभत्तइत्थिपुरिसादिवण्णनानिस्सिता देसना होति, न सो सात्थं देसेति । भगवा पन तथारूपं देसनं पहाय चतुसतिपट्ठानादिनिस्सितं देसनं देसेति। तस्मा सात्थं देसेतीति वुच्चति । यस्स पन देसना एकब्यञ्जनादित्ता वा सब्बनिरोट्ठब्यञ्जना वा सब्बविस्सट्ठसब्बनिग्गहीतब्यञ्जना दमिळकिरातसवरादिमिलक्खूनं भासा विय ब्यञ्जनपारिपूरिया अभावतो अब्यञ्जना नाम देसना होति । भगवा पन - “सिथिलं धनितञ्च दीघरस्सं, गरुकं लहुकञ्च निग्गहीतं । सम्बन्धववत्थितं विमुत्तं, दसधा ब्यञ्जनबुद्धिया पभेदो 'ति । । १४५ एवं वृत्तं दसविधं ब्यञ्जनं अमक्खेत्वा परिपुण्णब्यञ्जनमेव कत्वा धम्मं देसेति, तस्मा सब्यञ्जनं धम्मं देसेतीति वुच्चति । केवलपरिपुण्णन्ति एत्थ केवलन्ति सकलाधिवचनं । परिपुण्णन्ति अनूनाधिकवचनं । इदं वृत्तं होति सकलपरिपुण्णमेव देसेति, एकदेसनापि अपरिपुण्णा नत्थीति । उपनेतब्बअपनेतब्बस्स अभावतो केवलपरिपुण्णन्ति वेदितब्बं । परिसुद्धन्ति निरुपक्किलेसं । यो हि इमं धम्मदेसनं निस्साय लाभं वा सक्कारं वा लभिस्सामीति देसेति, तस्स अपरिसुद्धा देसना होति । भगवा पन लोकामिसनिरपेक्खो 145 Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४६ दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गट्ठकथा (२.१९०-१९०) हितफरणेन मेत्ताभावनाय मुदुहदयो उल्लुम्पनसभावसण्ठितेन चित्तेन देसेति । तस्मा परिसुद्धं धम्मं देसेतीति वुच्चति । ब्रह्मचरियं पकासेतीति एत्थ पनायं ब्रह्मचरिय-सद्दो दाने वेय्यावच्चे पञ्चसिक्खापदसीले अप्पमञासु मेथुनविरतियं सदारसन्तोसे वीरिये उपोसथङ्गेसु अरियमग्गे सासनेति इमेस्वत्थेसु दिस्सति । "किं ते वतं किं पन ब्रह्मचरियं, किस्स सुचिण्णस्स अयं विपाको । इद्धी जुती बलवीरियूपपत्ति, इदञ्च ते नाग, महाविमानं ।। अहञ्च भरिया च मनुस्सलोके, सद्धा उभो दानपती अहुम्हा । ओपानभूतं मे घरं तदासि, सन्तप्पिता समणब्राह्मणा च ।। तं मे वतं तं पन ब्रह्मचरियं, तस्स सुचिण्णस्स अयं विपाको । इद्धी जुती बलवीरियूपपत्ति, इदञ्च मे धीर महाविमान''न्ति ।। (जा. २.१७.१५९५) इमस्मिहि पुण्णकजातके दानं ब्रह्मचरियन्ति वुत्तं । “केन पाणि कामददो, केन पाणि मधुस्सवो । केन ते ब्रह्मचरियेन, पुनं पाणिम्हि इज्झति ।। तेन पाणि कामददो, तेन पाणि मधुस्सवो । तेन मे ब्रह्मचरियेन, पुलं पाणिम्हि इज्झती"ति ।। (पे० व० २७५,२७७) 146 Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२.१९०-१९०) पणीततरसामञफलवण्णना १४७ इमस्मिं अङ्करपेतवत्थुम्हि वेय्यावच्चं ब्रह्मचरियन्ति वुत्तं । “एवं, खो तं भिक्खवे, तित्तिरियं नाम ब्रह्मचरियं अहोसी"ति (चूळव० ३११) इमस्मिं तित्तिरजातके पञ्चसिक्खापदसीलं ब्रह्मचरियन्ति वुत्तं । "तं खो पन मे, पञ्चसिख, ब्रह्मचरियं नेव निब्बिदाय न विरागाय न निरोधाय...पे०... यावदेव ब्रह्मलोकूपपत्तिया"ति (दी० नि० २.३२९) इमस्मिं महागोविन्दसुत्ते चतस्सो अप्पमझायो ब्रह्मचरियन्ति वुत्ता। “परे अब्रह्मचारी भविस्सन्ति, मयमेत्थ ब्रह्मचारी भविस्सामा"ति (म० नि० १.८३) इमस्मिं सल्लेखसुत्ते मेथुनविरति ब्रह्मचरियन्ति वुत्ता । "मयञ्च भरिया नातिक्कमाम, अम्हे च भरिया नातिक्कमन्ति । अञत्र ताहि ब्रह्मचरियं चराम, तस्मा हि अम्हं दहरा न मीयरे"ति ।। (जा० १.४.९७) महाधम्मपालजातके सदारसन्तोसो ब्रह्मचरियन्ति वुत्तो । “अभिजानामि खो पनाहं, सारिपुत्त, चतुरङ्गसमन्नागतं ब्रह्मचरियं चरिता, तपस्सी सुदं होमी"ति (म० नि० १.१५५) लोमहंसनसुत्ते वीरियं ब्रह्मचरियन्ति वुत्तं । "हीनेन ब्रह्मचरियेन, खत्तिये उपपज्जति । मज्झिमेन च देवत्तं, उत्तमेन विसुज्झतीति ।। (जा० १.८.७५) एवं निमिजातके अत्तदमनवसेन कतो अट्ठङ्गिको उपोसथो ब्रह्मचरियन्ति वुत्तो । "इदं खो पन मे, पञ्चसिख, ब्रह्मचरियं एकन्तनिब्बिदाय विरागाय निरोधाय...पे०... अयमेव अरियो अट्ठङ्गिको मग्गो''ति (दी० नि० २.३२९) महागोविन्दसुत्तस्मिंयेव अरियमग्गो ब्रह्मचरियन्ति वुत्तो। “तयिदं ब्रह्मचरियं इद्धञ्चेव फीतञ्च वित्थारिकं बाहुजनं पुथुभूतं याव देवमनुस्सेहि सुप्पकासित"न्ति (दी० नि० ३.१७४) पासादिकसुत्ते सिक्खत्तयसङ्गहितं सकलसासनं ब्रह्मचरियन्ति वुत्तं । इमस्मिम्पि ठाने इदमेव ब्रह्मचरियन्ति अधिप्पेतं । तस्मा ब्रह्मचरियं पकासेतीति सो धम्म देसेति आदिकल्याणं...पे०... परिसुद्धं । एवं देसेन्तो च सिक्खत्तयसङ्गहितं सकलसासनं ब्रह्मचरियं पकासेतीति एवमेत्थ अत्थो दट्ठब्बो । ब्रह्मचरियन्ति सेट्ठद्वेन ब्रह्मभूतं चरियं । ब्रह्मभूतानं वा बुद्धादीनं चरियन्ति वुत्तं होति । 147 Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४८ दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गट्ठकथा (२.१९१-१९१) १९१. तं धम्मन्ति तं वुत्तप्पकारसम्पदं धम्मं । सुणाति गहपति वाति कस्मा पठमं गहपतिं निद्दिसति ? निहतमानत्ता, उस्सन्नत्ता च । येभुय्येन हि खत्तियकुलतो पब्बजिता जातिं निस्साय मानं करोन्ति । ब्राह्मणकुला पब्बजिता मन्ते निस्साय मानं करोन्ति । हीनजच्चकुला पब्बजिता अत्तनो अत्तनो विजातिताय पतिठ्ठातुं न सक्कोन्ति । गहपतिदारका पन कच्छेहि सेदं मुञ्चन्तेहि पिट्ठिया लोणं पुप्फमानाय भूमिं कसित्वा तादिसस्स मानस्स अभावतो निहतमानदप्पा होन्ति । ते पब्बजित्वा मानं वा दप्पं वा अकत्वा यथाबलं सकलबुद्धवचनं उग्गहेत्वा विपस्सनाय कम्मं करोन्ता सक्कोन्ति अरहत्ते पतिट्ठातुं । इतरेहि च कुलेहि निक्खमित्वा पब्बजिता नाम न बहुका, गहपतिकाव बहुका । इति निहतमानत्ता उस्सन्नत्ता च पठमं गहपतिं निद्दिसतीति । अञतरस्मिं वाति इतरेसं वा कुलानं अञ्जतरस्मिं । पच्चाजातोति पतिजातो । तथागते सद्धं पटिलभतीति परिसुद्धं धम्म सुत्वा धम्मस्सामिम्हि तथागते- “सम्मासम्बुद्धो वत सो भगवा''ति सद्धं पटिलभति । इति पटिसञ्चिक्खतीति एवं पच्चवेक्खति । सम्बाधो घरावासोति सचेपि सट्ठिहत्थे घरे योजनसतन्तरेपि वा द्वे जायम्पतिका वसन्ति, तथापि नेसं सकिञ्चनसपलिबोधठून घरावासो सम्बाधोयेव । रजोपयोति रागरजादीनं उद्वानहानन्ति महाअट्ठकथायं वुत्तं । आगमनपथोतिपि वदन्ति । अलग्गनटेन अब्भोकासो वियाति अब्भोकासो। पब्बजितो हि कूटागाररतनपासाददेवविमानादीसु पिहितद्वारवातपानेसु पटिच्छन्नेसु वसन्तोपि नेव लग्गति, न सज्जति, न बज्झति । तेन वुत्तं – “अब्भोकासो पब्बज्जा''ति । अपि च सम्बाधो घरावासो कुसलकिरियाय ओकासाभावतो। रजोपथो असंवुतसङ्कारट्ठानं विय रजानं किलेसरजानं सन्निपातट्ठानतो। अब्भोकासो पब्बज्जा कुसलकिरियाय यथासुखं ओकाससब्भावतो । नयिदं सुकरं...पे०... पब्बजेय्यन्ति एत्थायं स पकथा, यदेतं सिक्खत्तयब्रह्मचरियं एकम्पि दिवसं अखण्डं कत्वा चरिमकचित्तं पापेतब्बताय एकन्तपरिपुण्णं, चरितब्बं एकदिवसम्पि च किलेसमलेन अमलीनं कत्वा चरिमकचित्तं पापेतब्बताय एकन्तपरिसुद्धं । सङ्घलिखितन्ति लिखितसङ्खसदिसं धोतसङ्घसप्पटिभागं चरितब्बं । इदं न सुकरं अगारं अज्झावसता अगारमज्झे वसन्तेन एकन्तपरिपुण्णं...पे०... चरितुं, यंनूनाहं केसे च मस्सुञ्च ओहारेत्वा कसायरसपीतताय कासायानि ब्रह्मचरियं चरन्तानं अनुच्छविकानि वत्थानि अच्छादेत्वा परिदहित्वा अगारस्मा निक्खमित्वा अनगारियं पब्बजेय्यन्ति । एत्थ च 148 Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२.१९२-१९३-१९४-२११) चूळसीलवण्णना यस्मा अगारस्स हितं कसिवाणिज्जादिकम्मं अगारियन्ति वुच्चति, तञ्च पब्बज्जाय नत्थि, तस्मा पब्बज्जा अनगारियन्ति आतब्बा, तं अनगारियं । पब्बजेय्यन्ति पटिपज्जेय्यं । १९२-१९३. अप्पं वाति सहस्सतो हेट्ठा भोगक्खन्धो अप्पो नाम होति, सहस्सतो पट्ठाय महा। आबन्धनद्वेन आतियेव जातिपरिवट्टो । सोपि वीसतिया हेट्ठा अप्पो नाम होति, वीसतिया पट्ठाय महा। पातिमोक्खसंवरसंवुतोति पातिमोक्खसंवरेन समन्नागतो । आचारगोचरसम्पन्नोति आचारेन चेव गोचरेन च सम्पन्नो। अणुमत्तेसूति अप्पमत्तकेसु । वज्जेसूति अकुसलधम्मसु । भयदस्सावीति भयदस्सी। समादायाति सम्मा आदियित्वा । सिक्खति सिक्खापदेसूति सिक्खापदेसु तं तं सिक्खापदं समादियित्वा सिक्खति । अयमेत्थ सङ्खपो, वित्थारो पन विसुद्धिमग्गे वुत्तो। कायकम्मवचीकम्मेन समन्नागतो कुसलेन परिसुद्धाजीवोति एत्थ आचारगोचरग्गहणेनेव च कुसले कायकम्मवचीकम्मे गहितेपि यस्मा इदं आजीवपारिसुद्धिसीलं नाम न आकासे वा रुक्खग्गादीस वा उप्पज्जति. कायवचीद्वारेसयेव पन उप्पज्जतिः तस्मा तस्स उप्पत्तिद्वारदस्सनत्थं कायकम्मवचीकम्मेन समन्नागतो कुसलेनाति वुत्तं । यस्मा पन तेन समन्नागतो, तस्मा परिसुद्धाजीवो। समणमुण्डिकपुत्तसुत्तन्तवसेन (म० नि० २.२६०) वा एवं वुत्तं । तत्थ हि “कतमे च, थपति, कुसला सीला ? कुसलं कायकम्मं, कुसलं वचीकम्मं, परिसुद्धं आजीवम्पि खो अहं थपति सीलस्मिं वदामी''ति वुत्तं । यस्मा पन तेन समन्नागतो, तस्मा परिसुद्धाजीवोति वेदितब्बो । सीलसम्पन्नोति ब्रह्मजाले वुत्तेन तिविधेन सीलेन समन्नागतो होति । इन्द्रियेसु गुत्तद्वारोति मनच्छट्टेसु इन्द्रियेसु पिहितद्वारो होति । सतिसम्पजञ्जन समन्नागतोति अभिक्कन्ते पटिक्कन्तेतिआदीसु सत्तसु ठानेसु सतिया चेव सम्पजओन च समन्नागतो होति । सन्तुट्ठोति चतूसु पच्चयेसु तिविधेन सन्तोसेन सन्तुट्ठो होति । चूळसीलवण्णना १९४-२११. एवं मातिकं निक्खिपित्वा अनुपुब्बेन भाजेन्तो “कथञ्च, महाराज, भिक्खु सीलसम्पन्नो होती"तिआदिमाह । तत्थ इदम्पिस्स होति सीलस्मिन्ति इदम्पि अस्स भिक्खुनो पाणातिपाता वेरमणि सीलस्मिं एकं सीलं होतीति अत्थो। पच्चत्तवचनत्थे वा 149 Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५० दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गट्ठकथा (२.२१२-२१३) एतं भुम्मं । महाअट्ठकथायहि इदम्पि तस्स समणस्स सीलन्ति अयमेव अत्थो वुत्तो । सेसं ब्रह्मजाले वुत्तनयेनेव वेदितब्बं । इदमस्स होति सीलस्मिन्ति इदं अस्स सीलं होतीति अत्थो । २१२. न कुतोचि भयं समनुपस्सति, यदिदं सीलसंवरतोति यानि असंवरमूलकानि भयानि उप्पज्जन्ति, तेसु यं इदं भयं सीलसंवरतो भवेय्य, तं कुतोचि एकसंवरतोपि न समनुपस्सति । कस्मा ? संवरतो असंवरमूलकस्स भयस्स अभावा। मुद्राभिसित्तोति यथाविधानविहितेन खत्तियाभिसेकेन मुद्धनि अवसित्तो । यदिदं पच्चत्थिकतोति यं कुतोचि एकपच्चत्थिकतोपि भयं भवेय्य, तं न समनुपस्सति । कस्मा ? यस्मा निहतपच्चामित्तो । अज्झत्तन्ति नियकज्झत्तं, अत्तनो सन्तानेति अत्थो । अनवज्जसुखन्ति अनवज्जं अनिन्दितं कुसलं सीलपदट्ठानेहि अविप्पटिसारपामोज्जपीतिपस्सद्धिधम्मेहि परिग्गहितं कायिकचेतसिकसुखं पटिसंवेदेति । एवं खो, महाराज, भिक्खु सीलसम्पन्नो होतीति एवं निरन्तरं वित्थारेत्वा दस्सितेन तिविधेन सीलेन समन्नागतो भिक्खु सीलसम्पन्नो नाम होतीति सीलकथं निट्ठापेसि । इन्द्रियसंवरकथा २१३. इन्द्रियेसु गुत्तद्वारभाजनीये चक्खुना रूपन्ति अयं चक्खुसद्दो कत्थचि बुद्धचक्खुम्हि वत्तति, यथाह - "बुद्धचक्खुना लोकं वोलोकेसी"ति (महाव० ९)। कत्थचि सब्बञ्जताणसङ्खाते समन्तचक्खुम्हि, यथाह - "तथूपमं धम्ममयं, सुमेध, पासादमारुय्ह समन्तचक्खू"ति (महाव० ८)। कत्थचि धम्मचक्खुम्हि "विरजं वीतमलं धम्मचक् उदपादी''ति (महाव० १६) हि एत्थ अरियमग्गत्तयपा । “चक्खु उदपादि जाणं उदपादी''ति (महाव० १५) एत्थ पुब्बेनिवासादित्राणं पञाचक्खूति वुच्चति । “दिब्बेन चक्खुना"ति (म० नि० १.२८४) आगतहानेसु दिब्बचक्खुम्हि वत्तति । “चक्खुञ्च पटिच्च रूपे चा"ति एत्थ पसादचक्खुम्हि वत्तति। इध पनायं पसादचक्खुवोहारेन चक्खुविज्ञाणे वत्तति, तस्मा चक्खुविज्ञाणेन रूपं दिस्वाति अयमेत्थत्थो । सेसपदेसु यं वत्तब्बं सिया, तं सब्बं विसुद्धिमग्गे वुत्तं । अब्यासेकसुखन्ति किलेसब्यासेकविरहितत्ता अब्यासेकं असम्मिस्सं परिसुद्धं अधिचित्तसुखं पटिसंवेदेतीति । 150 Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२.२१४-२१४) सतिसम्पजञकथा १५१ सतिसम्पजज्ञकथा २१४. सतिसम्पजञभाजनीयम्हि अभिक्कन्ते पटिक्कन्तेति एत्थ ताव अभिक्कन्तं वुच्चति गमनं, पटिक्कन्तं निवत्तनं, तदुभयम्पि चतूसु इरियापथेसु लब्भति । गमने ताव पुरतो कायं अभिहरन्तो अभिक्कमति नाम । पटिनिवत्तन्तो पटिक्कमति नाम | ठानेपि ठितकोव कायं पुरतो ओनामेन्तो अभिक्कमति नाम, पच्छतो अपनामेन्तो पटिक्कमति नाम । निसज्जाय निसिन्नकोव आसनस्स पुरिमअङ्गाभिमुखो संसरन्तो अभिक्कमति नाम, पच्छिमअङ्गपदेसं पच्चासंसरन्तो पटिक्कमति नाम । निपज्जनेपि एसेव नयो । सम्पजानकारी होतीति सम्पजओन सब्बकिच्चकारी। सम्पजझमेव वा कारी । सो हि अभिक्कन्तादीसु सम्पजनं करोतेव। न कत्थचि सम्पजञविरहितो होति । तत्थ सात्थकसम्पजनं, सप्पायसम्पजनं, गोचरसम्पजनं असम्मोहसम्पजञ्जन्ति चतुबिधं सम्पजनं । तत्थ अभिक्कमनचित्ते उप्पन्ने चित्तवसेनेव अगन्त्वा- “किन्नु मे एत्थ गतेन अत्थो अस्थि नत्थी''ति अस्थानत्थं परिग्गहेत्वा अत्थपरिग्गण्हनं सात्थकसम्पजनं। तत्थ च अत्थोति चेतियदस्सनबोधिसङ्घथेरअसुभदस्सनादिवसेन धम्मतो वुड्डि । चेतियं वा बोधि वा दिस्वापि हि बुद्धारम्मणं, सङ्घदस्सनेन सङ्घारम्मणं, पीति उप्पादेत्वा तदेव खयवयतो सम्मसन्तो अरहत्तं पापुणाति । थेरे दिस्वा तेसं ओवादे पतिट्ठाय, असुभं दिस्वा तत्थ पठमज्झानं उप्पादेत्वा तदेव खयवयतो सम्मसन्तो अरहत्तं पापुणाति । तस्मा एतेसं दस्सनं सात्थकन्ति वुत्तं । केचि पन आमिसतोपि वुड्डि अत्थोयेव, तं निस्साय ब्रह्मचरियानुग्गहाय पटिपन्नत्ताति वदन्ति । तस्मिं पन गमने सप्पायासप्पायं परिग्गहेत्वा सप्पायपरिग्गण्हनं सप्पायसम्पजकं । सेय्यथिदं- चेतियदस्सनं ताव सात्थकं, सचे पन चेतियस्स महापूजाय दसद्वादसयोजनन्तरे परिसा सन्निपतन्ति, अत्तनो विभवानुरूपा इथियोपि पुरिसापि अलङ्कतपटियत्ता चित्तकम्मरूपकानि विय सञ्चरन्ति । तत्र चस्स इठे आरम्मणे लोभो होति, अनिटे पटिघो, असमपेक्खने मोहो उप्पज्जति, कायसंसग्गापत्तिं वा आपज्जति । जीवितब्रह्मचरियानं वा अन्तरायो होति, एवं तं ठानं असप्पायं होति । वुत्तप्पकारअन्तरायाभावे सप्पायं । बोधिदस्सनेपि एसेव नयो । सङ्घदस्सनम्पि सात्थं । सचे पन अन्तोगामे महामण्डपं कारेत्वा सब्बरत्तिं धम्मस्सवनं करोन्तेसु मनुस्सेसु वुत्तप्पकारेनेव 151 Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५२ दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गट्ठकथा (२.२१४-२१४) जनसन्निपातो चेव अन्तरायो च होति, एवं तं ठानं असप्पायं होति । अन्तरायाभावे सप्पायं । महापरिसपरिवारानं थेरानं दस्सनेपि एसेव नयो । असुभदस्सनम्पि सात्थं, तदत्थदीपनत्थञ्च इदं वत्थु - एको किर दहरभिक्खु सामणेरं गहेत्वा दन्तकट्ठत्थाय गतो । सामणेरो मग्गा ओक्कमित्वा पुरतो गच्छन्तो असुभं दिस्वा पठमज्झानं निब्बत्तेत्वा तदेव पादकं कत्वा सङ्खारे सम्मसन्तो तीणि फलानि सच्छिकत्वा उपरिमग्गत्थाय कम्मट्ठानं परिग्गहेत्वा अट्ठासि । दहरो तं अपस्सन्तो सामणेराति पक्कोसि । सो ‘मया पब्बजितदिवसतो पट्ठाय भिक्खुना सद्धिं द्वे कथा नाम न कथितपुब्बा । अञ्जस्मिम्पि दिवसे उपरि विसेसं निब्बत्तेस्सामी'ति चिन्तेत्वा किं, भन्तेति पटिवचनमदासि | ‘एही'ति च वुत्ते एकवचनेनेव आगन्त्वा, 'भन्ते, इमिना ताव मग्गेनेव गन्त्वा मया ठितोकासे मुहुत्तं पुरत्थाभिमुखो ठत्वा ओलोकेथा'ति आह । सो तथा कत्वा तेन पत्तविसेसमेव पापुणि । एवं एकं असुभं द्विन्नं जनानं अत्थाय जातं । एवं साथम्पि पनेतं पुरिसस्स मातुगामासुभं असप्पायं, मातुगामस्स च पुरिसासुभं असप्पायं, सभागमेव सप्पायन्ति एवं सप्पायपरिग्गण्हनं सप्पायसम्पजनं नाम । एवं परिग्गहितसात्थकसप्पायस्स पन अट्ठतिसाय कम्मट्ठानेसु अत्तनो चित्तरुचियं कम्मट्ठानसङ्खातं गोचरं उग्गहेत्वा भिक्खाचारगोचरे तं गहेत्वाव गमनं गोचरसम्पजनं नाम । तस्साविभावनत्थं इदं चतुक्कं वेदितब्बं - ___ इधेकच्चो भिक्खु हरति, न पच्चाहरति; एकच्चो पच्चाहरति, न हरति; एकच्चो पन नेव हरति, न पच्चाहरति ; एकच्चो हरति च, पच्चाहरति चाति । तत्थ यो भिक्खु दिवसं चङ्कमेन निसज्जाय च आवरणीयेहि धम्मेहि चित्तं परिसोधेत्वा तथा रत्तिया पठमयामे, मज्झिमयामे सेय्यं कप्पेत्वा पच्छिमयामेपि निसज्जचङ्कमेहि वीतिनामेत्वा पगेव चेतियङ्गणबोधियङ्गणवत्तं कत्वा बोधिरुक्खे उदकं आसिञ्चित्वा, पानीयं परिभोजनीयं पच्चुपट्टपेत्वा आचरियुपज्झायवत्तादीनि सब्बानि खन्धकवत्तानि समादाय वत्तति । सो सरीरपरिकम्मं कत्वा सेनासनं पविसित्वा द्वे तयो पल्लङ्के उसुमं गाहापेन्तो कम्मट्ठानं अनुयुजित्वा भिक्खाचारवेलायं उट्ठहित्वा कम्मट्ठानसीसेनेव पत्तचीवरमादाय सेनासनतो निक्खमित्वा कम्मट्ठानं मनसिकरोन्तोव चेतियङ्गणं गन्त्वा, सचे बुद्धानुस्सतिकम्मट्टानं होति, तं अविस्सज्जेत्वाव चेतियङ्गणं पविसति । अनं चे कम्मट्टानं होति, सोपानमूले ठत्वा हत्थेन गहितभण्डं विय तं ठपेत्वा बुद्धारम्मणं पीतिं गहेत्वा चेतियङ्गणं आरुय्ह, महन्तं 152 Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२.२१४-२१४) सतिसम्पजञकथा १५३ चेतियं चे, तिक्खत्तुं पदक्खिणं कत्वा चतूसु ठानेसु वन्दितब्बं । खुद्दकं चेतियं चे, तथेव पदक्खिणं कत्वा अट्ठसु ठानेसु वन्दितब्बं । चेतियं वन्दित्वा बोधियङ्गणं पत्तेनापि बुद्धस्स भगवतो सम्मुखा विय निपच्चाकारं दस्सेत्वा बोधि वन्दितब्बा । सो एवं चेतियञ्च बोधिञ्च वन्दित्वा पटिसामितवानं गन्त्वा पटिसामितभण्डकं हत्थेन गण्हन्तो विय निक्खित्तकम्मट्ठानं गहेत्वा गामसमीपे कम्मट्ठानसीसेनेव चीवरं पारुपित्वा गामं पिण्डाय पविसति । अथ नं मनुस्सा दिस्वा अय्यो नो आगतोति पच्चुग्गन्त्वा पत्तं गहेत्वा आसनसालाय वा गेहे वा निसीदापेत्वा यागु दत्वा याव भत्तं न निट्ठाति, ताव पादे धोवित्वा तेलेन मक्खेत्वा पुरतो ते निसीदित्वा पहं वा पुच्छन्ति, धम्मं वा सोतुकामा होन्ति । सचेपि न कथापेन्ति, जनसङ्गहत्थं धम्मकथा. नाम कातब्बा येवाति अट्ठकथाचरिया वदन्ति । धम्मकथा हि कम्मट्ठानविनिमुत्ता नाम नत्थि, तस्मा कम्मट्ठानसीसेनेव धम्मकथं कथेत्वा कम्मट्ठानसीसेनेव आहारं परिभुञ्जित्वा अनुमोदनं कत्वा निवत्तियमानेहिपि मनुस्सेहि अनुगतोव गामतो निक्खमित्वा तत्थ ते निवत्तेत्वा मग्गं पटिपज्जति । अथ नं पुरेतरं निक्खमित्वा बहिगामे कतभत्तकिच्चा सामणेरदहरभिक्खू दिस्वा पच्चुग्गन्त्वा पत्तचीवरमस्स गण्हन्ति । पोराणकभिक्खू किर अम्हाकं उपज्झायो आचरियोति न मुखं ओलोकेत्वा वत्तं करोन्ति, सम्पत्तपरिच्छेदेनेव करोन्ति । ते तं पुच्छन्ति - “भन्ते, एते मनुस्सा तुम्हाकं किं होन्ति, मातिपक्खतो सम्बन्धा पितिपक्खतो''ति ? किं दिस्वा पुच्छथाति ? तुम्हेसु एतेसं पेमं बहुमानन्ति । आवुसो, यं मातापितूहिपि दुक्कर, तं एते अम्हाकं करोन्ति, पत्तचीवरम्पि नो एतेसं सन्तकमेव, एतेसं आनुभावेन नेव भये भयं, न छातके छातकं जानाम । ईदिसा नाम अम्हाकं उपकारिनो नत्थीति तेसं गुणे कथेन्तो गच्छति । अयं वुच्चति हरति न पच्चाहरतीति । यस्स पन पगेव वुत्तप्पकारं वत्तपटिपत्तिं करोन्तस्स कम्मजतेजोधातु पज्जलति, अनुपादिन्नकं मुञ्चित्वा उपादिन्नकं गण्हाति, सरीरतो सेदा मुञ्चन्ति, कम्मट्ठानं वीथिं नारोहति, सो पगेव पत्तचीवरमादाय वेगसा चेतियं वन्दित्वा गोरूपानं निक्खमनवेलायमेव गामं यागुभिक्खाय पविसित्वा यागु लभित्वा आसनसालं गन्त्वा पिवति, अथस्स द्वत्तिक्खत्तुं अज्झोहरणमत्तेनेव कम्मजतेजोधातु उपादिन्नकं मुञ्चित्वा अनुपादिन्नकं गण्हाति, घटसतेन न्हातो विय तेजोधातु परिळाहनिब्बानं पत्वा कम्मट्ठानसीसेन यागु परिभुजित्वा पत्तञ्च मुखञ्च धोवित्वा अन्तराभत्ते कम्मट्ठानं मनसिकत्वा अवसेसट्टाने पिण्डाय चरित्वा कम्मट्ठानसीसेन आहारञ्च परिभुञ्जित्वा ततो पट्ठाय पोङ्खानुपोज़ उपट्ठहमानं कम्मट्ठानं 153 Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५४ दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गट्ठकथा (२.२१४-२१४) गहेत्वा आगच्छति, अयं वुच्चति पच्चाहरति न हरतीति । एदिसा च भिक्खू यागु पिवित्वा विपस्सनं आरभित्वा बुद्धसासने अरहत्तप्पत्ता नाम गणनपथं वीतिवत्ता । सीहळदीपेयेव तेसु तेसु गामेसु आसनसालायं वा न तं आसनमत्थि, यत्थ यागु पिवित्वा अरहत्तप्पत्ता भिक्खू नत्थीति । यो पन पमादविहारी होति, निक्खित्तधुरो सब्बवत्तानि भिन्दित्वा पञ्चविधचेतोखीलविनिबन्धचित्तो विहरन्तो – “कम्मट्ठानं नाम अत्थी'"ति सञ्जम्पि अकत्वा गामं पिण्डाय पविसित्वा अननुलोमिकेन गिहिसंसग्गेन संसट्ठो चरित्वा च भुञ्जित्वा च तुच्छो निक्खमति, अयं वुच्चति नेव हरति न पच्चाहरतीति ।। यो पनायं- "हरति च पच्चाहरति चा"ति वुत्तो, सो. गतपच्चागतवत्तवसेनेव वेदितब्बो। अत्तकामा हि कुलपुत्ता सासने पब्बजित्वा दसपि वीसम्पि तिंसम्पि चत्तालीसम्पि पञ्जासम्पि सतम्पि एकतो वसन्ता कतिकवत्तं कत्वा विहरन्ति, “आवुसो, तुम्हे न इणट्टा, न भयट्टा, न जीविकापकता पब्बजिता, दुक्खा मुच्चितुकामा पनेत्थ पब्बजिता, तस्मा गमने उप्पन्नकिलेसं गमनेयेव निग्गण्हथ, तथा ठाने, निसज्जाय, सयने उप्पन्नकिलेसं सयनेव निग्गण्हथा''ति । ते एवं कतिकवत्तं कत्वा भिक्खाचारं गच्छन्ता अड्डउसभउसभअड्डगावुतगावुतन्तरेसु पासाणा होन्ति, ताय सजाय कम्मट्ठानं मनसिकरोन्ताव गच्छन्ति । सचे कस्सचि गमने किलेसो उप्पज्जति, तत्थेव नं निग्गण्हाति । तथा असक्कोन्तो तिट्ठति, अथस्स पच्छतो आगच्छन्तोपि तिट्ठति । सो “अयं भिक्खु तुम्हं उप्पन्नवितक्कं जानाति, अननुच्छविकं ते एत"न्ति अत्तानं पटिचोदेत्वा विपस्सनं वड्डेत्वा तत्थेव अरियभूमिं ओक्कमति; तथा असक्कोन्तो निसीदति । अथस्स पच्छतो आगच्छन्तोपि निसीदतीति सोयेव नयो । अरियभूमिं ओक्कमितुं असक्कोन्तोपि तं किलेसं विक्खम्भेत्वा कम्मट्ठानं मनसिकरोन्तोव गच्छति, न कम्मट्ठानविप्पयुत्तेन चित्तेन पादं उद्धरति, उद्धरति चे, पटिनिवत्तित्वा पुरिमपदेसंयेव एति । आलिन्दकवासी महाफुस्सदेवत्थेरो विय । सो किर एकूनवीसतिवस्सानि गतपच्चागतवत्तं पूरेन्तो एव विहासि, मनुस्सापि अद्दसंसु अन्तरामग्गे कसन्ता च वपन्ता च मद्दन्ता च कम्मानि च करोन्ता थेरं तथागच्छन्तं दिस्वा - “अयं थेरो पुनप्पुनं निवत्तित्वा गच्छति, किन्नु खो मग्गमूळ्हो, 154 Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२.२१४-२१४) सतिसम्पजचकथा १५५ उदाहु किञ्चि पमुट्ठो"ति समुल्लपन्ति । सो तं अनादियित्वा कम्मट्ठानयुत्तचित्तेनेव समणधम्मं करोन्तो वीसतिवस्सब्भन्तरे अरहत्तं पापुणि, अरहत्तप्पत्तदिवसे चस्स चङ्कमनकोटियं अधिवत्था देवता अङ्गुलीहि दीपं उज्जालेत्वा अट्टासि । चत्तारोपि महाराजानो सक्को च देवानमिन्दो ब्रह्मा च सहम्पति उपट्टानं अगमंसु । तञ्च ओभासं दिस्वा वनवासी महातिस्सत्थेरो तं दुतियदिवसे पुच्छि - "रत्तिभागे आयस्मतो सन्तिके ओभासो अहोसि, किं सो ओभासो''ति ? थेरो विखेपं करोन्तो ओभासो नाम दीपोभासोपि होति, मणिओभासोपीति एवमादिमाह । ततो 'पटिच्छादेथ तुम्हे'ति निबद्धो 'आमा'ति पटिजानित्वा आरोचेसि । काळवल्लिमण्डपवासी महानागत्थेरो विय च । सोपि किर गतपच्चागतवत्तं पूरेन्तो - पठमं ताव भगवतो महापधानं पूजेस्सामीति सत्तवस्सानि ठानचङ्कममेव अधिठ्ठासि । पुन सोळसवस्सानि गतपच्चागतवत्तं पूरेत्वा अरहत्तं पापुणि । सो कम्मट्ठानयुत्तेनेव चित्तेन पादं उद्धरन्तो, वियुत्तेन उद्धटे पटिनिवत्तेन्तो गामसमीपं गन्त्वा “गावी नु पब्बजितो नू"ति आसङ्कनीयपदेसे ठत्वा चीवरं पारुपित्वा कच्छकन्तरतो उदकेन पत्तं धोवित्वा उदकगण्डूसं करोति । किं कारणा ? मा मे भिक्खं दातुं वा वन्दितुं वा आगते मनुस्से 'दीघायुका होथा'ति वचनमत्तेनापि कम्मट्ठानविक्खेपो अहोसीति । “अज्ज, भन्ते, कतिमी"ति दिवसं वा भिक्खुगणनं वा पऽहं वा पुच्छितो पन उदकं गिलित्वा आरोचेति । सचे दिवसादीनि पुच्छका न होन्ति, निक्खमनवेलाय गामद्वारे निट्ठभित्वाव याति । कलम्बतित्थविहारे वस्सूपगता पज्ञासभिक्खू विय च । ते किर आसळ्हिपुण्णमायं कतिकवत्तं अकंसु- “अरहत्तं अप्पत्वा अञ्जमधे नालपिस्सामा"ति, गामञ्च पिण्डाय पविसन्ता उदकगण्डूसं कत्वा पविसिंसु । दिवसादीसु पुच्छितेसु वुत्तनयेनेव पटिपज्जिंसु । तत्थ मनुस्सा निट्ठभनं दिस्वा जानिंसु- “अज्जेको आगतो, अज्ज द्वे'ति । एवञ्च चिन्तेसुं- “किन्नु खो एते अम्हेहियेव सद्धिं न सल्लपन्ति, उदाहु अञमञ्जम्पि । सचे अञमझम्पि न सल्लपन्ति, अद्धा विवादजाता भविस्सन्ति । एथ ने अञमनं खमापेस्सामा"ति, सब्बे विहारं गन्त्वा पञ्जासाय भिक्खूसु द्वेपि भिक्खू एकोकासे नाद्दसंसु । ततो यो तेसु चक्खुमा पुरिसो, सो आह - "न भो कलहकारकानं वसनोकासो ईदिसो होति, सुसम्मटुं चेतियङ्गणबोधियङ्गणं, सुनिक्खित्ता सम्मज्जनियो, सूपट्ठपितं पानीयं परिभोजनीयन्ति, ते ततोव निवत्ता । तेपि भिक्खू अन्तो तेमासेयेव अरहत्तं पत्वा महापवारणाय विसुद्धिपवारणं पवारेसुं । 155 Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५६ दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गट्ठकथा (२.२१४-२१४) __ एवं काळवल्लिमण्डपवासी महानागत्थेरो विय, कलम्बतित्थविहारे वस्सूपगतभिक्खू विय च कम्मट्ठानयुत्तेनेव चित्तेन पादं उद्धरन्तो गामसमीपं गन्त्वा उदकगण्डूसं कत्वा वीथियो सल्लक्खेत्वा, यत्थ सुरासोण्डधुत्तादयो कलहकारका चण्डहत्थिअस्सादयो वा नत्थि, तं वीथिं पटिपज्जति । तत्थ च पिण्डाय चरमानो न तुरिततुरितो विय जवेन गच्छति । न हि जवेन पिण्डपातियधुतङ्गं नाम किञ्चि अस्थि । विसमभूमिभागप्पत्तं पन उदकसकटं विय निच्चलो हुत्वा गच्छति। अनुघरं पविठ्ठो च दातुकामं वा अदातुकामं वा सल्लक्खेत्वा तदनुरूपं कालं आगमेन्तो भिक्खं पटिलभित्वा आदाय अन्तोगामे वा बहिगामे वा विहारमेव वा आगन्त्वा यथा फासुके पतिरूपे ओकासे निसीदित्वा कम्मट्ठानं मनसिकरोन्तो आहारे पटिकूलसच उपट्ठपेत्वा अक्खब्भञ्जन - वणलेपनपुत्तमंसूपमवसेन पच्चवेक्खन्तो अट्ठङ्गसमन्नागतं आहारं आहारेति, नेव दवाय न मदाय न मण्डनाय न विभूसनाय...पे०... भुत्तावी च उदककिच्चं कत्वा मुहुत्तं भत्तकिलमथं पटिप्पस्सम्भेत्वा यथा पुरेभत्तं, एवं पच्छाभत्तं पुरिमयामं पच्छिमयामञ्च कम्मट्ठानमेव मनसि करोति, अयं वुच्चति हरति च पच्चाहरति चाति । इदं पन हरणपच्चाहरणसङ्खातं गतपच्चागतवत्तं पूरेन्तो यदि उपनिस्सयसम्पन्नो होति, पठमवये एव अरहत्तं पापुणाति । नो चे पठमवये पापुणाति, अथ मज्झिमवये; नो चे मज्झिमवये पापुणाति, अथ मरणसमये; नो चे मरणसमये पापुणाति, अथ देवपुत्तो हुत्वा ; नो चे देवपुत्तो हुत्वा पापुणाति, अनुप्पन्ने बुद्धे निब्बत्तो पच्चेकबोधिं सच्छिकरोति । नो चे पच्चेकबोधिं सच्छिकरोति, अथ बुद्धानं सम्मुखीभावे खिप्पाभिज्ञो होति ; सेय्यथापि थेरो बाहियो दारुचीरियो महापञो वा, सेय्यथापि थेरो सारिपुत्तो महिद्धिको वा, सेय्यथापि थेरो महामोग्गल्लानो धुतवादो वा, सेय्यथापि थेरो महाकस्सपो दिब्बचक्खुको वा, सेय्यथापि थेरो अनुरुद्धो विनयधरो वा, सेय्यथापि थेरो उपालि धम्मकथिको वा, सेय्यथापि थेरो पुण्णो मन्ताणिपुत्तो आरञिको वा, सेय्यथापि थेरो रेवतो बहुस्सुतो वा, सेय्यथापि थेरो आनन्दो भिक्खाकामो वा, सेय्यथापि थेरो राहुलो बुद्धपुत्तोति । इति इमस्मिं चतुक्के य्वायं हरति च पच्चाहरति च, तस्स गोचरसम्पजनं सिखापत्तं होति । अभिक्कमादीसु पन असम्मुव्हनं असम्मोहसम्पजलं, तं एवं वेदितब्बं - इध भिक्खु अभिक्कमन्तो वा पटिक्कमन्तो वा यथा अन्धबालपुथुज्जना अभिक्कमादीसु- “अत्ता अभिक्कमति, अत्तना अभिक्कमो निब्बत्तितो"ति वा, “अहं अभिक्कमामि, मया 156 Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२.२१४-२१४) सतिसम्पजञकथा १५७ अभिक्कमो निब्बत्तितो"ति वा सम्मुव्हन्ति, तथा असम्मुव्हन्तो “अभिक्कमामी"ति चित्ते उप्पज्जमाने तेनेव चित्तेन सद्धिं चित्तसमुट्ठाना वायोधातु विज्ञत्तिं जनयमाना उप्पज्जति । इति चित्तकिरियवायोधातुविप्फारवसेन अयं कायसम्मतो अट्ठिसङ्घातो अभिक्कमति । तस्सेवं अभिक्कमतो एकेकपादुद्धरणे पथवीधातु आपोधातूति द्वे धातुयो ओमत्ता होन्ति मन्दा, इतरा द्वे अधिमत्ता होन्ति बलवतियो; तथा अतिहरणवीतिहरणेसु । वोस्सज्जने तेजोधातु वायोधातूति द्वे धातुयो ओमत्ता होन्ति मन्दा, इतरा द्वे अधिमत्ता बलवतियो, तथा सन्निक्खेपनसन्निरुज्झनेसु । तत्थ उद्धरणे पवत्ता रूपारूपधम्मा अतिहरणं न पापुणन्ति, तथा अतिहरणे पवत्ता वीतिहरणं, वीतिहरणे पवत्ता वोस्सज्जनं, वोस्सज्जने पवत्ता सन्निक्खेपनं, सन्निक्खेपने पवत्ता सन्निरुज्झनं न पापुणन्ति । तत्थ तत्थेव पब्बं पब्बं सन्धि सन्धि ओधि ओधि हुत्वा तत्तकपाले पक्खित्ततिलानि विय पटपटायन्ता भिज्जन्ति । तत्थ को एको अभिक्कमति, कस्स वा एकस्स अभिक्कमनं ? परमत्थतो हि धातूनंयेव गमनं, धातूनं ठानं, धातूनं निसज्जनं, धातूनं सयनं । तस्मिं तस्मिं कोट्ठासे सद्धिं रूपेन । अनं उप्पज्जते चित्तं, अनं चित्तं निरुज्झति । अवीचिमनुसम्बन्धो, नदीसोतोव वत्ततीति ।। एवं अभिक्कमादीसु असम्मुव्हनं असम्मोहसम्पजनं नामाति । निहितो अभिक्कन्ते पटिक्कन्ते सम्पजानकारी होतीति पदस्स अत्थो । आलोकिते विलोकितेति एत्थ पन आलोकितं नाम पुरतो पेक्खणं । विलोकितं नाम अनुदिसापेक्खणं। अञ्जानिपि हेट्ठा उपरि पच्छतो पेक्खणवसेन ओलोकितउल्लोकितापलोकितानि नाम होन्ति, तानि इध न गहितानि | सारुप्पवसेन पन इमानेव द्वे गहितानि, इमिना वा मुखेन सब्बानिपि तानि गहितानेवाति । तत्थ “आलोकेस्सामी''ति चित्ते उप्पन्ने चित्तवसेनेव अनोलोकेत्वा अत्थपरिग्गण्हनं सात्थकसम्पजनं, तं आयस्मन्तं नन्दं कायसक्खिं कत्वा वेदितब्बं । वुत्तज्हेतं भगवता - "सचे, भिक्खवे, नन्दस्स पुरत्थिमा दिसा आलोकेतब्बा होति, सब्बं चेतसा समन्नाहरित्वा नन्दो पुरत्थिमं दिसं आलोकेति - ‘एवं मे पुरत्थिमं दिसं आलोकयतो न अभिज्झादोमनस्सा पापका अकुसला धम्मा अन्वास्सविस्सन्तीति | इतिह तत्थ सम्पजानो 157 Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५८ दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गट्ठकथा (२.२१४-२१४) होति (अ० नि० ३.८.९)। सचे, भिक्खवे, नन्दस्स पच्छिमा दिसा...पे०... उत्तरा दिसा...पे०... दक्खिणा दिसा...पे०... उद्धं...पे०... अधो...पे०... अनुदिसा अनुविलोकेतब्बा होति, सब्बं चेतसा समन्नाहरित्वा नन्दो अनुदिसं अनुविलोकेति- ‘एवं मे अनुदिसं अनुविलोकयतो न अभिज्झादोमनस्सा पापका अकुसला धम्मा अन्वास्सविस्सन्ती'ति । इतिह तत्थ सम्पजानो होती"ति । __ अपि च इधापि पुब्बे वुत्तचेतियदस्सनादिवसेनेव सात्थकता च सप्पायता च वेदितब्बा, कम्मट्ठानस्स पन अविजहनमेव गोचरसम्पजनं। तस्मा एत्थ खन्धधातुआयतनकम्मट्ठानिकेहि अत्तनो कम्मट्ठानवसेनेव, कसिणादिकम्मट्ठानिकेहि वा पन कम्मट्ठानसीसेनेव आलोकनं विलोकनं कातब्बं । अब्भन्तरे अत्ता नाम आलोकेता वा विलोकेता वा नत्थि, 'आलोकेस्सामी'ति पन चित्ते उप्पज्जमाने तेनेव चित्तेन सद्धिं चित्तसमुट्ठाना वायोधातु विज्ञत्तिं जनयमाना उप्पज्जति । इति चित्तकिरियवायोधातुविष्फारवसेन हेट्ठिमं अक्खिदलं अधो सीदति, उपरिमं उद्धं लवेति । कोचि यन्तकेन विवरन्तो नाम नत्थि | ततो चक्खुविज्ञाणं दस्सनकिच्चं साधेन्तं उप्पज्जतीति एवं पजाननं पनेत्थ असम्मोहसम्पजनं नाम । अपि च मूलपरिञा आगन्तुकताव कालिकभाववसेन पेत्थ असम्मोहसम्पजचं वेदितब्बं | मूलपरिञावसेन ताव भवङ्गावज्जनञ्चेव, दस्सनं सम्पटिच्छनं । सन्तीरणं वोट्ठब्बनं, जवनं भवति सत्तमं ।। तत्थ भवङ्गं उपपत्तिभवस्स अङ्गकिच्चं साधयमानं पवत्तति, तं आवठूत्वा किरियमनोधातु आवज्जनकिच्चं साधयमाना, तंनिरोधा चक्खुविाणं दस्सनकिच्चं साधयमानं, तंनिरोधा विपाकमनोधातु सम्पटिच्छनकिच्चं साधयमाना, तंनिरोधा विपाकमनोविज्ञाणधातु सन्तीरणकिच्चं साधयमाना, तंनिरोधा किरियमनोविज्ञाणधातु वोट्ठब्बनकिच्चं साधयमाना, तंनिरोधा सत्तक्खत्तुं जवनं जवति । तत्थ पठमजवनेपि"अयं इत्थी, अयं पुरिसो''ति रज्जनदुस्सनमुम्हनवसेन आलोकितविलोकितं नाम न होति । दुतियजवनेपि...पे०... सत्तमजवनेपि । एतेसु पन युद्धमण्डले योधेसु विय हेदुपरियवसेन भिज्जित्वा पतितेसु- “अयं इत्थी, अयं पुरिसो"ति रज्जनादिवसेन आलोकितविलोकितं होति । एवं तावेत्थ मूलपरिज्ञावसेन असम्मोहसम्पजनं वेदितब्बं । 158 Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२.२१४-२१४) सतिसम्पजञकथा १५९ चक्खुद्वारे पन रूपे आपाथमागते भवङ्गचलनतो उद्धं सककिच्चनिष्फादनवसेन आवज्जनादीसु उप्पज्जित्वा निरुद्धेसु अवसाने जवनं उप्पज्जति, तं पुब्बे उप्पन्नानं आवज्जनादीनं गेहभूते चक्खुद्वारे आगन्तुकपुरिसो विय होति । तस्स यथा परगेहे किञ्चि याचितुं पविठ्ठस्स आगन्तुकपुरिसस्स गेहस्सामिकेसु तुण्हीमासिनेसु आणाकरणं न युत्तं, एवं आवज्जनादीनं गेहभूते चक्खुद्वारे आवज्जनादीसुपि अरज्जन्तेसु अदुस्सन्तेसु अमुव्हन्तेसु च रज्जनदुस्सनमुव्हनं अयुत्तन्ति एवं आगन्तुकभाववसेन असम्मोहसम्पजनं वेदितब्बं । यानि पनेतानि चक्खुद्वारे वोहब्बनपरियोसानानि चित्तानि उप्पज्जन्ति, तानि सद्धिं सम्पयुत्तधम्मेहि तत्थ तत्थेव भिज्जन्ति, अञ्जमलं न पस्सन्तीति, इत्तरानि तावकालिकानि होन्ति । तत्थ यथा एकस्मिं घरे सब्बेसु मानुसकेसु मतेसु अवसेसस्स एकस्स तङ्खणजेव मरणधम्मस्स न युत्ता नच्चगीतादीसु अभिरति नाम । एवमेव एकद्वारे ससम्पयुत्तेसु आवज्जनादीसु तत्थ तत्थेव मतेसु अवसेसस्स तङ्खणेयेव मरणधम्मस्स जवनस्सापि रज्जनदुस्सनमुय्हनवसेन अभिरति नाम न युत्ताति । एवं तावकालिकभाववसेन असम्मोहसम्पजनं वेदितब्बं । अपि च खन्धायतनधातुपच्चयपच्चवेक्षणवसेन पेतं वेदितब् । एत्थ हि चक्खु चेव रूपा च रूपक्खन्धो, दस्सनं विज्ञाणक्खन्धो, तंसम्पयुत्ता वेदना वेदनाक्खन्धो, सञ्जा साक्खन्धो, फस्सादिका सङ्खारक्खन्धो। एवमेतेसं पञ्चन्नं खन्धानं समवाये आलोकनविलोकनं पायति । तत्थ को एको आलोकेति, को विलोकेति ? । तथा चक्खु चक्खायतनं, रूपं रूपायतनं, दस्सनं मनायतनं, वेदनादयो सम्पयुत्तधम्मा धम्मायतनं । एवमेतेसं चतुन्नं आयतनानं समवाये आलोकनविलोकनं पायति । तत्थ को एको आलोकेति, को विलोकेति ? तथा चक्खु चक्खुधातु, रूपं रूपधातु, दस्सनं चक्खुविाणधातु, तंसम्पयुत्ता वेदनादयो धम्मा धम्मधातु । एवमेतासं चतुन्नं धातूनं समवाये आलोकनविलोकनं पायति । तत्थ को एको आलोकेति, को विलोकेति ? तथा चक्खु निस्सयपच्चयो, रूपा आरम्मणपच्चयो, आवज्जनं 159 Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६० दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गट्ठकथा (२.२१४-२१४) अनन्तरसमनन्तरूपनिस्सयनत्थिविगतपच्चयो, आलोको उपनिस्सयपच्चयो, वेदनादयो सहजातपच्चयो । एवमेतेसं पच्चयानं समवाये आलोकनविलोकनं पञ्जायति । तत्थ को एको आलोकेति, को विलोकेतीति ? एवमेत्थ खन्धायतनधातुपच्चयपच्चवेक्खणवसेनपि असम्मोहसम्पजनं वेदितब्बं । समिजिते पसारितेति पब्बानं समिञ्जनपसारणे । तत्थ चित्तवसेनेव समिञ्जनपसारणं अकत्वा हत्थपादानं समिञ्जनपसारणपच्चया अत्थानत्थं परिग्गण्हित्वा अत्थपरिग्गण्हनं सात्थकसम्पजनं। तत्थ हत्थपादे अतिचिरं समिजेत्वा वा पसारेत्वा वा ठितस्स खणे खणे वेदना उप्पज्जति, चित्तं एकग्गतं न लभति, कम्मट्ठानं परिपतति, विसेसं नाधिगच्छति । काले समिओन्तस्स काले पसारेन्तस्स पन ता वेदना नुप्पज्जन्ति, चित्तं एकग्गं होति , कम्मट्ठानं फातिं गच्छति, विसेसमधिगच्छतीति, एवं अत्थानत्थपरिग्गण्हनं वेदितब् । अत्थे पन सतिपि सप्पायासप्पायं परिग्गण्हित्वा सप्पायपरिग्गण्हनं सप्पायसम्पजनं। तत्रायं नयो महाचेतियङ्गणे किर दहरभिक्खू सज्झायं गण्हन्ति, तेसं पिट्ठिपस्सेसु दहरभिक्खुनियो धम्मं सुणन्ति । तत्रेको दहरो हत्थं पसारेन्तो कायसंसग्गं पत्वा तेनेव कारणेन गिही जातो। अपरो भिक्खु पादं पसारेन्तो अग्गिम्हि पसारेसि, अट्ठिमाहच्च पादो झायि । अपरो वम्मिके पसारेसि, सो आसीविसेन डट्ठो । अपरो चीवरकुटिदण्डके पसारेसि, तं मणिसप्पो डंसि । तस्मा एवरूपे असप्पाये अपसारेत्वा सप्पाये पसारेतब्बं । इदमेत्थ सप्पायसम्पजनं। गोचरसम्पजनं पन महाथेरवत्थुना दीपेतब्बं - महाथेरो किर दिवाठाने निसिन्नो अन्तेवासिकेहि सद्धिं कथयमानो सहसा हत्थं समि त्वा पुन यथाठाने ठपेत्वा सणिकं सभिजेसि । तं अन्तेवासिका पुच्छिंसु - "कस्मा, भन्ते, सहसा हत्थं समिञ्जित्वा पुन यथाठाने ठपेत्वा सणिकं समिञ्जियित्था''ति? यतो पट्ठायाहं, आवुसो, कम्मट्ठानं मनसिकातुं आरद्धो, न मे कम्मट्ठानं मुञ्चित्वा हत्थो समिजितपुब्बो, इदानि पन मे तुम्हेहि सद्धिं कथयमानेन कम्मट्ठानं मुञ्चित्वा समिञ्जितो। तस्मा पुन यथाठाने ठपेत्वा समिळेसिन्ति । साधु, भन्ते, भिक्खुना नाम एवरूपेन भवितब्बन्ति । एवमेत्थापि कम्मट्ठानाविजहनमेव गोचरसम्पजञ्जन्ति वेदितब् । 160 Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२.२१४-२१४) सतिसम्पजञकथा अब्भन्तरे अत्ता नाम कोचि समिञ्जन्तो वा पसारेन्तो वा नत्थि, वुत्तप्पकारचित्तकिरियवायोधातुविष्फारेन पन सुत्ताकड्डनवसेन दारुयन्तस्स हत्थपादलचलनं विय समिञ्जनपसारणं होतीति एवं परिजाननं पनेत्थ असम्मोहसम्पजञ्जन्ति वेदितब्बं । सङ्घाटिपत्तचीवरधारणेति एत्थ सङ्घाटिचीवरानं निवासनपारुपनवसेन पत्तस्स भिक्खापटिग्गहणादिवसेन परिभोगो धारणं नाम । तत्थ सङ्घाटिचीवरधारणे ताव निवासेत्वा वा पारुपित्वा वा पिण्डाय चरतो आमिसलाभो सीतस्स पटिघातायातिआदिना नयेन भगवता वत्तप्पकारोयेव च अत्थो अत्थो नाम | तस्स वसेन सात्थकसम्पजज वेदितब्बं । उण्हपकतिकस्स पन दुब्बलस्स च चीवरं सुखुमं सप्पायं, सीतालुकस्स घनं दुपट्टे । विपरीतं असप्पायं । यस्स कस्सचि जिण्णं असप्पायमेव, अग्गळादिदानेन हिस्स तं पलिबोधकरं होति । तथा पट्टण्णदुकूलादिभेदं लोभनीयचीवरं । तादिसहि अरछे एककस्स निवासन्तरायकरं जीवितन्तरायकरञ्चापि होति । निप्परियायेन पन यं निमित्तकम्मादिमिच्छाजीववसेन उप्पन्नं, यञ्चस्स सेवमानस्स अकुसला धम्मा अभिवड्डन्ति, कुसला धम्मा परिहायन्ति, तं असप्पायं। विपरीतं सप्पायं। तस्स वसेनेत्थ सप्पायसम्पजङ। कम्मट्ठानाविजहनवसेनेव गोचरसम्पजनं वेदितब् । अब्भन्तरे अत्ता नाम कोचि चीवरं पारुपेन्तो नत्थि, वुत्तप्पकारेन चित्तकिरियवायोधातविप्फारेनेव पन चीवरपारुपनं होति । तत्थ चीवरम्पि अचेतनं, कायोपि अचेतनो। चीवरं न जानाति- "मया कायो पारुपितो''ति । कायोपि न जानाति"अहं चीवरेन पारुपितो''ति । धातुयोव धातुसमूहं पटिच्छादेन्ति पटपिलोतिकायपोत्थकरूपपटिच्छादने विय । तस्मा नेव सुन्दरं चीवरं लभित्वा सोमनस्सं कातब्बं, न असुन्दरं लभित्वा दोमनस्सं । नागवम्मिकचेतियरुक्खादीसु हि केचि मालागन्धधूमवत्थादीहि सक्कारं करोन्ति, केचि गूथमुत्तकद्दमदण्डसत्थप्पहारादीहि असक्कारं । न तेहि नागवम्मिकरुक्खादयो सोमनस्सं वा दोमनस्सं वा करोन्ति । एवमेव नेव सुन्दरं चीवरं लभित्वा सोमनस्सं कातब्बं, न असुन्दरं लभित्वा दोमनस्सन्ति, एवं पवत्तपटिसङ्खानवसेनेत्थ असम्मोहसम्पजनं वेदितब्बं । 161 Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२ दीघनिकाये सीलक्खन्धवर गट्ठकथा पत्तधारणेपि पत्तं सहसाव अग्गहेत्वा इमं गत्वा पिण्डाय चरमानो भिक्खं लभिस्सामीति, एवं पत्तग्गहणपच्चया पटिलभितब्बं अत्थवसेन सात्थकसम्पज वेदितब्बं । किसदुब्बलसरीरस्स पन गरुपत्तो असप्पायो, यस्स कस्सचि चतुपञ्चगण्ठिकाहतो दुब्बिसोधनीयो असप्पायोव । दुद्धोतपत्तोपि न वट्टति, तं धोवन्तस्सेव चस्स पलिबोधो होति । मणिवण्णपत्तो पन लोभनीयो, चीवरे वुत्तनयेनेव असप्पायो, निमित्तकम्मादिवसेन लद्धो पन यञ्चस्स सेवमानस्स अकुसला धम्मा अभिवढन्ति, कुसला धम्मा परिहायन्ति, अयं एकन्त असप्पायोव । विपरीतो सप्पायो । तस्स वसेनेत्थ सप्पायसम्पज । कम्मट्ठानाविजहनवसेनेव च गोचरसम्पज वेदितब्बं । (२.२१४-२१४) अब्भन्तरे अत्ता नाम कोचि पत्तं गण्हन्ती नत्थि, वुत्तप्पकारेन चित्तकिरियवायोधातुविप्फारवसेनेव पत्तग्गहणं नाम होति । तत्थ पत्तोपि अचेतनो, हत्थापि अचेतना । पत्तो न जानाति - " अहं हत्थेहि गहितो 'ति । हत्थापि न जानन्ति - " अम्हेहि पत्तो गहितो 'ति । धातुयोव धातुसमूहं गण्हन्ति, सण्डासेन अग्गिवण्णपत्तग्गहणे वियाति । एवं पवत्तपटिसङ्घानवसेनेत्थ असम्मोहसम्पज वेदितब्बं । अपि च यथा छिन्नहत्थपादे वणमुखेहि पग्घरितपुब्बलोहितकिमिकुले नीलमक्खिकसम्परिकिण्णे अनाथसालायं निपन्ने अनाथमनुस्से दिस्वा, ये दयालुका पुरिसा, ते ते वणमत्तचोळकानि चेव कपालादीहि च भेसज्जानि उपनामेन्ति । तत्थ चोळकानिपि केसञ्चि सण्हानि, केसञ्चि थूलानि पापुणन्ति । भेसज्जकपालकानिपि केसञ्चि सुसण्ठानानि, केसञ्चि दुस्सण्ठानानि पापुणन्ति न ते तत्थ सुमना वा दुम्मना व होन्ति। वणपटिच्छादनमत्तेनेव हि चोळकेन, भेसज्जपटिग्गहणमत्तेनेव च कपालकेन तेसं अत्थो । एवमेव यो भिक्खु वणचोळकं विय चीवरं, भेसज्जकपालकं विय च पत्तं, कपाले भेसज्जमिव च पत्ते लद्धं भिक्खं सल्लक्खेति, अयं सङ्घाटिपत्तचीवरधारणे असम्मोहसम्पञ्ञेन उत्तमसम्पजानकारीति वेदितब्बो । असितादीसु असितेति पिण्डपातभोजने । पीतेति यागुआदिपाने । खायितेति पिट्ठखज्जादिखादने । सायितेति मधुफाणितादिसायने । तत्थ नेव दवायातिआदिना नयेन तो अट्ठविधोपि अत्थो अत्थो नाम । तस्सेव वसेन सात्थकसम्पज वेदितब्बं । 162 Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२.२१४-२१४) सतिसम्पजञकथा १६३ लूखपणीततित्तमधुररसादीसु पन येन भोजनेन यस्स फासु न होति, तं तस्स असप्पायं । यं पन निमित्तकम्मादिवसेन पटिलद्धं, यञ्चस्स भुजतो अकुसला धम्मा अभिवड्डन्ति, कुसला धम्मा परिहायन्ति, तं एकन्तअसप्पायमेव, विपरीतं सप्पायं । तस्स वसेनेत्थ सप्पायसम्पजझं। कम्मट्ठानाविजहनवसेनेव च गोचरसम्पजनं वेदितब्बं । अब्भन्तरे अत्ता नाम कोचि भुञ्जको नत्थि,वुत्तप्पकारचित्तकिरियवायोधातुविष्फारेनेव पत्तप्पटिग्गहणं नाम होति । चित्तकिरियवायोधातुविष्फारेनेव हत्थस्स पत्ते ओतारणं नाम होति । चित्तकिरियवायोधातुविष्फारेनेव आलोपकरणं आलोपउद्धारणं मुखविवरणञ्च होति, न कोचि कुञ्चिकाय यन्तकेन वा हनुकट्ठीनि विवरति । चित्तकिरियवायोधातुविष्फारेनेव आलोपस्स मुखे ठपनं, उपरिदन्तानं मुसलकिच्चसाधनं, हेट्ठिमदन्तानं उदुक्खलकिच्चसाधनं, जिव्हाय हत्थकिच्चसाधनञ्च होति । इति तत्थ अग्गजिव्हाय तनुकखेळो मूलजिव्हाय बहलखेळो मक्खेति । तं हेट्ठादन्तउदुक्खले जिव्हाहत्थपरिवत्तकं खेळोदकेन तेमितं उपरिदन्तमुसलसञ्चुण्णितं कोचि कटच्छुना वा दब्बिया वा अन्तोपवेसेन्तो नाम नत्थि, वायोधातुयाव पविसति । पविट्ठ पविट्ठ कोचि पलालसन्थारं कत्वा धारेन्तो नाम नत्थि, वायोधातुवसेनेव तिठ्ठति । ठितं ठितं कोचि उद्धनं कत्वा अग्गिं जालेत्वा पचन्तो नाम नत्थि, तेजोधातुयाव पच्चति । पक्कं पक्कं कोचि दण्डकेन वा यट्ठिया वा बहि नीहारको नाम नत्थि, वायोधातुयेव नीहरति । इति वायोधातु पटिहरति च, वीतिहरति च, धारेति च, परिवत्तेति च, सञ्चुण्णेति च, विसोसेति च, नीहरति च । पथवीधातु धारेति च, परिवत्तेति च, सञ्चुण्णेति च, विसोसेति च । आपोधातु सिनेहेति च, अल्लत्तञ्च अनुपालेति । तेजोधातु अन्तोपविट्ठ परिपाचेति । आकासधातु अञ्जसो होति । विज्ञाणधातु तत्थ तत्थ सम्मापयोगमन्वाय आभुजतीति । एवं पवत्तपटिसङ्खानवसेनेत्थ असम्मोहसम्पजङ वेदितब्बं । अपि च गमनतो परियेसनतो परिभोगतो आसयतो निधानतो अपरिपक्कतो परिपक्कतो फलतो निस्सन्दतो सम्मक्खनतोति, एवं दसविधपटिकूलभावपच्चवेक्खणतो पेत्थ असम्मोहसम्पजनं वेदितबं | वित्थारकथा पनेत्थ विसुद्धिमग्गे आहारपटिकूलसानिद्देसतो गहेतब्बा। उच्चारपस्सावकम्मेति उच्चारस्स च पस्सावस्स च करणे । तत्थ पत्तकाले उच्चारपस्सावं अकरोन्तस्स सकलसरीरतो सेदा मुच्चन्ति, अक्खीनि भमन्ति, चित्तं न 163 Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६४ दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गट्ठकथा (२.२१४-२१४) एकग्गं होति, अझे च रोगा उप्पज्जन्ति | करोन्तस्स पन सब्बं तं न होतीति अयमेत्थ अत्थो । तस्स वसेन सात्थकसम्पजनं वेदितब्बं । अट्ठाने उच्चारपस्सावं करोन्तस्स पन आपत्ति होति, अयसो वड्डति, जीवितन्तरायो होति, पतिरूपे ठाने करोन्तस्स सब्बं तं न होतीति इदमेत्थ सप्पायं तस्स वसेन सप्पायसम्पजझं। कम्मट्ठानाविजहनवसेनेव च गोचरसम्पजनं वेदितब्बं । अब्भन्तरे अत्ता नाम उच्चारपस्सावकम्मं करोन्तो नत्थि, चित्तकिरियवायोधातुविप्फारेनेव पन उच्चारपस्सावकम्मं होति । यथा वा पन पक्के गण्डे गण्डभेदेन पुब्बलोहितं अकामताय निक्खमति । यथा च अतिभरिता उदकभाजना उदकं अकामताय निक्खमति। एवं पक्कासयमुत्तवत्थीसु सन्निचिता उच्चारपस्सावा वायुवेगसमुप्पीळिता अकामतायपि निक्खमन्ति। सो पनायं एवं निक्खमन्तो उच्चारपस्सावो नेव तस्स भिक्खुनो अत्तनो होति, न परस्स, केवलं सरीरनिस्सन्दोव होति । यथा किं ? यथा उदकतुम्बतो पुराणुदकं छड्डेन्तस्स नेव तं अत्तनो होति, न परेसं; केवलं पटिजग्गनमत्तमेव होति; एवं पवत्तपटिसङ्खानवसेनेत्थ असम्मोहसम्पजनं वेदितब्बं । ___गतादीसु गतेति गमने । ठितेति ठाने । निसिनेति निसज्जाय। सुत्तेति सयने । जागरितेति जागरणे । भासितेति कथने । तुण्हीभावेति अकथने । “गच्छन्तो वा गच्छामीति पजानाति, ठितो वा ठितोम्हीति पजानाति, निसिन्नो वा निसिन्नोम्हीति पजानाति, सयानो वा सयानोम्हीति पजानाती"ति इमस्मिहि सुत्ते अद्धानइरियापथा कथिता | “अभिक्कन्ते पटिक्कन्ते आलोकिते विलोकिते समिञ्जिते पसारिते"ति इमस्मिं मज्झिमा । “गते ठिते निसिन्ने सुत्ते जागरिते "ति इध पन खुद्दकचुण्णियइरियापथा कथिता। तस्मा तेसुपि वुत्तनयेनेव सम्पजानकारिता वेदितब्बा। तिपिटकमहासिवत्थेरो पनाह – यो चिरं गन्त्वा वा चङ्कमित्वा वा अपरभागे ठितो इति पटिसञ्चिक्खति- “चङ्कमनकाले पवत्ता रूपारूपधम्मा एत्थेव निरुद्धा''ति । अयं गते सम्पजानकारी नाम | यो सज्झायं वा करोन्तो, पञ्हं वा विस्सज्जेन्तो, कम्मट्ठानं वा मनसिकरोन्तो चिरं 164 Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२.२१४-२१४) सतिसम्पजञकथा १६५ ठत्वा अपरभागे निसिन्नो इति पटिसञ्चिक्खति- “ठितकाले पवत्ता रूपारूपधम्मा एत्थेव निरुद्धा''ति । अयं ठिते सम्पजानकारी नाम । यो सज्झायादिकरणवसेनेव चिरं निसीदित्वा अपरभागे उट्ठाय इति पटिसञ्चिक्खति-- "निसिन्नकाले पवत्ता रूपारूपधम्मा एत्येव निरुद्धा''ति । अयं निसिन्ने सम्पजानकारी नाम । यो पन निपनको सज्झायं वा करोन्तो कम्मट्ठानं वा मनसिकरोन्तो निदं ओक्कमित्वा अपरभागे उट्ठाय इति पटिसञ्चिक्खति- “सयनकाले पवत्ता रूपारूपधम्मा एत्थेव निरुद्धा''ति । अयं सुत्ते जागरिते च सम्पजानकारी नाम | किरियमयचित्तानव्हि अप्पवत्तनं सोप्पं नाम, पवत्तनं जागरितं नाम । यो पन भासमानो– “अयं सदो नाम ओढे च पटिच्च, दन्ते च जिव्हञ्च तालुञ्च पटिच्च, चित्तस्स च तदनुरूपं पयोगं पटिच्च जायती"ति सतो सम्पजानोव भासति । चिरं वा पन कालं सज्झायं वा कत्वा, धम्मं वा कथेत्वा, कम्मट्ठानं वा पवत्तेत्वा, पहं वा विस्सज्जेत्वा, अपरभागे तुण्हीभूतो इति पटिसञ्चिक्खति"भासितकाले उप्पन्ना रूपारूपधम्मा एत्थेव निरुद्धा'ति । अयं भासिते सम्पजानकारी नाम । यो तुण्हीभूतो चिरं धम्मं वा कम्मट्ठानं वा मनसिकत्वा अपरभागे इति पटिसञ्चिक्खति- “तुण्हीभूतकाले पवत्ता रूपारूपधम्मा एत्थेव निरुद्धा''ति । उपादारूपप्पवत्तियहि सति भासति नाम, असति तुण्ही भवति नामाति । अयं तुण्हीभावे सम्पजानकारी नामाति । तयिदं महासिवत्थेरेन वुत्तं असम्मोहधुरं महासतिपट्ठानसुत्ते अधिप्पेतं । इमस्मिं पन सामञफले सब्बम्पि चतुब्बिधं सम्पजचं लब्भति । तस्मा वुत्तनयेनेव चेत्थ चतुन्नं सम्पजञानं वसेन सम्पजानकारिता वेदितब्बा। सम्पजानकारीति च सब्बपदेसु सतिसम्पयुत्तस्सेव सम्पजस्स वसेन अत्थो वेदितब्बो। सतिसम्पज न समन्नागतोति एतस्स हि पदस्स अयं वित्थारो । विभङ्गप्पकरणे पन – “सतो सम्पजानो अभिक्कमति, सतो सम्पजानो पटिक्कमती"ति एवं एतानि पदानि विभत्तानेव । एवं, खो महाराजाति 165 Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६६ दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गट्ठकथा (२.२१५-२१५) एवं सतिसम्पयुत्तस्स सम्पजञस्स वसेन अभिक्कमादीनि पवत्तेन्तो सतिसम्पजओन समन्नागतो नाम होतीति अत्थो । सन्तोसकथा २१५. इध, महाराज, भिक्खु सन्तुट्ठो होतीति एत्थ सन्तुट्ठोति इतरीतरपच्चयसन्तोसेन समन्नागतो। सो पनेस सन्तोसो द्वादसविधो होति, सेय्यथिदं- चीवरे यथालाभसन्तोसो, यथाबलसन्तोसो, यथासारुप्पसन्तोसोति तिविधो । एवं पिण्डपातादीसु। तस्सायं पभेदवण्णना इध भिक्खु चीवरं लभति, सुन्दरं वा असुन्दरं वा । सो तेनेव यापेति, अखं न पत्थेति, लभन्तोपि न गण्हति । अयमस्स चीवरे यथालाभसन्तोसो। अथ पन पकतिदुब्बलो वा होति, आबाधजराभिभूतो वा, गरुचीवरं पारुपन्तो किलमति । सो सभागेन भिक्खुना सद्धिं तं परिवत्तेत्वा लहुकेन यापेन्तोपि सन्तुट्टोव होति । अयमस्स चीवरे यथाबलसन्तोसो। अपरो पणीतपच्चयलाभी होति । सो पत्तचीवरादीनं अञ्जतरं महग्घपत्तचीवरं बहूनि वा पन पत्तचीवरानि लभित्वा इदं थेरानं चिरपब्बजितानं, इदं बहुस्सुतानं अनुरूपं, इदं गिलानानं, इदं अप्पलाभीनं होतूति दत्वा तेसं पुराणचीवरं वा गहेत्वा सङ्कारकूटादितो वा नन्तकानि उच्चिनित्वा तेहि सङ्घाटिं कत्वा धारेन्तोपि सन्तुट्टोव होति । अयमस्स चीवरे यथासारुप्पसन्तोसो। इध पन भिक्खु पिण्डपातं लभति लूखं वा पणीतं वा, सो तेनेव यापेति, अञ्च न पत्थेति, लभन्तोपि न गण्हति । अयमस्स पिण्डपाते यथालाभसन्तोसो। यो पन अत्तनो पकतिविरुद्ध वा ब्याधिविरुद्धं वा पिण्डपातं लभति, येनस्स परिभुत्तेन अफासु होति । सो सभागस्स भिक्खुनो तं दत्वा तस्स हत्थतो सप्पायभोजनं भुजित्वा समणधम्म करोन्तोपि सन्तुट्ठोव होति । अयमस्स पिण्डपाते यथाबलसन्तोसो। अपरो बहुं पणीतं पिण्डपातं लभति । सो तं चीवरं विय थेरचिरपब्बजितबहुस्सुतअप्पलाभीगिलानानं दत्वा तेसं वा सेसकं पिण्डाय वा चरित्वा मिस्सकाहारं भुञ्जन्तोपि सन्तुट्ठोव होति । अयमस्स पिण्डपाते यथासारुप्पसन्तोसो। इध पन भिक्खु सेनासनं लभति, मनापं वा अमनापं वा, सो तेन नेव सोमनस्सं, 166 Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२.२१५-२१५) सन्तोसकथा १६७ न दोमनस्सं उप्पादेति; अन्तमसो तिणसन्थारकेनपि यथालद्धेनेव तुस्सति । अयमस्स सेनासने यथालाभसन्तोसो। यो पन अत्तनो पकतिविरुद्धं वा ब्याधिविरुद्धं वा सेनासनं लभति, यत्थस्स वसतो अफासु होति, सो तं सभागस्स भिक्खुनो दत्वा तस्स सन्तके सप्पायसेनासने वसन्तोपि सन्तुट्ठोव होति । अयमस्स सेनासने यथाबलसन्तोसो। अपरो महापुञो लेणमण्डपकूटागारादीनि बहूनि पणीतसेनासनानि लभति । सो तानि चीवरं विय थेरचिरपब्बजितबहुस्सुतअप्पलाभीगिलानानं दत्वा यत्थ कत्थचि वसन्तोपि सन्तुट्टोव होति । अयमस्स सेनासने यथासारुप्पसन्तोसो। योपि- "उत्तमसेनासनं नाम पमादट्टानं, तत्थ निसिन्नस्स थिनमिद्धं ओक्कमति, निद्दाभिभूतस्स पुन पटिबुज्झतो कामवितक्का पातुभवन्तीति पटिसञ्चिक्खित्वा तादिसं सेनासनं पत्तम्पि न सम्पटिच्छति । सो तं पटिक्खिपित्वा अब्भोकासरुक्खमूलादीसु वसन्तोपि सन्तुट्ठोव होति । अयम्पिस्स सेनासने यथासारुप्पसन्तोसो। इध पन भिक्खु भेसज्ज लभति, लूखं वा पणीतं वा, सो यं लभति, तेनेव तुस्सति, अखं न पत्थेति, लभन्तोपि न गण्हति । अयमस्स गिलानपच्चये यथालाभसन्तोसो। यो पन तेलेन अत्थिको फाणितं लभति । सो तं सभागस्स भिक्खुनो दत्वा तस्स हत्थतो तेलं गहेत्वा अञ्जदेव वा परियेसित्वा भेसज्जं करोन्तोपि सन्तुट्ठोव होति । अयमस्स गिलानपच्चये यथाबलसन्तोसो। अपरो महापुझो बहुं तेलमधुफाणितादिपणीतभेसज्जं लभति । सो तं चीवरं विय थेरचिरपब्बजितबहुस्सुतअप्पलाभीगिलानानं दत्वा तेसं आभतेन येन केनचि यापेन्तोपि सन्तुट्ठोव होति । यो पन एकस्मिं भाजने मुत्तहरीटकं ठपेत्वा एकस्मिं चतुमधुरं - "गण्हाहि, भन्ते, यदिच्छसी''ति वुच्चमानो सचस्स तेसु अञतरेनपि रोगो वूपसम्मति, अथ मुत्तहरीटकं नाम बुद्धादीहि वण्णितन्ति चतुमधुरं पटिक्खिपित्वा मुत्तहरीटकेनेव भेसज्जं करोन्तो परमसन्तुट्ठोव होति । अयमस्स गिलानपच्चये यथासारुप्पसन्तोसो। इमिना पन द्वादसविधेन इतरीतरपच्चयसन्तोसेन समन्नागतस्स भिक्खुनो अट्ठ परिक्खारा वट्टन्ति । तीणि चीवरानि, पत्तो, दन्तकठ्ठच्छेदनवासि, एका सूचि, कायबन्धनं परिस्सावनन्ति । वुत्तम्पि चेतं - 167 Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६८ दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गट्ठकथा (२.२१५-२१५) “तिचीवरञ्च पत्तो च, वासि सूचि च बन्धनं । परिस्सावनेन अद्रुते, युत्तयोगस्स भिक्खुनो''ति ।। ते सब्बे कायपरिहारिकापि होन्ति कुच्छिपरिहारिकापि । कथं ? तिचीवरं ताव निवासेत्वा च पारुपित्वा च विचरणकाले कायं परिहरति, पोसेतीति कायपरिहारिकं होति । चीवरकण्णेन उदकं परिस्सावेत्वा पिवनकाले खादितब्बफलाफलगहणकाले च कुच्छिं परिहरति; पोसेतीति कुच्छिपरिहारिकं होति । पत्तोपि तेन उदकं उद्धरित्वा न्हानकाले कुटिपरिभण्डकरणकाले च कायपरिहारिको होति । आहारं गहेत्वा भुञ्जनकाले कुच्छिपरिहारिको । वासिपि ताय दन्तकठ्ठच्छेदनकाले मञ्चपीठानं अङ्गपादचीवरकुटिदण्डकसज्जनकाले च कायपरिहारिका होति । उच्छुछेदननाळिकेरादितच्छनकाले कुच्छिपरिहारिका । सूचिपि चीवरसिब्बनकाले कायपरिहारिका होति । पूर्व वा फलं वा विज्झित्वा खादनकाले कुच्छिपरिहारिका। कायबन्धनं बन्धित्वा विचरणकाले कायपरिहारिकं । उच्छुआदीनि बन्धित्वा गहणकाले कुच्छिपरिहारिकं । परिस्सावनं तेन उदकं परिस्सावेत्वा न्हानकाले, सेनासनपरिभण्डकरणकाले च कायपरिहारिकं । पानीयं परिस्सावनकाले, तेनेव तिलतण्डुलपुथुकादीनि गहेत्वा खादनकाले च कुच्छिपरिहारियं । अयं ताव अट्ठपरिक्खारिकस्स परिक्खारमत्ता। नवपरिक्खारिकस्स पन सेय्यं पविसन्तस्स तत्रठ्ठकं पच्चत्थरणं वा कुञ्चिका वा वट्टति । दसपरिक्खारिकस्स निसीदनं वा चम्मखण्डं वा वट्टति। एकादसपरिक्खारिकस्स पन कत्तरयट्टि वा तेलनाळिका वा वट्टति । द्वादसपरिक्खारिकस्स छत्तं वा उपाहनं वा वट्टति । एतेसु च अट्ठपरिक्खारिकोव सन्तुट्ठो, इतरे असन्तुट्ठा महिच्छा महाभाराति न वत्तब्बा । एतेपि हि अप्पिच्छाव सन्तुट्ठाव सुभराव सल्लहुकवुत्तिनोव । भगवा पन न यिमं सुत्तं तेसं वसेन कथेसि, अट्ठपरिक्खारिकस्स वसेन कथेसि । सो हि खुद्दकवासिञ्च सूचिञ्च परिस्सावने पक्खिपित्वा पत्तस्स अन्तो ठपेत्वा पत्तं अंसकूटे लग्गेत्वा तिचीवरं कायपटिबद्धं कत्वा 168 Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२.२१६-२१६) नीवरणप्पहानकथा १६९ येनिच्छकं सुखं पक्कमति। पटिनिवत्तेत्वा गहेतब्बं नामस्स न होति । इति इमस्स भिक्खुनो सल्लहुकवुत्तितं दस्सेन्तो भगवा - "सन्तुट्ठो होति कायपरिहारिकेन चीवरेना"तिआदिमाह । तत्थ कायपरिहारिकेनाति कायपरिहरणमत्तकेन । कुच्छिपरिहारिकेनाति कुच्छिपरिहरणमत्तकेन। समादायेव पक्कमतीति अट्ठपरिक्खारमत्तकं सब् गहेत्वाव कायपटिबद्धं कत्वाव गच्छति । "मम विहारो परिवेणं उपट्ठाको''ति आसङ्गो वा बन्धो वा न होति । सो जिया मुत्तो सरो विय, यूथा अपक्कन्तो मदहत्थी विय च इच्छितिच्छितं सेनासनं वनसण्डं रुक्खमूलं वनपब्भारं परिभुञ्जन्तो एकोव तिट्ठति, एकोव निसीदति | सब्बिरियापथेसु एकोव अदुतियो । "चातुद्दिसो अप्पटिघो च होति, ___ सन्तुस्समानो इतरीतरेन । परिस्सयानं सहिता अछम्भी, एको चरे खग्गविसाणकप्पो''ति ।। (सु० नि० ४२) एवं वण्णितं खग्गविसाणकप्पतं आपज्जति । इदानि तमत्थं उपमाय साधेन्तो – “सेय्यथापी"तिआदिमाह । तत्थ पक्खी सकुणोति पक्खयुत्तो सकुणो। डेतीति उप्पतति । अयं पनेत्थ स पत्थो- सकुणा नाम “असुकस्मिं पदेसे रुक्खो परिपक्कफलो''ति ञत्वा नानादिसाहि आगन्त्वा नखपत्ततुण्डादीहि तस्स फलानि विज्झन्ता विधुनन्ता खादन्ति । 'इदं अज्जतनाय, इदं स्वातनाय भविस्सती'ति तेसं न होति । फले पन खीणे नेव रुक्खस्स आरक्खं ठपेन्ति, न तत्थ पत्तं वा नखं वा तुण्डं वा ठपेन्ति । अथ खो तस्मिं रुक्खे अनपेक्खो हुत्वा, यो यं दिसाभागं इच्छति, सो तेन सपत्तभारोव उप्पतित्वा गच्छति । एवमेव अयं भिक्खु निस्सङ्गो निरपेक्खो येन कामं पक्कमति । तेन वुत्तं “समादायेव पक्कमती''ति । नीवरणप्पहानकथा २१६. सो इमिना चातिआदिना किं दस्सेति ? अरञवासस्स पच्चयसम्पत्तिं दस्सेति । यस्स हि इमे चत्तारो पच्चया नत्थि, तस्स अरञ्जवासो न इज्झति । तिरच्छानगतेहि वा वनचरकेहि वा सद्धिं वत्तब्बतं आपज्जति । अरछे अधिवत्थादेवता - 169 Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७० दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गट्ठकथा (२.२१६-२१६) “किं एवरूपस्स पापभिक्खुनो अरञवासेना"ति भेरवसई सावेन्ति, हत्थेहि सीसं पहरित्वा पलायनाकारं करोन्ति | "असको भिक्ख अरनं पविसित्वा इदञ्चिदञ्च पापकम्म अकासीति अयसो पत्थरति । यस्स पनेते चत्तारो पच्चया अत्थि, तस्स अरञ्जवासो इज्झति । सो हि अत्तनो सीलं पच्चवेक्खन्तो किञ्चि काळकं वा तिलकं वा अपस्सन्तो पीति उप्पादेत्वा तं खयवयतो सम्मसन्तो अरियभूमि ओक्कमति। अरजे अधिवत्था देवता अत्तमना वण्णं भणन्ति । इतिस्स उदके पक्खित्ततेलबिन्दु विय यसो वित्थारिको होति । तत्थ विवित्तन्ति सुझं, अप्पसदं, अप्पनिग्घोसन्ति अत्थो । एतदेव हि सन्धाय विभङ्गे- “विवित्तन्ति सन्तिके चेपि सेनासनं होति, तञ्च अनाकिण्णं गहढेहि पब्बजितेहि । तेन तं विवित्त"न्ति वुत्तं । सेति चेव आसति च एत्थाति सेनासनं मञ्चपीठादीनमेतं अधिवचनं । तेनाह - "सेनासनन्ति मञ्चोपि सेनासनं, पीठम्पि, भिसिपि, बिम्बोहनम्पि, विहारोपि, अड्डयोगोपि, पासादोपि, हम्मियम्पि, गुहापि, अट्टोपि, माळोपि लेणम्पि, वेळुगुम्बोपि, रुक्खमूलम्पि, मण्डपोपि, सेनासनं, यत्थ वा पन भिक्खू पटिक्कमन्ति, सब्बमेतं सेनासन"न्ति (विभं० ५२७) । अपि च - “विहारो अड्डयोगो पासादो हम्मियं गुहा''ति इदं विहारसेनासनं नाम । "मञ्चो पीठं भिसि बिम्बोहन"न्ति इदं मञ्चपीठसेनासनं नाम । “चिमिलिका चम्मखण्डो तिणसन्थारो पण्णसन्थारो''ति इदं सन्थतसेनासनं नाम । “यत्थ वा पन भिक्खू पटिक्कमन्ती''ति इदं ओकाससेनासनं नामाति । एवं चतुब्बिधं सेनासनं होति, तं सब्बं सेनासनग्गहणेन सङ्गहितमेव । ___ इध पनस्स सकुणसदिसस्स चातुद्दिसस्स भिक्खुनो अनुच्छविकसेनासनं दस्सेन्तो अरशं रुक्खमूलन्तिआदिमाह । तत्थ अरञ्जन्ति निक्खमित्वा बहि इन्दखीला सब्बमेतं अरञ्जन्ति । इदं भिक्खुनीनं वसेन आगतं । “आरञकं नाम सेनासनं पञ्चधनुसतिकं पच्छिम''न्ति (पारा० ६५४) इदं पन इमस्स भिक्खुनो अनुरूपं । तस्स लक्खणं विसुद्धिमग्गे धुतङ्गनिद्देसे वुत्तं । रुक्खमूलन्ति यं किञ्चि सन्दच्छायं विवित्तरुक्खमूलं । पब्बतन्ति सेलं । तत्थ हि उदकसोण्डीसु उदककिच्चं कत्वा सीताय रुक्खच्छायाय निसिन्नस्स नानादिसासु खायमानासु सीतेन वातेन बीजियमानस्स चित्तं एकग्गं होति । कन्दरन्ति कं वुच्चति उदकं, तेन दारितं, उदकेन भिन्नं पब्बतपदेसं । यं नदीतुम्बन्तिपि, 170 Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२.२१७-२१७) नीवरणप्पहानकथा नदीकुञ्जन्तिपि वदन्ति । तत्थ हि रजतपट्टसदिसा वालिका होति, मत्थके मणिवितानं विय वनगहणं, मणिखन्धसदिसं उदकं सन्दति । एवरूपं कन्दरं ओरुव्ह पानीयं पिवित्वा गत्तानि सीतानि कत्वा वालिकं उस्सापेत्वा पंसुकूलचीवरं पञ्ञपेत्वा निसिन्नस्स समणधम्मं करोतो चित्तं एकगं होति । गिरिगुहन्ति द्विन्नं पब्बतानं अन्तरे, एकस्मिंयेव वा उमग्गसदिसं महाविवरं सुसानलक्खणं विसुद्धिमग्गे वृत्तं । वनपत्थन्ति गामन्तं अतिक्कमित्वा मनुस्सानं अनुपचारट्ठानं, यत्थ न कसन्ति न वपन्ति तेनेवाह - “वनपत्थन्ति दूरानमेतं सेनासनानं अधिवचन 'न्तिआदि । अब्भोकासन्ति अच्छन्नं । आकङ्क्षमानो पनेत्थ चीवरकुटिं कत्वा वसति । पलालपुञ्जन्ति पलालरासि । महापलालपुञ्जतो हि पलालं निक्कड्डित्वा पब्भारलेणसदिसे आलये करोन्ति, गच्छगुम्भादीनम्पि उपरि पलालं पक्खिपित्वा हेट्ठा निसिन्ना समणधम्मं करोन्ति । तं सन्धायेतं वृत्तं । पच्छाभत्तन्ति भत्तस्स पच्छतो । पिण्डपातपटिक्कन्तोति पिण्डपातपरियेसनतो पटिक्कन्तो । पल्लङ्कन्ति समन्ततो ऊरुबद्धासनं। आभुजित्वाति बन्धित्वा । उजुं कायं पणिधायाति उपरिमं सरीरं उजुं ठपेत्वा अट्ठारस पिट्ठिकण्टकट्ठिके कोटिया कोटिं पटिपादेत्वा । एवहि निसिन्नस्स चम्ममंसन्हारूनि न पणमन्ति । अथस्स या तेसं पणमनपच्चया खणे खणे वेदना उप्पज्जेय्युं, ता नुप्पज्जन्ति । तासु अनुप्पज्जमानासु चित्तं एकग्गं होति, कम्मट्ठानं न परिपतति, वुद्धिं फातिं वेपुल्लं उपगच्छति । परिमुख सतिं उपट्टपेत्वाति कम्मट्ठानाभिमुखं सतिं ठपयित्वा । मुखसमीपे वा कत्वाति अत्थो । तेनेव विभङ्गे वुत्तं – “अयं सति उपट्ठिता होति सूपट्ठिता नासिकग्गे वा मुखनिमित्ते वा तेन वुच्चति परिमुखं सतिं उपट्टपेत्वा "ति (विभं० ५३७) । अथवा परीति परिग्गहट्टो । मुखन्ति निय्यानट्ठो। सतीति उपट्ठानट्ठो । तेन वुच्चति - " परिमुखं सति न्ति । एवं पटिसम्भिदायं वृत्तनयेनपेत्थ अत्थो दट्ठब्बो । तत्रायं सङ्क्षेपो – “परिग्गहितनिय्यानसतिं कत्वा'ति । १७१ २१७. अभिज्झं लोकेति एत्थ लुज्जनपलुज्जनट्टेन पञ्चुपादानक्खन्धा लोको, तस्मा पञ्चसु उपादानक्खन्धेसु रागं पहाय कामच्छन्दं विक्खम्भेत्वाति अयमेत्थत्थो । विगताभिज्झेनाति विक्खम्भनवसेन पहीनत्ता विगताभिज्झेन, न चक्खुविञ्ञाणसदिसेनात अत्थो । अभिज्झाय चित्तं परिसोधेतीति अभिज्झातो चित्तं परिमोचेति । यथा तं सा मुञ्चति चेव, मुञ्चित्वा च न पुन गण्हति एवं करोतीति अत्थो । ब्यापादपदोसं पहायाति आदी सुपि एसेव नयो । ब्यापज्जति इमिना चित्तं पूतिकुम्मासादयो विय पुरिमपकतिं विजही ब्यापादो । विकारापत्तिया पदुस्सति परं वा पदूसेति विनासेतीति पदोसो । उभयमेतं 171 Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७२ दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गट्ठकथा (२.२१८-२२१-२२२) कोधस्सेवाधिवचनं । थिनं चित्तगेलनं । मिद्धं चेतसिकगेलखं, थिनञ्च मिद्धञ्च थिनमिद्धं । आलोकसञीति रत्तिम्पि दिवादिट्ठालोकसञ्जाननसमत्थाय विगतनीवरणाय परिसुद्धाय सञ्जाय समन्नागतो। सतो सम्पजानोति सतिया च आणेन च समन्नागतो। इदं उभयं आलोकसञ्जाय उपकारत्ता वुत्तं । उद्धच्चञ्च कुक्कुच्चञ्च उद्धच्चकुक्कुच्चं । तिण्णविचिकिच्छोति विचिकिच्छं तरित्वा अतिक्कमित्वा ठितो । “कथमिदं कथमिद"न्ति एवं नप्पवत्ततीति अकथंकथी। कुसलेसु धम्मेसूति अनवज्जेसु धम्मेसु । “इमे नु खो कुसला कथमिमे कुसला''ति एवं न विचिकिच्छति । न कङ्घतीति अत्थो । अयमेत्थ सङ्केपो । इमेसु पन नीवरणेसु वचनत्थलक्खणादिभेदतो यं वत्तब्बं सिया, तं सब्बं विसुद्धिमग्गे वुत्तं । ___२१८. या पनायं सेय्यथापि महाराजाति उपमा वुत्ता । तत्थ इणं आदायाति वड्डिया धनं गहेत्वा । व्यन्तिं करेय्याति विगतन्तं करेय्य, यथा तेसं काकणिकमत्तोपि परियन्तो नाम नावसिस्सति, एवं करेय्य; सब्बसो पटिनिय्यातेय्याति अत्थो । ततो निदानन्ति आणण्यनिदानं । सो हि “अणणोम्ही'ति आवज्जन्तो बलवपामोज्जं लभति, सोमनस्सं अधिगच्छति, तेन वुत्तं - "लभेथ पामोज्जं, अधिगच्छेय्य सोमनस्स"न्ति । २१९. विसभागवेदनुष्पत्तिया ककचेनेव चतुइरियापथं छिन्दन्तो आबाधतीति आबाधो, स्वास्स अत्थीति आबाधिको। तं समुट्ठानेन दुक्खेन दुक्खितो। अधिमत्तगिलानोति बाळहगिलानो । नच्छादेय्याति अधिमत्तब्याधिपरेतताय न रुच्चेय्य । बलमत्ताति बलमेव, बलञ्चस्स काये न भवेय्याति अत्थो । ततोनिदानन्ति आरोग्यनिदानं । तस्स हि"अरोगोम्ही"ति आवज्जयतो तदुभयं होति । तेन वुत्तं - "लभेथ पामोज्जं, अधिगच्छेय्य सोमनस्स"न्ति । २२०. न चस्स किञ्चि भोगानं वयोति काकणिकमत्तम्पि भोगानं वयो न भवेय्य । ततोनिदानन्ति बन्धनामोक्खनिदानं । सेसं वुत्तनयेनेव सब्बपदेसु योजेतब्बं । २२१-२२२. अनत्ताधीनोति न अत्तनि अधीनो, अत्तनो रुचिया किञ्चि कातुं न लभति । पराधीनोति परेसु अधीनो परस्सेव रुचिया वत्तति । न येन कामं गमोति येन दिसाभागेनस्स गन्तुकामता होति, इच्छा उप्पज्जति गमनाय, तेन गन्तुं न लभति । दासब्याति दासभावा । भुजिस्सोति अत्तनो सन्तको । ततोनिदानन्ति भुजिस्सनिदानं । 172 Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२.२२३-२२३) नीवरणप्पहानकथा १७३ कन्तारद्धानमग्गन्ति कन्तारं अद्धानमग्गं, निरुदकं दीघमग्गन्ति अत्थो । ततोनिदानन्ति खेमन्तभूमिनिदानं । २२३. इमे पञ्च नीवरणे अप्पहीनेति एत्थ भगवा अप्पहीनकामच्छन्दनीवरणं इणसदिसं, सेसानि रोगादिसदिसानि कत्वा दस्सेति । तत्रायं सदिसता । यो हि परेसं इणं गहेत्वा विनासेति, सो तेहि इणं देहीति वुच्चमानोपि फरुसं वुच्चमानोपि बज्झमानोपि वधीयमानोपि किञ्चि पटिबाहितुं न सक्कोति, सब्बं तितिक्खति । तितिक्खाकारणं हिस्स तं इणं होति । एवमेव यो यम्हि कामच्छन्देन रज्जति, तण्हासहगतेन तं वत्थु गण्हति, सो तेन फरुसं वुच्चमानोपि बज्झमानोपि वधीयमानोपि सब्बं तितिक्खति, तितिक्खाकारणं हिस्स सो कामच्छन्दो होति, घरसामिकेहि वधीयमानानं इत्थीनं वियाति, एवं इणं विय कामच्छन्दो दट्ठब्बो । यथा पन पित्तरोगातुरो मधुसक्करादीसुपि दिन्नेसु पित्तरोगातुरताय तेसं रसं न विन्दति, “तित्तकं तित्तक''न्ति उग्गिरतियेव । एवमेव ब्यापन्नचित्तो हितकामेहि आचरियुपज्झायेहि अप्पमत्तकम्पि ओवदियमानो ओवादं न गण्हति । “अति विय मे तुम्हे उपद्दवेथा''तिआदीनि वत्वा विब्भमति । पित्तरोगातुरताय सो पुरिसो मधुसक्करादीनं विय कोधातुरताय झानसुखादिभेदं सासनरसं न विन्दतीति । एवं रोगो विय ब्यापादो दट्ठब्बो। यथा पन नक्खत्तदिवसे बन्धनागारे बद्धो पुरिसो नक्खत्तस्स नेव आदिं न मज्झं न परियोसानं पस्सति । सो दुतियदिवसे मुत्तो अहो हिय्यो नक्खत्तं मनापं, अहो नच्चं, अहो गीतन्तिआदीनि सुत्वापि पटिवचनं न देति । किं कारणा? नक्खत्तस्स अननुभूतत्ता । एवमेव थिनमिद्धाभिभूतो भिक्खु विचित्तनयेपि धम्मस्सवने पवत्तमाने नेव तस्स आदिं न मज्झं न परियोसानं जानाति । सोपि उद्विते धम्मस्सवने अहो धम्मस्सवनं, अहो कारणं, अहो उपमाति धम्मस्सवनस्स वण्णं भणमानानं सुत्वापि पटिवचनं न देति । किं कारणा ? थिनमिद्धवसेन धम्मकथाय अननुभूतत्ता । एवं बन्धनागारं विय थिनमिद्धं दट्ठब्बं । यथा पन नक्खत्तं कीळन्तोपि दासो- “इदं नाम अच्चायिकं करणीयं अस्थि, सीघं तत्थ गच्छाहि । नो चे गच्छसि, हत्थपादं वा ते छिन्दामि कण्णनासं वा''ति वुत्तो सीघं 173 Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७४ दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गट्ठकथा (२.२२४-२२४) गच्छतियेव । नक्खत्तस्स आदिमज्झपरियोसानं अनुभवितुं न लभति, कस्मा ? पराधीनताय, एवमेव विनये अपकतञ्जना विवेकत्थाय अरनं पविठूनापि किस्मिञ्चिदेव अन्तमसो कप्पियमंसेपि अकप्पियमंससाय उप्पन्नाय विवेकं पहाय सीलविसोधनत्थं विनयधरस्स सन्तिकं गन्तब्बं होति, विवेकसुखं अनुभवितुं न लभति, कस्मा ? उद्धच्चकुक्कुच्चाभिभूततायाति । एवं दासब्यं विय उद्धच्चकुक्कुच्चं दट्ठब्बं । यथा पन कन्तारद्धानमग्गप्पटिपन्नो पुरिसो चोरेहि मनुस्सानं विलुत्तोकासं पहतोकासञ्च दिस्वा दण्डकसद्देनपि सकुणसद्देनपि “चोरा आगता"ति उस्सङ्कितपरिसङ्कितोव होति, गच्छतिपि तिट्ठतिपि निवत्ततिपि, गतठ्ठानतो अगतट्ठानमेव बहुतरं होति । सो किच्छेन कसिरेन खेमन्तभूमिं पापुणाति वा न वा पापुणाति । एवमेव यस्स अट्ठसु ठानेसु विचिकिच्छा उप्पन्ना होति, सो- “बुद्धो नु खो, नो नु खो बुद्धो''तिआदिना नयेन विचिकिच्छन्तो अधिमुच्चित्वा सद्धाय गण्हितुं न सक्कोति । असक्कोन्तो मग्गं वा फलं वा न पापुणातीति । यथा कन्तारद्धानमग्गे- “चोरा अस्थि नत्थी''ति पुनप्पुनं आसप्पनपरिसप्पनं अपरियोगाहनं छम्भितत्तं चित्तस्स उप्पादेन्तो खेमन्तपत्तिया अन्तरायं करोति, एवं विचिकिच्छापि- "बुद्धो नु खो, न बुद्धो''तिआदिना नयेन पुनप्पुनं आसप्पनपरिसप्पनं अपरियोगाहनं छम्भितत्तं चित्तस्स उप्पादयमाना अरियभूमिप्पत्तिया अन्तरायं करोतीति कन्तारद्धानमग्गो विय विचिकिच्छा दट्टब्बा । २२४. इदानि - "सेय्यथापि, महाराज, आणण्य"न्ति एत्थ भगवा पहीनकामच्छन्दनीवरणं आणण्यसदिसं, सेसानि आरोग्यादिसदिसानि कत्वा दस्सेति । तत्रायं सदिसता, यथा हि पुरिसो इणं आदाय कम्मन्ते पयोजत्वा समिद्धतं पत्तो- "इदं इणं नाम पलिबोधमूल''न्ति चिन्तेत्वा सवडिकं इणं निय्यातेत्वा पण्णं फालापेय्य । अथस्स ततो पट्ठाय नेव कोचि दूतं पेसेति, न पण्णं । सो इणसामिके दिस्वापि सचे इच्छति, आसना उट्ठहति, नो चे न उट्ठहति, कस्मा ? तेहि सद्धिं निल्लेपताय अलग्गताय । एवमेव भिक्खु - “अयं कामच्छन्दो नाम पलिबोधमूल"न्ति चिन्तेत्वा छ धम्मे भावेत्वा कामच्छन्दनीवरणं पजहति । ते पन छ धम्मे महासतिपट्ठाने वण्णयिस्साम । तस्सेवं पहीनकामच्छन्दस्स यथा इणमुत्तस्स पुरिसस्स इणस्सामिके दिस्वा नेव भयं न छम्भितत्तं होति । एवमेव परवत्थुम्हि नेव सङ्गो न बद्धो होति । दिब्बानिपि रूपानि पस्सतो किलेसो न समुदाचरति । तस्मा भगवा आणण्यमिव कामच्छन्दप्पहानं आह । 174 Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२.२२४-२२४) यथा पन सो पित्तरोगातुरो पुरिसो भेसज्जकिरियाय तं रोगं वूपसमेत्वा ततो पट्ठाय मधुसक्करादीनं रसं विन्दति । एवमेव भिक्खु " अयं व्यापादो नाम महा अनत्थकरो "ति छ धम्मे भावेत्वा ब्यापादनीवरणं पजहति । सब्बनीवरणेसु छ धम्मे महासतिपट्ठानेयेव वण्णयिस्साम । न केवलञ्च तेयेव, येपि थिनमिद्धादीनं पहानाय भावेतब्बा, तेपि सब्बे तत्थेव वण्णयिस्साम। सो एवं पहीनब्यापादो यथा पित्तरोगविमुत्तो पुरिसो मधुक्करादीनं रसं सम्पियायमानो पटिसेवति, एवमेव आचारपण्णत्तिआदीनि सिक्खापदानि सिरसा सम्पटिच्छित्वा सम्पियायमानो सिक्खति । तस्मा भगवा आरोग्यमिव ब्यापादप्पहानं आह । नीवरणप्पहानकथा यथा सो नक्खत्तदिवसे बन्धनागारं पवेसितो पुरिसो अपरस्मिं नक्खत्तदिवसे - “पुब्बेपि अहं पमाददोसेन बद्धो, तेन नक्खत्तं नानुभविं । इदानि अप्पमत्तो भविस्सामी 'ति यथास्स पच्चत्थिका ओकासं न लभन्ति, एवं अप्पमत्तो हुत्वा नक्खत्तं अनुभवित्वा - 'अहो नक्खत्तं, अहो नक्खत्त 'न्ति उदानं उदानेसि, एवमेव भिक्खु - " इदं थिनमिद्धं नाम महाअनत्थकर "न्ति छ धम्मे भावेत्वा थिनमिद्धनीवरणं पजहति, सो एवं पहीनथिनमिद्धो यथा बन्धना मुत्तो पुरिसो सत्ताहम्पि नक्खत्तस्स आदिमज्झपरियोसानं अनुभवति, एवमेव धम्मनक्खत्तस्स आदिमज्झपरियोसानं अनुभवन्तो सह पटिसम्भिदाहि अरहत्तं पापुणाति । तस्मा भगवा बन्धना मोक्खमिव थिनमिद्धप्पहानं आह । महा यथा पन दासो किञ्चिदेव मित्तं उपनिस्साय सामिकानं धनं दत्वा अत्तानं भुजिस्सं कत्वा ततो पट्ठाय यं इच्छति, तं करोति । एवमेव भिक्खु - “ इदं उद्धच्चकुक्कुच्चं नाम अनत्थकर "न्ति छ धम्मे भावेत्वा उद्धच्चकुक्कुच्चं पजहति । सो एवं पहीनउद्धच्चकुक्कुच्चो यथा भुजिस्सो पुरिसो यं इच्छति, तं करोति, न तं कोचि बलक्कारेन ततो निवत्तेति एवमेव यथा सुखं नेक्खम्मपटिपदं पटिपज्जति, न तं उद्धच्चकुक्कुच्च बलक्कारेन ततो निवत्तेति । तस्मा भगवा भुजिस्सं विय उद्धच्चकुक्कुच्चप्पहानं आह । १७५ यथा बलवा पुरिसो हत्थसारं गत्वा सज्जावुधो सपरिवारो कन्तारं पटिपज्जेय्य, तं चोरा दूरतो दिवा पलायेय्युं । सो सोत्थिना तं कन्तारं नित्थरित्वा खेमन्तं पत्तो तुट्ठो अस्स । एवमेव भिक्खु "अयं विचिकिच्छा नाम महा अनत्थकारिका" ति छ धम्मे भावेत्वा विचिकिच्छं पजहति । सो एवं पहीनविचिकिच्छो यथा बलवा पुरिसो सज्जावुधो सपरिवारो निब्भयो चोरे तिणं विय अगणेत्वा सोत्थिना निक्खमित्वा खेमन्तभूमिं पापुणाति, एवमेव 175 Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७६ दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गट्ठकथा (२.२२५-२२७) भिक्खु दुच्चरितकन्तारं नित्थरित्वा परमं खेमन्तभूमिं अमतं महानिब्बानं पापुणाति । तस्मा भगवा खेमन्तभूमिं विय विचिकिच्छापहानं आह । ___२२५. पामोज्जं जायतीति तुट्ठाकारो जायति । पमुदितस्स पीति जायतीति तुट्ठस्स सकलसरीरं खोभयमाना पीति जायति। पीतिमनस्स कायो पस्सम्भतीति पीतिसम्पयुत्तचित्तस्स पुग्गलस्स नामकायो पस्सम्भति, विगतदरथो होति । सुखं वेदेतीति कायिकम्पि चेतसिकम्पि सुखं वेदयति । चित्तं समाधियतीति इमिना नेक्खम्मसुखेन सुखितस्स उपचारवसेनपि अप्पनावसेनपि चित्तं समाधियति । पठमज्झानकथा २२६. सो विविच्चेव कामेहि...पे०... पठमं झानं उपसम्पज्ज विहरतीतिआदि पन उपचारसमाधिना समाहिते चित्ते उपरिविसेसदस्सनत्थं अप्पनासमाधिना समाहिते चित्ते तस्स समाधिनो पभेददस्सनत्थं वुत्तन्ति वेदितब्बं । इममेव कायन्ति इमं करजकायं । अभिसन्देतीति तेमेति स्नेहेति, सब्बत्थ पवत्तपीतिसुखं करोति । परिसन्देतीति समन्ततो सन्देति । परिपूरेतीति वायुना भस्तं विय पूरेति । परिप्फरतीति समन्ततो फुसति। सब्बावतो कायस्साति अस्स भिक्खुनो सब्बकोट्ठासवतो कायस्स किञ्चि उपादिन्नकसन्ततिपवत्तिट्ठाने छविमंसलोहितानुगतं अणुमत्तम्पि ठानं पठमज्झानसुखेन अफुटं नाम न होति । २२७. दक्खोति छेको पटिबलो न्हानीयचुण्णानि कातुञ्चेव पयोजेतुञ्च सन्नेतुञ्च । कंसथालेति येन केनचि लोहेन कतभाजने । मत्तिकभाजनं पन थिरं न होति । सन्नेन्तस्स भिज्जति । तस्मा तं न दस्सेति । परिप्फोसकं परिष्फोसकन्ति सिञ्चित्वा सिञ्चित्वा । सन्नेय्याति वामहत्थेन कंसथालं गहेत्वा दक्खिणहत्थेन पमाणयुत्तं उदकं सिञ्चित्वा सिञ्चित्वा परिमद्दन्तो पिण्डं करेय्य । स्नेहानुगताति उदकसिनेहेन अनुगता। नेहपरेताति उदकसिनेहेन परिग्गहिता। सन्तरबाहिराति सद्धिं अन्तोपदेसेन चेव बहिपदेसेन च सब्बत्थकमेव उदकसिनेहेन फुटाति अत्थो । न च पग्घरणीति न च बिन्दु बिन्दु उदकं पग्घरति, सक्का होति हत्थेनपि द्वीहिपि तीहिपि अङ्गुलीहि गहेतुं ओवट्टिकायपि कातुन्ति अत्थो । 176 Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२.२२८-२२९-२३२-२३३) दुतियज्झानकथा १७७ दुतियज्झानकथा २२८-२२९. दुतियज्झानसुखूपमायं उब्भिदोदकोति उब्भिन्नउदको, न हेट्ठा उब्भिज्जित्वा उग्गच्छनकउदको । अन्तोयेव पन उब्भिज्जनकउदकोति अत्थो । आयमुखन्ति आगमनमग्गो । देवोति मेघो। कालेन कालन्ति काले काले, अन्वद्धमासं वा अनुदसाहं वाति अत्थो । धारन्ति वुद्धिं । न अनुप्पवेच्छेय्याति न च पवेसेय्य, न वस्सेय्याति अत्थो । सीता वारिधारा उब्भिज्जित्वाति सीतं धारं उग्गन्त्वा रहदं पूरयमानं उब्भिज्जित्वा । हेट्ठा उग्गच्छनउदकहि उग्गन्त्वा उग्गन्त्वा भिज्जन्तं उदकं खोभेति, चतूहि दिसाहि पविसनउदकं पुराणपण्णतिणकट्ठदण्डकादीहि उदकं खोभेति, वुट्ठिउदकं धारानिपातपुब्बुळकेहि उदकं खोभेति। सन्निसिन्नमेव पन हुत्वा इद्धिनिम्मितमिव उप्पज्जमानं उदकं इमं पदेसं फरति, इमं पदेसं न फरतीति नत्थि, तेन अफुटोकासो नाम न होतीति । तत्थ रहदो विय करजकायो । उदकं विय दुतियज्झानसुखं । सेसं पुरिमनयेनेव वेदितब् । ततियज्झानकथा २३०-२३१. ततियज्झानसुखूपमायं उप्पलानि एत्थ सन्तीति उप्पलिनी। सेसपदद्वयेपि एसेव नयो । एत्थ च सेतरत्तनीलेसु यं किञ्चि उप्पलं उप्पलमेव । ऊनकसतपत्तं पण्डरीकं. सतपत्तं पदमं । पत्तनियम वा विनापि सेतं पद्मं, रत्तं पूण्डरीकन्ति अयमेत्थ विनिच्छयो । उदकानुग्गतानीति उदकतो न उग्गतानि | अन्तोनिमुग्गपोसीनीति उदकतलस्स अन्तो निमुग्गानियेव हुत्वा पोसीनि, वड्डीनीति अत्थो । सेसं पुरिमनयेनेव वेदितब्बं । चतुत्थज्झानकथा __२३२-२३३. चतुत्थज्झानसुखूपमायं परिसुद्धेन चेतसा परियोदातेनाति एत्थ निरुपक्किलेसटेन परिसुद्धं, पभस्सरटेन परियोदातन्ति वेदितब्बं । ओदातेन वत्थेनाति इदं उतुफरणत्थं वुत्तं । किलिट्ठवत्थेन हि उतुफरणं न होति, तङ्खणधोतपरिसुद्धेन उतुफरणं बलवं होति । इमिस्साय हि उपमाय वत्थं विय करजकायो, उतुफरणं विय चतुत्थज्झानसुखं । तस्मा यथा सुन्हातस्स पुरिसस्स परिसुद्धं वत्थं ससीसं पारुपित्वा निसिन्नस्स सरीरतो उतु सब्बमेव वत्थं फरति । न कोचि वत्थस्स अफुटोकासो होति । एवं चतुत्थज्झानसुखेन 177 Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७८ दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गट्ठकथा (२.२३४-२३४) भिक्खुनो करजकायस्स न कोचि ओकासो अफुटो होतीति । एवमेत्थ अत्थो दट्टब्बो । इमेसं पन चतुन्नं झानानं अनुपदवण्णना च भावनानयो च विसुद्धिमग्गे वुत्तोति इध न वित्थारितो। एत्तावता चेस रूपज्झानलाभीयेव, न अरूपज्झानलाभीति न वेदितब्बो। न हि अट्ठसु समापत्तीसु चुद्दसहाकारेहि चिण्णवसीभावं विना उपरि अभिञाधिगमो होति । पाळियं पन रूपज्झानानियेव आगतानि । अरूपज्झानानि आहरित्वा कथेतब्बानि । विपस्सनाजाणकथा २३४. सो एवं समाहिते चित्ते...पे०... आनेञ्जप्पत्तेति सो चुद्दसहाकारेहि अट्ठसु समापत्तीसु चिण्णवसीभावो भिक्खूति दस्सेति । सेसमेत्थ विसुद्धिमग्गे वुत्तनयेन वेदितब् । आणदस्सनाय चित्तं अभिनीहरतीति एत्थ जाणदस्सनन्ति मग्गजाणम्पि, वुच्चति फलञाणम्पि, सब्ब ताणम्पि, पच्चवेक्खणञाणम्पि, विपस्सनाजाणम्पि । “किं नु खो, आवुसो, जाणदस्सनविसुद्धत्थं भगवति ब्रह्मचरियं वुस्सती"ति (महानि० १.२५७) एत्थ हि मग्गाणं आणदस्सनन्ति वुत्तं । “अयमञो उत्तरिमनुस्सधम्मो अलमरियाणदस्सनविसेसो अधिगतो फासुविहारो'"ति (म० नि० १.३२८) एत्थ फलजाणं । “भगवतोपि खो आणदस्सनं उदपादि सत्ताहकालङ्कतो आळारो कालामो''ति (महाव० १०) एत्थ सब्ब तञाणं । "आणञ्च पन मे दस्सनं उदपादि अकुप्पा मे विमुत्ति, अयमन्तिमा जाती"ति (महाव० १६) एत्थ पच्चवेक्खणाणं इध पन आणदस्सनाय चित्तन्ति इदं विपस्सनाजाणं आणदस्सनन्ति वुत्तन्ति । अभिनीहरतीति विपस्सनाञाणस्स निब्बत्तनत्थाय तन्निन्नं तप्पोणं तप्पब्भारं करोति । रूपीति आदीनमत्थो वुत्तोयेव । ओदनकुम्मासूपचयोति ओदनेन चेव कुम्मासेन च उपचितो वड्डितो। अनिच्चुच्छादनपरिमद्दनभेदनविद्धंसनधम्मोति हुत्वा अभावढेन अनिच्चधम्मो । दुग्गन्धविघातत्थाय तनुविलेपनेन उच्छादनधम्मो । अङ्गपच्चङ्गाबाधविनोदनत्थाय खुद्दकसम्बाहनेन परिमद्दनधम्मो । दहरकाले वा ऊरूसु सयापेत्वा गब्भावासेन दुस्सण्ठितानं तेसं तेसं अङ्गानं सण्ठानसम्पादनत्थं अञ्छनपीळनादिवसेन परिमद्दनधम्मो । एवं परिहरितोपि भेदनविद्धंसनधम्मो भिज्जति चेव विकिरति च, एवं सभावोति अत्थो । तत्थ रूपी चातुमहाभूतिकोतिआदीसु 178 Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२.२३५-२३६-२३७) मनोमयिद्धिञाणकथा १७९ छहि पदेहि समुदयो कथितो। अनिच्चपदेन सद्धिं पच्छिमेहि द्वीहि अत्थङ्गमो। एत्थ सितं एत्थ पटिबद्धन्ति एत्थ चातुमहाभूतिके काये निस्सितञ्च पटिबद्धञ्च । २३५. सुभोति सुन्दरो। जातिमाति परिसुद्धाकरसमुट्ठितो। सुपरिकम्मकतोति सुटु कतपरिकम्मो अपनीतपासाणसक्खरो। अच्छोति तनुच्छवि । विप्पसनोति सुटु पसन्नो । सब्बाकारसम्पन्नोति धोवनवेधनादीहि सब्बेहि आकारेहि सम्पन्नो । नीलन्तिआदीहि वण्णसम्पत्तिं दस्सेति । तादिसहि आवुतं पाकटं होति । एवमेव खोति एत्थ एवं उपमासंसन्दनं वेदितब्बं । मणि विय हि करजकायो । आवुतसुत्तं विय विपस्सनाञाणं । चक्खुमा पुरिसो विय विपस्सनालाभी भिक्खु, हत्थे करित्वा पच्चवेक्खतो अयं खो मणीति मणिनो आविभूतकालो विय विपस्सनाजाणं, अभिनीहरित्वा निसिन्नस्स भिक्खुनो चातुमहाभूतिककायस्स आविभूतकालो, तत्रिदं सुत्तं आवुतन्ति सुत्तस्साविभूतकालो विय विपस्सनाञाणं, अभिनीहरित्वा निसिन्नस्स भिक्खुनो तदारम्मणानं फस्सपञ्चमकानं वा सब्बचित्तचेतसिकानं वा विपस्सनाञाणस्सेव वा आविभूतकालोति । इदञ्च विपस्सनाजाणं मग्गजाणानन्तरं । एवं सन्तेपि यस्मा अभिज्ञावारे आरद्धे एतस्स अन्तरावारो नत्थि तस्मा इधेव दस्सितं । यस्मा च अनिच्चादिवसेन अकतसम्मसनस्स दिब्बाय सोतधातुया भेरवं सदं सुणतो, पुब्बेनिवासानुस्सतिया भेरवे खन्धे अनुस्सरतो, दिब्बेन चक्खुना भेरवम्पि रूपं पस्सतो भयसन्तासो उप्पज्जति, न अनिच्चादिवसेन कतसम्मसनस्स तस्मा अभिनं पत्तस्स भयविनोदनहेतुसम्पादनत्थम्पि इदं इधेव दस्सितं । अपि च यस्मा विपस्सनासुखं नामेतं मग्गफलसुखसम्पादकं पाटियेक्कं सन्दिट्टिकं सामञफलं तस्मापि आदितोव इदं इध दस्सितन्ति वेदितब्बं । मनोमयिद्धिजाणकथा ___२३६-२३७. मनोमयन्ति मनेन निब्बत्तितं । सब्बङ्गपच्चङ्गिन्ति सब्बेहि अङ्गेहि च पच्चङ्गेहि च समन्नागतं । अहीनिन्द्रियन्ति सण्ठानवसेन अविकलिन्द्रियं । इद्धिमता निम्मितरूपम्हि सचे इद्धिमा ओदातो तम्पि ओदातं । सचे अविद्धकण्णो तम्पि अविद्धकण्णन्ति एवं सब्बाकारेहि तेन सदिसमेव होति । मुञ्जम्हा ईसिकन्तिआदि उपमात्तयम्पि हि सदिसभावदस्सनत्थमेव वुत्तं । मुञ्जसदिसा एव हि तस्स अन्तो ईसिका होति । कोसिसदिसोयेव असि, वट्टाय कोसिया वर्ल्ड असिमेव पक्खिपन्ति, पत्थटाय 179 Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८० दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गट्ठकथा (२.२३८-२३९-२४२-२४३) पत्थटं । करण्डाति इदम्पि अहिकञ्चुकस्स नामं, न विलीवकरण्डकस्स । अहिकञ्चुको हि अहिना सदिसोव होति। तत्थ किञ्चापि “परिसो अहिं करण्डा उद्धरेय्या"ति हत्थेन उद्धरमानो विय दस्सितो. अथ खो चित्तेनेवस्स उद्धरणं वेदितब्बं । अयहि अहि नाम सजातियं ठितो, कट्ठन्तरं वा रुक्खन्तरं वा निस्साय, तचतो सरीरं निक्कड्डनप्पयोगसङ्घातेन थामेन, सरीरं खादयमानं विय पुराणतचं जिगुच्छन्तोति इमेहि चतूहि कारणेहि सयमेव कञ्चुकं पजहति, न सक्का ततो अजेन उद्धरितुं, तस्मा चित्तेन उद्धरणं सन्धाय इदं वुत्तन्ति वेदितब्बं । इति मुजादिसदिसं इमस्स भिक्खुनो सरीरं, ईसिकादिसदिसं निम्मितरूपन्ति । इदमेत्थ ओपम्मसंसन्दनं । निम्मानविधानं पनेत्थ परतो च इद्धिविधादिपञ्चअभिञाकथा सब्बाकारेन विसुद्धिमग्गे वित्थारिताति तत्थ वुत्तनयेनेव वेदितब्बा। उपमामत्तमेव हि इध अधिकं । EEEEEEEE इद्धिविधञाणादिकथा २३८-२३९. तत्थ छेककुम्भकारादयो विय इद्धिविधाणलाभी भिक्खु दट्टब्बो । सुपरिकम्मकतमत्तिकादयो विय इद्धिविधञाणं दट्टब्बं । इच्छितिच्छितभाजनविकतिआदिकरणं विय तस्स भिक्खुनो विकुब्बनं दट्ठब्बं । २४०-२४१. दिब्बसोतधातुउपमायं यस्मा कन्तारद्धानमग्गो सासको होति सप्पटिभयो । तत्थ उस्सङ्कितपरिसङ्कितेन 'अयं भेरिसद्दो', 'अयं मुदिङ्गसद्दो'ति न सक्का ववत्थपेतुं, तस्मा कन्तारग्गहणं अकत्वा खेममग्गं दस्सेन्तो अद्धानमग्गप्पटिपन्नोति आह । अप्पटिभयहि खेममग्गं सीसे साटकं कत्वा सणिकं पटिपन्नो वुत्तप्पकारे सद्दे सुखं ववत्थपेति । तस्स सवनेन तेसं तेसं सद्दानं आविभूतकालो विय योगिनो दूरसन्तिकभेदानं दिब्बानञ्चेव मानुस्सकानञ्च सद्दानं आविभूतकालो वेदितब्बो । २४२-२४३. चेतोपरियजाणूपमायं दहरोति तरुणो । युवाति योब्बन्नेन समन्नागतो । मण्डनकजातिकोति युवापि समानो न आलसियो न किलिट्ठवत्थसरीरो, अथ खो मण्डनपकतिको, दिवसस्स द्वे तयो वारे न्हायित्वा सुद्धवत्थपरिदहनअलङ्कारकरणसीलोति अत्थो । सकणिकन्ति काळतिलकवङ्गमुखदूसिपीळकादीनं अञ्जतरेन सदोसं । तत्थ यथा तस्स मुखनिमित्तं पच्चवेक्खतो मुखे दोसो पाकटो होति, एवं चेतोपरियाणाय चित्तं अभिनीहरित्वा निसिन्नस्स भिक्खुनो परेसं सोळसविधं चित्तं पाकटं होतीति वेदितब्बं । 180 Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२.२४४-२४५-२४८) आसवक्खयाणकथा २४४-२४५. पुब्बेनिवाससाणूपमायं तं दिवसं कतकिरिया पाकटा होतीति तं दिवसं गतगामत्तयमेव गहितं । तत्थ गामत्तयगतपुरिसो विय पुब्बेनिवासजाणलाभी दट्ठब्बो, तयो गामा विय तयो भवा दट्ठब्बा, तस्स पुरिसस्स तीसु गामेसु तं दिवसं कतकिरियाय आविभावो विय पुब्बेनिवासाय चित्तं अभिनीहरित्वा निसिन्नस्स भिक्खुनो तीसु भवेसु कतकिरियाय पाकटभावो दट्ठब्बो । २४६-२४७. दिब्बचक्खूपमायं वीथिं सञ्चरन्तेति अपरापरं सञ्चरन्ते । वीथिं चरन्तेतिपि पाठो। अयमेवत्थो । तत्थ नगरमज्झे सिङ्घाटकम्हि पासादो विय इमस्स भिक्खुनो करजकायो दट्ठब्बो, पासादे ठितो चक्खुमा पुरिसो विय अयमेव दिब्बचक्खुं पत्वा ठितो भिक्खु, गेहं पविसन्ता विय पटिसन्धिवसेन मातुकुच्छियं पविसन्ता, गेहा निक्खमन्ता विय मातुकुच्छितो निक्खमन्ता, रथिकाय वीथिं सञ्चरन्ता विय अपरापरं सञ्चरणकसत्ता, पुरतो अब्भोकासट्टाने मज्झे सिङ्घाटके निसिन्ना विय तीसु भवेसु तत्थ तत्थ निब्बत्तसत्ता, पासादतले ठितपुरिसस्स तेसं मनुस्सानं आविभूतकालो विय दिब्बचक्खुत्राणाय चित्तं अभिनीहरित्वा निसिन्नस्स भिक्खुनो तीसु भवेसु निब्बत्तसत्तानं आविभूतकालो दट्ठब्बो । इदञ्च देसनासुखत्थमेव वुत्तं । आरुप्पे पन दिब्बचक्खुस्स गोचरो नत्थीति । आसवक्खयजाणकथा २४८. सो एवं समाहिते चित्तेति इध विपस्सनापादकं चतुत्थज्झानचित्तं वेदितब्बं । आसवानं खयत्राणायाति आसवानं खयाणनिब्बत्तनत्थाय । एत्थ च आसवानं खयो नाम मग्गोपि फलम्पि निब्बानम्पि भङ्गोपि वुच्चति । “खये आणं, अनुप्पादे आण"न्ति एत्थ हि मग्गो आसवानं खयोति वुत्तो । “आसवानं खया समणो होती"ति (म० नि० १.४३८) एत्थ फलं । "परवज्जानुपस्सिस्स, निच्चं उज्झानसञिनो । आसवा तस्स वड्डन्ति, आरा सो आसवक्खया'ति ।। (ध० प० २५३) एत्थ निब्बानं । “आसवानं खयो वयो भेदो अनिच्चता अन्तरधान"न्ति एत्थ भङ्गो । इध पन निब्बानं अधिप्पेतं । अरहत्तमग्गोपि वट्टतियेव । 181 Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८२ दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गट्ठकथा (२.२४८-२४८) चित्तं अभिनीहरतीति विपस्सना चित्तं तन्निन्नं तप्पोणं तप्पब्भारं करोति । सो इदं दुक्खन्तिआदीसु “एत्तकं दुक्खं, न इतो भिय्योति सब्बम्पि दुक्खसच्चं सरसलक्खणपटिवेधेन यथाभूतं पजानातीति अत्थो । तस्स च दुक्खस्स निब्बत्तिकं तण्हं "अयं दुक्खसमुदयो''ति । तदुभयम्पि यं ठानं पत्वा निरुज्झति, तं तेसं अप्पवत्तिं निब्बानं “अयं दुक्खनिरोधो"ति; तस्स च सम्पापकं अरियमग्गं “अयं दुक्खनिरोधगामिनी पटिपदा'"ति सरसलक्खणपटिवेधेन यथाभूतं पजानातीति अत्थो । एवं सरूपतो सच्चानि दस्सेत्वा पुन किलेसवसेन परियायतो दस्सेन्तो "इमे आसवा"तिआदिमाह । तस्स एवं जानतो एवं पस्सतोति तस्स भिक्खुनो एवं जानन्तस्स एवं पस्सन्तस्स, सह विपस्सनाय कोटिप्पत्तं मग्गं कथेसि । कामासवाति कामासवतो । विमुच्चतीति इमिना मग्गक्खणं दस्सेति । विमुत्तस्मिन्ति इमिना फलक्खणं । विमुत्तमिति आणं होतीति इमिना पच्चवेक्खणजाणं । खीणा जातीतिआदीहि तस्स भूमिं । तेन हि आणेन खीणासवो पच्चवेक्खन्तो खीणा जातीतिआदीनि पजानाति । कतमा पनस्स जाति खीणा ? कथञ्च नं पजानातीति ? न तावस्स अतीता जाति खीणा, पुब्बेव खीणत्ता। न अनागता, अनागते वायामाभावतो। न पच्चुप्पन्ना, विज्जमानत्ता। या पन मग्गस्स अभावितत्ता उप्पज्जेय्य एकचतुपञ्चवोकारभवेसु एकचतुपञ्चक्खन्धप्पभेदा जाति, सा मग्गस्स भावितत्ता आयतिं अनुप्पादधम्मतं आपज्जनेन खीणा । तं सो मग्गभावनाय पहीनकिलेसे पच्चवेक्खित्वा “किलेसाभावे विज्जमानम्पि कम्मं आयति अप्पटिसन्धिकंव होती"ति जानन्तो पजानाति । वुसितन्ति वुत्थं परिवुत्थं । ब्रह्मचरियन्ति मग्गब्रह्मचरियं । पुथुज्जनकल्याणकेन हि सद्धिं सत्त सेक्खा ब्रह्मचरियवासं वसन्ति नाम, खीणासवो वुत्थवासो, तस्मा सो अत्तनो ब्रह्मचरियवासं पच्चवेक्खन्तो वुसितं ब्रह्मचरियन्ति पजानाति । ___ कतं करणीयन्ति चतूसु सच्चेसु चतूहि मग्गेहि परिञापहानसच्छिकिरियाभावनावसेन सोळसविधं किच्चं निट्ठापितं । तेन तेन मग्गेन पहातब्बकिलेसा पहीना, दुक्खमूलं समुच्छिन्नन्ति अत्थो। पुथुज्जनकल्याणकादयो हि तं किच्चं करोन्ति, खीणासवो कतकरणीयो । तस्मा सो अत्तनो करणीयं पच्चवेक्खन्तो कतं करणीयन्ति पजानाति । नापरं इत्थत्तायाति इदानि पुन इत्थभावाय एवं सोळसकिच्चभावाय किलेसक्खयभावाय वा 182 Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२.२४९-२५०) अजातसत्तुउपासकत्तपटिवेदनाकथा १८३ कत्तब्बं मग्गभावनाकिच्चं मे नत्थीति पजानाति । अथ वा इत्थत्तायाति इत्थभावतो इमस्मा एवं पकारा । इदानि वत्तमानखन्धसन्ताना अपरं खन्धसन्तानं मय्हं नत्थि । इमे पन पञ्चक्खन्धा परिञाता तिठ्ठन्ति छिन्नमूलका रुक्खा विय, ते चरिमकचित्तनिरोधेन अनुपादानो विय जातवेदो निब्बायिस्सन्ति अपण्णत्तिकभावञ्च गमिस्सन्तीति पजानाति । २४९. पब्बतसङ्केपेति पब्बतमत्थके । अनाविलोति निक्कद्दमो। सिप्पियो च सम्बुका च सिप्पिसम्बुकं । सक्खरा च कथलानि च सक्खरकथलं। मच्छानं गुम्बा घटाति मच्छगुम्बं । तिद्वन्तम्पि चरन्तम्पीति एत्थ सक्खरकथलं तिट्ठतियेव, इतरानि चरन्तिपि तिट्ठन्तिपि । यथा पन अन्तरन्तरा ठितासुपि निसिन्नासुपि विज्जमानासुपि “एता गावो चरन्तीति चरन्तियो उपादाय इतरापि चरन्तीति वुच्चन्ति । एवं तिट्ठन्तमेव सक्खरकथलं उपादाय इतरम्प द्वयं तिद्वन्तन्ति वुत्तं । इतरञ्च द्वयं चरन्तं उपादाय सक्खरकथलम्पि चरन्तन्ति वृत्तं । तत्थ चक्खुमतो पुरिसस्स तीरे ठत्वा पस्सतो सिप्पिकसम्बुकादीनं विभूतकालो विय आसवानं खयाय चित्तं अभिनीहरित्वा निसिन्नस्स भिक्खुनो चतुत्रं सच्चानं विभूतकालो दलब्लोति । एत्तावता विपस्सनाजाणं, मनोमयजाणं, इद्धिविधञाणं, दिब्बसोताणं, चेतोपरियजाणं, पुब्बेनिवाससाणं, दिब्बचक्खुवसेन निष्फन्नं अनागतंसञाणयथाकम्मूपगजाणद्वयं, दिब्बचक्खुजाणं, आसवक्खयजाणन्ति दस आणानि निद्दिवानि होन्ति । तेसं आरम्मणविभागो जानितब्बो- तत्थ विपस्सनाजाणं परित्तमहग्गतअतीतानागतपच्चुप्पन्नअज्झत्तबहिद्धावसेन सत्तविधारम्मणं । मनोमयजाणं निम्मितब्बरूपायतनमत्तमेव आरम्मणं करोतीति परित्तपच्चुप्पन्नबहिद्धारम्मणं । आसवक्खयजाणं अप्पमाणबहिद्धानवत्तब्बारम्मणं। अवसेसानं आरम्मणभेदो विसुद्धिमग्गे वुत्तो। उत्तरितरं वा पणीततरं वाति येन केनचि परियायेन इतो सेठ्ठतरं सामञफलं नाम नत्थीति भगवा अरहत्तनिकूटेन देसनं निट्ठापेसि । अजातसत्तुउपासकत्तपटिवेदनाकथा २५०. राजा तत्थ तत्थ साधुकारं पवत्तेन्तो आदिमज्झपरियोसानं सक्कच्चं सुत्वा "चिरं वतम्हि इमे पञ्हे पुथू समणब्राह्मणे पुच्छन्तो, थुसे कोट्टेन्तो विय किञ्चि सारं नालत्थं, अहो वत भगवतो गुणसम्पदा, यो मे दीपसहस्सं जालेन्तो विय महन्तं आलोकं कत्वा इमे पन्हे विस्सज्जेसि । सुचिरं वतम्हि दसबलस्स गुणानुभावं अजानन्तो 183 Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८४ दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गट्ठकथा वञ्चितो 'ति चिन्तेत्वा बुद्धगुणानुस्सरणसम्भूताय पञ्चविधाय पीतिया फुटसरीरो अत्तनो पसादं आविकरोन्तो उपासकत्तं पटिवेदेसि । तं दस्सेतुं “ एवं वृत्ते राजा "तिआदि आरद्धं । तत्थ अभिक्कन्तं, भन्तेति दिस्सति । " अभिक्कन्ता भन्ते, भिक्खुसङ्घो’तिआदीसु (अ० नि० खमति, इमेसं चतुन्नं पुग्गलानं अभिक्कन्ततरो च पणीततरो चा " तिआदीसु (अ० नि० २.४.१००) सुन्दरे । अयं अभिक्कन्तसद्दो रत्ति, निक्खन्तो ३.८.२० ) हि खये खयसुन्दराभिरूप अब्भनुमोदनेसु पठमो यामो, चिरनिसिन्नो दिस्सति । " अयं मे पुग्गलो “को मे वन्दति पादानि, इद्धिया यससा जलं । अभिक्कन्तेन वण्णेन सब्बा ओभासयं दिसाति ।। (वि० व० ८५७) 1 (२.२५० - २५० ) आदीसु अभिरूपे । "अभिक्कन्तं भो, गोतमा 'तिआदीसु (पारा० १५ ) अनुमोदने । इधापि अब्भनुमोदनेयेव । यस्मा च अब्भनुमोदने, तस्मा 'साधु साधु भन्तेति वुत्तं होतीति वेदितब्बो | भये कोधे पसंसायं, तुरिते कोतूहलच्छरे । हासे सोके पसादे च करे आमेडितं बुधोति । । इमिना च लक्खणेन इध पसादवसेन, पसंसावसेन चायं द्विक्खत्तुं वुत्तोति वेदितब्बो । अथवा अभिक्कन्तन्ति अभिकन्तं अतिइट्टं अतिमनापं अतिसुन्दरन्ति वृत्तं होति । एत्थ एकेन अभिक्कन्तसद्देन देसनं थोमेति, एकेन अत्तनो पसादं । अयञ्हेत्थ अधिप्पायो, अभिक्कन्तं भन्ते, यदिदं भगवतो धम्मदेसना, 'अभिक्कन्तं' यदिदं भगवतो धम्मदेसनं आगम्म मम पसादोति । भगवतोयेव वा वचनं द्वे द्वे अत्थे सन्धाय थोमेति । भगवतो वचनं अभिक्कन्तं दोसनासनतो, अभिक्कन्तं गुणाधिगमनतो । तथा सद्धाजननतो, पञ्ञाजननतो, सात्थतो, सब्यञ्जनतो, उत्तानपदतो, गम्भीरत्थतो, कण्णसुखतो, हदयङ्गमतो, 184 Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२.२५०-२५०) अजातसत्तुउपासकत्तपटिवेदनाकथा १८५ अनत्तुक्कंसनतो, अपरवम्भनतो, करुणासीतलतो, पञ्जावदाततो, आपाथरमणीयतो, विमद्दक्खमतो, सुय्यमानसुखतो, वीमंसियमानहिततोति एवमादीहि योजेतब्बं । ततो परम्प चतूहि उपमाहि देसनंयेव थोमेति । तत्थ निक्कुज्जितन्ति अधोमुखठपितं हेट्ठामुखजातं वा । उक्कुज्जेय्याति उपरि मुखं करेय्य । पटिच्छन्नन्ति तिणपण्णादिछादितं । विवरेय्याति उग्घाटेय्य । मूळ्हस्स वाति दिसामूळ्हस्स | मग्गं आचिक्खेय्याति हत्थे गहेत्वा "एस मग्गो''ति वदेय्य, अन्धकारेति काळपक्खचातुद्दसी अड्डरत्तघनवनसण्डमेघपटलेहि चतुरङ्गे तमे । अयं ताव अनुत्तानपदत्थो । अयं पन साधिप्पाययोजना । यथा कोचि निक्कुज्जितं उक्कुज्जेय्य, एवं सद्धम्मविमुखं असद्धम्मे पतितं मं असद्धम्मा वुट्टापेन्तन | यथा पटिच्छन्नं विवरेय्य, एवं कस्सपस्स भगवतो सासनन्तरधाना पभुति मिच्छादिट्ठिगहनपटिच्छन्नं सासनं विवरन्तेन, यथा मूळ्हस्स मग्गं आचिक्खेय्य, एवं कुम्मग्गमिच्छामग्गप्पटिपन्नस्स मे सग्गमोक्खमग्गं आविकरोन्तेन, यथा अन्धकारे तेलपज्जोतं धारेय्य, एवं मोहन्धकारनिमुग्गस्स मे बुद्धादिरतनरूपानि अपस्सतो तप्पटिच्छादकमोहन्धकारविद्धंसकदेसनापज्जोतधारकेन मय्हं भगवता एतेहि परियायेहि पकासितत्ता अनेकपरियायेन धम्मो पकासितोति । एवं देसनं थोमेत्वा इमाय देसनाय रतनत्तये पसन्नचित्तो पसन्नाकारं. करोन्तो एसाहन्तिआदिमाह । तत्थ एसाहन्ति एसो अहं | भगवन्तं सरणं गच्छामीति भगवा मे सरणं, परायनं, अघस्स ताता, हितस्स च विधाताति । इमिना अधिप्पायेन भगवन्तं गच्छामि भजामि सेवामि पयिरुपासामि, एवं वा जानामि बुज्झामीति । येसहि धातूनं गतिअत्थो, बुद्धिपि तेसं अत्थो । तस्मा गच्छामीति इमस्स जानामि बुज्झामीति अयम्पि अत्थो वुत्तो । धम्मञ्च भिक्खुसङ्घञ्चाति एत्थ पन अधिगतमग्गे सच्छिकतनिरोधे यथानुसिटुं पटिपज्जमाने चतूसु अपायेसु अपतमाने धारेतीति धम्मो, सो अत्थतो अरियमग्गो चेव निब्बानञ्च । वुत्तञ्चेतं - “यावता, भिक्खवे, धम्मा सङ्घता, अरियो अट्ठङ्गिको मग्गो तेसं अग्गमक्खायतीति (अ० नि० १.४.३४) वित्थारो। न केवलञ्च अरियमग्गो चेव निब्बानञ्च । अपि च खो अरियफलेहि सद्धिं परियत्तिधम्मोपि। वुत्त हेतं छत्तमाणवकविमाने “रागविरागमनेजमसोकं, धम्ममसङ्घतमप्पटिकूलं । मधुरमिमं पगुणं सुविभत्तं, धम्ममिमं सरणत्थमुपेही"ति ।। (वि० व० ८८७) 185 Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८६ १८६ दीघनिकाये सीलक्खन्धवागढुकथा दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गट्ठकथा (२.२५०-२५०) एत्थ हि रागविरागोति मग्गो कथितो। अनेजमसोकन्ति फलं । धम्ममसङ्कतन्ति निब्बानं । अप्पटिकूलं मधुरमिमं पगुणं सुविभत्तन्ति पिटकत्तयेन विभत्ता धम्मक्खन्धाति । दिट्ठिसीलसंघातेन संहतोति सङ्घो, सो अत्थतो अट्ठ अरियपुग्गलसमूहो। वुत्तज्हेतं तस्मिनेव विमाने - “यत्थ च दिन्नमहप्फलमाहु, चतूसु सुचीसु पुरीसयुगेसु । अट्ठ च पुग्गलधम्मदसा ते, सङ्घमिमं सरणत्थमुपेही''ति ।। (वि० व० ८८८) भिक्खूनं सङ्घो भिक्खुसङ्घो। एत्तावता राजा तीणि सरणगमनानि पटिवेटेसि । सरणगमनकथा इदानि तेसु सरणगमनेसु कोसल्लत्थं सरणं, सरणगमनं, यो च सरणं गच्छति सरणगमनप्पभेदो, सरणगमनफलं, सङ्किलेसो भेदोति, अयं विधि वेदितब्बो । मेथिट सरणत्थतो ताव हिंसतीति सरणं। सरणगतानं तेनेव सरणगमनेन भयं सन्तासं दुबग्व दुग्गतिपरिकिलेसं हनति विनासेतीति अत्थो, रतनत्तयस्सेवेतं अधिवचनं । अथ वा हिते पवत्तनेन अहिता च निवत्तनेन सत्तानं भयं हिंसति बुद्धो । भवकन्तारा उत्तारणेन अस्सासदानेन च धम्मो; अप्पकानम्पिकारानं विपुलफलपटिलाभकरणेन सङ्घो। तस्मा इमिनापि परियायेन रतनत्तयं सरणं | तप्पसादतग्गरुताहि विहतकिलेसो तप्परायणताकारप्पवत्तो चित्तुप्पादो सरणगमनं। तं समङ्गीसत्तो सरणं गच्छति। वुत्तप्पकारेन चित्तुप्पादेन एतानि मे तीणि रतनानि सरणं, एतानि परायणन्ति एवं उपेतीति अत्थो । एवं ताव सरणं, सरणगमनं, यो च सरणं गच्छति, इदं तयं वेदितब् ।। सरणगमनप्पभेदे पन दुविधं सरणगमनं- लोकुत्तरं लोकियञ्च । तत्थ लोकुत्तरं दिट्ठसच्चानं मग्गक्खणे सरणगमनुपक्किलेससमुच्छेदेन आरम्मणतो निब्बानारम्मणं हुत्वा किच्चतो सकलेपि रतनत्तये इज्झति । लोकियं पुथुज्जनानं सरणगमनुपक्किलेसविक्खम्भनेन आरम्मणतो बुद्धादिगुणारम्मणं हुत्वा इज्झति । तं अत्थतो बुद्धादीसु वत्थूसु सद्धापटिलाभो 186 Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२.२५०-२५०) सरणगमनकथा १८७ सद्धामूलिका च सम्मादिट्ठि दससु पुञ्जकिरियवत्थूसु दिट्ठिजुकम्मन्ति वुच्चति । तयिदं चतुधा वत्तति- अत्तसन्निय्यातनेन, तप्परायणताय, सिस्सभावूपगमनेन, पणिपातेनाति । तत्थ अत्तसन्निय्यातनं नाम- “अज्जादिं कत्वा अहं अत्तानं बुद्धस्स निय्यातेमि, धम्मस्स, सङ्घस्सा''ति एवं बुद्धादीनं अत्तपरिच्चजनं । तप्परायणता नाम “अज्जादिं कत्वा 'अहं बुद्धपरायणो, धम्मपरायणो, सङ्घपरायणो'ति । मं धारेथा"ति एवं तप्परायणभावो । सिस्सभावूपगमनं नाम - “अज्जादिं कत्वा- 'अहं बुद्धस्स अन्तेवासिको, धम्मस्स, सङ्घस्स अन्तेवासिको'ति मं धारेथा"ति एवं सिस्सभावूपगमो । पणिपातो नाम – “अज्जादिं कत्वा अहं अभिवादनपच्चुट्ठानअञ्जलिकम्मसामीचिकम्मं बुद्धादीनंयेव तिण्णं वत्थूनं करोमी'ति मं धारेथा' 'ति एवं बुद्धादीसु परमनिपच्चाकारो। इमेसहि चतुन्नं आकारानं अञ्जतरम्पि करोन्तेन गहितंयेव होति सरणं । अपि च भगवतो अत्तानं परिच्चजामि, धम्मस्स, सङ्घस्स, अत्तानं परिच्चजामि, जीवितं परिच्चजामि, परिच्चत्तोयेव मे अत्ता, परिच्चत्तंयेव जीवितं, जीवितपरियन्तिकं बुद्धं सरणं गच्छामि, बुद्धो मे सरणं लेणं ताणन्ति; एवम्पि अत्तसन्निय्यातनं वेदितब्बं । “सत्थारञ्च वताहं पस्सेय्यं, भगवन्तमेव पस्सेय्यं, सुगतञ्च वताहं पस्सेय्यं, भगवन्तमेव पस्सेय्यं, सम्मासम्बुद्धञ्च वताहं पस्सेय्यं, भगवन्तमेव पस्सेय्य''न्ति (सं० नि० १.२.१५४)। एवम्पि महाकस्सपस्स सरणगमनं विय सिस्सभावूपगमनं वेदितब्बं । “सो अहं विचरिस्सामि, गामा गामं पुरा पुरं । नमस्समानो सम्बुद्धं, धम्मस्स च सुधम्मत"न्ति ।। (सु० नि० १९४) एवम्पि आळवकादीनं सरणगमनं विय तप्परायणता वेदितब्बा । अथ खो ब्रह्मायु ब्राह्मणो उट्ठायासना एकंसं उत्तरासङ्गं करित्वा भगवतो पादेसु सिरसा निपतित्वा भगवतो पादानि मुखेन च परिचुम्बति, पाणीहि च परिसम्बाहति, नामञ्च सावेति - "ब्रह्मायु अहं, भो गोतम ब्राह्मणो, ब्रह्मायु अहं, भो गोतम ब्राह्मणो'"ति (म० नि० २.३९४) एवम्पि पणिपातो दट्ठब्बो। सो पनेस आतिभयाचरियदक्खिणेय्यवसेन चतुब्बिधो होति । तत्थ दक्खिणेय्यपणिपातेन सरणगमनं होति, न इतरेहि। सेट्ठवसेनेव हि सरणं गण्हाति, 187 Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८८ दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गट्ठकथा (२.२५०-२५०) सेठ्ठवसेन च भिज्जति । तस्मा यो साकियो वा कोलियो वा- “बुद्धो अम्हाकं जातको''ति वन्दति, अग्गहितमेव होति सरणं । यो वा- “समणो गोतमो राजपूजितो महानुभावो अवन्दीयमानो अनत्थम्पि करेय्या''ति भयेन वन्दति, अग्गहितमेव होति सरणं । यो वा बोधिसत्तकाले भगवतो सन्तिके किञ्चि उग्गहितं सरमानो बुद्धकाले वा - "चतुधा विभजे भोगे, पण्डितो घरमावसं । एकेन भोगं भुजेय्य, द्वीहि कम्मं पयोजये । चतुत्थञ्च निधापेय्य, आपदासु भविस्सती"ति ।। (दी० नि० ३.२६५) __ एवरूपं अनुसासनिं उग्गहेत्वा - “आचरियो मे"ति वन्दति, अग्गहितमेव होति सरणं । यो पन - "अयं लोके अग्गदक्खिणेय्यो'"ति वन्दति, तेनेव गहितं होति सरणं । __ एवं गहितसरणस्स च उपासकस्स वा उपासिकाय वा अज्ञतित्थियेसु पब्बजितम्पि आतिं - "ञातको मे अय"न्ति वन्दतो सरणगमनं न भिज्जति, पगेव अपब्बजितं । तथा राजानं भयवसेन वन्दतो । सो हि रठ्ठपूजितत्ता अवन्दीयमानो अनत्थम्पि करेय्याति । तथा यं किञ्चि सिप्पं सिक्खापकं तित्थियम्पि- “आचरियो मे अय"न्ति वन्दतोपि न भिज्जति, एवं सरणगमनप्पभेदो वेदितब्बो । चत्तारि सामञफलानि विपाकफलं, एत्थ च लोकुत्तरस्स सरणगमनस्स सब्बदुक्खक्खयो आनिसंसफलं । वुत्तव्हेतं - “यो च बुद्धञ्च धम्मञ्च, सङ्घञ्च सरणं गतो । चत्तारि अरियसच्चानि, सम्मप्पय पस्सति ।। दुक्खं दुक्खसमुप्पादं, दुक्खस्स च अतिक्कम । अरियं अट्ठङ्गिकं मग्गं, दुक्खूपसमगामिनं ।। एतं खो सरणं खेमं, एतं सरणमुत्तमं । एतं सरणमागम्म, सब्बदुक्खा पमुच्चती''ति ।। (ध० प० १९२) 188 Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२.२५०-२५०) सरणगमनकथा १८९ अपि च निच्चादितो अनुपगमनादिवसेन पेतस्स आनिसंसफलं वेदितब्बं । वुत्तज्हेतं - "अट्ठानमेतं अनवकासो, यं दिट्ठिसम्पन्नो पुग्गलो कञ्चि सङ्खारं निच्चतो उपगच्छेय्य...पे०... कञ्चि सङ्खारं सुखतो...पे०... कञ्चि धम्मं अत्ततो उपगच्छेय्य...पे०... मातरं जीविता वोरोपेय्य...पे०... पितरं...पे०... अरहन्तं...पे०... पदुद्दचित्तो तथागतस्स लोहितं उप्पादेय्य...पे०.... सङ्घ भिन्देय्य...पे०... अनं सत्थारं उद्दिसेय्य, नेतं ठानं विज्जती''ति (अ० नि० १.१.२९०)। लोकियस्स पन सरणगमनस्स भवसम्पदापि भोगसम्पदापि फलमेव । वुत्तज्हेतं “ये केचि बुद्धं सरणं गतासे, न ते गमिस्सन्ति अपायभूमि । पहाय मानुसं देहं, देवकायं परिपूरेस्सन्ती'ति ।। (सं० नि० १.१.३७) अपरम्प वुत्तं - “अथ खो सक्को देवानमिन्दो असीतिया देवतासहस्सेहि सद्धिं येनायस्मा महामोग्गल्लानो तेनुपसङ्कमि...पे०... एकमन्तं ठितं खो सक्कं देवानमिन्दं आयस्मा महामोग्गल्लानो एतदवोच – “साधु खो, देवानमिन्द, बुद्धं सरणगमनं होति । बुद्धं सरणगमनहेतु खो, देवानमिन्द, एवमिधेकच्चे सत्ता कायस्स भेदा परम्मरणा सुगतिं सग्गं लोकं उपपज्जन्ति...पे०... ते अछे देवे दसहि ठानेहि अधिगण्हन्ति – दिब्बेन आयुना, दिब्बेन वण्णेन, दिब्बेन सुखेन, दिब्बेन यसेन, दिब्बेन आधिपतेय्येन, दिब्बेहि रूपेहि सद्देहि गन्धेहि रसेहि फोटुब्बेही''ति (सं० नि० २.४.३४१)। एस नयो धम्मे च सङ्घ च । अपि च वेलामसुत्तादीनं वसेनापि सरणगमनस्स फलविसेसो वेदितब्बो । एवं सरणगमनस्स फलं वेदितब्बं । तत्थ च लोकियसरणगमनं तीसु वत्थूसु अाणसंसयमिच्छाजाणादीहि संकिलिस्सति, न महाजुतिकं होति, न महाविप्फारं । लोकुत्तरस्स नत्थि संकिलेसो । लोकियस्स च सरणगमनस्स दुविधो भेदो- सावज्जो च अनवज्जो च । तत्थ सावज्जो अञसत्थारादीसु अत्तसन्निय्यातनादीहि होति, सो च अनिट्ठफलो होति । अनवज्जो कालकिरियाय होति, सो अविपाकत्ता अफलो। लोकुत्तरस्स पन नेवत्थि भेदो। भवन्तरेपि हि अरियसावको अचं सत्थारं न उद्दिसतीति । एवं सरणगमनस्स संकिलेसो च भेदो च वेदितब्बोति । उपासकं मं भन्ते भगवा धारेतूति मं भगवा “उपासको अय"न्ति एवं धारेतु, जानातूति अत्थो । उपासकविधिकोसल्लत्थं पनेत्थ - को उपासको ? कस्मा उपासकोति 189 Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९० दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गट्ठकथा (२.२५०-२५०) वुच्चति ? किमस्स सीलं ? को आजीवो ? का विपत्ति ? का सम्पत्तीति ? इदं पकिण्णकं वेदितब्बं । तत्थ को उपासकोति यो कोचि सरणगतो गहठ्ठो । वुत्त हेतं- “यतो खो, महानाम, बुद्धं सरणं गतो होति, धम्मं सरणं गतो होति, सङ्घ सरणं गतो होति । एत्तावता खो, महानाम, उपासको होती''ति (सं० नि० ३.५.१०३३)। कस्मा उपासकोति रतनत्तयं उपासनतो। सो हि बुद्धं उपासतीति उपासको, तथा धम्म संघं । किमस्स सीलन्ति पञ्च वेरमणियो। यथाह - “यतो खो, महानाम, उपासको पाणातिपाता पटिविरतो होति, अदिन्नादाना... कामेसुमिच्छाचारा... मुसावादा... सुरामेरयमज्जपमादट्ठाना पटिविरतो होति, एत्तावता खो, महानाम, उपासको सीलवा होती"ति (सं० नि० ३.५.१०३३)। को आजीवोति पञ्च मिच्छावणिज्जा पहाय धम्मेन समेन जीवितकप्पनं । वुत्तज्हेतं“पञ्चिमा, भिक्खवे, वणिज्जा उपासकेन अकरणीया। कतमा पञ्च ? सत्थवणिज्जा, सत्तवणिज्जा, मंसवणिज्जा, मज्जवणिज्जा, विसवणिज्जा । इमा खो, भिक्खवे, पञ्च वणिज्जा उपासकेन अकरणीयाति (अ० नि० २.५.१७७)। का विपत्तीति या तस्सेव सीलस्स च आजीवस्स च विपत्ति, अयमस्स विपत्ति । अपि च याय एस चण्डालो चेव होति, मलञ्च पतिकुट्ठो च, सापिस्स विपत्तीति वेदितब्बा। ते च अत्थतो अस्सद्धियादयो पञ्च धम्मा होन्ति । यथाह - “पञ्चहि, भिक्खवे, धम्मेहि समन्नागतो उपासको उपासकचण्डालो च होति, उपासकमलञ्च, उपासकपतिकुट्ठो च। कतमेहि पञ्चहि ? अस्सद्धो होति, दुस्सीलो होति, कोतूहलमङ्गलिको होति, मङ्गलं पच्चेति, नो कम्मं, इतो च बहिद्धा दक्खिणेय्यं परियेसति, तत्थ च पुब्बकारं करोती"ति (अ० नि० २.५.१७५)। का सम्पत्तीति या चस्स सीलसम्पदा चेव आजीवसम्पदा च, सा सम्पत्ति; ये चस्स रतनभावादिकरा सद्धादयो पञ्च धम्मा । यथाह – “पञ्चहि, भिक्खवे, धम्मेहि समन्नागतो 190 Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२.२५१ - २५१) सरणगमनकथा उपासको उपासकरतनञ्च होति, उपासकपदुमञ्च, उपासकपुण्डरीकञ्च । कतमेहि पञ्चहि ? सद्धो होति, सीलवा होति, न कोतूहलमङ्गलिको होति, कम्मं पच्चेति, नो मङ्गलं, न इतो बहिद्धा दक्खिणेय्यं गवेसति, इध च पुब्बकारं करोती 'ति (अ० नि० २.५.१७५) । अज्जतग्गेति एत्थायं अग्गसद्दो आदिकोटिकोट्ठाससेट्ठेसु दिस्सति । “अज्जतग्गे, सम्म दोवारिक, आवरामि द्वारं निगण्ठानं निगण्ठीन "न्तिआदीसु (म० नि० २.७०) हि आदिम्हि दिस्सति । "तेनेव अङ्गुलग्गेन तं अङ्गुलग्गं परामसेय्य । उच्छरगं वेळ "न्तिआदीसु (कथाव० २८१) कोटियं । " अम्बिलग्गं वा मधुरग्गं वा तित्तकग्गं वा विहारग्गेन वा परिवेणग्गेन वा भाजेतु' न्तिआदीसु ( चूळव० ३१७) कोट्ठासे । “यावता, भिक्खवे, सत्ता अपदा वा... पे०... तथागतो तेसं अग्गमक्खायती 'तिआदीसु (अ० नि० १.४.३४) सेट्टे । इध पनायं आदिम्हि दट्ठब्बो । तस्मा अज्जतग्गेति अज्जतं आदि कत्वाति एवमेत्थत्थो वेदितब्बो । अज्जतन्ति अज्जभावं । अज्जदग्गेति वा पाठो, दकारो पदसन्धिकरो । अज्ज अग्गन्ति अत्थो । १९१ पाणुपेतन्ति पाणेहि उपेतं । याव मे जीवितं पवत्तति, ताव उपेतं अनञ्ञसत्थुकं तीहि सरणगमनेहि सरणं गतं उपासकं कप्पियकारकं मं भगवा धारेतु जानातु । अहञ्हि सचेपि मे तिखिणेन असिना सीसं छिन्देय्य, नेव बुद्धं “ न बुद्धो 'ति वा, धम्मं "न धम्मो "ति वा, सङ्घं " न सङ्घो 'ति वा वदेय्यन्ति । एवं अत्तसन्निय्यातनेन सरणं गन्त्वा अत्तना कतं अपराधं पकासेन्तो अच्चयो मं, भन्तेति आदिमाह । तत्थ अच्चयोति अपराधो । मं अच्चगमाति मं अतिक्कम्म अभिभवित्वा पवत्तो । धम्मिकं धम्मराजानन्ति एत्थ धम्मं चरतीति धम्मिको । धम्मेनेव राजा जातो, न पितुघातनादिना अधम्मेनाति धम्मराजा । जीविता वोरोपेसिन्ति जीविता वियोजेसिं । पटिग्गहातूति खमतु । आयतिं संवरायाति अनागते संवरत्थाय । पुन एवरूपस्स अपराधस्स दोसस्स खलितस्स अकरणत्थाय । २५१. तग्घाति एकंसे निपातो । यथा धम्मं पटिकरोसीति यथा धम्मो ठितो तथेव करोसि, खमापेसीति वृत्तं होति । तं ते मयं पटिग्गण्हामाति तं तव अपराधं मयं खमाम । वुडिसा, महाराज अरियस्स विनयेति एसा, महाराज, अरियस्स विनये बुद्धस्स 191 Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 192 दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गट्ठकथा (2.252-253) भगवतो सासने बुड्डि नाम / कतमा ? यायं अच्चयं अच्चयतो दिस्वा यथाधम्म पटिकरित्वा आयतिं संवरापज्जना, देसनं पन पुग्गलाधिट्टानं करोन्तो - “यो अच्चयं अच्चयतो दिस्वा यथाधम्मं पटिकरोति, आयतिं संवरं आपज्जती''ति आह। __ 252. एवं वुत्तेति एवं भगवता वुत्ते / हन्द च दानि मयं भन्तेति एत्थ हन्दाति वचसायत्थे निपातो / सो हि गमनवचसायं कत्वा एवमाह / बहुकिच्चाति बलवकिच्चा / बहुकरणीयाति तस्सेव वेवचनं / यस्सदानि त्वन्ति यस्स इदानि त्वं महाराज गमनस्स कालं मञ्जसि जानासि, तस्स कालं त्वमेव जानासीति वुत्तं होति / पदक्खिणं कत्वा पक्कामीति तिक्खत्तुं पदक्खिणं कत्वा दसनखसमोधानसमुज्जलं अञ्जलिं सिरसि पतिठ्ठपेत्वा याव दस्सनविसयं भगवतो अभिमुखोव पटिक्कमित्वा दस्सनविजहनट्ठानभूमियं पञ्चपतिहितेन वन्दित्वा पक्कामि / 253. खतायं, भिक्खवे, राजाति खतो अयं, भिक्खवे, राजा। उपहतायन्ति उपहतो अयं / इदं वुत्तं होति- अयं, भिक्खवे, राजा खतो उपहतो भिन्नपतिट्ठो जातो, तथानेन अत्तनाव अत्ता खतो, यथा अत्तनो पतिठ्ठा न जाताति / विरजन्ति रागरजादिविरहितं / रागमलादीनंयेव विगतत्ता वीतमलं। धम्मचक्खुन्ति धम्मेसु वा चक्खुं, धम्ममयं वा चर्पा, अओसु ठानेसु तिण्णं मग्गानमेतं अधिवचनं / इध पन सोतापत्तिमग्गस्सेव / इदं वुत्तं होति- सचे इमिना पिता घातितो नाभविस्स, इदानि इधेवासने निसिन्नो सोतापत्तिमग्गं पत्तो अभविस्स, पापमित्तसंसग्गेन पनस्स अन्तरायो जातो / एवं सन्तेपि यस्मा अयं तथागतं उपसङ्कमित्वा रतनत्तयं सरणं गतो, तस्मा मम सासनमहन्तताय यथा नाम कोचि पुरिसस्स वधं कत्वा पुप्फमुट्ठिमत्तेन दण्डेन मुच्चेय्य, एवमेव लोहकुम्भियं निब्बत्तित्वा तिसवस्ससहस्सानि अधो पतन्तो हेट्ठिमतलं पत्वा तिंसवस्ससहस्सानि उद्धं गच्छन्तो पुनपि उपरिमतलं पापुणित्वा मुच्चिस्सतीति इदम्पि किर भगवता वुत्तमेव, पाळियं पन न आरूळ्हं / - इदं पन सुत्तं सुत्वा रञा कोचि आनिसंसो लद्धोति ? महाआनिसंसो लद्धो। अयहि पितु मारितकालतो पट्ठाय नेव रत्तिं न दिवा निदं लभति, सत्थारं पन उपसङ्कमित्वा इमाय मधुराय ओजवन्तिया धम्मदेसनाय सुतकालतो पट्ठाय निदं लभि / तिण्णं रतनानं महासक्कारं अकासि / पोथुज्जनिकाय सद्धाय समन्नागतो नाम इमिना रञा सदिसो नाहोसि। अनागते पन विजितावी नाम पच्चेकबुद्धो हुत्वा 192 Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (2.253-253) सरणगमनकथा 193 परिनिब्बायिस्सतीति / इदमवोच भगवा / अत्तमना ते भिक्खू भगवतो भासितं अभिनन्दुन्ति / इति सुमङ्गलविलासिनिया दीघनिकायट्ठकथायं सामञफलसुत्तवण्णना निहिता। 193 Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 3. अम्बट्ठसुत्तवण्णना अद्धानगमनवण्णना 254. एवं मे सुतं...पे०... कोसलेसूति अम्बठ्ठसुत्तं / तत्रायं अपुब्बपदवण्णना / कोसलेसूति कोसला नाम जानपदिनो राजकुमारा / तेसं निवासो एकोपि जनपदो रूळहीसद्देन कोसलाति वुच्चति, तस्मिं कोसलेसु जनपदे / पोराणा पनाहु- यस्मा पुब्बे महापनादं राजकुमारं नानानाटकादीनि दिस्वा सितमत्तम्पि अकरोन्तं सुत्वा राजा आह -- “यो मम पुत्तं हसापेति, सब्बालङ्कारेन नं अलङ्करोमी"ति / ततो नङ्गलानिपि छड्डेत्वा महाजनकाये सन्निपतिते मनुस्सा सातिरेकानि सत्तवस्सानि नानाकीळायो दस्सेत्वापि तं हसापेतुं नासक्खिंसु, ततो सक्को देवराजा नाटकं पेसेसि, सो दिब्बनाटकं दस्सेत्वा हसापेसि / अथ ते मनुस्सा अत्तनो अत्तनो वसनोकासाभिमुखा पक्कमिंसु / ते पटिपथे मित्तसुहज्जादयो दिस्वा पटिसन्थारं करोन्ता - “कच्चि भो कुसलं, कच्चि भो कुसल"न्ति आहेसु / तस्मा तं "कुसल"न्ति वचनं उपादाय सो पदेसो कोसलाति वुच्चतीति / चारिकं चरमानोति अद्धानगमनं गच्छन्तो। चारिका च नामेसा भगवतो दुविधा होति- तुरितचारिका च, अतुरितचारिका च / तत्थ दूरेपि बोधनेय्यपुग्गलं दिस्वा तस्स बोधनत्थाय सहसा गमनं तुरितचारिका नाम, सा महाकस्सपस्स पच्चुग्गमनादीसु दट्टब्बा / भगवा हि महाकस्सपत्थेरं पच्चुग्गच्छन्तो मुहुत्तेन तिगावुतं मग्गं अगमासि / आळवकस्सत्थाय तिंसयोजनं, तथा अङ्गुलिमालस्स / पक्कुसातिस्स पन पञ्चचत्तालीसयोजनं / महाकप्पिनस्स वीसयोजनसतं / धनियस्सत्थाय सत्तयोजनसतानि अगमासि / धम्मसेनापतिनो सद्धिविहारिकस्स वनवासीतिस्ससामणेरस्स तिगावुताधिकं वीसयोजनसतं / एकदिवसं किर थेरो- “तिस्ससामणेरस्स सन्तिकं, भन्ते, गच्छामी''ति आह / 194 Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (3.254-254) अद्धानगमनवण्णना 195 भगवा- “अहम्पि गमिस्सामी"ति वत्वा आयस्मन्तं आनन्दं आमन्तेसि - “आनन्द, वीसतिसहस्सानं छळभिञानं आरोचेहि, भगवा किर वनवासिस्स तिस्ससामणेरस्स सन्तिकं गमिस्सती''ति / ततो दुतियदिवसे वीसतिसहस्सखीणासवपरिवारो आकासे उप्पतित्वा वीसतियोजनसतमत्थके तस्स गोचरगामद्वारे ओतरित्वा चीवरं पारुपि / तं कम्मन्तं गच्छमाना मनुस्सा दिस्वा -- “सत्था नो आगतो, मा कम्मन्तं अगमित्था"ति वत्वा आसनानि पञपेत्वा यागुं दत्वा पातरासभत्तं करोन्ता - "कुहि, भन्ते, भगवा गच्छती"ति दहरभिक्खू पुच्छिंसु। उपासका न भगवा अञ्जत्थ गच्छति, इधेव तिस्ससामणेरस्स दस्सनत्थायागतोति / ते - “अम्हाकं कुलूपकस्स किर थेरस्स दस्सनत्थाय सत्था आगतो, नो वत नो थेरो ओरमत्तको"ति सोमनस्सजाता अहेसुं / अथ खो भगवतो भत्तकिच्चपरियोसाने सामणेरो गामे पिण्डाय चरित्वा - "उपासका, महाभिक्खुसङ्घो''ति पुच्छि / अथस्स ते “सत्था, भन्ते, आगतो"ति आरोचेसुं / सो भगवन्तं उपसङ्कमित्वा पिण्डपातेन आपुच्छि / सत्था तस्स पत्तं हत्थेन गहेत्वा - “अलं, तिस्स, निद्वितं भत्तकिच्च"न्ति आह / ततो उपज्झायं आपुच्छित्वा अत्तनो पत्तासने निसीदित्वा भत्तकिच्चमकासि / अथस्स भत्तकिच्चपरियोसाने सत्था मङ्गलं वत्वा निक्खमित्वा गामद्वारे ठत्वा - “कतरो ते, तिस्स, वसनट्ठानं गतमग्गो"ति आह / अयं भगवाति / मग्गं देसयमानो पुरतो याहि तिस्साति / भगवा 'किर सदेवकस्स लोकस्स मग्गदेसकोपि समानो सकले तिगावुते मग्गे ‘सामणेरं दटुं लच्छामी'ति तं मग्गदेसकं अकासि / सो अत्तनो वसनट्ठानं गन्त्वा भगवतो वत्तमकासि | अथ नं भगवा - "कतरो ते, तिस्स, चङ्कमो''ति पुच्छित्वा तत्थ गन्त्वा सामणेरस्स निसीदनपासाणे निसीदित्वा“तिस्स, इमस्मिं ठाने सुखं वसी''ति पुच्छि। सो आह - “आम, भन्ते, इमस्मिं ठाने वसन्तस्स सीहब्यग्घहत्थिमिगमोरादीनं सदं सुणतो अरञ्जसा उप्पज्जति, ताय सुखं वसामी"ति। अथ नं भगवा - “तिस्स, भिक्खुसद्धं सन्निपातेहि, बुद्धदायज्जं ते दस्सामी"ति वत्वा सन्निपतिते भिक्खुसङ्घ उपसम्पादेत्वा अत्तनो वसनट्ठानमेव अगमासीति / अयं तुरितचारिका नाम / यं पन गामनिगमपटिपाटिया देवसिकं योजनद्वियोजनवसेन पिण्डपातचरियादीहि लोकं अनुग्गण्हन्तस्स गमनं, अयं अतुरितचारिका नाम / इमं पन चारिकं चरन्तो भगवा महामण्डलं, मज्झिममण्डलं, अन्तोमण्डलन्ति इमेसं तिण्णं मण्डलानं अञ्जतरस्मिं चरति / तत्थ महामण्डलं नवयोजनसतिकं, मज्झिममण्डलं 195 Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 196 दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गट्ठकथा (3.254-254) छयोजनसतिकं, अन्तोमण्डलं तियोजनसतिकं / यदा महामण्डले चारिकं चरितुकामो होति, महापवारणाय पवारेत्वा पाटिपददिवसे . महाभिक्खुसङ्घपरिवारो निक्खमति / समन्ता योजनसतं एककोलाहलं होति / पुरिमं पुरिमं आगता निमन्तेतुं लभन्ति / इतरेसु द्वीसु मण्डलेसु सक्कारो महामण्डले ओसरति / तत्थ भगवा तेसु तेसु गामनिगमेसु एकाहं द्वीहं वसन्तो महाजनं आमिसप्पटिग्गहेन अनुग्गण्हन्तो धम्मदानेन चस्स विवट्टसन्निस्सितं कुसलं वड्वेन्तो नवहि मासेहि चारिकं परियोसापेति / सचे पन अन्तोवस्से भिक्खून समथविपस्सना तरुणा होन्ति, महापवारणाय अपवारेत्वा पवारणासङ्गहं दत्वा कत्तिकपुण्णमायं पवारेत्वा मिगसिरस्स पठमपाटिपददिवसे महाभिक्खुसङ्घपरिवारो निक्खमित्वा मज्झिममण्डले ओसरति / अओनपि कारणेन मज्झिममण्डले चारिकं चरितुकामो चतुमासं वसित्वाव निक्खमति / वुत्तनयेनेव इतरेसु द्वीसु मण्डलेसु सक्कारो मज्झिममण्डले ओसरति / भगवा पुरिमनयेनेव लोकं अनुग्गण्हन्तो अट्ठहि मासेहि चारिकं परियोसापेति / सचे पन चतुमासं वुत्थवस्सस्सापि भगवतो वेनेय्यसत्ता अपरिपक्किन्द्रिया होन्ति, तेसं इन्द्रियपरिपाकं आगमयमानो अपरम्प एकमासं वा द्वितिचतुमासं वा तत्थेव वसित्वा महाभिक्खुसङ्घपरिवारो निक्खमति / वुत्तनयेनेव इतरेसु द्वीसु मण्डलेसु सक्कारो अन्तोमण्डले ओसरति / भगवा पुरिमनयेनेव लोकं अनुग्गण्हन्तो सत्तहि वा छहि वा पञ्चहि वा चतूहि वा मासेहि चारिकं परियोसापेति / इति इमेसु तीसु मण्डलेसु यत्थ कत्थचि चारिकं चरन्तो न चीवरादिहेतु चरति / अथ खो ये दुग्गतबालजिण्णब्याधिता, ते कदा तथागतं आगन्त्वा पस्सिस्सन्ति / मयि पन चारिकं चरन्ते महाजनो तथागतस्स दस्सनं लभिस्सति / तत्थ केचि चित्तानि पसादेस्सन्ति, केचि मालादीहि पूजेस्सन्ति, केचि कटच्छुभिक्खं दस्सन्ति, केचि मिच्छादस्सनं पहाय सम्मादिट्ठिका भविस्सन्ति / तं नेसं भविस्सति दीघरत्तं हिताय सुखायाति / एवं लोकानुकम्पकाय चारिकं चरति / अपि च चतूहि कारणेहि बुद्धा भगवन्तो चारिकं चरन्ति, जङ्घविहारवसेन सरीरफासुकत्थाय, अत्थुप्पत्तिकालाभिकङ्घनत्थाय, भिक्खूनं सिक्खापदपञापनत्थाय, तत्थ तत्थ परिपाकगतिन्द्रिये बोधनेय्यसत्ते बोधनत्थायाति / अपरेहिपि चतूहि कारणेहि बुद्धा भगवन्तो चारिकं चरन्ति बुद्धं सरणं गच्छिस्सन्तीति वा, धम्मं, सद्धं सरणं गच्छिस्सन्तीति वा, महता धम्मवस्सेन चतस्सो परिसा सन्तप्पेस्सामीति वा / अपरेहिपि पञ्चहि कारणेहि बुद्धा भगवन्तो चारिकं चरन्ति पाणातिपाता विरमिस्सन्तीति वा, अदिन्नादाना, कामेसुमिच्छाचारा, मुसावादा, सुरामेरयमज्जपमादट्ठाना विरमिस्सन्तीति वा / अपरेहिपि अट्ठहि कारणेहि बुद्धा भगवन्तो चारिकं चरन्ति- पठमं झानं पटिलभिस्सन्तीति वा, 196 Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (3.255-255) पोक्खरसातिवत्थुवण्णना 197 दुतियं झानं...पे०... नेवसञानासायतनसमापत्तिं पटिलभिस्सन्तीति वा। अपरेहिपि सोतापत्तिफलं...पे०... अरहत्तफलं सच्छिकरिस्सन्तीति वाति / अयं अतुरितचारिका, इध चारिकाति अधिप्पेता / सा पनेसा दुविधा होति- अनिबद्धचारिका च निबद्धचारिका च / तत्थ यं गामनिगमनगरपटिपाटिवसेन चरति, अयं अनिबद्धचारिका नाम / यं पनेकस्सेव बोधनेय्यसत्तस्सत्थाय गच्छति, अयं निबद्धचारिका नाम / एसा इध अधिप्पेता / तदा किर भगवतो पच्छिमयामकिच्चपरियोसाने दससहस्सिलोकधातुया जाणजालं पत्थरित्वा बोधनेय्यबन्धवे ओलोकेन्तस्स पोक्खरसातिब्राह्मणो सब्ब तज्ञाणजालस्स अन्तो पविट्ठो। अथ भगवा अयं ब्राह्मणो मय्हं आणजाले पञ्चायति, “अस्थि नु ख्वस्स उपनिस्सयो"ति वीमंसन्तो सोतापत्तिमग्गस्स उपनिस्सयं दिस्वा- “एसो मयि एतं जनपदं गते लक्खणपरियेसनत्थं अम्बटुं अन्तेवासिं पहिणिस्सति, सो मया सद्धिं वादपटिवादं कत्वा नानप्पकारं असब्भिवाक्यं वक्खति, तमहं दमेत्वा निब्बिसेवनं करिस्सामि / सो आचरियस्स कथेस्सति, अथस्साचरियो तं कथं सुत्वा आगम्म मम लक्खणानि परियेसिस्सति, तस्साहं धम्मं देसेस्सामि। सो देसनापरियोसाने सोतापत्तिफले पतिट्टहिस्सति / देसना महाजनस्स सफला भविस्सती"ति पञ्चभिक्खुसतपरिवारो तं जनपदं पटिपन्नो / तेन वुत्तं - “कोसलेसु चारिकं चरमानो महता भिक्खुसङ्घन सद्धिं पञ्चमत्तेहि भिक्खुसतेही''ति / येन इच्छानङ्गलन्ति येन दिसाभागेन इच्छानङ्गलं अवसरितब्बं / यस्मिं वा पदेसे इच्छानङ्गलं / इज्झानङ्गलन्तिपि पाठो। तदवसरीति तेन अवसरि, तं वा अवसरि / तेन दिसाभागेन गतो, तं वा पदेसं गतोति अत्थो / इच्छानङ्गले विहरति इच्छानङ्गलवनसण्डेति इच्छानङ्गलं उपनिस्साय इच्छानङ्गलवनसण्डे सीलखन्धावारं बन्धित्वा समाधिकोन्तं उस्सापेत्वा सब्ब ताणसरं परिवत्तयमानो धम्मराजा यथाभिरुचितेन विहारेन विहरति / पोक्खरसातिवत्थुवण्णना 255. तेन खो पन समयेनाति येन समयेन भगवा तत्थ विहरति, तेन समयेन, तस्मिं समयेति अयमत्थो / ब्रह्म अणतीति ब्राह्मणो, मन्ते सज्झायतीति अत्थो / इदमेव हि जातिब्राह्मणानं निरुत्तिवचनं / अरिया पन बाहितपापत्ता ब्राह्मणाति वुच्चन्ति / 197 Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 198 दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गट्ठकथा (3.255-255) पोक्खरसातीति इदं तस्स नामं / कस्मा पोक्खरसातीति वुच्चति / तस्स किर कायो सेतपोक्खरसदिसो. देवनगरे उस्सापितरजततोरणं विय सोभति। सीसं पनस्स काळवणं इन्दनीलमणिमयं विय / मस्सुपि चन्दमण्डले काळमेघराजि विय खायति / अक्खीनि नीलुप्पलसदिसानि / नासा रजतपनाळिका विय सुवट्टिता सुपरिसुद्धा / हत्थपादतलानि चेव मुखद्वारञ्च कतलाखारसपरिकम्मं विय सोभति, अतिविय सोभग्गप्पत्तो ब्राह्मणस्स अत्तभावो / अराजके ठाने राजानं कातुं युत्तमिमं ब्राह्मणं / एवमेस सस्सिरिको। इति नं पोक्खरसदिसत्ता पोक्खरसातीति सञ्जानन्ति / अयं पन कस्सपसम्मासम्बुद्धकाले तिण्णं वेदानं पारगू दसबलस्स दानं दत्वा धम्मदेसनं सुत्वा देवलोके निब्बत्ति / सो ततो मनुस्सलोकमागच्छन्तो मातुकुच्छिवासं जिगुच्छित्वा हिमवन्तपदेसे महासरे पदुमगब्भे निब्बत्ति / तस्स च सरस्स अविदूरे तापसो पण्णसालाय वसति / सो तीरे ठितो तं पदुमं दिस्वा- “इदं पदुमं अवसेसपदुमेहि महन्ततरं / पुप्फितकाले नं गहेस्सामी''ति चिन्तेसि / तं सत्ताहेनापि न पुप्फति / तापसो कस्मा नु खो इदं सत्ताहेनापि न पुप्फति / हन्द नं गहेस्सामीति ओतरित्वा गण्हि / तं तेन नाळतो छिन्नमत्तंयेव पुप्फितं / अथस्सब्भन्तरे सुवण्णचुण्णपिञ्जरं विय रजतबिम्बकं पदुमरेणुपिञ्जरं सेतवण्णं दारकं अद्दस / सो महापुञो एस भविस्सति / हन्द नं पटिजग्गामीति पण्णसालं नेत्वा पटिजग्गित्वा सत्तवस्सकालतो पट्ठाय तयो वेदे उग्गण्हापेसि / दारको तिण्णं वेदानं पारं गन्त्वा पण्डितो ब्यत्तो जम्बुदीपे अग्गब्राह्मणो अहोसि / सो अपरेन समयेन रो कोसलस्स सिप्पं दस्सेसि / अथस्स सिप्पे पसन्नो राजा उक्कटुं नाम महानगरं ब्रह्मदेय्यं अदासि / इति नं पोक्खरे सयितत्ता पोक्खरसातीति सञ्जानन्ति / उक्कटुं अज्झावसतीति उक्कट्ठनामके नगरे वसति / अभिभवित्वा वा आवसति / तस्स नगरस्स सामिको हुत्वा याय मरियादाय तत्थ वसितब्बं, ताय मरियादाय वसि / तस्स किर नगरस्स वत्थु उक्का ठपेत्वा उक्कासु जलमानासु अग्गहेसुं, तस्मा तं उक्कट्ठन्ति वुच्चति / ओक्कट्ठन्तिपि पाठो, सोयेवत्थो / उपसग्गवसेन पनेत्थ भुम्मत्थे उपयोगवचनं वेदितब्बं / तस्स अनुपयोगत्ता च सेसपदेसु। तत्थ लक्खणं सद्दसत्थतो परियेसितब्बं / सत्तुस्सदन्ति सत्तेहि उस्सदं, उस्सन्नं बहुजनं आकिण्णमनुस्सं / 198 Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (3.255-255) पोक्खरसातिवत्थुवण्णना 199 पोसावनियहत्थिअस्समोरमिगादिअनेकसत्तसमाकिण्णञ्चाति अत्थो / यस्मा पनेतं नगरं बहि दारुकठेहि चेव गेहसम्भारकडेहि च। यस्मा चस्सब्भन्तरे वट्टचतुरस्सादिसण्ठाना बहू पोक्खरणियो जलजकुसुमविचित्तानि च बहूनि अनेकानि तळाकानि उदकस्स निच्चभरितानेव होन्ति, तस्मा सतिणकट्ठोदकन्ति वुत्तं / सह धजेनाति सधनं पुब्बण्णापरण्णादिभेदं बहुधञसन्निचयन्ति अत्थो / एत्तावता यस्मिं नगरे ब्राह्मणो सेतच्छत्तं उस्सापेत्वा राजलीलाय वसति, तस्स समिद्धिसम्पत्ति दीपिता होति। राजतो लद्धं भोग्गं राजभोग्गं। केन दिन्नन्ति चे? रञा पसेनदिना कोसलेन दिन्नं / राजदायन्ति रञो दायभूतं, दायज्जन्ति अत्थो / ब्रह्मदेय्यन्ति सेट्ठदेय्यं, छत्तं उस्सापेत्वा राजसझेपेन भुजितब्बन्ति अत्थो। अथ वा राजभोग्गन्ति सब्बं छेज्जभेज्जं अनुसासन्तेन नदीतित्थपब्बतादीसु सुकं गण्हन्तेन सेतच्छत्तं उस्सापेत्वा रा हुत्वा भुजितब्बं / रञा पसेनदिना कोसलेन दिन्नं राजदायन्ति एत्थ तं नगरं रञा दिन्नत्ता राजदायं दायकराजदीपनत्थं पनस्स "रञा पसेनदिना कोसलेन दिन"न्ति इदं वुत्तं / ब्रह्मदेय्यन्ति सेट्ठदेय्यं / यथा दिन्नं न पुन गहेतब्बं होति, निस्सट्ठ परिच्चत्तं / एवं दिन्नन्ति अत्थो / अस्सोसीति सुणि उपलभि, सोतद्वारसम्पत्तवचननिग्घोसानुसारेन अासि / खोति अवधारणत्थे पदपूरणमत्ते वा निपातो / तत्थ अवधारणत्थेन अस्सोसि एव, नास्स कोचि सवनन्तरायो अहोसीति अयमत्थो वेदितब्बो / पदपूरणेन पन पदब्यञ्जनसिलिट्ठतामत्तमेव / इदानि यमत्थं ब्राह्मणो पोक्खरसाति अस्सोसि, तं पकासेन्तो– “समणो खलु भो गोतमो"तिआदिमाह / तत्थ समितपापत्ता समणोति वेदितब्बो। वुत्तज्हेतं- “समितास्स होन्ति पापका अकुसला धम्मा"तिआदि (म० नि० 1.434) / भगवा च अनुत्तरेन अरियमग्गेन समितपापो / तेनस्स यथाभूतगुणाधिगतमेतं नामं, यदिदं समणोति / खलूति अनुस्सवनत्थे निपातो। भोति ब्राह्मणजातिसमुदागतं आलपनमत्तं / वुत्तम्पि चेतं- “भोवादी नाम सो होति, सचे होति सकिञ्चनो'"ति (ध० प० 55) / गोतमोति भगवन्तं गोत्तवसेन परिकित्तेति / तस्मा समणो खलु भो गोतमोति एत्थ समणो किर भो गोतमगोत्तोति एवमत्थो दट्ठब्बो / 199 Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०० दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गट्ठकथा (३.२५६-२५६) __ सक्यपुत्तोति इदं पन भगवतो उच्चाकुलपरिदीपनं । सक्यकुला पब्बजितोति सद्धापब्बजितभावपरिदीपनं । केनचि पारिजुञ्जेन अनभिभूतो अपरिक्खीणंयेव तं कुलं पहाय सद्धाय पब्बजितोति वुत्तं होति । ततो परं वुत्तत्थमेव । तं खो पनातिआदि सामञफले वुत्तमेव । साधु खो पनाति सुन्दरं खो पन । अत्थावहं सुखावहन्ति वुत्तं होति । तथारूपानं अरहतन्ति यथारूपो सो भवं गोतमो, एवरूपानं यथाभूतगुणाधिगमेन लोके अरहन्तोति लद्धसद्धानं अरहतं । दस्सनं होतीति पसादसोम्मानि अक्खीनि उम्मीलेत्वा दस्सनमत्तम्पि साधु होतीति, एवं अज्झासयं कत्वा । अम्बट्ठमाणवकथा २५६. अज्झायकोति इदं - “न दानिमे झायन्ति, न दानिमे झायन्तीति खो, वासेठ्ठ, अज्झायका अज्झायका त्वेव ततियं अक्खरं उपनिब्बत्त"न्ति, एवं पठमकप्पिककाले झानविरहितानं ब्राह्मणानं गरहवचनं । इदानि पन तं अज्झायतीति अज्झायको। मन्ते परिवत्तेतीति इमिना अत्थेन पसंसावचनं कत्वा वोहरन्ति । मन्ते धारेतीति मन्तधरो। तिण्णं वेदानन्ति इरुवेदयजुवेदसामवेदानं । ओट्टपहतकरणवसेन पारं गतोति पारगू। सह निघण्डुना च केटुभेन च सनिघण्डुकेटुभानं। निघण्डूति निघण्डुरुक्खादीनं वेवचनपकासकं सत्थं । केटुभन्ति किरियाकप्पविकप्पो कवीनं उपकारावहं सत्थं । सह अक्खरप्पभेदेन साक्खरप्पभेदानं। अक्खरप्पभेदोति सिक्खा च निरुत्ति च । इतिहासपञ्चमानन्ति आथब्बणवेदं चतुत्थं कत्वा इतिह आस, इतिह आसाति ईदिसवचनपटिसंयुत्तो पुराणकथासङ्खातो इतिहासो पञ्चमो एतेसन्ति इतिहासपञ्चमा, तेसं इतिहासपञ्चमानं वेदानं । पदं तदवसेसञ्च ब्याकरणं अधीयति वेदेति चाति पदको वेय्याकरणो। लोकायतं वुच्चति वितण्डवादसत्थं । महापुरिसलक्खणन्ति महापुरिसानं बुद्धादीनं लक्खणदीपकं द्वादससहस्सगन्थपमाणं सत्थं । यत्थ सोळससहस्सगाथापरिमाणा बुद्धमन्ता नाम अहेसुं, येसं वसेन इमिना लक्खणेन समन्नागता बुद्धा नाम होन्ति, इमिना पच्चेकबुद्धा, इमिना द्वे अग्गसावका, असीति महासावका, बुद्धमाता, बुद्धपिता, अग्गुपट्ठाको, अग्गुपट्टायिका, राजा चक्कवत्तीति अयं विसेसो पायति । 200 Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३.२५७-२५८) अम्बट्टमाणवकथा अनवयोति इमेसु लोकायतमहापुरिसलक्खणेसु अनूनो परिपूरकारी, अवयो न होतीति वृत्तं होति । अवयो नाम यो तानि अत्थतो च गन्थतो च सन्धारेतुं न सक्कोति । अनुञ्ञातपटिञ्ञातोति अनुञ्ञातो चेव पटिञ्ञतो च । आचरियेनस्स “यं अहं जानामि, तं त्वं जानासी”तिआदिना अनुञ्ञातो । "आम आचरिया" ति अत्तना तस्स पटिवचनदानपटिञ्ञाय पटिञ्ञातोति अत्थो । कतरस्मिं अधिकारे ? सके आचरियके तेविज्जके पावचने । एस किर ब्राह्मणो चिन्तेसि “इमस्मिं लोके 'अहं बुद्धो, अहं बुद्धो 'ति उग्गतस्स नामं गत्वा बहू जना विचरन्ति । तस्मा न मे अनुरसवमत्तेनेव उपसङ्कमितुं युत्तं । एकच्चञ्हि उपसङ्कमन्तस्स अपक्कमनम्पि गरु होति, अनत्थोपि उप्पज्जति । यंनूनाहं मम अन्तेवासिकं पेसेत्वा - 'बुद्धो वा, नो वा'ति जानित्वाव उपसङ्कमेय्यन्ति, तस्मा माणवं आमन्तेत्वा अयं तातातिआदिमाह । २५७. तं भवन्तन्ति तस्स भोतो गोतमस्स । तथा सन्तं येवाति तथा सतोयेव । इधापि हि इत्थम्भूताख्यानत्थवसेनेव उपयोगवचनं । २०१ २५८. यथा कथं पनाहं, भो, तन्ति एत्थ कथं पनाहं भो तं भवन्तं गोतमं जानिस्सामि यथा सक्का सो जातुं तथा मे आचिक्खाहीति अत्थो । यथाति वा निपातमत्तमेवेतं | कथन्ति अयं आकारपुच्छा । केनाकारेनाहं तं भवन्तं गोतमं जानिस्सामीति अत्थो । एवं वुत्ते किर नं उपज्झायो "किं त्वं, तात, पथवियं ठितो, पथविं न पस्सामीति विय; चन्दिमसूरियानं ओभासे ठितो, चन्दिमसूरिये न पस्सामीति विय वदसी”तिआदीनि वत्वा जाननाकारं दस्सेन्तो आगतानि खो, ताताति आदिमाह । तत्थ मन्तेसूति वेदेसु । तथागतो किर उप्पज्जिस्सतीति पटिकच्चेव सुद्धावासा देवा वेदेसु लक्खणानि पक्खिपित्वा बुद्धमन्ता नामेतेति ब्राह्मणवेसेनेव वेदे वाचेन्ति । तदनुसारेन महेसक्खा सत्ता तथागतं जानिस्सन्तीति । तेन पुब्बे वेदेसु महापुरिसलक्खणानि आगच्छन्ति । परिनिब्बुते पन तथागते अनुक्कमेन अन्तरधायन्ति । तेनेतरहि नत्थीति । महापुरिसस्साति पणिधिसमादानञणकरुणादिगुणमहतो पुरिसस्स । द्वेयेव गतियोति द्वेयेव निट्ठा। कामञ्चायं गतिसद्दो “पञ्च खो इमा, सारिपुत्त, गतियो "तिआदीसु (म० नि० १.१५३) भवभेदे वत्तति । " गति मिगानं पवन "न्तिआदीसु (परि० ३९९ ) निवासट्ठाने | “एवं अधिमत्तगतिमन्तो "तिआदीसु पञ्ञायं । “गतिगत "न्तिआदीसु विसभावे । इध पन निट्ठायं वत्ततीति वेदितब्बो | 201 Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०२ दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गट्ठकथा (३.२५८-२५८) तत्थ किञ्चापि येहि लक्खणेहि समन्नागतो राजा चक्कवत्ती होति, न तेहेव बुद्धो होति; जातिसामञतो पन तानियेव तानीति वुच्चन्ति । तेन वुत्तं - "येहि समन्नागतस्सा"ति । सचे अगारं अज्झावसतीति यदि अगारे वसति । राजा होति चक्कवत्तीति चतूहि अच्छरियधम्मेहि, सङ्गहवत्थूहि च लोकं रञ्जनतो राजा, चक्करतनं वत्तेति, चतूहि सम्पत्तिचक्केहि वत्तति, तेहि च परं वत्तेति, परहिताय च इरियापथचक्कानं वत्तो एतस्मिं अत्थीति चक्कवत्ती। एत्थ च राजाति सामधे । चक्कवत्तीति विसेसं । धम्मेन चरतीति धम्मिको। आयेन समेन वत्ततीति अत्थो । धम्मेन रज्जं लभित्वा राजा जातोति धम्मराजा। परहितधम्मकरणेन वा धम्मिको। अत्तहितधम्मकरणेन धम्मराजा। चतुरन्ताय इस्सरोति चातुरन्तो, चतुसमुद्दअन्ताय, चतुब्बिधदीपविभूसिताय पथविया इस्सरोति अत्थो । अज्झत्तं कोपादिपच्चत्थिके बहिद्धा च सब्बराजानो विजेतीति विजितावी। जनपदत्थावरियप्पत्तोति जनपदे धुवभावं थावरभावं पत्तो, न सक्का केनचि चालेतुं । जनपदो वा तम्हि थावरियप्पत्तो अनुयुत्तो सकम्मनिरतो अचलो असम्पवेधीतिजनपदत्थावरियप्पत्तो । सेय्यथिदन्ति निपातो, तस्स चेतानि कतमानीति अत्थो। चक्करतनन्तिआदीसु चक्कञ्च, तं रतिजननटेन रतनञ्चाति चक्करतनं । एस नयो सब्बत्थ | इमेसु पन रतनेसु अयं चक्कवत्तिराजा चक्करतनेन अजितं जिनाति, हथिअस्सरतनेहि विजिते यथासुखं अनुचरति, परिणायकरतनेन विजितमनुरक्खति, अवसेसेहि उपभोगसुखमनुभवति । पठमेन चस्स उस्साहसत्तियोगो, पच्छिमेन मन्तसत्तियोगो, हत्थिअस्सगहपतिरतनेहि पभुसत्तियोगो सुपरिपुण्णो होति, इत्थिमणिरतनेहि तिविधसत्तियोगफलं। सो इत्थिमणिरतनेहि भोगसुखमनुभवति, सेसेहि इस्सरियसुखं । विसेसतो चस्स पुरिमानि तीणि अदोसकुसलमूलजनितकम्मानुभावेन सम्पज्जन्ति, मज्झिमानि अलोभकुसलमूलजनितकम्मानुभावेन, पच्छिममेकं अमोहकुसलमूलजनितकम्मानुभावेनाति वेदितब् । अयमेत्थ सङ्ग्रेपो । वित्थारो पन बोज्झङ्गसंयुत्ते रतनसुत्तस्स उपदेसतो गहेतब्बो । परोसहस्सन्ति अतिरेकसहस्सं। सूराति अभीरुकजातिका। वीरङ्गरूपाति देवपुत्तसदिसकाया। एवं ताव एके वण्णयन्ति । अयं पनेत्थ सब्भावो । वीराति उत्तमसूरा वुच्चन्ति, वीरानं अङ्गं वीरङ्गं, वीरकारणं वीरियन्ति वुत्तं होति । वीरङ्गरूपं एतेसन्ति वीरङ्गरूपा, वीरियमयसरीरा वियाति वुत्तं होति । परसेनप्पमद्दनाति सचे पटिमुखं तिट्टेय्य परसेना तं परिमद्दितुं समत्थाति अधिप्पायो । धम्मेनाति “पाणो न हन्तब्बो''तिआदिना 202 Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३.२५९ - २६० ) अम्बट्टमाणवकथा पञ्चसीलधम्मेन । अरहं होति सम्मासम्बुद्धो लोके विवट्टच्छदोति एत्थ रागदोसमोहमानदिट्ठिअविज्जादुच्चरितछदनेहि सत्तहि पटिच्छन्ने किलेसन्धकारे लोके तं छदनं विवट्टेत्वा समन्ततो सञ्जातालोको हुत्वा ठितोति विवट्टच्छदो । तत्थ पठमेन पदेन पूजारहता । दुतियेन तस्सा हेतु, यस्मा सम्मासम्बुद्धोति, ततियेन बुद्धत्तहेतुभूता विवट्टच्छदता वृत्ताति वेदितब्बा । अथ वा विवट्टो च विच्छदो चाति विवट्टच्छदो, वट्टरहितो छदनरहितो चाति वृत्तं होति । तेन अरहं वट्टाभावेन सम्मासम्बुद्धो छदनाभावेनाति एवं पुरिमपदद्वयस्सेव हेतुद्वयं वृत्तं होति, दुतियेन वेसारज्जेन चेत्थ पुरिमसिद्धि, पठमेन दुतियसिद्धि, ततियचतुत्थेहि ततियसिद्धि होति । पुरिमञ्च धम्मचक्खु, दुतियं बुद्धचक्खु, ततियं समन्तचक्युं साधेतीति वेदितब्बं । त्वं मन्तानं पटिग्गहेताति इमिना 'स्स मन्तेसु सूरभावं नेति । " २५९. सोपि ताय आचरियकथाय लक्खणेसु विगतसम्मोहो एकोभासजाते विय बुद्धमन्ते सम्पस्समानो एवं भोति आह । तस्सत्थो - 'यथा, भो, त्वं वदसि एवं करिस्सामी 'ति । वळवारथमारुय्हाति वळवायुत्तं रथं अभिरूहित्वा । ब्राह्मणो किर येन रथेन सयं विचरति, तमेव रथं दत्वा माणवं पेसेसि। माणवापि पोक्खरसातिस्सेव अन्तेवासिका । सो किर तेसं- “अम्बट्ठेन सद्धिं गच्छथा "ति स अदासि । २०३ यावतिका यानस्स भूमीति यत्तकं सक्का होति यानेन गन्तुं, अयं यानस्स भूमि नाम | याना पच्चोरोहित्वाति अयानभूमिं द्वारकोट्ठकसमीपं गन्त्वा यानतो पटिओरोहित्वा । तेन खो पन समयेनाति यस्मिं समये अम्बट्टो आरामं पाविसि । तस्मिं पन समये, ठितमज्झन्हिकसमये । कस्मा पन तस्मिं समये चङ्कमन्तीति ? पणीतभोजनपच्चयस्स थिनमिद्धस्स विनोदनत्थं, दिवापधानिका वा ते । तादिसानञ्हि पच्छाभत्तं चङ्कमित्वा न्हायित्वा सरीरं उतुं गाहापेत्वा निसज्ज समणधम्मं करोन्तानं चित्तं एकग्गं होति । येन ते भिक्खुति सो किर- " कुहिं समणो गोतमो" ति परिवेणतो परिवेणं अनागन्त्वा " पुच्छित्वाव पविसिस्सामी "ति विलोकेन्तो अरञ्ञहत्थी विय महाचङ्कमे चङ्कममाने पंसुकूलिके भिक्खू दिस्वा तेसं सन्तिकं अगमासि । तं सन्धाय येन ते भिक्खूति आदि वृत्तं । दस्सनायाति दट्टु, पस्सितुकामा हुत्वाति अत्थो । २६०. अभिञातकोलञोति पाकटकुलजो । तदा किर जम्बुदीपे अम्बट्ठकुलं नाम 203 Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०४ दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गट्ठकथा (३.२६१-२६१) पाकटकुलमहोसि। अभिज्ञातस्साति रूपजातिमन्तकुलापदेसेहि पाकटस्स। अगरूति अभारिको । यो हि अम्बटुं आपेतुं न सक्कुणेय्य, तस्स तेन सद्धिं कथासल्लापो गरु भवेय्य । भगवतो पन तादिसानं माणवानं सतेनापि सहस्सेनापि पहं पुट्ठस्स विस्सज्जने दन्धायितत्तं नत्थीति मञमाना – “अगरु खो पना''ति चिन्तयिंसु । विहारोति गन्धकुटिं सन्धाय आहंसु। अतरमानोति अतुरितो, सणिकं पदप्पमाणट्ठाने पदं निक्खिपन्तो वत्तं कत्वा सुसम्मटुं मुत्तादलसिन्दुवारसन्थरसदिसं वालिकं अविनासेन्तोति अत्थो। आळिन्दन्ति पमुखं । उक्कासित्वाति उक्कासितसई कत्वा । अग्गळन्ति द्वारकवाटं। आकोटेहीति अग्गनखेहि सणिकं कुञ्चिकच्छिद्दसमीपे आकोटेहीति वुत्तं होति । द्वारं किर अतिउपरि अमनुस्सा, अतिहेट्ठा दीघजातिका कोटेन्ति । तथा अनाकोटेत्वा मज्झे छिद्दसमीपे कोटेतब्बन्ति इदं द्वाराकोटनवत्तन्ति दीपेन्ता वदन्ति । २६१. विवरि भगवा द्वारन्ति न भगवा उट्ठाय द्वारं विवरि । विवरियतूति पन हत्थं पसारेसि । ततो “भगवा तुम्हेहि अनेकासु कप्पकोटीसु दानं ददमानेहि न सहत्था द्वारविवरणकम्मं कत"न्ति सयमेव द्वारं विवटं। तं पन यस्मा भगवतो मनेन विवटं, तस्मा विवरि भगवा द्वारन्ति वत्तुं वट्टति । भगवता सद्धिं सम्मोदिसूति यथा खमनीयादीनि पुच्छन्तो भगवा तेहि, एवं तेपि भगवता सद्धिं समप्पवत्तमोदा अहेसुं । सीतोदकं विय उण्होदकेन सम्मोदितं एकीभावं अगमंसु । याय च "कच्चि, भो गोतम, खमनीयं; कच्चि यापनीयं, कच्चि भोतो च गोतमस्स सावकानञ्च अप्पाबाधं, अप्पातकं, लहुट्ठानं, बलं, फासुविहारो''तिआदिकाय कथाय सम्मोदिंसु, तं पीतिपामोज्जसङ्खातसम्मोदजननतो सम्मोदितुं युत्तभावतो च सम्मोदनीयं, अत्थब्यञ्जनमधुरताय सुचिरम्पि कालं सारेतुं निरन्तरं पवत्तेतुं अरहभावतो सरितब्बभावतो च सारणीयं । सुय्यमानसुखतो सम्मोदनीयं, अनुस्सरियमानसुखतो च सारणीयं । तथा ब्यञ्जनपरिसुद्धताय सम्मोदनीयं, अत्थपरिसुद्धताय सारणीयं । एवं अनेकेहि परियायेहि सम्मोदनीयं कथं सारणीयं वीतिसारेत्वा परियोसापेत्वा निट्ठपेत्वा एकमन्तं निसीदिंसु। अम्बट्ठो पन माणवोति सो किर भगवतो रूपसम्पत्तियं चित्तप्पसादमत्तम्पि अकत्वा 204 Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३.२६२-२६३) पठमइब्भवादवण्णना २०५ "दसबलं अपसादेस्सामी''ति उदरे बद्धसाटकं मुञ्चित्वा कण्ठे ओलम्बेत्वा एकेन हत्थेन दुस्सकण्णं गहेत्वा चङ्कर्म अभिरूहित्वा कालेन बाहुँ, कालेन उदरं, कालेन पिढेि दस्सेन्तो, कालेन हत्थविकारं, कालेन भमुकविकारं करोन्तो, “कच्चि ते भो, गोतम, धातुसमता, कच्चि भिक्खाहारेन न किलमथ, अकिलमथाकारोयेव पन ते पञ्जायति; थूलानि हि ते अङ्गपच्चङ्गानि, पासादिकत्थ गतगतट्ठाने. 'ते बहुजना राजपब्बजितोति च बुद्धोति च उप्पन्नबहुमाना पणीतं ओजवन्तमाहारं देन्ति । पस्सथ, भो, गेहं, चित्तसाला विय, दिब्बपासादो विय। इमं मञ्चं पस्सथ, बिम्बोहनं पस्सथ, किं एवरूपे ठाने वसन्तस्स समणधम्मं कातुं दुक्कर"न्ति एवरूपं उप्पण्डनकथं अनाचारभावसारणीयं कथेति, तेन वुत्तं - "अम्बट्ठो पन माणवो चङ्कमन्तोपि निसिन्नेन भगवता किञ्चि किञ्चि कथं सारणीयं वीतिसारेति, ठितोपि निसिन्नेन भगवता किञ्चि किञ्चि कथं सारणीयं वीतिसारेती"ति। २६२. अथ खो भगवाति अथ भगवा – “अयं माणवो हत्थं पसारेत्वा भवग्गं गहेतुकामो विय, पादं पसारेत्वा अवीचिं विचरितुकामो विय, महासमुदं तरितुकामो विय, सिनेरुं आरोहितुकामो विय च अट्ठाने वायमति, हन्द, तेन सद्धिं मन्तेमी''ति अम्बटुं माणवं एतदवोच । आचरियपाचरियेहीति आचरियेहि च तेसं आचरियेहि च । पठमइब्भवादवण्णना २६३. गच्छन्तो वाति एत्थ कामं तीसु इरियापथेसु ब्राह्मणो आचरियब्राह्मणेन सद्धिं सल्लपितुमरहति । अयं पन माणवो मानथद्धताय कथासल्लापं करोन्तो चत्तारोपि इरियापथे योजेस्सामीति “सयानो वा हि, भो गोतम, सयानेना"ति आह ।। ततो किर तं भगवा - "अम्बट्ठ, गच्छन्तस्स वा गच्छन्तेन, ठितस्स वा ठितेन, निसिन्नस्स वा निसिन्नेनाचरियेन सद्धिं कथा नाम सब्बाचरियेसु लब्भति । त्वं पन सयानो सयानेनाचरियेन सद्धिं कथेसि, किं ते आचरियो गोरूपं, उदाहु त्वन्ति आह । सो कुज्झित्वा - "ये च खो ते, भो गोतम, मुण्डका"तिआदिमाह । तत्थ मुण्डे मुण्डाति समणे च समणाति वत्तं वट्टेय्य। अयं पन हीळेन्तो मण्डका समणकाति आह । इन्भाति गहपतिका। कण्हाति कण्हा, काळकाति अत्थो । बन्धुपादापच्चाति एत्थ बन्धूति ब्रह्मा अधिप्पेतो। तहि ब्राह्मणा पितामहोति वोहरन्ति । पादानं अपच्चा पादापच्चा, ब्रह्मनो 205 Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०६ दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गट्ठकथा (३.२६४-२६४) पिट्ठिपादतो जाताति अधिप्पायो। तस्स किर अयं लद्धि - ब्राह्मणा ब्रह्मनो मुखतो निक्खन्ता, खत्तिया उरतो, वेस्सा नाभितो, सुद्दा जाणुतो, समणा पिट्टिपादतोति । एवं कथेन्तो च पनेस किञ्चापि अनियमत्वा कथेति । अथ खो भगवन्तमेव वदामीति कथेति | अथ खो भगवा - "अयं अम्बट्ठो आगतकालतो पट्ठाय मया सद्धिं कथयमानो मानमेव निस्साय कथेसि, आसीविसं गीवायं गण्हन्तो विय, अग्गिक्खन्धं आलिङ्गन्तो विय, मत्तवारणं सोण्डाय परामसन्तो विय, अत्तनो पमाणं न जानाति । · हन्द नं जानापेस्सामी"ति चिन्तेत्वा "अत्थिकवतो खो पन ते, अम्बट्ठा"तिआदिमाह । तत्थ आगन्त्वा कत्तब्बकिच्चसङ्घातो अत्थो, एतस्स अस्थीति अस्थिकं, तस्स माणवस्स चित्तं । अत्थिकमस्स अत्थीति अत्थिकवा, तस्स अत्थिकवतो तव इधागमनं अहोसीति अत्थो । खो पनाति निपातमत्तं । यायेव खो पनत्थायाति येनेव खो पनत्थेन । आगच्छेय्याथाति मम वा अञसं वा सन्तिकं यदा कदाचि आगच्छेय्याथ । तमेव अत्थन्ति इदं पुरिसलिङ्गवसेनेव वुत्तं । मनसि करेय्याथाति चित्ते करेय्याथ । इदं वुत्तं होति - त्वं आचरियेन अत्तनो करणीयेन पेसितो, न अम्हाकं परिभवनत्थाय, तस्मा तमेव किच्चं मनसि करोहीति । एवमस्स अओसं सन्तिकं आगतानं वत्तं दस्सेत्वा माननिग्गण्हनत्थं "अबुसितवायेव खो पना"तिआदिमाह । तस्सत्थो पस्सथ भो अयं अम्बठ्ठो माणवो आचरियकुले अवुसितवा असिक्खितो अप्पस्सुतोव समानो । वुसितमानीति “अहं वुसितवा सिक्खितो बहुस्सुतो"ति अत्तानं मञति । एतस्स हि एवं फरुसवचनसमुदाचारे कारणं किमात्र असितत्ताति आचरियकुले असंवुद्धा असिक्खिता अप्पस्सुतायेव हि एवं वदन्तीति । २६४. कुपितोति कुद्धो । अनत्तमनोति असकमनो, किं पन भगवा तस्स कुज्झनभावं ञत्वा एवमाह उदाहु अञत्वाति ? ञत्वा आहाति । कस्मा अत्वा आहाति ? तस्स माननिम्मदनत्थं । भगवा हि अञासि- “अयं मया एवं वुत्ते कुज्झित्वा मम जातके अक्कोसिस्सति । अथस्साहं यथा नाम कुसलो भिसक्को दोसं उग्गिलेत्वा नीहरति, एवमेव गोत्तेन गोत्तं, कुलापदेसेन कुलापदेसं, उट्ठापेत्वा भवग्गप्पमाणेन विय उद्वितं मानद्धजं मूले छेत्वा निपातेस्सामी''ति । सेन्तोति घट्टेन्तो । वम्भेन्तोति हीळेन्तो । पापितो भविस्सतीति चण्डभावादिदोसं पापितो भविस्सति । 206 Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३.२६५-२६५) दुतियइब्भवादवण्णना २०७ चण्डाति माननिस्सितकोधयुत्ता। फरुसाति खरा । लहुसाति लहुका | अप्पकेनेव तुस्सन्ति वा दुस्सन्ति वा उदकपिढे अलाबुकटाहं विय अप्पकेनेव उप्लवन्ति । भस्साति बहुभाणिनो । सक्यानं मुखे विवटे अञस्स वचनोकासो नत्थीति अधिप्पायेनेव वदति | समानाति इदं सन्ताति पुरिमपदस्स वेवचनं । न सक्करोन्तीति न ब्राह्मणानं सुन्दरेनाकारेन करोन्ति । न गरुं करोन्तीति ब्राह्मणेसु गारवं न करोन्ति । न मानेन्तीति न मनेन पियायन्ति । न पूजेन्तीति मालादीहि नेसं पूजं न करोन्ति । न अपचायन्तीति अभिवादनादीहि नेसं अपचितिकम्मं नीचवुत्तिं न दस्सेन्ति तयिदन्ति तं इदं । यदिमे सक्याति यं इमे सक्या न ब्राह्मणे सक्करोन्ति...पे०... न अपचायन्ति, तं तेसं असक्कारकरणादि सब्बं न युतं, नानुलोमन्ति अत्थो । दुतियइब्भवादवण्णना २६५. अपरद्धन्ति अपरज्झिंसु । एकमिदाहन्ति एत्थ इदन्ति निपातमत्तं । एकं अहन्ति अत्थो। सन्धागारन्ति रज्जअनुसासनसाला | सक्याति अभिसित्तराजानो। सक्यकुमाराति अनभिसित्ता। उच्चेसूति यथानुरूपेसु पल्लङ्कपीठकवेत्तासनफलकचित्तत्थरणादिभेदेसु । सञ्जग्घन्ताति उप्पण्डनवसेन महाहसितं हसन्ता। संकीळन्ताति हसितमत्त करणअङ्गुलिसङ्घट्टनपाणिप्पहारदानादीनि करोन्ता। मम व म ति एवमहं मामि, मम व अनुहसन्ति, न अञ्जन्ति । कस्मा पन ते एवमकंसूति ? ते किर अम्बट्ठस्स कुलवंसं जानन्ति । अयञ्च तस्मिं समये याव पादन्ता ओलम्बेत्वा निवत्थसाटकस्स एकेन हत्थेन दुस्सकण्णं गहेत्वा खन्धट्टिकं नामेत्वा मानमदेन मत्तो विय आगच्छति । ततो- “पस्सथ भो अम्हाकं दासस्स कण्हायनगोत्तस्स अम्बट्ठस्स आगमनकारणन्ति वदन्ता एवमकंसु | सोपि अत्तनो कुलवंसं जानाति । तस्मा "मम व मझे'ति तक्कयित्थ । आसनेनाति “इदमासनं, एत्थ निसीदाही'ति एवं आसनेन निमन्तनं नाम होति, तथा न कोचि अकासि । 207 Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०८ दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गट्ठकथा (३.२६६-२६७) ततियइब्भवादवण्णना २६६. लटुकिकाति खेत्तलेड्डूनं अन्तरेनिवासिनी खुद्दकसकुणिका। कुलावकेति निवासनट्ठाने । कामलापिनीति यदिच्छकभाणिनी, यं यं इच्छति तं तं लपति, न तं कोचि हंसो वा कोञ्चो वा मोरो वा आगन्त्वा “किं त्वं लपसी'ति निसेधेति । अभिसज्जितुन्ति कोधवसेन लग्गितुं । एवं वुत्ते माणवो – “अयं समणो गोतमो अत्तनो आतके लटुकिकसदिसे कत्वा अम्हे हंसकोञ्चमोरसदिसे करोति, निम्मानो दानि जातो"ति मञमानो उत्तरि चत्तारो वण्णे दस्सेति । दासिपुत्तवादवण्णना २६७. निम्मादेतीति निम्मदेति निम्माने करोति । यंनूनाहन्ति यदि पनाहं । “कण्हायनोहमस्मि, भो गोतमा''ति इदं किर वचनं अम्बठ्ठो तिक्खत्तुं महासद्देन अवोच । कस्मा अवोच? किं असुद्धभावं न जानातीति ? आम जानाति । जानन्तोपि भवपटिच्छन्नमेतं कारणं, तं अनेन न दिटुं। अपस्सन्तो महासमणो किं वक्खतीति मञ्जमानो मानथद्धताय अवोच। मातापेत्तिकन्ति मातापितूनं सन्तकं । नामगोत्तन्ति पण्णत्तिवसेन नामं, पवेणीवसेन गोत्तं । अनुस्सरतोति अनुस्सरन्तस्स कुलकोटि सोधेन्तस्स । अय्यपुत्ताति सामिनो पुत्ता । दासिपुत्तोति घरदासियाव पुत्तो। तस्मा यथा दासेन सामिनो उपसङ्कमितब्बा, एवं अनुपसङ्कमन्तं तं दिस्वा सक्या अनुजग्धिंसूति दस्सेति । __ इतो परं तस्स दासभावं सक्यानञ्च सामिभावं पकासेत्वा अत्तनो च अम्बट्ठस्स च कुलवंसं आहरन्तो सक्या खो पनातिआदिमाह । तत्थ दहन्तीति ठपेन्ति, ओक्काको नो पुब्बपुरिसोति, एवं करोन्तीति अत्थो । तस्स किर रञो कथनकाले उक्का विय मुखतो पभा निच्छरति, तस्मा तं “ओक्काको"ति सञ्जानिंसूति । पब्बाजेसीति नीहरि । इदानि ते नामवसेन दस्सेन्तो- “ओक्कामुख"न्तिआदिमाह । तत्रायं अनुपुब्बी कथा - पठमकप्पिकानं किर रञो महासम्मतस्स रोजो नाम पुत्तो अहोसि । रोजस्स वररोजो, वररोजस्स कल्याणो, कल्याणस्स वरकल्याणो, वरकल्याणस्स मन्धाता,मन्धातुस्स 208 Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३.२६७-२६७) दासिपुत्तवादवण्णना २०९ वरमन्धाता, वरमन्धातुस्स उपोसथो, उपोसथस्स वरो, वरस्स उपवरो, उपवरस्स मघदेवो, मघदेवस्स परम्पराय चतुरासीतिखत्तियसहस्सानि अहेसुं । तेसं पच्छतो तयो ओक्काकवंसा अहेसुं। तेसु ततियओक्काकस्स पञ्च महेसियो अहेसुं- हत्था, चित्ता, जन्तु, जालिनी, विसाखाति। एकेकिस्सा पञ्चपञ्चइत्थिसतपरिवारा। सब्बजेट्ठाय चत्तारो पुत्ताओक्कामुखो, करकण्डु, हथिनिको, सिनिसूरोति । पञ्च धीतरो- पिया, सुप्पिया, आनन्दा, विजिता, विजितसेनाति । इति सा नव पुत्ते विजायित्वा कालमकासि । अथ राजा अनं दहरिं अभिरूपं राजधीतरं आनेत्वा अग्गमहेसिट्ठाने ठपेसि । सा जन्तुं नाम पुत्तं विजायि । अथ नं पञ्चमदिवसे अलङ्करित्वा रञो दस्सेसि । राजा तुट्ठो तस्सा वरं अदासि । सा आतकेहि सद्धिं मन्तेत्वा पुत्तस्स रज्जं याचि । राजा- “नस्स, वसलि, मम पुत्तानं अन्तरायं इच्छसी"ति तज्जेसि । सा पुनप्पुनं रहो राजानं परितोसेत्वा – “महाराज, मुसावादो नाम न वट्टती"तिआदीनि वत्वा याचतियेव । अथ राजा पुत्ते आमन्तेसि- “अहं ताता, तुम्हाकं कनिटुं जन्तुकुमारं दिस्वा तस्स मातुया सहसा वरं अदासिं, सा पुत्तस्स रज्जं परिणामेतुं इच्छति । तुम्हे ठपेत्वा मङ्गलहत्थिं मङ्गलअस्सं मङ्गलरथञ्च यत्तके इच्छथ, तत्तके हथिअस्सरथे गहेत्वा गच्छथ । ममच्चयेन आगन्त्वा रज्जं करेय्याथा''ति, अट्ठहि अमच्चेहि सद्धिं उय्योजेसि | ते नानप्पकारं रोदित्वा कन्दित्वा- “तात, अम्हाकं दोसं खमथा''ति राजानञ्चेव राजोरोधे च खमापेत्वा, "मयम्पि भातूहि सद्धिं गच्छामा''ति राजानं आपुच्छित्वा नगरा निक्खन्ता भगिनियो आदाय चतुरङ्गिनिया सेनाय परिवुता नगरा निक्खमिंसु । “कुमारा पितुअच्चयेन आगन्त्वा रज्जं कारेस्सन्ति, गच्छाम ने उपट्ठहामा"ति चिन्तेत्वा बहू मनुस्सा अनुबन्धिंसु । पठमदिवसे योजनमत्ता सेना अहोसि, दुतिये द्वियोजनमत्ता, ततिये तियोजनमत्ता । कुमारा मन्तयिंसु - “महा बलकायो, सचे मयं कञ्चि सामन्तराजानं महित्वा जनपदं गण्हेय्याम, सोपि नो नप्पसहेय्य । किं परेसं पीळाय कताय, महा अयं जम्बुदीपो, अरओ नगरं मापेस्सामा"ति हिमवन्ताभिमुखा गन्त्वा नगरवत्थु परियेसिसु । . तस्मिञ्च समये अम्हाकं बोधिसत्तो ब्राह्मणमहासालकुले निब्बत्तित्वा कपिलब्राह्मणो नाम हुत्वा निक्खम्म इसिपब्बज्जं पब्बजित्वा हिमवन्तपस्से पोक्खरणिया तीरे साकवनसण्डे पण्णसालं मापेत्वा वसति । सो किर भुम्मजालं नाम विज्जं जानाति, याय उद्धं असीतिहत्थे आकासे, हट्ठा च भूमियम्पि गुणदोसं पस्सति । एतस्मिं पदेसे 209 Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१० दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गट्ठकथा (३.२६७-२६७) तिणगुम्बलता दक्खिणावट्टा पाचीनाभिमुखा जायन्ति । सीहब्यग्घादयो मिगसूकरे सप्पबिळारा च मण्डूकमूसिके अनुबन्धमाना तं पदेसं पत्वा न सक्कोन्ति ते अनुबन्धितुं । तेहि ते अञदत्थु सन्तज्जिता निवत्तन्तियेव । सो- “अयं पथविया अग्गपदेसो''ति ञत्वा तत्थ अत्तनो पण्णसालं मापेसि । अथ ते कुमारे नगरवत्थु परियेसमाने अत्तनो वसनोकासं आगते दिस्वा पुच्छित्वा तं पवत्तिं ञत्वा तेसु अनुकम्पं जनेत्वा अवोच- “इमस्मिं पण्णसालट्ठाने मापितं नगरं जम्बूदीपे अग्गनगरं भविस्सति। एत्थ जातपरिसेस एकेको परिससतम्पि परिससहस्सम्पि अभिभवितं सक्खिस्सति । एत्थ नगरं मापेथ, पण्णसालट्टाने रो घरं करोथ । इमस्मिहि ओकासे ठत्वा चण्डालपुत्तोपि चक्कवत्तिबलेन अतिसेय्यो''ति । ननु, भन्ते, अय्यस्स वसनोकासोति ? “मम वसनोकासो''ति मा चिन्तयित्थ । मय्हं एकपस्से पण्णसालं कत्वा नगरं मापेत्वा कपिलवत्थुन्ति नामं करोथा'ति । ते तथा कत्वा तत्थ निवासं कप्पेसुं । अथामच्चा- “इमे दारका वयप्पत्ता, सचे नेसं पिता सन्तिके भवेय्य, सो आवाहविवाहं करेय्य । इदानि पन अम्हाकं भारो''ति चिन्तेत्वा कुमारेहि सद्धिं मन्तयिंसु । कुमारा अम्हाकं सदिसा खत्तियधीतरो नाम न पस्साम, नापि भगिनीनं सदिसे खत्तियकुमारके, असदिससंयोगे च नो उप्पन्ना पुत्ता मातितो वा पितितो वा अपरिसुद्धा जातिसम्भेदं पापुणिस्सन्ति । तस्मा मयं भगिनीहियेव सद्धिं संवासं रोचेमाति । ते जातिसम्भेदभयेन जेठुकभगिनिं मातुट्ठाने ठपेत्वा अवसेसाहि संवासं कप्पेसुं ।। तेसं पुत्तेहि च धीताहि च वड्डमानानं अपरेन समयेन जेट्ठकभगिनिया कुट्ठरोगो उदपादि, कोविळारपुप्फसदिसानि गत्तानि अहेसुं। राजकुमारा इमाय सद्धिं एकतो निसज्जट्टानभोजनादीनि करोन्तानम्पि उपरि अयं रोगो सङ्कमतीति चिन्तेत्वा एकदिवसं उय्यानकीळं गच्छन्ता विय तं याने आरोपेत्वा अरओं पविसित्वा भूमियं पोक्खरणिं खणापेत्वा तत्थ खादनीयभोजनीयेन सद्धिं तं पक्खिपित्वा घरसङ्केपेन उपरि पदरं पटिच्छादेत्वा पंसुं दत्वा पक्कमिंसु । तेन च समयेन रामो नाम बाराणसिराजा कुट्ठरोगो नाटकित्थीहि च ओरोधेहि च जिगुच्छियमानो तेन संवेगेन जेठ्ठपुत्तस्स रज्जं दत्वा अरचं पविसित्वा तत्थ पण्णसालं मापेत्वा मूलफलानि परिभुञ्जन्तो नचिरस्सेव अरोगो सुवण्णवण्णो हुत्वा इतो चितो च 210 Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३.२६७-२६७) दासिपुत्तवादवण्णना २११ विचरन्तो महन्तं सुसिररुक्खं दिस्वा तस्सब्भन्तरे सोळसहत्थप्पमाणं ओकासं सोधेत्वा द्वारञ्च वातपानञ्च योजेत्वा निस्सेणिं बन्धित्वा तत्थ वासं कप्पेसि। सो अङ्गारकटाहे अग्गिं कत्वा रत्तिं मिगसूकरादीनं सद्दे सुंणन्तो सयति । सो – “असुकस्मिं पदेसे सीहो सद्दमकासि, असुकस्मिं ब्यग्घोति सल्लक्खेत्वा पभाते तत्थ गन्त्वा विघासमंसं आदाय पचित्वा खादति। अथेकदिवसं तस्मिं पच्चूससमये अग्गिं जालेत्वा निसिन्ने राजधीताय सरीरगन्धेन आगन्त्वा ब्यग्घो तस्मिं पदेसे पंसुं वियूहन्तो पदरे विवरमकासि, तेन च विवरेन सा ब्यग्घं दिस्वा भीता विस्सरमकासि । सो तं सदं सुत्वा - "इत्थिसद्दो एसो''ति च सल्लक्खेत्वा पातोव तत्थ गन्त्वा- "को एत्था'ति आह । मातुगामो सामीति । किं जातिकासीति ? ओक्काकमहाराजस्स धीता सामीति । निक्खमाति ? न सक्का सामीति । किं कारणाति ? छविरोगो मे अत्थीति । सो सब्बं पवत्तिं पुच्छित्वा खत्तियमानेन अनिक्खमन्तिं - "अहम्पि खत्तियो"ति अत्तनो खत्तियभावं जानापेत्वा निस्सेणिं दत्वा उद्धरित्वा अत्तनो वसनोकासं नेत्वा सयं परिभुत्तभेसज्जानियेव दत्वा नचिरस्सेव अरोगं सुवण्णवण्णं कत्वा ताय सद्धिं संवासं कप्पेसि | सा पठमसंवासेनेव गब्भं गण्हित्वा द्वे पुत्ते विजायि, पुनपि द्वेति, एवं सोळसक्खत्तुम्पि विजायि । एवं द्वत्तिंस भातरो अहेसुं । ते अनुपुब्बेन बुड्डिप्पत्ते पिता सब्बसिप्पानि सिक्खापेसि । अथेकदिवसं एको रामरञ्जो नगरवासी वनचरको पब्बते रतनानि गवेसन्तो राजानं दिस्वा सञ्जानित्वा आह- "जानामहं, देव, तुम्हे"ति । ततो नं राजा सब्बं पवत्तिं पुच्छि। तस्मिंयेव च खणे ते दारका आगमिंसु । सो ते दिस्वा- “के इमे''ति आह । "पुत्ता मे''ति च वुत्ते तेसं मातिकवंसं पुच्छित्वा – “लद्धं दानि मे पाभत"न्ति नगरं गन्त्वा रञो आरोचेसि | सो 'पितरं आनयिस्सामी'ति चतुरङ्गिनिया सेनाय तत्थ गन्त्वा पितरं वन्दित्वा - “रज्ज, देव, सम्पटिच्छाति याचि । सो- “अलं, तात, न तत्थ गच्छामि, इधेव मे इमं रुक्खं अपनेत्वा नगरं मापेही"ति आह । सो तथा कत्वा तस्स नगरस्स कोलरुक्खं अपनेत्वा कतत्ता कोलनगरन्ति च ब्यग्घपथे कतत्ता ब्यग्घपथन्ति चाति द्वे नामानि आरोपेत्वा पितरं वन्दित्वा अत्तनो नगरं अगमासि । ततो वयप्पत्ते कुमारे माता आह – “ताता, तुम्हाकं कपिलवत्थुवासिनो सक्या मातुला सन्ति । मातुलधीतानं पन वो एवरूपं नाम केसग्गहणं होति, एवरूपं दुस्सगहणं । 211 Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१२ दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गट्ठकथा (३.२६८-२६९) यदा ता न्हानतित्थं आगच्छन्ति, तदा गन्त्वा यस्स या रुच्चति, सो तं गण्हतू''ति । ते तथेव गन्त्वा तासु न्हत्वा सीसं सुक्खापयमानासु यं यं इच्छिंसु, तं तं गहेत्वा नामं सावेत्वा अगमिंसु । सक्यराजानो सुत्वा "होतु, भणे, अम्हाकं आतका एव ते''ति तुण्ही अहेसुं । अयं सक्यकोलियानं उप्पत्ति । एवं तेसं सक्यकोलियानं अञमचं आवाहविवाहं करोन्तानं याव बुद्धकाला अनुपच्छिन्नोव वंसो आगतो। तत्थ भगवा सक्यवंसं दस्सेतुं - "ते रस्मा पब्बाजिता हिमवन्तपस्से पोक्खरणिया तीरे"तिआदिमाह। तत्थ सम्मन्तीति वसन्ति । सक्या वत भोति रट्ठस्मा पब्बाजिता अरजे वसन्तापि जातिसम्भेदमकत्वा कुलवंसं अनुरक्खितुं सक्या, समत्था, पटिबलाति अत्थो । तदग्गेति तं अग्गं कत्वा, ततो पट्टायाति अत्थो । सो च नेसं पुब्बपुरिसोति सो ओक्काको राजा एतेसं पुब्बपुरिसो । नत्थि एतेसं गहपतिवंसेन सम्भेदमत्तम्पीति । एवं सक्यवंसं पकासेत्वा इदानि अम्बट्ठवंसं पकासेन्तो- "रो खो पना"तिआदिमाह । कण्हं नाम जनेसीति काळवण्णं अन्तोकुच्छियंयेव सञ्जातदन्तं परूळ्हमस्सुदाठिकं पुत्तं विजायि । पब्याहासीति यक्खो जातोति भयेन पलायित्वा द्वारं पिधाय ठितेसु घरमानुसकेसु इतो चितो च विचरन्तो धोवथ मन्तिआदीनि वदन्तो उच्चासद्दमकासि । २६८. ते माणवका भगवन्तं एतदवोचुन्ति अत्तनो उपारम्भमोचनत्थाय – “एतं मा भवन्तिआदिवचनं अवोचुं । तेसं किर एतदहोसि - “अम्बट्ठो अम्हाकं आचरियस्स जेट्ठन्तेवासी, सचे मयं एवरूपे ठाने एकद्वेवचनमत्तम्पि न वक्खाम, अयं नो आचरियस्स सन्तिके अम्हे परिभिन्दिस्सती''ति उपारम्भमोचनत्थं एवं अवोचुं । चित्तेन पनस्स निम्मदभावं आकङ्घन्ति । अयं किर माननिस्सितत्ता तेसम्पि अप्पियोव । कल्याणवाक्करणोति मधुरवचनो । अस्मिं वचनेति अत्तना उग्गहिते वेदत्तयवचने । पटिमन्तेतुन्ति पुच्छितं पञ्हं पटिकथेतुं, विस्सज्जेतुन्ति अत्थो । एतस्मिं वा दासिपुत्तवचने । पटिमन्तेतुन्ति उत्तरं कथेतुं । २६९. अथ खो भगवाति अथ खो भगवा - "सचे इमे माणवका एत्थ निसिन्ना एवं उच्चासदं करिस्सन्ति, अयं कथा परियोसानं न गमिस्सति । हन्द, ने निस्सद्दे कत्वा अम्बद्वेनेव सद्धिं कथेमी''ति ते माणवके एतदवोच । तत्थ मन्तव्होति मन्तयथ । मया सद्धिं पटिमन्तेतूति मया सह कथेतु । एवं वुत्ते माणवका चिन्तयिंसु- “अम्बठ्ठो ताव दासिपुत्तोसीति वुत्ते पुन सीसं उक्खिपितुं नासक्खि । अयं खो जाति नाम दुज्जाना, 212 Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३.२७०-२७१) दासिपुत्तवादवण्णना २१३ सचे अझम्पि किञ्चि समणो गोतमो ‘त्वं दासो'ति वक्खति, को तेन सद्धिं अटुं करिस्सति । अम्बट्ठो अत्तना बद्धं पुटकं अत्तनाव मोचेतू''ति अत्तानं परिमोचेत्वा तस्सेव उपरि खिपन्ता - "सुजातो च भो गोतमा"तिआदिमाहंसु । २७०. सहधम्मिकोति सहेतुको सकारणो। अकामा ब्याकातब्बोति अत्तना अनिच्छन्तेनपि ब्याकरितब्बो, अवस्सं विस्सज्जेतब्बोति अत्थो । अञ्जन वा अनं पटिचरिस्ससीति अञ्जेन वचनेन अझं वचनं पटिचरिस्ससि अज्झोत्थरिस्ससि, पटिच्छादेस्ससीति अत्थो । यो हि “किं गोत्तो त्व"न्ति एवं पुट्ठो- “अहं तयो वेदे जानामी'"तिआदीनि वदति, अयं अञ्जन अचं पटिचरति नाम । पक्कमिस्ससि वाति पुच्छितं पञ्हं जानन्तोव अकथेतुकामताय उट्ठायासना पक्कमिस्ससि वा। तुण्ही अहोसीति समणो गोतमो मं सामंयेव दासिपुत्तभावं कथापेतुकामो, सामं कथिते च दासो नाम जातोयेव होति । अयं पन द्वतिक्खत्तुं चोदेत्वा तुण्ही भविस्सति, ततो अहं परिवत्तित्वा पक्कमिस्सामीति चिन्तेत्वा तुण्ही अहोसि । २७१. वजिरं पाणिम्हि अस्साति वजिरपाणि। यक्खोति न यो वा सो वा यक्खो, सक्को देवराजाति वेदितब्बो। आदित्तन्ति अग्गिवण्णं । सम्पज्जलितन्ति सुट्ठ पज्जलितं । सजोतिभूतन्ति समन्ततो जोतिभूतं, एकग्गिजालभूतन्ति अत्थो । ठितो होतीति महन्तं सीसं, कन्दलमकुळसदिसा दाठा भयानकानि अक्खिनासादीनि एवं विरूपरूपं मापेत्वा ठितो । कस्मा पनेस आगतोति ? दिट्ठिविस्सज्जापनत्थं | अपि च – “अहञ्चेव खो पन धम्मं देसेय्यं, परे च मे न आजानेय्यु"न्ति एवं धम्मदेसनाय अप्पोस्सुक्कभावं आपन्ने भगवति सक्को महाब्रह्मना सद्धिं आगन्त्वा- “भगवा धम्मं देसेथ, तुम्हाकं आणाय अवत्तमाने मयं वत्तापेस्साम, तुम्हाकं धम्मचक्कं होतु, अम्हाकं आणाचक्क"न्ति पटिचं अकासि । तस्मा- “अज्ज अम्बटुं तासेत्वा पञ्हं विस्सज्जापेस्सामी"ति आगतो । भगवा चेव पस्सति अम्बट्ठो चाति यदि हि तं अञपि पस्सेय्यु, तं कारणं अगरु अस्स, “अयं समणो गोतमो अम्बटुं अत्तनो वादे अनोतरन्तं ञत्वा यक्खं आवाहेत्वा दस्सेसि, ततो अम्बठ्ठो भयेन कथेसी''ति वदेय्युं । तस्मा भगवा चेव पस्सति अम्बठ्ठो च । तस्स तं दिस्वाव सकलसरीरतो सेदा मुच्चिंसु । अन्तोकुच्छि विपरिवत्तमाना महारवं 213 Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१४ दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गट्ठकथा (३.२७२-२७३-२७४) विरवि । सो “अञपि न खो पस्सन्ती"ति ओलोकेन्तो कस्सचि लोमहंसमत्तम्पि नाहस । ततो- “इदं भयं ममेव उप्पन्नं, सचाहं यक्खोति वक्खामि, 'किं तवमेव अक्खीनि अस्थि त्वमेव यक्वं पस्ससि. पठमं यक्वं अदिस्वा समणेन गोतमेन वादसङ्कटे पक्खित्तोव यक्खं पस्ससी'ति वदेय्यु"न्ति चिन्तेत्वा "न दानि मे इध अझं पटिसरणं अस्थि, अञत्र समणा गोतमा''ति मञमानो अथ खो अम्बट्ठो माणवो...पे... भगवन्तं एतदवोच। २७२. ताणं गवेसीति ताणं गवेसमानो । लेणं गवेसीति लेणं गवेसमानो । सरणं गवेसीति सरणं गवेसमानो | एत्थ च तायति रक्खतीति ताणं। निलीयन्ति एत्थाति लेणं । सरतीति सरणं, भयं हिंसति, विद्धंसेतीति अत्थो । उपनिसीदित्वाति उपगम्म हेट्ठासने निसीदित्वा । ब्रवितूति वदतु। अम्बट्ठवंसकथा २७३-२७४. दक्खिणजनपदन्ति दक्खिणापथोति पाकटं। गङ्गाय दक्खिणतो पाकटजनपदं । तदा किर दक्खिणापथे बहू ब्राह्मणतापसा होन्ति, सो तत्थ गन्त्वा एकं तापसं वत्तपटिपत्तिया आराधेसि । सो तस्स उपकारं दिस्वा आह - “अम्भो, पुरिस, मन्तं ते देमि, यं इच्छसि, तं मन्तं गण्हाही''ति । सो आह - "न मे आचरिय, अञ्जन मन्तेन, किच्चं अस्थि, यस्सानुभावेन आवुधं न परिवत्तति, तं मे मन्तं देही"ति । सो- “भद्रं, भो''ति तस्स धनुअगमनीयं अम्बटुं नाम विज्जं अदासि, सो तं विज्जं गहेत्वा तत्थेव वीमंसित्वा - "इदानि मे मनोरथं पूरेस्सामी''ति इसिवेसं गहेत्वा ओक्काकस्स सन्तिकं गतो। तेन वुत्तं - “दक्खिणजनपदं गन्त्वा ब्रह्ममन्ते अधीयित्वा राजानं ओक्काकं उपसङ्कमित्वा''ति । एत्थ ब्रह्ममन्तेति आनुभावसम्पन्नताय सेट्ठमन्ते । को नेवरे अयं मय्हं दासिपुत्तोति को नु एवं अरे अयं मम दासिपुत्तो । सो तं खुरप्पन्ति सो राजा तं मारेतुकामताय सन्नहितं सरं तस्स मन्तानुभावेन नेव खिपितुं न अपनेतुं सक्खि, तावदेव सकलसरीरे सञ्जातसेदो भयेन वेधमानो अट्ठासि । अमच्चाति महामच्चा। पारिसज्जाति इतरे परिसावचरा। एतदवोचुन्ति - 214 Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३.२७५-२७५) खत्तियसेट्ठभाववण्णना २१५ “दण्डकीरो किसवच्छतापसे अपरद्धस्स आवुधवुट्ठिया सकलरटुं विनटुं । नाळिकेरो पञ्चसु तापससतेसु अज्जुनो च अङ्गीरसे अपरद्धो पथविं भिन्दित्वा निरयं पविट्ठो''ति चिन्तयन्ता भयेन एतं सोत्थि, भद्दन्तेतिआदिवचनं अवोचुं । सोत्थि भविस्सति रजोति इदं वचनं कण्हो चिरं तुण्ही हुत्वा ततो अनेकप्पकारं याचीयमानो- “तुम्हाकं रञा मादिसस्स इसिनो खुरप्पं सन्नय्हन्तेन भारियं कम्म कत"न्तिआदीनि च वत्वा पच्छा अभासि । उन्द्रियिस्सतीति भिज्जिस्सति, थुसमुट्ठि विय विप्पकिरियिस्सतीति । इदं सो “जनं तासेस्सामी''ति मुसा भणति । सरसन्थम्भनमत्तेयेव हिस्स विज्जाय आनुभावो, न अञत्र । इतो परेसुपि वचनेसु एसेव नयो । पल्लोमोति पन्नलोमो । लोमहंसनमत्तम्पिस्स न भविस्सति । इदं किर सो “सचे मे राजा तं दारिकं दस्सती''ति पटिअं कारेत्वा अवच । कुमारे खुरप्पं पतिद्वपेसीति तेन "सरो ओतरतू''ति मन्ते परिवत्ति, ते कुमारस्स नाभियं पतिठ्ठपेसि । धीतरं अदासीति सीसं धोवित्वा अदासं भुजिस्सं कत्वा धीतरं अदासि, उळारे च तं ठाने ठपेसि । मा खो तुम्हे माणवकाति इदं पन भगवा- “एकेन पक्खेन अम्बठ्ठो सक्यानं आति होती''ति पकासेन्तो तस्स समस्सासनत्थं आह । ततो अम्बठ्ठो घटसतेन अभिसित्तो विय पस्सद्धदरथो हुत्वा समस्सासेत्वा समणो गोतमो मं "तोसेस्सामी''ति एकेन पक्खेन आतिं करोति, खत्तियो किराहमस्मी''ति चिन्तेसि। खत्तियसे?भाववण्णना २७५. अथ खो भगवा - “अयं अम्बट्ठो खत्तियोस्मी"ति सकं करोति, अत्तनो अखत्तियभावं न जानाति, हन्द नं जानापेस्सामीति खत्तियवंसं दस्सेतुं उत्तरिदेसनं वड्डेन्तो- "तं किं मञ्जसि अम्बट्ठा"तिआदिमाह । तत्थ इधाति इमस्मिं लोके । ब्राह्मणेसूति ब्राह्मणानं अन्तरे । आसनं वा उदकं वाति अग्गासनं वा अग्गोदकं वा । सद्धेति मतके उद्दिस्स कतभत्ते । थालिपाकेति मङ्गलादिभत्ते। यजेति यज्ञभत्ते । पाहुनेति पाहुनकानं कतभत्ते पण्णाकारभत्ते वा। अपि नुस्साति अपि नु अस्स खत्तियपुत्तस्स । आवटं वा अस्स अनावटं वाति, ब्राह्मणकञासु निवारणं भवेय्य वा नो वा, ब्राह्मणदारिकं लभेय्य वा न वा लभेय्याति अत्थो । अनुपपन्नोति खत्तियभावं अपत्तो, अपरिसुद्धोति अत्थो । 215 Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१६ दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गट्ठकथा (३.२७६-२७९) २७६. इत्थिया वा इत्थिं करित्वाति इत्थिया वा इत्थिं परियेसित्वा । किस्मिञ्चिदेव पकरणेति किस्मिञ्चिदेव दोसे ब्राह्मणानं अयुत्ते अकत्तब्बकरणे । भस्सपुटेनाति भस्मपुटेन, सीसे छारिकं ओकिरित्वाति अत्थो । २७७. जनेतस्मिन्ति जनितस्मिं, पजायाति अत्थो । ये गोत्तपटिसारिनोति ये जनेतस्मिं गोत्तं पटिसरन्ति – “अहं गोतमो, अहं कस्सपो"ति, तेसु लोके गोत्तपटिसारीसु खत्तियो सेट्ठो । अनुमता मयाति मम सब्ब तञाणेन सद्धिं संसन्दित्वा देसिता मया अनुज्ञाता । पठमभाणवारवण्णना निविता । विज्जाचरणकथावण्णना २७८. इमाय पन गाथाय विज्जाचरणसम्पन्नोति इदं पदं सुत्वा अम्बठ्ठो चिन्तेसि - "विज्जा नाम तयो वेदा, चरणं पञ्च सीलानि, तयिदं अम्हाकंयेव अस्थि, विज्जाचरणसम्पन्नो चे सेट्ठो, मयमेव सेट्ठा'ति निहँ गन्त्वा विज्जाचरणं पुच्छन्तो"कतमं पन तं, भो गोतम, चरणं, कतमा च पन सा विज्जा"ति आह । अथस्स भगवा तं ब्राह्मणसमये सिद्धं जातिवादादिपटिसंयुत्तं विज्जाचरणं पटिक्खिपित्वा अनुत्तरं विज्जाचरणं दस्सेतुकामो- “न खो अम्बट्ठा"तिआदिमाह । तत्थ जातिवादोति जाति आरब्भ वादो, ब्राह्मणस्सेविदं वट्टति, न सुद्दस्सातिआदि वचनन्ति अत्थो । एस नयो सब्बत्थ । जातिवादविनिबद्धाति जातिवादे विनिबद्धा। एस नयो सब्बत्थ । ततो अम्बट्ठो- “यत्थ दानि मयं लग्गिस्सामाति चिन्तयिम्ह, ततो नो समणो गोतमो महावाते थुसं धुनन्तो विय दूरमेव अवक्खिपि । यत्थ पन मयं न लग्गाम, तत्थ नो नियोजेसि । अयं नो विज्जाचरणसम्पदा ञातुं वट्टती"ति चिन्तेत्वा पुन विज्जाचरणसम्पदं पुच्छि । अथस्स भगवा समुदागमतो पभुति विज्जाचरणं दस्सेतुं- "इध अम्बट्ठ तथागतो"तिआदिमाह । २७९. एत्थ च भगवा चरणपरियापन्नम्पि तिविधं सीलं विभजन्तो “इदमस्स होति 216 Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३.२८०-२८०) चतुअपायमुखकथावण्णना चरणस्मि"न्ति अनिय्यातेत्वा “ इदम्पिस्स होति सीलस्मि "न्ति सीलवसेनेव निय्यातेसि । कस्मा ? तस्सपि हि किञ्चि किञ्चि सीलं अस्थि, तस्मा चरणवसेन निय्यातियमाने “मयम्पि चरणसम्पन्ना’”ति तत्थ तत्थेव लग्गेय्य । यं पन तेन सुपिनेपि न दिट्ठपुब्बं, तस्सेव वसेन निय्यातेन्तो पठमं झानं उपसम्पज्ज विहरति । इदम्पिस्स होति चरणस्मिं...पे०... चतुत्थं झानं उपसम्पज्ज विहरति, इदम्पिस्स होत चरणस्मिन्तिआदिमाह । एत्तावता अट्ठपि समापत्तियो चरणन्ति निय्यातिता होन्ति, विपस्सना आणतो पन पट्ठाय अट्ठविधापि पञ्ञा विज्जाति निय्यातिता । चतुअपायमुखकथावण्णना २८०. अपायमुखानीति विनासमुखानि । अनभिसम्भुणमानोति असम्पापुणन्तो, अविसहमानो वा । खारिविधमादायाति एत्थ खारीति अरणी कमण्डलु सुजादयो तापसपरिक्खारा । विधोति काजो। तस्मा खारिभरितं काजमादायाति अत्थो । ये पन खारिविविधन्ति पठन्ति, "खारीति काजस्स नामं, विविधन्ति बहुकमण्डलुआदिपरिक्खार "न्ति वण्णयन्ति । पवत्तफलभोजनोति पतितफलभोजनो । परिचारकोति कप्पियकरणपत्तपटिग्गहणपादधोवनादिवत्तकरणवसेन परिचारको । कामञ्च गुणाधिकोपि खीणासवसामणेरो पुथुज्जनभिक्खुनो वुत्तनयेन परिचारको होति, अयं पन न तादिसो गुणवसेनपि वेय्यावच्चकरणवसेनपि लामकोयेव - कस्मा पन तापसपब्बज्जा सासनस्स विनासमुखन्ति वृत्ताति ? यस्मा गच्छन्तं गच्छन्तं सासनं तापसपब्बज्जावसेन ओसक्किस्सति । इमस्मिहि सासने पब्बजित्वा तिस्सो सिक्खा पूरेतुं असक्कोन्तं लज्जिनो सिक्खाकामा – “नत्थि तया सद्धिं उपोसथो वा पवारणा वा सङ्घकम्मं वा ति जिगुच्छित्वा परिवज्जेन्ति । सो “दुक्करं खुरधारूपमं सासने पटिपत्तिपूरणं दुक्खं तापसपब्बज्जा पन सुकरा चेव बहुजनसम्मता चा ''ति विब्भमित्वा तापसो होति । अञ्ञे तं दिवा - " किं तया कत "न्ति पुच्छन्ति । सो- "भारियं तुम्हाकं सासने कम्मं इध पन सछन्दचारिनो मयन्ति वदति । सोपि, यदि एवं अहम्पि एत्थेव पब्बजामीति तस्स अनुसिक्खन्तो तापसो होति । एवमपि अपीति कमेन तापसाव बहुका होन्ति । तेसं उप्पन्नकाले सासनं ओसक्कितं नाम भविस्सति । लोके एवरूपो बुद्धो नाम उप्पज्जि, तस्स ईदिसं नाम सासनं अहोसीति सुतमत्तमेव भविस्सति । इदं सन्धाय भगवा तापसपब्बज्जं सासनस्स विनासमुखन्ति आह । 1 २१७ 217 - Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१८ दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गट्ठकथा (३.२८०-२८०) कुदालपिटकन्ति कन्दमूलफलग्गहणत्थं कुदालञ्चेव पिटकञ्च । गामसामन्तं वाति विज्जाचरणसम्पदादीनि अनभिसम्भुणन्तो, कसिकम्मादीहि च जीवितं निप्फादेतुं दुक्खन्ति मञ्जमानो बहुजनकुहापनत्थं गामसामन्ते वा निगमसामन्ते वा अग्गिसालं कत्वा सप्पितेलदधिमधुफाणिततिलतण्डुलादीहि चेव नानादारूहि च होमकरणवसेन अग्गिं परिचरन्तो अच्छति। चतुद्वारं अगारं करित्वाति चतुमुखं पानागारं कत्वा तस्स द्वारे मण्डपं कत्वा तत्थ पानीयं उपठ्ठपेत्वा आगतागते पानीयेन आपुच्छति । यम्पिस्स अद्धिका किलन्ता पानीयं पिवित्वा परितुट्ठा भत्तपुटं वा तण्डुलादीनि वा देन्ति, तं सब्बं गहेत्वा अम्बिलयागुआदीनि कत्वा बहुतरं आमिसगहणत्थं केसञ्चि अन्नं देति, केसञ्चि भत्तपचनभाजनादीनि । तेहिपि दिन्नं आमिसं वा पुब्बण्णादीनि वा गण्हति, तानि वड्डिया पयोजेति । एवं वड्डमानविभवो गोमहिंसदासीदासपरिग्गहं करोति, महन्तं कुटुम्बं सण्ठपेति । इमं सन्धायेतं वुत्तं - “चतुद्वारं अगारं करित्वा अच्छती"ति | "तमहं यथासत्ति यथाबलं पटिपूजेस्सामी"ति इदं पनस्स पटिपत्तिमुखं । इमिना हि मुखेन सो एवं पटिपज्जतीति । एत्तावता च भगवता सब्बापि तापसपब्बज्जा निद्दिट्ठा होन्ति। कथं? अट्ठविधा हि तापसा- सपुत्तभरिया, उञ्छाचरिया, अनग्गिपक्किका, असामपाका, अस्ममुट्ठिका, दन्तवक्कलिका, पवत्तफलभोजना, पण्डुपलासिकाति । तत्थ ये केणियजटिलो विय कुटुम्बं सण्ठपेत्वा वसन्ति, ते सपुत्तभरिया नाम । ये पन “सपुत्तदारभावो नाम पब्बजितस्स अयुत्तो'"ति लायनमद्दनट्ठानेसु वीहिमुग्गमासतिलादीनि सङ्कड्डित्वा पचित्वा परिभुञ्जन्ति, ते उञ्छाचरिया नाम । ये “खलेन खलं विचरित्वा वीहिं आहरित्वा कोट्टेत्वा परिभुञ्जनं नाम अयुत्त"न्ति गामनिगमेसु तण्डुलभिक्खं गहेत्वा पचित्वा परिभुञ्जन्ति, ते अनग्गिपक्किका नाम । ये पन “किं पब्बजितस्स सामपाकेना''ति गामं पविसित्वा पक्कभिक्खमेव गण्हन्ति, ते असामपाका नाम । 218 Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३.२८१-२८२ - २८३) पुब्बकइसिभावानुयोगवण्णना ये “दिवसे दिवसे भिक्खापरियेट्ठि नाम दुक्खा पब्बजितस्सा "ति मुट्ठिपासाणेन अम्बाटकादीनं रुक्खानं तचं कोट्टेत्वा खादन्ति, ते अस्ममुट्ठिका नाम । ये पन " पासाणेन तचं कोट्टेत्वा विचरणं नाम दुक्खन्ति दन्तेहेव उब्बाटेत्वा खादन्ति, ते दन्तवक्कलिका नाम । ये " दन्तेहि उब्बाटेत्वा खादनं नाम दुक्खं पब्बजितस्सा'' ति लेड्डुदण्डादीहि पहरित्वा पतितानि फलानि परिभुञ्जन्ति, ते पवत्तफलभोजना नाम । २१९ ये पन "लेड्डुदण्डादीहि पातेत्वा परिभोगो नाम असारुप्पो पब्बजितस्सा "ति सयं पतितानेव पुप्फफलपण्डुपलासादीनि खादन्ता यापेन्ति, ते पण्डुपलासिका नाम । ते तिविधा - उक्कट्ठमज्झिममुदुकवसेन । तत्थ ये निसिन्नट्टानतो अनुट्ठाय हत्थेन पापुणनट्ठानेव पतितं गहेत्वा खादन्ति, ते उक्कट्ठा। ये एकरुक्खतो अञ्ञ रुक्खं न गच्छन्ति, ते मज्झिमा । ये तं तं रुक्खमूलं गन्त्वा परियेसित्वा खादन्ति, ते मुदुका । इमा पन अट्ठपि तापसपब्बज्जा इमाहि चतूहियेव सङ्गहं गच्छन्ति । कथं ? एतासु हि सपुत्तभरिया च उञ्छाचरिया च अगारं भजन्ति । अनग्गिपक्किका च असामपाका च अग्यागारं भजन्ति । अस्ममुट्ठिका च दन्तवक्कलिका च कन्दमूलफलभोजनं भजन्ति । पवत्तफलभोजना च पण्डुपलासिका च पवत्तफलभोजनं भजन्ति । तेन वुत्तं - " एत्तावता च भगवता सब्बापि तापसपब्बज्जा निद्दिट्ठा होन्ती 'ति । २८१-२८२. इदानि भगवा साचरियकस्स अम्बट्ठस्स विज्जाचरणसम्पदाय अपायमुखम्पि अप्पत्तभावं दस्सेतुं तं किं मञ्ञसि अम्बट्ठाति आदिमाह । तं उत्तानत्थमेव । अत्तना आपायिकोपि अपरिपूरमानोति अत्तना विज्जाचरणसम्पदाय आपायिकेनापि अपरिपूरमानेन । पुब्बकइसिभावानुयोगवण्णना २८३. दत्तिकन्ति दिन्नकं । सम्मुखीभावम्पि न ददातीति कस्मा न ददाति ? सो किर 219 Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२० दीघनिकाये सीलक्खन्धवट्ठकथा (३.२८४-२८५) सम्मुखा आवट्टनिं नाम विज्जं जानाति । यदा राजा महारहेन अलङ्कारेन अलङ्कतो होति, तदा रञो समीपे ठत्वा तस्स अलङ्कारस्स नामं गण्हति । तस्स राजा नामे गहिते न देमीति वत्तुं न सक्कोति । दत्वा पुन छणदिवसे अलङ्कारं आहरथाति वत्वा, नत्थि, देव, तुम्हेहि ब्राह्मणस्स दिन्नोति वुत्तो, “कस्मा मे दिन्नोति पुच्छि। ते अमच्चा ‘सो ब्राह्मणो सम्मुखा आवट्टनिमायं जानाति । ताय तुम्हे आवदे॒त्वा गहेत्वा गच्छती'ति आहंसु । अपरे रञा सह तस्स अतिसहायभावं असहन्ता आहंसु- “देव, एतस्स ब्राह्मणस्स सरीरे सङ्खफलितकुटुं नाम अस्थि । तुम्हे एतं दिस्वाव आलिङ्गथ परामसथ, इदञ्च कुटुं नाम कायसंसग्गवसेन अनुगच्छति, मा एवं करोथा'ति । ततो पट्ठाय तस्स राजा सम्मुखीभावं न देति। यस्मा पन सो ब्राह्मणो पण्डितो खत्तविज्जाय कुसलो, तेन सह मन्तेत्वा कतकम्म नाम न विरुज्झति, तस्मा साणिपाकारस्स अन्तो ठत्वा बहि ठितेन तेन सद्धिं मन्तेति । तं सन्धाय वुत्तं "तिरो दुस्सन्तेन मन्तेती''ति । तत्थ तिरोदुस्सन्तेनाति तिरोदुस्सेन । अयमेव वा पाठो । धम्मिकन्ति अनवज्ज । पयातन्ति अभिहरित्वा दिन्नं । कथं तस्स राजाति यस्स रञो ब्राह्मणो ईदिसं भिक्खं पटिग्गण्हेय्य, कथं तस्स ब्राह्मणस्स सो राजा सम्मुखीभावम्पि न ददेय्य । अयं पन अदिन्नकं मायाय गण्हति, तेनस्स सम्मुखीभावं राजा न देतीति निट्ठमेत्थ गन्तब्बन्ति अयमेत्थ अधिप्पायो | "इदं पन कारणं ठपेत्वा राजानञ्चेव ब्राह्मणञ्च न अञ्जो कोचि जानाति । तदेतं एवं रहस्सम्पि पटिच्छन्नम्पि अद्धा सब्ब समणो गोतमोति निद्वं गमिस्सती''ति भगवा पकासेसि । २८४. इदानि अयञ्च अम्बट्ठो, आचरियो चस्स मन्ते निस्साय अतिमानिनो । तेन तेसं मन्तनिस्सितमाननिम्मदनत्थं उत्तर देसनं वड्डेन्तो तं किं मञ्जसि, अम्बट्ट, इध राजातिआदिमाह । तत्थ रथूपत्थरेति रथम्हि रञो ठानत्थं अत्थरित्वा सज्जितपदेसे । उग्गेहि वाति उग्गतुग्गतेहि वा अमच्चेहि । राज हीति अनभिसित्तकुमारेहि । किञ्चिदेव मन्तनन्ति असुकस्मिं देसे तळाकं वा मातिकं वा कातुं वट्टति, असुकस्मिं गामं वा निगमं वा नगरं वा निवेसेतुन्ति एवरूपं पाकटमन्तनं । तदेव मन्तनन्ति यं रञा मन्तितं तदेव । तादिसेहियेव सीसुक्खेपभमुक्खेपादीहि आकारेहि मन्तेय्य | राजभणितन्ति यथा रञा भणितं, तस्सत्थस्स साधनसमत्थं । सोपि तस्सत्थस्स साधनसमत्थमेव भणितं भणतीति अत्थो । २८५. पवत्तारोति पवत्तयितारो। येसन्ति येसं सन्तकं । मन्तपदन्ति वेदसङ्खातं 220 Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३.२८६-२८६) पुब्बकइसिभावानुयोगवण्णना मन्तमेव । गीतन्ति अट्टकादीहि दसहि पोराणकब्राह्मणेहि सरसम्पत्तिवसेन सज्झायितं । पवुत्तन्ति अञ्ञेसं वुत्तं, वाचितन्ति अत्थो । समिहितन्ति समुपब्यूळ्हं रासिकतं, पिण्डं कत्वा ठपितन्ति अत्थो । तदनुगायन्तीति एतरहि ब्राह्मणा तं तेहि पुब्बे गीतं अनुगायन्ति अनुसज्झायन्ति । तदनुभासन्तीति तं अनुभासन्ति इदं पुरिमस्सेव वेवचनं । भासितमनुभासन्तीति तेहि भासितं सज्झायितं अनुसज्झायन्ति । वाचितमनुवाचेन्तीति हि अञ्ञेसं वाचितं अनुवाचेन्ति । सेय्यथिदन्ति ते कतमेहि अत्थो । अट्ठकोतिआदीनि तेसं नामानि । ते किर दिब्बेन चक्खुना ओलोकेत्वा परूपघातं अकत्वा कस्सपसम्मासम्बुद्धस्स भगवतो पावचनेन सह संसन्दित्वा मन्ते गन्धिंसु । अपरापरे पन ब्राह्मणा पाणातिपातादीनि पक्खिपित्वा तयो वेदे भिन्दित्वा बुद्धवचनेन सद्धिं विरुद्धे अकंसु । नेतं ठानं विज्जतीति येन त्वं इसि भवेय्यासि, एतं कारणं न विज्जति । इध भगवा यस्मा - "एस पुच्छियमानोपि, अत्तनो अवत्थरणभावं ञत्वा पटिवचनं न दस्सती 'ति जानाति, तस्मा पटि अगहेत्वाव तं इसिभावं पटिक्खिपि । २२१ २८६. इदानि यस्मा ते पोराणा दस ब्राह्मणा निरामगन्धा अनित्थिगन्धारजोजल्लधरा ब्रह्मचारिनो अरञ्ञायतने पब्बतपादेसु वनमूलफलाहारा वसिंसु । यदा कत्थचि गन्तुकामा होन्ति, इद्धिया आकासेनेव गच्छन्ति, नत्थि तेसं यानेन किच्चं । सब्बदिसासु च नेसं मेत्तादिब्रह्मविहारभावनाव आरक्खा होति, नत्थि तेसं पाकारपुरिसगुत्तीहि अत्थो । इमिना च अम्बट्ठेन सुतपुब्बा तेसं पटिपत्ति; तस्मा इमस्स साचरियकस्स तेसं पटिपत्तितो आरकभावं दस्सेतुं – “तं किं मञ्ञसि, अम्बट्ठा'' ति आदिमाह । तत्थ विचितकाळकन्ति विचिनित्वा अपनीतकाळकं । वेठक तपस्साहीत दुस्सपट्टदुस्सवेणि आदीहि वेठकेहि नमितफासुकाहि । कुत्तवालेहीति सोभाकरणत्थं कप्पेतुं, युत्तट्ठानेसु कप्पितवालेहि । एत्थ च वळवानंयेव वाला कप्पिता, न रथानं, वळवपयुत्तत्ता पन रथापि ‘“कुत्तवाला'ति वृत्ता । उक्किण्णपरिखासूति खतपरिखासु । ओक्खत्पलिघा ठपितपलिघासु । नगरूपकारिकासूति एत्थ उपकारिकाति परेसं आरोहनिवारणत्थं समन्ता नगरं पाकारस्स अधोभागे कतसुधाकम्मं वुच्चति । इध पन ताहि उपकारिकाहि युत्तानि नगरानेव ‘“नगरूपकारिकायो’”ति अधिप्पेतानि । रक्खापेन्तीति तादिसेसु नगरेसु वसन्तापि अत्तानं रक्खापेन्ति। कङ्क्षाति ‘“सब्बञ्ञू, न सब्बञ्जू" ति एवं संसयो । विमतीति तस्सेव वेवचनं, 221 Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२२ दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गट्ठकथा (३.२८७-२८८) विरूपा मति, विनिच्छिनितुं असमत्थाति अत्थो । इदं भगवा “अम्बठ्ठस्स इमिना अत्तभावेन मग्गपातुभावो नत्थि, केवलं दिवसो वीतिवत्तति, अयं खो पन लक्खणपरियेसनत्थं आगतो, तम्पि किच्चं नस्सरति । हन्दस्स सतिजननत्थं नयं देमी''ति आह । ढेलक्खणदस्सनवण्णना २८७. एवं वत्वा पन यस्मा बुद्धानं निसिन्नानं वा निपन्नानं वा कोचि लक्खणं परियेसितुं न सक्कोति, ठितानं पन चङ्कमन्तानं वा सक्कोति । आचिण्णञ्चेतं बुद्धानं लक्खणपरियेसनत्थं आगतभावं ञत्वा उट्ठायासना चङ्कमाधिट्टानं नाम, तेन भगवा उठायासना बहि निक्खन्तो। तस्मा अथ खो भगवातिआदि वुत्तं । समनेसीति गवेसि, एकं द्वेति वा गणयन्तो समानयि । येभुय्येनाति पायेन, बहुकानि अद्दस, अप्पानि न अद्दसाति अत्थो । ततो यानि न अद्दस तेसं दीपनत्थं वुत्तं - "ठपेत्वा द्वे"ति । कङ्घतीति “अहो वत पस्सेय्य''न्ति पत्थनं उप्पादेति । विचिकिच्छतीति ततो ततो तानि विचिनन्तो किच्छति न सक्कोति दटुं । नाधिमुच्चतीति ताय विचिकिच्छाय सन्निट्ठानं न गच्छति । न सम्पसीदतीति ततो- “परिपुण्णलक्खणो अय"न्ति भगवति पसादं नापज्जति । कङ्खाय वा दुब्बला विमति वुत्ता, विचिकिच्छाय मज्झिमा, अनधिमुच्चनताय बलवती, असम्पसादेन तेहि तीहि धम्मेहि चित्तस्स कालुसियभावो । कोसोहितेति वत्थिकोसेन पटिच्छन्ने । वत्थगुव्हेति अङ्गजाते भगवतो हि वरवारणस्सेव कोसोहितं वत्थगुहं सुवण्णवण्णं पदुमगब्भसमानं । तं सो वत्थपटिच्छन्नत्ता अपस्सन्तो, अन्तोमुखगताय च जिव्हाय पहूतभावं असल्लक्खेन्तो तेसु द्वीसु लक्खणेसु कवी अहोसि विचिकिच्छी। ___ २८८. तथारूपन्ति तं रूपं । किमेत्थ अञ्जेन वत्तब्बं ? वुत्तमेतं नागसेनत्थेरेनेव मिलिन्दरञा पुढेन - “दुक्करं, भन्ते, नागसेन, भगवता कतन्ति । किं महाराजाति ? महाजनेन हिरिकरणोकासं ब्रह्मायु ब्राह्मणस्स च अन्तेवासि उत्तरस्स च, बावरिस्स अन्तेवासीनं सोळसब्राह्मणानञ्च, सेलस्स ब्राह्मणस्स च अन्तेवासीनं तिसतमाणवानञ्च दस्सेसि, भन्तेति । न, महाराज, भगवा गुय्हं दस्सेसि | छायं भगवा दस्सेसि । इद्धिया अभिसङ्खरित्वा निवासननिवत्थं कायबन्धनबद्धं चीवरपारुतं छायारूपकमत्तं दस्सेसि महाराजाति । छायं दिढे सति दिट्ट्येव ननु, भन्तेति ? तिठ्ठतेतं, महाराज, हदयरूपं 222 Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३.२८९-२९२-२९६) पोक्खरसातिबुद्धूपसङ्कमनवण्णना २२३ दिस्वा बुज्झनकसत्तो भवेय्य, हदयमंसं नीहरित्वा दस्सेय्य सम्मासम्बुद्धोति । कल्लोसि, भन्ते, नागसेना"ति । निन्नामेत्वाति नीहरित्वा । अनुमसीति कथिनसूचिं विय कत्वा अनुमज्जि, तथाकरणेन चेत्थ मुदुभावो, कण्णसोतानुमसनेन दीघभावो, नासिकसोतानुमसनेन तनुभावो, नलाटच्छादनेन पुथुलभावो पकासितोति वेदितब्बो । २८९. पटिमानेन्तोति आगमेन्तो, आगमनमस्स पत्थेन्तो उदिक्खन्तोति अत्थो । २९०. कथासल्लापोति कथा च सल्लापो च, कथनं पटिकथनन्ति अत्थो । २९१. अहो वताति गरहवचनमेतं । रेति इदं हीळनवसेन आमन्तनं । पण्डितकाति तमेव जिगुच्छन्तो आह । सेसपदद्वयेपि एसेव नयो । एवरूपेन किर भो पुरिसो अत्थचरकेनाति इदं यादिसो त्वं, एदिसे अत्थचरके हितकारके सति पुरिसो निरयंयेव गच्छेय्य, न अञ्जत्राति इममत्थं सन्धाय वदति । आसज्ज आसज्जाति घट्टेत्वा घट्टेत्वा । अम्हेपि एवं उपनेय्य उपनेय्याति ब्राह्मणो खो पन अम्बठ्ठ पोक्खरसातीतिआदीनि वत्वा एवं उपनेत्वा उपनेत्वा पटिच्छन्नं कारणं आविकरित्वा सुट्ट दासादिभावं आरोपेत्वा अवच, तया अम्हे अक्कोसापिताति अधिप्पायो । पदसायेव पवत्तेसीति पादेन पहरित्वा भूमियं पातेसि । यञ्च सो पुब्बे आचरियेन सद्धिं रथं आरुहित्वा सारथि हुत्वा अगमासि, तम्पिस्स ठानं अच्छिन्दित्वा रथस्स पुरतो पदसा येवस्स गमनं अकासि । पोक्खरसातिबुद्धूपसङ्कमनवण्णना २९२-२९६. अतिविकालोति सुट्ठ विकालो, सम्मोदनीयकथायपि कालो नत्थि । आगमा नु खिध भोति आगमा नु खो इध भो। अधिवासेतूति सम्पटिच्छतु । अज्जतनायाति यं मे तुम्हेसु कारं करोतो अज्ज भविस्सति पुञञ्च पीतिपामोज्जञ्च तदत्थाय । अधिवासेसि भगवा तुण्हीभावेनाति भगवा कायङ्गं वा वाचणं वा अचोपेत्वा अब्भन्तरेयेव खन्तिं धारेन्तो तुण्हीभावेन अधिवासेसि । ब्राह्मणस्स अनुग्गहणत्थं मनसाव सम्पटिच्छीति वुत्तं होति । 223 Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२४ दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गट्ठकथा २९७. पणीतेनाति उत्तमेन । सहत्थाति सहत्थेन । सन्तप्पेसीति सुट्टु तप्पेसि परिपुण्णं सुहितं यावदत्थं अकासि | सम्पवारेसीति सुट्टु पवारेसि, अलं अलन्ति हत्थाय पटिक्खिपापेसि | भुत्ताविन्ति भुत्तवन्तं । ओनीतपत्तपाणिन्ति पत्ततो ओनीतपाणि, अपनीतहत्थन्ति वुत्तं होति । ओनित्तपत्तपाणिन्तिपि पाठी । तस्सत्थो - ओनित्तं नानाभूतं विनाभूतं पत्तं पाणितो अस्साति ओनित्तपत्तपाणि, तं ओनित्तपत्तपाणि । हत्थे च पत्तञ्च धोवित्वा एकमन्ते पत्तं निक्खिपित्वा निसिन्नन्ति अत्थो । एकमन्तं निसीदीति भगवन्तं एवं भूतं ञत्वा एकस्मिं ओकासे निसीदीति अत्थो । २९८. अनुपुब्बिं कथन्ति अनुपटिपाटिकथं । आनुपुब्बिकथा नाम दानानन्तरं सीलं, सीलानन्तरं सग्गो, सग्गानन्तरं मग्गोति एतेसं अत्थानं दीपनकथा । तेनेव – “ सेय्यथिदं दानकथ"न्तिआदिमाह । ओकारन्ति अवकारं लामकभावं । सामुक्कंसिकाति सामं उक्कंसिका, अत्तनायेव उद्धरित्वा गहिता, सयम्भूञाणेन दिट्ठा, असाधारणा अञ्ञसन्ति अत्थो । का पन साति ? अरियसच्चदेसना । तेनेवाह “दुक्खं, समुदयं, निरोधं, मग्गन्ति । धम्मचक्खुन्ति एत्थ सोतापत्तिमग्गो अधिप्पेतो । तस्स उप्पत्तिआकारदस्सनत्थं - “यं किञ्चि समुदयधम्मं, सब्बं तं निरोधधम्म "न्ति आह । तञ्हि निरोधं आरम्मणं कत्वा किच्चवसेन एवं सब्बसङ्घतं पटिविज्झन्तं उप्पज्जति । - पोक्खरसातिउपासकत्तपटिवेदनावण्णना २९९. दिट्ठो अरियसच्चधम्मो एतेनाति दिट्ठधम्मो । एस नयो सेसपदेसुपि । तिण्णा विचिकिच्छा अनेनाति तिण्णविचिकिच्छो । विगता कथंकथा अस्साति विगतकथंकथो । वेसारज्जप्पत्तोति विसारदभावं पत्तो । कत्थ ? सत्थुसासने । नास्स परो पच्चयो, न परस्स सद्धाय एत्थ वत्ततीति अपरप्पच्चयो । सेसं सब्बत्थ वृत्तनयत्ता उत्तानत्थत्ता च पाकटमेवाति । इति सुमङ्गलविलासिनिया दीघनिकायट्ठकथायं अम्बट्टसुत्तवण्णना निट्ठिता । (३.२९७ - २९९) 224 Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४. सोणदण्डसुत्तवण्णना ३००. एवं मे सुतं...पे०... अङ्गेसूति सोणदण्डसुत्तं । तत्रायं अपुब्बपदवण्णना। अङ्गेसूति अङ्गा नाम अङ्गपासादिकताय एवं लद्धवोहारा जानपदिनो राजकुमारा, तेसं निवासो एकोपि जनपदो रूळ्हिसद्देन अङ्गाति वुच्चति, तस्मिं अङ्गेसु जनपदे । चारिकन्ति इधापि अतुरितचारिका चेव निबद्धचारिका च अधिप्पेता। तदा किर भगवतो दससहस्सिलोकधातुं ओलोकेन्तस्स सोणदण्डो ब्राह्मणो आणजालस्स अन्तो पञायित्थ । अथ भगवा अयं ब्राह्मणो मय्हं आणजाले पचायति । 'अत्थि नु ख्वस्सुपनिस्सयो'ति वीमंसन्तो अद्दस । 'मयि तत्थ गते एतस्स अन्तेवासिनो द्वादसहाकारेहि ब्राह्मणस्स वण्णं भासित्वा मम सन्तिके आगन्तुं न दस्सन्ति । सो पन तेसं वादं भिन्दित्वा एकूनतिंस आकारेहि मम वण्णं भासित्वा मं उपसङ्कमित्वा पञ्हं पुच्छिस्सति । सो पञ्हविस्सज्जनपरियोसाने सरणं गमिस्सती'ति, दिस्वा पञ्चसतभिक्खुपरिवारो तं जनपदं पटिपन्नो। तेन वुत्तं - अङ्गेसु चारिकं चरमानो...पे०... येन चम्पा तदवसरीति । गग्गराय पोक्खरणिया तीरेति तस्स चम्पानगरस्स अविदूरे गग्गराय नाम राजग्गमहेसिया खणितत्ता गग्गराति लद्धवोहारा पोक्खरणी अस्थि । तस्सा तीरे समन्ततो नीलादिपञ्चवण्णकुसुमपटिमण्डितं महन्तं चम्पकवनं । तस्मिं भगवा कुसुमगन्धसुगन्धे चम्पकवने विहरति । तं सन्धाय गग्गराय पोक्खरणिया तीरेति वुत्तं । मागधेन सेनियेन बिम्बिसारेनाति एत्थ सो राजा मगधानं इस्सरत्ता मागधो। महतिया सेनाय समन्नागतत्ता सेनियो। बिम्बीति सुवण्णं । तस्मा सारसुवण्णसदिसवण्णताय बिम्बिसारोति वुच्चति । ३०१-३०२. बहू बहू हुत्वा संहताति सङ्घा । एकेकिस्साय दिसाय सङ्घो एतेसं अत्थीति सङ्घी। पुब्बे नगरस्स अन्तो अगणा बहि निक्खमित्वा गणतं पत्ताति गणीभूता। 225 Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२६ दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गट्ठकथा (४.३०३-३०३) खत्तं आमन्तेसीति । खत्ता वुच्चति पुच्छितपन्हे ब्याकरणसमत्थो महामत्तो, तं आमन्तेसि आगमेन्तूति मुहत्तं पटिमानेन्तु, मा गच्छन्तूति वुत्तं होति । सोणदण्डगुणकथा ३०३. नानावेरज्जकानन्ति नानाविधेसु रज्जेसु, अनेसु अञ्जेसु कासिकोसलादीसु रज्जेसु जाता, तानि वा तेसं निवासा, ततो वा आगताति नानावेरज्जका, तेसं नानावेरज्जकानं । केनचिदेव करणीयेनाति तस्मिं किर नगरे द्वीहि करणीयेहि ब्राह्मणा सन्निपतन्ति - यानुभवनत्थं वा मन्तसज्झायनत्थं वा । तदा च तस्मिं नगरे यमचा नत्थि । सोणदण्डस्स पन सन्तिके मन्तसज्झायनत्थं एते सन्निपतिता । तं सन्धाय वुत्तं - "केनचिदेव करणीयेना''ति । ते तस्स गमनं सुत्वा चिन्तेसुं- “अयं सोणदण्डो उग्गतब्राह्मणो येभुय्येन च अञ्चे ब्राह्मणा समणं गोतमं सरणं गता, अयमेव न गतो। स्वायं सचे तत्थ गमिस्सति, अद्धा समणस्स गोतमस्स आवट्टनिया मायाय आवट्टितो, तं सरणं गमिस्सति । ततो एतस्सापि गेहद्वारे ब्राह्मणानं सन्निपातो न भविस्सती"ति । "हन्दस्स गमनन्तरायं करोमा"ति सम्मन्तयित्वा तत्थ अगमंसु । तं सन्धाय – अथ खो ते ब्राह्मणातिआदि वुत्तं । तत्थ इमिनापङ्गेनाति इमिनापि कारणेन । एवं एतं कारणं वत्वा पुन - "अत्तनो वण्णे भञमाने अतुस्सनकसत्तो नाम नत्थि। हन्दस्स वण्णं भणनेन गमनं निवारेस्सामा''ति चिन्तेत्वा भवज्हि सोणदण्डो उभतो सुजातोतिआदीनि कारणानि आहंसु । उभतोति द्वीहि पक्खेहि । मातितो च पितितो चाति भोतो माता ब्राह्मणी, मातुमाता ब्राह्मणी, तस्सापि माता ब्राह्मणी; पिता ब्राह्मणो, पितुपिता ब्राह्मणो, तस्सापि पिता ब्राह्मणोति, एवं भवं उभतो सुजातो मातितो च पितितो च । संसुद्धगहणिकोति संसुद्धा ते मातुगहणी कुच्छीति अत्थो । समवेपाकिनिया गहणियाति एत्थ पन कम्मजतेजोधातु "गहणी"ति वुच्चति । याव सत्तमा पितामहयुगाति एत्थ पितुपिता पितामहो, पितामहस्स युगं पितामहयुगं । युगन्ति आयुप्पमाणं वुच्चति । अभिलापमत्तमेव चेतं । अत्थतो पन पितामहोयेव पितामहयुगं । ततो उद्धं सब्बेपि पुब्बपुरिसा पितामहग्गहणेनेव गहिता । एवं याव सत्तमो 226 Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४.३०३-३०३) सोणदण्डगुणकथा २२७ पुरिसो, ताव संसुद्धगहणिको। अथ वा अक्खित्तो अनुपकुट्ठो जातिवादेनाति दस्सेन्ति | अक्खित्तोति- “अपनेथ एतं, किं इमिना''ति एवं अक्खित्तो अनवक्खित्तो। अनुपकुट्ठोति न उपकुट्ठो, न अक्कोसं वा निन्दं वा लद्धपुब्बो । केन कारणेनाति ? जातिवादेन । इतिपि - “हीनजातिको एसो''ति एवरूपेन वचनेनाति अत्थो । अहोति इस्सरो । महद्धनोति महता धनेन समन्नागतो। भवतो हि गेहे पथवियं पंसुवालिका विय बहुधनं, समणो पन गोतमो अधनो भिक्खाय उदरं पूरेत्वा यापेतीति दस्सेन्ति । महाभोगोति पञ्चकामगुणवसेन महाउपभोगो । एवं यं यं गुणं वदन्ति, तस्स तस्स पटिपक्खवसेन भगवतो अगुणंयेव दस्सेमाति मञ्जमाना वदन्ति । अभिरूपोति अञ्चेहि मनुस्सेहि अभिरूपो अधिकरूपो । दस्सनीयोति दिवसम्पि पस्सन्तानं अतित्तिकरणतो दस्सनयोग्गो। दस्सनेनेव चित्तपसादजननतो पासादिको। पोक्खरता वुच्चति सुन्दरभावो, वण्णस्स पोक्खरता वण्णपोक्खरता, ताय वण्णसम्पत्तिया युत्तोति अत्थो। पोराणा पनाहु - “पोक्खरन्ति सरीरं वदन्ति, वणं वण्णमेवा'ति । तेसं मतेन वण्णञ्च पोक्खरञ्च वण्णपोक्खरानि । तेसं भावो वण्णपोक्खरता। इति परमाय वण्णपोक्खरतायाति उत्तमेन परिसुद्धेन वण्णेन चेव सरीरसण्ठानसम्पत्तिया चाति अत्थो । ब्रह्मवण्णीति सेट्ठवण्णी। परिसुद्धवण्णेसुपि सेटेन सुवण्णवण्णेन समन्नागतोति अत्थो । ब्रह्मवच्छसीति महाब्रह्मनो सरीरसदिसेनेव सरीरेन समन्नागतो। अखबावकासो दस्सनायाति "भोतो सरीरे दस्सनस्स ओकासो न खुद्दको महा, सब्बानेव ते अङ्गपच्चङ्गानि दस्सनीयानेव, तानि चापि महन्तानेवा'"ति दीपेन्ति ।। सीलमस्स अत्थीति सीलवा। वुद्धं वद्धितं सीलमस्साति वुद्धसीली। वुद्धसीलेनाति वुद्धेन वद्धितेन सीलेन । समनागतोति युत्तो। इदं वुद्धसीलीपदस्सेव वेवचनं । सब्बमेतं पञ्चसीलमत्तमेव सन्धाय वदन्ति । कल्याणवाचोतिआदीसु कल्याणा सुन्दरा परिमण्डलपदव्यञ्जना वाचा अस्साति कल्याणवाचो। कल्याणं मधुरं वाक्करणं अस्साति कल्याणवाक्करणो। वाक्करणन्ति उदाहरणघोसो | गुणपरिपुण्णभावेन पुरे भवाति पोरी। पुरे वा भवत्ता पोरी। पोरिया नागरिकित्थिया सुखुमालत्तनेन सदिसाति पोरी, ताय पोरिया। विस्सट्ठायाति अपलिबुद्धाय सन्दिट्ठविलम्बितादिदोसरहिताय । अनेलगलायाति एलगळेनविरहिताय । यस्स कस्सचि हि 227 Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२८ दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गट्ठकथा (४.३०४-३०४) कथेन्तस्स एला गळन्ति, लाला वा पग्घरन्ति, खेळफुसितानि वा निक्खमन्ति, तस्स वाचा एलगळं नाम होति, तब्बिपरितायाति अत्थो । अत्थस्स विज्ञापनियातिआदिमज्झपरियोसानं पाकटं कत्वा भासितत्थस्स विज्ञापनसमत्थाय । जिण्णोति जराजिण्णताय जिण्णो । वुद्धोति अङ्गपच्चङ्गानं वुद्धिभावमरियादप्पत्तो। महल्लकोति जातिमहल्लकताय समन्नागतो। चिरकालप्पसुतोति वुत्तं होति । अद्धगतोति अद्धानं गतो, द्वे तयो राजपरिवटे अतीतोति अधिप्पायो । क्योअनुप्पत्तोति पच्छिमवयं सम्पत्तो, पच्छिमवयो नाम वस्ससतस्स पच्छिमो ततियभागो।। __ अपि च जिण्णोति पोराणो, चिरकालप्पवत्तकुलन्वयोति वुत्तं होति । वुद्धोति सीलाचारादिगुणवुद्धिया युत्तो। महल्लकोति विभवमहन्ताय समन्नागतो। अद्धगतोति मग्गप्पटिपन्नो ब्राह्मणानं वतचरियादिमरियादं अवीतिक्कम्म चरणसीलो। वयोअनुप्पत्तोति जातिवुद्धभावम्पि अन्तिमवयं अनुप्पत्तो । बुद्धगुणकथा ३०४. एवं वुत्तेति एवं तेहि ब्राह्मणेहि वुत्ते । सोणदण्डो- “इमे ब्राह्मणा जातिआदीहि मम वण्णं वदन्ति, न खो पन मेतं युत्तं अत्तनो वण्णे रज्जितुं । हन्दाहं एतेसं वादं भिन्दित्वा समणस्स गोतमस्स महन्तभावं जापेत्वा एतेसं तत्थ गमनं करोमी''ति चिन्तेत्वा तेन हि- भो ममपि सुणाथातिआदिमाह । तत्थ येपि उभतो सुजातोति आदयो अत्तनो गुणेहि सदिसा गुणा तेपि; “को चाहं के च समणस्स गोतमस्स जातिसम्पत्तिआदयो गुणा''ति अत्तनो गुणेहि उत्तरितरेयेव मञमानो, इतरे पन एकन्तेनेव भगवतो महन्तभावदीपनत्थं पकासेति । मयमेव अरहामाति एवं नियामेन्तीवेत्थ इदं दीपेति- “यदि गुणमहन्तताय उपसङ्कमितब्बो नाम होति । यथा हि सिनेरुं उपनिधाय सासपो, महासमुदं उपनिधाय गोपदकं, सत्तसु महासरेसु उदकं उपनिधाय उस्सावबिन्दु परित्तो लामको । एवमेव समणस्स गोतमस्स जातिसम्पत्तिआदयोपि गुणे उपनिधाय अम्हाकं गुणा परित्ता लामका; तस्मा मयमेव अरहाम तं भवन्तं गोतमं दस्सनाय उपसङ्क्रमितु"न्ति । 228 Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४.३०४-३०४) बुद्धगुणकथा २२९ महन्तं आतिसंघं ओहायाति मातिपक्खे असीतिकुलसहस्सानि, पितिपक्खे असीतिकुलसहस्सानीति एवं सट्ठिकुलसतसहस्सं ओहाय पब्बजितो । भूमिगतञ्च वेहासट्ठञ्चाति एत्थ राजङ्गणे चेव उय्याने च सुधामट्ठपोक्खरणियो सत्तरतनानं पूरेत्वा भूमियं ठपितं धनं भूमिगतं नाम । पासादनियूहादयो परिपूरेत्वा ठपितं वेहासहूँ नाम । एतं ताव कुलपरियायेन आगतं । तथागतस्स पन जातदिवसेयेव सङ्खो, एलो, उप्पलो, पुण्डरीकोति चत्तारो निधयो उग्गता । तेसु सङ्खो गावुतिको, एलो अड्डयोजनिको, उप्पलो तिगावुतिको, पुण्डरीको योजनिको । तेसुपि गहितं गहितं पूरतियेव, इति भगवा पहूतं हिरञ्जसुवण्णं ओहाय पब्बजितोति वेदितब्बो । ___दहरोव समानोति तरुणोव समानो। सुसुकाळकेसोति सुटु काळकेसो, अञ्जनवण्णसदिसकेसो हुत्वा वाति अत्थो । भद्रेनाति भद्दकेन । पठमेन वयसाति तिण्णं वयानं पठमवयेन । अकामकानन्ति अनिच्छमानानं । अनादरत्थे सामिवचनं । अस्सूनि मुखे एतेसन्ति अस्सुमुखा, तेसं अस्सुमुखानं, अस्सूहि किलिन्नमुखानन्ति अत्थो । रुदन्तानन्ति कन्दित्वा रोदमानानं । अखुद्दावकासोति एत्थ भगवतो अपरिमाणोयेव दस्सनाय ओकासोति वेदितब्बो। तत्रिदं वत्थु - राजगहे किर अञतरो ब्राह्मणो समणस्स गोतमस्स पमाणं गहेतुं न सक्कोतीति सुत्वा भगवतो पिण्डाय पविसनकाले सट्ठिहत्थं वेळु गहेत्वा नगरद्वारस्स बहि ठत्वा सम्पत्ते भगवति वेळु गहेत्वा समीपे अट्ठासि | वेळु भगवतो जाणुकमत्तं पापुणि । पुन दिवसे द्वे वेळू घटेत्वा समीपे अट्ठासि। भगवापि द्विन्नं वेळूनं उपरि कटिमत्तमेव पञ्जायमानो - "ब्राह्मण, किं करोसी''ति आह । तुम्हाकं पमाणं गण्हामीति | "ब्राह्मण, सचेपि त्वं सकलचक्कवाळगब्भं पूरेत्वा ठिते वेळू घटेत्वा आगमिस्ससि, नेव मे पमाणं गहेतुं सक्खिस्ससि । न हि मया चत्तारि असङ्ख्येयानि कप्पसतसहस्सञ्च तथा पारमियो पूरिता, यथा मे परो पमाणं गण्हेय्य, अतुलो, ब्राह्मण, तथागतो अप्पमेय्योति वत्वा धम्मपदे गाथमाह - "ते तादिसे पूजयतो, निब्बुते अकुतोभये । न सक्का पुजं सङ्खातुं, इमेत्तमपि केनची''ति ।। (ध० प० ३६) 229 Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३० दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गट्ठकथा गाथापरियोसाने चतुरासीतिपाणसहस्सानि अमतं पिविंसु । अपरम्प वत्थु - राहु किर असुरिन्दो चत्तारि योजनसहस्सानि अट्ठ च योजनसतानि उच्चो । बाहन्तरमस्स द्वादसयोजनसतानि । बहलन्तरेन छ योजनसतानि । हत्थतलपादतलानं पुथुलतो तीणि योजनसतानि । अङ्गुलिपब्बानि पण्णासयोजना भमुकन्तरं पण्णासयोजनं । मुखं द्वियोजनसतं तियोजनसतगम्भीरं तियोजनसतपरिमण्डलं । गीवा तियोजनसतं । नलाटं तियोजनसतं । सीसं नवयोजनसतं । “सो अहं उच्चोस्मि, सत्थारं ओनमित्वा ओलोकेतुं न सक्खिस्सामी 'ति चिन्तेत्वा नागच्छि । सो एकदिवसं भगवतो वण्णं सुत्वा - “यथाकथञ्च ओलोकेस्सामी "ति आगतो । अथ भगवा तस्सज्झासयं विदित्वा - “ चतूसु इरियापथेसु कतरेन दस्सेस्सामी "ति चिन्तेत्वा “ठितको नाम नीचोपि उच्चो विय पञ्ञायति । निपन्नोवस्स अत्तानं दस्सेस्सामी 'ति 'आनन्द, गन्धकुटिपरिवेणे मञ्चकं पञ्ञापेही 'ति वत्वा तत्थ सीहसेय्यं कप्पेसि। राहु आगन्त्वा निपन्नं भगवन्तं गीवं उन्नामेत्वा नभमज्झे पुण्णचन्दं विय उल्लोकेसि । किमिदं असुरिन्दाति च वुत्ते- “भगवा ओनमित्वा ओलोकेतुं न सक्खिस्सामीति नागच्छिन्ति । न मया, असुरिन्द, अधोमुखेन पारमियो पूरिता । उद्धग्गमेव कत्वा दानं दिन्नन्ति । तं दिवसं राहु सरणं अगमासि । एवं भगवा अखुद्दावकासो दस्सनाय । 66 चतुपारिसुद्धिसीलेन सीलवा, तं पन सीलं अरियं उत्तमं परिसुद्धं । तेनाह - 'अरियसीली 'ति । तदेतं अनवज्जट्ठेन कुसलं । तेनाह - " कुसलसीली 'ति । कुसलसीलेनाति इदमस्स वेवचनं । ( ४.३०४-३०४) बहूनं आचरियपाचरियोति भगवतो एकेकाय धम्मदेसनाय चतुरासीतिपाणसहस्सानि अपरिमाणापि देवमनुस्सा मग्गफलामतं पिवन्ति, तस्मा बहूनं आचरियो । सावकवेनेय्यानं पन पाचरियोति । खीणकामरागोति एत्थ कामं भगवतो सब्बेपि किलेसा खीणा । ब्राह्मणो पन ते न जानाति । अत्तनो जाननट्ठानेयेव गुणं कथेति । विगतचापल्लोति "पत्तमण्डना 230 Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४.३०४-३०४) बुद्धगुणकथा २३१ चीवरमण्डना सेनासनमण्डना इमस्स वा पूतिकायस्स...पे०... केलना पटिकेलना'ति (विभं० ८५४) एवं वुत्तचापल्ला विरहितो । अपापपुरेक्खारोति अपापे नव लोकुत्तरधम्मे पुरतो कत्वा विचरति । ब्रह्माय पजायाति सारिपुत्तमोग्गल्लानमहाकस्सपादिभेदाय ब्राह्मणपजाय, एतिस्साय च पजाय पुरेक्खारो। अयहि पजा समणं गोतमं पुरक्खत्वा चरतीति अत्थो। अपि च अपापपुरेक्खारोति न पापं पुरेक्खारो न पापं पुरतो कत्वा चरति, न पापं इच्छतीति अत्थो । कस्स ? ब्रह्मज्ञाय पजाय । अत्तना सद्धिं पटिविरुद्धायपि ब्राह्मणपजाय अविरुद्धो हितसुखत्थिको येवाति वुत्तं होति । तिरोरट्ठाति पररठ्ठतो। तिरोजनपदाति परजनपदतो। पहं पुच्छितुं आगच्छन्तीति खत्तियपण्डितादयो चेव देवब्रह्मनागगन्धब्बादयो च – “पन्हे अभिसङ्घरित्वा पुच्छिस्सामा''ति आगच्छन्ति । तत्थ केचि पुच्छाय वा दोसं विस्सज्जनसम्पटिच्छने वा असमत्थतं सल्लक्खेत्वा अपुच्छित्वाव तुण्ही निसीदन्ति । केचि पुच्छन्ति । केसञ्चि भगवा पुच्छाय उस्साहं जनेत्वा विस्सज्जेति । एवं सब्बेसम्पि तेसं विमतियो तीरं पत्वा महासमुद्दस्स ऊमियो विय भगवन्तं पत्वा भिज्जन्ति । एहि स्वागतवादीति देवमनुस्सपब्बजितगहढेसु तं तं अत्तनो सन्तिकं आगतं – “एहि स्वागत'"न्ति एवं वदतीति अत्थो । सखिलोति तत्थ कतमं साखल्यं ? “या सा वाचा नेला कण्णसुखा''तिआदिना नयेन वुत्तसाखल्येन समन्नागतो, मुदुवचनोति अत्थो । सम्मोदकोति पटिसन्थारकुसलो, आगतागतानं चतुन्नं परिसानं - “कच्चि, भिक्खवे, खमनीयं, कच्चि यापनीय''न्तिआदिना नयेन सब्बं अद्धानदरथं वूपसमेन्तो विय पठमतरं सम्मोदनीयं कथं कत्ताति अत्थो । अब्भाकुटिकोति यथा एकच्चे परिसं पत्वा थद्धमुखा सङ्कुटितमुखा होन्ति, न एदिसो, परिसदस्सनेन पनस्स बालातपसम्फस्सेन विय पदुमं मुखपदुमं विकसति पुण्णचन्दसस्सिरिकं होति । उत्तानमुखोति यथा एकच्चे निकुज्जितमुखा विय सम्पत्ताय परिसाय न किञ्चि कथेन्ति, अतिदुल्लभकथा होन्ति, न एवरूपो। समणो पन गोतमो सुलभकथो । न तस्स सन्तिकं आगतागतानं- “कस्मा मयं इधागता''ति विप्पटिसारो उप्पज्जति धम्म पन सुत्वा अत्तमनाव होन्तीति दस्सेति । पुब्बभासीति भासन्तो च पठमतरं भासति, तञ्च खो कालयुत्तं पमाणयुत्तं अत्थनिस्सितमेव भासति, न निरत्थककथं । 231 Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३२ दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गट्ठकथा (४.३०५-३०५) न तस्मिं गामे वाति यत्थ किर भगवा पटिवसति, तत्थ महेसक्खा देवता आरक्खं गण्हन्ति, तं निस्साय मनुस्सानं उपद्दवो न होति, पंसुपिसाचकादयोयेव हि मनुस्से विहेठेन्ति, ते तासं आनुभावेन दूरं अपक्कमन्ति । अपि च भगवतो मेत्ताबलेनपि न अमनुस्सा मनुस्से विहेठेन्ति । सङ्घीतिआदीसु अनुसासितब्बो सयं वा उप्पादितो सङ्घो अस्स अत्थीति सङ्घी। तादिसो चस्स गणो अस्थीति गणी। पुरिमपदस्सेव वा वेवचनमेतं । आचारसिक्खापनवसेन गणस्स आचरियोति गणाचरियो। पुथुतित्थकरानन्ति बहूनं तित्थकरानं । यथा वा तथा वाति येन वा तेन वा अचेलकादिमत्तकेनापि कारणेन । समुदागच्छतीति समन्ततो उपगच्छति अभिवड्डति । अतिथि नो ते होन्तीति ते अम्हाकं आगन्तुका, नवका पाहुनका होन्तीति अत्थो । परियापुणामीति जानामि । अपरिमाणवण्णोति तथारूपेनेव सब्बञ्जनापि अप्पमेय्यवण्णो“पगेव मादिसेना''ति दस्सेति । वुत्तम्पि चेत्तं - "बुद्धोपि बुद्धस्स भणेय्य वण्णं, कप्पम्पि चे अञमभासमानो । खीयेथ कप्पो चिरदीघमन्तरे, वण्णो न खीयेथ तथागतस्सा'ति ।। ३०५. इमं पन सत्थु गुणकथं सुत्वा ते ब्राह्मणा चिन्तयिंसु- यथा सोणदण्डो ब्राह्मणो समणस्स गोतमस्स वण्णे भणति, अनोमगुणो सो भवं गोतमो; एवं तस्स गुणे जानमानेन खो पन आचरियेन अतिचिरं अधिवासितं, हन्द नं अनुवत्तामाति अनुवत्तिंसु । तस्मा एवं वुत्ते “ते ब्राह्मणा''तिआदि वुत्तं । तत्थ अलमेवाति युत्तमेव । अपि पुटोसेनाति पुटोसं वुच्चति पाथेय्यं, तं गहेत्वापि उपसङ्कमितुं युत्तमेवाति अत्थो । पुटंसेनातिपि पाठो, तस्सत्थो, पुटो अंसे अस्साति टंसो, तेन पुटंसेन । अंसेन हि पाथेय्यपुटं वहन्तेनापीति वुत्तं होति । 232 Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४.३०६-३०८-३११-३१३) सोणदण्डपरिवितक्कवण्णना सोणदण्डपरिवितक्कवण्णना ३०६-३०८. तिरोवनसण्डगतस्साति अन्तोवनसण्डे गतस्स, विहारब्भन्तरं पविट्ठस्साति अत्थो । अञ्जलिं पणामेत्वाति एते उभतोपक्खिका, ते एवं चिन्तयिंसु - “सचे नो मिच्छादिट्टिका चोदेस्सन्ति - 'कस्मा तुम्हे समणं गोतमं वन्दित्था'ति ? तेसं - 'किं अञ्जलिमत्तकरणेनापि वन्दनं नाम होती 'ति वक्खाम । सचे नो सम्मादिट्टिका चोदेस्सन्ति - 'कस्मा तुम्हे भगवन्तं न वन्दित्था 'ति । 'किं सीसेन भूमियं पहरन्तेनेव वन्दनं नाम होति, ननु अञ्जलिकम्मम्पि वन्दनं एवाति वक्खामा "ति । नामगोत्तन्ति “भो, गोतम, अहं असुकस्स पुत्तो दत्तो नाम, मित्तो नाम, इधागतो 'ति वदन्ता नामं सावेन्ति नाम । “भो, गोतम, अहं वासेट्ठो नाम, कच्चानो नाम, इधागतो 'ति वदन्ता गोत्तंसावेन्ति नाम । एते किर दलिद्दा जिण्णा कुलपुत्ता " परिसमज्झे नामगोत्तवसेन पाकटा भविस्सामा "ति एवमकंसु । ये पन तुम्हीभूता निसीदिंसु, ते केराटिका चेव अन्धबाला च । तत्थ केराटिका - “एकं द्वे कथासल्लापेपि करोन्तो विस्सासिको होति, अथ विस्सा से सति एकं द्वे भिक्खा अदातुं न युत्त "न्ति ततो अत्तानं मोचेत्वा तुम्ही निसीदन्ति । अन्धबाला अञ्ञाणतायेव अवक्खित्तमत्तिकापिण्डो विय यत्थ कत्थचि तुम्हीभूता निसीदन्ति । ब्राह्मणपञ्ञत्तिवण्णना ३०९ - ३१०. चेतसा चेतोपरिवितक्कन्ति भगवा " अयं ब्राह्मणो आगतकालतो पट्ठाय अधोमुखो थद्धगत्तो किं चिन्तयमानो निसिन्नो, किं नु खो चिन्तेती 'ति आवज्जन्तो अत्तनो चेतसा तस्स चित्तं अञ्ञासि । तेन वुत्तं - “ चेतसा चेतोपरिवितक्कमञ्ञया "ति । विञीति विघातं आपज्जति । अनुविलोकेत्वा परिसन्ति भगवतो सकसमये पञ्हपुच्छनेन उदके मियमानो उक्खिपित्वा थले ठपितो विय समपस्सद्धकायचित्तो हुत्वा परिसं सङ्गण्हनत्थं दिट्ठिसञ्जानेनेव " उपधारेन्तु मे भोन्तो वचन "न्ति वदन्तो विय अनुविलोकेत्वा परिसं भगवन्तं एतदवोच । २३३ ३११-३१३. सुजं पग्गण्हन्तानन्ति यञ्ञयजनत्थाय सुजं गण्हन्तेसु ब्राह्मणेसु पठमो वा दुतियो वाति अत्थो । सुजाय दिय्यमानं महायागं पटिग्गण्हन्तानन्ति पोराणा । इति ब्राह्मणो सकसमयवसेन सम्मदेव पहं विस्सज्जे सि । भगवा पन विसेसतो उत्तमब्राह्मणस्स 233 Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३४ दीघनिकाये सीलक्खन्धवरगट्ठकथा दस्सनत्थं - “ इमेसं पना "तिआदिमाह । एतदवोचुन्ति सचे जातिवण्णमन्तसम्पन्नो ब्राह्मणो न होति, अथ को चरहि लोके ब्राह्मणो भविस्सति ? नासेति नो अयं सोणदण्डो, हन्दस्स वादं पटिक्खिपिस्सामाति चिन्तेत्वा एतदवोचुं । अपवदतीति पटिक्खिपति | अनुपक्खन्दति अनुपविसति । इदं – “सचे त्वं पसादवसेन समणं गोतमं सरणं गन्तुकामो, गच्छ; मा ब्राह्मणस्स समयं भिन्दी 'ति अधिप्पायेन आहंसु । ३१४. एतदवोचाति इमेसु ब्राह्मणेसु एवं एकप्पहारेनेव विरवन्तेसु " अयं कथा परियोसानं न गमिस्सति, हन्द ने निस्सद्दे कत्वा सोणदण्डेनेव सद्धिं कथेमी "ति चिन्तेत्वा - " एतं सचे खो तुम्हाक "न्तिआदिकं वचनं अवोच । ( ४.३१४-३१७) ३१५-३१६. सहधम्मेनाति सकारणेन । समसमोति ठपेत्वा एकदेससमत्तं समभावेन समो, सब्बाकारेन समोति अत्थो । अहमस्स मातापितरो जानामीति भगिनिया पुत्तस्स मातापितरो किं न जानिस्सति, कुलकोटिपरिदीपनं सन्धायेव वदति । मुसावादम्पि भणेय्याति अत्थभञ्जनकं मुसावादं कथेय्य । किं वण्णो करिस्सतीति अब्भन्तरे गुणे असति किं करिस्सति ? किमस्स ब्राह्मणभावं रक्खितुं सक्खिस्सतीति अत्थो । अथापि सिया पुन - “पकतिसीले ठितस्स ब्राह्मणभावं साधेन्ती 'ति एवम्पि सीलमेव साधेस्सति, तस्मिं हिस्स असति ब्राह्मणभावो नाहोसीति सम्मोहमत्तं वण्णादयो । इदं पन सुत्वा ते ब्राह्मणा - “सभावं आचरियो आह, अकारणाव मयं उज्झायिम्हा "ति तुम्ही अहेसुं । सीलपञ्ञकथावण्णना ३१७. ततो भगवा 'कथितो ब्राह्मणेन पञ्हो, किं पनेत्थ पतिट्ठातुं सक्खिस्सति, न सक्खिस्सती 'ति ? तस्स वीमंसनत्थं- “ इमेसं पन ब्राह्मणा " ति आदिमाह । सीलपरिधोताति सीलपरिसुद्धा । यत्थ सीलं तत्थ पञ्ञति यस्मिं पुग्गले सीलं, तत्थेव पञ्ञ, कुतो दुस्सीले पञ्ञा ? पञ्ञरहिते वा जळे एळमूगे कुतो सीलन्ति ? सीलपञ्ञणन्ति सीलञ्च पञ्ञाणञ्च सीलपञ्ञणं । पञ्ञाणन्ति पञ्ञयेव । एवमेतं ब्राह्मणाति भगवा ब्राह्मणस्स वचनं अनुजानन्तो आह । तत्थ सीलपरिधोता पञ्ञति चतुपारिसुद्धिसीलेन धोता । कथं पन सीलेन पञ्ञ धोवतीति ? यस्स पुथुज्जनस्स सीलं सट्ठिअसीतिवस्सानि अखण्ड होति, सो मरणकालेपि सब्बकिलेसे घातेत्वा सीलेन पञ्ञ धोवित्वा अरहत्तं गण्हाति । कन्दरसालपरिवेणे महासट्टिवस्सत्थेरो विय। थेरे किर मरणमञ्चे निपज्जित्वा बलववेदनाय 234 Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४.३१८-३१८) सीलपआकथावण्णना २३५ नित्थुनन्ते, तिस्समहाराजा “थेरं पस्सिस्सामीति गन्त्वा परिवेणद्वारे ठितो तं सदं सुत्वा पुच्छि – “कस्स सद्दो अय"न्ति ? थेरस्स नित्थुननसद्दोति । “पब्बज्जाय सट्ठिवस्सेन वेदनापरिग्गहमत्तम्पि न कतं, न दानि नं वन्दिस्सामी"ति निवत्तित्वा महाबोधिं वन्दितुं गतो। ततो उपट्ठाकदहरो थेरं आह - "किं नो, भन्ते, लज्जापेथ, सद्धोपि राजा विप्पटिसारी हुत्वा न वन्दिस्सामी''ति गतोति । कस्मा आवुसोति ? तुम्हाकं नित्थुननसदं सुत्वाति । “तेन हि मे ओकासं करोथा"ति वत्वा वेदनं विक्खम्भित्वा अरहत्तं पत्वा दहरस्स सनं अदासि- “गच्छावुसो, इदानि राजानं अम्हे वन्दापेही"ति । दहरो गन्त्वा – “इदानि किर थेरं, वन्दथा"ति आह । राजा संसुमारपतितेन थेरं वन्दन्तो"नाहं अय्यस्स अरहत्तं वन्दामि, पुथुज्जनभूमियं पन ठत्वा रक्खितसीलमेव वन्दामी"ति आह, एवं सीलेन पचं धोवति नाम । यस्स पन अब्भन्तरे सीलसंवरो नत्थि, उग्घाटित ताय पन चतुप्पदिकगाथापरियोसाने पञआय सीलं धोवित्वा सह पटिसम्भिदाहि अरहत्तं पापुणाति । अयं पञ्जाय सीलं धोवति नाम | सेय्यथापि सन्ततिमहामत्तो। ३१८. कतमं पन तं ब्राह्मणाति कस्मा आह ? भगवा किर चिन्तेसि - "ब्राह्मणा ब्राह्मणसमये पञ्चसीलानि 'सील'न्ति पञआपेन्ति, वेदत्तयउग्गहणपञा पञ्जाति । उपरिविसेसं न जानन्ति । यंनूनाहं ब्राह्मणस्स उत्तरिविसेसभूतं मग्गसीलं, फलसीलं, मग्गपञ्ज, फलपञञ्च दस्सेत्वा अरहत्तनिकूटेन देसनं निठ्ठपेय्य"न्ति । अथ नं कथेतुकम्यताय पुच्छन्तो- "कतमं पन तं, ब्राह्मण, सीलं कतमा सा पञ्जा"ति आह । अथ ब्राह्मणो– “मया सकसमयवसेन पञ्हो विस्सज्जितो । समणो पन मं गोतमो पुन निवत्तित्वा पुच्छति, इदानिस्साहं चित्तं परितोसेत्वा विस्सज्जितुं सक्कुणेय्यं वा न वा ? सचे न सक्खिस्सं पठमं उप्पन्नापि मे लज्जा भिज्जिस्सति । असक्कोन्तस्स पन न सक्कोमीति वचने दोसो नत्थी'"ति पुन निवत्तित्वा भगवतोयेव भारं करोन्तो "एत्तकपरमाव मय"न्तिआदिमाह । तत्थ एत्तकपरमाति एत्तकं सीलपञआणन्ति वचनमेव परमं अम्हाकं, ते मयं एत्तकपरमा, इतो परं एतस्स भासितस्स अत्थं न जानामाति अत्थो । अथस्स भगवा सीलपाय मूलभूतस्स तथागतस्स उप्पादतो पभुति सीलपाणं दस्सेतुं- "इध ब्राह्मण, तथागतो"तिआदिमाह । तस्सत्थो सामञफले वुत्तनयेनेव वेदितब्बो, अयं पन विसेसो, इध तिविधम्पि सीलं - “इदम्पिस्स होति सीलस्मि''न्ति एवं सीलमिच्चेव निय्यातितं पठमज्झानादीनि चत्तारि झानानि अत्थतो पासम्पदा । एवं 235 Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३६ दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गट्ठकथा ( ४.३१९-३२२ - ३१९-३२२) पदट्ठानभावमत्तेन दस्सेत्वा पञ्ञवसेन पन अनिय्यातेत्वा विपस्सनापञ्ञाय विपस्सनापञ्ञातो पट्ठाय पञ्ञा निय्यातिताति । सोणदण्डउपासकत्तपटिवेदनाकथा ३१९-३२२. स्वातनायाति पदस्स अत्थो अज्जतनायाति एत्थ वुत्तनयेनेव वेदितब्बो । तेन मं सा परिसा परिभवेय्याति तेन तुम्हे दूरतोव दिस्वा आसना वुट्ठितकारणेन मं सा परिसा – “अयं सोणदण्डो पच्छिमवये ठितो महल्लको, गोतमो पन दहरो युवा नत्तापिस्स नप्पहोति, सो नाम अत्तनो नत्तुमत्तभावम्पि अप्पत्तस्स आसना वुट्ठा परिभवेय्य । आसना मे तं भवं गोतमो पच्चट्टानन्ति मम अगारवेन अवुट्ठानं नाम नत्थि, भोगनासनभयेन पन न वुट्ठहिस्सामि, तं तुम्हे हि चेव मया च जतुं वट्टति । आसना मे एतं भवं गोतमो पच्चुट्ठानं धारेतूति, इमिना किर सदिसो कुहको दुल्लभो, भगवति पनस्स अगारवं नाम नत्थि, तस्मा भोगनासनभया कुहनवसेन एवं वदति । परपदेसुपि एसेव नयो । धम्मिया कथायाति आदीसु तङ्खणानुरूपाय धम्मिया कथाय दिट्ठधम्मिकसम्परायिकं अत्थं सन्दस्सेत्वा कुसले धम्मे समादपेत्वा गण्हापेत्वा । तत्थ नं समुत्तेजेत्वा सउस्साहं कत्वा ताय च सउस्साहताय अञ्ञेहि च विज्जमानगुणेहि सम्पहंसेत्वा धम्मरतनवस्सं वस्सित्वा उट्ठायासना पक्कामि । ब्राह्मणो पन अत्तनो कुहकताय एवम्पि भगवति धम्मवस्सं वस्सिते विसेसं निब्बत्तेतुं नासक्खि । केवलमस्स आयतिं निब्बानत्थाय वासनाभागियाय च सब्बा पुरिमपच्छिमकथा अहोसीति इति सुमङ्गलविलासिनिया दीघनिकायट्ठकथायं सोणदण्डत्तवण्णना निट्ठिता । 236 Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५. कूटदन्तसुत्तवण्णना ३२३. एवं मे सुतं...पे०... मगधेसूति कूटदन्तसुत्तं । तत्रायं अपुब्बपदवण्णना । मगधेसूति मगधा नाम जानपदिनो राजकुमारा, तेसं निवासो एकोपि जनपदो रूळहीसद्देन मगधाति वुच्चति, तस्मिं मगधेसु जनपदे । इतो परं पुरिमसुत्तद्वये वुत्तनयमेव । अम्बलट्ठिका ब्रह्मजाले वुत्तसदिसाव। कूटदन्तोति तस्स ब्राह्मणस्स नामं । उपक्खटोति सज्जितो। वच्छतरसतानीति वच्छसतानि । उरभाति तरुणमेण्डका वुच्चन्ति । एते ताव पाळियं आगतायेव । पाळियं पन अनागतानम्पि अनेकेसं मिगपक्खीनं सत्तसत्तसतानि सम्पिण्डितानेवाति वेदितब्बानि। सब्बसत्तसतिकयागं किरेस यजितुकामो होति । थूणूपनीतानीति बन्धित्वा ठपनत्थाय यूपसङ्खातं थूणं उपनीतानि । ३२८. तिविधन्ति एत्थ विधा वुच्चति ठपना, तिठ्ठपनन्ति अत्थो । सोळसपरिक्खारन्ति सोळसपरिवारं। ३३०-३३६. पटिवसन्तीति यआनुभवनत्थाय पटिवसन्ति । भूतपुब्बन्ति इदं भगवा पथवीगतं निधिं उद्धरित्वा पुरतो रासिं करोन्तो विय भवपटिच्छन्नं पुब्बचरितं दस्सेन्तो आह । महाविजितोति सो किर सागरपरियन्तं महन्तं पथवीमण्डलं विजिनि, इति महन्तं विजितमस्साति महाविजितो त्वेव सङ्ख्यं अगमासि । अड्डोतिआदीसु यो कोचि अत्तनो सन्तकेन विभवेन अड्डो होति, अयं पन न केवलं अड्डोयेव, महद्धनो महता अपरिमाणसङ्ख्येन धनेन समन्नागतो। पञ्चकामगुणवसेन महन्ता उळारा भोगा अस्साति महाभोगो। पिण्डपिण्डवसेन चेव सुवण्णमासकरजतमासकादिवसेन च जातरूपरजतस्स पहूतताय पहूतजातरूपरजतो, अनेककोटिसङ्ख्येन जातरूपरजतेन समन्नागतोति अत्थो । वित्तीति तुट्टि, वित्तिया उपकरणं वित्तूपकरणं तुठ्ठिकारणन्ति अत्थो। पहूतं नानाविधालङ्कारसुवण्णरजतभाजनादिभेदं वित्तूपकरणमस्साति पहूतवित्तूपकरणो। 237 Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३८ दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गट्ठकथा (५.३३७-३३८) सत्तरतनसङ्घातस्स निदहित्वा ठपितधनस्स सब्बपुब्बण्णापरण्णसङ्गहितस्स धस्स च पहूतताय पहूतधनधञो। अथवा इदमस्स देवसिकं परिब्बयदानग्गहणादिवसेन परिवत्तनधनधञवसेन वुत्तं । परिपुण्णकोसकोट्ठागारोति कोसो वुच्चति भण्डागारं, निदहित्वा ठपितेन धनेन परिपुण्णकोसो, ध न परिपुण्णकोट्ठागारो चाति अत्थो । अथवा चतुब्बिधो कोसो - हत्थी, अस्सा, रथा, पत्तीति । कोट्ठागारं तिविधं - धनकोट्ठागारं, वत्थकोट्ठागारं, धञकोट्ठागारन्ति, तं सब्बम्पि परिपुण्णमस्साति परिपुण्णकोसकोट्ठागारो। उदपादीति उप्पज्जि । अयं किर राजा एकदिवसं रतनावलोकनचारिकं नाम निक्खन्तो । सो भण्डागारिकं पुच्छि - "तात, इदं एवं बहधनं केन सङ्करित"न्ति ? तम्हाकं पितपितामहादीहि याव सत्तमा कलपरिवाति । इदं पन धनं सङ्करित्वा ते कहिं गताति ? सब्बेव ते. देव. मरणवसं पत्ताति । अत्तनो धनं अगहेत्वाव गता, ताताति? देव, किं वदेथ, धनं नामेतं पहाय गमनीयमेव, नो आदाय गमनीयन्ति । अथ राजा निवत्तित्वा सिरीगब्भे निसिन्नो'अधिगता खो मे'तिआदीनि चिन्तेसि । तेन वुत्तं- "एवं चेतसो परिवितक्को उदपादी"ति । ___ ३३७. ब्राह्मणं आमन्तेत्वाति कस्मा आमन्तेसि ? अयं किरेवं चिन्तेसि – “दानं देन्तेन नाम एकेन पण्डितेन सद्धिं मन्तेत्वा दातुं वट्टति, अनामन्तेत्वा कतकम्महि पच्छानुतापं करोती''ति । तस्मा आमन्तेसि । अथ ब्राह्मणो चिन्तेसि- “अयं राजा महादानं दातुकामो, जनपदे चस्स बहू चोरा, ते अवूपसमेत्वा दानं देन्तस्स खीरदधितण्डुलादिके दानसम्भारे आहरन्तानं निप्पुरिसानि गेहानि चोरा विलुम्पिस्सन्ति जनपदो चोरभयेनेव कोलाहलो भविस्सति, ततो रञो दानं न चिरं पवत्तिस्सति, चित्तम्पिस्स एकग्गं न भविस्सति, हन्द, नं एतमत्थं सापेमी''ति ततो तमत्थं सापेन्तो "भोतो, खो रो"तिआदिमाह । ___ ३३८. तत्थ सकण्टकोति चोरकण्टकेहि सकण्टको। पन्थदुहनाति पन्थदुहा, पन्थघातकाति अत्थो । अकिच्चकारी अस्साति अकत्तब्बकारी अधम्मकारी भवेय्य । दस्सुखीलन्ति चोरखीलं । वधेन वाति मारणेन वा कोट्टनेन वा। बन्धनेनाति अदुबन्धनादिना । जानियाति हानिया; “सतं गण्हथ, सहस्सं गण्हथा''ति एवं पवत्तितदण्डेनाति अत्थो। गरहायाति पञ्चसिखमुण्डकरणं, गोमयसिञ्चनं, गीवाय 238 Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५.३३९-३३९) चतुपरिक्खारवण्णना २३९ कुदण्डकबन्धनन्ति एवमादीनि कत्वा गरहपापनेन । पब्बाजनायाति रट्ठतो नीहरणेन । समूहनिस्सामीति सम्मा हेतुना नयेन कारणेन ऊहनिस्सामि । हतावसेसकाति मतावसेसका । उस्सहन्तीति उस्साहं करोन्ति । अनुप्पदेतूति दिन्ने अप्पहोन्ते पुन अझम्पि बीजञ्च भत्तञ्च कसिउपकरणभण्डञ्च सब्बं देतूति अत्थो । पाभतं अनुष्पदेतूति सक्खिं अकत्वा पण्णे अनारोपेत्वा मूलच्छेज्जवसेन भण्डमूलं देतूति अत्थो । भण्डमूलस्स हि पाभतन्ति नामं । यथाह - “अप्पकेनपि मेधावी, पाभतेन विचक्खणो। समुट्ठापेति अत्तानं, अणुं अग्गिंव सन्धम''न्ति ।। (जा. १.१.४) भत्तवेतनन्ति देवसिकं भत्तञ्चेव मासिकादिपरिब्बयञ्च तस्स तस्स कुसलकम्मसूरभावानुरूपेन ठानन्तरगामनिगमादिदानेन सद्धिं देतूति अत्थो । सकम्मपसुताति कसिवाणिज्जादीसु सकेसु कम्मेसु उय्युत्ता ब्यावटा । रासिकोति धनधानं रासिको । खेमद्विताति खेमेन ठिता अभया। अकण्टकाति चोरकण्टकरहिता । मुदा मोदमानाति मोदा मोदमाना । अयमेव वा पाठो, अञ्जमधे पमुदितचित्ताति अधिप्पायो । अपारुतघराति चोरानं अभावेन द्वारानि असंवरित्वा विवटद्वाराति अत्थो । एतदवोचाति जनपदस्स सब्बाकारेन इद्धफीतभावं ञत्वा एतं अवोच । चतुपरिक्खारवण्णना ३३९. तेन हि भवं राजाति ब्राह्मणो किर चिन्तेसि- “अयं राजा महादानं दातुं अतिविय उस्साहजातो। सचे पन अत्तनो अनुयन्ता खत्तियादयो अनामन्तेत्वा दस्सति । नास्स ते अत्तमना भविस्सन्ति; यथा दानं ते अत्तमना होन्ति, तथा करिस्सामी"ति । तस्मा "तेन हि भव"न्तिआदिमाह । तत्थ नेगमाति निगमवासिनो। जानपदाति जनपदवासिनो। आमन्तयतन्ति आमन्तेतु जानापेतु। यं मम अस्साति यं तुम्हाकं अनुजाननं मम भवेय्य । अमच्चाति पियसहायका । पारिसज्जाति सेसा आणत्तिकारका । यजतं भवं राजाति यजतु भवं, ते किर - अयं राजा “अहं इस्सरो"ति पसरह दानं अदत्वा अम्हे आमन्तेसि, अहोनेन सुटु कत''न्ति अत्तमना एवमाहंसु । अनामन्तिते पनस्स यजट्टानं दस्सनायपि न गच्छेय्युं । यञकालो महाराजाति देय्यधम्मस्मिहि असति महल्लककाले च एवरूपं दानं दातुं न सक्का, त्वं पन महाधनो चेव तरुणो च, एतेन 239 Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४० दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गट्ठकथा (५.३४०-३४०) ते यञ्जकालोति दस्सेन्ता वदन्ति । अनुमतिपक्खाति अनुमतिया पक्खा, अनुमतिदायकाति अत्थो । परिक्खारा भवन्तीति परिवारा भवन्ति । “रथो सीलपरिक्खारो, झानक्खो चक्कवीरियो"ति (सं० नि० ३.५.४) एत्थ पन अलङ्कारो परिक्खारोति वुत्तो । अट्ठपरिक्खारवण्णना ३४०. अट्टहङ्गेहीति उभतो सुजातादीहि अट्ठहि अङ्गेहि। यससाति आणाठपनसमत्थताय । सद्धोति दानस्स फलं अत्थीति सद्दहति । दायकोति दानसूरो । न सद्धामत्तकेनेव तिठ्ठति, परिच्चजितुम्पि सक्कोतीति अत्थो । दानपतीति यं दानं देति, तस्स पति हुत्वा देति, न दासो, न सहायो । यो हि अत्तना मधुरं भुञ्जति, परेसं अमधुरं देति, सो दानसङ्खातस्स देय्यधम्मस्स दासो हुत्वा देति । यो यं अत्तना भुञ्जति, तदेव देति, सो सहायो हुत्वा देति । यो पन अत्तना येन केनचि यापेति, परेसं मधुरं देति, सो पति जेट्ठको सामी हुत्वा देति, अयं तादिसोति अत्थो । समणब्राह्मणकपणद्धिकवणिब्बकयाचकानन्ति एत्थ समितपापा समणा, बाहितपापा ब्राह्मणा। कपणाति दुग्गता दलिद्दमनुस्सा। अधिकाति पथाविनो। वणिब्बकाति ये- "इ8 दिन्नं, कन्तं, मनापं, कालेन अनवज्जं दिन्नं, ददं चित्तं पसादेय्य, गच्छतु भवं ब्रह्मलोक''न्तिआदिना नयेन दानस्स वण्णं थोमयमाना विचरन्ति । याचकाति ये"पसतमत्तं देथ, सरावमत्तं देथा"तिआदीनि वत्वा याचमाना विचरन्ति । ओपानभूतोति उदपानभूतो। सब्बेसं साधारणपरिभोगो, चतुमहापथे खतपोक्खरणी विय हुत्वाति अत्थो । सुतजातस्साति एत्थ सुतमेव सुतजातं । अतीतानागतपच्चुप्पन्ने अत्थे चिन्तेतुन्ति एत्थ“अतीते पुञ्जस्स कतत्तायेव मे अयं सम्पत्ती''ति, एवं चिन्तेन्तो अतीतमत्थं चिन्तेतुं पटिबलो नाम होति । “इदानि पुजं कत्वाव अनागते सक्का सम्पत्तिं पापुणितु"न्ति चिन्तेन्तो अनागतमत्थं चिन्तेतं पटिबलो नाम होति। "इदं पञकम्मं नाम सप्परिसानं आचिण्णं. महञ्च भोगापि संविज्जन्ति. दायकचित्तम्पि अस्थि: हन्दाहं पञानि करोमी''ति चिन्तेन्तो पच्चुप्पन्नमत्थं चिन्तेतुं पटिबलो नाम होतीति वेदितब्बो। इति इमानीति एवं यथा वुत्तानि एतानि । एतेहि किर अट्ठहङ्गेहि समन्नागतस्स दानं सब्बदिसाहि महाजनो उपसङ्कमति । “अयं दुज्जातो कित्तकं कालं दस्सति, इदानि विप्पटिसारी हुत्वा उपच्छिन्दिस्सती"ति एवमादीनि चिन्तेत्वा न कोचि उपसङ्कमितब्बं मञति । तस्मा एतानि अट्ठङ्गानि परिक्खारा भवन्तीति वुत्तानि । 240 Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुपरिक्खारादिवण्णना चतुपरिक्खारादिवण्णना ३४१. सुजं पग्गण्हन्तानन्ति महायागपटिग्गण्हनट्टाने दानकटच्छ्रं पग्गहन्तानं । इमे हि चतूहीति एतेहि सुजातादीहि । एतेसु हि असति - “ एवं दुज्जातस्स संविधानेन पवत्तदानं कित्तकं कालं पवत्तिस्सती "तिआदीनि वत्वा उपसङ्कमितारो न होन्ति । गरहितब्बाभावतो पन उपसङ्कमन्तियेव। तस्मा इमानिपि परिक्खारा भवन्तीति वुत्तानि । (५.३४१-३४४) ३४२. तिस्सो विधा देसेसीति तीणि ठपनानि देसेसि। सो किर चिन्तेसि - “दानं ददमाना नाम तिण्णं ठानानं अञ्ञतरस्मिं चलन्ति हन्दाहं इमं राजानं तेसु ठानेसु पठमतरञेव निच्चलं करोमीति । तेनस्स तिस्सो विधा देसेसीति । सो भोतो रञोति इदं करणत्थे सामिवचनं । भोता रञ्ञति वा पाठो । विप्पटिसारो न करणीयोति "भोगानं विगमहेतुको पच्छानुतापो न कत्तब्बो, पुब्बचेतना पन अचला पतिट्ठपेतब्बा, एवहि दानं महप्फलं होती”ति दस्सेति । इतरेसुपि द्वीसु ठानेसु एसेव नयो । मुञ्चचेतनापि पच्छासमनुस्सरणचेतना च निच्चलाव कातब्बा । तथा अकरोन्तस्स दानं न महप्फलं होत, नापि उळारेसु भोगेसु चित्तं नमति, महारोरुवं उपपन्नस्स सेट्ठिगहपतिनो विय । " ३४३. दसहाकारेहीति दसहि कारणेहि । तस्स किर एवं अहोसि - सचायं राजा दुस्सीले दिस्वा – “नस्सति वत मे दानं यस्स मे एवरूपा दुस्सीला भुञ्जन्तीति सीलवन्तेसुपि विप्पटिसारं उप्पादेस्सति, दानं न महप्फलं भविस्सति । विप्पटिसारो च नाम दायकानं पटिग्गाहकतोव उप्पज्जति, हन्दस्स पठममेव तं विप्पटिसारं विनोदेमीति । तस्मा दसहाकारेहि उपच्छिज्जितुं युत्तं पटिग्गाहकेसुपि विप्पटिसारं विनोदेसीति । तेसञ्ञेव तेनाति तेसञ्ञेव तेन पापेन अनिट्ठो विपाको भविस्सति, न अञ्ञसन्ति दस्सेति । यजतं भवन्ति तु भवं । सज्जतन्ति विस्सज्जतु । अन्तरन्ति अब्भन्तरं । २४१ ३४४. सोळसहि आकारेहि चित्तं सन्दस्सेसीति इध ब्राह्मणो रञ्ञो महादानानुमोदनं नाम आरद्धो । तत्थ सन्दस्सेसीति - 'इदं दानं दाता एवरूपं सम्पत्तिं लभती 'ति दस्सेत्वा दस्सेत्वा कथेसि | समादपेसीति तदत्थं समादत्वा कथेसि । समुत्सीति विप्पटिसारविनोदनेनस्स चित्तं वोदापेसि । सम्पहंसेसीति 'सुन्दरं ते कतं, महाराज, दानं ददमानेनाति श्रुतिं कत्वा कथेसि । वत्ता धम्मतो नत्थीति धम्मेन समेन कारणेन वत्ता नत्थि । 241 Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४२ दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गट्ठकथा (५.३४५-३४६) ३४५. न रुक्खा छिज्जिंसु यूपत्थाय न दभा लूयिंसु बरिहिसत्थायाति ये यूपनामके महाथम्भे उस्सापेत्वा – “असुकराजा असुकामच्चो असुकब्राह्मणो एवरूपं नाम महायागं यजती''ति नामं लिखित्वा ठपेन्ति । यानि च दब्भतिणानि लायित्वा वनमालासङ्केपेन यञसालं परिक्खिपन्ति. भमियं वा पत्थरन्ति. तेपि न रुक्खा छिज्जिंस. न दब्भा लूयिंसु । किं पन गावो वा अजादयो वा हञिस्सन्तीति दस्सेति । दासाति अन्तोगेहदासादयो। पेस्साति ये पुब्बमेव धनं गहेत्वा कम्मं करोन्ति । कम्मकराति ये भत्तवेतनं गहेत्वा करोन्ति । दण्डतज्जिता नाम दण्डयट्ठिमुग्गरादीनि गहेत्वा- “कम्मं करोथ करोथा"ति एवं तज्जिता। भयतज्जिता नाम- सचे कम्मं करोसि, कुसलं । नो चे करोसि, छिन्दिस्साम वा बन्धिस्साम वा मारेस्साम वाति एवं भयेन तज्जिता । एते पन न दण्डतज्जिता, न भयतज्जिता, न अस्सुमुखा रोदमाना परिकम्मानि अकंसु । अथ खो पियसमुदाचारेनेव समुदाचरियमाना अकंसु । न हि तत्थ दासं वा दासाति, पेस्सं वा पेस्साति, कम्मकरं वा कम्मकराति आलपन्ति । यथानामवसेनेव पन पियसमुदाचारेन आलपित्वा इत्थिपुरिसबलवन्तदुब्बलानं अनुरूपमेव कम्मं दस्सेत्वा - “इदञ्चिदञ्च करोथा''ति वदन्ति । तेपि अत्तनो रुचिवसेनेव करोन्ति । तेन वुत्तं - "ये इच्छिंसु, ते अकंसुः ये न इच्छिंसु, न ते अकंसु। यं इच्छिंसु, तं अकंसुः यं न इच्छिंसु, न तं अकंसू"ति। सप्पितेलनवनीतदधिमधुफाणितेन चेव सो यो निट्ठानमगमासीति राजा किर बहिनगरस्स चतूसु द्वारेसु अन्तोनगरस्स च मज्झेति पञ्चसु ठानेसु महादानसालायो कारापेत्वा एकेकिस्साय सालाय सतसहस्सं सतसहस्सं कत्वा दिवसे दिवसे पञ्चसतसहस्सानि विस्सज्जेत्वा सूरियुग्गमनतो पट्ठाय तस्स तस्स कालस्स अनुरूपेहि सहत्थेन सुवण्णकटच्छु गहेत्वा पणीतेहि सप्पितेलादिसम्मिस्सेहेव यागुखज्जकभत्तब्यञ्जनपानकादीहि महाजनं सन्तप्पेसि। भाजनानि पूरेत्वा गण्हितुकामानं तथेव दापेसि । सायण्हसमये. पन वत्थगन्धमालादीहि सम्पूजेसि । सप्पिआदीनं पन महाचाटियो पूरापेत्वा - “यो यं परिभुञ्जितुकामो, सो तं परिभुञ्जतू''ति अनेकसतेसु ठानेसु ठपापेसि । तं सन्धाय वुत्तं- “सप्पितेलनवनीतदधिमधुफाणितेन चेव सो यो निट्ठानमगमासी''ति । ३४६. पहूतं सापतेय्यं आदायाति बहुं धनं गहेत्वा । ते किर चिन्तेसुं- “अयं राजा सप्पितेलादीनि जनपदतो अनाहरापेत्वा अत्तनो सन्तकमेव नीहरित्वा महादानं देति । अम्हेहि पन ‘राजा न किञ्चि आहरापेती'ति न युत्तं तुण्ही भवितुं । न हि रञो घरे धनं अक्खयधम्ममेव, अम्हेसु च अदेन्तेसु को अञो रो दस्सति, हन्दस्स धनं 242 Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५.३४७-३४९) निच्चदानअनुकुलयञवण्णना २४३ उपसंहरामा''ति ते गामभागेन च निगमभागेन च नगरभागेन च सापतेय्यं संहरित्वा सकटानि पूरेत्वा रो उपहरिंसु । तं सन्धाय – “पहूतं सापतेय्य''न्तिआदिमाह । ३४७. पुरथिमेन यञवाटस्साति पुरथिमतो नगरद्वारे दानसालाय पुरत्थिमभागे । यथा पुरस्थिमदिसतो आगच्छन्ता खत्तियानं दानसालाय यागु पिवित्वा रो दानसालाय भजित्वा नगरं पविसन्ति । एवरूपे ठाने पट्टपेसुं। दक्खिणेन यञ्जवाटस्साति दक्खिणतो नगरद्वारे दानसालाय वुत्तनयेनेव दक्खिणभागे पट्टपेसुं । पच्छिमुत्तरेसुपि एसेव नयो । ___३४८. अहो यो, अहो यञ्जसम्पदाति ब्राह्मणा सप्पिआदीहि निट्ठानगमनं सुत्वा - “यं लोके मधुरं, तदेव समणो गोतमो कथेति, हन्दस्स यजं पसंसामा"ति तुट्ठचित्ता पसंसमाना एवमाहंसु । तुण्हीभूतोव निसिनो होतीति उपरि वत्तब्बमत्थं चिन्तयमानो निस्सद्दोव निसिन्नो होति । अभिजानाति पन भवं गोतमोति इदं ब्राह्मणो परिहारेन पुच्छन्तो आह । इतरथा हि- "किं पन त्वं, भो गोतम, तदा राजा अहोसि, उदाहु पुरोहितो ब्राह्मणो''ति एवं उजुकमेव पुच्छयमानो अगारवो विय होति । निच्चदानअनुकुलयञवण्णना ३४९. अत्थि पन, भो गोतमाति - इदं ब्राह्मणो “सकलजम्बुदीपवासीनं उट्ठाय समुट्ठाय दानं नाम दातुं गरुकं सकलजनपदो च अत्तनो कम्मानि अकरोन्तो नस्सिस्सति, अस्थि नु खो अम्हाकम्पि इमम्हा या अज्ञो यो अप्पसमारम्भतरो चेव महप्फलतरो चा''ति एतमत्थं पुच्छन्तो आह। निच्चदानानीति धुवदानानि निच्चभत्तानि । अनुकुलयञानीति- “अम्हाकं पितुपितामहादीहि पवत्तितानी''ति कत्वा पच्छा दुग्गतपुरिसेहिपि वंसपरम्पराय पवत्तेतब्बानि यागानि, एवरूपानि किर सीलवन्ते उद्दिस्स निबद्धदानानि तस्मिं कुले दलिद्दापि न उपच्छिन्दन्ति ।। तत्रिदं वत्थु - अनाथपिण्डिकस्स किर घरे पञ्च निच्चभत्तसतानि दीयिंसु । दन्तमयसलाकानि पञ्चसतानि अहेसुं । अथ तं कुलं अनुक्कमेन दालिद्दियेन अभिभूतं, एका तस्मिं कुले दारिका एकसलाकतो उद्धं दातुं नासक्खि । सापि पच्छा सेतवाहनरज्जं गन्त्वा खलं सोधेत्वा लद्धधर्छन तं सलाकं अदासि । एको थेरो रो आरोचेसि । राजा 243 Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४४ दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गट्ठकथा (५.३४९-३४९) तं आनेत्वा अग्गमहेसिट्ठाने ठपेसि । सा ततो पट्ठाय पुन पञ्चपि सलाकभत्तसतानि पवत्तेसि । ___दण्डप्पहाराति - “पटिपाटिया तिठ्ठथ तिट्टथा''ति उजुं गन्त्वा गण्हथ गण्हथाति च आदीनि वत्वा दीयमाना दण्डप्पहारापि गलग्गाहापि दिस्सन्ति । अयं खो, ब्राह्मण, हेतु...पे०... महानिसंसतरञ्चाति । एत्थ यस्मा महायझे विय इमस्मिं सलाकभत्ते न बहूहि वेय्यावच्चकरेहि वा उपकरणेहि वा अत्थो अस्थि, तस्मा एतं अप्पठ्ठतरं । यस्मा चेत्थ न बहूनं कम्मच्छेदवसेन पीळासङ्घातो समारम्भो अत्थि, तस्मा अप्पसमारम्भतरं । यस्मा चेतं सङ्घस्स यिट्ठ परिच्चत्तं, तस्मा यन्ति वुत्तं, यस्मा पन छळङ्गसमन्नागताय दक्खिणाय महासमुद्दे उदकस्सेव न सुकरं पुञाभिसन्दस्स पमाणं कातुं, इदञ्च तथाविधं । तस्मा तं महप्फलतरञ्च महानिसंसतरञ्चाति वेदितब्बं | इदं सुत्वा ब्राह्मणो चिन्तेसि- इदम्पि निच्चभत्तं उट्ठाय समुट्ठाय ददतो दिवसे दिवसे एकस्स कम्मं नस्सति । नवनवो उस्साहो च जनेतब्बो होति, अत्थि नु खो इतोपि अञो यो अप्पढ़तरो च अप्पसमारम्भतरो चाति । तस्मा “अस्थि पन, भो गोतमा"तिआदिमाह। तत्थ यस्मा सलाकभत्ते किच्चपरियोसानं नत्थि, एकेन उट्ठाय समुट्ठाय अझं कम्मं अकत्वा संविधातब्बमेव । विहारदाने पन किच्चपरियोसानं अस्थि । पण्णसालं वा हि कारेतुं कोटिधनं विस्सज्जेत्वा महाविहारं वा, एकवारं धनपरिच्चागं कत्वा कारितं सत्तट्ठवस्सानिपि वस्ससतम्पि वस्ससहस्सम्पि गच्छतियेव । केवलं जिण्णपतितछाने पटिसङ्खरणमत्तमेव कातब्बं होति । तस्मा इदं विहारदानं सलाकभत्ततो अप्पट्टतरं अप्पसमारम्भतरञ्च होति । यस्मा पनेत्थ सुत्तन्तपरियायेन यावदेव सीतस्स पटिघातायाति आदयो नवानिसंसा वुत्ता, खन्धकपरियायेन । “सीतं उण्हं पटिहन्ति, ततो वाळमिगानि च।। सिरिंसपे च मकसे च, सिसिरे चापि वुट्ठियो ।। ततो वातातपो घोरो, सञ्जातो पटिहचति । लेणत्थञ्च सुखत्थञ्च, झायितुञ्च विपस्सितुं।। 244 Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निच्चदान अनुकुलयञ्ञवण्णना विहारदानं सङ्घस्स, अग्गं बुद्धेन वण्णितं । तस्मा हि पण्डितो पोसो, सम्पस्सं अत्थमत्तनो । विहारे कारये रम्मे, वासयेत्थ बहुस्सुते । । (५.३५०-३५१-३५२) तस्मा अन्नञ्च पानञ्च वत्थसेनासनानि च । ददेय उजुभूतेसु, विप्पसन्नेन चेतसा । । ते तस्स धम्मं देसेन्ति, सब्बदुक्खापनूदनं । यं सो धम्मं इधञ्ञय, परिनिब्बाति अनासवो 'ति । । ( चूळव० २९५) सत्तरसानिसंसा वृत्ता । तस्मा एतं सलाकभत्ततो महफ्फलतरञ्च महानिसंसतरञ्चाति वेदितब्बं। सङ्घस्स पन परिच्चत्तत्ताव यज्ञोति वुच्चति । इदम्पि सुत्वा ब्राह्मणो चिन्तेसि - “धनपरिच्चागं कत्वा विहारदानं नाम दुक्करं, अत्तनो सन्तका हि काकणिकापि परस्स दुप्परिच्चजा, हन्दाहं इतोपि अप्पट्टतरञ्च अप्पसमारम्भतरञ्च यञ्ञ पुच्छामीति । ततो तं पुच्छन्तो– “अत्थि पन भो "तिआदिमाह । ३५०-३५१. तत्थ यस्मा सकिं परिच्चत्ते प विहारे पुनपुनं छादनखण्डफुल्लप्पटिसङ्घरणादिवसेन किच्चं अत्थियेव, सरणं पन एकभिक्खुस्स वा सन्तिके सङ्घस्स वा गणस्स वा सकिं गहितं गहितमेव होति, नत्थि तस्स पुनप्पुनं कत्तब्बता, तस्मा तं विहारदानतो अप्पट्टतरञ्च अप्पसमारम्भतरञ्च होति । यस्मा च सरणगमनं नाम तिण्णं रतनानं जीवितपरिच्चागमयं पुञ्ञकम्मं सग्गसम्पत्तिं देति, तस्मा महप्फलतरञ्च महानिसंसतरञ्चाति वेदितब्बं । तिण्णं पन रतनानं जीवितपरिच्चागवसेन यञ्ञोति वुच्चति । २४५ ३५२. इदं सुत्वा ब्राह्मणो चिन्तेसि - " अत्तनो जीवितं नाम परस्स परिच्चजितुं दुक्करं, अत्थि नु खो इतोपि अप्पट्टतरो यञ्ञो 'ति ततो तं पुच्छन्तो पुन "अस्थि पन, भो गोतमा "ति आदिमाह । तत्थ पाणातिपाता वेरमणीतिआदीसु वेरमणी नाम विरति । सा तिविधा होति – सम्पत्तविरति, समादानविरति सेतुघातविरतीति । तत्थ यो सिक्खापद अगहेत्वापि केवलं अत्तनो जातिगोत्तकुलापदेसादीनि अनुस्सरित्वा - "न मे इदं 245 Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४६ दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गट्ठकथा पतिरूप”न्ति पाणातिपातादीनि न करोति, सम्पत्तवत्युं परिहरति । ततो आरका विरमति । तस्स सा विरति सम्पत्तविरतीति वेदितब्बा | “अज्जतग्गे जीवितहेतुपि पाणं न हनामी "ति वा “पाणातिपाता विरमामी 'ति वा “वेरमणिं समादियामीति वा एवं सिक्खापदानि गण्हन्तस्स पन विरति समादानविरतीति वेदितब्बा | (५.३५२ - ३५२ ) अरियसावकानं पन मग्गसम्पयुत्ता विरति सेतुघातविरति नाम । तत्थ पुरिमा द्वे विरतियो यं वोरोपनादिवसेन वीतिक्कमितब्बं जीवितिन्द्रियादिवत्थु तं आरम्मणं कत्वा पवत्तन्ति । पच्छिमा निब्बानारम्मणाव । एत्थ च यो पञ्च सिक्खापदानि एकतो गण्हति, तस्स एकस्मिं भिन्ने सब्बानि भिन्नानि होन्ति । यो एकेकं गण्हति, सो यं वीतिक्कमति, तदेव भिज्जति। सेतुघातविरतिया पन भेदो नाम नत्थि, भवन्तरेपि हि अरियसावको जीवितहेतुपि नेव पाणं हनति न सुरं पिवति । सचेपिस्स सुरञ्च खीरञ्च मिस्सेत्वा मुखे पक्खिपन्ति, खीरमेव पविसति, न सुरा । यथा किं ? कोञ्चसकुणानं खीरमिस्सके उदके खीरमेव पविसति ? न उदकं । इदं योनिसिद्धन्ति चे, इदं धम्मतासिद्धन्ति च वेदितब्बं । यस्मा पन सरणगमने दिट्ठिउजुककरणं नाम भारियं । सिक्खापदसमादाने पन विरतिमत्तकमेव । तस्मा एतं यथा वा तथा वा गण्हन्तस्सापि साधुकं गण्हन्तस्सापि अप्पट्ठतरञ्च अप्पसमारम्भतरञ्च । पञ्चसीलसदिसस्स पन दानस्स अभावतो एत्थ महप्फलता महानिसंसता च वेदितब्बा । वुत्तहेतं - “पञ्चिमानि, भिक्खवे, दानानि महादानानि अग्गञ्ञानि रत्तञ्ञानि वंसञ्जनि पोराणानि असंकिण्णानि असंकिण्णपुब्बानि न सङ्कियन्ति न सङ्कियिस्सन्ति अप्पटिकुट्ठानि समणेहि ब्राह्मणेहि विनूहि । कतमानि पञ्च ? इध, भिक्खवे, अरियसावको पाणातिपातं पहाय पाणातिपाता पटिविरतो होति । पाणातिपाता पटिविरतो, भिक्खवे, अरियसावको अपरिमाणानं सत्तानं अभयं देति, अवेरं देति अब्यापज्झं देति । अपरिमाणानं सत्तानं अभयं दत्वा अवेरं दत्वा अब्यापज्झं दत्वा अपरिमाणस्स अभयस्स अवेरस्स अब्यापज्झस्स भागी होति । इदं, भिक्खवे, पठमं दानं महादानं... पे०... विञ्जूहीति । चपरं, भिक्खवे, अरियसावको अदिन्नादानं पुन 246 पहाय...पे०... Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५.३५३-३५३) निच्चदानअनुकुलयञवण्णना २४७ कामेसुमिच्छाचारं पहाय...पे०... मुसावादं पहाय...पे०... सुरामेरयमज्जपमादट्ठानं पहाय...पे०... इमानि खो, भिक्खवे, पञ्च दानानि महादानानि अग्गज्ञानि...पे०... विझूही''ति (अ० नि० ३.८.३९) । इदञ्च पन सीलपञ्चकं - “अत्तसिनेहञ्च जीवितसिनेहञ्च परिच्चजित्वा रक्खिस्सामी"ति समादिन्नताय यज्ञोति वुच्चति । तत्थ किञ्चापि पञ्चसीलतो सरणगमनमेव जेट्टकं, इदं पन सरणगमनेयेव पतिट्ठाय रक्खितसीलवसेन महप्फलन्ति वुत्तं । ३५३. इदम्पि सुत्वा ब्राह्मणो चिन्तेसि - “पञ्चसीलं नाम रक्खितुं गरुकं, अस्थि नु खो अजं किञ्चि ईदिसमेव हुत्वा इतो अप्पट्ठतरञ्च महप्फलतरञ्चा''ति । ततो तं पुच्छन्तो पुनपि- "अत्थि पन, भो गोतमा"तिआदिमाह । अथस्स भगवा तिविधसीलपारिपूरियं ठितस्स पठमज्झानादीनं यानं अप्पट्ठतरञ्च महप्फलतरञ्च दस्सेतुकामो बुद्धप्पादतो पट्टाय देसनं आरभन्तो “इध ब्राह्मणा''तिआदिमाह । तत्थ यस्मा हेट्ठा वुत्तेहि गुणेहि समन्नागतो पठमं झानं, पठमज्झानादीसु ठितो दुतियज्झानादीनि निब्बत्तेन्तो न किलमति, तस्मा तानि अप्पट्ठानि अप्पसमारम्भानि । यस्मा पनेत्थ पठमज्झानं एकं कप्पं ब्रह्मलोके आयुं देति । दुतियं अट्ठकप्पे । ततियं चतुसट्ठिकप्पे । चतुत्थं पञ्चकप्पसतानि । तदेव आकासानञ्चायतनादिसमापत्तिवसेन भावितं वीसति, चत्तालीसं, सट्ठि, चतुरासीति च कप्पसहस्सानि आयुं देति; तस्मा महप्फलतरञ्च महानिसंसतरञ्च । नीवरणादीनं पन पच्चनीकानं धम्मानं परिच्चत्तत्ता तं यज्ञन्ति वेदितब् । विपस्सनाञाणम्पि यस्मा चतुत्थज्झानपरियोसानेसु गुणेसु पतिट्ठाय निब्बत्तेन्तो न किलमति, तस्मा अप्पटुं अप्पसमारम्भं; विपस्सनासुखसदिसस्स पन सुखस्स अभावा महप्फलं । पच्चनीककिलेसपरिच्चागतो योति । मनोमयिद्धिपि यस्मा विपस्सनाञाणे पतिट्ठाय निब्बत्तेन्तो न किलमति, तस्मा अप्पट्ठा अप्पसमारम्भा; अत्तनो सदिसरूपनिम्मानसमत्थताय महप्फला। अत्तनो पच्चनीककिलेसपरिच्चागतो यो । इद्धिविधजाणादीनिपि यस्मा मनोमयजाणादीसु पतिट्ठाय निब्बत्तेन्तो न किलमति, तस अप्पट्ठानि अप्पसमारम्भानि, अत्तनो अत्तनो पच्चनीककिलेसप्पहानतो यज्ञो। इद्धिविधं पनेत्थ नानाविधविकुब्बनदस्सनसमत्थताय । दिब्बसोतं देवमनुस्सानं सद्दसवनसमत्थताय; 247 Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गट्ठकथा (५.३५४-३५८ - ३५४-३५८) चेतोपरियत्राणं पुब्बेनिवासानुस्सतिञाणं इच्छितिच्छितरूपदस्सनसमत्थताय; आसवक्खयञाणं अतिपणीतलोकुत्तरमग्गसुखनिप्फादनसमत्थताय महप्फलन्ति वेदितब्बं । यस्मा पन अरहत्ततो विसिट्ठतरो अञ्ञो यज्ञो नाम नत्थि, तस्मा अरहत्तनिकूटेनेव देसनं समापेन्तो – “अयम्पि खो, ब्राह्मणा' 'तिआदिमाह । २४८ परेसं इच्छितिच्छितट्ठानसमनुस्सरणसमत्थताय; सोळसविधचित्तजाननसमत्थताय; दिब्बचक्खु कूटदन्तउपासकत्तपटिवेदनावण्णना ३५४-३५८. एवं वुत्तेति एवं भगवता वुत्ते देसनाय पसीदित्वा सरणं गन्तुकामो कूटदन्तो ब्राह्मणो - 'एतं अभिक्कन्तं भो, गोतमा 'तिआदिकं वचनं अवोच । उपवायतूति उपगन्त्वा सरीरदरथं निब्बापेन्तो तनुसीतलो वातो वायतूति । इदञ्च पन वत्वा ब्राह्मणो पुरिसं पेसेसि – “गच्छ, तात, यञ्ञवाटं पविसित्वा सब्बे ते पाणयो बन्धना मोचेही’ति । सो ‘“साधू'ति पटिस्सुणित्वा तथा कत्वा आगन्त्वा “मुत्ता भो, ते पाणयो”ति आरोचेसि। याव ब्राह्मणो तं पवत्तिं न सुणि, न ताव भगवा धम्मं देसेसि । कस्मा “ब्राह्मणस्स चित्ते आकुलभावो अत्थी'ति । सुत्वा पनस्स " बहू वत मे पाणा मोचिताति चित्तचारो विप्पसीदति । भगवा तस्स विप्पसन्नमनतं ञत्वा धम्मदेसनं आरभि । सन्धाय - 'अथ खो भगवा "तिआदि वृत्तं । पुन 'कल्लचित्त 'न्तिआदि आनुपुब्बिकथानुभावेन विक्खम्भितनीवरणतं सन्धाय वृत्तं । सेसं उत्तानत्थमेवाति । तं 44 इति सुमङ्गलविलासिनिया दीघनिकायट्ठकथायं कूटदन्तसुत्तवण्णना निट्ठिता । 248 Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६. महालिसुत्तवण्णना ब्राह्मणदूतवत्थुवण्णना ३५९. एवं मे सुतं एकं समयं भगवा वेसालियन्ति महालिसुत्तं । तत्रायं अपुब्बपदवण्णना । वेसालियन्ति पुनप्पुनं विसालभावूपगमनतो वेसालीति लद्धनामके नगरे | महावनेति बहिनगरे हिमवन्तेन सद्धिं एकाबद्धं हुत्वा ठितं सयं जातवनं अत्थि, यं महन्तभावेनेव महावनन्ति वुच्चति, तस्मिं महावने । कूटागारसालायन्ति तस्मिं वनसण्डे सङ्घारामं पतिट्ठपेसुं । तत्थ कण्णिकं योजेत्वा थम्भानं उपरि कूटागारसालासङ्क्षेपेन देवविमानसदिसं पासादं अकंसु, तं उपादाय सकलोपि सङ्घारामो “ कूटागारसाला’ति पञ्ञायित्थ। भगवा तं वेसालिं उपनिस्साय तस्मिं सङ्घारामे विहरति । तेन वुत्तं - “वेसालियं विहरति महावने कूटागारसालाय "न्ति । कोसलकाति कोसलरट्ठवासिनो | मागधकाति मगधरट्ठवासिनो | करणीयेनाति अवस्सं कत्तब्बकम्मेन । यहि अकातुम्पि वट्टति, तं किच्चन्ति वुच्चति, यं अवस्सं कातब्बमेव, तं करणीयं नाम । ३६०. पटिसल्लीनो भगवाति नानारम्मणचारतो पटिक्कम्म सल्लीनो निलीनो, एकीभावं उपगम्म एकत्तारम्मणे झानरतिं अनुभवतीति अत्थो । तत्थेवाति तस्मिञ्ञेव विहारे। एकमन्तन्ति तस्मा ठाना अपक्कम्म तासु तासु रुक्खच्छायासु निसीदिंसु । ओद्धलिच्छवीवत्थुवण्णना ३६१. ओट्ठद्धोति अद्धोट्ठताय एवंलद्धनामो । महतिया लिच्छवीपरिसायाति पुरेभत्तं बुद्धप्पमुखस्स भिक्खुसङ्घस्स दानं दत्वा भगवतो सन्तिके उपोसथङ्गानि अधिट्ठहित्वा गन्धमालादीनि गाहापेत्वा उग्घोसनाय महतिं लिच्छविराजपरिसं सन्निपातापेत्वा ताय 249 Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५० दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गट्ठकथा (६.३६२-३६४-३६५) नीलपीतादिवण्णवत्थाभरणविलेपनपटिमण्डिताय तावतिंसपरिससप्पटिभागाय महतिया लिच्छविपरिसाय सद्धिं उपसङ्कमि। अकालो खो महालीति तस्स ओट्ठद्धस्स महालीति मूलनामं, तेन मूलनाममत्तेन नं थेरो महालीति आलपति । एकमन्तं निसीदीति पतिरूपासु रुक्खच्छायासु ताय लिच्छविपरिसाय सद्धिं रतनत्तयस्स वण्णं कथयन्तो निसीदि । ___३६२. सीहो समणुद्देसोति आयस्मतो नागितस्स भागिनेय्यो सत्तवस्सकाले पब्बजित्वा सासने युत्तपयुत्तो “सीहो"ति एवंनामको सामणेरो, सो किर तं महापरिसं दिस्वा - “अयं परिसा महती, सकलं विहारं पूरेत्वा निसिन्ना, अद्धा भगवा अज्ज इमिस्सा परिसाय महन्तेन उस्साहेन धम्मं देसेस्सति, यंनूनाहं उपज्झायस्साचिक्खित्वा भगवतो महापरिसाय सन्निपतितभावं आरोचापेय्य"न्ति चिन्तेत्वा येनायस्मा नागितो तेनुपसङ्कमि । भन्ते कस्सपाति थेरं गोत्तेन आलपति । एसा जनताति एसो जनसमूहो । त्व व भगवतो आरोचेहीति सीहो किर भगवतो विस्सासिको, अयहि थेरो थूलसरीरो, तेनस्स सरीरगरुताय उट्ठाननिसज्जादीसु आलसियभावो ईसकं अप्पहीनो विय होति । अथायं सामणेरो भगवतो कालेन कालं वत्तं करोति । तेन नं थेरो “त्वम्पि दसबलस्स विस्सासिको'ति वत्वा गच्छ त्व वारोचेहीति आह। विहारपच्छायायन्ति विहारछायायं, कूटागारमहागेहच्छायाय फरितोकासेति अत्थो। सा किर कूटागारसाला दक्खिणुत्तरतो दीघा पाचीनमुखा, तेनस्सा पुरतो महती छाया पत्थटा होति, सीहो तत्थ भगवतो आसनं पञपेसि । ३६३. अथ खो भगवा द्वारन्तरेहि चेव वातपानन्तरेहि च निक्खमित्वा विधावन्ताहि विप्फरन्तीहि छब्बण्णाहि बुद्धरस्मीहि संसूचितनिक्खमनो वलाहकन्तरतो पुण्णचन्दो विय कूटागारसालतो निक्खमित्वा पञत्तवरबुद्धासने निसीदि । तेन वुत्तं - “अथ खो भगवा विहारा निक्खम्म विहारपच्छायाय पञत्ते आसने निसीदी"ति । ३६४-३६५. पुरिमानि, भन्ते, दिवसानि पुरिमतरानीति एत्थ हिय्यो दिवसं पुरिमं नाम, ततो परं पुरिमतरं । ततो पट्ठाय पन सब्बानि पुरिमानि चेव पुरिमतरानि च होन्ति । यदग्गेति मूलदिवसतो पट्ठाय यं दिवसं अग्गं परकोटिं कत्वा विहरामीति अत्थो, याव विहासिन्ति वुत्तं होति । इदानि तस्स परिमाणं दस्सेन्तो “नचिरं तीणि वस्सानी"ति आह । अथ वा यदग्गेति यं दिवसं अग्गं कत्वा नचिरं तीणि वस्सानि विहरामीतिपि 250 Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६.३६६-३७१-३७२) ओट्ठद्धलिच्छवीवत्थुवण्णना २५१ अत्थो । यं दिवसं आदि कत्वा नचिरं विहासिं तीणियेव वस्सानीति वुत्तं होति । अयं किर भगवतो पत्तचीवरं गण्हन्तो तीणि संवच्छरानि भगवन्तं उपट्टासि, तं सन्धाय एवं वदति । पियरूपानीति पियजातिकानि सातजातिकानि । कामूपसंहितानीति कामस्सादयुत्तानि । रजनीयानीति रागजनकानि । नो च खो दिब्बानि सद्दानीति कस्मा सुनक्खत्तो तानि न सुणाति ? सो किर भगवन्तं उपसङ्कमित्वा दिब्बचक्खुपरिकम्मं याचि, तस्स भगवा आचिक्खि, सो यथानुसिटुं पटिपन्नो दिब्बचक्खं उप्पादेत्वा देवतानं रूपानि दिस्वा चिन्तेसि "इमस्मिं सरीरसण्ठाने सद्देन मधुरेन भवितब्बं, कथं नु खो नं सुणेय्य"न्ति भगवन्तं उपसङ्कमित्वा दिब्बसोतपरिकम्मं पुच्छि। अयञ्च अतीते एकं सीलवन्तं भिक्खुं कण्णसक्खलियं पहरित्वा बधिरमकासि । तस्मा परिकम्मं करोन्तोपि अभब्बो दिब्बसोताधिगमाय । तेनस्स न भगवा परिकम्मं कथेसि । सो एत्तावता भगवति आघातं बन्धित्वा चिन्तेसि - “अद्धा समणस्स गोतमस्स एवं होति - 'अहम्पि खत्तियो अयम्पि खत्तियो, सचस्स आणं वड्डिस्सति, अयम्पि सब्बञ्जू भविस्सती'ति उसूयाय मय्हं न कथेसी"ति । सो अनुक्कमेन गिहिभावं पत्वा तमत्थं महालिलिच्छविनो कथेन्तो एवमाह । ३६६-३७१. एकंसभावितोति एकंसाय एककोठ्ठासाय भावितो, दिब्बानं वा रूपानं दस्सनत्थाय दिब्बानं वा सद्दानं सवनत्थाय भावितोति अत्थो। तिरियन्ति अनुदिसाय । उभयंसभावितोति उभयंसाय उभयकोट्ठासाय भावितोति अत्थो । अयं खो महालि हेतूति अयं दिब्बानंयेव रूपानं दस्सनाय एकंसभावितो समाधि हेतु । इममत्थं सुत्वा सो लिच्छवी चिन्तेसि - “इदं दिब्बसोतेन सद्दसुणनं इमस्मिं सासने उत्तमत्थभूतं मछे इमस्स नून अत्थाय एते भिक्खू पञ्जासम्पि सट्ठिपि वस्सानि अपण्णकं ब्रह्मचरियं चरन्ति, यंनूनाहं दसबलं एतमत्थं पुच्छेय्य"न्ति । ३७२. ततो तमत्थं पुच्छन्तो "एतासं नून, भन्ते"तिआदिमाह । समाधिभावनानन्ति एत्थ समाधियेव समाधिभावना, उभयंसभावितानं समाधीनन्ति अत्थो । अथ यस्मा सासनतो बाहिरा एता समाधिभावना, न अज्झत्तिका। तस्मा ता पटिक्खिपित्वा यदत्थं भिक्खू ब्रह्मचरियं चरन्ति, तं दस्सेन्तो भगवा "न खो महाली"तिआदिमाह । 251 Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५२ दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गट्ठकथा (६.३७३-३७४-३७५) चतुअरियफलवण्णना ___३७३. तिण्णं संयोजनानन्ति सक्कायदिट्ठिआदीनं तिण्णं बन्धनानं । तानि हि वट्टदुक्खमये रथे सत्ते संयोजेन्ति, तस्मा संयोजनानीति वुच्चन्ति । सोतापन्नो होतीति मग्गसोतं आपन्नो होति । अविनिपातधम्मोति चतूसु अपायेसु अपतनधम्मो । नियतोति धम्मनियामेन नियतो । सम्बोधिपरायणोति उपरिमग्गत्तयसङ्खाता सम्बोधि परं अयनं अस्स, अनेन वा पत्तब्बाति सम्बोधिपरायणो । तनुत्ताति परियुट्ठानमन्दताय च कदाचि करहचि उप्पत्तिया च तनुभावा । ओरम्भागियानन्ति हेट्ठाभागियानं, ये हि बद्धो उपरि सुद्धावासभूमियं निब्बत्तितुं न सक्कोति। ओपपातिकोति सेसयोनिपटिक्खेपवचनमेतं । तत्थ . परिनिब्बायीति तस्मिं उपरिभवेयेव परिनिब्बानधम्मो | अनावत्तिधम्मोति ततो ब्रह्मलोका पुन पटिसन्धिवसेन अनावत्तनधम्मो । चेतोविमुत्तिन्ति चित्तविसुद्धिं, सब्बकिलेसबन्धनविमुत्तस्स अरहत्तफलचित्तस्सेतं अधिवचनं । पाविमुत्तिन्ति एत्थापि सब्बकिलेसबन्धनविमुत्ता अरहत्तफलपञ्जाव पाविमुत्तीति वेदितब्बा । दिवेव धम्मेति इमस्मिंयेव अत्तभावे | सयन्ति सामं । अभिञाति अभिजानित्वा । सच्छिकत्वाति पच्चक्खं कत्वा । अथ वा अभिञा सच्छिकत्वाति अभिज्ञाय अभिविसिटेन जाणेन सच्छिकरित्वातिपि अत्थो । उपसम्पज्जाति पत्वा पटिलभित्वा । इदं सुत्वा लिच्छविराजा चिन्तेसि - “अयं पन धम्मो न सकुणेन विय उप्पतित्वा, नापि गोधाय विय उरेन गन्त्वा सक्का पटिविज्झितुं, अद्धा पन इमं पटिविज्झन्तस्स पुब्बभागप्पटिपदाय भवितबं, पुच्छामि ताव न"न्ति । अरियअट्ठङ्गिकमग्गवण्णना ३७४-३७५. ततो भगवन्तं पुच्छन्तो “अत्थि पन भन्ते"तिआदिमाह । अट्ठनिकोति पञ्चङ्गिकं तुरियं विय अट्ठङ्गिको गामो विय च अट्ठङ्गमत्तोयेव हुत्वा अट्ठङ्गिको, न अङ्गतो अओ मग्गो नाम अस्थि । तेनेवाह - "सेय्यथिदं, सम्मार्दाि म्मादिदि...पे०... सम्मासमाधी'ति । तत्थ सम्मादस्सनलक्खणा सम्मादिट्ठि। सम्मा अभिनिरोपनलक्खणो सम्मासङ्कप्पो। सम्मा परिग्गहणलक्खणा सम्मावाचा। सम्मा समुट्ठापनलक्खणो सम्माकम्मन्तो। सम्मा वोदापनलक्खणो सम्माआजीवो। सम्मा पग्गहलक्खणो सम्मावायामो। सम्मा उपट्ठानलक्खणा सम्मासति। सम्मा समाधानलक्खणो सम्मासमाधि । एतेसु एकेकस्स तीणि Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६.३७४-३७५-३७४-३७५) अरियअट्ठङ्गिकमग्गवण्णना २५३ तीणि किच्चानि होन्ति । सेय्यथिदं, सम्मादिट्ठि ताव अ हिपि अत्तनो पच्चनीककिलेसेहि सद्धिं मिच्छादिलुि पजहति, निरोधं आरम्मणं करोति, सम्पयुत्तधम्मे च पस्सति तप्पटिच्छादकमोहविधमनवसेन असम्मोहतो। सम्मासङ्कप्पादयोपि तथैव मिच्छासङ्कप्पादीनि पजहन्ति, निरोधञ्च आरम्मणं करोन्ति, विसेसतो पनेत्थ सम्मासङ्कप्पो सहजातधम्मे अभिनिरोपेति । सम्मावाचा सम्मा परिग्गण्हति । सम्माकम्मन्तो सम्मा समुट्ठापेति । सम्माआजीवो सम्मा वोदापेति । सम्मावायामो सम्मा पग्गण्हति । सम्मासति सम्मा उपट्ठापेति । सम्मासमाधि सम्मा पदहति । अपि चेसा सम्मादिट्ठि नाम पुब्बभागे नानाक्खणा नानारम्मणा होति, मग्गक्खणे एकक्खणा एकारम्मणा । किच्चतो पन “दुक्खे आण"न्तिआदीनि चत्तारि नामानि लभति । सम्मासङ्कप्पादयोपि पुब्बभागे नानाक्खणा नानारम्मणा होन्ति । मग्गक्खणे एकक्खणा एकारम्मणा । तेसु सम्मासङ्कप्पो किच्चतो “नेक्खम्मसङ्कप्पो''तिआदीनि तीणि नामानि लभति । सम्मा वाचादयो तिस्सो विरतियोपि होन्ति, चेतनादयोपि होन्ति, मग्गक्खणे पन विरतियेव । सम्मावायामो सम्मासतीति इदम्पि द्वयं किच्चतो सम्मप्पधानसतिपट्ठानवसेन चत्तारि नामानि लभति। सम्मासमाधि पन पुब्बभागेपि मग्गक्खणेपि सम्मासमाधियेव । इति इमेसु अट्ठसु धम्मेसु भगवता निब्बानाधिगमाय पटिपन्नस्स योगिनो बहुकारत्ता पठमं सम्मादिट्ठि देसिता। अयहि “पञापज्जोतो पचासत्थ"न्ति (ध० स० २०) च वुत्ता। तस्मा एताय पुब्बभागे विपस्सनाञाणसङ्घाताय सम्मादिट्ठिया अविज्जन्धकारं विधमित्वा किलेसचोरे घातेन्तो खेमेन योगावचरो निब्बानं पापुणाति । तेन वुत्तं - "निब्बानाधिगमाय पटिपन्नस्स योगिनो बहुकारत्ता पठमं सम्मादिट्ठि देसिता''ति । सम्मासङ्कप्पो पन तस्सा बहुकारो, तस्मा तदनन्तरं वुत्तो । यथा हि हेरञिको हत्थेन परिवठूत्वा परिवठूत्वा चक्खुना कहापणं ओलोकेन्तो- “अयं छेको, अयं कूटो"ति जानाति । एवं योगावचरोपि पुब्बभागे वितक्केन वितक्केत्वा विपस्सनापञ्जाय ओलोकयमानो- “इमे धम्मा कामावचरा, इमे धम्मा रूपावचरादयो''ति पजानाति । यथा वा पन पुरिसेन कोटियं गहेत्वा परिवठूत्वा परिवठूत्वा दिन्नं महारुक्खं तच्छको वासिया तच्छेत्वा कम्मे उपनेति, एवं वितक्केन वितक्केत्वा वितक्केत्वा दिन्ने धम्मे योगावचरो पाय- "इमे कामावचरा, इमे रूपावचरा"तिआदिना नयेन परिच्छिन्दित्वा कम्मे 253 Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५४ दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गट्ठकथा (६.३७६-३७७-३७६-३७७) उपनेति । तेन वुत्तं- “सम्मासङ्कप्पो पन तस्सा बहुकारो, तस्मा तदनन्तरं वुत्तो''ति । स्वायं यथा सम्मादिट्ठिया एवं सम्मावाचायपि उपकारको । यथाह - "पुब्बे खो, विसाख, वितक्केत्वा विचारेत्वा पच्छा वाचं भिन्दती"ति, (म० नि० १.४६३) तस्मा तदनन्तरं सम्मावाचा वुत्ता। यस्मा पन – “इदञ्चिदञ्च करिस्सामा"ति पठमं वाचाय संविदहित्वा लोके कम्मन्ते पयोजेन्ति; तस्मा वाचा कायकम्मस्स उपकारिकाति सम्मावाचाय अनन्तरं सम्माकम्मन्तो वुत्तो। चतुब्बिधं पन वचीदुच्चरितं, तिविधञ्च कायदुच्चरितं पहाय उभयं सुचरितं पूरेन्तस्सेव यस्मा आजीवट्ठमकं सीलं पूरेति, न इतरस्स, तस्मा तदुभयानन्तरं सम्माआजीवो वुत्तो। एवं विसुद्धाजीवेन पन “परिसुद्धो मे आजीवो"ति एत्तावता च परितोसं कत्वा सुत्तपमत्तेन विहरितुं न युत्तं, अथ खो “सब्बिरियापथेसु इदं वीरियं समारभितब्बन्ति दस्सेतुं तदनन्तरं सम्मावायामो वुत्तो। ततो “आरद्धवीरियेनपि कायादीसु चतूसु वत्थूसु सति सूपट्ठिता कातब्बा''ति दस्सनत्थं तदनन्तरं सम्मासति देसिता । यस्मा पनेवं सूपट्ठिता सति समाधिस्सुपकारानुपकारानं धम्मानं गतियो समन्नेसित्वा पहोति एकत्तारम्मणे चित्तं समाधातुं, तस्मा सम्मासतिया अनन्तरं सम्मासमाधि देसितोति वेदितब्बो । एतेसं धम्मानं सच्छिकिरियायाति एतेसं सोतापत्तिफलादीनं पच्चक्खकिरियत्थाय । द्वे पब्बजितवत्थुवण्णना ३७६-३७७. एकमिदाहन्ति इदं कस्मा आरद्धं ? अयं किर राजा- “रूपं अत्ता''ति एवंलद्धिको, तेनस्स देसनाय चित्तं नाधिमुच्चति । अथ भगवता तस्स लद्धिया आविकरणत्थं एकं कारणं आहरितुं इदमारद्धं । तत्रायं सङ्खपत्थो – “अहं एकं समयं घोसितारामे विहरामि, तत्र वसन्तं मं ते द्वे पब्बजिता एवं पुच्छिंसु । अथाहं तेसं बुद्धप्पादं दस्सेत्वा तन्तिधम्मं नाम कथेन्तो इदमवोचं – “आवुसो, सद्धासम्पन्नो नाम कुलपुत्तो एवरूपस्स सत्थु सासने पब्बजितो, एवं तिविधं सीलं पूरेत्वा पठमज्झानादीनि पत्वा ठितो 'तं जीवन्तिआदीनि वदेय्य, युत्तं नु खो एतमस्सा''ति ? ततो तेहि “युत्त"न्ति वुत्ते “अहं खो पनेतं, आवुसो, एवं जानामि, एवं पस्सामि, अथ च पनाहं न वदामी''ति तं वादं पटिक्खिपित्वा उत्तरि खीणासवं दस्सेत्वा “इमस्स एवं वत्तुं न युत्त''न्ति अवोचं । ते मम वचनं सुत्वा अत्तमना अहेसुन्ति । एवं वुत्ते सोपि अत्तमनो 254 Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६.३७६-३७७-३७६-३७७) द्वेपब्बजितवत्थुवण्णना २५५ अहोसि । तेनाह - "इदमवोच भगवा। अत्तमनो ओट्ठद्धो लिच्छवी भगवतो भासितं अभिनन्दी"ति । इति सुमङ्गलविलासिनिया दीघनिकायट्ठकथायं महालिसुत्तवण्णना निद्विता। 255 Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७. जालियसुत्तवण्णना ढे पब्बजितवत्थुवण्णना ३७८. एवं मे सुतं...पे०... कोसम्बियन्ति जालियसुत्तं । तत्रायं अपुब्बपदवण्णना । घोसितारामेति घोसितेन सेट्ठिना कते आरामे | पुब्बे किर अल्लकप्परटुं नाम अहोसि । ततो कोतूहलिको नाम दलिदो छातकभयेन सपुत्तदारो अवन्तिरटुं गच्छन्तो पुत्तं वहितुं असक्कोन्तो छड्डेत्वा अगमासि, माता निवत्तित्वा तं गहेत्वा गता, ते एकं गोपालकगामं पविसिंसु । गोपालकेन च तदा बहुपायासो पटियत्तो होति, ते ततो पायासं लभित्वा भुजिंसु । अथ सो पुरिसो बलवपायासं भुत्तो जीरापेतुं असक्कोन्तो रत्तिभागे कालं कत्वा तत्थेव सुनखिया कुच्छिस्मिं पटिसन्धिं गहेत्वा कुक्कुरो जातो, सो गोपालकस्स पियो अहोसि । गोपालको च पच्चेकबुद्धं उपट्टहति । पच्चेकबुद्धोपि भत्तकिच्चपरियोसाने कुक्कुरस्स एकेकं पिण्डं देति, सो पच्चेकबुद्धे सिनेहं उप्पादेत्वा गोपालकेन सद्धिं पण्णसालम्पि गच्छति । गोपालके असन्निहिते भत्तवेलायं सयमेव गन्त्वा कालारोचनत्थं पण्णसालद्वारे भुस्सति, अन्तरामग्गेपि चण्डमिगे दिस्वा भुस्सित्वा पलापेति । सो पच्चेकबुद्धे मुदुकेन चित्तेन कालंकत्वा देवलोके निब्बत्ति । तत्रस्स घोसकदेवपुत्तो त्वेव नामं अहोसि । सो देवलोकतो चवित्वा कोसम्बियं एकस्स कुलस्स घरे निब्बत्ति । तं अपुत्तको सेट्टि तस्स मातापितूनं धनं दत्वा पुत्तं कत्वा अग्गहेसि । अथ अत्तनो पुत्ते जाते सत्तक्खत्तुं घातापेतुं उपक्कमि । सो पुञ्जवन्तताय सत्तसुपि ठानेसु मरणं अप्पत्वा अवसाने एकाय सेट्ठिधीताय वेय्यत्तियेन लद्धजीवितो अपरभागे पितुअच्चयेन सेट्ठिद्वानं पत्वा घोसकसेट्टि नाम जातो। अञपि कोसम्बियं कुक्कुटसेट्टि, पावारियसेठ्ठीति द्वे सेट्टिनो अत्थि, इमिना सद्धिं तयो अहेसुं । तेन च समयेन हिमवन्ततो पञ्चसततापसा सरीरसन्तप्पनत्थं अन्तरन्तराकोसम्बिं 256 Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७.३७८-३७८) द्वे पब्बजितवत्थुवणना आगच्छन्ति, तेसं एते तयो सेट्ठी अत्तनो अत्तनो उय्यानेसु पण्णकुटियो कत्वा उपट्ठानं करोन्ति । अथेकदिवस ते तापसा हिमवन्ततो आगच्छन्ता महाकन्तारे तसिता किलन्ता एकं महन्तं वटरुक्खं पत्वा तत्थ अधिवत्थाय देवताय सन्तिका सङ्ग्रहं पच्चासिसन्ता निसीदिंसु । देवता सब्बालङ्कारविभूसितं हत्थं पसारेत्वा तेसं पानीयपानकादीनि दत्वा किलमथं पटिविनोदेसि, एते देवतायानुभावेन विहिता पुच्छिंसु - "किं नु खो, देवते, कम्मं कत्वा तया अयं सम्पत्ति लद्धा "ति ? देवता आह- "लोके बुद्धो नाम भगवा उप्पन्नो, सो एतरहि सावत्थियं विहरति, अनाथपिण्डिको गहपति तं उपट्ठहति । सो उपोसथदिवसेसु अत्तनो भतकानं पकतिभत्तवेतनमेव दत्वा उपोसथं कारापेसि । अथाहं एकदिवसं मज्झन्हिके पातरासत्थाय आगतो कञ्चि भतककम्मं अकरोन्तं दिस्वा - 'अज्ज मनुस्सा कस्मा कम्मं न करोन्ती 'ति पुच्छिं । तस्स मे तमत्थं आरोचेसुं । अथाहं एतदवोचं - 'इदानि उपड्ढदिवसो गतो, सक्का नु खो उपपोसथं कातुरन्ति । ततो सेट्ठिस्स पटिवेदेत्वा “सक्का कातु 'न्ति आह । स्वाहं उपड्ढदिवसं उपपोसथं समादियित्वा तदव कालं कत्वा इमं सम्पत्तिं पटिलभि"न्ति । अथ ते तापसा “बुद्धो किर उप्पन्नोति सञ्जातपीतिपामोज्जा ततोव सावत्थिं गन्तुकामा हुत्वापि – “बहुकारा नो उपट्ठाकसेट्ठिनो तेसम्पि इममत्थमारोचेस्सामा 'ति कोसम्बिं गन्त्वा सेट्ठीहि कतसक्कारबहुमाना " तदहेव मयं गच्छामा "ति आहंसु । “किं, भन्ते, तुरितात्थ, ननु तुम्हे पुब्बे चत्तारो पञ्च मासे वसित्वा गच्छथा " ति च वुत्ते तं पवत्तिं आरोचेसुं । “तेन हि भन्ते, सहेव गच्छामा "ति च वुत्ते " गच्छाम मयं, तुम्हे सणिकं आगच्छथा”ति सावत्थिं गन्त्वा भगवतो सन्तिके पब्बजित्वा अरहत्तं पापुर्णिसु । तेपि सेट्ठिनो पञ्चसतपञ्चसतसकटपरिवारा सावत्थिं गन्त्वा दानादीनि दत्वा कोसम्बिं आगमनत्थाय भगवन्तं याचित्वा पच्चागम्म तयो विहारे कारेसुं । तेसु कुक्कुटसेट्ठिना तो कुक्कुटारामो नाम, पावारियसेट्ठिना कतो पावारिकम्बवनं नाम, घोसितसेट्ठिना कतो घोसितारामो नाम अहोसि । तं सन्धाय वुत्तं - "कोसम्बियं विहरति घोसितारामेति । I २५७ मुण्डियोति इदं तस्स नामं । जालियोति इदम्पि इतरस्स नाममेव । यस्मा पनस्स उपज्झायो दारुमयेन पत्तेन पिण्डाय चरति, तस्मा दारुपत्तिकन्तेवासीति वुच्चति । एतदवोचुन्ति उपारम्भाधिप्पायेन वादं आरोपेतुकामा हुत्वा एतदवोचुं । इति किर सं अहोसि, सचे समणो गोतमो “तं जीवं तं सरीर "न्ति वक्खति, अथस्स मयं एतं वादं आरोपेस्साम “भो गोतम, तुम्हाकं लद्धिया इधेव सत्तो भिज्जति, तेन वो वादो 257 Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५८ दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गट्ठकथा (७.३७९-३८०-३७९-३८०) उच्छेदवादो होती"ति । सचे पन “अचं जीवं अनं सरीर'"न्ति वक्खति, अथस्सेतं वादं आरोपेस्साम “तुम्हाकं वादे रूपं भिज्जति, न सत्तो भिज्जति । तेन वो वादे सत्तो सस्सतो आपज्जती'ति । अथ भगवा "इमे वादारोपनत्थाय पऽहं पुच्छन्ति, मम सासने इमे द्वे अन्ते अनुपगम्म मज्झिमा पटिपदा अत्थीति न जानन्ति, हन्द नेसं पञ्हं अविस्सज्जेत्वा तस्सायेव पटिपदाय आविभावत्थं धम्मं देसेमी''ति चिन्तेत्वा "तेन हावुसो''तिआदिमाह । ३७९-३८०. तत्थ कल्लं नु खो तस्सेतं वचनायाति तस्सेतं सद्धापब्बजितस्स तिविधं सीलं परिपूरेत्वा पठमज्झानं पत्तस्स युत्तं नु खो एतं वत्तुन्ति अत्थो। तं सुत्वा परिब्बाजका पुथुज्जनो नाम यस्मा निबिचिकिच्छो न होति, तस्मा कदाचि एवं वदेय्याति मञ्जमाना - "कल्लं तस्सेतं वचनाया"ति आहेसु । अथ च पनाहं न वदामीति अहं एतमेवं जानामि, नो च एवं वदामि, अथ खो कसिणपरिकम्मं कत्वा भावेन्तस्स पञ्जाबलेन उप्पन्नं महग्गतचित्तमेतन्ति सझं ठपेसिं। न कल्लं तस्सेतन्ति इदं ते परिब्बाजका -- “यस्मा खीणासवो विगतसम्मोहो तिण्णविचिकिच्छो, तस्मा न युत्तं तस्सेतं वत्तु'न्ति मञमाना वदन्ति । सेसमेत्थ उत्तानत्थमेवाति । इति सुमङ्गलविलासिनिया दीघनिकायट्ठकथायं जालियसुत्तवण्णना निहिता। 258 Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८. महासीहनादसुत्तवण्णना अचेलकस्सपवत्थुवण्णना ३८१. एवं मे सुतं...पे०... उरुञ्जायं विहरतीति महासीहनादसुत्तं । तत्रायं अपुब्बपदवण्णना | उरुळायन्ति उरुञाति तस्स रहस्सपि नगरस्सपि एतदेव नामं, भगवा उरुझानगरं उपनिस्साय विहरति । कण्णकत्थले मिगदायेति तस्स नगरस्स अविदूरे कण्णकत्थलं नाम एको रमणीयो भूमिभागो अस्थि । सो मिगानं अभयत्थाय दिन्नत्ता "मिगदायो"ति वुच्चति, तस्मिं कण्णकत्थले मिगदाये। अचेलोति नग्गपरिब्बाजको । कस्सपोति तस्स नामं । तपस्सिन्ति तपनिस्सितकं । लूखाजीविन्ति अचेलकमुत्ताचारादिवसेन लूखो आजीवो अस्साति लूखाजीवी, तं लूखाजीविं । उपक्कोसतीति उपण्डेति । उपवदतीति हीळेति वम्भेति । धम्मस्स च अनुधम्मं ब्याकरोन्तीति भोता गोतमेन वुत्तकारणस्स अनकारणं कथेन्ति । सहधम्मिको वादानवादोति परेहि वत्तकारणेन सकारणो हत्वा तम्हाकं वादो वा अनुवादो वा विझूहि गरहितब्बं, कारणं कोचि अप्पमत्तकोपि किं न आगच्छति । इदं वुत्तं होति, "किं सब्बाकारेनपि तव वादे गारव्हं कारणं नत्थी''ति । अनब्भक्खातुकामाति न अभूतेन वत्तुकामा । ३८२. एकच्चं तपस्सिं लूखाजीविन्तिआदीसु इधेकच्चो अचेलकपब्बज्जादितपनिस्सितत्ता तपस्सी "लूखेन जीवितं कप्पेस्सामी''ति तिणगोमयादिभक्खनादीहि नानप्पकारेहि अत्तानं किलमेति, अप्पपुञ्जताय च सुखेन जीवितवुत्तिमेव न लभति, सो तीणि दुच्चरितानि पूरेत्वा निरये निब्बत्तति । अपरो तादिसं तपनिस्सितोपि पुजवा होति, लभति लाभसक्कारं । सो “न दानि मया सदिसो अत्थी''ति अत्तानं उच्चे ठाने सम्भावेत्वा “भिय्योसोमत्ताय लाभ 259 Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६० दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गट्ठकथा उप्पादेस्सामी’ति अनेसनवसेन तीणि दुच्चरितानि पूरेत्वा निरये निब्बत्तति । इ सन्धाय पठमनयो वृत्तो । " अपरो तपनिस्सितको लूखाजीवी अप्पपुञ्ञो होति, न लभति सुखेन जीवितवृत्तिं । सो “मय्हं पुब्बेपि अकतपुञ्ञताय सुखजीविका नुप्पज्जति, हन्द दानि पुञ्ञानि करोमी'ति तीणि सुचरितानि पूरेत्वा सग्गे निब्बत्तति । ( ८.३८२ - ३८२) अपरो लूखाजीवी पुञ्ञवा होति, लभति सुखेन जीवितवुत्तिं । सो- “महं पुब्बेपि कतपुञ्ञताय सुखजीविका उप्पज्जती 'ति चिन्तेत्वा अनेसनं पहाय तीणि सुचरितानि पूरेत्वा सग्गे निब्बत्तति । इमे द्वे सन्धाय दुतियनयो वृत्तो । एको पन तपस्सी अप्पदुक्खविहारी होति बाहिरकाचारयुत्तो तापसो वा छन्नपरिब्बाजको वा, अप्पपुञ्ञताय च मनापे पच्चये न लभति । सो अनेसनवसेन तीणि दुच्चरितानि पूरेत्वा अत्तानं सुखे ठपेत्वा निरये निब्बत्तति । अपरो पुञ्ञवा होति, सो- “न दानि मया सदिसो अत्थी "ति मानं उप्पादेवा अनेसनवसेन लाभसक्कारं वा उप्पादेन्तो मिच्छादिट्ठिवसेन- “सुखो इमिस्सा परिब्बाजिकाय दहराय मुदुकाय लोमसाय सम्फस्सो 'तिआदीनि चिन्तेत्वा कामेसु पातब्यतं वा आपज्जन्तो तीणि दुच्चरितानि पूरेत्वा निरये निब्बत्तति । इमे द्वे सन्धाय नियो वृत्त । अपरो पन अप्पदुक्खविहारी अप्पपुञ्ञो होति, सो- “अहं पुब्बेपि अकतपुञ्ञताय सुखेन जीविकं न लभामी ति तीणि सुचरितानि पूरेत्वा सग्गे निब्बत्तति । अपरो पुञ्ञवा होति, सो- “पुब्बेपाहं कतपुञ्ञताय सुखं लभामि, इदानि पुञ्ञानि करिस्सामी'ति तीणि सुचरितानि पूरेत्वा सग्गे निब्बत्तति । इमे द्वे सन्धाय चतुथयो त्तो । इदं तित्थियवसेन आगतं, सासनेपि पन लब्भति । एकच्ची हि धुतङ्गसमादानवसेन लूखाजीवी होति, अप्पपुञ्ञताय वा सकलम्पि गामं विचरित्वा उदरपूरं न लभति । सो- “पच्चये उप्पादेस्सामी' 'ति वेज्जकम्मादिवसेन वा 260 Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८.३८३-३८४) अचेलकस्सपवत्थुवण्णना अनेसनं कत्वा, अरहत्तं वा पटिजानित्वा, तीणि वा कुहनवत्थूनि पटिसेवित्वा निरये निब्बत्तति । अपरो च तादिसोव पुञ्ञवा होति । सो ताय पुञ्ञसम्पत्तिया मानं जनयित्वा उप्पन्नं लाभं थावरं कत्तुकामो अनेसनवसेन तीणि दुच्चरितानि पूरेत्वा निरये उप्पज्जति । २६१ अपरो समादिन्नधुतङ्गो अप्पपुञ्ञव होति, न लभति सुखेन जीवितवृत्तिं । सो - "पुब्बेपाहं अकतपुञ्ञताय किञ्चि न लभामि, सचे इदानि अनेसनं करिस्सं, आयतिम्पि दुल्लभसुखो भविस्सामी 'ति तीणि सुचरितानि पूरेत्वा अरहत्तं पत्तुं असक्कोन्तो सग्गे निब्बत्तति । अपरो पुञ्ञवा होति, सो – “पुब्बेपाहं कतपुञ्ञताय एतरहि सुखितो, इदानिपि पुञ्ञ करिस्सामी”ति अनेसनं पहाय तीणि सुचरितानि पूरेत्वा अरहत्तं पत्तुं असक्कोन्तो सग्गे निब्बत्तति । ३८३. आगतिञ्चाति - " असुकट्ठानतो नाम इमे आगता "ति एवं आगतिञ्च । गतिञ्चाति इदानि गन्तब्बट्ठानञ्च । चुतिञ्चाति ततो चवनञ्च । उपपत्तिञ्चाति ततो चुतानं पुन उपपत्तिञ्च । किं सब्बं तपं गरहिस्सामीति - "केन कारणेन गरहिस्सामि, गरहितब्बमेव हि मयं गरहाम, पसंसितब्बं पसंसाम, न भण्डिकं करोन्तो महारजको विय धोतञ्च अधोतञ्च एकतो करोमा ति दस्सेति । इदानि तमत्थं पकासेन्तो – “सन्ति कस्सप एके समणब्राह्मणाति आदिमाह । ३८४. यं ते एकच्चन्ति पञ्चविधं सीलं, तञ्हि लोके न कोचि “न साधू 'ति वदति । पुन यं ते एकच्चन्ति पञ्चविधं वेरं तं न कोचि " साधू" ति वदति । पुन यं ते एकच्चन्ति पञ्चद्वारे असंवरं, ते किर- "चक्खु नाम न निरुन्धितब्बं, चक्खुना मनापं रूपं दट्ठब्बन्ति वदन्ति, एस नयो सोतादीसु । पुन यं ते एकच्चन्ति पञ्चद्वारे संवरं । एवं परेसं वादेन सह अत्तनो वादस्स समानासमानतं दस्सेत्वा इदानि अत्तनो 261 Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६२ दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गट्ठकथा (८.३८५-३८६-३९२) वादेन सह परेसं वादस्स समानासमानतं दस्सेन्तो "यं मय"न्तिआदिमाह । तत्रापि पञ्चसीलादिवसेनेव अत्थो वेदितब्बो । समनुयुजापनकथावण्णना ३८५. समनुयुञ्जन्तन्ति समनुयुञ्जन्तु, एत्थ च लद्धिं पुच्छन्तो समनुयुञ्जति नाम, कारणं पुच्छन्तो समनुगाहति नाम, उभयं पुच्छन्तो समनुभासति नाम । सत्थारा वा सत्थारन्ति सत्थारा वा सद्धिं सत्थारं उपसंहरित्वा - “किं ते सत्था ते धम्मे सब्बसो पहाय वत्तति, उदाहु समणो गोतमो''ति । दुतियपदेपि एसेव नयो । इदानि तमत्थं योजत्वा दस्सेन्तो- “ये इमेसं भवत"न्तिआदिमाह । तत्थ अकुसला अकुसलसङ्खाताति अकुसला चेव “अकुसला'"ति च सङ्खाता जाता कोट्ठासं वा कत्वा ठपिताति अत्थो । एस नयो सब्बपदेसु । अपि चेत्थ सावज्जाति सदोसा। न अलमरियाति निद्दोसटेन अरिया भवितुं नालं असमत्था । ३८६-३९२. यं विषं समनुयुञ्जन्ताति येन विजू अम्हे च अञ्चे च पुच्छन्ता एवं वदेय्युं, तं ठानं विज्जति, अत्थि तं कारणन्ति अत्थो। यं वा पन भोन्तो परे गणाचरियाति परे पन भोन्तो गणाचरिया यं वा तं वा अप्पमत्तकं पहाय वत्तन्तीति अत्थो । अम्हेव तत्थ येभुय्येन पसंसेय्युन्ति इदं भगवा सत्थारा सत्थारं समनुयुञ्जनेपि आह - सङ्घन संघं समनुयुञ्जनेपि। कस्मा ? सङ्घपसंसायपि सत्थुयेव पसंसासिद्धितो । पसीदमानापि हि बुद्धसम्पत्तिया सङ्घ, सङ्घसम्पत्तिया च बुद्धे पसीदन्ति, तथा हि भगवतो सरीरसम्पत्तिं दिस्वा, धम्मदेसनं वा सुत्वा भवन्ति वत्तारो- “लाभा वत भो सावकानं ये एवरूपस्स सत्थु सन्तिकावचरा"ति, एवं बुद्धसम्पत्तिया सङ्घ पसीदन्ति । भिक्खूनं पनाचारगोचरं अभिक्कमपटिक्कमादीनि च दिस्वा भवन्ति वत्तारो- “सन्तिकावचरानं वत भो सावकानं अयञ्च उपसमगुणो सत्थु कीव रूपो भविस्सती"ति, एवं सङ्घसम्पत्तिया बुद्धे पसीदन्ति । इति या सत्थुपसंसा, सा सङ्घस्स । या सङ्घस्स पसंसा, सा सत्थूति सङ्घपसंसायपि सत्थुयेव पसंसासिद्धितो भगवा द्वीसुपि नयेसु - "अम्हेव तत्थ येभुय्येन पसंसेय्यु"न्ति आह । समणो गोतमो इमे धम्मे अनवसेसं पहाय वत्तति, यं वा पन भोन्तो परे गणाचरियातिआदीसुपि पनेत्थ अयमधिप्पायो - सम्पत्तसमादानसेतुघातवसेन हि तिस्सो विरतियो । तासु सम्पत्तसमादान विरतिमत्तमेव अओसं होति, सेतुघातविरति पन सब्बेन 262 Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८.३९३-३९४) अरियअट्ठङ्गिकमग्गवण्णना २६३ सब्बं नत्थि। पञ्चसु पन तदङ्गविक्खम्भनसमुच्छेदपटिपस्सद्धिनिस्सरणप्पहानेसु अट्ठसमापत्तिवसेन चेव विपस्सनामत्तवसेन च तदङ्गविक्खम्भनप्पहानमत्तमेव असं होति । इतरानि तीणि पहानानि सब्बेन सब् नत्थि । तथा सीलसंवरो, खन्तिसंवरो, आणसंवरो, सतिसंवरो, वीरियसंवरोति पञ्च संवरा, तेसु पञ्चसीलमत्तमेव अधिवासनखन्तिमत्तमेव च असं होति, सेसं सब्बेन सब् नत्थि । पञ्च खो पनिमे उपोसथुद्देसा, तेसु पञ्चसीलमत्तमेव असं होति । पातिमोक्खसंवरसीलं सब्बेन सब्बं नत्थि । इति अकुसलप्पहाने च कुसलसमादाने च, तीसु विरतीसु, पञ्चसु पहानेसु, पञ्चसु संवरेसु, पञ्चसु उद्देसेसु,- “अहमेव च मय्हञ्च सावकसङ्घो लोके पचायति, मया हि सदिसो सत्था नाम, महं सावकसङ्घन सदिसो सङ्घो नाम नत्थी''ति भगवा सीहनादं नदति ।। अरियअट्ठङ्गिकमग्गवण्णना ३९३. एवं सीहनादं नदित्वा तस्स सीहनादस्स अविपरीतभावावबोधनत्थं - "अत्थि, कस्सप, मग्गो"तिआदिमाह । तत्थ मग्गोति लोकुत्तरमग्गो। पटिपदाति पुब्बभागपटिपदा । कालवादीतिआदीनि ब्रह्मजाले वण्णितानि । इदानि तं दुविधं मग्गञ्च पटिपदञ्च एकतो कत्वा दस्सेन्तो – “अयमेव अरियो"तिआदिमाह । इदं पन सुत्वा अचेलो चिन्तेसि - “समणो गोतमो मव्हयेव मग्गो च पटिपदा च अत्थि, अञ्जेसं नत्थीति मञति, हन्दस्साहं अम्हाकम्पि मग्गं कथेमी''ति । ततो अचेलकपटिपदं कथेसि । तेनाह - “एवं वुत्ते अचेलो कस्सपो भगवन्तं एतदवोच...पे०... उदकोरोहनानुयोगमनुयुत्तो विहरतीति । तपोपक्कमकथावण्णना ३९४. तत्थ तपोपक्कमाति तपारम्भा, तपकम्मानीति अत्थो । सामञ्जसङ्घाताति समणकम्मसङ्खाता। ब्रह्मज्ञसङ्घाताति ब्राह्मणकम्मसङ्घाता। अचेलकोति निच्चोलो, नग्गोति अत्थो । मुत्ताचारोति विसट्ठाचारो, उच्चारकम्मादीसु लोकियकुलपुत्ताचारेन विरहितो ठितकोव उच्चारं करोति, पस्सावं करोति, खादति, भुञ्जति च । हत्थापलेखनोति हत्थे पिण्डम्हि ठिते जिव्हाय हत्थं अपलिखति, उच्चारं वा कत्वा हत्थस्मि व दण्डकसञ्जी हुत्वा हत्थेन अपलिखति । “भिक्खागहणत्थं एहि, भन्ते''ति वुत्तो न एतीति न एहिभद्दन्तिको। “तेन 263 Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६४ दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गट्ठकथा (८.३९४-३९४) हि तिठ्ठ, भन्ते''ति वुत्तोपि न तिद्वतीति नतिट्ठभद्दन्तिको। तदुभयम्पि किर सो - "एतस्स वचनं कतं भविस्सती"ति न करोति । अभिहटन्ति पुरेतरं गहेत्वा आहटं भिक्खं, उद्दिस्सकतन्ति “इमं तुम्हे उद्दिस्स कतन्ति एवं आरोचितं भिक्खं । न निमन्तनन्ति "असुकं नाम कुलं वा वीथिं वा गामं वा पविसेय्याथा''ति एवं निमन्तितभिक्खम्पि न सादियति, न गण्हति । न कुम्भिमुखाति कुम्भितो उद्धरित्वा दिय्यमानं भिक्खं न गण्हति । न कळोपिमुखाति कळोपीति उक्खलि वा पच्छि वा, ततोपि न गण्हति । कस्मा ? कुम्भिकळोपियो मं निस्साय कटच्छुना पहारं लभन्तीति । न एळकमन्तरन्ति उम्मारं अन्तरं कत्वा दिय्यमानं न गण्हति । कस्मा ? “अयं मं निस्साय अन्तरकरणं लभती"ति । दण्डमुसलेसुपि एसेव नयो। द्विन्नन्ति द्वीसु भुञ्जमानेसु एकस्मिं उट्ठाय देन्ते न गण्हति । कस्मा ? “एकस्स कबळन्तरायो होती''ति । न गन्भिनियातिआदीसु पन “गब्भिनिया कुच्छियं दारको किलमति | पायन्तिया दारकस्स खीरन्तरायो होति, पुरिसन्तरगताय रतिअन्तरायो होती"ति न गण्हति । संकित्तीसूति संकित्तेत्वा कतभत्तेसु, दुब्भिक्खसमये किर अचेलकसावका अचेलकानं अत्थाय ततो ततो तण्डुलादीनि समादपेत्वा भत्तं पचन्ति । उक्कट्ठो अचेलको ततोपि न पटिग्गण्हति । न यत्थ साति यत्थ सुनखो- “पिण्डं लभिस्सामी"ति उपद्वितो होति, तत्थ तस्स अदत्वा आहटं न गण्हति । कस्मा ? एतस्स पिण्डन्तरायो होतीति । सण्डसण्डचारिनीति समूहसमूहचारिनी, सचे हि अचेलकं दिस्वा- "इमस्स भिक्खं दस्सामा''ति मनुस्सा भत्तगेहं पविसन्ति, तेसु च पविसन्तेसु कळोपिमुखादीसु निलीना मक्खिका उप्पतित्वा सण्डसण्डा चरन्ति, ततो आहटं भिक्खं न गण्हति । कस्मा ? मं निस्साय मक्खिकानं गोचरन्तरायो जातोति । थुसोदकन्ति सब्बसस्ससम्भारेहि कतं सोवीरकं । एत्थ च सुरापानमेव सावज्जं, अयं पन सब्बेसुपि सावज्जसञी । एकागारिकोति यो एकस्मिंयेव गेहे भिक्खं लभित्वा निवत्तति । एकालोपिकोति यो एकेनेव आलोपेन यापेति । द्वागारिकादीसुपि एसेव नयो । एकिस्सापि दत्तियाति एकाय दत्तिया । दत्ति नाम एका खुद्दकपाति होति, यत्थ अग्गभिक्खं पक्खिपित्वा ठपेन्ति । एकाहिकन्ति एकदिवसन्तरिकं। अद्धमासिकन्ति अद्धमासन्तरिकं । परियायभत्तभोजनन्ति वारभत्तभोजनं, एकाहवारेन द्वीहवारेन सत्ताहवारेन अड्डमासवारेनाति एवं दिवसवारेन आगतभत्तभोजनं । 264 Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८.३९५-३९६) तपोपक्कमकथावण्णना २६५ ३९५. साकभक्खोति अल्लसाकभक्खो। सामाकभक्खोति सामाकतण्डुलभक्खो । नीवारादीसु नीवारो नाम अरछे सयंजाता वीहिजाति । ददुलन्ति चम्मकारेहि चम्म लिखित्वा छड्डितकसटं । हटं वुच्चति सिलेसोपि सेवालोपि । कणन्ति कुण्डकं । आचामोति भत्तउक्खलिकाय लग्गो झामकओदनो, तं छड्डितट्ठानतोव गहेत्वा खादति, "ओदनकजिय"न्तिपि वदन्ति । पिञ्जाकादयो पाकटा एव। पवत्तफलभोजीति पतितफलभोजी । ३९६. साणानीति साणवाकचोळानि । मसाणानीति मिस्सकचोळानि । छवदुस्सानीति मतसरीरतो छड्डितवत्थानि, एरकतिणादीनि वा गन्थेत्वा कतनिवासनानि । पंसुकूलानीति पथवियं छड्डितनन्तकानि । तिरीटानीति रुक्खतचवत्थानि। अजिनन्ति अजिनमिगचम्मं । अजिनक्खिपन्ति तदेव मज्झे फालितकं । कुसचीरन्ति कुसतिणानि गन्थेत्वा कतचीरं । वाकचीरफलकचीरेसुपि एसेव नयो। केसकम्बलन्ति मनुस्सकेसेहि कतकम्बलं । यं सन्धाय वुत्तं __ “सेय्यथापि भिक्खवे, यानि कानिचि तन्तावुतानि वत्थानि, केसकम्बलो तेसं पटिकिट्ठो अक्खायति । केसकम्बलो, भिक्खवे, सीते सीतो, उण्हे उण्हो अप्पग्यो च दुब्बण्णो च दुग्गन्धो दुक्खसम्फस्सो"ति । वाळकम्बलन्ति अस्सवालेहि कतकम्बलं । उलूकपक्खिकन्ति उलूकपक्खानि गन्थेत्वा कतनिवासनं । उक्कुटिकप्पधानमनुयुत्तोति उक्कुटिकवीरियं अनुयुत्तो, गच्छन्तोपि उक्कुटिकोव हुत्वा उप्पतित्वा उप्पतित्वा गच्छति । कण्टकापस्सयिकोति अयकण्टके वा पकतिकण्टके वा भूमियं कोट्टेत्वा तत्थ चम्मं अत्थरित्वा ठानचङ्कमादीनि करोति । सेय्यन्ति सयन्तोपि तत्थेव सेय्यं कप्पेति । फलकसेय्यन्ति रुक्खफलके सेय्यं । थण्डिलसेय्यन्ति थण्डिले उच्चे भूमिठाने सेय्यं । एकपस्सयिकोति एकपस्सेनेव सयति । रजोजल्लधरोति सरीरं तेलेन मक्खित्वा रजुट्ठानट्ठाने तिट्ठति, अथस्स सरीरे रजोजल्लं लग्गति, तं धारेति । यथासन्थतिकोति लद्धं आसनं अकोपेत्वा यदेव लभति, तत्थेव निसीदनसीलो। वेकटिकोति विकटखादनसीलो । विकटन्ति गूथं वुच्चति । अपानकोति पटिक्खित्तसीतुदकपानो । सायं ततियमस्साति सायततियकं। पातो, मज्झन्हिके, सायन्ति दिवसस्स तिक्खत्तुं पापं पवाहेस्सामीति उदकोरोहनानुयोगं अनुयुत्तो विहरतीति । 265 Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६६ दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गट्ठकथा (८.३९७-४००-४०१) तपोपक्कमनिरत्थकतावण्णना ___३९७. अथ भगवा सीलसम्पदादीहि विना तेसं तपोपक्कमानं निरत्थकतं दस्सेन्तो"अचेलको चेपि कस्सप होती"तिआदिमाह । तत्थ आरका वाति दूरेयेव । अवेरन्ति दोसवेरविरहितं । अब्यापज्जन्ति दोमनस्सब्यापज्जरहितं । ३९८. दुक्कर, भो गोतमाति इदं कस्सपो "मयं पुब्बे एत्तकमत्तं सामञ्च ब्रह्मज्ञञ्चाति विचराम, तुम्हे पन अजेयेव सामञञ्च ब्रह्मचञ्च वदथा"ति दीपेन्तो आह । पकति खो एसाति पकतिकथा एसा । इमाय च, कस्सप, मत्तायाति “कस्सप यदि इमिना पमाणेन एवं परित्तकेन पटिपत्तिक्कमेन सामनं वा ब्रह्मजं वा दुक्करं सुदुक्करं नाम अभविस्स, ततो नेतं अभविस्स कल्लं वचनाय दुक्करं सामञ"न्ति अयमेत्थ पदसम्बन्धेन सद्धिं अत्थो । एतेन नयेन सब्बत्थ पदसम्बन्धो वेदितब्बो। ___ ३९९. दुजानोति इदम्पि सो "मयं पुब्बे एत्तकेन समणो वा ब्राह्मणो वा होतीति विचराम, तुम्हे पन अञथा वदथा"ति इदं सन्धायाह । अथस्स भगवा तं पकतिवादं पटिक्खिपित्वा सभावतोव दुज्जानभावं आविकरोन्तो पुनपि- "पकति खो"तिआदिमाह । तत्रापि वुत्तनयेनेव पदसम्बन्धं कत्वा अत्थो वेदितब्बो । सीलसमाधिपञ्जासम्पदावण्णना ४००-४०१. कतमा पन सा, भो गोतमाति कस्मा पुच्छति । अयं किर पण्डितो भगवतो कथेन्तस्सेव कथं उग्गहेसि, अथ अत्तनो पटिपत्तिया निरत्थकतं विदित्वा समणो गोतमो- “तस्स 'चायं सीलसम्पदा, चित्तसम्पदा, पञ्जासम्पदा अभाविता होति असच्छिकता, अथ खो सो आरकाव सामञ्जा'तिआदिमाह । हन्द दानि नं ता सम्पत्तियो पुच्छामी'ति सीलसम्पदादिविजाननत्थं पुच्छति । अथस्स भगवा बुद्धप्पादं दस्सेत्वा तन्तिधम्म कथेन्तो ता सम्पत्तियो दस्सेतुं- "इध कस्सपा"तिआदिमाह । इमाय च कस्सप सीलसम्पदायाति इदं अरहत्तफलमेव सन्धाय वुत्तं । अरहत्तफलपरियोसानहि भगवतो सासनं । तस्मा अरहत्तफलसम्पयुत्ताहि सीलचित्तपासम्पदाहि अञा उत्तरितरा वा पणीततरा वा सीलादिसम्पदा नत्थीति आह । 266 Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८.४०२-४०३) सीहनादकथावण्णना २६७ सीहनादकथावण्णना ४०२. एवञ्च पन वत्वा इदानि अनुत्तरं महासीहनादं नदन्तो- “सन्ति कस्सप एके समणब्राह्मणा"तिआदिमाह । तत्थ अरियन्ति निरुपक्किलेसं परमविसुद्धं । परमन्ति उत्तम, पञ्चसीलानि हिआदि कत्वा याव पातिमोक्खसंवरसीला सीलमेव, लोकुत्तरमग्गफलसम्पयुत्तं पन परमसीलं नाम | नाहं तत्थाति तत्थ सीलेपि परमसीलेपि अहं अत्तनो समसमं मम सीलसमेन सीलेन मया समं पुग्गलं न पस्सामीति अत्थो । अहमेव तत्थ भिय्योति अहमेव तस्मिं सीले उत्तमो। कतमस्मिं? यदिदं अधिसीलन्ति यं एतं उत्तमं सीलन्ति अत्थो । इति इमं पठमं सीहनादं नदति । EEEEEE तपोजिगुच्छवादाति ये तपोजिगुच्छं वदन्ति। तत्थ तपतीति तपो, किलेससन्तापकवीरियस्सेतं नामं, तदेव ते किलेसे जिगुच्छतीति जिगुच्छा। अरिया परमाति एत्थ निद्दोसत्ता अरिया, अट्ठआरम्भवत्थुवसेनपि उप्पन्ना विपस्सनावीरियसङ्खाता तपोजिगुच्छा तपोजिगुच्छाव, मग्गफलसम्पयुत्ता परमा नाम । अधिजेगुच्छन्ति इध जिगुच्छभावो जेगुच्छं, उत्तमं जेगुच्छं अधिजेगुच्छं, तस्मा यदिदं अधिजेगुच्छं, तत्थ अहमेव भिय्योति एवमेत्थ अत्थो दट्ठब्बो । पञाधिकारेपि कम्मस्सकतापञा च विपस्सनापञा च पञा नाम, मग्गफलसम्पयुत्ता परमा पञा नाम । अधिपञ्जन्ति एत्थ लिङ्गविपल्लासो वेदितब्बो, अयं पनेत्थत्थो - यायं अधिपञ्ञा नाम अहमेव तत्थ भिय्योति विमुत्ताधिकारे तदङ्गविक्खम्भनविमुत्तियो विमुत्ति नाम, समुच्छेदपटिपस्सद्धिनिस्सरणविमुत्तियो पन परमा विमुत्तीति वेदितब्बा । इधापि च यदिदं अधिविमुत्तीति या अयं अधिविमुत्ति, अहमेव तत्थ भिय्योति अत्थो । ४०३. सुज्ञागारेति सुझे घरे, एककोव निसीदित्वाति अधिप्पायो । परिसासु चाति अट्ठसु परिसासु । वुत्तम्पि चेतं - "चत्तारिमानि, सारिपुत्त, तथागतस्स वेसारज्जानि। येहि वेसारज्जेहि समन्नागतो तथागतो आसभं ठानं पटिजानाति, परिसासु सीहनादं नदती''ति (म० नि० १.१५०) सुत्तं वित्थारेतब् । पहञ्च नं पुच्छन्तीति पण्डिता देवमनुस्सा नं पऽहं अभिसङ्खरित्वा पुच्छन्ति । 267 Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६८ दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गट्ठकथा (८.४०३-४०३) व्याकरोतीति तङ्खण व विस्सज्जेसि । चित्तं आराधेतीति पञ्हाविस्सज्जनेन महाजनस्स चित्तं परितोसेतियेव । नो च खो सोतब्बं मञ्जन्तीति चित्तं आराधेत्वा कथेन्तस्सपिस्स वचनं परे सोतब्बं न मन्तीति. एवञ्च वदेय्यन्ति अत्थो। सोतब्बञ्चस्स मजन्तीति देवापि मनुस्सापि महन्तेनेव उस्साहेन सोतब्बं मञ्जन्ति । पसीदन्तीति सुपसन्ना कल्लचित्ता मुदुचित्ता होन्ति । पसनाकारं करोन्तीति न मुद्धप्पसन्नाव होन्ति, पणीतानि चीवरादीनि वेळुवनविहारादयो च महाविहारे परिच्चजन्ता पसन्नाकारं करोन्ति । तथत्तायाति यं सो धम्मं देसेति तथा भावाय, धम्मानुधम्मपटिपत्तिपूरणत्थाय पटिपज्जन्तीति अत्थो । तथत्ताय च पटिपज्जन्तीति तथभावाय पटिपज्जन्ति, तस्स हि भगवतो धम्म सुत्वा केचि सरणेसु केचि पञ्चसु सीलेसु पतिठ्ठहन्ति, अपरे निक्खमित्वा पब्बजन्ति । पटिपना च आराधेन्तीति तञ्च पन पटिपदं पटिपन्ना पूरेतुं सक्कोन्ति, सब्बाकारेन पन पूरेन्ति, पटिपत्तिपूरणेन तस्स भोतो गोतमस्स चित्तं आराधेन्तीति वत्तब्बा । इमस्मिं पनोकासे ठत्वा सीहनादा समोधानेतब्बा । एकच्चं तपस्सिं निरये निब्बत्तं पस्सामीति हि भगवतो एको सीहनादो। अपरं सग्गे निब्बत्तं पस्सामीति एको । अकुसलधम्मप्पहाने अहमेव सेट्ठोति एको । कुसलधम्मसमादानेपि अहमेव सेट्ठोति एको । अकुसलधम्मप्पहाने मरहमेव सावकसङ्घो सेट्ठोति एको। कुसलधम्मसमादानेपि मरहयेव सावकसङ्घो सेट्ठोति एको। सीलेन मय्हं सदिसो नत्थीति एको। वीरियेन मय्हं सदिसो नत्थीति एको। पञाय...पे०... विमुत्तिया...पे०... सीहनादं नदन्तो परिसमज्झे निसीदित्वा नदामीति एको । विसारदो हुत्वा नदामीति एको । पहं मं पुच्छन्तीति एको । पऽहं पुट्ठो विस्सज्जेमीति एको । विस्सज्जनेन परस्स चित्तं आराधेमीति एको। सुत्वा सोतब्बं मञ्जन्तीति एको । सुत्वा मे पसीदन्तीति एको। पसन्नाकारं करोन्तीति एको । यं पटिपत्तिं देसेमि, तथत्ताय पटिपज्जन्तीति एको। पटिपन्ना च मं आराधेन्तीति एको । इति पुरिमानं दसन्नं एकेकस्स - “परिसासु च नदती"ति आदयो दस दस परिवारा । एवं ते दस पुरिमानं दसन्नं परिवारवसेन सतं पुरिमा च दसाति दसाधिकं सीहनादसतं होति । इतो अञ्जस्मिं पन सुत्ते एत्तका सीहनादा दुल्लभा, तेनिदं सुत्तं महासीहनादन्ति वुच्चति । इति भगवा “सीहनादं खो समणो गोतमो नदति, तञ्च खो सुझागारे नदती"ति एवं वादानु वादं पटिसेधेत्वा इदानि परिसति नदितपुब्बं सीहनादं दस्सेन्तो "एकमिदाह"न्तिआदिमाह । 268 Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८.४०४-४०५) तित्थियपरिवासकथावण्णना २६९ तित्थियपरिवासकथावण्णना ४०४. तत्थ तत्र मं अञ्जतरो तपब्रह्मचारीति तत्र राजगहे गिज्झकूटे पब्बते विहरन्तं मं अञतरो तपब्रह्मचारी निग्रोधो नाम परिब्बाजको । अधिजेगुच्छेति वीरियेन पापजिगुच्छनाधिकारे पऽहं पुच्छि। इदं यं तं भगवा गिज्झकूटे महाविहारे निसिन्नो उदुम्बरिकाय देविया उय्याने निसिन्नस्स निग्रोधस्स च परिब्बाजकस्स सन्धानस्स च उपासकस्स दिब्बाय सोतधातुया कथासल्लापं सुत्वा आकासेनागन्त्वा तेसं सन्तिके पत्ते आसने निसीदित्वा निग्रोधेन अधिजेगुच्छे पुट्ठपहं विस्सज्जेसि, तं सन्धाय वुत्तं । परं विय मत्तायाति परमाय मत्ताय, अतिमहन्तेनेव पमाणेनाति अत्थो । को हि, भन्तेति ठपेत्वा अन्धबालं दिदिगतिकं अञो पण्डितजातिको “को नाम भगवतो धम्मं सूत्वा न अत्तमनो अस्सा'"ति वदति । लभेय्याहन्ति इदं सो- “चिरं वत मे अनिय्यानिकपक्खे योजेत्वा अत्ता किलमितो, 'सुक्खनदीतीरे न्हायिस्सामी'ति सम्परिवत्तेन्तेन विय थुसे कोट्टेन्तेन विय न कोचि अत्थो निप्फादितो । हन्दाहं अत्तानं योगे योजेस्सामी"ति चिन्तेत्वा आह । अथ भगवा यो अनेन खन्धके तित्थियपरिवासो पञत्तो, यो अञतिथियपुब्बो सामणेरभूमियं ठितो – “अहं भन्ते, इत्थन्नामो अञतित्थियपुब्बो इमस्मिं धम्मविनये आकङ्खामि उपसम्पदं, स्वाहं, भन्ते, संघं चत्तारो मासे परिवासं याचामी'"तिआदिना (महाव० ८६) नयेन समादियित्वा परिवसति, तं सन्धाय – “यो खो, कस्सप, अञतित्थियपुब्बो"तिआदिमाह । __४०५. तत्थ पब्बज्जन्ति वचनसिलिट्ठतावसेनेव वुत्तं, अपरिवसित्वायेव हि पब्बज्जं लभति। उपसम्पदत्थिकेन पन नातिकालेन गामप्पवेसनादीनि अट्ठ वत्तानि पूरेन्तेन परिवसितब्बं । आरद्धचित्ताति अट्ठवत्तपूरणेन तुट्ठचित्ता, अयमेत्थ सङ्घपत्थो । वित्थारतो पनेस तिथियपरिवासो समन्तपासादिकाय विनयट्ठकथायं पब्बज्जखन्धकवण्णनाय वुत्तनयेन वेदितब्बो । अपि च मेत्थाति अपि च मे एत्थ । पुग्गलवमत्तता विदिताति पुग्गलनानत्तं विदितं । “अयं पुग्गलो परिवासारहो, अयं न परिवासारहो"ति इदं मय्हं पाकटन्ति दस्सेति । ततो कस्सपो चिन्तेसि - “अहो अच्छरियं बुद्धसासनं, यत्थ एवं घंसित्वा कोट्टेत्वा युत्तमेव गण्हन्ति, अयुत्तं छड्डेन्ती"ति, ततो सुटुतरं पब्बज्जाय सञ्जातुस्साहो - "सचे भन्ते"तिआदिमाह । अथ खो भगवा तस्स तिब्बच्छन्दतं विदित्वा - “न कस्सपो परिवासं अरहती''ति अञतरं भिक्खं आमन्तेसि - “गच्छ भिक्खु कस्सपं न्हापेत्वा पब्बाजेत्वा आनेही''ति । 269 Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७० दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गट्ठकथा (८.४०५-४०५) सो तथा कत्वा तं पब्बाजेत्वा भगवतो सन्तिकं आगमासि । भगवा तं गणमज्झे निसीदापेत्वा उपसम्पादेसि । तेन वुत्तं- “अलत्थ खो अचेलो कस्सपो भगवतो सन्तिके पब्बज्ज, अलत्थ उपसम्पद"न्ति । अचिरूपसम्पन्नोति उपसम्पन्नो हुत्वा नचिरमेव । वूपकट्ठोति वत्थुकामकिलेसकामेहि कायेन चेव चित्तेन च वूपकट्ठो। अप्पमत्तोति कम्मट्ठाने सतिं अविजहन्तो । आतापीति कायिकचेतसिकसङ्घातेन वीरियातापेन आतापी । पहितत्तोति काये च जीविते च अनपेक्खताय पेसितचित्तो विस्सट्टअत्तभावो । यस्सत्थायाति यस्स अत्थाय । कुलपुत्ताति आचारकुलपुत्ता। सम्मदेवाति हेतुनाव कारणेनेव । तदनुत्तरन्ति तं अनुत्तरं । ब्रह्मचरियपरियोसानन्ति मग्गब्रह्मचरियस्स परियोसानभूतं अरहत्तफलं । तस्स हि अत्थाय कुलपुत्ता पब्बजन्ति । दिवेव धम्मेति इमस्मिंयेव अत्तभावे । सयं अभिजा सच्छिकत्वाति अत्तनायेव पाय पच्चक्खं कत्वा, अपरप्पच्चयं कत्वाति अत्थो । उपसम्पज्ज विहासीति पापुणित्वा सम्पादेत्वा विहासि, एवं विहरन्तो च खीणा जाति...पे०... अभञासीति । एवमस्स पच्चवेक्खणभूमिं दस्सेत्वा अरहत्तनिकूटेन देसनं निट्ठापेतुं “अञ्जतरो खो पनायस्मा कस्सपो अरहतं अहोसी"ति वुत्तं। तत्थ अञ्जतरोति एको। अरहतन्ति अरहन्तानं, भगवतो सावकानं अरहन्तानं अब्भन्तरो अहोसीति अयमेत्थ अधिप्पायो । यं यं पन अन्तरन्तरा न वुत्तं, तं तं तत्थ तत्थ वुत्तत्ता पाकटमेवाति । इति सुमङ्गलविलासिनिया दीघनिकायट्ठकथायं महासीहनादसुत्तवण्णना निहिता। 270 Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९. पोट्टपादसुत्तवण्णना पोट्ठपादपरिब्बाजकवत्थुवण्णना __ ४०६. एवं मे सुत्तं...पे०... सावत्थियन्ति पोट्ठपादसुत्तं । तत्रायं अपुब्बपदवण्णना । सावत्थियं विहरति जेतवने अनाथपिण्डिकस्स आरामेति सावत्थिं उपनिस्साय यो जेतस्स कुमारस्स वने अनाथपिण्डिकेन गहपतिना आरामो कारितो, तत्थ विहरति । पोट्ठपादो परिब्बाजकोति नामेन पोट्ठपादो नाम छन्नपरिब्बाजको। सो किर गिहिकाले ब्राह्मणमहासालो कामेसुआदीनवं दिस्वा चत्तालीसकोटिपरिमाणं भोगक्खन्धं पहाय पब्बजित्वा तित्थियानं गणाचरियो जातो । समयं पवदन्ति एत्थाति समयप्पवादको, तस्मिं किर ठाने चकीतारुक्खपोक्खरसातिप्पभुतयो ब्राह्मणा निगण्ठअचेलकपरिब्बाजकादयो च पब्बजिता सन्निपतित्वा अत्तनो अत्तनो समयं वदन्ति कथेन्ति दीपेन्ति, तस्मा सो आरामो समयप्पवादकोति वुच्चति । स्वेव च तिन्दुकाचीरसङ्घाताय तिम्बरूरुक्खपन्तिया परिक्खित्तत्ता तिन्दुकाचीरो। यस्मा पनेत्थ पठमं एकाव साला अहोसि, पच्छा महापुञ्ज परिब्बाजकं निस्साय बहू साला कता | तस्मा तमेव एकं सालं उपादाय लद्धनामवसेन एकसालकोति वुच्चति । मल्लिकाय पन पसेनदिरञो देविया उय्यानभूतो सो पुप्फफलसम्पन्नो आरामोति कत्वा मल्लिकाय आरामोति सङ्ख्यं गतो। तस्मिं समयप्पवादके तिन्दुकाचीरे एकसालके मल्लिकाय आरामे । पटिवसतीति निवासफासुताय वसति। अथेकदिवसं भगवा पच्चूससमये सब्ब ताणं पत्थरित्वा लोकं परिग्गण्हन्तो आणजालस्स अन्तोगतं परिब्बाजकं दिस्वा“अयं पोट्ठपादो मय्हं आणजाले पचायति, किन्नु खो भविस्सती"ति उपपरिक्खन्तो अद्दस – “अहं अज्ज तत्थ गमिस्सामि, अथ मं पोट्ठपादो निरोधञ्च निरोधवुढानञ्च पुच्छिस्सति, तस्साहं सब्बबुद्धानं आणेन संसन्दित्वा तदुभयं कथेस्सामि, अथ सो 271 Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७२ दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गट्ठकथा (९.४०७-४०८) कतिपाहच्चयेन चित्तं हत्थिसारिपुत्तं गहेत्वा मम सन्तिकं आगमिस्सति, तेसमहं धम्म देसेस्सामि, देसनावसाने पोट्टपादो मं सरणं गमिस्सति, चित्तो हत्थिसारिपुत्तो मम सन्तिके पब्बजित्वा अरहत्तं पापुणिस्सती"ति। ततो पातोव सरीरपटिजग्गनं कत्वा सुरत्तदुपट्ट निवासेत्वा विज्जुलतासदिसं कायबन्धनं बन्धित्वा युगन्धरपब्बतं परिक्खिपित्वा ठितमहामेघं विय मेघवण्णं पंसुकूलं एकंसवरगतं कत्वा पच्चग्धं सेलमयपत्तं वामअंसकूटे लग्गेत्वा सावत्थिं पिण्डाय पविसिस्सामीति सीहो विय हिमवन्तपादा विहारा निक्खमि । इममत्थं सन्धाय - “अथ खो भगवा"तिआदि वुत्तं । ४०७. एतदहोसीति नगरद्वारसमीपं गन्त्वा अत्तनो रुचिवसेन सूरियं ओलोकेत्वा अतिप्पगभावमेव दिस्वा एतं अहोसि। यंनूनाहन्ति संसयपरिदीपनो विय निपातो, बुद्धानञ्च संसयो नाम नत्थि- “इदं करिस्साम, इदं न करिस्साम, इमस्स धम्म देसेस्साम, इमस्स न देसेस्सामा"ति एवं परिवितक्कपुब्बभागो पनेस सब्बबुद्धानं लब्भति । तेनाह – “यंनूनाह"न्ति, यदि पनाहन्ति अत्थो । ४०८. उन्नादिनियाति उच्चं नदमानाय, एवं नदमानाय चस्सा उद्धं गमनवसेन उच्चो, दिसासु पत्थटवसेन महा सद्दोति उच्चासद्दमहासदाय, तेसहि परिब्बाजकानं पातोव वुट्ठाय कत्तब्बं नाम चेतियवत्तं वा बोधिवत्तं वा आचरियुपज्झायवत्तं वा योनिसो मनसिकारो वा नत्थि । तेन ते पातोव वुट्ठाय बालातपे निसिन्ना- "इमस्स हत्थो सोभनो, । पादो"ति एवं अञ्जमञ्जस्स हत्थपादादीनि वा आरब्भ. इत्थिपरिसदारकदारिकादीनं वण्णे वा, अझं वा कामस्सादभवस्सादादिवत्थु आरब्भ कथं समुट्ठापेत्वा अनुपुब्बेन राजकथादिअनेकविधं तिरच्छानकथं कथेन्ति । तेन वुत्तं- "उन्नादिनिया उच्चासद्दमहासदाय अनेकविहितं तिरच्छानकथं कथेन्तिया''ति । ततो पोट्ठपादो परिब्बाजको ते परिब्बाजके ओलोकेत्वा- "इमे परिब्बाजका अतिविय अञमचं अगारवा, मयञ्च समणस्स गोतमस्स पातुभावतो पट्ठाय सूरियुग्गमने खज्जोपनकूपमा जाता, लाभसक्कारोपि नो परिहीनो । सचे पनिमं ठानं समणो गोतमो वा गोतमस्स सावको वा गिही उपट्ठाको वा तस्स आगच्छेय्य, अतिविय लज्जनीयं भविस्सति, परिसदोसो खो पन परिसजेट्ठकस्सेव उपरि आरोहती''ति इतोचितो च विलोकेन्तो भगवन्तं अद्दस । तेन वुत्तं - "अहसा खो पोट्ठपादो परिब्बाजको...पे०... तुण्ही अहेसु"न्ति । 272 Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (९.४०९-४१०) पोट्ठपादपरिब्बाजकवत्थुवण्णना २७३ ४०९. तत्थ सण्ठपेसीति सिक्खापेसि, वज्जमस्सा पटिच्छादेसि । यथा सुसण्ठिता होति, तथा नं ठपेसि । यथा नाम परिसमज्झं पविसन्तो पुरिसो वज्जपटिच्छादनत्थं निवासनं सण्ठपेति, पारुपनं सण्ठपेति, रजोकिण्णट्ठानं पुञ्छति; एवमस्सा वज्जपटिच्छादनत्थं - "अप्पसद्दा भोन्तो''ति सिक्खापेन्तो यथा सुसण्ठिता होति, तथा नं ठपेसीति अत्थो। अप्पसद्दकामोति अप्पसदं इच्छति, एको निसीदति, एको तिठ्ठति, न गणसङ्गणिकाय यापेति । उपसमितब्बं मजेय्याति इधागन्तब्बं मझेय्य । कस्मा पनेस भगवतो उपसङ्कमनं पच्चासीसतीति ? अत्तनो वुद्धिं पत्थयमानो | परिब्बाजका किर बुद्धेसु वा बुद्धसावकेसु वा अत्तनो सन्तिकं आगतेसु- “अज्ज अम्हाकं सन्तिकं समणो गोतमो आगतो, सारिपुत्तो आगतो, न खो पन ते यस्स वा तस्स वा सन्तिकं गच्छन्ति, पस्सथ अम्हाकं उत्तमभाव"न्ति अत्तनो उपट्ठाकानं सन्तिके अत्तानं उक्खिपन्ति, उच्चे ठाने ठपेन्ति, भगवतोपि उपट्ठाके गण्हितुं वायमन्ति । ते किर भगवतो उपट्ठाके दिस्वा एवं वदन्ति- “तुम्हाकं सत्था भवं गोतमोपि गोतमसावकापि अम्हाकं सन्तिकं आगच्छन्ति, मयं अञमचं समग्गा । तुम्हे पन अम्हे अक्खीहिपि पस्सितुं न इच्छथ, सामीचिकम्मं न करोथ, किं वो अम्हेहि अपरद्ध"न्ति । अथेकच्चे मनुस्सा - "बुद्धापि एतेसं सन्तिकं गच्छन्ति किं अम्हाक"न्ति ततो पट्ठाय ते दिस्वा नप्पमज्जन्ति । तुण्ही अहेसुन्ति पोट्टपादं परिवारेत्वा निस्सद्दा निसीदिंसु । ४१०. स्वागतं, भन्तेति सुटु आगमनं, भन्ते, भगवतो; भगवति हि नो आगते आनन्दो होति, गते सोकोति दीपेति । चिरस्सं खो, भन्तेति कस्मा आह ? किं भगवा पुब्बेपि तत्थ गतपुब्बोति, न गतपुब्बो । मनुस्सानं पन “कुहिं गच्छन्ता, कुतो आगतत्थ, किं मग्गमूळहत्थ, चिरस्सं आगतत्था''ति एवमादयो पियसमुदाचारा होन्ति, तस्मा एवमाह । एवञ्च पन वत्वा न मानथद्धो हुत्वा निसीदि, उठायासना भगवतो पच्चुग्गमनमकासि । भगवन्तहि उपगतं दिस्वा आसनेन अनिमन्तेन्तो वा अपचितिं अकरोन्तो वा दुल्लभो । कस्मा ? उच्चाकुलीनताय । अयम्पि परिब्बाजको अत्तनो निसिन्नासनं पप्फोटेत्वा भगवन्तं आसनेन निमन्तेन्तो – “निसीदतु, भन्ते, भगवा इदमासनं पञत्त"न्ति आह । अन्तराकथा विष्पकताति निसिन्नानं वो आदितो पट्ठाय याव ममागमनं, एतस्मिं अन्तरे का नाम कथा विप्पकता, ममागमनपच्चया कतमा कथा परियन्तं न गता, वदथ, याव नं परियन्तं नेत्वा देमीति सब्ब पवारणं पवारेसि । अथ परिब्बाजको- “निरत्थककथा एसा निस्सारा वट्टसन्निस्सिता, न तुम्हाकं पुरतो वत्तब्बतं अरहती''ति दीपेन्तो "तिद्वतेसा, भन्ते''तिआदिमाह । 273 Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७४ दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गट्ठकथा (९.४११-४११) अभिसञ्जानिरोधकथावण्णना ४११. तिट्ठतेसा, भन्तेति सचे भगवा सोतुकामो भविस्सति, पच्छापेसा कथा न दुल्लभा भविस्सति, अम्हाकं पनिमाय कथाय अत्थो नत्थि। भगवतो पनागमनं लभित्वा मयं अञदेव सुकारणं पुच्छामाति दीपेति । ततो तं पुच्छन्तो- "पुरिमानि, भन्ते"तिआदिमाह । तत्थ कोतूहलसालायन्ति कोतूहलसाला नाम पच्चेकसाला नत्थि । यत्थ पन नानातित्थिया समणब्राह्मणा नानाविधं कथं पवत्तेन्ति, सा बहूनं - "अयं किं वदति, अयं किं वदती"ति कोतूहलुप्पत्तिट्ठानतो कोतूहलसालाति वुच्चति । अभिसानिरोधेति एत्थ अभीति उपसग्गमत्तं । सानिरोधेति चित्तनिरोधे, खणिकनिरोधे कथा उप्पन्नाति अत्थो । इदं पन तस्सा उप्पत्तिकारणं । यदा किर भगवा जातकं वा कथेति, सिक्खापदं वा पञपेति तदा सकलजम्बुदीपे भगवतो कित्तिघोसो पत्थरति, तित्थिया तं सुत्वा - "भवं किर गोतमो पुब्बचरियं कथेसि, मयं किं न सक्कोम तादिसं किञ्चि कथेतु"न्ति भगवतो पटिभागकिरियं करोन्ता एकं भवन्तरसमयं कथेन्ति- “भवं गोतमो सिक्खापदं पञपेसि. मयं किं न सक्कोम पञपेतु"न्ति अत्तनो सावकानं किञ्चिदेव सिक्खापदं पञपेन्ति । तदा पन भगवा अट्ठविधपरिसमज्झे निसीदित्वा निरोधकथं कथेसि । तित्थिया तं सुत्वा - "भवं किर गोतमो निरोधं नाम कथेसि, मयम्पि तं कथेस्सामा''ति सन्निपतित्वा कथयिंसु । तेन वुत्तं- "अभिसञानिरोधे कथा उदपादी"ति । तत्रेकच्चेति तेसु एकच्चे। पुरिमो चेत्थ य्वायं बाहिरे तित्थायतने पब्बजितो चित्तप्पवत्तियं दोसं दिस्वा अचित्तकभावो सन्तोति समापत्तिं भावेत्वा इतो चुतो पञ्च कप्पसतानि असञीभवे ठत्वा पुन इध उप्पज्जति । तस्स सञ्जप्पादे च निरोधे च हेतुं अपस्सन्तो- अहेतू अप्पच्चयाति आह । दुतियो नं निसेधेत्वा मिगसिङ्गतापसस्स असञकभावं गहेत्वा - "उपेतिपि अपेतिपी"ति आह । मिगसिङ्गतापसो किर अत्तन्तपो घोरतपो परमधितिन्द्रियो अहोसि । तस्स सीलतेजेन सक्कविमानं उण्हं अहोसि । सक्को देवराजा “सक्कट्ठानं नु खो तापसो पत्थेती"ति अलम्बुसं नाम देवकनं- 'तापसस्स तपं भिन्दित्वा एही'ति पेसेसि । सा तत्थ गता। तापसो पठमदिवसे तं दिस्वाव पलायित्वा पण्णसालं पाविसि । दुतियदिवसे कामच्छन्दनीवरणेन भग्गो तं हत्थे अग्गहेसि, सो तेन दिब्बफस्सेन फुट्ठो विसञ्जी हुत्वा 274 Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (९.४१२-४१२) अहेतुकसझुप्पादनिरोधकथावण्णना २७५ तिण्णं संवच्छरानं अच्चयेन सलं पटिलभि । तं सो दिह्रिगतिको- “तिण्णं संवच्छरानं अच्चयेन निरोधा वुट्टितो"ति मञमानो एवमाह ।। ततियो नं निसेधेत्वा आथब्बणपयोगं सन्धाय "उपकडन्तिपि अपकडन्तिपी"ति आह । आथब्बणिका किर आथब्बणं पयोजेत्वा सत्तं सीसच्छिन्नं विय हत्थच्छिन्नं विय मतं विय च कत्वा दस्सेन्ति । तस्स पुन पाकतिकभावं दिस्वा सो दिहिगतिको - "निरोधा वुद्वितो अय"न्ति मञ्जमानो एवमाह। __चतुत्थो नं निसेधेत्वा यक्खदासीनं मदनिदं सन्धाय "सन्ति हि भो देवता"तिआदिमाह । यक्खदासियो किर सब्बरत्तिं देवतूपहारं कुरुमाना नच्चित्वा गायित्वा अरुणोदये एकं सुरापातिं पिवित्वा परिवत्तित्वा सुपित्वा दिवा वुट्टहन्ति । तं दिस्वा सो दिट्ठिगतिको - "सुत्तकाले निरोधं समापन्ना, पबुद्धकाले निरोधा बुट्ठिता"ति मञमानो एवमाह । अयं पन पोट्ठपादो परिब्बाजको पण्डितजातिको । तेनस्स तं कथं सुत्वा विप्पटिसारो उप्पज्जि । "इमेसं कथा एळमूगकथा विय चत्तारो हि निरोधे एते पञपेन्ति, इमिना च निरोधेन नाम एकेन भवितब्बं, न बहुना । तेनापि एकेन अजेनेव भवितब्, सो पन अञ्जेन ज्ञातुं न सक्का अञत्र सब्बञ्जना । सचे भगवा इध अभविस्स 'अयं निरोधो अयं न निरोधो'ति दीपसहस्सं विय उज्जालेत्वा अज्जमेव पाकटं अकरिस्सा"ति दसबल व अनुस्सरि । तस्मा "तस्स महं भन्ते"तिआदिमाह । तत्थ अहो नूनाति अनुस्सरणत्थे निपातद्वयं, तेन तस्स भगवन्तं अनुस्सरन्तस्स एतदहोसि “अहो नून भगवा अहो नून सुगतो"ति । यो इमेसन्ति यो एतेसं निरोधधम्मानं सुकुसलो निपुणो छेको, सो भगवा अहो नून कथेय्य, सुगतो अहो नून कथेय्याति अयमेत्थ अधिप्पायो । पकतञ्जूति चिण्णवसिताय पकति सभावं जानातीति पकतञ्जू । कथं नु खोति इदं परिब्बाजको "मयं भगवा न जानाम, तुम्हे जानाथ, कथेथ नो"ति आयाचन्तो वदति । अथ भगवा कथेन्तो "तत्र पोट्टपादा"तिआदिमाह । अहेतुकसझुप्पादनिरोधकथावण्णना ४१२. तत्थ तत्राति तेसु समणब्राह्मणेसु। आदितोव तेसं अपरद्धन्ति तेसं 275 Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७६ दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गट्ठकथा (९.४१३-४१३) आदिम्हियेव विरद्धं, घरमज्ञयेव पक्खलिताति दीपेति। सहेतू सप्पच्चयाति एत्थ हेतुपि पच्चयोपि कारणस्सेव नामं, सकारणाति अत्थो। तं पन कारणं दस्सेन्तो "सिक्खा एका"ति आह । तत्थ सिक्खा एका सञ्जा उप्पज्जन्तीति सिक्खाय एकच्चा सञ्जा जायन्तीति अत्थो । ४१३. का च सिक्खाति भगवा अवोचाति कतमा च सा सिक्खाति भगवा वित्थारेतुकम्यतापुच्छावसेन अवोच। अथ यस्मा अधिसीलसिक्खा अधिचित्तसिक्खा अधिपासिक्खाति तिस्सो सिक्खा होन्ति । तस्मा ता दस्सेन्तो भगवा सञाय सहेतुकं उप्पादनिरोधं दीपेतुं बुद्धप्पादतो पभुति तन्तिधम्मं ठपेन्तो "इध पोट्ठपाद, तथागतो लोके"तिआदिमाह । तत्थ अधिसीलसिक्खा अधिचित्तसिक्खाति द्वे एव सिक्खा सरूपेन आगता, ततिया पन “अयं दुक्खनिरोधगामिनी पटिपदाति खो पोट्ठपाद मया एकंसिको धम्मो देसितो''ति एत्थ सम्मादिट्ठिसम्मासङ्कप्पवसेन परियापन्नत्ता आगताति वेदितब्बा । कामसज्ञाति पञ्चकामगुणिकरागोपि असमुप्पन्नकामचारोपि । तत्थ पञ्चकामगुणिकरागो अनागामिमग्गेन समुग्घातं गच्छति, असमुप्पन्नकामचारो पन इमस्मिं ठाने वट्टति । तस्मा तस्स या पुरिमा कामसञ्जाति तस्स पठमज्झानसमङ्गिनो या पुब्बे उप्पन्नपुब्बाय कामसञ्जाय सदिसत्ता पुरिमा कामसञाति वुच्चेय्य, सा निरुज्झति, अनुप्पन्नाव नप्पज्जतीति अत्थो । विवेकजपीतिसुखसुखुमसच्चसञ्जीयेव तस्मिं समये होतीति तस्मिं पठमज्झानसमये विवेकजपीतिसुखसङ्खाता सुखुमसञा सच्चा होति, भूता होतीति अत्थो । अथ वा कामच्छन्दादिओळारिकङ्गप्पहानवसेन सुखुमा च सा भूतताय सच्चा च साति सुखुमसच्चसा, विवेकजेहि पीतिसुखेहि सम्पयुत्ता सुखुमसच्चसफाति विवेकजपीतिसुखसुखुमसच्चसभा सा अस्स अत्थीति विवेकजपीतिसुखसुखुमसच्चसञ्जीति एवमेत्थ अत्थो दट्ठब्बो । एस नयो सब्बत्थ । एवम्पि सिक्खाति एत्थ यस्मा पठमज्झानं समापज्जन्तो अधिट्टहन्तो, वुट्ठहन्तो च सिक्खति, तस्मा तं एवं सिक्खितब्बतो सिक्खाति वुच्चति । तेनपि सिक्खासङ्घातेन पठमज्झानेन एवं एका विवेकजपीतिसुखसुखुमसच्चसञ्जा उप्पज्जति । एवं एका कामसा निरुज्झतीति अत्थो । अयं सिक्खाति भगवा अवोचाति अयं पठमज्झानसङ्खाता एका सिक्खाति, भगवा आह । एतेनुपायेन सब्बत्थ अत्थो दट्ठब्बो । यस्मा पन अट्ठमसमापत्तिया अङ्गतो सम्मसनं बुद्धानंयेव होति, सावकेसु 276 Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (९.४१४-४१४) अहेतुकस प्पादनिरोधकथावण्णना २७७ सारिपुत्तसदिसानम्पि नत्थि, कलापतो सम्मसनंयेव पन सावकानं होति, इदञ्च “सञ्जा सञ्जा''ति, एवं अङ्गतो सम्मसनं उद्धटं | तस्मा आकिञ्चज्ञायतनपरमंयेव सञ्चं दस्सेत्वा पुन तदेव सञ्जग्गन्ति दस्सेतुं “यतो खो पोट्ठपाद...पे०... सञग्गं फुसती"ति आह । ४१४. तत्थ यतो खो पोट्ठपाद भिक्खूति यो नाम पोट्ठपाद भिक्खु । इध सकसञ्जी होतीति इध सासने सकसञ्जी होति, अयमेव वा पाठो, अत्तनो पठमज्झानसाय सञवा होतीति अत्थो । सो ततो अमुत्र ततो अमुत्राति सो भिक्खु ततो पठमज्झानतो अमुत्र दुतियज्झाने, ततोपि अमुत्र ततियज्झानेति एवं ताय ताय झानसाय सकसञ्जी सकसञ्जी हुत्वा अनुपुब्बेन सञग्गं फुसति । सञ्जग्गन्ति आकिञ्चचायतनं वुच्चति । कस्मा? लोकियानं किच्चकारकसमापत्तीनं अग्गत्ता। आकिञ्चायतनसमापत्तियहि ठत्वा नेवसञानासञ्जायतनम्पि निरोधम्पि समापज्जन्ति । इति सा लोकियानं किच्चकारकसमापत्तीनं अग्गत्ता सञग्गन्ति वुच्चति, तं फुसति पापुणातीति अत्थो । __ इदानि अभिसञ्जानिरोधं दस्सेतुं "तस्स सञ्जग्गे ठितस्सा"तिआदिमाह । तत्थ चेतेय्यं, अभिसङ्घरेय्यन्ति पदद्वये च झानं समापज्जन्तो चेतेति नाम, पुनप्पुनं कप्पेतीति अत्थो । उपरिसमापत्तिअत्थाय निकन्तिं कुरुमानो अभिसङ्घरोति नाम । इमा च मे सञ्जा निरुज्झेय्युन्ति इमा आकिञ्चञआयतनसचा निरुज्झेय्युं । अञा च ओळारिकाति अञ्जा च ओळारिका भवङ्गसञ्जा उप्पज्जेय्युं । सो न चेव चेतेति न अभिसङ्घरोतीति एत्थ कामं चेस चेतेन्तोव न चेतेति, अभिसङ्घरोन्तोव नाभिसङ्घरोति । इमस्स भिक्खुनो आकिञ्चायतनतो वुट्ठाय नेवसञ्जानासायतनं समापज्जित्वा “एकं द्वे चित्तवारे ठस्सामी"ति आभोगसमन्नाहारो नत्थि । उपरिनिरोधसमापत्तत्थाय एव पन आभोगसमन्नाहारो अत्थि, स्वायमत्थो पुत्तघराचिक्खणेन दीपेतब्बो । पितुघरमज्झेन किर गन्त्वा पच्छाभागे पुत्तस्स घरं होति, ततो पणीतं भोजनं आदाय आसनसालं आगतं दहरं थेरो- “मनापो पिण्डपातो कुतो आभतो''ति पुच्छि । सो "असकस्स घरतो"ति लघरमेव आचिक्खि । येन पनस्स पितघरमज्झेन गतोपि आगतोपि तत्थ आभोगोपि नस्थि । तत्थ आसनसाला विय आकिञ्चायतनसमापत्ति दट्ठब्बा, पितुगेहं विय नेवसञानासचायतनसमापत्ति, पुत्तगेहं विय निरोधसमापत्ति, आसनसालाय ठत्वा पितुघरं अमनसिकरित्वा पुत्तघराचिक्खणं विय आकिञ्चायतनतो वुट्ठाय नेवसञ्जानासायतनं समापज्जित्वा “एकं द्वे चित्तवारे ठस्सामी"ति पितुघरं 277 Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७८ दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गट्ठकथा (९.४१५-४१५) अमनसिकरित्वाव उपरिनिरोधसमापत्तत्थाय मनसिकारो, एवमेस चेतेन्तोव न चेतेति, अभिसङ्घरोन्तोव नाभिसङ्घरोति । ता चेव साति ता झानसभा निरुज्झन्ति । अज्ञा चाति अञा च ओळारिका भवङ्गसञा नुप्पज्जन्ति । सो निरोधं फुसतीति सो एवं पटिपन्नो भिक्खु सञ्जावेदयितनिरोधं फुसति विन्दति पटिलभति । __ अनुपुब्बाभिसञआनिरोधसम्पजानसमापत्तिन्ति एत्थ अभीति उपसग्गमत्तं, सम्पजानपदं निरोधपदेन अन्तरिकं कत्वा वुत्तं । अनुपटिपाटिया सम्पजानसञ्जानिरोधसमापत्तीति अयं पनेत्थत्थो। तत्रापि सम्पजानसजानिरोधसमापत्तीति सम्पजानन्तस्स अन्ते सजा निरोधसमापत्ति सम्पजानन्तस्स वा पण्डितस्स भिक्खुनो सञ्जानिरोधसमापत्तीति अयं विसेसत्थो । इदानि इध ठत्वा निरोधसमापत्तिकथा कथेतब्बा । सा पनेसा सब्बाकारेन विसुद्धिमग्गे पञाभावनानिसंसाधिकारे कथिता, तस्मा तत्थ कथिततोव गहेतब्बा । एवं भगवा पोट्टपादस्स परिब्बाजकस्स निरोधकथं कथेत्वा- अथ नं तादिसाय कथाय अञ्जत्थ अभावं पटिजानापेतुं "तं किं मञसी"तिआदिमाह। परिब्बाजकोपि “भगवा अज्ज तुम्हाकं कथं ठपेत्वा न मया एवरूपा कथा सुतपुब्बा''ति पटिजानन्तो, “नो हेतं भन्ते''ति वत्वा पुन सक्कच्चं भगवतो कथाय उग्गहितभावं दस्सेन्तो “एवं खो अहं भन्ते''तिआदिमाह । अथस्स भगवा "सुउग्गहितं तया"ति अनुजानन्तो “एवं पोट्टपादा"ति आह । ४१५. अथ परिब्बाजको “भगवता 'आकिञ्चायतनं सञ्जग्गन्ति वुत्तं । एतदेव नु खो सञ्जग्गं, उदाहु अवसेससमापत्तीसुपि सञ्जग्गं अत्थी'"ति चिन्तेत्वा तमत्थं पुच्छन्तो “एक व नु खो"तिआदिमाह । भगवापिस्स विस्सज्जेसि । तत्थ पुथूपीति बहूनिपि । यथा यथा खो, पोट्टपाद, निरोधं फुसतीति पथवीकसिणादीसु येन येन कसिणेन, पठमज्झानादीनं वा येन येन झानेन । इदं वुत्तं होति - सचे हि पथवीकसिणेन करणभूतेन पथवीकसिणसमापत्तिं एकवारं समापज्जन्तो पुरिमसानिरोधं फुसति एकं सञग्गं, अथ द्वे वारे, तयो वारे, वारसतं, वारसहस्सं, वारसतसहस्सं वा समापज्जन्तो पुरिमसञ्जानिरोधं फुसति, सतसहस्सं, सञग्गानि । एस नयो सेसकसिणेसु । झानेसुपि सचे पठमज्झानेन करणभूतेन एकवारं पुरिमसानिरोधं फुसति एकं सञग्गं । अथ द्वे 278 Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (९.४१६-४१७) सञआअत्तकथावण्णना २७९ वारे, तयो वारे, वारसतं, वारसहस्सं, वारसतसहस्सं वा पुरिमसञ्जानिरोधं फुसति, सतसहस्सं सञ्जग्गानि । एस नयो सेसज्झानसमापत्तीसुपि । इति एकवारं समापज्जनवसेन वा सब्बम्पि सञ्जाननलक्खणेन सङ्गहेत्वा वा एकं सजग्गं होति, अपरापरं समापज्जनवसेन बहूनि । ४१६. सज्ञा नु खो, भन्तेति भन्ते निरोधसमापज्जनकस्स भिक्खुनो “सञा नु खो पठमं उप्पज्जती'ति पुच्छति । तस्स भगवा “सञा खो, पोट्टपादा"ति ब्याकासि । तत्थ सञ्जाति झानसञ्जा। आणन्ति विपस्सनाञआणं । अपरो नयो, साति विपस्सना सञा । आणन्ति मग्गजाणं । अपरो नयो, सञ्जाति मग्गसञा । आणन्ति फलञाणं । तिपिटकमहासिवत्थेरो पनाह -- किं इमे भिक्खू भणन्ति, पोट्ठपादो हेट्ठा भगवन्तं निरोधं पुच्छि । इदानि निरोधा वुट्ठानं पुच्छन्तो "भगवा निरोधा वुट्टहन्तस्स किं पठमं अरहत्तफलसञ्जा उप्पज्जति, उदाहु पच्चवेक्खणजाण"न्ति वदति । अथस्स भगवा यस्मा फलसा पठमं उप्पज्जति, पच्छा पच्चवेक्खणजाणं। तस्मा “सा खो पोट्टपादा"ति आह । तत्थ सञ्जष्पादाति अरहत्तफलसजाय उप्पादा, पच्छा "इदं अरहत्तफल'"न्ति एवं पच्चवेक्खणाणुप्पादो होति। इदप्पच्चया किर मेति फलसमाधिसञ्जापच्चया किर महं पच्चवेक्खणजाणं उप्पन्नन्ति । सञआअत्तकथावण्णना ४१७. इदानि परिब्बाजको यथा नाम गामसूकरो गन्धोदकेन न्हापेत्वा गन्धेहि अनुलिम्पित्वा मालादामं पिळन्धित्वा सिरिसयने आरोपितोपि सुखं न विन्दति, वेगेन गूथट्ठानमेव गन्त्वा सुखं विन्दति । एवमेव भगवता सण्हसुखुमतिलक्खणब्भाहताय देसनाय न्हापितविलित्तमण्डितोपि निरोधकथासिरिसयनं आरोपितोपि तत्थ सुखं न विन्दन्तो गूथट्टानसदिसं अत्तनो लद्धिं गहेत्वा तमेव पुच्छन्तो “सञा नु खो, भन्ते, पुरिसस्स अत्ता''तिआदिमाह। अथस्सानुमतिं गहेत्वा ब्याकातुकामो भगवा – “कं पन त्व"न्तिआदिमाह । ततो सो “अरूपी अत्ता"ति एवं लद्धिको समानोपि “भगवा देसनाय सुकुसलो, सो मे आदितोव लद्धिं मा विद्धंसेतू'ति चिन्तेत्वा अत्तनो लद्धिं परिहरन्तो "ओळारिकं खो"तिआदिमाह । अथस्स भगवा तत्थ दोसं दस्सेन्तो “ओळारिको च हि 279 Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८० दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गट्ठकथा (९.४१८-४२०-४१८-४२०) ते''तिआदिमाह । तत्थ एवं सन्तन्ति एवं सन्ते । भुम्मत्थे हि एतं उपयोगवचनं । एवं सन्तं अत्तानं पच्चागच्छतो तवाति अयं वा एत्थ अत्थो । चतुन्नं खन्धानं एकुप्पादेकनिरोधत्ता किञ्चापि या सञ्जा उप्पज्जति, साव निरुज्झति । अपरापरं उपादाय पन “अञा च सञआ उप्पज्जन्ति, अञा च सा निरुज्झन्ती''ति वुत्तं । ४१८-४२०. इदानि अझं लद्धिं दस्सेन्तो- “मनोमयं खो अहं, भन्ते''तिआदि वत्वा तत्रापि दोसे दिन्ने यथा नाम उम्मत्तको यावस्स सञ्जा नप्पतिठ्ठाति, ताव अनं गहेत्वा अनं विस्सज्जेति, सञ्जापतिट्ठानकाले पन वत्तब्बमेव वदति, एवमेव अचं गहेत्वा अनं विस्सज्जेत्वा इदानि अत्तनो लद्धिंयेव वदन्तो “अरूपी खो''तिआदिमाह । तत्रापि यस्मा सो सजाय उप्पादनिरोधं इच्छति, अत्तानं पन सस्सतं मञ्जति । तस्मा तथेवस्स दोसं दस्सेन्तो भगवा “एवं सन्तम्पी"तिआदिमाह । ततो परिब्बाजको मिच्छादस्सनेन अभिभूतत्ता भगवता वुच्चमानम्पि तं नानत्तं अजानन्तो “सक्का पनेतं, भन्ते, मया''तिआदिमाह। अथस्स भगवा यस्मा सो सजाय उप्पादनिरोधं पस्सन्तोपि सञ्जामयं अत्तानं निच्चमेव मञति । तस्मा "दुजानं खो"तिआदिमाह । तत्थायं स पत्थो- तव अञा दिट्ठि, अञ्जा खन्ति, अञा रुचि, अजथायेव ते दस्सनं पवत्तं, अञ्जदेव च ते खमति चेव रुच्चति च, अञत्र च ते आयोगो, अञिस्सायेव पटिपत्तिया युत्तपयुत्तता, अञ्जत्थ च ते आचरियकं, अञ्जस्मिं तित्थायतने आचरियभावो। तेन तया एवं अञ्जदिट्टिकेन अञखन्तिकेन अझरुचिकेन अञत्रायोगेन अञत्राचरियकेन दुज्जानं एतन्ति । अथ परिब्बाजको - “सा वा पुरिसस्स अत्ता होतु, अञा वा सञा, तं सस्सतादि भावमस्स पुच्छिस्स"न्ति पुन "किं पन भन्ते"तिआदिमाह । तत्थ लोकोति अत्तानं सन्धाय वदति । न हेतं पोट्ठपाद अत्थसहितन्ति पोट्ठपाद एतं दिट्ठिगतं न इधलोकपरलोकअत्थनिस्सितं, न अत्तत्थपरत्थनिस्सितं । न धम्मसंहितन्ति न नवलोकुत्तरधम्मनिस्सितं । नादिब्रह्मचरियकन्ति सिक्खत्तयसङ्घातस्स सासनब्रह्मचरियकस्स न आदिमत्तं, अधिसीलसिक्खामत्तम्पि न होति । न निब्बिदायाति संसारवट्टे निब्बिन्दनत्थाय न संवत्तति। न विरागायाति वट्टविरागत्थाय न संवत्तति । न निरोधायाति वट्टस्स निरोधकरणत्थाय न संवत्तति । न उपसमायाति वट्टस्स वूपसमनत्थाय न संवत्तति । न अभिआयाति वट्टाभिजाननाय पच्चक्खकिरियाय न संवत्तति। न सम्बोधायाति 280 Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (९.४२१-४२२) चित्तहत्थिसारिपुत्तपोट्टपादवत्थुवण्णना २८१ वट्टसम्बुज्झनत्थाय न संवत्तति । न निब्बानायाति अमतमहानिब्बानस्स पच्चक्खकिरियाय न संवत्तति । इदं दुक्खन्तिआदीसु तण्हं ठपेत्वा तेभूमका पञ्चक्खन्धा दुक्खन्ति, तस्सेव दुक्खस्स पभावनतो सप्पच्चया तण्हा दुक्खसमुदयोति । उभिन्नं अप्पवत्ति दुक्खनिरोधोति, अरियो अट्ठङ्गिको मग्गो दुक्खनिरोधगामिनी पटिपदाति मया ब्याकतन्ति अत्थो । एवञ्च पन वत्वा भगवा “इमस्स परिब्बाजकस्स मग्गपातुभावो वा फलसच्छिकिरिया वा नत्थि, मय्हञ्च भिक्खाचारवेला"ति चिन्तेत्वा तुण्ही अहोसि । परिब्बाजकोपि तं आकारं अत्वा भगवतो गमनकालं आरोचेन्तो विय "एवमेत"न्तिआदिमाह । ४२१. वाचासन्नितोदकेनाति वचनपतोदेन । सञ्झब्भरिमकंसूति सञ्झब्भरितं निरन्तरं फुटुं अकंसु, उपरि विज्झिंसूति वुत्तं होति । भूतन्ति सभावतो विज्जमानं । तच्छं, तथन्ति तस्सेव वेवचनं । धम्मद्विततन्ति नवलोकुत्तरधम्मेसु ठितसभावं । धम्मनियामतन्ति लोकुत्तरधम्मनियामतं । बुद्धानञ्हि चतुसच्चविनिमुत्ता कथा नाम नत्थि । तस्मा सा एदिसा होति। चित्तहत्थिसारिपुत्तपोट्टपादवत्थुवण्णना ४२२. चित्तो च हत्थिसारिपुत्तोति सो किर सावत्थियं हत्थिआचरियस्स पुत्तो भगवतो सन्तिके पब्बजित्वा तीणि पिटकानि उग्गहेत्वा सुखुमेसु अत्यन्तरेसु कुसलो अहोसि, पुब्बे कतपापकम्मवसेन पन सत्तवारे विब्भमित्वा गिहि जातो। कस्सपसम्मासम्बुद्धस्स किर सासने द्वे सहायका अहेसुं, अञ्जमधे समग्गा एकतोव सज्झायन्ति । तेसु एको अनभिरतो गिहिभावे चित्तं उप्पादेत्वा इतरस्स आरोचेसि । सो गिहिभावे आदीनवं पब्बज्जाय आनिसंसं दस्सेत्वा तं ओवदि । सो तं सुत्वा अभिरमित्वा पुनेकदिवसं तादिसे चित्ते उप्पन्ने तं एतदवोच "मय्हं आवुसो एवरूपं चित्तं उप्पज्जति - ‘इमाहं पत्तचीवरं तुम्हं दस्सामी'ति"। सो पत्तचीवरलोभेन तस्स गिहिभावे आनिसंसं दस्सेत्वा पब्बज्जाय आदीनवं कथेसि । अथस्स तं सुत्वाव गिहिभावतो चित्तं विरज्जित्वा पब्बज्जायमेव अभिरमि । एवमेस तदा सीलवन्तस्स भिक्खुनो गिहिभावे आनिसंसकथाय कथितत्ता इदानि छ वारे विब्भमित्वा सत्तमे वारे पब्बजितो। महामोग्गल्लानस्स, महाकोटिकत्थेरस्स च अभिधम्मकथं कथेन्तानं अन्तरन्तरा कथं ओपातेति । अथ नं महाकोट्ठिकत्थेरो अपसादेति । 281 Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८२ दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गट्ठकथा (९.४२३-४२८) सो महासावकस्स कथिते पतिवातुं असक्कोन्तो विब्भमित्वा गिहि जातो। पोट्टपादस्स पनायं गिहिसहायको होति । तस्मा विब्भमित्वा द्वीहतीहच्चयेन पोट्ठपादस्स सन्तिकं गतो । अथ नं सो दिस्वा “सम्म किं तया कतं, एवरूपस्स नाम सत्थु सासना अपसक्कन्तोसि, एहि पब्बजितुं इदानि ते वट्टती"ति तं गहेत्वा भगवतो सन्तिकं अगमासि । तेन वुत्तं "चित्तो च हत्थिसारिपुत्तो पोट्ठपादो च परिब्बाजको"ति । ४२३. अन्धाति पञाचक्खुनो नत्थिताय अन्धा, तस्सेव अभावेन अचक्खुका । त्वंयेव नेसं एको चक्खुमाति सुभासितदुब्भासितजाननभावमत्तेन पञाचक्खुना चक्खुमा । एकंसिकाति एककोट्ठासा। पञत्ताति ठपिता। अनेकंसिकाति न एककोट्ठासा एकेनेव कोट्ठासेन सस्सताति वा असस्सताति वा न वुत्ताति अत्थो । एकंसिकधम्मवण्णना ४२४-४२५. सन्ति पोट्ठपादाति इदं भगवा कस्मा आरभि ? बाहिरकेहि पञापितनिट्ठाय अनिय्यानिकभावदस्सनत्थं । सब्बे हि तित्थिया यथा भगवा अमतं निब्बानं, एवं अत्तनो अत्तनो समये लोकथुपिकादिवसेन निटुं पञपेन्ति, सा च न निय्यानिका । यथा पञत्ता हुत्वा न निय्याति न गच्छति, अञदत्थु पण्डितेहि पटिक्खित्ता निवत्तति, तं दस्सेतुं भगवा एवमाह । तत्थ एकन्तसुखं लोकं जानं पस्सन्ति पुरथिमाय दिसाय एकन्तसुखो लोको पच्छिमादीनं वा अञतरायाति एवं जानन्ता एवं पस्सन्ता विहरथ । दिट्ठपुब्बानि खो तस्मिं लोके मनुस्सानं सरीरसण्ठानादीनीति । अप्पाटिहीरकतन्ति अप्पाटिहीरकतं पटिहरणविरहितं, अनिय्यानिकन्ति वुत्तं होति । ४२६-४२७. जनपदकल्याणीति जनपदे विलासाकप्पादीहि असदिसा । अाहि इत्थीहि वण्णसण्ठान तयोअत्तपटिलाभवण्णना ४२८. एवं भगवा परेसं निहाय अनिय्यानिकत्तं दस्सेत्वा अत्तनो निहाय निय्यानिकभावं दस्सेतुं "तयो खो मे पोट्टपादा"तिआदिमाह । तत्थ अत्तपटिलाभोति अत्तभावपटिलाभो, एत्थ च भगवा तीहि अत्तभावपटिलाभेहि तयो भवे दस्सेसि । 282 Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (९.४२९-४३८) तयोअत्तपटिलाभवण्णना २८३ ओळारिकत्तभावपटिलाभेन अवीचितो पट्ठाय परनिम्मितवसवत्तिपरियोसानं कामभवं दस्सेसि । मनोमयअत्तभावपटिलाभेन पठमज्झानभूमितो पट्ठाय अकनिट्ठब्रह्मलोकपरियोसानं रूपभवं दस्सेसि । अरूपअत्तभावपटिलाभेन आकासानञ्चायतनब्रह्मलोकतो पट्टाय नेवसञानासञआयतनब्रह्मलोकपरियोसानं अरूपभवं दस्सेसि । संकिलेसिका धम्मा नाम द्वादस अकुसलचित्तुप्पादा । वोदानिया धम्मा नाम समथविपस्सना । ४२९. पापारिपूरि वेपुल्लत्तन्ति मग्गपञाफलपानं पारिपूरिञ्चेव विपुलभावञ्च । पामुज्जन्ति तरुणपीति । पीतीति बलवतुठ्ठि । किं वुत्तं होति ? यं अवोचुम्ह "सयं अभिजा सच्छिकत्वा उपसम्पज्ज विहिरती"ति, तत्थ तस्स एवं विहरतो तं पामोज्जञ्चेव भविस्सति, पीति च नामकायपस्सद्धि च सति च सूपट्ठिता उत्तमञाणञ्च सुखो च विहारो। सब्बविहारेसु च अयमेव विहारो "सुखो"ति वत्तुं युत्तो "उपसन्तो परममधुरो"ति। तत्थ पठमज्झाने पामोज्जादयो छपि धम्मा लब्भन्ति, दुतियज्झाने दुब्बलपीतिसङ्खातं पामोज्जं निवत्तति, सेसा पञ्च लब्भन्ति । ततिये पीति निवत्तति, सेसा चत्तारो लब्भन्ति । तथा चतुत्थे । इमेसु चतूसु झानेसु सम्पसादनसुत्ते सुद्धविपस्सना पादकज्झानमेव कथितं । पासादिकसुत्ते चतूहि मग्गेहि सद्धिं विपस्सना कथिता । दसुत्तरसुत्ते चतुत्थज्झानिकफलसमापत्ति कथिता। इमस्मिं पोट्ठपादसुत्ते पामोज्ज पीतिवेवचनमेव कत्वा दुतियज्झानिकफलसमापत्तिनाम कथिताति वेदितब्बा । ४३२-४३७. अयं वा सोति एत्थ वा सद्दो विभावनत्थो होति । अयं सोति एवं विभावेत्वा पकासेत्वा ब्याकरेय्याम | यथापरे “एकन्तसुखं अत्तानं सजानाथा"ति पुट्ठा "नो''ति वदन्ति, न एवं वदामाति अत्थो । सप्पाटिहीरकतन्ति सप्पाटिहरणं, निय्यानिकन्ति अत्थो । मोघो होतीति तुच्छो होति, नत्थि सो तस्मिं समयेति अधिप्पायो । सच्चो होतीति भूतो होति, स्वेव तस्मिं समये सच्चो होतीति अत्थो । एत्थ पनायं चित्तो अत्तनो असब्बञ्जताय तयो अत्तपटिलाभे कथेत्वा अत्तपटिलाभो नाम पत्तिमत्तं एतन्ति उद्धरितुं नासक्खि, अत्तपटिलाभो त्वेव निय्यातेसि । अथस्स भगवा रूपादयो चेत्थ धम्मा, अत्तपटिलाभोति पन नाममत्तमेतं, तेसु तेसु रूपादीसु सति एवरूपा वोहारा होन्तीति दस्सेतुकामो तस्सेव कथं गहेत्वा नामपञत्तिवसेन निय्यातनत्थं "यस्मिं चित्त समये"तिआदिमाह। ४३८. एवञ्च पन वत्वा पटिपुच्छित्वा विनयनत्थं पुन "सचे तं, चित्त, एवं 283 Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८४ दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गट्ठकथा पुच्छेय्यु" न्तिआदिमाह । तत्थ यो मे अहोसि अतीतो अत्तपटिलाभो, स्वेव मे अत्तपटिलाभो, तस्मिं समये सच्चो अहोसि, मोघो अनागतो मोघो पच्चुप्पन्नोति एत्थ ताव इममत्थं दस्सेति – यस्मा ये ते अतीता धम्मा, ते एतरहि नत्थि, अहेसुन्ति पन सङ्ख्यं गता, तस्मा सोपि मे अत्तपटिलाभो तस्मिंयेव समये सच्चो अहोसि । अनागतपच्चुप्पन्नानं पन धम्मानं तदा अभावा तस्मिं समये “मोघो अनागतो, मोघो पच्चुप्पन्नोति, एवं अत्थतो नाममत्तमेव अत्तपटिलाभं पटिजानाति । अनागतपच्चुप्पन्नेसुपि एसेव नयो । ४३९-४४३. अथ भगवा तस्स ब्याकरणेन सद्धिं अत्तनो ब्याकरणं संसन्दितुं " एवमेव खो चित्ता "तिआदीनि वत्वा पुन ओपम्मतो तमत्थं साधेन्तो “ सेय्यथापि चित्त गवा खीर "न्तिआदिमाह । तत्रायं सङ्क्षेपत्थो, यथा गवा खीरं, खीरादीहि च दधिआदीनि भवन्ति, तत्थ यस्मिं समये खीरं होति, न तस्मिं समये दधीति वा नवनीतादीसु वा अञ्ञतरन्ति सङ्ख्यं निरुत्तिं नामं वोहारं गच्छति । कस्मा ? ये धम्मे उपादाय दधीतिआदि वोहारा होन्ति, तेसं अभावा । अथ खो खीरं त्वेव तस्मिं समये सङ्ख्यं गच्छति । कस्मा ? ये धम्मे उपादाय खीरन्ति सङ्ख्या निरुत्ति नामं वोहारो होति, तेसं भावाति । एस नयो सब्बत्थ । इमा खो चित्ताति ओळारिको अत्तपटिलाभो इति च मनोमयो अत्तपटिलाभो इति च अरूपो अत्तपटिलाभो इति च इमा खो चित्त लोकसमञ्ञ लोके समञ्ञमत्तकानि समनुजाननमत्तकानि एतानि । तथा लोकनिरुत्तिमत्तकानि वचनपथमत्तकानि वोहारमत्तकानि नानपण्णत्तिमत्तकानि एतानीति । एवं भगवा हेट्ठा तयो अत्तपटिलाभे कथेत्वा इदानि सब्बमेतं वोहारमत्तकन्ति वदति । कस्मा ? यस्मा परमत्थतो सत्तो नाम नत्थि, सुञ्ञो तुच्छो एस लोको । -४४३-४३९-४४३) बुद्धानं पन द्वे कथा सम्मुतिकथा च परमत्थकथा च । तत्थ “सत्तो पोसो देवो ब्रह्मा' 'तिआदिका “सम्मुतिकथा” नाम । “अनिच्चं दुक्खमनत्ता खन्धा धातुयो आयतनानि सतिपट्ठाना सम्मप्पधाना' 'तिआदिका परमत्थकथा नाम । तत्थ यो सम्मुतिदेसनाय "सत्तो "ति वा “पोसो”ति वा “देवो "ति वा "ब्रह्मा "ति वा वुत्ते विजानितुं पटिविज्झितुं निय्यातुं अरहत्तजयग्गाहं गहेतुं सक्कोति, तस्स भगवा आदितोव “सत्तो"ति वा “पोसो ”ति वा “देवो”ति वा “ब्रह्मा”ति वा कथेति, यो परमत्थदेसनाय " अनिच्चन्ति वा " दुक्खन्ति वातिआदीसु अञ्ञतरं सुत्वा विजानितुं पटिविज्झितुं निय्यातुं अरहत्तजयग्गाहं गहेतुं सक्कोति, तस्स ‘“अनिच्च "न्ति वा " दुक्ख "न्ति वातिआदीसु अञ्ञतरमेव कथेति । तथा 284 Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (९.४३९-४४३-४३९-४४३) तयोअत्तपटिलाभवण्णना २८५ सम्मुतिकथाय बुज्झनकसत्तस्सापि न पठमं परमत्थकथं कथेति । सम्मुतिकथाय पन बोधेत्वा पच्छा परमत्थकथं कथेति । परमत्थकथाय बुज्झनकसत्तस्सापि न पठमं सम्मुतिकथं कथेति । परमत्थकथाय पन बोधेत्वा पच्छा सम्मुतिकथं कथेति । पकतिया पन पठममेव परमत्थकथं कथेन्तस्स देसना लूखाकारा होति, तस्मा बुद्धा पठमं सम्मुतिकथं कथेत्वा पच्छा परमत्थकथं कथेन्ति । सम्मुतिकथं कथेन्तापि सच्चमेव सभावमेव अमुसाव कथेन्ति । परमत्थकथं कथेन्तापि सच्चमेव सभावमेव अमुसाव कथेन्ति । दुवे सच्चानि अक्खासि, सम्बुद्धो वदतं वरो । सम्मुतिं परमत्थञ्च, ततियं नूपलब्भति ।।। सङ्केतवचनं सच्चं, लोकसम्मुतिकारणं । परमत्थवचनं सच्चं, धम्मानं भूतलक्खणन्ति ।। याहि तथागतो वोहरति अपरामसन्ति याहि लोकसमजाहि लोकनिरुत्तीहि तथागतो तण्हामानदिट्ठिपरामासानं अभावा अपरामसन्तो वोहरतीति देसनं विनिवर्दृत्वा अरहत्तनिकूटेन निट्ठापेसि । सेसं सब्बत्थ उत्तानत्थमेवाति । इति सुमङ्गलविलासिनिया दीघनिकायट्ठकथायं पोट्ठपादसुत्तवण्णना निविता। 285 Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०. सुभसुत्तवण्णना सुभमाणवकवत्थुवण्णना ४४४. एवं मे सुतं...पे०... सावत्थियन्ति सुभसुत्तं । तत्रायं अनुत्तानपदवण्णना । अचिरपरिनिब्बुते भगवतीति अचिरं परिनिब्बुते भगवति, परिनिब्बानतो उद्धं मासमत्ते काले । निदानवण्णनायं वुत्तनयेनेव भगवतो पत्तचीवरं आदाय आगन्त्वा खीरविरेचनं पिवित्वा विहारे निसिन्नदिवसं सन्धायेतं वुत्तं । तोदेय्यपुत्तोति तोदेय्यब्राह्मणस्स पुत्तो, सो किर सावत्थिया अविदूरे तुदिगामो नाम अत्थि, तस्स अधिपतित्ता तोदेय्योति सत्यं गतो । महद्धनो पन होति पञ्चचत्तालीसकोटिविभवो, परममच्छरी- “ददतो भोगानं अपरिक्खयो नाम नत्थी''ति चिन्तेत्वा कस्सचि किञ्चि न देति, पुत्तम्पि आह - "अञ्जनानं खयं दिस्वा, वम्मिकानञ्च सञ्चयं । मधूनञ्च समाहारं, पण्डितो घरमावसे''ति ।। एवं अदानमेव सिक्खापेत्वा कायस्स भेदा तस्मिंयेव घरे सुनखो हुत्वा निब्बत्तो। सुभो तं सुनखं अतिविय पियायति । अत्तनो भुञ्जनकभत्तंयेव भोजेति, उक्खिपित्वा वरसयने सयापेति । अथ भगवा एकदिवसं निक्खन्ते माणवे तं घरं पिण्डाय पाविसि । सुनखो भगवन्तं दिस्वा भुक्कारं करोन्तो भगवतो समीपं गतो । ततो नं भगवा अवोच "तोदेय्य त्वं पुब्बेपि मं 'भो, भो'ति परिभवित्वा सुनखो जातो, इदानिपि भुक्कारं कत्वा अवीचिं गमिस्ससी''ति । सुनखो तं कथं सुत्वा विप्पटिसारी हुत्वा उद्धनन्तरे छारिकाय निपन्नो, मनुस्सा नं उक्खिपित्वा सयने सयापेतुं नासक्खिंसु । सुभो आगन्त्वा “केनायं सुनखो सयना ओरोपितो"ति आह। मनुस्सा “न 286 Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०.४४५-४४६-४४७) सुभमाणवकवत्थुवण्णना २८७ केनची''ति वत्वा तं पवत्तिं आरोचेसुं। माणवो सुत्वा “मम पिता ब्रह्मलोके निब्बत्तो, समणो पन गोतमो मे पितरं सुनखं करोति यं किञ्चि एस मुखारूळ्हं भासती"ति कुज्झित्वा भगवन्तं मुसावादेन चोदेतुकामो विहारं गन्त्वा तं पवत्तिं पुच्छि। भगवा तस्स तथेव वत्वा अविसंवादनत्थं आह – “अत्थि पन ते, माणव, पितरा न अक्खातं धन''न्ति । अस्थि, भो गोतम, सतसहस्सग्घनिका सुवण्णमाला, सतसहस्सग्घनिका सुवण्णपादुका, सतसहस्सग्घनिका सुवण्णपाति, सतसहस्सञ्च कहापणन्ति । गच्छ तं सुनखं अप्पोदकं मधुपायासं भोजेत्वा सयनं आरोपेत्वा ईसकं निदं ओक्कन्तकाले पुच्छ, सब्बं ते आचिक्खिस्सति, अथ नं जानेय्यासि- “पिता मे एसो"ति । सो तथा अक सुनखो सब्बं आचिक्खि, तदा नं- “पिता मे"ति अत्वा भगवति पसन्नचित्तो गन्त्वा भगवन्तंचुद्दस पन्हे पुच्छित्वा विस्सज्जनपरियोसाने भगवन्तं सरणं गतो, तं सन्धाय वुत्तं "सुभो माणवो तोदेय्यपुत्तो''ति । सावत्थियं पटिवसतीति अत्तनो भोगगामतो आगन्त्वा वसति । ४४५-४४६. अञ्जतरं माणवकं आमन्तेसीति सत्थरि परिनिब्बुते “आनन्दत्थेरो किरस्स पत्तचीवरं गहेत्वा आगतो, महाजनो तं दस्सनत्थाय उपसङ्कमती''ति सुत्वा “विहारं खो पन गन्त्वा महाजनमज्झे न सक्का सुखेन पटिसन्थारं वा कातुं, धम्मकथं वा सोतुं गेहं आगतंयेव नं दिस्वा सुखेन पटिसन्थारं करिस्सामि, एका च मे कडा अत्थि, तम्पि नं पुच्छिस्सामी''ति चिन्तेत्वा अञ्जतरं माणवकं आमन्तेसि । अप्पाबाधन्तिआदीसु आबाधोति विसभागवेदना वुच्चति, या एकदेसे उप्पज्जित्वा चत्तारो इरियापथे अयपट्टेन आबन्धित्वा विय गण्हति, तस्सा अभावं पुच्छाति वदति । अप्पातङ्कोति किच्छजीवितकरी रोगो वुच्चति, तस्सापि अभावं पुच्छाति वदति । गिलानस्सेव च उद्यानं नाम गरुकं होति, काये बलं न होति, तस्मा निग्गेलञभावञ्च बलञ्च पुच्छाति वदति । फासुविहारन्ति गमनठाननिसज्जसयनेसु चतूसु इरियापथेसु सुखविहारं पुच्छाति वदति । अथस्स पुच्छितब्बाकारं दस्सेन्तो "सुभो"तिआदिमाह। ४४७. कालञ्च समयञ्च उपादायाति कालञ्च समयञ्च पञ्जाय गहेत्वा उपधारेत्वाति अत्थो । सचे अम्हाकं स्वे गमनकालो भविस्सति, काये बलमत्ता चेव फरिस्सति, गमनपच्चया च अञ्जो अफासुविहारो न भविस्सति, अथेतं कालञ्च गमनकारणसमवायसङ्खातं समयञ्च उपधारेत्वा – “अपि एव नाम स्वे आगच्छेय्यामा"ति वुत्तं होति । 287 Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८८ ( १०.४४८ - ४५०-४५३) ४४८. चेतन भिक्खुनाति चेतिरट्ठे जातत्ता चेतकोति एवं लद्धनामेन । सम्मोदनीयं कथं सारणीयन्ति भो, आनन्द, दसबलस्स को नाम आबाधो अहोसि, किं भगवा परिभुज । अपि च सत्थु परिनिब्बानेन तुम्हाकं सोको उदपादि, सत्था नाम न केवलं तुम्हाकंयेव परिनिब्बुतो, सदेवकस्स लोकस्स महाजानि को दानि अञ्ञो मरणा मुच्चिस्सति, यत्र सो सदेवकस्स लोकस्स अग्गपुग्गलो परिनिब्बुतो, इदानि कं अञ दिस्वा मच्चुराजा लज्जिस्सतीति एवमादिना नयेन मरणपटिसंयुत्तं सम्मोदनीयं कथं सारणीयं वीतिसारेत्वा थेरस्स हिय्यो पीतभेसज्जानुरूपं आहारं दत्वा भत्तकिच्चावसाने एकमन्तं निसीदि । दीघनिकये सीलक्खन्धवग्गट्ठकथा उपट्ठाको सन्तिकावचरोति उपट्ठाको हुत्वा सन्तिकावचरो, न रन्धगवेसी । न वीमंसनाधिप्पायो | समीपचारीति इदं पुरिमपदस्सेव वेवचनं । येसं सो भवं गोतमोति कमा पुच्छति ? तस्स किर एवं अहोसि “येसु धम्मेसु भवं गोतमो इमं लोकं पतिट्ठपेसि, तस्स अच्चयेन नट्ठा नु खो, धरन्ति नु खो, सचे धरन्ति, आनन्दो जानिस्सति, हन्द नं पुच्छामी" ति, तस्मा पुच्छि । ४४९. अथस्स थेरो तीणि पिटकानि तीहि खन्धेहि सङ्ग्रहेत्वा दस्सेन्तो “तिण्णं खो"तिआदिमाह । माणवो सङ्क्षित्तेन कथितं असल्लक्खेन्तो - " वित्थारतो पुच्छिस्सामी 'ति चिन्तेत्वा " कतमेसं तिण्ण" न्तिआदिमाह । लक्खन्धवण्णना ४५०-४५३. ततो थेरेन " अरियस्स सीलक्खन्धस्सा' 'ति तेसु दस्सितेसु पुन “ कतमो पन सो, भो आनन्द, अरियो सीलक्खन्धो "ति एकेकं पुच्छि । थेरोपिस्स बुद्धप्पादं दस्सेत्वा तन्तिधम्मं देसेन्तो अनुक्कमेन भगवता वृत्तनयेनेव सब्बं विस्सज्जेसि । तत्थ अस्थि वेत्थ उत्तरकरणीयन्ति एत्थ भगवतो सासने न सीलमेव सारो, केवलञ्तं पतिट्ठामत्तमेव होति । इतो उत्तरि पन अञ्ञम्पि कत्तब्बं अस्थि येवाति दस्सेसि । इतो बहिद्धाति बुद्धसासनतो बहद्धा | 288 Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०.४५४-४७१-४८०) समाधिक्खन्धवण्णना २८९ समाधिक्खन्धवण्णना ४५४. कथञ्च, माणव, भिक्खु इन्द्रियेसु गुत्तद्वारो होतीति इदमायस्मा आनन्दो "कतमो पन सो, भो आनन्द, अरियो समाधिक्खन्धोति एवं समाधिक्खन्धं पुट्ठोपि ये ते “सीलसम्पन्नो इन्द्रियेसु गुत्तद्वारो सतिसम्पजओन समन्नागतो सन्तुट्ठो''ति एवं सीलानन्तरं इन्द्रियसंवरादयो सीलसमाधीनं अन्तरे उभिन्नम्पि उपकारकधम्मा उद्दिठ्ठा, ते निद्दिसित्वा समाधिक्खन्धं दस्सेतुकामो आरभि । एत्थ च रूपज्झानानेव आगतानि, न अरूपज्झानानि, आनेत्वा पन दीपेतब्बानि | चतुत्थज्झानेन हि असङ्गहिता अरूपसमापत्ति नाम नत्थियेव । ४७१-४८०. अस्थि चेवेत्थ उत्तरिकरणीयन्ति एत्थ भगवतो सासने न चित्तेकग्गतामत्तकेनेव परियोसानप्पत्ति नाम अत्थि, इतोपि उत्तरि पन अझं कत्तब्बं अत्थि येवाति दस्सेति । नत्थि चेवेत्थ उत्तरिकरणीयन्ति एत्थ भगवतो सासने इतो उत्तरि कातब्बं नाम नत्थियेव, अरहत्तपरियोसानहि भगवतो सासनन्ति दस्सेति । सेसं सब्बत्थ उत्तानत्थमेवाति । इति सुमङ्गलविलासिनिया दीघनिकायट्ठकथायं सुभसुत्तवण्णना निहिता। 289 Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११. केवट्टसुत्तवण्णना केवट्टगहपतिपुत्तवत्थुवण्णना ४८१. एवं मे सुतं...पे०... नाळन्दायन्ति केवट्टसुत्तं । तत्रायं अपुब्बपदवण्णना । पावारिकम्बवनेति पावारिकस्स अम्बवने । केवट्टोति इदं तस्स गहपतिपुत्तस्स नामं । सो किर चत्तालीसकोटिधनो गहपतिमहासालो अतिविय सद्धो पसन्नो अहोसि । सो सद्धाधिकत्तायेव “सचे एको भिक्खु अड्डमासन्तरेन वा मासन्तरेन वा संवच्छरेन वा आकासे उप्पतित्वा विविधानि पाटिहारियानि दस्सेय्य, सब्बो जनो अतिविय पसीदेय्य | यंनूनाहं भगवन्तं याचित्वा पाटिहारियकरणत्थाय एकं भिक्खुं अनुजानापेय्य"न्ति चिन्तेत्वा भगवन्तं उपसङ्कमित्वा एवमाह । तत्थ इद्धाति समिद्धा फीताति नानाभण्डउस्सन्नताय वुद्धिप्पत्ता । आकिण्णमनुस्साति अंसकूटेन अंसकूटं पहरित्वा विय विचरन्तेहि मनुस्सेहि आकिण्णा। समादिसतूति आणापेतु ठानन्तरे ठपेतु । उत्तरिमनुस्सधम्माति उत्तरिमनुस्सानं धम्मतो, दसकुसलसङ्घाततो वा मनुस्सधम्मतो उत्तरि । भिय्योसोमत्तायाति पकतियापि पज्जलितपदीपो तेलस्नेहं लभित्वा विय अतिरेकप्पमाणेन अभिप्पसीदिस्सति । न खो अहन्ति भगवा राजगहसेट्ठिवत्थुस्मिं सिक्खापदं पञपेसि, तस्मा “न खो अह"न्तिआदिमाह। ४८२. न धंसेमीति न गुणविनासनेन धंसेमि, सीलभेदं पापेत्वा अनुपुब्बेन उच्चट्ठानतो ओतारेन्तो नीचट्ठाने न ठपेमि, अथ खो अहं बुद्धसासनस्स वुद्धिं पच्चासीसन्तो कथेमीति दस्सेति । ततियम्पि खोति यावततियं बुद्धानं कथं पटिबाहित्वा कथेतुं विसहन्तो नाम नत्थि। अयं पन भगवता सद्धिं विस्सासिको विस्सासं वड्वेत्वा वल्लभो हुत्वा अत्थकामोस्मीति तिक्खत्तुं कथेसि । 290 Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (११.४८३-४८४-४८६) इद्धिपाटिहारियवण्णना इद्धिपाटिहारियवण्णना ४८३-४८४. अथ भगवा अयं उपासको मयि पटिबाहन्तेपि पुनप्पुनं याचतियेव । "हन्दस्स पाटिहारियकरणे आदीनवं दस्सेमी "ति चिन्तेत्वा "तीणि खो" तिआदिमाह । तत्थ अमाहं भिक्खुन्ति अमुं अहं भिक्खुं । गन्धारीति गन्धारेन नाम इसिना कता, गन्धाररट्ठे वा उप्पन्ना विज्जा । तत्थ किर बहू इसयो वसिंसु, तेसु एकेन कता विज्जाति अधिप्पायो । अट्टीयामीति अट्टो पीळितो विय होमि । हरायामीति लज्जामि । जिगुच्छामीति गूथं दिवा विय जिगुच्छं उप्पादेमि । आदेसनापाटिहारियवण्णना ४८५. परसत्तानन्ति असं सत्तानं । दुतियं तस्सेव वेवचनं । आदिसतीति कथेति । चेतसिकन्ति सोमनस्सदोमनस्सं अधिप्पेतं । एवम्पि ते मनोति एवं तव मनो सोमनस्सितो वा दोमनस्सितो वा कामवितक्कादिसम्पयुत्तो वा । दुतियं तस्सेव वेवचनं । इतिपि ते चित्तन्ति इति तव चित्तं इदञ्चिदञ्च अत्थं चिन्तयमानं पवत्ततीति अत्थो । मणिका नाम विज्जाति चिन्तामणीति एवं लद्धनामा लोके एका विज्जा अत्थि । ताय परेसं चित्तं जानातीति दीपेति । २९१ अनुसासनीपाटिहारियवण्णना ४८६. एवं वितक्केथाति नेक्खम्मवितक्कादयो एवं पवत्तेन्ता वितक्केथ । मा एवं वितक्कयित्थाति एवं कामवितक्कादयो पवत्तेन्ता मा वितक्कयित्थ । एवं मनसि करोथाति एवं अनिच्चसञ्ञमेव, दुक्खसञ्ञादीसु वा अञ्ञतरं मनसि करोथ । मा एवन्ति “निच्च’’न्तिआदिना नयेन मा मनसि करित्थ । इदन्ति इदं पञ्चकामगुणिकरागं पजहथ । इदं उपसम्पज्जाति इदं चतुमग्गफलप्पभेदं लोकुत्तरधम्ममेव उपसम्पज्ज पापुणित्वा निप्फादेत्वा विहरथ । इति भगवा इद्धिविधं इद्धिपाटिहारियन्ति दस्सेति, परस्स चित्तं ञत्वा कथनं आदेसनापाटिहारियन्ति । सावकानञ्च बुद्धानञ्च सततं धम्मदेसना अनुसासनीपाटिहारियन्ति । 291 Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९२ दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गट्ठकथा (११.४८७-४८८) तत्थ इद्धिपाटिहारियेन अनुसासनीपाटिहारियं महामोग्गल्लानस्स आचिण्णं, आदेसनापाटिहारियेन अनुसासनीपाटिहारियं धम्मसेनापतिस्स | देवदत्ते संघं भिन्दित्वा पञ्च भिक्खुसतानि गहेत्वा गयासीसे बुद्धलीळाय तेसं धम्मं देसन्ते हि भगवता पेसितेसु द्वीसु अग्गसावकेसु धम्मसेनापति तेसं चित्ताचारं अत्वा धम्मं देसेसि, थेरस्स धम्मदेसनं सुत्वा पञ्चसता भिक्खू सोतापत्तिफले पतिहिंसु । अथ नेसं महामोग्गल्लानो विकुब्बनं दस्सेत्वा दस्सेत्वा धम्मं देसेसि, तं सुत्वा सब्बे अरहत्तफले पतिहिंसु । अथ द्वेपि महानागा पञ्च भिक्खुसतानि गहेत्वा वेहासं अब्भुग्गन्त्वा वेळुवनमेवागमिंसु । अनुसासनीपाटिहारियं पन बुद्धानं सततं धम्मदेसना, तेसु इद्धिपाटिहारियआदेसनापाटिहारियानि सउपारम्भानि सदोसानि, अद्धानं न तिट्ठन्ति, अद्धानं अतिठ्ठनतो न निय्यन्ति । अनुसासनीपाटिहारियं अनुपारम्भं निद्दोसं, अद्धानं तिट्ठति, अद्धानं तिठ्ठनतो निय्याति । तस्मा भगवा इद्धिपाटिहारियञ्च आदेसनापाटिहारियञ्च गरहति, अनुसासनीपाटिहारियंयेव पसंसति । भूतनिरोधेसकवत्थुवण्णना ४८७. भूतपुब्बन्ति इदं कस्मा भगवता आरद्धं । इद्धिपाटिहारियआदेसनापाटिहारियानं अनिय्यानिकभावदस्सनत्थं, अनुसासनीपाटिहारियस्सेव निय्यानिकभावदस्सनत्थं । अपि च सब्बबुद्धानं महाभूतपरियेसको नामेको भिक्खु होतियेव । यो महाभूते परियेसन्तो याव ब्रह्मलोका विचरित्वा विस्सज्जेतारं अलभित्वा आगम्म बुद्धमेव पुच्छित्वा निक्कङ्खो होति । तस्मा बुद्धानं महन्तभावप्पकासनत्थं, इदञ्च कारणं पटिच्छन्नं, अथ नं विवटं कत्वा देसेन्तोपि भगवा “भूतपुब्ब"न्तिआदिमाह । तत्थ कत्थ नु खोति किस्मिं ठाने किं आगम्म किं पत्तस्स ते अनवसेसा अप्पवत्तिवसेन निरुज्झन्ति । महाभूतकथा पनेसा सब्बाकारेन विसुद्धिमग्गे वुत्ता, तस्मा सा ततोव गहेतब्बा । ___४८८. देवयानियो मग्गोति पाटियेक्को देवलोकगमनमग्गो नाम नत्थि, इद्धिविधाणस्सेव पनेतं अधिवचनं । तेन हेस याव ब्रह्मलोकापि कायेन वसं वत्तेन्तो देवलोकं याति । तस्मा "तं देवयानियो मग्गो''ति वुत्तं । येन चातुमहाराजिकाति समीपे ठितम्पि भगवन्तं अपुच्छित्वा धम्मताय चोदितो देवता महानुभावाति मञमानो उपसङ्कमि । मयम्पि खो, भिक्खु, न जानामाति बुद्धविसये पज्हं पुच्छिता देवता न 292 Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (११.४९१-४९३-४९७) भूतनिरोधेसकवत्थुवण्णना २९३ 3 जानन्ति, तेनेवमाहंसु । अथ खो सो भिक्खु “मम इमं पहं न कथेतुं न लब्भा, सीघं कथेथा"ति ता देवता अज्झोत्थरति, पुनप्पुनं पुच्छति, ता “अज्झोत्थरति नो अयं भिक्खु, हन्द नं हत्थतो मोचेस्सामा"ति चिन्तेत्वा "अस्थि खो भिक्खु चत्तारो महाराजानो"तिआदिमाहंसु । तत्थ अभिक्कन्ततराति अतिक्कम्म कन्ततरा। पणीततराति वण्णयसइस्सरियादीहि उत्तमतरा एतेन नयेन सब्बवारेसु अत्थो वेदितब्बो। ४९१-४९३. अयं पन विसेसो- सक्को किर देवराजा चिन्तेसि “अयं पञ्हो बुद्धविसयो, न सक्का अञ्जेन विस्सज्जितुं, अयञ्च भिक्खु अग्गिं पहाय खज्जोपनकं धमन्तो विय, भेरि पहाय उदरं वादेन्तो विय च, लोके अग्गपुग्गलं सम्मासम्बुद्धं पहाय देवता पुच्छन्तो विचरति, पेसेमि नं सत्थुसन्तिक''न्ति । ततो पुनदेव सो चिन्तेसि “सुदूरम्पि गन्त्वा सत्थु सन्तिकेव निक्कङ्खो भविस्सति । अत्थि चेव पुग्गलो नामेस, थोकं ताव आहिण्डन्तो किलमतु पच्छा जानिस्सती"ति । ततो तं "अहम्पि खो"तिआदिमाह । ब्रह्मयानियोपि देवयानियसदिसोव । देवयानियमग्गोति वा ब्रह्मयानियमग्गोति वा धम्मसेतूति वा एकचित्तक्खणिकअप्पनाति वा सन्निट्ठानिकचेतनाति वा महग्गतचित्तन्ति वा अभिजात्राणन्ति वा सब्बमेतं इद्धिविधाणस्सेव नामं । ४९४. पुब्बनिमित्तन्ति आगमनपुब्बभागे निमित्तं सूरियस्स उदयतो अरुणुग्गं विय । तस्मा इदानेव ब्रह्मा आगमिस्सति, एवं मयं जानामाति दीपयिंसु । पातुरहोसीति पाकटो अहोसि । अथ खो सो ब्रह्मा तेन भिक्खुना पुट्ठो अत्तनो अविसयभावं अत्वा सचाहं "न जानामी"ति वक्खामि, इमे में परिभविस्सन्ति, अथ जानन्तो विय यं किञ्चि कथेस्सामि, अयं मे भिक्खु वेय्याकरणेन अनारद्धचित्तो वादं आरोपेस्सति । “अहमस्मि भिक्खु ब्रह्मा''तिआदीनि पन मे भणन्तस्स न कोचि वचनं सद्दहिस्सति । यंनूनाहं विक्खेपं कत्वा इमं भिक्खुं सत्थुसन्तिकंयेव पेसेय्यन्ति चिन्तेत्वा "अहमस्मि भिक्खु ब्रह्मा"तिआदिमाह। ४९५-४९६. एकमन्तं अपनेत्वाति कस्मा एवमकासि ? कुहकत्ता। बहिद्धा परियेट्ठिन्ति तेलस्थिको वालिकं निप्पीळियमानो विय याव ब्रह्मलोका बहिद्धा परियेसनं आपज्जति । ४९७. सकुणन्ति काकं वा कुललं वा । न खो एसो, भिक्खु, पञ्हो एवं 293 Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९४ दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गट्ठकथा (११.४९८-४९९) पुच्छितब्बोति इदं भगवा यस्मा पदेसेनेस पञ्हो पुच्छितब्बो, अयञ्च खो भिक्खु अनुपादिन्नकेपि गहेत्वा निप्पदेसतो पुच्छति, तस्मा पटिसेधेति । आचिण्णं किरेतं बुद्धानं, पुच्छामूळहस्स जनस्स पुच्छाय दोसं दस्सेत्वा पुच्छं सिक्खापेत्वा पुच्छाविस्सज्जनं । कस्मा ? पुच्छितुं अजानित्वा परिपुच्छन्तो दुविज्ञापयो होति | पऽहं सिक्खापेन्तो पन “कत्थ आपो चा"तिआदिमाह । ४९८. तत्थ न गाधतीति न पतिठ्ठाति, इमे चत्तारो महाभूता किं आगम्म अप्पतिट्ठा भवन्तीति अत्थो । उपादिन्येव सन्धाय पुच्छति । दीपञ्च रस्सञ्चाति सण्ठानवसेन उपादारूपं वुत्तं । अणुं थूलन्ति खुद्दकं वा महन्तं वा, इमिनापि उपादारूपे वण्णमत्तमेव कथितं । सुभासुभन्ति सुभञ्च असुभञ्च उपादारूपमेव कथितं । किं पन उपादारूपं सुभन्ति असुभन्ति अत्थि ? नत्थि । इट्ठानिट्ठारम्मणं पनेव कथितं । नामञ्च रूपञ्चाति नामञ्च दीघादिभेदं रूपञ्च । उपरुज्झतीति निरुज्झति, किं आगम्म असेसमेतं नप्पवत्ततीति । एवं पुच्छितब्बं सियाति पुच्छं दस्सेत्वा इदानि विस्सज्जनं दस्सेन्तो तत्र वेय्याकरणं भवतीति वत्वा - "विज्ञाण"न्तिआदिमाह । ४९९. तत्थ विज्ञातब्बन्ति विज्ञाणं निब्बानस्सेतं नामं, तदेतं निदस्सनाभावतो अनिदस्सनं। उप्पादन्तो वा वयन्तो वा ठितस्स अचथत्तन्तो वा एतस्स नत्थीति अनन्तं । पभन्ति पनेतं किर तित्थस्स नामं, तहि पपन्ति एत्थाति पपं, पकारस्स पन भकारो कतो। सब्बतो पभमस्साति सब्बतोपभं। निब्बानस्स किर यथा महासमुद्दस्स यतो यतो ओतरितुकामा होन्ति, तं तदेव तित्थं, अतित्थं नाम नत्थि । एवमेव अट्ठतिसाय कम्मट्ठानेसु येन येन मुखेन निब्बानं ओतरितुकामा होन्ति, तं तदेव तित्थं, निब्बानस्स अतित्थं नाम नत्थि । तेन वुत्तं “सब्बतोपभ"न्ति । एत्थ आपो चाति एत्थ निब्बाने इदं निब्बानं आगम्म सब्बमेतं आपोतिआदिना नयेन वुत्तं उपादिन्नक धम्मजातं निरुज्झति, अप्पवत्तं होतीति । इदानिस्स निरुज्झनूपायं दस्सेन्तो "विज्ञाणस्स निरोधेन एत्थेतं उपरुज्झती"ति आह । तत्थ विज्ञाणन्ति चरिमकविज्ञाणम्पि अभिसङ्खारविञआणम्पि, चरिमकविज्ञाणस्सापि हि निरोधेन एत्थेतं उपरुज्झति । विज्झातदीपसिखा विय अपण्णत्तिकभावं याति । अभिसङ्खारविज्ञाणस्सापि अनुप्पादनिरोधेन अनुप्पादवसेन उपरुज्झति । यथाह “सोतापत्तिमग्गजाणेन अभिसङ्खारविणस्स निरोधेन ठपेत्वा सत्तभवे अनमतग्गे संसारे 294 Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (११.४९९-४९९) भूतनिरोधेसकवत्थुवण्णना २९५ ये उप्पज्जेय्युं नामञ्च रूपञ्च एत्थेते निरुज्झन्तीति सब्बं चूळनिद्देसे वुत्तनयेनेव वेदितब्बं । सेसं सब्बत्थ उत्तानमेवाति । इति सुमङ्गलविलासिनिया दीघनिकायट्ठकथायं केवट्टसुत्तवण्णना निहिता। 295 Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२. लोहिच्चसुत्तवण्णना लोहिच्चब्राह्मणवत्थुवण्णना ५०१. एवं मे सुतं...पे०... कोसलेसूति लोहिच्चसुत्तं । तत्रायं अनुत्तानपदवण्णना। सालवतिकाति तस्स गामस्स नामं, सो किर वतिया विय समन्ततो सालपन्तिया परिक्खित्तो। तस्मा सालवतिकाति वुच्चति । लोहिच्चोति तस्स ब्राह्मणस्स नामं । ५०२-४०३. पापकन्ति परानुकम्पा विरहितत्ता लामकं, न पन उच्छेदसस्सतानं अञ्जतरं । उप्पन्नं होतीति जातं होति, न केवलञ्च चित्ते जातमत्तमेव । सो किर तस्स वसेन परिसमज्झेपि एवं भासतियेव । किहि परो परस्साति परो यो अनुसासीयति, सो तस्स अनुसासकस्स किं करिस्सति । अत्तना पटिलद्धं कुसलं धम्मं अत्तनाव सक्कत्वा गरुं कत्वा विहातब्बन्ति वदति । ५०४-४०७. रोसिकं न्हापितं आमन्तेसीति रोसिकाति एवं इथिलिङ्गवसेन लद्धनामं न्हापितं आमन्तेसि । सो किर भगवतो आगमनं सुत्वा चिन्तेसि- “विहारं गन्त्वा दिटुं नामं भारो, गेहं पन आणापेत्वा पस्सिस्सामि चेव यथासत्ति च आगन्तुकभिक्खं दस्सामी''ति, तस्मा एवं न्हापितं आमन्तेसि । ५०८. पिद्वितो पिद्वितोति कथाफासुकत्थं पच्छतो पच्छतो अनुबन्धो होति । विवेचेतूति विमोचेतु, तं दिट्ठिगतं विनोदेतूति वदति । अयं किर उपासको लोहिच्चस्स ब्राह्मणस्स पियसहायको । तस्मा तस्स अत्थकामताय एवमाह । अप्पेव नाम सियाति एत्थ पठमवचनेन भगवा गज्जति, दुतियवचनेन अनुगज्जति । अयं किरेत्थ अधिप्पायो- रोसिके एतदत्थमेव मया चत्तारि असङ्ख्येय्यानि । कप्पसतसहस्सञ्च विविधानि दुक्करानि करोन्तेन पारमियो 296 Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोहिच्चब्राह्मणानुयोगवण्णना पूरिता, एतदत्थमेव सब्बञ्ञतञ्ञाणं पटिविद्धं न मे लोहिच्चस्स दिट्ठिगतं भिन्दितुं भारोति, इममत्थं दस्सेन्तो पठमवचनेन भगवा गज्जति । केवलं रोसिके लोहिच्चस्स मम सन्तिके आगमनं वा निसज्जा वा अल्लापसल्लापो वा होतु, सचेपि लोहिच्चसदिसानं सतसहस्सस्स कवा होति, पटिबलो अहं विनोदेतुं लोहिच्चस्स पन एकस्स दिट्ठिविनोदने मय्हं को भारोति इममत्थं दस्सेन्तो दुतियवचनेन भगवा अनुगज्जतीति वेदितब्बो । ( १२.५०९ - ५१० -५१२) लोहिच्चब्राह्मणानुयोगवण्णना ५०९. समुदयसञ्जातीति समुदयस्स सञ्जाति भोगुप्पादो, ततो उट्ठितं धनधञ्ञन्ति अत्थो । ये तं उपजीवन्तीति ये आतिपरिजनदासकम्मकरादयो जना तं निस्साय जीवन्ति । अन्तरायकरोति लाभन्तरायकरो । हितानुकम्पीति एत्थ हितन्ति वुड्ढ । अनुकम्पती अनुकम्पी, इच्छतीति अत्थो, वुड्डुिं इच्छति वा नो वाति वुत्तं होति । निरयं वा तिरच्छानयोनिं वाति सचे सा मिच्छादिट्ठि सम्पज्जति, नियता होति, एकंसेन निरये निब्बत्तति, नो चे, तिरच्छानयोनियं निब्बत्ततीति अत्थो । ५१०- ५१२. इदानि यस्मा यथा अत्तनो लाभन्तरायेन सत्ता संविज्जन्ति न तथा परेसं, तस्मा सुट्टुतरं ब्राह्मणं पवेचेतुकामो “तं किं मञ्ञसी" ति दुतियं उपपत्तिमाह । ये चिमेति ये च इमे तथागतस्स धम्मदेसनं सुत्वा अरियभूमिं ओक्कमितुं असक्कोन्ता कुलपुत्ता दिब्बा गब्भाति उपयोगत्थे पच्चत्तवचनं, दिब्बे गब्भेति अत्थो । दिब्बा, गब्भात च छन्नं देवलोकानमेतं अधिवचनं । परिपाचेन्तीति देवलोकगामिनिं पटिपदं पूरयमाना दानं, ददमाना, सीलं रक्खमाना, गन्धमालादीहि, पूजं कुरुमाना भावनं भावयमाना पाचेन्ति विपाचेन्ति परिपाचेन्ति परिणामं गमेन्ति । दिब्बानं भवानं अभिनिब्बत्तियाति दिब्बभवा नाम देवानं विमानानि, तेसं निब्बत्तनत्थायाति अत्थो । अथ वा दिब्बा गब्भाति दानादयो पुञविसेसा । दिब्बा भवाति देवलोके विपाकक्खन्धा, तेसं निब्बत्तनत्थाय तानि पुञ्ञानि करोन्तीति अत्थो । तेसं अन्तरायकरोति तेसं मग्गसम्पत्तिफलसम्पत्तिदिब्बभवविसेसानं अन्तरायकरो । इति भगवा एत्तावता अनियमितेनेव ओपम्मविधिना याव भवग्गा उग्गतं ब्राह्मणस्स मानं भिन्दित्वा इदानि चोदनारहे तयो सत्थारे दस्सेतुं “तयो खो मे, लोहिच्चा" तिआदिमाह । २९७ 297 Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९८ दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गट्ठकथा तयो चोदनारहवण्णना ५१३. तत्थ सा चोदनाति तयो सत्थारे चोदेन्तस्स चोदना । न अञ्ञा चित्तं उपट्टपेन्तीति अञ्ञाय आजाननत्थाय चित्तं न उपट्टपेन्ति । वोक्कम्माति निरन्तरं तस्स सासनं अकत्वा ततो उक्कमित्वा वत्तन्तीति अत्थो । ओसक्कन्तिया वा उस्सक्केय्याति पटिक्कमन्तिया उपगच्छेय्य, अनिच्छन्तिया इच्छेय्य, एकाय सम्पयोगं अनिच्छन्तिया एको इच्छेय्याति वुत्तं होति । परम्मुखिं वा आलिङ्गेय्याति दट्टुम्पि अनिच्छमानं परम्मुखि ठितं पच्छतो गन्त्वा आलिङ्गेय्य । एवंसम्पदमिदन्ति इमस्सापि सत्थुनो “मम इमे सावका’ति सासना वोक्कम्म वत्तमानेपि ते लोभेन अनुसासतो इमं लोभधम्मं एवंसम्पदमेव ईदिसमेव वदामि । इति सो एवरूपो तव लोभधम्मो येन त्वं ओसक्कन्तिया उस्सक्कन्तो विय परम्मुखिं आलिङ्गन्तो विय अहोसीतिपि तं चोदनं अरहति । किञ्हि परो परस्स करिस्तीति येन धम्मेन परे अनुसासि, अत्तानमेव ताव तत्थ सम्पादेहि, उजुं करोहि । किञ्हि परो परस्स करिस्सतीति चोदनं अरहति । ५१४. निद्दायितब्बन्ति सस्सरूपकानि तिणानि उप्पाटेत्वा परिसुद्धं कातब्बं । ५१५. ततियचोदनाय किञ्हि परो परस्साति अनुसासनं असम्पटिच्छनकालतो पट्ठाय परो अनुसासितब्बो, परस्स अनुसासकस्स किं करिस्सतीति ननु तत्थ अप्पोस्सुक्कतं आपज्जित्वा अत्तना पटिविद्धधम्मं अत्तनाव मानेत्वा पूजेत्वा विहातब्बन्ति एवं चोदनं अरहतीति अत्थो । ( १२.५१३-५१७) न चोदनारहसत्थुवण्णना ५१६. न चोदनारहोति अयहि यस्मा पठममेव अत्तानं पतिरूपे पतिट्ठापेत्वा सावकानं धम्मं देसेति । सावका चस्स अस्सवा हुत्वा यथानुसिद्धं पटिपज्जन्ति, ताय च पटिपत्तिया महन्तं विसेसमधिगच्छन्ति । तस्मा न चोदनारहोति । ५१७. नरकपपातं पपतन्तोति मया गहिताय दिट्टिया अहं नरकपपातं पपतन्तो । 298 Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१२.५१७-५१७) नचोदनारहसत्थुवण्णना २९९ उद्धरित्वा थले पतिट्ठापितोति तं दिहिँ भिन्दित्वा धम्मदेसनाहत्थेन अपायपतनतो उद्धरित्वा सग्गमग्गथले ठपितोम्हीति वदति । सेसमेत्थ उत्तानमेवाति ।। इति सुमङ्गलविलासिनिया दीघनिकायट्ठकथायं लोहिच्चसुत्तवण्णना निहिता। 299 Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३. तेविज्जसुत्तवण्णना ५१८. एवं मे सुतं...पे०... कोसलेसूति तेविज्जसुत्तं । तत्रायं अनुत्तानपदवण्णना । मनसाकटन्ति तस्स गामस्स नामं । उत्तरेन मनसाकटस्साति मनसाकटतो अविदूरे उत्तरपस्से । अम्बवनेति तरुण अम्बरुक्खसण्डे, रमणीयो किर सो भूमिभागो, हेट्ठा रजतपट्टसदिसा वालिका विप्पकिण्णा, उपरि मणिवितानं विय घनसाखापत्तं अम्बवनं । तस्मिं बुद्धानं अनुच्छविके पविवेकसुखे अम्बवने विहरतीति अत्थो । ५१९. अभिज्ञाता अभिज्ञाताति कुलचारित्तादिसम्पत्तिया तत्थ तत्थ पञ्ञाता । चङ्गीतिआदीनि तेसं नामानि । तत्थ चङ्की ओपासादवासिको । तारुक्खो इच्छानङ्गलवासिको । पोक्खरसाती उक्कट्ठवासिको । जाणुसोणी सावत्थिवासिको । तोदेय्यो तुदिगामवासिको । अञ चाति अञ्ञे च बहुजना । अत्तनो अत्तनो निवासट्टानेहि आगन्त्वा मन्तसज्झायकरणत्थं तत्थ पटिवसन्ति । मनसाकटस्स किर रमणीयताय ते ब्राह्मणा तत्थ नदीतीरे गेहानि कारेत्वा परिक्खिपापेत्वा असं बहूनं पवेसनं निवारेत्वा अन्तरन्तरा तत्थ गन्त्वा वसन्ति । ५२०-४२१. वासेट्ठभारद्वाजानन्ति वासेट्ठस्स च पोक्खरसातिनो अन्तेवासिकस्स, भारद्वाजस्स च तारुक्खन्तेवासिकस्स । एते किर द्वे जातिसम्पन्ना तिण्णं वेदानं पारगू अहेसुं । जङ्घविहारन्ति अतिचिरनिसज्जपच्चया किलमथविनोदनत्थाय जङ्घचरं । ते ि दिवस सज्झायं कत्वा सायन्हे वुट्ठाय न्हानीयसम्भारगन्धमालतेलधोतवत्थानि गाहापेत्वा अत्तनो परिजनपरिवुता न्हायितुकामा नदीतीरं गन्त्वा रजतपट्टवण्णे वालिकासण्डे अपरापरं चङ्कमिंसु । एकं चङ्कमन्तं इतरो अनुचङ्कमि, पुन इतरं इतरोति । तेन वुत्तं “अनुचङ्कमन्तानं अनुविचरन्तान "न्ति । मग्गामग्गेति मग्गे च अमग्गे च । कतमं नु खो पटिपदं पूरेत्वा कतमेन मग्गेन सक्का सुखं ब्रह्मलोकं गन्तुन्ति एवं मग्गामग्गं आरब्भ कथं समुट्ठापेसुन्ति अत्थो | अञ्जसायनोति उजुमग्गस्सेतं वेवचनं, अञ्जसा वा उजुकमेव एतेन आयन्ति 300 Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१३.५२२ - ५२४) आगच्छन्तीति अञ्जसायनो निय्यानिको निय्यातीति निय्यायन्तो निय्याति, गच्छन्तो गच्छतीति अत्थो । तक्करस्स ब्रह्मसहब्यतायाति यो तं मग्गं करोति पटिपज्जति, तस्स ब्रह्मना सद्धिं सहभावाय, एकट्ठाने पातुभावाय गच्छतीति अत्थो । य्वायन्ति यो अयं । अक्खातोति कथितो दीपितो । ब्राह्मणेन पोक्खरसातिनाति अत्तनो आचरियं अपदिसति । इति वासेट्ठी सकमेव आचरियवादं थोमेत्वा पग्गण्हित्वा विचरति । भारद्वाजोपि सकमेवाति । तेन तं "नेव खो असक्खि वासेट्टो "तिआदि । ३०१ ततो वासेट्टो “उभिन्नम्पि अम्हाकं कथा अनिय्यानिकाव, इमस्मिञ्च लोके मग्गकुसलो नाम भोता गोतमेन सदिसो नत्थि, भवञ्च गोतमो अविदूरे वसति, सो नो तुलं गहेत्वा निसिन्नवाणिजो विय क छिन्दिस्सती 'ति चिन्तेत्वा तमत्थं भारद्वाजस्स आरोचेत्वा उभोपि गन्त्वा अत्तनो कथं भगवतो आरोचेसुं । तेन वुत्तं " अथ खो वासेट्टो... पे०... खायं अक्खातो ब्राह्मणेन तारुक्खेना" ति । ५२२. एत्थ भो गोतमाति एतस्मिं मग्गामग्गे । विग्गहो विवादोतिआदीसु पुब्बुप्पत्तिको विग्गहो । अपरभागे विवादो । दुविधोपि एसो नानाआचरियानं वादतो नानावादो । ५२३. अथ किस्मिं पन वोति त्वम्पि अयमेव मग्गोति अत्तनो आचरियवादमेव पग्गय्ह तिट्ठसि भारद्वाजोपि अत्तनो आचरियवादमेव एकस्सापि एकस्मिं संसयो नत्थि । एवं सति किस्मिं वो विग्गहोति पुच्छति । ५२४. मग्गामग्गे, भो गोतमाति मग्गे भो गोतम अमग्गे च उजुमग्गे च अनुजुमग्गे चाति अत्थो । एस किर एकब्राह्मणस्सापि मग्गं " न मग्गी 'ति न वदति । यथा पन अत्तनो आचरियस्स मग्गो उजुमग्गो, न एवं अञ्ञेसं अनुजानाति, तस्मा तमेवत्थं दीपेन्तो “किञ्चापि भो गोतमा "तिआदिमाह । सब्बानि तानीति लिङ्गविपल्लासेन वदति, सब्बे तेति वृत्तं होति । बहूनीति अट्ठ वा 301 Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०२ दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गट्ठकथा (१३.५२५-५२६-५३१-५३२) दस वा। नानामग्गानीति महन्तामहन्तजङ्घमग्गसकटमग्गादिवसेन नानाविधानि सामन्ता गामनदीतळाकखेत्तादीहि आगन्त्वा गामं पविसनमग्गानि । ५२५-५२६. "निय्यन्तीति वासेट्ठ वदेसी"ति भगवा तिक्खत्तुं वचीभेदं कत्वा पटिनं कारापेसि । कस्मा ? तित्थिया हि पटिजानित्वा पच्छा निग्गव्हमाना अवजानन्ति । सो तथा कातुं न सक्खिस्सतीति । ५२७-५२९. तेव तेविज्जाति ते तेविज्जा । वकारो आगमसन्धिमत्तं । अन्धवेणीति अन्धपवेणी, एकेन चक्खुमता गहितयट्ठिया कोटिं एको अन्धो गण्हति, तं अन्धं अञ्जो तं अञ्जोति एवं पण्णाससट्ठि अन्धा पटिपाटिया घटिता अन्धवेणीति वुच्चति । परम्परसंसत्ताति अञमझं लग्गा, यट्ठिगाहकेनपि चक्खुमता विरहिताति अत्थो । एको किर धुत्तो अन्धगणं दिस्वा “असुकस्मिं नाम गामे खज्जभोज्जं सुलभ''न्ति उस्साहेत्वा "तेन हि तत्थ नो सामि नेहि, इदं नाम ते देमा''ति वुत्ते, लजं गहेत्वा अन्तरामग्गे मग्गा ओक्कम्म महन्तं गच्छं अनुपरिगन्त्वा पुरिमस्स हत्थेन पच्छिमस्स कच्छं गण्हापेत्वा "किञ्चि कम्मं अत्थि, गच्छथ ताव तुम्हे''ति वत्वा पलायि, ते दिवसम्पि गन्त्वा मग्गं अविन्दमाना “कुहिं नो चक्खुमा, कुहिं मग्गो"ति परिदेवित्वा मग्गं अविन्दमाना तत्थेव मरिंसु । ते सन्धाय वुत्तं “परम्परसंसत्ता"ति । पुरिमोपीति पुरिमेसु दससु ब्राह्मणेसु एकोपि । मज्झिमोपीति मज्झिमेसु आचरियपाचरियेसु एकोपि । पच्छिमोपीति इदानि तेविज्जेसु ब्राह्मणेसु एकोपि । हस्सकञवाति हसितब्बमेव । नामकओवाति लामकंयेव । तदेतं अत्थाभावेन रित्तकं, रित्तकत्तायेव तुच्छकं। इदानि ब्रह्मलोको ताव तिठ्ठतु, यो तेविज्जेहि न दिट्ठपुब्बोव । येपि चन्दिमसूरिये तेविज्जा पस्सन्ति, तेसम्पि सहब्यताय मग्गं देसेतुं नप्पहोन्तीति दस्सनत्थं "तं किं मञसी"तिआदिमाह । ५३०. तत्थ यतो चन्दिमसूरिया उग्गछन्तीति यस्मिं काले उग्गच्छन्ति । यत्थ च ओग्गच्छन्तीति यस्मिं काले अत्थमेन्ति, उग्गमनकाले च अत्थङ्गमनकाले च पस्सन्तीति अत्थो । आयाचन्तीति “उदेहि भवं चन्द, उदेहि भवं सूरिया"ति एवं आयाचन्ति । थोमयन्तीति “सोम्मो चन्दो, परिमण्डलो चन्दो, सप्पभो चन्दो''तिआदीनि वदन्ता पसंसन्ति । पञ्जलिकाति पग्गहितअञ्जलिका | नमस्समानाति “नमो नमो"ति वदमाना | ५३१-५३२. यं पस्सन्तीति एत्थ यन्ति निपातमत्तं । किं पन न किराति एत्थ इध 302 Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१३.५४२-५४६) अचिरवतीनदीउपमाकथा ३०३ पन किं वत्तब्बं । यत्थ किर तेविज्जेहि ब्राह्मणेहि न ब्रह्मा सक्खिदिट्ठोति एवमत्थो दट्ठब्बो। अचिरवतीनदीउपमाकथा ५४२. समतित्तिकाति समभरिता। काकपेय्याति यत्थ कत्थचि तीरे ठितेन काकेन सक्का पातुन्ति काकपेय्या। पारं तरितुकामोति नदिं अतिक्कमित्वा परतीरं गन्तुकामो । अव्हेय्याति पक्कोसेय्य । एहि पारापारन्ति अम्भो पार अपारं एहि, अथ मं सहसाव गहेत्वा गमिस्ससि, अस्थि मे अच्चायिककम्मन्ति अत्थो । ५४४. ये धम्मा ब्राह्मणकारकाति एत्थ पञ्चसीलदसकुसलकम्मपथभेदा धम्मा ब्राह्मणकारकाति वेदितब्बा, तब्बिपरीता अब्राह्मणकारका । इन्दमव्हायामाति इन्दं अव्हायाम पक्कोसाम । एवं ब्राह्मणानं अव्हायनस्स निरत्थकतं दस्सेत्वा पुनपि भगवा अण्णवकुच्छियं सूरियो विय जलमानो पञ्चसतभिक्खुपरिवुतो अचिरवतिया तीरे निसिन्नो अपरम्प नदीउपमंयेव आहरन्तो “सेय्यथापी"तिआदिमाह । ५४६. कामगुणाति कामयितब्बढेन कामा, बन्धनद्वेन गुणा । “अनुजानामि भिक्खवे, अहतानं वत्थानं दिगुणं सङ्घाटि"न्ति (महाव० ३४८) एत्थ हि पटलट्ठो गुणट्ठो । "अच्चेन्ति काला तरयन्ति रत्तियो, वयोगुणा अनुपुब्बं जहन्ती"ति एत्थ रासठ्ठो गुणट्ठो । "सतगुणा दक्खिणा पाटिकजितब्बा'"ति (म० नि० ३.३७९) एत्थ आनिसंसट्ठो गुणट्ठो । “अन्तं अन्तगुणं (खु० पा० ३.१) कयिरा मालागुणे बहू''ति (ध० प० ५३) च एत्थ बन्धनट्ठो गुणट्ठो। इधापि एसेव अधिप्पेतो। तेन वुत्तं "बन्धनद्वेन गुणा'ति । चक्खुवि य्याति चक्खुविज्ञाणेन पस्सितब्बा। एतेनुपायेन सोतविज्ञेय्यादीसुपि अत्थो वेदितब्बो । इट्ठाति परियिट्ठा वा होन्तु, मा वा, इट्ठारम्मणभूताति अत्थो । कन्ताति कामनीया । मनापाति मनवड्डनका । पियरूपाति पियजातिका । कामूपसज्हिताति आरम्मणं कत्वा उप्पज्जमानेन कामेन उपसहिता । रजनीयाति रञ्जनीया, रागुष्पत्तिकारणभूताति अत्थो । गधिताति गेधेन अभिभूता हुत्वा । मुच्छिताति मुच्छाकारप्पत्ताय अधिमत्तकाय तण्हाय अभिभूता । अज्झोपन्नाति अधिओपन्ना ओगाळ्हा “इदं सार"न्ति परिनिट्ठानप्पत्ता हुत्वा । 303 Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०४ दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गट्ठकथा अनादीनवदस्साविनोति आदीनवं अपस्सन्ता । अनिस्सरणपञ्ञति इदमेत्थ निस्सरणन्ति, एवं परिजाननपञ्ञाविरहिता, पच्चवेक्खणपरिभोगविरहिताति अत्थो । ५४८. आवरणाति आदी आवरन्तीति आवरणा । निवारेन्तीति नीवरणा । ओनन्धन्तीति ओनाहना । परियोनन्धन्तीति परियोनाहना । कामच्छन्दादीनं वित्थारकथा विसुद्धिमग्गतो गहेतब्बा । (१३.५४८-५५४) ब्यापादस्स ५४९-५५०. आवुता निवुता ओनद्धा परियोनद्धाति पदानि आवरणादीनं वसेन वृत्तानि । सपरिग्गहोति इत्थिपरिग्गहेन सपरिग्गहोति पुच्छति । अपरिग्गहो भो गोतमाति आदीसुपि कामच्छन्दस्स अभावतो इत्थिपरिग्गहेन अपरिग्गहो । अभावतो केनचि सद्धिं वेरचित्तेन अवेरो । थिनमिद्धस्स अभावतो चित्तगेलञ्ञसङ्घातेन ब्यापज्जेन अब्यापज्जो । उद्धच्चकुक्कुच्चाभावतो उद्धच्चकुक्कुच्चादीहि संकिलेसेहि असंकिलिट्ठचित्तो सुपरिसुद्धमानसो । विचिकिच्छाय अभावतो चित्तं वसे वत्तेति । यथा च ब्राह्मणा चित्तगतिका होन्तीति, चित्तस्स वसेन वत्तन्ति, न तादिसोति वसवत्ती । ५५२. इध खो पनाति इध ब्रह्मलोकमग्गे । आसीदित्वाति अमग्गमेव " मग्गो "ति उपगन्त्वा । संसीदन्तीति " समतल "न्ति सञ्ञाय पङ्कं ओतिण्णा विय अनुप्पविसन्ति । संसीदित्वा विसारं पापुणन्तीति एवं पङ्के विय संसीदित्वा विसारं अङ्गमङ्गसंभञ्जनं पापुणन्ति । सुक्खतरं मजे तरन्तीति मरीचिकाय वञ्चेत्वा " काकपेय्या नदी 'ति सञ्ञाय " तरिस्सामा "ति हत्थेहि च पादेहि च वायममाना सुक्खतरणं मञ्ञे तरन्ति । तस्मा यथा हत्थपादादीनं संभञ्जनं परिभञ्जनं, एवं अपायेसु संभञ्जनं परिभञ्जनं पाणन्ति । इव च सुखं वा सातं वा न लभन्ति । तस्मा इदं तेविज्जानं ब्राह्मणानन्ति तस्मा इदं ब्रह्मसहब्यताय मग्गदीपकं तेविज्जकं पावचनं तेविज्जानं ब्राह्मणानं । तेविज्जाइरिणन्ति तेविज्जाअरञ्जं इरिणन्ति हि अगामकं महाअरज्ञ वुच्चति । तेविज्जाविवनन्ति पुप्फफ अपरिभोगरुक्खेहि सञ्छन्नं निरुदकं अरञ्जं । यत्थ मग्गतो उक्कमित्वा परिवत्तितुम्पि न सक्का होन्ति, तं सन्धायाह “तेविज्जाविवनन्तिपि वुच्चती 'ति । तेविज्जाब्यसनन्ति तेविज्जानं पञ्चविधब्यसनसदिसमेतं । यथा हि आतिरोगभोग दिट्ठि सीलब्यसनप्पत्तस्स सुखं नाम नत्थि, एवं विज्जानं तेविज्जकं पावचनं आगम्म सुखं नाम नत्थीति दस्सेति । ५५४. जातसंवड्डोति जातो च वड्ढितो च, यो हि केवलं तत्थ जातोव होति, 304 Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१३.५५५-५५५) अचिरवतीनदीउपमाकथा ३०५ अञत्थ वड्डितो, तस्स समन्ता गाममग्गा न सब्बसो पच्चक्खा होन्ति, तस्मा जातसंवड्डोति आह । जातसंवड्डोपि यो चिरनिक्खन्तो, तस्स न सब्बसो पच्चक्खा होन्ति । तस्मा "तावदेव अवसट"न्ति आह, तङ्खणमेव निक्खन्तन्ति अत्थो । दन्धायितत्तन्ति अयं नु खो मग्गो, अयं न नुखोति कङ्खावसेन चिरायितत्तं । वित्थायितत्तन्ति यथा सुखुमं अत्थजातं सहसा पुच्छितस्स कस्सचि सरीरं थद्धभावं गण्हाति, एवं थद्धभावग्गहणं । न त्वेवाति इमिना सब्ब ताणस्स अप्पटिहतभावं दस्सेति । तस्स हि पुरिसस्स मारावट्टनादिवसेन सिया जाणस्स पटिघातो | तेन सो दन्धायेय्य वा वित्थायेय्य वा। सब्ब ताणं पन अप्पटिहतं, न सक्का तस्स केनचि अन्तरायो कातुन्ति दीपेति । ५५५. उल्लुम्पतु भवं गोतमोति उद्धरतु भवं गोतमो। ब्राह्मणिं पजन्ति ब्राह्मणदारकं, भवं गोतमो मम ब्राह्मणपुत्तं अपायमग्गतो उद्धरित्वा ब्रह्मलोकमग्गे पतिठ्ठपेतूति अत्थो । अथस्स भगवा बुद्धप्पादं दस्सेत्वा सद्धिं पुब्बभागपटिपदाय मेत्ताविहारादिब्रह्मलोकगामिमग्गं देसेतुकामो "तेन हि वासेट्ठा"तिआदिमाह । तत्थ "इध तथागतो"तिआदि सामञफले वित्थारितं । मेत्तासहगतेनातिआदीसु यं वत्तब्बं, तं सब्बं विसुद्धिमग्गे ब्रह्मविहारकम्मट्ठानकथायं वुत्तं । सेय्यथापि वासे? बलवा सङ्घधमोतिआदि पन इध अपुब्बं । तत्थ बलवाति बलसम्पन्नो । सङ्घधमोति सङ्खधमको । अप्पकसिरेनाति अकिच्छेन अदुक्खेन। दुब्बलो हि सङ्खधमो सङ्ख धमन्तोपि न सक्कोति चतस्सो दिसा सरेन विज्ञापेतुं, नास्स सङ्घसद्दो सब्बतो फरति । बलवतो पन विष्फारिको होति, तस्मा "बलवा''तिआदिमाह । मेत्ताय चेतोविमुत्तियाति एत्थ मेत्ताति वुत्ते उपचारोपि अप्पनापि वट्टति, “चेत्तोविमुत्ती''ति वुत्ते पन अप्पनाव वट्टति । यं पमाणकतं कम्मन्ति पमाणकतं कम्मं नाम कामावचरं वुच्चति । अप्पमाणकतं कम्मं नाम रूपारूपावचरं । तहि पमाणं अतिक्कमित्वा ओदिस्सकअनोदिस्सकदिसाफरणवसेन वड्वेत्वा कतत्ता अप्पमाणकतन्ति वच्चति। न तं तत्रावसिस्सति न तं तत्रावतिद्वतीति तं कामावचरकम्म रूपावचरारूपावचरकम्मे न ओहीयति, न तिट्ठति । किं वुत्तं होति- तं कामावचरकम्म तस्स रूपारूपावचरकम्मस्स अन्तरा लग्गितुं वा ठातुं वा रूपारूपावचरकम्मं फरित्वा परियादियित्वा अत्तनो ओकासं गहेत्वा पतिट्ठातुं न सक्कोति । अथ खो रूपावचरारूपावचरकम्ममेव कामावचरं महोघो विय परित्तं उदकं फरित्वा परियादियित्वा अत्तनो ओकासं गहेत्वा तिठ्ठति । तस्स विपाकं पटिबाहित्वा सयमेव ब्रह्मसहब्यतं उपनेतीति । एवंविहारीति एवं मेत्तादिविहारी । 305 Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०६ दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गट्ठकथा (१३.५५९-५५९) ५५९. एते मयं भवन्तं गोतमन्ति इदं तेसं दुतियं सरणगमनं । पठममेव हेते मज्झिमपण्णासके वासे(सुत्तं सुत्वा सरणं गता, इमं पन तेविज्जसुत्तं सुत्वा दुतियम्पि सरणं गता। कतिपाहच्चयेन पब्बजित्वा अग्गञ्जसुत्ते उपसम्पदञ्चेव अरहत्तञ्च अलत्थु । सेसं सब्बत्थ उत्तानमेवाति । इति सुमङ्गलविलासिनिया दीघनिकायट्ठकथायं तेविज्जसुत्तवण्णना निहिता। निट्ठिता च तेरससुत्तपटिमण्डितस्स सीलक्खन्धवग्गस्स अत्थवण्णनाति । सीलक्खन्धवग्गट्ठकथा निहिता। 306 Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ अकटविधाति - १३८ अकण्टकाति - २३९ अकतभूमिभागो - ७२ अकत्तब्बकारी - २३८ अकथंकथी - १७२ अकनिट्ठब्रह्मलोकपरियोसानं - २८३ अकम्पियलक्खणं - ६० अकल्याणजनं - १३८ अकिच्चकारी - २३८ अकिरियवादा - १३७ अकुसलकम्मपथाव - ९९ अकुसलचित्तुप्पादा - २८३ अकुसलचेतना - ७० अकुसलधम्मप्पहाने - २६८ अकुसलवितक्कं - ४७ सद्दानुक्कमणिका अकुसला धम्मा- १५७, १५८, १६१, १६२, १६३ अक्खयधम्ममेव- २४२ अक्खरजाननकीळा - ७८ अक्खरप्पभेदोति - २०० अक्खीनि भमन्ति - १६३ अखीणासवो - ८ अखुद्दावकासो – २२७, २३० अगदो - ६३ अगरूति - १३२, २०४ अग्गजिव्हाय - १६३ 1 अग्गदक्खिणेय्योति - १८८ अग्गनगरं - २१० अग्गपदेसोति - २१० अग्गपुग्गलो – २८८ अग्गबीजं - ७१, ७५ अग्गब्राह्मणो - १९८ अग्गमसिद्वाने - २०९, २४४ अग्गसद्दो - १९१ अग्गसावका - १४३, २०० अग्गासनं - २१५ अग्गिक्खन्धो - ४०, ५४ अग्गिक्खन्धं - २०६ अग्गिवण्णं - २१३ अग्गिविय - ५२ अग्गिसालं - २१८ अग्गिहोमन्ति - ८२ अग्गुपट्टाको - १२८, २०० अग्यागारं - २१९ अङ्गपरिच्चागं - ५७ अङ्गपादचीवरकुटिदण्डकसज्जनकाले - १६८ अङ्गविज्जाति - ८३ अङ्गा - २२५ अङ्गीरसे - २१५ अङ्गुत्तरनिकायो - १६, २३, २४ अङ्गुलिमालस्स - १९४ अङ्गेसु – २२५ अचक्खुका - २८२ अचित्तकभावो - २७४ Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२] दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गट्ठकथा [अ-अ] अचिरपब्बजितस्स- १२० अचिरूपसम्पन्नोति - २७० अचेलकपटिपदं-२६३ अचेलकसावका-१३५, २६४ अचेलको-- १२१, २६४, २६६ अचेलो कस्सपो-२६३, २७० अच्चन्तसंयोगत्थो-३३ अजलक्खणादीसु-८३ अजातसत्तु-९,११४,११७, १२८,१४२ अजितवादे - १३६ अजितोति-१२१ अजिनमिगचम्म-२६५ अज्जभावं-१९१ अज्जुनो-२१५ अज्झत्तिकपथवीधातु - १३७ अज्झायको-२०० अज्झासयानुसन्धि- १०४,१०५ अज्झासयं-४८, १०४, १०५, ११४, २०० अज्झोहरणमत्तेनेव -१५३ अञ्छनपीळनादिवसेन-१७८ अञ्जसायनो-३०१ अञ्जतरइरियापथसमायोगपरिदीपनं-११३ अञतित्थियानहि-४० अञतित्थियेसु-१८८ अञदत्थु-२१०,२८२ अज्ञाणलक्खणं-६० अट्ठकथाचरिया-१५३ अट्ठकथानयो-४२ अट्ठङ्गसमन्नागतो-११८ अट्ठङ्गिको - ८८, १३१, १४७, १८५, २५२, २८१ अट्ठपदं-७८ अट्ठपरिक्खारमत्तकं-१६९ अट्ठमसमापत्तिया-२७६ अट्ठमी-११८ . अट्ठविधा-२१८ अट्ठसमापत्तिवसेन-१३९,२६३ अट्ठहङ्गेहीति-२४० अट्ठारसधातुयो- १०९ अट्ठारसहत्थुब्बेधेन-११४ अट्ठप्पत्तिको-४९ अड्डयोगो-१७० अणुसहगते-५९ अणुं-२३९, २९४ अण्डजजलाबुजा-९६ अतक्कावचरा-८७ अतिक्कन्तमानुसिकाय-४४ अतिदुल्लभकथा- २३१ अतिपणीतलोकुत्तरमग्गसुखनिप्फादनसमत्थताय-२४८ अतिब्रह्मा-६३ अतिविसुद्धेन-४२ अतिसुन्दरन्ति-१८४ अतिहरणे-१५७ अतीतआतिकथा-८१ अतीतानागतपच्चुप्पन्ने - २४० अतुरितचारिका-१९४, १९५, १९७, २२५ अत्थकवि-८४ अत्थकामताय-२९६ अत्थकुसलो -२८ अत्थगम्भीरो-१४२ अत्थचरकेनाति-२२३ अत्थजातं-२१,३०५ अत्थपटिभानपटिसम्भिदासम्पत्तिसब्भावं-३१ अत्थपटिवेधसमत्थता-३० अत्थपरिसुद्धताय-२०४ अत्थब्यञ्जनपारिपूरि-३१ अत्थब्यञ्जनसम्पन्नस्स-३०,४८ अत्थवादी-७१ अत्थसंहितं-७१ अत्याभिसमया-३२ अत्थुद्धारो-११८ अत्तपटिलाभो - २८३, २८४ अत्तपरिच्चजनं - १८७ Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [अ-अ] सद्दानुक्कमणिका अत्तभावपटिलाभो-२८२ अत्तमना-११०, १७०, १९३, २३९, २५४ अत्तसम्मापणिधि-३० अत्तसिनेहञ्च - २४७ अत्ताति-९०, ९१, ९२, १०१, १०२, २५४, २७९ अत्तादानपरिदीपनं-५४ अत्तानं परिमोचेति-३१ अथस्साचरियो-१९७ अदस्सनीया-४० अदातुकामताय-६७ अदिट्ठजोतना पुच्छा-६४, ६५ अदिन्नादानं-६६, २४६ अदुक्खमसुखीति-१०२ अदोसकुसलमूलजनितकम्मानुभावेन-२०२ अद्धमासिकन्ति-२६४ अद्धानइरियापथा-१६४ अद्धानमग्गं-३६, १७३ अधम्मानुलोमपटिपदं -३७ अधम्मो-५,८६ अधिकरणसमथाति-१३ अधिचित्तसिक्खा-२०,२७६ अधिचित्तसुखं -१५० अधिच्चसमुप्पन्निका-८९,१०० अधिच्चसमुप्पन्नो-१०० अधिजेगुच्छं-२६७ अधिट्ठाय-५५,१२१ अधिपञ्जा-२६७ अधिपाधम्मविपस्सनाय-५९ अधिपचासिक्खा -२० अधिपञआसिक्खाति-२७६ अधिपतिलक्खणं-६० अधिमुत्तिपदानीति - ९० अधिमोक्खलक्खणं-६० अधिवचनपदानि-९० अधिवत्था-१५५,१६९,१७० अधिविमुत्ति-२६७ अधिसीलन्ति-२६७ अधिसीलसिक्खा-२०,२७६ अधिसीलसिक्खामत्तम्पि-२८० अधोमुखठपितं-१८५ अनग्गिपक्किका-२१८,२१९ अनच्छरियञ्चेतं-१२९ अनतिवत्तनलक्खणं-६१ अनत्थजननो-५०,५२ अनत्थविज्ञापिका-७० अनत्ताधीनोति-१७२ अनत्तानुपस्सनाय -५९ अननुलोमपटिपदं-३७ अनन्तसञ्जी- ९८ अनन्तं-९८,२९४ अनभिभूतोति-९६ अनभिरतीति-९५ अनभिसित्ता-२०७ अनयब्यसनं-३७ अनवक्खित्तो-२२७ अनवज्जसञी-२२ अनवज्जसुखन्ति-१५० अनवज्जो-१८९ अनवयोति-२०१ अनागतकोट्ठाससङ्खातं-१०१ अनागतपच्चुप्पन्नानं-२८४ अनागामिमग्गेन-५९,२७६ अनागामी- १०८ अनाचारभावसारणीयं-२०५ अनाथपिण्डिकस्स- २४३,२७१ अनाथपिण्डिको-२५७ अनाथमनुस्से- १६२ अनाथसालायं-१६२ अनापत्ति - २५,८८ अनारद्धचित्तो-२९३ अनावत्तिधम्मोति-२५२ अनाविलोति-१८३ Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गट्ठकथा [अ-अ] अनिच्चता- १८१ अनिच्चतादिपटिसंयुत्ताय-८ अनिच्चधम्मो-१७८ अनिच्चानुपस्सनाय-५९ अनिच्चुच्छादनपरिमद्दनभेदनविद्धंसनधम्मोति- १७८ अनिट्ठफलो-१८९ अनित्थिगन्धा-२२१ अनिदस्सनं-२९४ अनिबद्धचारिका-१९७ अनिमित्तानुपस्सनाय-५९ अनिम्माताति-१३८ अनिम्मिताति-१३८ अनियमितपरिदीपनं-३२ अनियमितविक्खेपो-९९ अनिय्यानिकभावदस्सनत्थं-२८२,२९२ अनुकम्पतीति-२९७ अनुकुलयञानीति- २४३ अनुचरितं- ९२ अनुजानामि-७९, ३०३ अनुज्ञातकालं-७५ अनुञातपटिञातोति-२०१ अनुज्ञातसुखसम्फस्सअत्थरणपावुरणादिफस्ससामञतो -२२ अनुत्तरेन- १९९ अनुधम्म-२५९ अनुपचारट्ठानं-१७१ अनुपवज्ज-६२ अनुपस्सनालक्खणं-६१ अनुपादानो-- ९४, १८३ अनुपादाविमुत्तो- ९४ अनुपादिसेसनिब्बानधातुं-१०९ अनुपादिसेसाय निब्बानधातुया-३,१५, ६२ अनुपालनसमत्थतो-३० अनुपुब्बाभिसानिरोधसम्पजानसमापत्तिन्ति-२७८ अनुप्पादधम्मतं - १८२ अनुप्पादनिरोधेन-२९४ अनुब्यञ्जनपटिमण्डितो-१२७ अनुभवतीति-२४९ अनुभवन्तो-१७५ अनुमज्जनलक्खणं-६० अनुमतिपक्खाति-२४० अनुमतिपुच्छा-६४ अनुमोदनसम्पटिच्छनेसु-११० अनुयोगो-७३ अनुरुद्धत्थेरं -१५ अनुरूपधम्मवसेन-१०५ अनुलोमपटिलोमसङ्केपवित्थारादिवसेन -२० अनुवाचेन्ति-२२१ अनुवादो-२५९ अनुविलोकेति-५७,१२७,१५८ अनुसङ्गीता-२ अनुसज्झायन्ति-२२१ अनुसन्धिवसेन - २५,८६ अनुसयप्पहानं-२० अनुसासनीपाटिहारियन्ति--२९१ अनुसासनीपाटिहारियं-२९२ अनुस्सरणं-१२८ अनूनाधिकवचनं-१४५ अनूनाधिकाविपरीतग्गहणनिदस्सनं-२९ अनेकजातिसंसारं-१६ अनेकज्झासयानुसयचरियाधिमुत्तिका-१९ अनेकपरियायेनाति-३६ अनेकप्पकारं-२५,२१५ अनेकविधानि-९० अनेकानुसन्धिकं-२५ अनेसनवसेन-२६०,२६१ अनेसनं-१३९,२६०,२६१ अनोमगुणो-२३२ अन्तरकरणं-२६४ अन्तरधानन्ति-१८१ अन्तरन्तरा-६८,११९,१८३, २७०, २८१,३०० अन्तरवीथियं-१३० Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ अ-अ ] अन्तरवीथि - ४४ अन्तरापत्ति - २५ अन्तरायकरो - २९७ अन्तरायकरोति - २९७ अन्तरायिकधम्मे - ४३ अन्तरा - सद्दो - ३५ अन्तलिक्खचरा - ९५ अन्तसञी - ९८ अन्तानन्तिकवादे - १०१ अन्तानन्तिका - ८९ अन्तेपुरपालका – १२४ - अन्तेवासिको - १८७ अन्तेवासी - ३६, ३७, ३९, ४९ अन्तोजालीकतभावदस्सनं - १०८ अन्तोजालीकता - १०८ अन्तोनिज्झायनलक्खणो - १०३ अन्धपवेणी - ३०२ अन्धपुथुज्जनो - ५६ अन्धबाला - २३३ अन्धवेणीति - ३०२ अन्धा - २८२,३०२ अन्धाति - २८२ अपगब्भो - ३६ अपचितिकम्मं - २०७ अपण्णत्तिकभावं - १०९, २९४ अपतनधम्मो - २५२ अपदानं १५ अपनीतकाळकं - २२१ अपनीतपासाणसक्खरो - १७९ अपरन्तकप्पिका- १०१ अपरप्पच्चयो - २२४ अपराधकारको १२८ अपराधं - १२७, १९१ अपरामासपच्चया - ९३ अपरिक्खीणंयेव - २०० अपरिपक्किन्द्रिया- १९६ सद्दानुक्कमणिका अपरिपूरकारीति - ३२ अपरिमितकालसञ्चितपुञ्ञबलनिब्बत्ताय - ४० अपरियापन्नभावं - १०८ अपरिसुद्धोति - २१५ अपरिहीनज्झानो - १०१ अपलिबुद्धाय - २२७ अपापपुरेक्खारोति - २३१ अपायभूमिं - १८९ अपायमुखानीति - २१७ अपारुतघराति - २३९ अप्पटिवत्तियवरधम्मचक्कप्पवत्तनस्स - ५८ अप्पटिसन्धिकंव- १८२ अप्पट्टतरं - २४४ अप्पणिहितानुपस्सनाय - ५९ अप्पत्तभावं - २१९ अप्पदुक्खविहारी - २६० अप्पनासमाधिना - १७६ अप्पपुञ्जो - २६० अप्पमत्तकं - ५२, ५५, ६६, २६२ अप्पमत्तोति - २७० अप्पमाणसञ्ञीति - १०२ 5 अप्पमाणाधम्मा १८ अप्पमादेन - १६, ४५ अप्पसद्दकामोति - २७३ अप्पसद्दं - १७०, २७३ अप्पसमारम्भतरं - २४४ अप्पसावज्जो - ६५, ६७, ६८, ७० अप्पहीनकामच्छन्दनीवरणं - १७३ अप्पहीनो - २५० अप्पातङ्कोति - २८७ अप्पातङ्कं - २८, २०४ अप्पाबाधं - २८, २०४ अब्भन्तरे - ८९, १५८, १६१, १६२, १६३, १६४, २३४, २३५ अब्भा - ११९ अब्भाकुटिकोति - २३१ [4] Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [६] अब्भाचिक्खति - २२ अब्भुग्गतोति - १२२ अब्भुज्जलनन्ति - ८५ अब्भुतधम्मन्ति - २४ अब्भुतधम्मं - २४ अब्भोकासट्टाने - १८१ अब्भोकासो - १४८ अब्यासेकसुखन्ति - १५० अब्रह्मचरियन्ति - ६७ अभयं - २४६ अभारिको - २०४ अभिक्कन्ततराति - २९३ अभिक्कन्तसद्दो- १८४ अभिक्कमनचित्ते - १५१ अभिज्झादोमनस्सा - १५७, १५८ अभिज्ञा - २२, ८७, १०५, १४४, २५२, २७०, २८३ अभिञ्ञाञाणन्ति -- २९३ अभिज्ञातकोञोति - २०३ अभिञाता - १८, ३०० अभिञाधिगमो - १७८ अभिधम्मकथं - २८१ अभिधम्मपिटकन्ति - १६, १९ अभिधम्मपिटकं - १५, १७, १९, २४, २५, ८८ अभिधम्मोति - १५ अभिनन्दित्वा - ११०, १४१ अभिनिक्खमनसमयो - ३३ अभिनिरोपनलक्खणो - २५२ अभिनिरोपनलक्खणं - ६० अभिनिवेसं - ५९ अभिनीहरतीति - १७८, १८२ अभिनीहारं - ४८ अभिभू - ६३ अभिमुखं - १३१ अभिवादनादिसामीचिकम्मं - ३६ दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गट्ठकथा अभिसङ्करणलक्खणं - ५९ अभिसङ्करोतीति- २७७ अभिसञ्ञानिरोधं - २७७ अभिसद्दो- १८ अभिसमयो - २० अभिसम्बुद्ध - ४२, ६१, ६२, ६३ अभिसम्बुद्धोति - ५६, ६१ अभिसम्बुद्धं - ६३ अभिसित्तराजानो - २०७ अभूतं अभूततो-५० अमच्चा - ११५, ११६, १२०, २२० अमतमहानिब्बानं – ४६ अमतं - १७६, २३०, २८२ अमधुरं - २४० अमनुस्सग्गाहो - १०४ अमराविक्खेपिका- ८९, ९८ अमुञ्चितुकामताय - १०० अमोघता - ५२ 6 कुलमूलजनितकम्मानुभावेनाति - २०२ २१३, २१४, २१५, २१६, २२० अम्बठ्ठकुलं - २०३ अम्बट्टो - ३६, २०३, २०४, २०५, २०६, २०८, २१२, अम्बपिण्डी - १०९ अम्बलट्ठिका - ४१, २३७ अम्बवने - ११३, ११४, १२६, २९०, ३०० अम्बाटकादीनं - २१९ अम्बिलयागुआदीनि - २१८ अयकारदन्तकारचित्तकारादीनि - १३१ अयपट्टेन- २८७ अयानभूमिं - २०३ अयोगुळकीळा - ७७ अयोनिसोमनसिकारोपि - ९३ अरञ्ञवासो- १६९, १७० [ अ-अ अरञ्ञसञ्ञा- १९५ अरणी - २१७ अरतिं - ५९ अरहतन्ति - २००, २७० अरहत्तजयग्गाहं - २८४ ] Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [अ-अ] सद्दानुक्कमणिका अरहत्ततो-२४८ अरहत्तनिकूटेन-४६, १८३, २३५, २७०, २८५ अरहत्तप्पत्तदिवसे-१५५ अरहत्तप्पत्तिं -११ अरहत्तफलचित्तस्सेतं-२५२ अरहत्तफलमेव-२६६ अरहत्तफलसञ्जा-२७९ अरहत्तफले-१४३,२९२ अरहत्तमग्गो-१४३ अरहत्तविमुत्तिवरविमलसेतच्छत्तपटिलाभस्स-५८ अरहत्तं-१०,१३३,१५१,१५५,१५६,१७५,२३४, २३५, २५७, २६१, २७२ अरिट्ठकण्टकसदिसा-१३७ अरियधम्मपरम्मुखानं-५६ अरियपुग्गलसमूहो-१८६ अरियफलेहि-१८५ अरियफलं-१३१ अरियभूमि-१५४,१७०, २९७ अरियमग्गसम्फस्सं-१०९ अरियमग्गो-१४५, १४७, १८५ अरियसच्चधम्मो-२२४ । अरियसच्चानि-६१,८८, १८८ अरियसावको-११९,१८९, २४६ अरियसीलीति-२३० अरियो-८८,१३१, १४७,१८५, २८१,२८८,२८९ अरुणोदये-२७५ अरूपअत्तभावपटिलाभेन -२८३ अरूपज्झानलाभीति-१७८ अरूपज्झानानि-१७८,२८९ अरूपभवं-२८३ अरूपसमापत्ति-२८९ अरूपसमापत्तिनिमित्तं-१०१ अरूपावचरदेवलोको-१४३ अरूपी अत्ता-१०१ अरोगो-१०१,२१० अरोगोति-१०१ अलगद्दगवेसी-२१ अलग्गचित्तताय-४ अलङ्कतदण्डकं-८० अलङ्करणकालो-५४ अलङ्कारो-२४० अलब्भनेय्यपतिट्ठा-२०,८७ अलमरियाणदस्सनविसेसो-३७,१७८ अलमरियाति-२६२ अलम्बुसं-२७४ . अलाबुकटाहं - २०७ अलोभकुसलमूलजनितकम्मानुभावेन -२०२ अल्लकप्परटुं-२५६ अल्लसाकभक्खो-२६५ अल्लापसल्लापो-२९७ अवक्खित्तमत्तिकापिण्डो-२३३ अवण्णभूमियं-५० अवन्तिरटुं-२५६ अवबोधो-२० अवसेसलोकं- १४४ अवसेससब्बसत्तलोको-१४३ अवसेससमापत्तीसुपि-२७८ अविकलिन्द्रियं-१७९ अविक्खित्तचित्तो-१४१ अविक्खेपलक्खणं-६०,६१ अविज्जन्धकार-२५३ अविज्जमानपञत्ति-३० अविज्जा-८८,९३,१०७ अविज्जानिरोधा-९३ अविज्जापच्चयसम्भूतसमुदागतट्ठो-६१ अविज्जासमुदया-९३, १०८ अवितथं-५७,५८,५९,६१,६२ अविनयवादिनो-५ अविनयो-५ अविनासेन्तोति-२०४ अविनिपातधम्मोति-२५२ अविपरीतावबोधसङ्घातो-२१ Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [८] दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गट्ठकथा [आ-आ] अविप्पटिसारपामोज्जपीतिपस्सद्धिधम्मेहि-१५० अविमुत्ततन्तिमग्गा-२ अविसयभावं-२९३ अविसयो-८८,८९ अविसुद्धता-८४ अविसंवादको-६८ अवीचिं- ६३, २०५, २८६ अवीतिक्कम्म-२२८ अवेरन्ति-२६६ अवेलाय-१४० असकमनो-२०६ असञकभावं-२७४ असञ्जसत्ताति-१०० असञ्जीवादा-८९ असति-७९,१६५, २३४,२३९,२४१ असतिपि-१२४ असदिससंयोगे-२१० असप्पुरिसभूमि-३१ असब्भिवाक्यं-१९७ असमुप्पन्नकामचारो-- २७६ असम्पटिच्छनकालतो-२९८ असम्पवेधीति-२०२ असम्फुट्ठलक्खणं-५९ असम्मोसेन -३० असम्मोहतो-२०,२५३ असम्मोहधुरं - १६५ असम्मोहसम्पजज्ञन्ति-१५१,१६१ असम्मोहसम्पजनेन-१६२ असम्मोहसम्पजङ-१५६, १५७, १५८, १५९,१६०, १६१,१६२, १६३,१६४ असम्मोहेन-३० असाधारणभावं-६६ असामपाका-२१८,२१९ असिं-८० असीतिमहाथेरा-४०,१४३ असुकनक्खत्तेन-८४,८५ असुकब्राह्मणो-२४२ असुकसंवच्छरे -३२ असुक्खं-७५ असुद्धभावं-२०८ असुभदस्सनम्पि-१५२ असुभं-१५१,१५२ असुरा-४८ असुरिन्दाति-२३० असेट्ठचरियं-६७ असोमनस्सिकाति-४९ असंकिण्णपुब्बानि-२४६ असंकिण्णानि-२४६ असंवरं-२६१ अस्सत्थदुमराजानं-५५ अस्सत्थो-७५ अस्सयानरथयानानि-१२३ अस्साचरियअस्सवेज्जअस्समेण्डादयो-१३१ अस्सादञ्च -९४ अस्सुमुखा- २२९, २४२ अहिरीका-७० अहिविज्जाति-८३ अहीनिन्द्रियोति-१०३ अहेतुकवादा - १३७ अहेतुकसझुप्पादनिरोधकथावण्णना - २७५,२७६,२७८ आ आकासधातु-१६३ आकासानञ्चायतनब्रह्मलोकतो-२८३ आकासानञ्चायतनस -५९ आकासानञ्चायतनसमापत्तिया-५९ आकिञ्चायतनसलं-५९ आकिञ्चायतनसमापत्ति-२७७ आकिञ्चचायतनसमापत्तिया-५९ आकिञ्चज्ञायतनं-२७७,२७८ आकिण्णमनुस्सं– १९८ Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [आ-आ] सद्दानुक्कमणिका आकिण्णवरलक्खणो-१२७ आकुलभावो-८४, २४८ आख्यातपदन्ति-२७ आगतभावं-२२२ आगदो-६२ आगन्तुकभिक्खं - २९६ आगमनमग्गो--१७७ आगमब्यत्तिसिद्धि-३० आचमनन्ति-८६ आचरियन्तेवासिका-३८ आचरियभावो-२८० आचरियुपज्झायपलिबोधो-७ आचरियुपज्झायवत्तादीनि - १५२ आचरियुपज्झाया-७० आचरियोति - १२०, १५३, २३२ आचामोति-२६५ आचारगोचरसम्पन्नोति-१४९ आचारसीलमत्तकमेव -६६ आजीवपारिसुद्धिसीलं-१४९ आजीवोति-१९०, २५४ आणण्यनिदानं-१७२ आणण्यसदिसं-१७४ आणत्तिको-६५ आणाचक्कन्ति-२१३ आणाचक्कं-९ आणाठपनसमत्थताय-२४० आणादेसना-१९ आणाबाहुल्लतो-१९ आणारहेन-१९ आतापी-५४,२७० आतापीति-२७० आथब्बणपयोगं-२७५ आथब्बणवेदं -२०० आदासपहन्ति-८५ आदिकल्याणं-१४५ आदिच्चुपट्ठानन्ति-८५ आदिट्ठञआणन्ति-८३ आदिमज्झपरियोसानं - १४४, १४५, १७४, १७५, १८३ आदीनवानुपस्सनाय-५९ आदीनवं-४९, ५०,५१, २८१, २९१, ३०४ आदेसनापाटिहारियन्ति-२९१ आदेसनापाटिहारियेन-२९२ आनन्दत्थेरो-८,११,२८७ आनन्दोति-२८,१०९ आनापानचतुत्थज्झानं-५५ आनिसंसकथाय - २८१ आनिसंसफलं-१८८, १८९ आनुभावं-११ आपोकसिणं-५४ आपोधातु-१६३ आपोधातूति- १५७ आबाधजराभिभूतो-१६६ आबाधिको-१७२ आबाधो-१७२,२८८ आभरणसम्पत्तिया - १२५ आभरणानि-४४ आभोगसमन्नाहारो-२७७ आभोगो-१०४ आमकधञपटिग्गहणाति -७२ आमकमंसपटिग्गहणाति-७२ आमलकं-४२ आमिसगहणत्थं-२१८ आमिसपटिसन्थारं-७६ आमिसलाभो-१६१ आमिससन्निधि-७६ आयतनलक्खणं-६० आयतनसद्दो-१०६ आयतनानि-८८,१०६, १०७, २८४ आयमुखन्ति-१७७ आयुसङ्खारोस्सज्जनेन-१११ आयूहनट्ठिति-८८ Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१०] दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गट्ठकथा [इ-इ] आसनसाला-२७७ आसनसालाय -१५३, २७७ आसन्दिपञ्चमाति-१३७ आसप्पनपरिसप्पनं-१७४ आसभिवाचाभासनं-५८ आसयसुद्धिया-३० आसयसुद्धिसिद्धा-३० आसवक्खयाणन्ति-१८३ आसवक्खयजाणं-१८३, २४८ आसवानं-४८, १८१, १८३ आसळ्हिपुण्णमायं-१५५ आसेवनवसेन-९३ आहारनिरोधाति-१०८ आहारपटिकूलसानिद्देसतो - १६३ आहारसमुदया-१०८ आहारुपच्छेदेन -११५ आळारिकाति-१३१ आळिन्दन्ति-२०४ आयूहनलक्खणं -६० आरकभावं-२२१ आरका-१३८,२४६, २६६ आरक्खमनुस्सा-११४ आरञिको-१५६ आरद्धचित्ताति-२६९ आरद्धविपस्सको-१०८ आरद्धवीरियेनपि-२५४ आरम्मणपच्चयो-१५९ आरम्मणभयं-१२५ आरम्मणविभागो-१८३ आराधेतीति-२६८ आरामचारिकं-१२७ आरामोति-२७१ आरोग्यइस्सरियादीनं-८३ आरोग्यनिदानं -१७२ आरोहितुकामो-२०५ आलयसमुग्घातो-३८ आलयाभिनिवेसं-५९ आलसियो-१८० आलिन्दकवासी-१५४ आलोकनविलोकनं-१५९,१६० आलोकसञ्जीति-१७२ आलोकेति-१५७,१५९,१६० आलोपउद्धारणं-१६३ आलोपकरणं-१६३ आवज्जनकिच्चं-१५८ आवज्जनपरिकम्माधिट्ठानानि-५४ आवट्टनिमायं-२२० आवरणसङ्खातञ्च-१४० आवाहनं -८५ आवाहविवाहं-२१०,२१२ आविभूतकालोति-१७९ आवुतसुत्तं- १७९ आवुधन्ति-८३ आवुधवुट्ठिया-२१५ इच्छानङ्गलन्ति-१९७ इच्छितिच्छितक्खणे-१४० इज्झनलक्खणं-६० इट्ठानिट्ठारम्मणं-२९४ इणसामिके-१७४ इणं-८५, १७२,१७३,१७४ इतरीतरपच्चयसन्तोसेन - १६६,१६७ इतिवुत्तकन्ति-२४ इतिहासपञ्चमानं-२०० इथिकथापि-८० इत्थिकुमारिकपटिग्गहणाति -७२ इत्थिपुरिसरूपादिविचित्तं-८० इथिलक्खणादीनिपि-८३ इत्थिसद्दो-२११ इद्धिपाटिहारियआदेसनापाटिहारियानि-२९२ Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ई-उ] सद्दानुक्कमणिका [११] - इद्धिपाटिहारियञ्च -२९२ इद्धिपादइन्द्रियबलबोज्झङ्गमग्गङ्गसुत्तन्तहारकोति-४८ इद्धिपादानं-६० इद्धिमयोति-६५ इद्धिविधाणलाभी-१८० इद्धिविधजाणं-१८०,१८३ इद्धिविधादिपञ्चअभिञाकथा-१८० इद्धिविधं-२४७,२९१ इधलोकपरलोकअत्थनिस्सितं-२८० इन्दखीला-१७० इन्दधनुविज्जुलतातारागणप्पभाविसरविप्फुरितविच्छरितमिव -३९ इन्दनीलमणिमयं-१९८ इन्द्रियपरिपाकं-१९६ इन्द्रियसंवरादयो-२८९ इन्द्रियानि-१०३,१३७ इरियापथचक्कानं-२०२ इरियापथदिब्बब्रह्मअरियविहारेसु-११३ इरियापथबाधनं-११३ इरियापथानुबन्धनेन - ३९ इरुवेदयजुवेदसामवेदानं-२०० इसिपब्बज्ज-२०९ इस्सरियसम्पत्तिया -११४ इस्सरियसुखं -२०२ इस्सरोति-११४, २०२, २३९ उक्कापातोति-८४ उक्कुटिकप्पधानमनुयुत्तोति-२६५ उक्कोटनन्ति-७३ उक्कोटनसाचियोगो-७४ उक्कंसावकंसेति-१३६ उग्गतब्राह्मणो-२२६ उग्गहपरिपुच्छासवनधारणपच्चवेक्खणानि-५६ उच्चाकुलपरिदीपनं - २०० उच्चारपस्सावकम्मेति-१६३ उच्चासयनं-७२ उच्छङ्ग -११५ उच्छादनधम्मो-१७८ उच्छिन्नभवनेत्तिको-१०८, १०९ उच्छु-७५ उच्छेददि४ि-१०२ उच्छेदवादो-३६, २५८ उच्छेदं-९९, १०२ उजुप्पटिपन्नोति-५२ उजुमग्गो-३०१ उजुविपच्चनीकवादाति-३८,३९ उज्झानसञिनो-१८१ उञ्छाचरिया - २१८, २१९ उठाननिसज्जादीसु-२५० उण्णामयत्थरणं-७८,७९ उण्हत्तलक्खणं-५९ उण्हपकतिकस्स-१६१ उण्हलोहितं-११७ उण्हसमयो-३२ उत्तमजाणञ्च-२८३ उत्तमब्राह्मणस्स--२३३ उत्तमसम्पजानकारीति-१६२ उत्तमसूरा-२०२ उत्तरासङ्ग-४५,१८७ उत्तरिकरणीयन्ति-२८८,२८९ उत्तरिमनुस्सधम्माति-२९० उत्तानमुखोति-२३१ ईदिसवचनपटिसंयुत्तो-२०० ईसिकट्ठायिद्वितोति-९१ उक्कट्ठनामके-१९८ उक्कट्ठा-२१९ उक्का -१९८,२०८ Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१२] उदककिच्चं - १२१, १५६,१७० उदकधारा ५४ उदकबिन्दुं – १३६ उदकभाजना - १६४ उदकसकटं - १५६ उदकसोण्डी - १७० उदकोरोहनानुयोगमनुयुत्तो - २६३ उदकोरोहनानुयोगं - २६५ उदग्गचित्ता - ११० उदपादीति - ४२, १५०, २३८, २७४ उदपानभूतो - २४० उदयो - १२८ उदानगाथाति - १६ उदानं - १५, २४, ११९, १२७, १७५ उदाहरणघोसो - २२७ उदाहारं - ११९ उदुक्खलकिच्चसाधनं -- १६३ उदुम्बरो - ७५ उद्धग्गिका - १३१ उद्धच्चकुक्कुच्चप्पहानं - १७५ उद्धच्चकुक्कुच्चं - ५९, १७२, १७४, १७५ उद्धमाघातनिका - १०१ उद्धविरेचनन्ति - ८६ उन्द्रियस्तीति - २१५ उपकरणं - ६६, २३७ उपकारकधम्मा- २८९ उपकारपटिसंयुक्त्तञ्च - ८२ उपक्किलेसेहि - ११९ उपगतोति - १०३, १२७ उपचारवसेनपि - १७६ उपचारसमाधिना - १७६ उपट्टाकोति - १६९ उपट्ठानलक्खणं - ६० उपट्ठानसालापि - ४२ उपतिस्सकोलितानञ्च - ४१ उपद्दवो - १२५, २३२ दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गट्ठकथा उपनिधापञ्ञत्ति - ३० उपनिबद्धकुक्कुरो - १०७ उपनिस्सयकोटिया - १०७ उपनिस्सयपच्चयो - १६० उपनिस्सयो - १२४ उपपत्तिं - ९६, १०२ उपभोगसुखमनुभवति - २०२ उपयोगवचनं - ३५, ७८, १२२, १९८, २०१, २८० उपरिदन्तमुसलसञ्चुण्णितं - १६३ उपरिनिरोधसमापत्तत्थाय - २७७,२७८ उपरिमग्गत्थाय - १५२ उपवत्तने३ उपवरो - २०९ उपसन्तिन्द्रियं - १२७ उपसमगुणो - २६२ उपसमायाति - २८० उपसम्पज्जाति - २५२, २९१ उपसम्पन्नो – २७० उपादानक्खन्धे - १७१ उपादारूपं - २९४ उपादिन्नकफस्सादीसु – २२ उपायमनसिकारो - ९० उपारम्भमोचनत्थं - २१२ उपालि - ११, १२, १५६ उपासकचण्डालो - १९० उपासकत्तं - १८४ उपासकपतिकुट्टो - १९० उपासकपदुमञ्च - १९१ उपासक पुण्डरीकञ्च - १९१ उपासकमलञ्च - १९० उपासकरतनञ्च - १९१ उपासकविधिको सल्लत्थं - १८९ उपासकोति - १८९, १९० 127 उपाहना – ७६, ८० उपेक्खासम्बोज्झङ्गस्स - ६० उपोसथो - ११७, ११८, १४७, २०९, २१७ [ उ-उ] Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ऊ-ए] सद्दानुक्कमणिका [१३] उप्पण्डनकथं-२०५ उप्पत्तिआकारदस्सनत्थं -२२४ उप्पत्तिकारणं-२७४ उप्पत्तिद्वारदस्सनत्थं-१४९ उप्पन्नकिलेसं-१५४ उप्पन्नवितक्कं-१५४ उप्पलो-२२९ उप्पादनिरोधं-२७६,२८० उप्पादितभावं-३१ उब्मिन्नउदको-१७७ उभतो विभङ्गो-१३ उभतोउग्गतपुष्फन्ति-७८ उभतोपक्खिका-२३३ उभतोलोहितकं-७९ उभतोविभङ्गनिद्देसखन्धकपरिवारा-२४ उभतोविभङ्गावसानेपि-१३ उभयंसभावितानं-२५१ . उभयंसभावितोति-२५१ उम्मुज्जननिमुज्जनादिवसेन - ९८ उय्यानकप्परुक्खादयो-९५ उय्योधिकन्ति-७७ उरुञानगरं-२५९ उरुवेलगामे-५५ उलूकपक्खिकन्ति-२६५ उसिरद्धजो नाम पब्बतो-१४३ उसीरं-७५ उस्सङ्कितपरिसङ्कितोव-१७४ उस्सापितरजततोरणं-१९८ उस्सावबिन्दु-२२८ उस्साहजातो-१४२, २३९ उस्साहसत्तियोगो-२०२ एकक्खणे-५४ एकग्गचित्तो-१२२ एकग्गिजालभूतन्ति-२१३ एकचतुपञ्चक्खन्धप्पभेदा - १८२ एकचतुपञ्चवोकारभवेसु-१८२ एकच्चसस्सतवादा-८९, ९४ एकज्झासया-४३ एकतोउग्गतपुष्फन्ति-७८ एकत्तसञ्जी-१०२ एकन्तअसप्पायमेव-१६३ एकन्तपण्डितो-१३२ एकन्तपरिपुण्णं-१४८ एकन्तपरिसुद्धं-१४८ एकन्तफरुसचेतना-७० एकन्तसुखो-२८२ एकपस्सयिकोति -२६५ एकपुग्गलो-३८ एकभत्तिकोति-७१ एकमंसखलकरणनिदानं-१३३ एकरत्तिवासं-४१ एकरसलक्खणं-६१ एकविधं-१५,२५ एकसलाकतो-२४३ एकसालकोति-२७१ एकागारिकोति-२६४ एकादसपरिक्खारिकस्स - १६८ एकानुसन्धिकं-२५ एकारम्मणा-२५३ एकालोपिकोति-२६४ एकाहिकन्ति-२६४ एकिन्द्रियो-१३४ एकेकलोमकूपतो-५४ एकंसभावितो-२५१ ऊरुबद्धासनं-१७१ 13 Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१४] दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गट्ठकथा [ओ-क] एकंसिकाति-२८२ एवं अभिसम्परायाति-९३ एवंगतिकाति-९३ एवंपरामट्ठाति-९३ एसिकट्ठायिट्ठितो-९१ एहिभद्दन्तिको-२६४ एळकमन्तरन्ति-२६४ ओ ओकासलोको-१४२ ओकाससेनासनं-१७० ओक्काकमहाराजस्स-२११ ओक्काको-२०८, २१२ ओक्कामुखो-२०९ ओक्खित्तचक्खू-४० ओघोति-११९ ओट्ठगोणगद्रभअजपसुमिगमहिंसे-१३५ ओट्ठद्धो-२५५ ओतारणं-१६३ ओत्तप्पभयं-१२५ ओदनकुम्मासूपचयोति-१७८ ओनीतपत्तपाणिन्ति-२२४ ओपपातिकोति-२५२ ओभासनिमित्तकम्मन्ति-११९ ओरब्मिका- १३४ ओरमत्तकं-५२, ५४, ५५, ६६ ओरम्भागियानन्ति-२५२ ओसधीनं-८६ ओळारिकत्तभावपटिलाभेन-२८३ कक्खळत्तलक्खणं-५९ कच्छको-७५ कच्छपलक्खणं-८४ कटच्छुभिक्खं - १९६ कटुकरोहिणी-७५ कट्टिस्सन्ति-७८ कणन्ति-२६५ कण्टकवुत्तिकाति-१३४ कण्टकापस्सयिकोति-२६५ कण्डम्बरुक्खमूले - ५४ कण्णकत्थलं-२५९ कण्णजप्पनन्ति-८५ कण्णतेलन्ति-८६ कण्णसुखा-६९ कण्णसोतानुमसनेन-२२३ कण्णिकलक्खणं-८४ कणिक-४२, २४९ कण्हसप्पं-३७ कण्हाभिजाति-१३४ कण्हायनगोत्तस्स-२०७ कण्हो-२१५ कतकरणीयो-१८२ कतपापकम्मवसेन-२८१ कतभत्तकिच्चा-१०, १५३ कतसुधाकम्म-२२२ कतिकवत्तं-९,१५४,१५५ कत्तब्बकिच्चं-९ कत्तरदण्डं - ४०,६६ कत्ताति-६९,२३१ कत्तिकपुण्णमायं-१९६ कथाधम्मोति-४२ कथावत्यु-१७ कथेतुकम्यता पुच्छा-६४,६५,८७ कन्ता -७० कन्तारद्धानमग्गे-१७४ कन्दमूलफलभोजनं-२१९ ककचदन्तपन्तियं-३७ ककचूपमा-१०५ ककुसन्धो-५६ Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [क -क] सद्दानुक्कमणिका कन्दरसालपरिवेणे-२३४ कन्दरे-५५ कपणाति--२४० कपिलब्राह्मणो-२०९ कप्पकाति-१३१ कप्पसतसहस्साधिकानि-५५ कप्प-सद्दोपि-९० कप्पियकारकं -७२,१९१ कबळन्तरायो-२६४ कबळीकाराहारभक्खो-१०३ कमलकुवलयुज्जलविमलसाधुरससलिलाय -४७ कम्बोजो-१०६ कम्मकरणत्थाय-११५ कम्मकारोति-१३९ कम्मजतेजो-९७ कम्मजतेजोधातु-१५३,२२६ कम्मट्ठानवसेनेव-१५८ .. कम्मट्ठानविक्खेपो-१५५ कम्मट्ठानविनिमुत्ता- १५३ कम्मट्ठानविप्पयुत्तेन-१५४ कम्मट्ठानानि-२ कम्मट्ठानाभिमुखं - १७१ कम्मट्ठानं-४५, ४६, ४७, ९३, १५२, १५३, १५४, १५६,१६०,१६४,१६५, १७१ कम्मनिरोधा-९४ कम्मपच्चयउतुसमुट्ठाना- ९५ कम्मवाचा-७ कम्मसमुदया- ९३ कम्मस्सकतापञ्जा-२६७ कम्मस्सका-३७ कम्मानुरूपमेव -३७ कयविक्कयाति-७३ करजकायो- ९७, १७७, १७९, १८१ करणवचनं -४६ करणविज्जा-८३ करणीयेनाति - २२६, २४९ करुणाविहारेन-३३ करुणासीतलतो-१८५ करुणासीतलहदयं-१ कलम्बतित्थविहारे-१५५,१५६ कलहकारका-१५६ कल्याणपुथुज्जनो-५६ कल्याणवाक्करणो-२२७ कल्याणाधिमुत्तिका -४३ कल्याणियविहारे - १११ कसिगोरक्खादिकम्मं -९६ कसिणपरिकम्म-२५८ कसिणादिकम्मट्ठानिकेहि-१५८ कसिवाणिज्जादिकम्म-१४९ कस्सको-१४० कस्सप -४, २६१, २६३, २६६, २६७, २६९ कस्सपसम्मासम्बुद्धकाले-१९८ कस्सपसम्मासम्बुद्धस्स-२२१,२८१ कस्सपो-५६, ५७, ५९, २६३, २६६, २६९, २७० कळोपिमुखाति-२६४ काकणिकमत्तोपि- १७२ काकरुतजाणं-८३ काकं-२९३ कापोतकानीति-१३७ कामगुणा-१०३ कामगुणेहीति-१०३ कामच्छन्दनीवरणं-१७४ कामच्छन्दो-१७३,१७४ कामभवं-२८३ कामलापिनीति-२०८ कामवितक्का-१६७ कामवितक्कादिसम्पयुत्तो-२९१ कामसञ्जा-२७६ कामावचरदेवग्गहणं-१४३ कामावचरदेवलोको-१४३ कामावचरा-८८,२५३ कामावचरिस्सरो-१४४ 15 Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गट्ठकथा [क-क] कामासवाति-१८२ कामूपसंहितानीति-२५१ कामेसुमिच्छाचारा-१९०,१९६ कामेसुमिच्छाचारं - २४७ कायकम्मवचीकम्मेन-१४९ कायकम्म-१४९ कायगताय-१० कायदुच्चरितादीनं-१३३ कायप्पटिपीळनलक्खणं-१०४ कायफस्सायतनं-१०६ कायबन्धनबद्धं - २२३ कायबन्धनं-४४,४५,१६७,१६८,२७२ कायवचीद्वारानं-६५ कायसक्खिं-१५७ कायसम्मतो-१५७ कायसंसग्गवसेन - २२० कायिकचेतसिकसङ्घातेन-२७० कायिकचेतसिकसुखं-१५० कायिकवाचसिककीळासुखञ्च - ९७ कायूपगानि-४४ कारणखणचित्तवेमज्झविवरादीसु-३५ कारपटिस्सावी-१३९ कारुञतं -१४४ कालयुत्तं-४५, २३१ कालवादी-७० कालसम्पत्तिं-३५ कालामोति-१७८ कालुसियभावो-२२२ कावेय्यन्ति-८४ कासिकोसलादीसु-२२६ काळकारामगोतमकसुत्तेसु-१११ काळतिलकवङ्गमुखदूसिपीळकादीनं-१८० काळमेघराजि - १९८ काळवल्लिमण्डपवासी-१५५,१५६ किकीव-५३ किच्चकारकसमापत्तीनं-२७७ किच्चपरियोसानं-२४४ किच्छजीवितकरो-२८७ कित्तिघोसो-२७४ कित्तिसद्दोति-१२२ किरियमनोधातु-१५८ किरियमनोविज्ञाणधातु-१५८ किरियमयचित्तानहि-१६५ किलमतोति-१३२ किलेसक्खयभावाय-१८२ किलेसन्धकारे -२०३ किलेसरजानं-१४८ किलेसो --१५४, १७४ किसवच्छतापसे-२१५ किसो-१३५ कुक्कुटसेट्ठि-२५६ कुक्कुटारामो-२५७ कुक्कुरो-२५६ कुच्छितो-११४ कुच्छिपरिहारिका-१६८ कुज्झनभावं-२०६ कुञ्चिकाय-१६३ कुटिलयोगो-७४ कुट्ठरोगो-२१० कुत्तकन्ति-७९ कुत्तवालाति-२२१ कुदालञ्चेव-२१८ कुन्नदियं -५५ कुमारकवादेन -६ कुमारिकपञ्हन्ति -८५ कुम्भट्ठानकथाति-८१ कुम्भथूणन्ति-७७ कुम्भिकळोपियो-२६४ कुम्भिमुखाति-२६४ कुम्मासेन-१७८ कुलकोटिपरिदीपनं-२३४ कुलपरिवट्टाति-२३८ 16 Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ख-ख] सद्दानुक्कमणिका [१७] कुललं-२९३ कुलापदेसं-२०६ कुलावकेति-२०८ कुलूपकसमणो-१२२ कुसचीरन्ति-२६५ कुसलकम्मपथे-९९ कुसलकिरियाय-१४८ कुसलधम्मसमादानेपि-२६८ कुसलाकुसलानन्ति -१३६ कुसावहारोति-६७ कुसिनारं-५ कुसुमगन्धसुगन्धे-२२५ कुसोब्भे-५५ कुहका-८२ कुहनवत्थूनि-२६१ कूटट्ठो-९१ कूटदन्तो-२४८ कूटागारसालतो-२५० कूटागारसालायन्ति-२४९ केणियजटिलो-२१८ केवट्टो-१०८ केवलपरिपुण्णन्ति-१४५ केवलं-२२, ३१,४८,८४, ९१,९६,१०५, १२६, १३४, १३८, १६४, २२२, २३७, २४४, २४५, २८८,२९७,३०४ केसकम्बलो-१२१,२६५ केसकम्बलोति-१२१ केसकम्बलं-१२१ केसन्तपरिच्छेदं-८० कोञ्चसकुणानं-२४६ कोञ्चो-२०८ कोटिप्पत्तचित्तो-१३८ कोट्ठागारंतिविधं-२३८ कोणागमनो-५६ कोण्डञ - १३० कोतूहलमङ्गलिको-१९०, १९१ कोतूहलसाला-२७४ कोमारभच्चजीवककथावण्णना-१२२,१२४ कोमारभच्चवेज्जकम्म-८६ कोमारभच्चो-११३, १२५ कोमुदियाति-११८ कोलनगरन्ति-२११ कोलम्बे-५५ कोलरुक्खं-२११ कोलाहलो-२३८ कोलियो-१८८ कोविळारपुप्फसदिसानि-२१० कोसम्बियं-२५६, २५७ कोसम्बिं-२५७ कोसलकाति-२४९ कोसलेसु-१९४, १९७ कोसलेसूति - १९४, २९६, ३०० कोसेय्यन्ति-७८ कोसोहितेति-२२२ कंसकूटं-७३ कंसथालेति-१७६ खग्गविसाणकप्पोति-१६९ खज्जोपनकं-२९३ खणिकनिरोधे-२७४ खणो-३२ खण्डफुल्लप्पटिसङ्खरणं-८,९ खत्तविज्जाय-२२० खत्तिया-२०६ खत्तियाभिसेकेन-१५० खत्तियो-९६, २१५, २१६, २५१ खदिरङ्गारेहि-११६ खन्ति-२८० खन्तिसंवरो-२६३ खन्धका-१६ Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१८] दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गट्ठकथा खेमन्तभूमिं - १७४, १७५, १७६ खोकारो - ३६ ग खन्धधातायतनिन्द्रियानि - २ खन्धधातुआयतनकम्मट्ठानिकेहि - १५८ खन्धबीजं - ७१,७५ खन्धा - ४९, ८७, ८८, ९३, २८४ खन्धानंसमवाये - १५९ खन्धायतनधातुपच्चयपच्चवेक्खणवसेन - १५९ खयञणनिब्बत्तनत्थाय - १८१ खयमज्झगाति - १६ खयवयतो- १५१, १७० खयानुपस्सनाय ५९ खलिकन्ति - ७८ खादितब्बफलाफलगहणकाले खारीति - २१७ खारोदकं - ३७ खिड्डापदोसिका - ९७ - १- १६८ F खिड्डाभूमि - १३५ खिड्डारतिधम्मञ्च - ९७ खिप्पाभिज्ञो - १५६ खीणकामरागोति- २३० खीणासवभिक्खूयेव - ५ खीणासवसामणेरो- २१७ खीणासवो ९-२२, १०८, १८२, २५८ खीरदधितण्डुलादिके - २३८ खीरन्तरायो - २६४ खीरमिस्सके - २४६ खीरविरेचनं - ८, २८६ खुद्दकगन्थो - १५ खुद्दकचुण्णियइरियापथा - १६४ खुद्दकनिकायो - २४, २५ खुद्दक पाठादयो - २४ खुद्दक पाठो - १५ खुरधारूपमं - २१७ खुरप्पं- २१५ खेत्तं - ७२, ७३ खेमट्ठिताति - २३९ खेमन्तभूमिनिदानं - १७३ गगनतलं - ४० गग्गराति - २२५ गङ्गाय - ४३, २१४ गणसज्झायमकंसु – १२, १४ गणाचरिया - २६२ गणाचरियो - १२०, २३२, २७१ गणी - १२०, २३२ गण्ठनकिलेसो- १२१ गण्ठिका - १३५ गतत्तोति - १३८ गतपच्चागतवत्तं - १५४, १५५, १५६ गतिअत्थो - १८५ गतिविमुत्तं - १ गतेति - १६४ गन्थधरी - १०८ गन्धकुटिपरिवेणे - ४५, २३० गन्धकुटिं - ८, ४५, ४६, ११४, २०४ गन्धपुप्फादीनि - ४४, ४५ गन्धब्बा - ४८ गन्धारीति - २९१ गब्भावासेन - १७८ गभोक्कन्तिसमयो - ३३ गब्भं - ११४, २११ गम्भीरभावो - २०, २१ गरहणे - २७ गरहवचनमेतं - २२३ गरुचीवरं - १६६ गलग्गाहापि - २४४ गवा खीरं - २८४ गहकारक - १६ गहकूटं - १६ 18 [ग-ग] Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [घ-च] - ९६, १९० गट्टी - गहणलक्खणं - ६० गहपति - ३८, १४८, २५७ गहपतिको - १४० गहपतिमहासालो - २९० गाथाभिगीतं - २८ गामकथापि - ८० गामधम्माति - ६७ गामभागेन - २४३ गामसामन्ते - २१८ गिज्झकूटे - २६९ गिज्झकूटं - ११७ गिरिगुहन्ति - १७१ गिलानपच्चये - १६७ गिलानमञ्चे - ११७ गिहिभावं - २५१ गिहिसहायको - २८२ गिही जातो - १६० गीतन्ति - २२१ गुणकथं - ११९, १२३, २३२ गुणदोससल्लक्खणविज्जा - ८३ गुणदो - ८३, २०९ गुणधमेह - ८७ गुणसम्पदा - १८३ गुणानुभावं - १८३ गुत्तद्वारो - २८९ गुहाति - १७० गेय्यन्ति - २४ सद्दानुक्कमणिका गोतमाति - २०८, २१४, २४३, २६६, ३०१ गोतमं - ११७, २०१, २२६, २२८, २३१, २३३, २३४ गोत्तपटिसारिनोति - २१६ गोत्तवसेन - ६५, १९९ गोधालक्खणसदिसमेव - ८४ गोनकोति - ७८ गोपदकं - २२८ गोपालकगामं - २५६ गोमयसिञ्चनं - २३८ गोसालोति - १२१ घ घनताळं- ७७ घनपुप्फको ७८ घरमावसं - १८८ घरावासो - १४८ घानफस्सायतनं - १०६ घोरतपो - २७४ घोसकदेवपुत्तो - २५६ घोसितसेट्ठिना - २५७ घोसितारामे - २५४ घोसितारामो - २५७ चक्करतनं - २०२ चक्कवत्तिकाले - ११३ गोचरगामद्वारे - १९५ चक्कवत्तिबलेन - २१० गोचरगामं - ११३ गोचरसम्पञ्ञन्ति - १६० चक्कवत्तिराजा - ४०, २०२ चक्कवाळपरियन्तं - ९८ गोचरसम्पज - १५१, १५२, १५६, १५८, १६०, चक्कवाळमहासमुद्दे - ५५ - १६१, १६२, १६३, १६४ गत १११ गोतमगोत्तोति - १९९ गोतमसावकोति - ३१ 19 च चक्खुफस्सायतनं - १०६ चक्खुमा पुरिसो- १५५, १७९, १८१ चक्खुविञ्ञाणधातु - १५९ चक्खुविञ्ञाणं - १०६, १५८ [१९] Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२०] दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गट्ठकथा [च-च] चक्खुसद्दो-१५० चक्खुसोतविद्येय्या-६५ चकमनकाले-१६४ चङ्कमनकोटियं-१५५ चङ्कमाधिट्टानं - २२२ चङ्की-३०० चण्डहत्थिअस्सादयो- १५६ चण्डालपुत्तोपि-२१० चतस्सो सङ्गीतियो-१४ चतुइरियापथविरहितं - १० चतुत्थज्झानचित्तं -१८१ चतुत्थज्झानसुखं-१७७ चतुत्थज्झानिकफलसमापत्ति - २८३ चतुत्थज्झानं-१०१ चतुत्थमग्गेन - ५५ चतुत्तिंससुत्तसङ्गहो -३ चतुपरिक्खारवण्णना-२३९ चतुपारिसुद्धिसीलेन-२३०, २३४ चतुबिधो कोसो - २३८ चतुब्बिधं सम्पजच-१५१,१६५ चतुमधुरं-१६७ चतुमहापथे-२४० चतुमुखं पानागारं-२१८ चतुरङ्गिनिया-२०९, २११ चतुरिद्धिपादपटिलाभस्स-५८ चतुवीसतिसमन्तपट्टानं-८८ चतुसङ्घपं -८९ चतुसच्चविनिमुत्ता - २८१ चतुसतिपट्ठानादिनिस्सितं-१४५ चत्तारि असङ्ख्येय्यानि-५५, २९६ चत्तारो सतिपट्ठाना-८८ चन्दनं-५३ चन्दिमसूरियाति-१२७ चन्दिमसूरियानं-२०१ चन्दूपमं - ४९ चम्पकवनं-२२५ चम्पा-२२५ चम्पानगरस्स-२२५ चम्मखण्डं-१६८ चम्मयोधिनोति-१३१ चरणन्ति-२१७ चरणसीलो-२२८ चरिमकचित्तनिरोधेन-१८३ चरिमकचित्तं-१४८ चरिमकविज्ञाणम्पि-२९४ चरियापिटकबुद्धवंसेहि-१५ चलकाति-१३१ चातुयामसंवरसंवुतोति- १३८ चामरवालबीजनिं-८० चारिका-१९४ चारिकाति-१९७ चिङ्गलिकं-७८ चित्तकिरियवायोधातुविष्फारवसेनेव--१६२ चित्तकिलेससङ्गणिकं-१३९ चित्तगेलनं-१७२ चित्तनिरोधे-२७४ चित्तप्पकोपनो-५०,५२ चित्तवारभाजनं-२५ चित्तविवेको-१३९ चित्तविसुद्धिं-२५२ चित्तवुड्किराति-७० चित्तसण्हताय-७० चित्तसन्तानस्स-२९,३० चित्तसमाधिं-९१ चित्तसम्पदा-२६६ चित्तसाला-२०५ चित्तहत्थिसारिपुत्तपोट्ठपादवत्थुवण्णना- २८१ चित्ता-२०९ चित्तुप्पादो-१८६ चित्तो-२७२,२८१, २८२, २८३ चित्तेकग्गताय-६० चिन्तामणीति-२९१ 20 Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [छ - ज] सद्दानुक्कमणिका [२१] छन्दरागविनयो- ९४ छन्त्रपरिब्बाजको-३६,२६०, २७१ छन्नं-५४, १०७,१०८,११९, १३४, २९७ छब्बण्णरस्मियो-३९,४४ छम्भितत्तं - ९५,१७४ छयोजनसतिकं-१९६ छवदुस्सानीति-२६५ छविरोगो-२११ छळभिआनं-१९५ छळाभिजातियोति-१३४ छातकभयेन-२५६ छिन्नमूलका-१८३ छेको-१७६, २५३, २७५ छेदनन्ति-७४ चिरकालप्पवत्तकुलन्वयोति - २२८ चीवरकुटिदण्डके-१६० चीवरकुटिं-१७१ चीवरसिब्बनकाले-१६८ चीवरं-७, १०, १२, १४, ४४, १५३, १५५, १६१, १६२, १६६, १६७, १९५ चुतिचित्तनिरोधेन-१०१ चुतिलक्खणं-६० चुतिं - १०२ चुन्द - ६२ चूळनिद्देसे-२९५ चूळराहुलोवादसुत्तं-४८ चूळसीहनादं -४९ चेतकत्थेरेन-८ चेतकोति-२८८ चेतना-६७, ६९, ८८ चेतनालक्खणं-६० चेतसिकन्ति-२९१ चेतियङ्गणबोधियङ्गणवत्तं - १५२ चेतियदस्सनं-१५१ चेतिरटे - २८८ चेतोपरियाणं-१८३, २४८ चेतोविमुत्तिन्ति-२५२ चेतोसमाधिन्ति-९१ चेलकाति-१३१ चोरकण्टकरहिता - २३९ चोरघातका-१३४ चोरबलं-१२६ जङ्घविहारन्ति-३०० जङ्घविहारवसेन- १९६ जटन्ति-५४ जनताति-२५० जनपदकल्याणीति-२८२ जनपदत्थावरियप्पत्तोति-२०२ जनपदो-१९४, २०२, २२५, २३७, २३८ जनवसभो-११६ जन्तुकुमारं- २०९ जम्बुदीपतले - ११४ जम्बुदीपस्स-५१ जराजिण्णताय-२२८ जलजकुसुमविचित्तानि-१९९ जवनं-१५८,१५९ जागरिते च सम्पजानकारी-१६५ जातकन्ति-२४ जातवेदो-१८३ जाति-१६, ३८, ५७, ८८, १०७, १८२, २१२ जातिब्राह्मणानं-१९७ छड्डितपतितउक्लापा-९ छत्तमाणवकविमाने-१८५ छत्तं-५८,८०,१२६,१६८,१९९ छद्दन्तो-४० छन्दरागप्पहानं -९४ Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२२] दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गट्ठकथा [झ-ठ] झानरति-२४९ झानवेगो-१०१ झानसभा-२७८, २७९ झानसमापत्तिवित्थारो-२ झानसमापत्तिसुखं -१४४ झानादिपटिलाभाय-५१ झानानुभावसम्पन्नो-९१ झानाभिञादिगुणयुत्तं-१२१ झानं-४,१७६,१९६, २१७,२४७,२७७ जातिवण्णमन्तसम्पन्नो - २३४ जातिवादोति-२१६ जातिसमयो-३३ जातिसम्भेदं -२१० जानपदाति-२३९ जालिनी-२०९ जालियसुत्तं - २५६ जालियोति-२५७ जिगुच्छा - २६७ जिगुच्छामीति-२९१ जिण्णो- २२८ जिनभूमि-१३५ जिनवचनं अप्पेति-३१ जिया-१६९ जिव्हानिबन्धनन्ति-८५ जिव्हाहत्थपरिवत्तकं-१६३ जीरणलक्खणं-६० जीवको कोमारभच्चो - १२५ जीवकोति-११३ जीवतीति-११३ जीवसञी - १३४ जीवितन्तरायो-१६४ जीवितपरिच्चागमयं-२४५ जीवितपरिच्चागवसेन-२४५ जीवितपरियादाना-१०९ जीवितब्रह्मचरियानं -१५१ जीवितसिनेहञ्च-२४७ जीवितिन्द्रियुपच्छेदकउपक्कमसमुट्ठापिका-६५ जीवितिन्द्रियं-६५ जुहनं - ८३ जूतप्पमादट्ठानं-७८ जेट्ठमूलसुक्कपक्खपञ्चमिययेव-७ जेट्ठोहमस्मि-५७ जेतवनमहाविहारे-८ आणकरुणाकिच्चसमयेसु-३३ आणजालं-१९७ आणतस्सनाति-९५ आणदस्सनन्ति-१७८ आणदस्सनविसुद्धत्थं-१७८ आणभयं-१२५ आणसम्पयुत्तमहाकिरियचित्तेसु-८७ आणसंवरो-२६३ आणं-२०, ५५, ८७, ८८, ८९, ९०, १०४, १५०, १८१,१८२, २५१ जातिपरिवट्टो-१४०, १४९ ठपितद्वत्तिंसचन्दमालाय - ४० ठानगमननिसज्जसयनप्पभेदेसु-११३ ठानुप्पत्तिकपटिभानवसेन-८४ ठिते सम्पजानकारी-१६५ - स Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [त-त] सद्दानुक्कमणिका [२३] तक्कपरियाहतं-३७ तक्की --९२ तक्कीवादो-९८ तगरं-५३ तङ्खणधोतपरिसुद्धेन - १७७ तण्डुलभिक्खं-२१८ तण्हाकप्पो-९० तण्हातस्सना-९५ तण्हाति-१०७ तण्हादिविसंकिलेसप्पहानं-२० तण्हानिरोधा-९४ तण्हासङ्खातेन-१०५ तहासमुदया- ९३ तण्हूपनिबन्धना - १०९ ततियज्झानसुखूपमायं - १७७ ततियज्झानेन-५९ ततियसिद्धि-२०३ ततुत्तरियलक्खणं-६१ तथत्तायाति-२६८ तथधम्मा-६१ तथलक्खणं-५६,५९,६१ तथवादिताय-५६,६२ तथाकारी-६२,६३ तथागतवचनं-२४ तथागतसद्दो- १४२ तथागतोति-५६,६१,६२,६३,९४,१०० तथावादी-६२,६३ तथावित्तिसमुट्ठापिका-६७ तदङ्गप्पहानं-२० तदङ्गविक्खम्भनविमुत्तियो-२६७ तनुकखेळो-१६३ तन्तिधर्म-२५४,२६६,२७६,२८८ तपब्रह्मचारीति-२६९ तपेनाति-१३६ तपोजिगुच्छवादाति-२६७ तपोपक्कमाति-२६३ तप्परायणता- १८७ तम्बपट्टवण्णेन-११४ तम्हा काया- ९७,१०१ तयो वेदा-२१६ तयोअत्तपटिलाभवण्णना- २८२, २८४ तरितुकामो-२०५ तरुणअम्बरुक्खो-४१ तरुणपीति-२८३ तरुणमेण्डका-२३७ तस्सज्झासयं-२३० तळाकानि-१९९ तापसपब्बज्जा-२१७, २१८,२१९ तापसपरिक्खारा-२१७ तापसा- २१८, २५७ तारागणपरिवुतो-१२७ तारुक्खो-३०० तावतिंसपरिससप्पटिभागाय-२५० तावतिसादयो-४८ तिकचतुक्कज्झानभूमियं - १०२ तिक्खत्तुं पदक्खिणं-५५,१५३, १९२ तिक्खपो- ९२ तिणसन्थारकेनपि-१६७ तिण्णविचिकिच्छो - २२४, २५८ तिण्णविचिकिच्छोति-१७२ तितिक्खाकारणं- १७३ तिथियपरिवासो- २६९ तित्थियमद्दनं-५४ तित्थियवसेन-२६० तित्थियवादपरिमोचनत्थञ्च -९ तित्थिया-९,९३, २७४, २८२,३०२ तित्तिरजातके-१४७ तिन्दुकाचीरे-३२,२७१ तिन्दुकाचीरो-२७१ Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२४] दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गट्ठकथा [थ-द] तेविज्जसुत्तं -३००, ३०६ तेविज्जा-३०२ तोदेय्यपुत्तो-२८ तोदेय्यब्राह्मणस्स-२८६ तिपिटकमहासिवत्थेरो-१६४,२७९ तिपिटकसब्बपरियत्तिप्पभेदधरे-५ तियोजनसतिकं- १९६ तिरच्छानकथा-४७,८० तिरच्छानयोनि-२९७ तिरियं-६३,७९, ९८ तिरोरट्ठाति-२३१ तिलक्खणब्भाहतं-१२१ तिवग्गसङ्गहानि-२३ तिवटैं-८८ तिविधसत्तियोगफलं-२०२ तिविधसीलपारिपूरियं-२४७ तिविधसीलालङ्कतं-१४ तिविधेनसन्तोसेन-१४९ तिविधं सीलं-४६,८६,२१७,२५४,२५८ तिसन्धिं-८९ तिस्समहाराजा-२३५ तिस्ससामणेरस्स- १९४, १९५ तिस्सो विज्जा-२२ तीरणपरिज्ञाय-६३ तीरणाय-६४ तुट्ठचित्ता- २४३, २६९ तुण्हीभावे सम्पजानकारी-१६५ तुण्हीभूतो-५०, १२२,१६५ तुरितचारिका - १९४, १९५ तुलाकूटं-७३ तुसितभवनतो-१४३ तूलिका-७८ तेजोकसिणं-५४ तेजोधातु-१५३,१५७,१६३ तेलस्थिको-२९३ तेलनालिका-१६८ तेलपज्जोतं - १८५ तेलमधुफाणितादिपणीतभेसज्ज-१६७ तेलं नदी-६७ तेविज्जके-२०१ थण्डिलसेय्यन्ति-२६५ थपति-१४९ थालिपाकेति-२१५ थावरकम्म-६ थावरभावं-२०२ थावरो-६५ थिनमिद्धनीवरणं-१७५ थिनमिद्धप्पहानं-१७५ थिरकथो-६८ थुतिघोसो-१२२ थुसोदकन्ति-२६४ थूणं नाम ब्राह्मणगामो-१४३ थेतो-६८ थेय्यचित्तं-६७ थेय्यावहारो-६७ थेरगाथा - १५,२४ थेरवंसपदीपानं-२ थेरासनं-१० थेरीगाथा-२४ थोकं- १०,७४, २९३ थोमनवचनानि-११९ द-कारस्स-६२, ६३ दक्खिणजनपदन्ति-२१४ दक्खिणापथोति-१०६,२१४ दक्खिणेय्यं -- १९०,१९१ दक्खोति - १७६ Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [द-द] सद्दानुक्कमणिका [२५] दण्डकसञ्जी-२६३ दण्डकीरो-२१५ दण्डतज्जिता-२४२ दण्डप्पहाराति-२४४ दत्तुपञत्तन्ति-१३७ दधीति- २८४ दन्तकठ्ठच्छेदनवासि - १६७ दन्तखचितं -१०, १२, १३, १४ दन्तमयसलाकानि-२४३ दन्तवक्कलिका-२१८,२१९ दमिळकिरातसवरादिमिलक्खूनं-१४५ दलिद्दमनुस्सा- २४० दसनखसमोधानसमुज्जलं-१२२,१९२ दसपरिक्खारिकस्स-१६८ दसबलं-४१, २०५,२५१ दसवग्गपरिग्गहोति-२३ दसविधपटिकूलभावपच्चवेक्खणतो-१६३ दससहस्सिलोकधातुकम्पनं-१४,४६ दससंवट्टविवट्टकप्पानि-९२ दस्सनकिच्चं-१५८ दस्सनलक्खणं-६०, ६१ दस्सनविजहनट्ठानभूमियं-१९२ दस्सनविसयं-१९२ दस्सनीयोति - २२७ दानपारमिं-५७ दानसालाय-२४३ दानसीलादिवसेन -४६ दानसूरो-२४० दायकचित्तम्पि-२४० दायकोति-२४० दारुक्खन्धूपम-४९ दासब्याति-१७२ दासभावा-१७२ दासाति-२४२ दासिकपुत्ताति-१३१ दासिदासपटिग्गहणाति-७२ दासिपुत्तभावं-२१३ दासो-१४०, १७३, १७५, २१३, २४० दिट्ठधम्मनिब्बानवादा-८९,१०३ दिट्ठधम्मनिब्बानसम्पत्तिं-१०३ दिट्ठधम्मनिब्बानं -१०३ दिठ्ठधम्मसुखविहारसमयो-३३ दिट्ठधम्मिकसम्परायिकं-२३६ दिट्ठधम्मोति-१०३ दिट्ठसंसन्दना पुच्छा-६४ दिट्ठिकप्पो-९० दिट्ठिगतमहन्धकारं-११० दिट्ठिविनिवेठनकथा -२० दिट्ठिविसुद्धिया-६१ दिट्ठिवेदनं-१०७ दिट्ठिसम्पन्नो-१८९ दि8-२९,६२, ६४,२०८, २९६ दिन्नादायी-६७ दिब्बचक्खुको-१५६ दिब्बचक्खुजाणं- १८३ दिब्बचक्खुना-४३ दिब्बचक्खुवसेन-१८३ दिब्बनाटकं-१९४ दिब्बसोतजाणं-१८३ दिसा-५३, ५७, ५८, १५७, ३०५ दिसाडाहोति-८४ दिसामूळ्हस्स-१८५ दीघनिकायोति-२३ दीघप्पमाणानं-२३ दीघभाणका-१५ दीघमग्गन्ति-३५,१७३ दीघसङ्गीतियं-१४ दीघागमनिस्सितं-३ दीघागमो-३ दीघायुकदेवलोके - ९५ दीपङ्करपादमूलतो-१४३ दीपवासीनमत्थाय-२ Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२६] दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गट्ठकथा [ध-ध] दीपोभासोपि-१५५ दुक्करकारिकसमयो-३३ दुक्खनिरोधगामिनी- १८२,२७६,२८१ दुक्खनिरोधोति-१८२,२८१ दुक्खमूलं-१८२ दुक्खसमुप्पादं - १८८ दुक्खानुपस्सनाय-५९ दुक्खूपसमगामिनं-१८८ दुक्खं-२१,६४,७६,९९,१०४,१३२,१८२,१८६, १८८,२१७,२१९, २२४ दुतियज्झानसुखूपमायं-१७७ दुतियज्झानसुखं-१७७ दुतियज्झानेन-५९ दुतियसन्दिट्ठिकसामफलवण्णना-१४० दुतियसिद्धि-२०३ दुद्धोतपत्तोपि-१६२ दुप्पटिपन्नो-२२ दुप्परिच्चजा-२४५ दुब्बलकोधो-९९ दुब्बलरागो- ९९ दुब्बुट्टिकाति- ८४ दुब्भगकरणन्ति-८५ दुरक्खातो-३७, ५० दुरनुबोधा-८७ दुल्लभो मनुस्सत्तपटिलाभो-४५ दुविधत्थेन-१९ दुविधंसरणगमनं-१८६ दुस्सील्यचेतनाय -७२ देय्यधम्मस्स-२४० देवदत्तो-११५,११९ देवपुत्तसदिसकाया-२०२ देवपुत्तो- ९७, १५६ देवमनुस्सा-५०,१०९,२३०,२६७ देवमनुस्सानं -३१, ४०, २४७ देवयानियमग्गोति -२९३ देवलोकगमनमग्गो-२९२ देवलोकगामिनिं-२९७ देवविमानसिरिं-९ देवानमिन्दो-१५५,१८९ देसकसम्पत्तिं-३५ देसनाकुसलो-४९ देसनागम्भीरो-१४२ देसनाजालविमुत्तो-१०८ देसनापरियोसाने-१९७ देसनासमयो-३३ देसनासम्पत्तिं-३५ दोणमितेति-१३६ दोमनस्सन्ति-१६१ दोसपटिघद्वयं-१०० दोसमोहमदनिम्मदनं-६२ दोसिनाति-११९ द्वत्तिंसवरलक्खणमाला-४० द्वत्तिंससूरियमालाय-४० द्वादसपरिक्खारिकस्स-१६८ द्वादसयोजनाय-५४ द्वादससहस्सगन्थपमाणं-२०० द्वादसायतनानि-१०९ द्वारकवाट-२०४ द्वारविवरणकम-२०४ द्वासविदिट्ठिगतिका-१०८ द्वासहिदिट्ठिजालविनिवेठनं-१४ द्वासट्ठिदिट्ठियो-१०४,११० द्विन्द्रियो-१३४ द्वेपासाय-६२ द्वलक्खणदस्सनवण्णना-२२२ द्वेळहकजातो-६४ धतरट्ठो-४० धनपरिच्चागं-२४४,२४५ धनुअगमनीयं-२१४ Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सद्दानुक्कमणिक धनुकन्ति - ७८ धम्मकथा - १५३ धम्मकथिको - १४५,१५६ धम्मकथिकोति - ३८ धम्मकार्य - ३४ धम्मकुसलो - २८ धम्मक्खन्धगणना- २५ धम्मक्खन्धवसेन- १५२५ धम्मक्खन्धोति - २५ धम्मगम्भीरो - १४२ धम्मचक्कप्पवत्तनं - ४८ धम्मचक्कं -- ९, २१३ धम्मचक्खुन्ति - १९२, २२४ धम्मचक्खु - १५०,२०३ धम्मचिन्तं - २२ धम्मजातं - २१, २९४ 1 धम्मभण्डागारिकत्तसिद्धि - ३० धम्ममयं - १५०, १९२ धम्मरतनवस्सं - २३६ धम्मराजा - ८९, १९१, १९७, २०२ धम्मरुचि - १४१ धम्मवस्सेन - १९६ धम्मवादिनो - ५ धम्मवादी - ७१ धम्मविचयसम्बोज्झङ्गस्स – ६० धम्मविनयसङ्ग्रहं - ९ धम्मविनयो - ४ धम्मसङ्गहो - १७ धम्मसङ्गाहकत्थेरा - १२ धम्मसङ्गाहका ८ धम्मसङ्गीति - ५, ६ धम्मसद्दो - ८६ धम्मसभायं - १०, ४५ धम्मसेनापति - २९२ धम्मसंहितन्ति - २८० धम्मस्सवनं – ४५, १५१, १७३ धम्मानन्ति - २२ धम्मानुधम्मपटिपत्तिपूरणत्थाय - २६८ धम्माभिलापोति - २० धम्मजालन्तिपि - १०९ धम्मट्टिततन्ति -- २८१ धम्मट्टितित्राणं - ८८ धम्मतासिद्धन्ति - २४६ धम्मत्थदेसना - २० धम्मत्थदेसनापटिवेधगम्भीरं - २८ धम्मदानेन - १९६ धम्मायतनं - १५९ धम्मासने - १२, १४ धम्मदायादा - २८ धम्मदीपस्स - ३१ धम्मदेसना - १२४, १८४, २९१, २९२ धम्मदेसनाकालो - ८ धम्मासोको - ८० धम्मिकथासमयो - ३३ धम्मिको - १९१,२०२ धम्मिया - २३६ धम्मोति - २०, ३८, ५१, १९१ धम्मधातु - १५९ धम्मनक्खत्तस्स - १७५ धम्मनियामतन्ति - २८१ धम्मनिरुत्तिपटिसम्भिदासम्पत्तिसब्भावं - ३१ धम्मनेत्तिंपतिट्ठापेति - ३१ धम्मपटिसम्भिदाति - २० धम्मपदे - २२९ धम्मपरायणो - १८७ धम्मप्पकासनं - २९ धातुकथा - १७ धातुक्खोभेन - १११ धातुपूजं - ७ धातुभाजनदिवसे - ३,७ धातुयो - ७, ८८, १०९, १५७, २८४ धातुविभङ्गसुत्तन्ति - ४८ [ध-ध ] 27 [२७] Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२८] नागदासो - १२८ धातुसमूहं - १६१,१६२ धारणबलं - २८ धारेतीति - १२१, १८५, २०० नागराजा - ४० - १६१ धुतङ्गसमादानवसेन - २६० धुतधम्मा- २ धुतवादी - १५६ धुनन्तो - २१६ धुवस - ५९ धोवनं - ७७ नागवम्मिकरुक्खादयो नागसेनत्थेरेनेव - २२२ नागसेनाति - २२३ नागावाससतेति - १३५ नागतस्स - २५० नाटक परिवारं - १२७ नापुत्तवादे -१३८ नापुतो - १२१ नादिब्रह्मचरियकन्ति - २८० नानत्तसञी - १०२ नानप्पकारपटिवेधाभावतो - ३० नानाकारनिद्देसो - २९ नानाकीळायो - १९४ नानातित्थिया - २७४ नानाधिमुत्तिकताञाणेन - ४३ नानानयनिपुणमनेकज्झासयसमुट्ठानंनानापथमण्डलं – ७८ न नक्खत्तकीळाय - १२४ नक्खत्तदिवसे- १७३, १७५ नक्खत्तपथं - ४८ नक्खत्तं - ८५, ९७, ११८, १७३, १७५ नखपत्ततुण्डादीहि - १६९ नगरद्वारसमीपं - २७२ नगरद्वारे - २४३ नगरभागेन - २४३ नगपरिब्बाजको - २५९ नच्चगीतवादितविसूकदरसना - ७१ 1 नतिट्ठभद्दन्तिको - २६४ नत्थुकम्मन्ति - ८६ नदिञ्च - ३५ नदीतित्थपब्बतादीसु - १९९ नन्दिमित्तो - ८० नन्दो - १३५, १५७, १५८ नमनलक्खणं - ६० नरकपपातं - ३७, २९८ नलाटच्छादनेन - २२३ नवङ्गानि - - २५ नवसत्थुसासनं - ३८ नवपरिक्खारिकस्स - १६८ नवलोकुत्तरधम्मनिस्सितं - २८० नवानुपुब्बविहारछळभिञ्ञाप्पभेदे - ४ दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गट्ठकथा नानारम्भणा - २५३ नानावेरज्जका - २२६ नामकायो - १७६ नामगोत्तन्ति - २०८, २३३ नामञ्च रूपञ्च - २९५ नामरूपनिरोधाति - १०८ नामरूपपरिच्छेदकथाति - २० नामरूपपरिच्छेदो - २० नामरूपसमुदया- १०८ नासिकग्गे - १७१ नासिकसोतानुमसनेन - २२३ नालन्दा - ३५ नाळागिरि - १२८ नाळिके - २१५ निकायोति - २३ निक्खित्तकम्मट्टानं - १५३ निक्खित्तदण्डो - ६६ 28 - २८ [न-न] Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [न-न] सद्दानुक्कमणिका [२९]] निक्खित्तधुरो- १५४ निमित्तं-५९, ८२,८८,२९३ निगण्ठानं-१९१ निमुग्गपोसीनीति-१७७ निगण्ठिगब्भाति-१३५ निम्माताति-९६ निगण्ठो-१२१ निम्मानरतिपरनिम्मितवसवत्तिनो-९७ निगमसामन्ते -२१८ निम्मितरूपव्हि- १७९ निग्गाथकसुत्ते-११० नियतोति-२५२ निग्घोसोति-१२६ निय्यानलक्खणं-६० निग्रोधो-७५,२६९ निय्यानिको-३०१ निघण्डुना-२०० निरत्थककिच्चं-४४ निच्चदानानीति-२४३ निरयं-८६,२१५, २९७ निच्चसनं-५९ निरामगन्धा-२२१ निच्चोति-९६ निरुज्झतीति-२७६ निज्झानं -२१ निरुत्ति-२००, २८४ निट्टितपच्छाभत्तकिच्चो-४५ निरुत्तिकुसलो-२८ नित्थुननसद्दोति-२३५ निरुदकं-१७३,३०४ निदस्सनाभावतो-२९४ निरोधकथं-२७४२७८ निदानकोसल्लत्थं-३ निरोधधम्मन्ति-२२४ निद्दिसितब्बधम्मप्पकासनं - २९ निरोधसमापत्ति-२७७,२७८ निधानवती-७१ निरोधानुपस्सनाय-५९ निप्फन्नोति-११५ निरोधोति-२७५ निबद्धचारिका-१९७, २२५ निरोध-२२४, २५३, २७४, २७५, २७८,२७९ निबद्धदानानि-२४३ निल्लोपन्ति-१३३ निब्बत्तिलक्खणं-६०,९३ निवासनपारुपनवसेन-१६१ निब्बसनानीति-४ निसिन्नेति-१६४ निब्बानधातुया-३,१५, ६२ निसीदनसाला-४२ निब्बानन्ति-९३ निस्सग्गियो-६५ निब्बानपरायनं - १४५ निस्सयपच्चयो-१५९ निब्बानाधिगमाय-२५३ निस्सरणत्था - २१,२२ निब्बानारम्मणं-१८६ निस्सरणन्ति - ९४,३०४ निब्बानं -१०३, १३९, १४५, १८१, १८२, १८६, | निस्सेणिं-२११ २५३,२८२, २९४ निहितदण्डो-६६ निब्बिदानुपस्सनाय-५९ नीचधम्मसमाचारानं-५६ निब्बिदायाति-२८० नीलकसिणं-५४ निब्बुद्धन्ति-७७ नीलाभिजाति-१३४ निमिजातके-१४७ नीलुप्पलसदिसानि-१९८ निमित्तकम्मादिवसेन-१६२,१६३ नीवरणकवाटं-५९ Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [३०] दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गट्ठकथा [प-प] नीवरणाति-४८ नीहरति-१६३, २०६ नेक्खम्मपटिपदं-१७५ नेक्खम्मेन-५९ नेगमाति-२३९ नेमित्तिका-८२ नेलाति-७० नेवसझानासचायतनसमापत्ति- २७७ नेवसञ्ञानासचायतनं-२७७ नेवसञीनासजीवादा-८९ नो-सद्दो- १३२ नोसुत्तनामिका-२४ न्हानकाले -१६८ न्हानकोट्ठकसम्मज्जनउदकुपट्ठापनादिकालेसु-८ न्हानीयचुण्णानि-१७६ न्हापकाति-१३१ पच्चक्खकिरियाय-२८०, २८१ पच्चक्खधम्मो-१०३ पच्चनीककिलेसेहि-२५३ पच्चनीकपटिपदं-३७ पच्चवेक्खणजाणन्ति-२७९ पच्चवेक्खणजाणुप्पादो-२७९ पच्चवेक्खति-१४८ पच्चाजातोति-१४८ पच्चाहरति-१५२, १५४, १५६ पच्चेकबुद्धा-१४३, २०० पच्चेकबुद्धो-१९२ पच्चेकबोधिजाणं-८७ पच्चेकबोधिं-१५६ पच्चेकसाला-२७४ पच्छानिपाती-१३९ पच्छानुतापं-२३८ पच्छाभत्तकिच्चं-४४,४५ पच्छिमदस्सनं-११६ पच्छिमबुद्धवचनन्ति-१६ पच्छिमयामकिच्चं-४४,४६ पच्छिमयाम-४६ पजाननलक्खणं-६० पज्जलितपदीपो-२९० पञ्चकामगुणिकरागो-२७६ पञ्चक्खन्धा-१०७,१०९,१८३,२८१ पञ्चङ्गिकानि-१२५ पञ्चचत्तालीसकोटिविभवो-२८६ पञ्चद्वारे-२६१ पञ्चधनुसतिकं- १७० पञ्चनिकाये-३८ पञ्चमहानदियं-५५ पञ्चविधचेतोखीलविनिबन्धचित्तो-१५४ पञ्चसततापसा-२५६ पञ्चसिक्खापदसीलं-१४७ पञ्चसिखमुण्डकरणं-२३८ पञ्चसीलतो-२४७ पकतझू-२७५ पकतिदुब्बलो-१६६ पकतिवाद-२६६ पकतिविरुद्धं-१६६, १६७ पकुधवादे - १३८ पकुधोति-१२१ पक्कभिक्खमेव-२१९ पक्कुसातिस्स-१९४ पक्खन्दिनोति-१३१ पक्खयुत्तो-१६९ पक्खित्ततिलानि-१५७ पक्खित्ततेलबिन्दु-१७० पग्गहलक्खणो-२५२ पग्गहलक्खणं-६० पग्घरापेतीति-१७ पङ्गचीरं-७८ पचतोति-१३२ 30 Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ प प ] पञ्चसीलधम्मेन - २०३ पञ्चसीलमत्तमेव -- २२७, २६३ पञ्चसीलानि - २३५, २६७ पञ्चिन्द्रियानि - ५७ पञ्चुपादानक्खन्धा - ४८, १७१ पञ्ञत्तकटसारकञ्च - ११६ पञ्ञत्तवरबुद्धासने - ४५, २५० पञ्ञत्तिमत्तं - २८३ पञ्ञा - ८८, २१७, २३४, २३६, २६७ पञ्ञाचक्खुनो - २८२ पञ्ञाचक्खुति - १५० पञ्ञापज्जोतो - २५३ पञ्ञापुब्बङ्गमाय - ३० पञ्ञाबलस्स- ६० पञ्ञाविमुत्तीति - २५२ पञ्ञासम्पदा - २३५, २६६ पञ्ञासिद्धि - ३० पञ्ञिन्द्रियस्स - ६० पञ्हपुच्छनं - ८५ पटलिकाति - ७८ पाणीभूतं - ७१ पटिकूलस - १५६ पटिघसम्पयुत्ता - ९५ पटिच्चसमुप्पादकथा - १०७ पटिच्चसमुप्पादं - ८९, १०७ पटिच्छन्नकूटं - ७३ पटिनिस्सग्गानुपस्सनाय - ५९ पटिपत्ति - २२१ पटिपत्तिमुखं - २१८ पटिपदाति - १३४, १८२, २६३, २७६, २८१ पटिबलो - १८, १७६, २४०, २९७ पटिभागकिरियं - २७४ पटिभानकवीति - ८४ पटिभानचित्तन्ति - ७७ पटिमोक्खोति - ८६ पटिविद्धाकुप्पो - २२ सद्दानुक्क पटिविरतोति - ६५, ७१, ७२ पटिवेधगम्भीरभावो - २० पटिवेधोति - २० पटिसङ्घानलक्खणं - ६० पटिसङ्घानुपस्सनाय - ५९ पटिसन्धारकुसलो - २३१ पटिसन्धिवसेन - १८१,२५२ पटिसन्धिसञ्ज - १०१ पटिसम्भिदा - २२पटिसम्भिदामग्गो - १५ 31 पटिसरणं - २१४ पटिसामितभण्डकं - १५३ पटिसंवेदिस्सन्तीति - १०६ पटिसंवेदेतीति - १५० पट्ठानन्ति - १७ पठमचित्तक्खणे - ९६ पठमजवने- १३७ पठमज्झानभूमितो - २८३ पठमज्झानसुखेन - १७६ पठमज्झानेन ५९, २७६, २७८ पठमबुद्धवचनं - १६, २५ पठममज्झिमपच्छिमवसेन - १५, १६ पठममहासङ्गीति – ३, २५ पठममहासङ्गीतिकाले - ३, २७ पठमयामे - ५५, १५२ पठमसिक्खापदे - ६७ पठमंझानं ४, १७६, १९६, २१७, २४७ पणिधिकम्मं - ८५ पणिपातेनाति - १८७ पणीततरा - २६६ पणीतसेनासनानि - १६७ पण्डितजातिको ३७, २६९, २७५ पण्डितवेदनीयाति - ९४ पण्डुकम्बले - १० पण्डुपलासिका - २१९ पण्डुराजा - ८२ [३१] Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [३२] दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गट्ठकथा [प-प] पण्णकुटियो-२५७ पण्णसालं-१९८,२०९, २१०,२४४, २७४ पण्णासयोजनानि-२३० पतितफलभोजनो-२१७ पत्तकल्लं-६,११,१२,१३,१४ पत्तचीवरमादाय -८, ९, १५२,१५३ पत्तचीवरलोभेन -२८१ पत्तचीवरं-१०,३९, २५१,२८१,२८६, २८७ पत्ताळ्हकं-७८ पथमनसिकारो-९० पथविकम्पो-१४,१५ पथविकायो-१३८ पथविगोपको-१३७ पथवीकसिणसमापत्तिं-२७८ पथवीधातु-१५७,१६३ पथवीमण्डलं-२३७ पदभाजनीयं-२५ पदवीमसभूमि-१३५ पदसन्धिकरो-३६,१९१ पदहनलक्खणं-६० पदीपसिखा-४१ पदुट्ठचित्तो-१८९ पदुमगब्भसमानं-२२२ पदुमगब्भे-१९८ पधानयोगं-५५ पनाचारगोचरं-२६२ पन्थदुहनाति-२३८ पपाताति-१३५ पब्बतकूटेन – १२५ पब्बतपदेसं-१७० पब्बतमत्थके-१८३ पब्बतमुद्धनिहितोति-५८ पब्भारलेणसदिसे - १७१ पभस्सरटेन- १७७ पभुसत्तियोगो-२०२ पमाणं-१७, ३५, ३८, ५२, ६३, ६८, २०६, २२९, २४४,३०५ पमादट्ठानं-७८,१६७ पमुखलक्खणं-६१ पमुदितचित्ताति-२३९ पयोगसुद्धि-३० परकोटिं-२५० परज्झासयो-४८ परतोघोसो-९३ परनिम्मितवसवत्तिदेवराजस्स -- १०३ परपरिग्गहितसञिता-६७ परमगम्भीरं-११० परमत्थकथा-२८४ परमत्थकुसलेन-१९ परमत्थतो-३०,६५,१३१,१५७,२८४ परमत्थदेसनाति-१९ परमत्थबाहुल्लतो-१९ परमत्थवचनं-२८५ परमदिट्ठधम्मनिब्बानन्ति-१०३ परमनिपच्चाकारो-१८७ परमविसुद्धं-२६७ परमसीलं-२६७ परमसुक्काभिजातीति-१३४,१३५ परहितधम्मकरणेन-२०२ परहितपटिपत्तिसमयो-३३ पराधीनोति-१७२ परामासकिलेसानं-९३ परिकप्पावहारो-६७ परिक्खारा-१६७, २४०, २४१ परिग्गहलक्खणं-६० परिचारको-११६,२१७ परिच्छिन्ननिद्देसो-३२ परिजाननं -१६१ परिजातक्खन्धो-२२ परिञापहानसच्छिकिरियाभावनावसेन-१८२ परिणायकरतनेन-२०२ 32 Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [प-प] सद्दानुक्कमणिका [३३] परितस्सितविष्फन्दितमेवाति-९५,१०५ परित्तपच्चुप्पन्नबहिद्धारम्मणं-१८३ परित्तसञी-१०२ परित्तं-५५, ९५, ३०५ परिदीपितधम्मक्खन्धवसेन-२५ परिनिब्बाति-२४५ परिनिब्बानकाले-१६,५१ परिनिब्बानतो-७,८,२८६ परिनिब्बानदिवसे-८ परिनिब्बानधम्मो-२५२ परिनिब्बानसमयोति-३३ परिनिब्बुतो-७, ३४, २८८ परिपक्कफलोति-१६९ परिपाकगतिन्द्रिये-१९६ परिपुण्णलक्खणो-२२२ परिपुण्णिन्द्रियो-१०३ परिब्बाजकसतेति-१३५ परिब्बाजकोति-३६, ४२, २७१, २८२ परिमद्दनधम्मो-१७८ परिमद्दनं-७९ परिमुखं-१७१ परियत्तिधम्मोपि-१८५ परियत्तिब्भाजनत्थतो-१८ परियत्तिभेदं - १९, २१, २३ परियायभत्तभोजनन्ति -२६४ परियुट्ठानप्पहानं-२० परियोसानकल्याणन्ति-१४४,१४५ परियोसानप्पत्ति - २८९ परियोसानलक्खणं-६१ परिवितक्कपुब्बभागो- २७२ परिवितक्को - १०४, २३८ परिवेणे-९ परिसदोसो-२७२ परिसम्बाहति-१८७ परिसुद्धन्ति-१४५ परिसुद्धाजीवोति-१४९ परिसुद्धेन - ११, १७७, २२७ परिहीनलाभसक्कारो-११७ परूळ्हमस्सुदाठिकं-२१२ पलायनाकारं-१७० पलालपुञ्जन्ति-१७१ पलालसन्थारं-१६३ पलिबुद्धाति-५६ पलिबोधमूलन्ति-१७४ पलिबोधो-७,८८,१६२ पल्लङ्कमाभुजित्वा-१३० पवत्तपटिसङ्खानवसेनेत्थ -१६१,१६२,१६३,१६४ पवत्तफलभोजना-२१८, २१९ पवत्तफलभोजीति-२६५ पवारणा-२१७ पवारणासङ्गह-१९६ पविचयलक्खणं-६० पविवेकसुखे-३०० पविवेकेति-१३९ पवुटाति-१३५ पवेणीपालनत्थाय - २२ पसतमत्तं-२४० पसन्नचित्तो-१८५, २८७ पसादचक्खुवोहारेन- १५० पसेनदिरो -२७१ पसंसा-३८, २६२ पसंसावचनं-२०० पसंसासिद्धितो-२६२ पस्सता-४२,४३, ६१ पस्सद्धदरथो-२१५ पस्सद्धिलक्खणं-६१ पस्सद्धिसम्बोज्झङ्गस्स-६० पस्सम्भतीति-१७६ पहानपरिञाय-६३ पहीनउद्धच्चकुक्कुच्चो-१७५ पहीनकामच्छन्दनीवरणं-१७४ पहीनकिलेसो-२२ Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [३४] दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गट्ठकथा [प-प] पहीनथिनमिद्धो-१७५ पहीनब्यापादो-१७५ पहीनविचिकिच्छो - १७५ पहूतजातरूपरजतो-२३७ पहूतधनधो -२३८ पाकटजनपदं-२१४ पाकटमन्तनं-२२० पाचित्तियानीति-१२,१३ पाचित्तियं-७५ पाचीनअम्बलटिकट्ठानं-१११ पाटनीति-७६ पाटलिगामे -४३ पाटिदेसनीयानीति-१३ पाटिहारियानि-२९० पाणवधो-६५ पाणातिपातचेतनासङ्घातं-६५ पाणातिपातं-६५, २४६ पाणिस्सरन्ति-७७ पातरासभत्तं-७१,१९५ पातिमोक्खसंवरसीला-२६७ पातिमोक्खसंवरसंवुतोति-१४९ पातिमोक्खानि-१६ पातिमोक्खुद्देसो-११८ पातियं-५५ पाथिकवग्गोति-३ पाथेय्यपुटं-२३२ पादकुक्कुच्चं -४१, १२७ पादधोवनादिकत्तब्बकिच्चं-१३९ पापकन्ति-२९६ पापकम्म-१७० पापगरहिनो-४० पापजिगुच्छनलक्खणाय -६६ पापपुआनं-१३३ पापभिक्खू-४ पापमित्तो-९३ पापस्साकरणं-१४१ पारमियो-४२, ५५, ५७, २२९, २३०, २९६ पाराजिककण्डं-१३ पारिच्छत्तकूपमन्ति-४९ पारिसज्जाति-२१४, २३९ पावारिकम्बवनं-२५७ पासाणलेखा विय-६८ पासादिकोति-९६ पाहुनका-२३२ पाळि-११,४७, ६९, १२४,१३७ पाळियं-१३८,१७८,१९२,२३७ पि-कारो-३६ पिञाकादयो-२६५ पिटकञ्चाति-१९ पिटकत्थविदू-१८,१९ पिटकसद्देन - १९ पिट्ठखज्जादिखादने-१६२ पिण्डदायकाति-१३१ पिण्डपातपटिक्कन्तो-३९. पिण्डपातभोजने- १६२ पिण्डपातियत्थेरस्स-१११ पिण्डपातियधुतङ्ग-१५६ पिण्डपातं -७६,१६६ पिण्डपिण्डवसेन-२३७ पिताति-७०,१३६ पितामहयुगाति-२२६ पितिपक्खतोति-१५३ पितुवधो-१२८ पित्तरोगविमुत्तो-१७५ पित्तरोगातुरो- १७३, १७५ पियभावं-६९ पियरूपानीति-२५१ पियवादी-१३९ पियसहायको -२९६ पिया -२०९ पिलक्खो-७५ पिसुणं वाचं-६९ 14 Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [प-प] सद्दानुक्कमणिका [३५] पिळन्धन्तो-७२ पीठं-४७,१३५, १७० पीतकसिणं-५४ पीतरस्मिअत्थाय-५४ पीति-५१, ९५, १७६,२८३ पीतिपामोज्जञ्च - २२३ पीतिभक्खा - ९५ पीतिसम्पयुत्तचित्तस्स - १७६ पीतिसम्बोज्झङ्गस्स-६० पीतिसुखं -४ पीतिसोमनस्सं-५१ पीळका- ११७ पीळासङ्घातो-२४४ पुग्गलकिच्चनिद्देसो-३० पुग्गलकिच्चप्पकासनं-२९ पुग्गलधम्मदसा-१८६ पुग्गलपञत्ति-१७ पुग्गलाधिट्ठानं-१९२ पुच्छानुसन्धि-१०४ पुच्छावसिको-४८, ४९ पुच्छाविस्सज्जनं -८७,८९,२९४ पुञकम्म-९५,२४०,२४५ पुञ्जकिरियवत्थूसु-१८७ पुञक्खया – ९५ पुञबलेन - ९५ पुञ्जसम्पत्तिया-२६१ पुटंसो-२३२ पुट्ठपऽहं - २६९ पुण्डरीकोति-२२९ पुण्णकजातके-१४६ पुण्णचन्दसस्सिरिकं - २३१ पुण्णचन्दो - ४०, १२७, २५० पुण्णत्थेरो-७ पुण्णमायाति-११८ पुण्णो मन्ताणिपुत्तो-१५६ पुत्तघराचिक्खणं- २७७ पुत्तमंसूपमं-४९ पुथुचित्तसमायोगतो-८७ पुथुज्जनकल्याणकादयो-१८२ पुथुज्जनभिक्खुनो-२१७ पुथुज्जनभूमियं - २३५ पुथुज्जनोति-५६ पुथुतिस्थकरानन्ति-२३२ पुथुसिप्पायतनानीति-१३० पुनब्भवोति-५७ पुष्फगन्धो-५३ पुप्फफलसम्पन्नो-२७१ पुब्बकइसिभावानुयोगवण्णना-२२०, २२१ पुब्बचेतना -२४१ पुब्बण्णादीनि-२१८ पुब्बण्णापरण्णादिभेदं-१९९ पुब्बनिमित्तभावेन-५७,५८ पुब्बनिमित्तं-५८ पुब्बन्तकप्पिकाति-९० पुब्बन्तकप्पो-८९ पुब्बन्तानुदिट्ठिनो- ९० पुब्बपेतकथाति-८१ पुब्बभासीति-२३१ पुब्बापरकुसलोति-२८ पुब्बुट्ठायी-१३९ पुब्बेनिवाससाणलाभी - १८१ पुब्बेनिवाससाणं-१८३ पुब्बेनिवासानुस्सतित्राणलाभिनो-१०२ पुब्बेनिवासानुस्सतिआणं-२४८ पुराणचीवरं-१६६ पुरिमचक्कद्वयसम्पत्तिं -३० पुरिमचक्कद्वयसिद्धिया-३० पुरिमपच्छिमकथा- २३६ पुरिमयामकिच्चं-४४,४५ पुरिमसञानिरोधं-२७८,२७९ पुरिमसिद्धि-२०३ पुरिसभूमियोति-१३५ Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [३६] दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गट्ठकथा [फ-ब] पुरिसलिङ्गवसेनेव-२०६ पुरिसस्स अत्ता-२८० पुरिसासुभं-१५२ पुरेभत्तकिच्चं - ४४, ४५, ४६ पुरोहितो-२४३ पूरणोति-१२० पेक्खन्ति-७७ पेतवत्यु-१५ पेमनीया-७० पेसितचित्तो-२७० पेस्साति-२४२ पोक्खरणियो-१९९ पोक्खरता-२२७ पोक्खरसातिब्राह्मणो-१९७ पोक्खरसातीति-१९८ पोङ्खानुपोङ्ख-१५३ पोट्ठपादसुत्तं - २७१ पोट्ठपादो-२७१, २७२, २७५, २७९, २८२ पोट्ठपादं - २७३ पोराणा-३४, ५३, ५८, १४४, १९४, २२१, २२७,, २३३ पंसुकूलधोवने-१११ पंसुकूलानीति-२६५ पंसुपिसाचकादयोयेव-२३२ पंसुवालिका-२२७ फलसच्छिकिरिया-२८१ फलसमाधिसज्ञापच्चया-२७९ फलसमापत्तिं-१३९ फलसीलं-२३५ फस्सनिरोधा-९४ फस्सपच्चयाति-१०६ फस्सपञ्चमका-१०६ फस्ससमुदया-९३, १०८ फस्सादिधम्मानं-३३ फस्सायतनानन्ति-१०८ फस्सोति-१०६ फळुबीजं-७१,७५ फासुका-१६ फासुविहारन्ति-२८७ फुसनलक्खणं-६० फेणपिण्डूपमं-४९ बधिरमकासि-२५१ बन्धनागारिका-१३४ बन्धनामोक्खनिदानं-१७२ बलग्गन्ति-७७ बलवकोधो- ९९ बलवरागो-९९ बलववेदना-११६ बलिसवातं-१४० बहलखेळो-१६३ बहुजनकन्ता-७० बहुजनकुहापनत्थं-२१८ बहुजनमनापा-७० बहुधनं-२२७,२३८ बहुपच्चत्थिका-१२३ बहुस्सुतो-१०८,१५६ बाराणसिराजा-२१० बावरिस्स-१२९, २२२ फणिज्जकं-७५ फरणलक्खणं-६० फरुसवचनसमुदाचारे-२०६ फरुसावाचा-७० फलकसेय्यन्ति-२६५ फलकं-४७ फलजाणं-१७८,२७९ फलपञ्च -२३५ Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ब-ब] सद्दानुक्कमणिका [३७] बावीसतिन्द्रियानि-८८ बाहितपापा-२४० बाहियो दारुचीरियो-१५६ बाहिरपथवीधातुं-१३७ बाळ्हगिलानो-१७२ बिम्बिसार - ११६ बिम्बिसारोति-२२५ बिम्बोहनं-१०,७९, २०५ बीजगामभूतगामसमारम्भाति -७१ बीजगामभूतगामा-५४ बीजगामोति-७५ बीजबीजं-७५ बुज्झनकसत्तस्सापि-२८५ बुद्धकाले-४६,११३,१८८ बुद्धगुणा-६६, १२८ बुद्धचक्खं-२०३ बुद्धञाणस्स - ८७, ८९ बुद्धपच्चेकबुद्धअरियसावकानं-५० बुद्धपरायणो-१८७ बुद्धपिता-१४३, २०० बुद्धपुत्तोति-१५६ बुद्धप्पमुखस्स-२४९ बुद्धबलं-१०९ बुद्धभावं-१ बुद्धभूमि-१२९ बुद्धमन्ता - २००,२०१ बुद्धमाता-१४३, २०० बुद्धलीळाय-२९२ बुद्धवचनं-१५, २३, २४, २५ बुद्धसम्पत्तिया-२६२ बुद्धसासनतो-२८८ बुद्धसासनं-२६९ बुद्धस्स वण्णं-३७ बुद्धादिरतनरूपानि-१८५ बुद्धानुबुद्धसंवण्णितस्स-२ बुद्धानुस्सतिकम्मट्ठानं-१५२ बुद्धानुस्सतिनिद्देसे-३४, १२३ बुद्धानं गज्जितं-८८, ८९ बुद्धारम्मणं-१११,१५१,१५२ बुद्धासनं-४५,४६ बुद्धिचरियाय - ५७ बुद्धप्पादो-४५ बुद्धोति-५१, १९१, २०१, २०५ बेलट्ठपुत्तो-१२१ बोज्झङ्गसंयुत्तादीनि-४९ बोज्झङ्गाति-४८ बोधनेय्यपुग्गलं - १९४ बोधनेय्यसत्ते-१९६ बोधिअङ्कुरेसु-५५ बोधिखन्धं-५५ बोधिमण्डं -५५ बोधिरुक्खे-१५२ बोधिवत्तं-२७२ बोधिसत्तकाले - १८८ बोधिसत्तभूमियं-१२९ बोधिसत्तो-५७,२०९ ब्यग्घपथन्ति-२११ ब्यञ्जनकुसलो-२८ ब्यञ्जनपरिसुद्धताय-२०४ ब्यञ्जनपारिपूरिया - १४५ ब्यापन्नचित्तो- १७३ ब्यापादनीवरणं-१७५ ब्यापादप्पहानं-१७५ ब्रह्मचरियन्ति - १४६, १४७, १८२ ब्रह्मचरियपरियोसानन्ति -२७० ब्रह्मचरिय-सद्दो-१४६ ब्रह्मजालेति-१११ ब्रह्मज्ञाय-२३१ ब्रह्मदत्तञ्च-१४ ब्रह्मदत्तो-३७,३८,४२ ब्रह्मयानियमग्गोति-२९३ ब्रह्मलोकूपपत्तियाति -१४७ 27 Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [३८] दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गट्ठकथा [भ-भ] ब्रह्मलोको-१४३, ३०२ भवङ्गं --१५८ ब्रह्मवण्णीति-२२७ भवतण्हा-१०९ ब्रह्मविमानन्ति-९५ भवतण्हाति-१०७ ब्रह्मविमानसदिसं-९ भवदिट्ठीति-१०७ ब्रह्मविहारा-१०५ भवन्तरसमयं-२७४ ब्रह्मसहब्यतायाति-३०१ भवपटिच्छन्नं-२३७ ब्रह्माति-२८४ भस्सपुटेनाति-२१६ ब्राह्मणगहपतिका-१४३ भारतयुद्धसीताहरणादिनिरत्थककथापुरेक्खारता-७० ब्राह्मणगामो-१४३ भारद्वाजोपि-३०१ ब्राह्मणपजाय-२३१ भावना-२ ब्राह्मणभावं-२३४ भावलक्खणत्थो-३३ ब्राह्मणमहासालो-२७१ भावितोति-२५१ ब्राह्मणोति-१८७, २२६,२४३ भासितेति-१६४ भिक्खाचारवेलाति-२८१ भिक्खाचारवेलायं-३९, ४४, १५५ भिक्खुनीविभङ्गोति-१३ भगवतोति-१२२ भिक्खुसङ्घस्स-१०,३९, १२९, २४९ भगवाति-३३, ३४, ३५, ११०,१११, १२२, १२३, | भिक्खुसङ्घो-३५,४१,१२८, १८६ १२७, १४२, १४८, १९५, २०५, २१२, २४९ भिन्नकिलेसा-४० भण्डमूलं-२३९ भिय्योसोमत्ताय-२५९ भण्डागारिकपरियत्तीति-२१,२२ भिसक्को-६३, २०६ भत्तपुटं-२१८ भिसि-१७० भत्तवेतनं-२४२ भुजिस्सो-१७५ भद्दमुत्तकन्ति-७५ भुजितुकामो-४३ भद्दालि -३२ भुम्मजालं-२०९ भद्रमुख-९९ भुम्मवचननिद्देसो-३३ भमुकविकारं-२०५ भूतभव्यानन्ति-९६ भयतज्जिता-२४२ भूतलक्खणन्ति-२८५ भयदस्सावीति-१४९ भूतवादी-७१ भयभेरवं-१२५ भूतवेज्जमन्तो-८३ भयलोमहंसोति - १२५ भूमन्तरपरिच्छेदं -८८ भयसन्तासो-१७९ भूमिचालस्स-१११ भवग्गं - ६३, २०५ भूरिकम्मन्ति-८५ भवङ्गचलनतो-१५९ भूरिविज्जाति-८३ भवङ्गसञा - २७७, २७८ भेदनविद्धंसनधम्मो-१७८ भवङ्गावज्जनञ्चेव-१५८ भेसज्जकपालकं-१६२ Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [म - म] सद्दानुक्कमणिका [३९] भेसज्जकिरियाय-१७५ भेसज्जतेलपचनं-८६ भेसज्जनाळिकं-८० भेसज्जं-८५, १६७ भोगक्खन्धन्ति-१४० मक्खलिगोसालो-१३५ मक्खलिवादे-१३३ मक्खलीति-१२१ मगधरढुवासिनो-२४९ मगधाति-२३७ मग्गकुसलो-३०१ मग्गक्खणे-१८६,२५३ मग्गक्खणं-१८२ मग्गजाणानन्तरं-१७९ मग्गजाणं-१७८, २७९ मग्गदेसकोपि-१९५ मग्गपञआफलपञानं-२८३ मग्गपच-२३५ मग्गपटिपाटिया-५५ मग्गफलसम्पयुत्ता-२६७ मग्गफलसुखेन-११६ मग्गब्रह्मचरियं-१८२ मग्गभावनाकिच्चं-१८३ मग्गभावनाय -१८२ मग्गमूळ्हो-१५४ मग्गसञ्जा-२७९ मग्गसीलं-२३५ मग्गसोतं -२५२ मग्गामग्गे-३०१ मघदेवो-२०९ मङ्गलअस्सं-२०९ मङ्गलदासत्ता-१२० मङ्गलरथञ्च-२०९ मङ्गलहत्थिं - २०९ मच्चुराजा-२८८ मच्छगुम्बं–१८३ मच्छघातका-१३४ मज्जवणिज्जा-१९० मज्झिमनिकायो-१६, २३ मज्झिमपञो-९२ मज्झिमपदेसे-१४३ मज्झिमबुद्धवचनं-१६, २५ मज्झिमबोधियापि-६२ मज्झिममण्डले - १९६ मज्झिमयामकिच्चं-४४,४६ मज्झेकल्याणं-१४५ मञ्चपीठसेनासनं-१७० मञ्चपीठं-८ मञ्चं-४७,१३५, २०५ मणिखन्धसदिसं-१७१ मणिदण्डतोमरे-१२४ मणिलक्खणादीसु-८३ मणिवितानं-१७१,३०० मण्डनकजातिकोति-१८० मण्डनपकतिको-१८० मण्डपमज्झे-१० मण्डपोपि-१७० मण्डलमाळे-४५, १२६ मण्डूककण्टकविससम्फस्सं-१०९ मण्डूकमूसिके - २१० मत्तवारणं-२०६ मत्तिकभाजनं-१७६ मधुपायासं -५५,२८७ मधुफाणितादिसायने-१६२ मधुरग्गं- १९१ मधुररसं - १२१ मधुरवचनो-२१२ मधुसक्करादीनं-१७३,१७५ मनसाकटन्ति-३०० Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [४०] दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गट्ठकथा [म-म] मनसिकरोहीति- १४१ मनसिकारो-३१,१०४, २७२, २७८ मनापचारी-१३९ मनिन्द्रियविक्खेपनिवारणं-१४१ मनुस्सग्गाहो- १०४ मनुस्सत्तपटिलाभो-४५ मनुस्सत्तभावं-१०२ मनुस्सलोको-१४३ मनुस्ससोभग्यतं-१३३ मनोकम-१३४ मनोपदोसिका-९७ मनोपदोसं-४९, ५० मनोफस्सायतनन्ति-१०६ मनोमयअत्तभावपटिलाभेन-२८३ मनोमयजाणं-१८३ मनोमया-९५ मनोमयिद्धिपि-२४७ मनोविघातलक्खणं-१०४ मन्तधरो-२०० मन्तपदन्ति - २२१ मन्तसज्झायनत्थं-२२६ मन्तसत्तियोगो-२०२ मन्दपओ-९२,१०० मन्दभूमि-१३५ मन्दोति-१०० मन्धाता-८०,२०८ मन्धातुकामगुणसदिसा-१०३ मन्धातुमहागोविन्दादीहि-११३ मम्मच्छेदककायवचीपयोगसमुट्ठापिका-७० मयूरनच्चादिवसेनपि-७१ मरणधम्मस्स-१५९ मरणवसं-२३८ मल्लयुद्धं -७७ मल्लानं-३ मल्लिकाय आरामे-३२, २७१ मसाणानीति-२६५ महग्गतचित्तन्ति-२९३ महग्गतचित्तमेतन्ति-२५८ महग्गताधम्मा-१८ महद्धनोति-२२७ महन्तभावो-८८ महप्फलतरञ्चाति-२४७ महल्लककाले-२३९ महल्लकोति-२२८ महाअट्ठकथायं-१४८ महाउपभोगो-२२७ महाकप्पिनस्स-१९४ महाकप्पिनोति-१३५ महाकप्पोति-१३६ महाकस्सपत्थेरो-११,१२ महाकस्सपप्पमुखेन - २५ महाकस्सपो-३, ४, ५, ६,११,१२,१३,१४,१५६ महाकुम्भियं-५५ महाकोट्टिकत्थेरो-२८२ .. महाचाटियो-२४२ महाचेतियङ्गणे - १६० महाजनो-४५,७२, १२४, १९६, २४०, २८७ महातिस्सत्थेरो-१५५ महाथम्भे-२४२ महाथेरो-१६० महादानसालायो-२४२ महादानं-२३८, २३९, २४२ महादीपे-१११ महाधम्मपालजातके-१४७ महानागत्थेरो-१५५,१५६ महानागा-१३१, २९२ महानाम-१९० महानिब्बानं-१७६ महानिसंसतरञ्च - २४७ महापो -१५६ महापथविकम्पो-१३ महापथवी-१२,१३,२५,१११ Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [म-म] सद्दानुक्कमणिका [४१] महापनादं-१९४ महापराधताय-११९ महापरिदेवो-८ महापरिनिब्बाने-१११ महापवारणाय-१५५, १९६ महापुओ-१६७, १९८ महापुरिसलक्खणानि-२०१ महाफुस्सदेवत्थेरो-१५४ महाबोधिं-२३५ महाब्रह्माति-४८ महाभिक्खुसङ्घपरिवारो-१९६ महाभिनिक्खमने-१११, १२२ महाभूतपरियेसको-२९२ महाभूता-२९४ महाभोगोति-२२७ महामहिन्दत्थेरस्स-१११ महामहिन्देन -२ महामुण्डिको-१२८ महामोग्गल्लानस्स-११५, २८१, २९२ महायचे - २४४ महायागं-१३३,२३३,२४२ महाराजानो-४८,१५५ महाराहुलोवादसुत्तं-४८ महारोरुवं-२४१ महालि-२५१ महालीति-२५० महावग्गो-३ महावनन्ति-२४९ महाविजितोति-२३७ महाविभङ्गावसानेपि-१३ महाविभङ्गोति-१३ महाविमानं-१४६ महाविवरं-१७१ महाविहारे-२, २६८,२६९ महाविहारं-२४४ महासट्ठिवस्सत्थेरो-२३४ महासतिपट्ठानसुत्ते - १६५ महासमणो-२०८ महासमुद्दो-२०,२१, ८७ महासयनन्ति-७२ महासळायतनविभङ्गसुत्तं-४८ महासालो-१४२ महासावका-२०० महासावज्जोति-६५ महासिवत्थेरेन-१६५ महासीहनादं -२६७ महिका-११९ महिद्धिको-१५६ महिंसी-७० महेसक्खा-२०१,२३२ मागधकाति-२४९ मागधो-११४,१४२,२२५ मागविका-१३४ माणवोति-३६, २०४ मातापितुपलिबोधो-७ मातापेत्तिकसम्भवो-१०२ मातापेत्तिकं- १०२ मातितो-२१०, २२६ मातिपक्खे-२२९ मातुकुच्छियं-१८१ मातुकुच्छिवासं-१९८ मातुगहणी-२२६ मातुट्ठाने-२१० मातुवचनं-७० मानकूट-७३ मानद्धजं-२०६ मानसिकेन-१२८ मारत्तम्पि-१३३ मारबलं-५५ मारविजयसमयो-३३ मालाति-७२,७९ मालाधारणादीनि-७२ Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [४२] दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गट्ठकथा [य-य] मासपुण्णताय-११८ मिगचक्कन्ति-८३ मिगदायोति-२५९ मिगलक्खणं-८४ मिगलुद्दकादयो-१४० मिगसिङ्गतापसो-२७४ मिगसूकरादीनं -२११ मिच्छादस्सनं -१९६ मिच्छादिट्ठिका-२३३ मिच्छापटिपन्नो-३७ मिच्छावणिज्जा-१९० मिच्छासङ्कप्पादीनि-२५३ मिच्छासति-१३७ मित्तो-२३३ मिलातमालाकचवरं-८ मिलिन्दरञा-२२२ मिस्सकाहारं-१६६ मुखचुण्णं-७९ मुखतो-८५, २०६, २०८ मुखधोवनादिसरीरपरिकम्म-४४ मुखनिमित्तं-१८० मुखबन्धमन्तेन-८५ मुखलेपनन्ति-७९ मुखहोम-८३ मुखुल्लोकको-१३९ मुच्चितुकामा-१५४ मुच्छिता-५६ मुट्ठस्सच्चे-६० मुट्ठिपासाणेन-२१९ मुण्डकुटुम्बिकजीविकं-७६ मुतं -६२ मुत्ताचारोति-२६३ मुदिङ्गसद्दीति-१८० मुद्दिकाति-१३१ मुद्धाभिसित्तोति-१५० मुसलकिच्चसाधनं-१६३ मुसावादपरिजेगुच्छाति- ९९ मुसावादा-१९०, १९६ मूलघच्चं-११५ मूलजिव्हाय-१६३ मूलदेवो-८० मूलपरिज्ञावसेन-१५८ मूलबीज-७१,७५ मूलभेसज्जानं-८६ मूललक्खणं-६१ मूसिकच्छिन्नन्ति-८२ मूसिकविज्जायपि-८३ मेघमालो-८० मेत्ताकम्मट्ठानं-५५ मेत्तादिब्रह्मविहारभावनाव-२२१ मेत्ताबलेनपि-२३२ मेत्ताभावनाय - १४६ मेथुनधम्मेति-१२ मेथुनाति-६७ मेधावी-२३९ मोक्खचिका-७८ मोक्खमग्गावरणञ्च-१३७ मोघपुरिसा-२१ मोमूहोति-१०० मोळियं-११६ मंसचक्खुना-४२,४३ यक्खदासियो-२७५ यक्खदासीनं-२७५ यक्खपरिग्गहितं-११३ यक्खो-११६, २१२, २१३ यजतं भवं-२३९ यजितुकामो-२३७ यज्ञकालो-२३९ यचट्टानं -२३९ Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [र-र] यञ्ञवाटस्साति- २४३ यञ्ञसालं - २४२ यज्ञनुभवनत्थं - २२६ यञ्ञोति - २४५, २४७ यथाकारी - ६२, ६३ यथाधम्मसासनन्ति - १९ यथानुसन्धि - १०५ यथापराधयथानुलोमयथाधम्मसासनानि -- १९ यथाबलसन्तोसो - १६६, १६७ यथाभूतञाणदस्सनेन - ५९ यथालाभसन्तोसो - १६६, १६७ यथावादी - ६२, ६३ यथासन्थतिकोति - २६५ यथासारुप्पसन्तोसो - १६६, १६७ यथासुखं - १०३, १४८, २०२ यदग्गेति - २५० यदिच्छकभाणिनी - २०८ यमकपारिहारियं - ५४, १२२ यमकसालानमन्तरे - ३,६२ यसस्सी - १२० या भिक्खा - १५३ याचकाति - २४० यानं - ७६ यावाळाहनाति - १३७ युगनद्धानं - ६१ युगन्धरपब्बतं - २७२ युत्तकालं - ७१ युत्त योगभिक्खु अधिट्ठानं युद्धमण्डले - १५८ युवाति - १८० यूपनामके - २४२ योगावचरो - २५३ - १०७ योगिनो - ५३, १८०, २५३ योगिस्सलङ्कारो - ५३ योगी - ५३ योगं - ८६ सद्दानुक्मणि योधा - १२५ योनिसिद्धन्ति - २४६ योनिसोति - ११२ रक्खावरणगुत्तिन्ति - १४० रजतक्खन्धं - ५५ रजतपनाळिका - १९८ रजोजल्लधरोति - २६५ रजोधातुयोति - १३५ रजोपथो - १४८ रज्जअनुसासनसाला - २०७ रज्जनदुस्सनमुय्हनं १५९ रज्जुभेदो - ७३ रतनत्तयस्स - ३७, ३८, ३९, ४१, ४२, ४९, ८२, २५० रतनसुत्तस्स - २०२ रति अन्तरायो - २६४ रत्तकम्बलपाकारपरिक्खित्तो - ४० रसवसेन - १५, २५ रागदोसमोहमानदिट्ठिअविज्जादुच्चरितछदनेहि - २०३ रागरजादीनं - १४८ रागविरागोति - १८६ रागादिपरिपक्खभूतो - २० राजकथा- ८० राजगहन्ति - ११३ 43 राजगहपरिवत्तकेसु - ३९ राजगहं - ६, ७, ८, ९, १४, ३५ राजदायन्ति - १९९ राजभणितन्ति - २२१ [४३] राजभोग्गं - १९९ राजागारकन्ति - ४१ राजागारके - १४, ४१ रामञ - २११ रामो - २१० रासिको - २३९ Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [४४] रासिवड्डको राहु - ८४, २३० राहुल - १५६ - १४० रुक्खच्छायाय- १२६, १७० रुक्खमूलन्ति - १७० रुक्खमूलं - ४५, १६९, २१९ रूप्पनलक्खणं - ५९, ६० रुहति - ७२ रूपकायपरिनिब्बानं - ३४ रूपक्खन्धो - १०१,१५९ रूपज्झानलाभीयेव - १७८ रूपतण्हादिभेदाय - १०७ रूपभवं - २८३ रूपायतनं - ३८, ६२, १५९ रूपारूपधम्मा - १५७, १६४, १६५ रूपावचरादयोति - २५३ रूपी ब्रह्मलोको - १४३ रूपं अनत्ता - १०४ रेणुं - ४४ रेवतो - १५६ रोगपलिबोधो - ७ रोजो - २०८ रोसिकं - २९६ - ८२ लक्खणन्ति लक्खणपरियेसनत्थं - १९७,२२२ लज्जीति - ६६ लटुकिकाति - २०८ लद्धसद्धानं - २०० लद्धिं - १००, १३७, २६२, २७९, २८० लबुजं - १३३ लहट्टानं - २८, २०४ लाभन्तरायकरो - २९७ लामकभावं - २२४ दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गट्ठकथा लिङ्गविपरियायो - १२४ लिङ्गविपल्लासो - २६७ लिच्छविराजा - २५२ लुज्जनपलुज्जनट्ठेन - १७१ लूखाकारा - २८५ लूखाजीविन्ति - २५९ लेणत्थञ्च - २४४ लेणमण्डपकूटागारादीनि - १६७ लोकक्खायिकाति - ८१ लोकधातूति - १११ लोकनिरोधगामिनी - लोकनिरोधो - ६३ लोकवज्जा - ८८ लोकविदू - ३७ लोकसमञ्ञा - २८४ लोकसमुदयो - ६३ लोकानुकम्पकाय - १९६ लोकायतं - ८४, २०० लोकियोकुत्तरो - २० लोकियसरणगमनं - १८९ ६३ लोकिया- ८८ लोकुत्तरमग्गफलसम्पयुत्तं - २६७ लोकुत्तरमग्गो - २६३ लोकुत्तरा - १८, ८८ लोकोति - ९०, ९१, ९८, १३६, १४२, २८० लोभधम्मो - २९८ लोभनीयचीवरं - १६१ लोमहंसनसुत्ते - १४७ लोमहंसमत्तम्पि - २१४ लोमहंसोति - १२५ लोहकुम्भियं - १९२ लोहिच्चोति - २९६ लोहितहोमं - ८३ लोहिताभिजाति - १३४, १३५ 44 [ल-ल] Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [व-व] सद्दानुक्कमणिका [४५] वकारो-३०२ वङ्ककन्ति-७८ वङ्गीसत्थेरो-१४२ वचनत्थकोसल्लत्थं-१७,१८ वचनत्थलक्खणादिभेदतो-१७२ वचनपथमत्तकानि-२८४ वचनसण्हताय-७० वचनसम्पटिग्गहे-२७ वचीकम्मञ्च-१३४ वचीदुच्चरितं-२५४ वच्छतरसतानीति-२३७ वच्छो-१३५ वजिरपाणि-२१३ वञ्चनन्ति-७३ वञ्चनसाचियोगो-७४ वझोति-९१ वटरुक्खं-२५७ वट्टदुक्खतो- १०७ वट्टसम्बुज्झनत्थाय-२८१ वट्टपच्छेदोति-३८ वणपटिच्छादनमत्तेनेव-१६२ वणलेपनपुत्तमंसूपमवसेन - १५६ वण्टच्छेदा-१०९ वण्णपोक्खरता-२२७ वण्णवन्ततरो-९६ वण्ण-सद्दो-३७ वण्णसम्पत्तिं-१७९ वण्णारहस्सेव-३७ वत्थगुहं - २२२ वत्थसुत्ते-१०५ वत्थुकम्मन्ति-८६ वत्थुकामकिलेसकामेहि-२७० वत्थुपरिकम्मन्ति-८६ वत्थुविज्जाति-८३ वत्तपटिपत्तिं-१५३ वधकचित्तं -६५ वधकचेतना-६५ वनचरको-२११ वनपत्थन्ति-१७१ वनपब्भारं-१६९ वनमूलफलाहारा-२२१ वनवासी-१५५. वनसण्डं-१६९ वन्तगमनो-३४ वमनन्ति-८६ वयधम्मा-१६ वयानुपस्सनाय -५९ वयोअनुप्पत्तोति-१२०, २२८ वयोति-१७२ वरकल्याणो-२०८ वरमन्धाता -२०९ वररोजो-२०८ वरो-२०९,२८५ ववत्थापनवचनं-८७ वसनवनं-११३ वसनोकासोति-२१० वसली-२७ वसवत्तिभवनन्ति-४५ वसवत्तीति-९६ वसितगन्धकुटिं-८ वसिसतेहि-२ वसुन्धरं-५८ वस्सकम्मं-८५,८६ वस्सिकी-५३ वस्सूपनायिकाय-८ वाकचीरफलकचीरेसुपि-२६५ वाचाविक्खेपं- ९९ वाचासन्नितोदकेनाति-२८१ वाचितमनुवाचेन्तीति-२२१ Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [४६] दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गट्ठकथा [व-व] वादप्पमोक्खायाति-८१ वानविचित्तं-७८ वामअंसकूटे-२७२ वायसविज्जाति-८३ वायुवेगसमुप्पीळिता-१६४ वायोकसिणे - १०० वायोधातु-१५७,१५८,१६३ वायोधातूति-१५७ वारिजं-३८ वारिधारा-१७७ वालधिं-५३ वालवेधिरूपाति-१०० वालुकपुजं-४७ वासव-१२९ वासेठ्ठभारद्वाजानन्ति-३०० वासेट्ठो- २३३, ३०१ वाळमिगानि-२४४ विकतिकाति-७८ विकालभोजनं-७१ विकिण्णवाचा-- ४० विकुब्बनं-१८०, २९२ विक्खम्भनवसेन-१७१ विक्खम्भनसमुच्छेदप्पहानानि-२० विक्खित्तचित्तस्स-३० विक्खित्तचित्तो-३० विक्खेपपच्छेदनत्थं-११९,१२० विक्खेपोति-९८ विगतकथंकथो-२२४ विगतछन्दरागताय-९४ विगतदरथो-१७६ विगतनीवरणाय-१७२ विगतसम्मोहो-२०३, २५८ विग्गाहिककथाति-८१ विघासमंसं-२११ विचक्खणोति-१३८ विचरणकाले-१६८ विचिकिच्छतीति-२२२ विचिकिच्छापहानं-१७६ विचितकाळकन्ति-२२१ विच्छिकविज्जाति-८३ विजटये--५४ विजाननलक्खणं-५९, ६० विजितसेनाति-२०९ विज्जमानपञ्चत्ति-३० विज्जाचरणसम्पदाय-२१९ विज्जाचरणसम्पन्नोति-२१६ विज्जाति- २१६, २१७, २९१ विज्जाधरतरुणा-१२४ विज्झातदीपसिखा- २९४ विचत्तिं-१५७,१५८ विआणकिच्चनिद्देसो-३० विचाणक्खन्धो-१५९ विज्ञाणञ्चायतनसनं-५९ विज्ञाणञ्चायतनसमापत्तिया-५९ विआणधातु-१६३ विञआणन्ति -२९४ विजाणवीथिया -२९ विज्ञाणं - ९०,१०४, २९४ विज्ञातपरप्पवादा-१०० विजूहीति-२४६, २४७ वितक्कविचारं-५९ वितक्कितन्ति-१०४ वितण्डवादसत्थं -२०० वित्थम्भनलक्खणं-५९ वित्थारदीपनं-१४२ विदेहरो -११७ विनयट्ठकथायं-११३,२६९ विनयत्थविदूहि-१७ विनयधरानं -११ विनयधरो-१५६ विनयनतो-१७ विनयपत्तिं -८८ Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [व-व] सद्दानुक्कमणिका [४७] विनयपरियत्तिं-११ विनयपिटकावसानेपि-१३ विनयपिटकं -१३, १५, १६, १९, २४, २५ विनयवादिनो-५ विनयवादी-७१ विनयोति-१७ विनासमुखानि-२१७ विनासाभावं-९१ विनिच्छयट्ठाने - ८५, ११७ विपरामोसोति -७४ विपरिणामधम्मा-९४ विपरिणामधम्माति-१०३ विपरिणामानुपस्सनाय - ५९ विपस्सना-२, १८२, २१७, २७९, २८३ विपस्सनाजाणकथा-१७८ विपस्सनात्राणसङ्घाताय-२५३ विपस्सनाञाणस्स-१७८ विपस्सनाञाणे-२४७ विपस्सनाजाणं-१७८,१७९, १८३, २७९ विपस्सनापा- २६७ विपस्सनापञ्जाय-२३६,२५३ विपस्सनापादकं-१८१ विपस्सनाय-६१,१४८, १८२ विपस्सनालाभी-१७९ विपस्सनावीरियसङ्खाता-२६७ विपस्सनासुखसदिसस्स - २४७ विपस्सनासुखं-१७९ विपस्सी - ५६, ५७, ५९ विपाकक्खन्धा-२९७ विपाकफलं-१८८ विपाकमनोधातु-१५८ विपाकमनोविज्ञाणधातु-१५८ विप्पसन्नेन-२४५ विष्फन्दितमेव-१०५ विभङ्गप्पकरणे-१६५ विभवन्ति-१०२ विमतिच्छेदनत्थाय -६४ विमतिच्छेदना-६४, ६५ विमतीति-२२२ विमानवत्थु-१५ विमाने - १८६ विमुच्चतीति- १८२ विमुत्तमिति-१८२ विमुत्तिरसमेव-१५ वियोगो-८५ . विरजन्ति-१९२ विरागानुपस्सनाय - ५९ विरागायाति-२८० विरुद्धगब्भकरणन्ति-८५ विरुद्धवादा-३८ विलेपनन्ति-७२,७९ विलोकितेति-१५७ विवट्टच्छदो-२०३ विवट्टच्छदोति-२०३ विवट्टतीति-९५ विवट्टानुपस्सनाय-५९ विवादो-८४,३०१ विवित्तरुक्खमूलं-१७० विविधपच्चनीकवादा-३८ विविधपाटिहारियं--२८ विविधालङ्कारपटिमण्डिता – १२४ विवेकजपीतिसुखसुखुमसच्चसञीति-२७६ विवेकजं-४ विवेकसुखं-१४४, १७४ विसङ्घारगतं-१६ विसञ्जी-२७४ विसभागपुग्गलो-६ विसभागवेदना-२८७ विसभागवेदनुप्पत्तिया -१७२ विसयनिद्देसो-२९ विसवणिज्जा-१९० विसविज्जाति-८३ Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [४८] दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गट्ठकथा [व-व] विसाखपुण्णमदिवसे-३ वीरियसम्बोज्झङ्गस्स-६० विसाखाति-२०९ वीरियसंवरोति-२६३ विसादलक्खणो-१०४ वीरियाधिट्ठानं-५५ विसारदभावं-२२४ वीहिमुग्गमासतिलादीनि-२१८ विसिखा-८१ वुट्ठिउदकं- १७७ विसुद्धिमग्गे-३,३४, ८२, ९१, ९५, १०३, १०४, | वुड्डपब्बजितेन -३,७ १०७, १२३, १४०, १४२, १४९, १५०, १६३, । वुत्तधम्मानं-२० १७०, १७१, १७२, १७८, १८०, १८३, २७८, | वुत्तप्पकारचित्तकिरियवायोधातुविष्फारेन-१६१ २९२, ३०५ वुत्तप्पकाररतिधम्मसमङ्गिनो-९७ विसुद्धिमग्गो-३ वुत्तविज्ञाणसमङ्गिपुग्गलनिदस्सनं-२९ विसूकदस्सनं-७१ वुद्धसीली-२२७ विसंयोगकरणं-८५ वुसितन्ति-१८२ विसंवादनचित्तं-६८ वूपसमलक्खणं-६० विस्सकम्मुना-९ वेकटिकोति-२६५ विस्सज्जनसम्पटिच्छने-२३१ वेज्जकम्मादिवसेन -२६० विस्सासिकोति-६९,२५० वेज्जं-११४ विस्सुतधम्मस्साति-२९ वेताळन्ति-७७ विहरतीति-४, १२, ६६, ६७, ९८, ११३, १३९, वेदत्तयउग्गहणपञ्जा-२३५ २५९,२६३, २६५, ३०० वेदत्तयवचने - २१२ विहरन्तीति-७५,७८, ८३, ९७ वेदना-१८, ८८, ९४, १०४, १०७, १५९, १६०, विहारग्गेन-१९१ १७१ विहारदानं-२४४, २४५ वेदनाकम्मट्ठाने-१०८ विहारपटिसङ्घरणं-९ वेदनाक्खन्धो-५१,१५९ विहारसेनासनं-१७० वेदनाक्खन्धोति-४९ विहारोति-२०४ वेदनाति-१०७ वीततण्हो-४० वेदनादयो-१५९,१६० वीतदोसो-४० वेदनानिरोधोति-९३,९४ वीतमोहो-४० वेदनानं समुदयं - ९३ वीतरागो-४० वेदनापच्चया-१०७ वीतिक्कमप्पहानं-२० वेदनामूलकं-१०७ वीतिहरणे-१५७ वेदनारागेन-१०७ वीमंसानुचरितन्ति-९२ वेदनासमुदयोति-९३ वीमंसी-९२ वेदनासु-१३ वीरङ्गरूपाति-२०२ वेदयति-- १७६ वीरियन्ति-२०२ वेदयितलक्खणं-५९, ६० वीरियबलस्स-६० वेदल्लन्ति-२४,२५ Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [स-स] सद्दानुक्कमणिका [४९] वेदानन्ति-२०० वेदे-१९८, २०१, २१३, २२१ वेदेतीति-१७६ वेदेहमुनीति-११७ वेदेहिपुत्तोति-११७ वेदेहीति-११७ वेनयिको-३६ वेपुल्लत्तन्ति-२८३ वेभारपब्बतपस्से-९ वेमज्झे-३५ वेय्याकरणन्ति-२४,११० वेरजायं-१२ वेरमणी-२४५ वेलामसुत्तादीनं -१८९ वेसालियन्ति-२४९ वेसालिं-२४९ वेस्सन्तरजातके-१११ , वेस्सन्तरो-८४,९२ वेस्सभू-५६ वेस्सो - ९६ वेहासटुं-२२९ वेलुगुम्बोपि-१७० वेळुवनं-११४ वेळूति-७५ वोट्ठब्बनपरियोसानानि-१५९ वोदानलक्खणं-६० वोदानियाधम्मा-२८३ वोदापनलक्खणो-२५२ वोस्सकम्मं -८६ वोस्सज्जने-१५७ वोहारकुसलेन - १९ वोहारदेसना-१९ वोहारबाहुल्लतो-१९ वोहारो-२८४ वंसन्ति-७७ वंसानुरक्खणत्थाय-२२ सउत्तरच्छदन्ति-७९ सकणिकन्ति-१८० सकदागामिमग्गेन-५९ सकदागामी- १०८ सकम्मपसुताति-२३९ सकलजनपदो-२४३ सकलजम्बुदीपे – २७४ सकलबुद्धवचनं-१४८ सकसजी-२७७ सकिञ्चनोति-१९९ सकुणविज्जाति-८३ सक्कविमानं -२७४ सक्कायदिट्ठिआदीनं-२५२ सक्को-४०,१५५, १८९, १९४, २१३, २७४, २९३ सक्खरकथलं-१८३ सक्यकुमाराति-२०७ सक्यकोलियानं-२१२ सक्यपुत्तोति -२०० सक्यमुनीपि-५७ सक्याति-२०७ सग्गमग्गथले-२९९ सग्गसंवत्तनिका - १३१ सङ्खलिखितन्ति-१४८ सङ्खारक्खन्धो-४९,५१,१५९ सङ्खारलोकोति-१४२ सङ्खारेकच्चसस्सतिकाति-९४ सवित्तदीपनं-१४२ सङ्घियधम्मोति-४२ सङ्क्षियधम्म-४३ सबो-२२९ सङ्गामविजयोतिपि-११० सङ्गायिस्सामाति-९ सङ्गीता-२ Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [५०] दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गट्ठकथा [स-स] सङ्गीतिन्ति-१४ सतिआयतनेति-१०६ सङ्गीतिपरियोसाने-२५ सतिजननत्थं- २२२ सङ्घकम्म-२१७ सतिन्द्रियस्स-६० सङ्घपरायणोति-१८७ सतिपट्ठाना-६४,८८,२८४ सङ्घसम्पत्तिया-२६२ सतिबलस्स-६० सङ्घाटिपत्तचीवरधारणेति-१६१ सतिसम्पजञभाजनीयम्हि-१५१ सङ्घादिसेसानि-१२ सतिसम्पजओन - १४९, १६५, १६६, २८९ सङ्घारामो-२४९ सतिसम्बोज्झङ्गस्स-६० सङ्घोति-५१,११६, १९१ सतिसिद्धि-३० - सच्चवज्जेनाति-१३३ सतिसंवरो-२६३ सच्चवादी-६८ सतो-४५,४६, १४२,१६५, १७२ सच्चिकट्ठपरमत्थवसेन-३० सतोति-१०२ सच्छिकतनिरोधो-२२ सत्थवणिज्जा – १९० सच्छिकिरियायाति-२५४ सत्थुदस्सनत्थं-१२४ सछन्दचारिनो-२१७ सत्तपण्णि गुहाद्वारे -९ सज्जतन्ति-२४१ सत्तपदवीतिहारेन-५७ सज्जावुधो- १७५ सत्तबोज्झङ्गे-५४ सज्झायादिकरणवसेनेव-१६५ सत्तरसकन्ति-१३ सज्झायारद्धकालेयेव-१२ सत्तलोको - १४२.१४३ सञ्चयोति-१२१ सत्तवणिज्जा-१९० सञ्जाननलक्खणं-५९ सत्तसञ्जी-१३८ सञ्जा-८८,१०४,१५९,२७६, २७७,२७८,२७९, सत्तसतभिक्खुपरिवारो-७ २८० सत्ताहकालङ्कतो-१७८ सञ्जाक्खन्धो - १५९ सत्तोति-२८४ सआनिरोधसमापत्तीति-२७८ सत्तेकच्चसस्सतिका-९४ सज्ञानिरोधेति-२७४ सदारसन्तोसो-१४७ सजापतिट्ठानकाले-२८० सदेवमनुस्सवचनेन --१४३ सजावेदयितनिरोधं-२७८ सदेवमनुस्सं-१४३ सञ्जीगब्भाति-१३५ सद्दारम्मणं-१८ सञ्जीवादा - ८९,१०१ सद्धम्मस्सवनन्ति-४५ सञ्जप्पादाति-२७९ सद्धापटिलाभो-१८६ सट्ठिहत्थं-२२९ सद्धाबलस्स-६० सण्हसुखुमबुद्धिनो-१०० सद्धामूलिका -१८७ सति-२९, ६५, ६६,७६,७९, ८४, ९२, ९४, ९७, | सद्धिन्द्रियस्स-६० १०१, १०६, १०९, १२४, १६५, १७१, २२३, सनरामरलोकगरुं-१ २३३,२५४,२८३,३०१ सनिघण्डुकेटुभानं-२०० 50 Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ स - स ] सन्तिकम्मन्ति - ८५ सन्तिकरणविज्जा - ८३ सन्तिकावचरानं - २६२ सन्तिकावचरोति - २८८ सन्तीरणकिच्चं - १५८ सन्तोसकथा - १६६, १६८ सन्थतसेनासनं - १७० सन्दमानिका- ७६ सन्दिट्टिको ५२ सन्धागारन्ति - २०७ सन्धागारसालायं - ७ सन्धिन्ति - १३३ सन्निक्खेपनं - १५७ सन्निट्ठानिकचेतनाति - २९३ सन्निधिकारपरिभोगन्ति - ७५ सपत्तभारोव - १६९ सपुत्तदारभाव - २१८ सपुत्तभरिया - २१८, २१९ सप्पटिघं - ६२ सप्पदट्ठतिकिच्छनविज्जा - ८३ सप्पबिळारा - २१० सप्पायभोजनं - १६६ सप्पायसम्पज - १५१, १५२, १६०, १६१, १६२, १६३, १६४ सप्पाव्हायनविज्जा - ८३ सप्पितेलादिसम्मिस्सेहेव - २४२ प्रसभूमिं - ३१ सप्पुरिसूपनिस्सयञ्च - ३० सब्बकिच्चकारी - १५१ सब्बकिलेसबन्धनविमुत्ता - २५२ सब्बगुणविसिताय - ३४ सब्बङ्गपच्चङ्गीति - १०३ सब्बचित्तचेतसिकानं - १७९ सब्बञेय्यधम्मं - ४२ सब्बञ्ञतञ्ञाणकिच्चं - ४६ सब्बञ्जतञ्ञाणधम्मा - ९४ सद्दानुक्कमणिका सब्बतञ्ञाणं - ४६, ४७, ८७, १०४, ११०, १७८, २७१, २९७, ३०५ सब्बञ्ञपवारणं - ४७, १२९, १३०, २७३ सब्बभावं - ५७ सब्ब - ३७, ५०, ५२, २२०, २२२, २५१ सब्बभूति - २२२ सब्बतित्थियनिम्मद्दनस्स - ५८ सब्बतोपभन्ति - २९४ सब्बदिट्ठिवेदयितानि - १०६ सब्बदुक्खक्खयो - १८८ सब्बधम्मानं – ४३ सब्बनीवरणेसु - १७५ सब्बपाणभूतहितानुकम्पीति - ६६ सब्बबुद्धानमाचिणे - ५५ सब्बलोकुत्तरभावस्स – ५८ सब्बवारिधुतोति - १३८ सब्बवारिफुटोति - १३८ सब्बवारियुत्तोति - १३८ सब्बवारिवारितो - १३८ सब्बाकारपरिपुण्णं - ६२ सब्बाकारसम्पन्नोति - १७९ सब्बिरियापथेसु - १६९, २५४ सभावपरिच्छिन्नत्ता - १८ सभय - १२९ समग्गरतोति - ६९ समङ्गभूतोति - १०३ समणकोलाहलं - १३२ समणजीविकन्ति - ७६ समणधम्मं - १५५, १६६, १७१, २०३, २०५ समणभण्डनमेव- १३२ समणभूमि - १३५ समणमुण्डिकपुत्तसुत्तन्तवसेन - १४९ समणमुण्डिकापुतो - ३२ समणाति - ८९,२०५ समणोति - ६५, १४२, १९९ समतिंसपारमियो - ५७ 51 [५१] Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [५२] 1 समथविपस्सना - १९६,२८३ समथविपस्सनानं - ६१ समनुभासेय्यन्ति - १०० समनुयुञ्जेय्यन्ति - १०० समन्तचक्खुति - १५० समन्तपासादिकाय - ११३, २६९ समन्नागतोति - ९२, १४९, १६५, २२७, २३७ समपस्सद्धकायचित्तो - २३३ समयप्पवादको - २७१ समवाये - ३२, १५९, १६० समसमोति - २३४ समादानविरति - २४५ समादानविरतीति - २४६ समाधानलक्खणो - २५२ समाधिक्खन्धोति - २८९ समाधिक्खन्धं - २८९ समाधिन्द्रियस्स - ६० समाधिबलस्स - ६० समाधिभावना - २५१ समाधिभावनानन्ति - २५१ समाधिसम्बोज्झङ्गस्स - ६० समुदयधम्मं - २२४ समुदय सञ्जातीति - २९७ समुद्दवखायिका - ८१ समोधानलक्खणं - ६१ समोसरणलक्खणं - ६१ सम्पञ्ञविरहितो- १५१ सम्पजञ्ञस्स- १६५, १६६ सम्पजञानं १६५ सम्पञ्ञेन - १४९, १५१ सम्पज - १५१, १६५ सम्पजानकारिता - १६४, १६५ सम्पजानकारी - १५१, १५७, १६४, १६५ सम्पजानकारीति - १६५ सम्पजानसञ्ञानिरोधसमापत्तीति - २७८ - ४५, ४६, १५७, १५८, १६५ सम्पजानो सम्पजानोति - १७२ सम्पटिच्छनकिच्चं - १५८ सम्पतिजातो - ५७ सम्पत्तविरतीति - २४६ सम्पन्नसीलानं - ५३ समापत्तियो - २१७ समारकं - १४३ समारम्भो - २४४ समिञ्जनपसारणे - १६० समिञ्जनपसारणं - १६०, १६१ सम्पयुत्तधम्मा - १५९ सम्परायिको - ३२ सम्पादनसुत्ते - २८३ सम्पहारपिसाचादिदस्सनेसु - १२५ सम्पहंसने – २७,१४१ सम्पहंसेसीति - २४१ सम्पादेथाति - १६ समिञ्जिते - १६०, १६४ समितपापताय - ६५, ११९ सम्पियायमानो - १७५ सम्फप्पलापो - ६९, ७० सम्बाहनन्ति - ७९ समितपापा- २४० समीपचारीति - २८८ समुच्छेदनलक्खणं - ६१ समुच्छेदपटिपस्सद्धिनिस्सरणविमुत्तियो - २६७ समुट्ठानलक्खणं - ६० समुट्ठापनलक्खणो - २५२ समुत्तेजेसीति - २४१ समुदयट्ठिति - ८८ दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गट्ठकथा सम्बुका - १८३ सम्बुद्धी - २८५ सम्बोधिपरायणो - २५२ सम्भवजातके- १३० सम्मप्पञ्ञाय - १८८ सम्मप्पधानसतिपट्ठानवसेन - २५३ 122 52 [ स स ] Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [स-स] सद्दानुक्कमणिका सम्मसनं-२७६, २७७ सम्मा उपट्ठानलक्खणा-२५२ सम्माआजीवो-२५२,२५३, २५४ सम्माकम्मन्तो- २५२,२५३, २५४ सम्मादस्सनलक्खणा-२५२ सम्मादिट्ठि- १८७, २५२, २५३ सम्मापटिपत्तिमिच्छापटिपत्तीनं-१३६ सम्मापयोगमन्वाय -१६३ सम्मावाचा-२५२, २५३, २५४ सम्मावायामो-२५२,२५३,२५४ सम्मासङ्कप्पो-२५२,२५३,२५४ सम्मासति-२५२,२५३, २५४ सम्मासतीति-२५३ सम्मासमाधि-१३१,२५२,२५३,२५४ सम्मासमाधीति-२५२ सम्मासम्बुद्धो-११,५२,१४८, २०३ सम्मासम्बुद्धोति-२०३,२२३ सम्मासम्बोधि-१५,४२,६२ सम्मुतिकथा-२८४ सम्मूळ्हो-३० सम्मोदकोति-२३१ सम्मोदनीयकथायपि - २२३ सम्मोहाभिनिवेसं-५९ सयम्भू-२८ सयम्भूत्राणेन-२२४ सयंपटिभानन्ति-९२ सयंपटिभानं-३७ सयंपभा-९५ सरणगतानं-१८६ सरणगमनप्पभेदो-१८६,१८८ सरणगमनफलं- १८६ सरणगमनं -१८६, १८७, १८८,१८९,२४५, ३०६ सरणमुत्तमं-१८८ सरपरित्ताणचम्म-१३१ सरसन्थम्भनमत्तेयेव-२१५ सरसम्पत्तिवसेन – २२१ सराति-१३५ सरीरकिच्चं-११७ सरीरगन्धेन-२११ सरीरनिस्सन्दोव-१६४ सरीरपटिजग्गनं-२७२ सरीरसण्ठानसम्पत्तिया - २२७ सलक्खणसङ्घातो-२०,२१ सलळवती-१४३ सलाकभत्ततो-२४४,२४५ सलाकभत्तसतानि-२४४ सलाकभत्ते-२४४ सलाकवेज्जकम्म-८६ सल्लहुकवुत्तितं-१६९ सल्लेखसुत्ते -१४७ सवनकिच्चविज्ञाणसमङ्गिना-३० सवनतोथ-१७ सवनन्तरायो-१९९ सविचारं-४ सवितक्कं-४ सस्सतदिट्ठियो-१०४ सस्सतवादा-८९, ९०, १०६ सस्सताति-२८२ सस्सतिसमन्ति-९१ सस्समिव-१७ सहजातधम्मे-२५३ सहजातपच्चयो-१६० सहधम्मिको-२५९ सहधम्मिकोति-२१३ सहम्पति-१५५ सहसाकारोति-७४ साकभक्खोति-२६५ साकवनसण्डे -२०९ साकियो-१८८ साकुणिका - १३४ साक्खरप्पभेदानं-२०० सागरदेवेन-८१ Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गट्ठकथा सागरी - ८१ साचियोगोति - ७४ साणानीति - २६५ साणिपाकारस्स - २२० सातलक्खणं - ६० सात्थकसम्पज - १५१, १५७, १६०, १६१, १६२, 1 १६४ साधारणपरिभोगो - २४० साधुकारदानं - ११ साधुकीळनदिवसा- ७ साधु-सद्दो- १४१ साधेतीति - २०३ सापतेय्यं - २४२, २४३ सामग्गिरसोति - ३६ सामञ्ञफलन्ति - १३१ सामञ्ञफलानि - १३१, १८८ सामञ्ञसङ्घाताति - २६३ सामणेरभूमियं - २६९ सामणेरो - १५२, १९५, २५० सामन्तराजानं - २०९ सामाकभक्खोति - २६५ सामिवचनं – ४९, २२९, २४१ सिखी - ५६ सिङ्गिवेरं - ७५ सिनिसूरोति – २०९ सिनेरुपब्बतचन्दिमसूरिये - ९१ सिनेरुपादके - ५५ सिनेरुमूले – १२७ सिनेरुं - ३७, ४६, २०५, २२८ सामीचिकम्मं - २७३ सामुक्कंसिकाति - २२४ सायततियकं - २६५ सारणीयधम्मा - १०५ सारफलके - ३९ सारलक्खणं - ६१ सारादानाभिनिवेसं - ५९ सारिपुत्त - १४७, २०१, २६७ सारिपुत्तमोग्गल्लानेसु – ११७ सारिपुत्तो - १५६, २७३ सालपन्तिया - २९६ सालवतिकाति - २९६ सालवने - ३ सावकपारमीञाणञ्हि - ८७ सिप्पफलं - १३०, १३१ सिप्पायतनं - १३० सिप्पिकसम्बुकादीनं - १८३ सिप्पूपजीवनं - १३० सिरिव्हायनन्ति - ८५ सिरीगब्भे - २३८ सिरीसम्पन्नो - ८३ सिवविज्जाति - ८३ सिविका ७६ सिरसभावूपगमनेन - १८७ [५४] सावकबोधिम्पि - १३३ सावकसङ्घोति - ३८ सावकसम्पत्तिं - ३५ सावज्जसञ्ञी - २६४ सावज्जाति - २६२ सावत्थिनगर - ५४ सावत्थियन्ति - २७१, २८६ सासनरसं - १७३ सासनस्स - ५२, ७१, १४४, २१७, २१८ साहत्यिको - ६५ साहसिककिरिया - ७४ साळिकायिव - १४२ सिक्खत्तयब्रह्मचरियं - १४८ सिक्खा - २०, २००, २१७, २७६ सिक्खापदपञ्ञापनत्थाय - १९६ सिक्खापदानि - १२, १३, ३३, १७५, २४५, २४६ सिक्खापदेसूति - १४९ सिक्खाप्पहानगम्भीर भावञ्च - २१ सिखाभेदो - ७३ 54 [ स स ] Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [स-स] सद्दानुक्कमणिका सीता-१७७ सीलकथं-१५० सीलक्खन्धोति-२८८ सीलगन्धो-५३ सीलचित्तपञासम्पदाहि-२६६ सीलतेजेन-२७४ सीलपआणन्ति-२३४,२३५ सीलपाय--२३५ सीलपरिक्खारो-२४० सीलपरिधोता-२३४ सीलपरिधोताति-२३४ सीलपरिसुद्धा - २३४ सीलमत्तकन्ति-५५ सीलवन्तं-२५१ सीलवाति-५२ सीलविसुद्धिया-६१ सीलविसोधनत्थं-१७४ सीलसमाधिपचाविमुत्तिन्ति-१०८ सीलसमाधिविपस्सना-१४४ सीलसमाधीनं-२८९ सीलसम्पदा-१९०,२६६ सीलसम्पन्नोति-१४९ सीलसंवरो-२३५, २६३ सीलादिसम्पदा-२६६ सीलेनाति-१३६ सीसच्छिन्नं-२७५ सीसविरेचनन्ति-८६ सीहनादो-२६८ सीहब्यग्घादयो-२१० सीहळभासं-२ सीहो-५८, २११, २५०, २७२ सुकतदुक्कटानन्ति-१३६ सुकतदुक्कटानं-१३६ सुक्काभिजातीति-१३५ सुक्खनदीतीरे-२६९ सुखदुक्खं -५९,१३६ सुखविपाका-१३१ सुखसजे-५९ सुखसम्फस्सानि-४४ सुखुमच्छिकेनाति-१०८ सुखुमआणगोचरं-१५ सुखुमसच्चसाति-२७६ सुखुमसञ्जा-२७६ सुखेन्तीति-१३१ सुगतितो-१३५. सुगतोति-२७५ सुग्गतिन्ति-८६ सुई-१९९ सुचरितानि-२६०, २६१ सुचिभूतं -६७ सुचिरतेन ब्राह्मणेन-१३० सुजातो-२१३, २२६ सुजं-२३३, २४१ सुञतानुपस्सनाय-५९ सुज्ञतापटिसंयुत्ताति-८८,८९ सुञतालक्खणं-६० सुज्ञन्ति-९५ सुञागारेति-२६७ सुच-९५,११३,१७० सुतधरो-२९ सुत-सद्दो-२९ सुत्तनिक्खेपं - ४८ सुत्तनिपाते-२४ सुत्तन्तपिटके-१४,१५, २०,२७ सुत्तपदेसु-३३,७७ सुत्तसभागतो-१७ सुत्ताणा-१७ सुदिन्नं-१२ सुदुक्करं-२६६ सुद्दो-९६ सुद्धविपस्सना-२८३ सुद्धस्सुपोसथो-११८ 55 Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [५६] दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गट्ठकथा [स-स] सुद्धावासभूमियं - २५२ सुद्धावासा-२०१ सुद्धिकगाथा - २४ सुनक्खत्तो-२५१ सुनखिया-२५६ सुनखो-२६४, २८६, २८७ सुपण्णा -४८ सुपरिकम्मकतमत्तिकादयो-१८० सुपरिसुद्धं -३ सुपिनसतानीति-१३५ सुपिनं - ८२ सुपेसला-५३ सुप्पकासितन्ति-१४७ सुप्पतिहितचित्तो-१३८ सुप्पियो-३९, ४२,४३ सुप्पियोति-३६ सुभगकरणन्ति-८५ सुभट्ठायिनो-९५ सुभद्दकण्डं-५ सुभद्देन -३,७,४४ सुभसुत्तं -८,२८६ सुभासुभन्ति--२९४ सुभोति-१७९ सुमना-१६२ सुरत्तदुपट्ट-४५, २७२ सुलभपिण्डपातं-३९ सुवण्णचुण्णपिञ्जरं-१९८ सुवण्णदण्डा-५८ सुवण्णनावा-- ४० सुवण्णन्ति-७४ सुवण्णपाति-७३,२८७ सुवण्णपादुका-२८७ सुवण्णमाला -२८७ सुवण्णमासकरजतमासकादिवसेन -२३७ सुवण्णरसपिञ्जरानि-४४ सुवण्णसत्थकेन-११४ सुविसुद्धं - १४५ सुवुट्टिकाति-८४ सुसानलक्खणं-१७१ सूकरिका-१३४ सूचनतो-१७ सूचिविज्झनं-७० सूचिसुत्तचीवरकारकानं-७५ सूदनतो-१७ सूरकथापि-८० सूरियत्थङ्गमना-७१ सूरियुग्गमनतो-२४२ सेक्खपटिसम्भिदाप्पत्तं -६ सेक्खभूमि-१३५ सेक्खो -५, ६,१० सेखियानीति-१३ सेट्ठवण्णी-२२७ सेट्ठवसेनेव-१८७ सेट्ठिगहपतिनो-२४१ सेतकण्णिकं-१४३ सेतच्छत्तं-१९९ सेतुघातविरतीति-२४५ सेनाब्यूहन्ति-७७ सेनासनन्ति-१७० सेलस्स ब्राह्मणस्स - २२३ सोकपरिदेवदुक्खदोमनस्सुपायासा-१०३ सोकसल्लसमप्पितं-७ सोकोति-२७३ सोचयतोति-१३२ सोचापयतोति-१३२ सोणदण्डो-२२५, २२६, २२८, २३२, २३४, २३६ सोतद्वारानुसारविज्ञातधरोति -२९ सोतफस्सायतनं-१०६ सोतापत्तिफलादीनं-२५४ सोतापत्तिफले-११४, १९७, २९२ सोतापत्तिमग्गेन - ५९ सोतापत्तिमग्गं-१९२, १९७ Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ह-ह] सद्दानुक्कमणिका ___[५७] - सोतापन्नसकदागामिअनागामिअरहन्तोपि-६६ सोतापन्नो-१०८, २५२ सोतिन्द्रियविक्खेपनिवारणमेतं-१४१ सोभनकन्ति-७७ सोभाकरणथं-२२१ सोमनस्सजाता-१०५,१०६, १९५ सोमनस्सदोमनस्सं-२९१ सोमनस्समयञाणेन-१६ . सोवग्गिका-१३१ सोळसपरिक्खारन्ति-२३७ सोळसपरिवाराति-१६ संकिलिट्ठचित्तस्स-६९ संकिलेसिकाधम्मा-२८३ संकिलेसो-१८९ संयुत्तनिकायो-१६, २३ संयुत्तसङ्गहोति - २४ संयोगाभिनिवेसं-५९ संयोजनानन्ति-२५२ संयोजेन्ति-२५२ संवच्छरानं-२७५ संवड्डनारी-७० संवरणन्ति-८५ संवरलक्खणं-६१ संवरापज्जना - १९२ संवरो-२० संवेगसमयो-३३ संसन्दनत्थाय-६४ संसरन्तीति-९१ संसुद्धगहणिको-२२७ संसुद्धगहणिकोति-२२६ स्वाक्खातो-३८,५०,५२ स्वागतन्ति-२३१ स्वागतवादीति-२३१ हठ्ठतुट्ठचित्तो-१० हतावसेसकाति-२३९ हत्थकम्मकारके -९ हत्थकम्म-९ हत्थकिच्चसाधनञ्च-१६३ हत्थकुक्कुच्चं-४१,१२७ हत्थविकारं-२०५ हत्थाचरियहत्थिवेज्जहत्थिमेण्डादयो-१३१ हत्थाभिजप्पनन्ति-८५ हत्थिअस्सगहपतिरतनेहि -२०२ हत्थिअस्सरतनेहि-२०२ हत्थिनिको-२०९ हत्थिसारिपुत्तो- २७२,२८२ हदयङ्गमा-६९,७० हदयभेदसिखाभेदरज्जुभेदवसेन-७३ हदयभेदो-७३ हदयमसं-२२३ हनुकट्ठीनि-१६३ हनुसंहननन्ति-८५ हम्मियं - १७० हरणपच्चाहरणसङ्खातं-१५६ हलाहलं -३७ हलिद्दाभिजाति-१३४ हलिद्दाभिजातीति-१३५ हस्सखिड्डारतिधम्मसमापन्नाति-९७ हारितो महाब्रह्मा-४० हितचित्तकोति-६६ हिमवन्ततो-२५६,२५७ हिमवन्तपदेसे-१९८ हिमवन्तपस्से - २०९,२१२ हिमवन्ताभिमुखा-२०९ हिरञसुवण्णं-२२९ हिरिवेरन्ति-७५ 57 Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [५८] गुणस - ६७ हीनजातिको - २२७ हीनाधिमुत्तिका - ४३ हीळनवसेन - २२३ हेट्ठादन्तउदुक्खले - १६३ हेतुदिट्ठिसु - ३२ हेतुद्वयं - २०३ हेतुफलं - २० हेतुलक्खणं - ६० होमकरणवसेन - २१८ दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गट्ठकथा 58 [ह-ह ] Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथानुक्कमणिका एतं खो सरणं खेमं–१८८ एवं यस्सानुभावेन-१११ अञ्जनानं खयं दिस्वा-२८६ अझं उप्पज्जते चित्तं - १५७ अत्थप्पकासनत्यं -२ अत्थानं सूचनतो-१७ अत्थानं सूचनतो सुवुत्ततो-१७ अनत्थजननोकोधो-५० अनत्थजननो लोभो-५२ अनेकजातिसंसारं-१६ अपनेत्वान ततोहं-२ अप्पकेनपि मेधावी-२३९ अप्पमत्तो अयं गन्धो-५३ अहञ्च भरिया च मनुस्सलोके - १४६ करुणासीतलहदयं-१ कतावकासा पुच्छन्तु भोन्तो-१३० किकीव अण्डं-५३ किं ते वतं किं पन ब्रह्मचरियं-१४६ कुद्धो अत्थं न जानाति-५० केन पाणि कामददो-१४६ को मे वन्दति पादानि-१८४ कोण्डच-१३० आ आदिम्हि सीलं दस्सेय्य-१४५ गन्त्वान सो सत्त पदानि गोतमो-५८ क इच्चेव कतो तस्मा-३ इति पन सब्बं यस्मा-३ इति मे पसन्नमतिनो-२ इधेव तिट्ठमानस्स-१४२ चतुत्तिंसेव सुत्तन्ता -२३ चतुधा विभजे भोगे-१८८ चन्दनं तगरं वापि-५३ चातुद्दिसो अप्पटिघो च होति-१६९ चिरप्पवासिं पुरिसं-११० 59 Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [६०] दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गट्ठकथा [ठ-म] चोदिता देवदूतेहि-३६ ठपेत्वा चतुरोपेते - २४ नव सुत्तसहस्सानि-२४ न पुष्फगन्धो पटिवातमेति-५३ न हरामि न भजामि-३८ न हि धम्मो अधम्मो च-८६ तग्घ ते अहमक्खिस्सं-१३० ततो वातातपो घोरो-२४४ तस्मा अकल्याणजनं - १३८ तस्मा अन्नञ्च पानञ्च - २४५ तिचीवरञ्च पत्तो च-१६८ ते तस्स धम्मं देसेन्ति-२४५ ते तादिसे पूजयतो-२२९ तेन पाणि कामददो-१४६ तेसं सम्पन्नसीलानं-५३ तं तं अस्थमपेक्खित्वा -३४ तं मे वतं तं पन ब्रह्मचरियं-१४६ परवज्जानुपस्सिस्स- १८१ परियत्तिभेदं सम्पत्तिं-२१, २३ पिटकं पिटकथविदू-१८ पुच्छ मं-१२९ पुच्छ वासव-१२९ पुथून जननादीहि-५६ बावरिस्स च तुरहं वा-१२९ बुद्धोति कित्तयन्तस्स-५१ बुद्धोपि बुद्धभावं-१ बुद्धोपि बुद्धस्स भणेय्य वण्णं - २३२ ब्रह्मजालस्स तस्सीध-११२ दिढे धम्मे च यो अत्थो-३२ दियड्सतसुत्तन्ता - २३ दीघस्स दीघसुत्तङ्कितस्स-२ दुक्खं दुक्खसमुप्पादं - १८८ दुवे पुथुज्जना वुत्ता-५६ दुवे सच्चानि अक्खासि-२८५ देसनासासनकथाभेदं- १९, २१ द्वासीति बुद्धतो गण्डिं-५, २५ भगवाति वचनं सेट्ठ-३४ भये कोधे पसंसायं-१८४ भवङ्गावज्जनञ्चेव-१५८ भाग्यवा भग्गवा युत्तो-३४ भीरुं पसंसन्ति-१२५ धम्मोति कित्तयन्तस्स-५१ म मज्झे विसुद्धिमग्गो-३ Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [य - ह] गाथानुक्कमणिका ____ [६१] मयञ्च भरिया नातिक्कमाम-१४७ मुहुत्तजातोव गवम्पती यथा-५८ यस्थ च दिन्नमहप्फलमाहु-१८६ यथेव लोकम्हि विपस्सिआदयो-५७ ये केचि बुद्धं सरणं गतासे- १८९ यो च बुद्धञ्च धम्मञ्च-१८८ यं एत्थ वुड्डिमन्तो-१८ साधु धम्मरुचि राजा-१४१ सिथिलं धनितञ्च दीघरस्सं-१४५ सीतं उण्हं पटिहन्ति-२४४ सीलकथाधुतधम्मा-२ सीलं योगिस्सलङ्कारो-५३ सीले पतिट्ठाय नरो सपो -५४ सीहळदीपं पन आभताथ-२ सुगतस्स ओरसानं-१ सुणातु मे-११, १२, १३, १४ सुभासितं सुलपितं-११० सो अहं विचरिस्सामि-१८७ रागविरागमनेजमसोकं-१८५ हित्वा पुनप्पुनागतमत्थं-२ हीनेन ब्रह्मचरियेन-१४७ लुद्धो अत्थं न जानाति-५१ विनासयति अस्सलु-३१ विविधविसेसनयत्ता - १७ विहारदानं सङ्घस्स-२४५ सङ्केतवचनं सच्च-२८५ सङ्कित्तेनपि देसेति-१४२ सङ्घोति कित्तयन्तस्स-५१ सच्चानि पच्चयाकारदेसना-२ सतेहि पञ्चहि कता-२६ सत्तसुत्तसहस्सानि-२४ सब्बा च अभिजायो-२ समयं अविलोमेन्तो-२ समवाये खणे काले-३२ Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संदर्भ-सूची पालि टेक्स्ट सोसायटी (लंदन)- १९६८, भाग-१ पालि टेक्स्ट सोसायटी पृष्ठ संख्या पालि टेक्स्ट सोसायटी प्रथम वाक्यांश वि. वि. वि. वि. वि. वि. पृष्ठ संख्या पंक्ति संख्या * w to « < 20066M2006 - 6m S « an am करुणासीतलहदयं सच्चानि पच्चयाकारदेसना मञ्जमाना पक्खं विनयञ्च संगायाम ठपेत्वा आनन्दं पञ्चन्नं भिक्खुसतानं महापरिदवो अहोसि । खण्डफुल्लपटिसंखरणं आणाचक्कं, तुम्हाकं वीतिनामेत्वा रत्तिया हन्द दानिमस्साहं चीवरं कत्वा थेरे भिक्खू ठपेसुं । द्वेनवुति सिक्खापदानि सङ्घस्स पत्तकल्लं चतुतिंससुत्तन्तपटिमण्डितं अनुपादिसेसाय तिप्पभेदमेव होति सुट्ठ च ने तायति समोधानेत्वा तयो पि वीतिक्कमप्पहानं इति अयं गाथा पञआसम्पदं कस्मा पनेस ति वेदितब्ब or o w guvo a aa a aa a aa a aar me ~ 0 3 63 Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [६४] दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गट्ठकथा धम्मविनयादिवसेन इमिस्सा पठममहासंगीतिया मुण्डकस्स समणकस्स यदिदं आनन्दो ति संखेपो | नानप्पकारेन वुच्चमानो पि एवं मे सुतन्ति खो सावत्थियं देसनापटिपत्तिसमयेसु च सब्बगुणविसिट्ठताय वोसानमापादी अद्धानमग्गं पटिपन्नो वत्वा तथा तथा सप्पराजवण्णं ति अत्थो । आचरियेन रतनावेळरतनदामरतनचुण्णविप्पक्किण्णं बुद्धलीळाय चन्दो विय छायूदकसम्पन्न सुत्तन्तपरियायेन तयो अन्तरायिक धम्मे वा चक्खुना विसुद्धेन चितो च विधावन्ति दक्खिणेन पस्सेन कताधिकारपुग्गलदस्सनत्थं गहेत्वा विहरन्तं इमं विप्पकता न राजकथादिका उत्तरं आसवानं धम्मनेत्तिं ठपेसि अभूतभावेन एव कस्मा पनेतं वुत्तं सन्दिट्ठिको भिक्खु सब्रह्मचारीनं उपरि गुणे उपनिधाय अनोमनदीतीरे चक्कवाळमहासमुद्दे तथलक्खणं आगतोति Mor:2042 vur v mm or240 »RMA-MAur 2 - M * 64 Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१ ६२ ६३ ६४ ६५ ६६ ६७ ६८ ६९ ७० ७१ ७२ ७३ ७४ ७५ ७६ ७७ ७८ ७९ ८० ८१ ८२ ८३ ८४ ८५ ८६ ८७ ८८ ८९ ९० * * * * & w ९१ ९२ ९३ ९४ ९५ ९६ कथञ्च सो गतो ? गतो अव्यापादेन रूपस्स रुप्पनलक्खणं... पे०... सम्मावायामस्स छन्दस्स मूललक्खणं...पे०... यं रूपं चतुन्नं कथंतथाकारिताय तेन यं वृत्तं पनानिच्चं मरणन्ति अदिन्नादानं पहायाति दिन्नं एव वाचाय वा परं वाचं भासति करोति तं सामग्गिं सुकुमारा नारी विय अत्थ संहितन्ति या दुस्सील्यचेतनाय तुलाकूटादिसु आगच्छति । तमेको इदानि मज्झिम सीलं पाचित्तियं, अत्तना कण्डुकच्छुछविदोसादि आबाधे आहारापेत्वापि ठपेतुं भिक्खवे दक्खिणेसु वासलाकहत्थं पटलिका ति घनपुप्फो चाति मञ्चस्स हत्थबन्धादिसु सात्थकं पन नाम निमितो ति निजिगिंसन्ति मग्गन्ति अग्गिहोमन्ति तस्मा विसुं वृत्तं भविस्सति बाहिरानं लोकायतं वुत्तमेव संदर्भ-सूची 65 ५७ ५९ ५९ ६० ६१ ६२ ६२ ६३ ६४ ६५ ६६ ६७ ६८ ६९ ६९ ७० ७१ ७२ ७३ ७४ 2224 229 9 9 9 F F F F 8 ७४ ७५ ७६ ७७ ७७ ७८ ७८ ७९ ७९ ८० ८१ ८२ ८२ ८३ ८४ ८४ [ ६५ ] १८ ३ २४ १४ ६ २ २४ १८ १७ १७ ११ ७ ४ १ २२ १९ ८ ५ ४ १ १९ १५ ९ १ १८ ८ २० ७ २६ १७ ८ ५ २१ १७ ९ २७ Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [६६] दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गट्ठकथा ९७ १०० १०१ १०२ १०३ १०४ १०५ १०६ १०७ १०८ १०९ ११० १११ ११२ ११३ ११४ ११५ ११६ हनुसंहननन्ति वत्थुकम्मन्ति वुत्तवण्णस्स अनुसन्धिवसेन पुथुवचननिद्देसो वत्थुस्मिं सिक्खापदपज्ञापन पे०... पच्चयट्ठिति चे पुब्बन्तं कप्पेत्वा अस्थम अभिभवित्वा अनेकविहितं पुब्बे तत्थ इमिनामहं एतं सस्सतो अत्ताति परिनिट्ठापिता | कारणसंखाता वेदनाक्खन्धस्स वयं पस्सति यन्ति निपातमत्तं ठातुं न सक्कोन्ति अन्तमसो त्वं जरावसेनापि कतमे पन ते अन्तानन्तिका ति अनियामितविक्खेपो। उपादानं, विहननवसेन होति तथागतो ति एतेसं अस्थीति उपच्छेदं । विनासन्ति दिट्ठधम्मनिब्बानवादे विचारितन्ति अनुमज्जनवसेन संखारा विज्ञाणं तं वेदयितं दक्खिणापथो ति भगवा हि वट्टकथं समाधि पञ्जाविमुत्तिन्ति नेत्तिसदिसताय भवतण्हा एवं वुत्ते आयस्मा चिरप्पवासिं पुरिसं पंसुकूलगहणे, द्विसहस्स एवं मे सुतं ११७ ११८ १०० १०० १०१ १२० १०२ १०३ १२१ १२२ १०४ १०४ १२३ १२४ १२५ १०५ १०६ १२६ १०७ १२७ १०८ १२८ १०९ १२९ १०९ १३० १३१ ११० १११ ११३ १३२ 66 Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संदर्भ-सूची [६७] १३३ ११३ १३४ ११४ १३५ १३६ १३७ ११५ ११५ ११६ ११७ १३८ ११७ १३९ १४० ११८ १४१ १४२ १४३ १४४ १४५ १४६ ११९ ११९ १२० १२१ १२२ १२२ १४७ १४८ १४९ १५० १५१ तत्थ जीवतीति जीवको अहो वताहं रञो अथेकस्मिं समये परियोनन्धनपुरिसो विय ततो पट्ठाय रञो सकलसरीरं खोभेत्वा भगवतो दस्सनारहस्स मासपुण्णताय उतुपुण्णताय अवसेको ति वुच्चति बहु सन्निपतिता सन्तिके अञ्चे पि तेलघटं गहेत्वा एव कथेसि तत्थ तं खो पन जीवकाति वुत्तं होति ततो महाजनो चिन्तेसि सतसहस्सअग्धणिकानि ति इदं ओत्तप्पभयं नाम अविदूरेनेव गच्छति विहारस्स वण्णं सब्बालङ्कार पटिमण्डितं भिक्खुसद्धं बुद्धा पन पुच्छावुसो तग्य ते अहं उग्गा राजपुत्ता ति अस्सा अस्थीति यथा ते ब्याकंसु खुरपरियन्तेनाति सत्ता देवत्तम्पि उत्तमयोनीनं समणभूमि जिनभूमि सत्त देवा ति नत्थि हायनवड्डने इन्द्रियानीति द्वीसु तीसु सब्बवारिवारितो चाति १२३ १२४ १२५ १२५ १२६ १२७ १२७ १२८ १२९ १५२ १५३ १३० १३१ १३१ १३२ १५४ १५५ १५६ १५७ १५८ १५९ १६० १६१ १६२ १६३ १६४ १६५ १६६ १६७ १६८ १३३ १३४ १३५ १३५ १३६ १३७ १३७ १३८ Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [६८] दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गट्ठकथा १७० १७१ १७२ १७३ १७४ १७५ १७६ १७७ १७८ १७९ १८० १३९ १४० १४१ १४१ १४२ १४३ १४४ १४४ १४५ १४६ १४७ १४८ १८१ १४८ १८२ १८३ १४९ १५० १५१ १५१ १८४ १८५ १८६ सो वतस्साहं पि नन्ति आदिमाह चिन्तेत्वा उपरिविसेसं दीपेति, पच्छिमेन लोके तथागतो अरहत्तफले उप्पन्नो तेसं विमतिं विधमन्तो अनेकानुसन्धिकस्स सिथिलधनितञ्च तं मे वतं अभिजानामि खो पब्बजित्वा मानं एकन्तपरिसुद्धं सुत्तन्तवसेन वा अज्झत्तन्ति नाम पटिनिवत्तन्तो चित्तकम्मरूपकानि कम्मट्ठानसङ्खातं गोचरं पच्चुग्गन्त्वा, पत्तं द्वत्तिक्खत्तुं अज्झोहरणमत्तेनेव भिक्खाचारं गच्छन्ता पटिजानित्वा आरोचेसि कलहकारकानं ओकासो अथ मज्झिमवये तत्थउद्धरणे पवत्ता सम्पजानो होति. साधयमाना, तं निरोधा सम्पयुत्ता वेदना विसेसं अधिगच्छतीति संघाटि चीवरानं निवासनपारुपनवसेन कातब्बं असुन्दरं व होन्ति, वणपटिच्छादनमत्तेनेव कटछुना वा दब्बिया उच्चारपस्सावकम्मं होति ति अयं निसिन्ने सम्पजस्सवसेन १५२ १८७ १८८ १८९ १९० १९१ १९२ १९३ १९४ १९५ १९६ १९७ १५३ १५३ १५४ १५५ १५५ १५६ १५७ १५७ १५८ १५९ १६० १६१ १६१ १६२ १९८ १९९ २०० २०१ १६३ २०२ २०३ २०४ १६४ १६५ १६६ 68 Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संदर्भ-सूची १६६ १६७ १६८ २०५ २०६ २०७ २०८ २०९ २१० २११ १६९ १७० १७१ १७१ २१२ २१३ २१४ २१५ २१७ १७२ १७२ १७३ १७४ १७५ १७५ १७६ १७७ १७८ १७८ १७९ २१८ २१९ २२० २२१ २२२ चरित्वा मिस्सकाहारं मुत्तहरीटकं ठपेत्वा नवपरिक्खारिकस्स इदानि तमत्थं सेनासनं पीठम्पि उस्सापेत्वा पंसुकूल नासिकग्गे वा अयमेत्थ संक्खेपो दासव्या ति दासभावा एवमेव थीनमिद्धाभिभूतो चित्तस्स उप्पादेन्तो आचारपण्णत्तिआदीनि पजहति । सो एवं परिप्फोसकं ततियज्झानसुखउपमायं भिक्खूति दस्सेति तत्थ रूपी सामञफलं तस्मा पि इद्धिविधज्ञाणलाभी दिब्बचक्खुउपमायं भिय्योति कतं करणीयन्ति द्वयं चरन्तं अभिक्कन्ता भन्ते कालपक्खचातुद्दसीअद्धरत्तीघनवनसण्डमेघपटलेहि परियत्ति धम्मो पि संघो । तस्मा इमिना पि परिच्चत्तो येव मे अत्ता अगहितं एव होति अपरम्पि वुत्तं किमस्स सीलन्ति परामसेय्य उच्छग्गं पटिकरित्वा आयतिं निब्बतेत्वा एवं मे सुतं तथा अङ्गुलिमालस्स २२३ १८० २२४ २२५ १८१ १८२ १८२ १८३ २२६ २२७ १८४ २२८ २२९ १८५ १८५ २३० २३१ १८६ २३२ १८७ १८८ २३३ २३४ २३५ २३६ २३७ १८९ १९० १९१ १९२ १९२ १९४ १९४ २३८ २३९ २४० Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [७०] दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गट्ठकथा २४१ २४२ १९५ १९६ १९६ १९७ २४३ २४४ २४५ २४६ २४७ १९८ २४८ १९९ २०० २०० २०१ २०२ २४९ २५० २०३ २०३ २५१ २५२ २५३ २५४ २५५ २५६ २०४ २०५ २०६ २०६ २०७ .२०८ ~ini - 26 - 500MM 5000M.NAR06 २५७ दटुं लच्छामीति अञ्जन पि कारणेन अदिन्नादाना कामेसु मिच्छाचारा तदवसरीति छिन्नमत्तं येव केन दिन्नन्ति उच्चाकुलपरिदीपनं महापुरिसलक्खणन्ति पठवियं ठितो अज्झत्तं कोधादिपच्चत्थिके रागदोसमोहमानदिट्ठिअविज्जादुच्चरितछदनेहि नहायित्वा सरीरं तुम्हेहि अनेकासु कप्पकोटिसु दानं तेन वुत्तं अम्बट्ठो आसीविसं गीवाय कुलापदेसं उट्ठापेत्वा ते किर अम्बट्ठस्स अनुपसंकन्तं तं दिस्वा अदासिं । सा पुत्तस्स वसनोकासं आगते मापेत्वा वनपत्तफलाफलानि मातिवंसं पुच्छित्वा कण्हं नम जनेसीति अञ्जन वा अचं खो पस्सन्तीति ओलोकेन्तो सो तं खुरप्पन्ति अथ भगवा विज्जाचरण सम्पन्नो चे खारिं विधमादायाति बहुजनकुहापनत्थं गण्हन्ति, ते विज्जं जानाति तत्थ रथूपत्थरे ति नेतं ठानं विज्जतीति पि किच्चं न सरति च सेलस्स च २५८ २५९ २०९ २१० २६० २६१ २६२ २१० २११ २१२ २६३ २६४ २१३ २१४ २१४ २१५ २६५ २६६ २६७ २६८ २६९ २७० २१६ २१७ २१८ २७१ २१८ २७२ २२० २७३ २२० २२१ २७४ २७५ २७६ २२२ २२२ 70 Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संदर्भ-सूची [७१] २७७ २७८ २२३ २२४ २७९ २२५ २८० २२५ २८१ २२६ २८२ २२७ २८३ २२८ २८४ २२९ २२९ २८५ २८६ २८७ २८८ २८९ به له سه له سه له سه سه Mr» r8239w m429 M» २९० २९१ २९२ २९३ अगमासि, तं पिस्स धम्म चक्खुन्ति एवं मे सुतं नीलादिपञ्चवण्णकुसुमपतिमण्डितं तत्थ इमिना पोक्खरता वुच्चति जिण्णो ति जराजिण्णताय कुलसहस्सानि पितिपक्खे घटेत्वा आगमिस्ससिनेव मे चतुपारिसुद्धिसीलेन सीलवा एहिसागतवादीति यथा वा तथा वा नामगोत्तन्ति । भो गोतम अपवदतीति पटिक्खिपति वचनं अनुजानन्तो आह । विसेसं न जानन्ति नाम नत्थि एवं मे सुतं महापठविमण्डलं विजिनि ब्राह्मणं आमन्तेत्वा ति मासिकादिपरिब्बयञ्च । तस्स अट्ठहि अङ्गेहीति करोमीति चिन्तेन्तो उप्पज्जिस्सति हन्दस्स दण्डतज्जिता नाम निगमभङ्गेन नगरभङ्गेन तत्र इदं वत्थु कातब्बं होति, तस्मा इदं सुत्वा ब्रह्मणो पञ्चिमानि भिक्खवे आकासानञ्चायतनादिसमापत्तिवसेन याव ब्राह्मणो तं एवं मे सुतं एकमन्तन्ति उस्माट्ठाना दक्खिणउत्तरतो दीघा पहारित्वा बधिरं २९४ २९५ २९६ २३७ २३७ २३८ २३९ २४० २९७ २९८ २९९ २४० २४१ २४२ ३०० ३०१ ३०२ ३०३ २४३ २४३ ३०४ २४४ २४५ २४६ 9402020 ३०५ ३०६ ३०७ ३०८ २४७ २४८ २४९ ३०९ २४९ ३१० ३११ २५० ३१२ २५१ Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [७२] दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गट्ठकथा ३१३ ३१४ ३१५ २५२ २५२ २५३ २५४ ३१६ २५६ ३१७ ३१८ २५६ ३१९ २५७ "३२० ३४९ ३५० ३५१ ३५२ २५८ २५९ २५९ २६० २६१ २६२ ३५३ ३५४ २६३ ३५५ ३५६ ३५७ ३५८ सोतापन्नो होतीति तत्थ सम्मादस्सनलक्खणा खेमेन योगावचरो सम्मासति देसिता एवं मे सुतं निब्बत्ति । तं अपुत्तको आरोचेस्सामाति, कोसम्बिं पठमज्झानं पत्तस्स एवं मे सुतं...पे०... कारणं नत्थीति ? अपरो पुञवा न साधू ति सरीरनिष्फत्तिं दिस्वा सीहनादं नदित्वा न कुम्भिमुखा ति निवत्तति । सन्धाय वुत्तं अवेरन्ति सीलचित्तपञासम्पदाहि विमुत्ताधिकारे पटिपत्तिपूरणेन तत्थ तत्र मं अट्ठवत्तपूरणेन पच्चक्खं कत्वा एवं मे सुतं...पे०... सब्ब ताणं आचरियुपज्झायवत्तं वा आगतो, सारिपुत्तो तितेसा भन्ते दुतियो तं न सक्का असमुप्पन्न कामरागो पि तत्थ यतो खो आकिञ्चायतनसमापत्ति अवसेससमापत्तिसु पच्चवेक्खणजाणं २६४ २६४ २६५ १.२६६ २६६ २६७ २६८ २६९ ३५९ ३६० ३६१ ३६२ ३६३ २६९ ३६४ ३६५ २७० २७१ २७१ ३६६ २७२ ३६७ ३६८ ३६९ ३७० ३७१ ३७२ ३७३ ३७४ ३७५ ३७६ २७३ २७३ २७४ २७५ २७६ २७७ २७७ २७८ २७९ Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७७ ३७८ ३७९ ३८० ३८१ ३८२ ३८३ ३८४ ३८५ ३८६ ३८७ ३८८ ३८९ ३९० ३९१ ३९२ ३९३ ३९४ ३९५ ३९६ ३९७ ३९८ ३९९ ४०० ४०१ ४०२ ४०३ ४०४ ४०५ ४०६ एवमेव अञ् न अभिन्नाया ति आनिसंसं पञ्ञत्ता हुत्वा तत्थ पठमज्झाने पचपन्नो सत्तो ति वा एवं मे सुतं ... नासक्खिसु अप्पातङ्को ति अत्यस्स थेरो एवं मे सुतं ...पे..... नीचट्टाने मा एवन्ति आगम्म बुद्धमेव भविस्सति, अत्थिचेव चत्तारो महाभूता अभिसङ्घारविञ्ञाणं पि एवं मे सुतं ... किरेत्थ अधिप्पायो विमानानि, तेसं परस्स अनुसासकस्स एवं मे सुतं नहायितुकामा नदीतीरं मग्गामग्गे भो मज्झिमो पीति वेदितब्बा आवरणा ति अयं यत्थ सङ्घधमो संदर्भ-सूची [**पी. टी. एस. भाग - २ (१९७१) प्रारम्भ । ] 73 २८० २८० २८१ २८२ २८३ २८४ २८४ २८६ २८६ २८७ २८८ २९० २९० २९१ २९२ २९३ २९४ २९४ २९६ २९६ २९७ २९८ ३०० ३०० ३०१ ३०२ ३०३ ३०४ ३०४ ३०५ [७३] ७ २६ २१ १३ ११ ६ २३ १ १६ १९ १४ १ १५ १५ १६ १० ६ २३ १ १६ १९ १४ १ १६ wa w u m v z १९ १६ २२ १५ Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ May the merits and virtues earned by the donors and selfless workers of Vipassana Research Institute, Igatpuri be shared by all beings. May all those who come in contact with the Buddha Dhamma through this meritorious deed put the Dhamma into practice and attain the best fruits of the Dhamma. Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ DEDICATION OF MERIT ***N**+6+*«3Ñ€¥Q***@* May the merit and virtue accrued from this work adorn the Buddha's Pure Land, repay the four great kindnesses above, and relieve the suffering of those on the three paths below. May those who see or hear of these efforts generate Bodhi-mind, spend their lives devoted to the Buddha Dharma, and finally be reborn together in the Land of Ultimate Bliss. Homage to Amita Buddha! NAMO AMITABHA Printed and Donated for free distribution by The Corporate Body of the Buddha Educational Foundation 11th Floor, 55 Hang Chow South Road Sec 1, Taipei, Taiwan R.O.C. Tel: 886-2-23951198, Fax: 886-2-23913415 Email: overseas@budaedu.org.tw Printed in Taiwan 1998, 1200 copies IN046-2004 Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ටි. . . . . පct, පටි සීයා ඌ 3". . ගෙය 9., 2යයයය, යය හ. ද ය. ය පරිප යන දිනයයිශය | බෞටිය දී, සියා ගේ මේ ඇල ,