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मकान्त
सम्पादक-जुगलकिशोर मुख्तार
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वीरशासन-महोत्सवपर पधारनेवालोंसे
श्रा व श्य क निवेदन
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Homuperies
ता० ३१ अक्तूबरमे ४ नवम्बर सन् १९५४ तक कलकत्तामें श्री वीरशासनका मार्धद्वय-सहस्त्रागि । महोत्सव तथा भारतवर्षीय दिगम्बर जैन तीर्थक्षेत्र कमेटीका अधिवेशन गवराजा मर संठ हुकमचन्दजी
इन्दौर के मभापतित्वमे होगा। इस अवसरपर पधारनेवाले महानुभावोंसे निवेदन है कि वे जितना भी शीघ्र होमके अपने आने के इरादे और साथियोंकी संख्यामं निम्न पतेपर सूचित करने की कृपा करें, जिससे उनके लिये ठहरने के स्थान और खाद्य पदार्थों का समुचित प्रबन्ध किया जा सके। क्योंकि युद्ध-परिस्थितिके कारण कलकत्तामें जैसी कुछ व्यवस्था चल रही है उसके कारण दोनोंका एकदम समयपर प्रबन्ध होना कठिन है। पहले मे सूचना मिलनेपर ही सिविल समाई आफिम आदिके द्वारा हम योग्य प्रबन्ध करने में समर्थ हो सकेंगे। आशा है आगन्तुक महानुभाव इसपर अवश्य ही ध्यान देनेकी कृपा करेंगे।
विषय-सूची १ वीरशासनाभिनन्दन
बोटेलाल जैन, २ वीरकी लोकसेवा ३ तुम महान मानव (कविता) ४ कूर्षकोका सम्प्रदाय
मंत्री वागतसमिति ५ नागार्जुन और पमन्तभद्र
1. चित्तरंजन एवेन्यू, कारता ६ सन्देश-दात्री ७ जैनसंस्कृति के प्राण
तारका पना८ शिवभूनि, शिवाय और शिषकुमार १७
सिद्धान्त कता
१ बालोकसेवा (कविता)
वर्ष
अगस्त-सितम्बर १९४४
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वीर-शासन-महोत्सव
श्री वीर जिनेन्द्र के शासनको-उनके धर्म तीर्थ को-प्रवर्तित हुए २५०० वर्ष हो चुके हम भर्सेमें वीरशासनने जगत के जीवों का जो अनन्त उपकार किया है वह वर्णनातीत है। संक्षेप में इतमा ही कहा जा सकता कि यह सर्वोदय तीय है-सब जीवोंके अभ्युदय उत्थान और प्रारमाके पूर्ण विकाशक साधक है। इसने जन्म लेकर संसारकं भूले-भटके प्राणियों को उनके हितका वह मन्देश सुनाया है जिससे उन्हें दुःवोंसे छुटने का मार्ग मिला, दुःखकी कारणीभूत भूलें जान पडी उनके वहम तुर हुए और उन्हें यह स्पष्ट प्रतिभारित हुआ कि सच्चा सुख अहिंसा और अनेकान्त दृष्टिको अपनानेमें हैं. ममताको अपने जीवनका अंग बनानेमें अथवा बन्धनसे परतन्त्रतासे-घटनेमे हैं। साथही, इस शापनने आमात्रओंको ममान बतलाते हुए प्रामविकासका सीधा तथा सरल उपाय सुझाया और यह स्पष्ट घोषित किया कि अपना उत्थान और पतन अपने हाथमे हैं उसके लिये नितान्त दूसरों पर प्राधार रखना, सर्वथा पावलम्बी होना अथवा तुमरों को दोष देना भारी भूल है। इसमे पीदिन पतित और मार्गच्युत जनता को यह आश्वासन मिला कि उसका उद्धार हो सकता है, स्त्रीजाति तथा शद्रो पर होने वाले तत्कालीन अत्याचारों में भारी रुकावट पैदा हुई और वे सभीजन यथेष्ट रूपमे विद्या पढने तथा धर्म साधन करने प्रादिके अधिकारी ठहराये गये। इसके सिवाय हिंसात्मक यज्ञोंमें होने वाले कावलिदानी का जो अन्न हुआ और जिसमे मनुष्य समाज कुछ उँचे उठा वह सब इम शामन की वामदेन है
इन्हीं पब उपकारोंके उपलक्षमे अागामी ३१ वक्तबरसे ४ नवम्बर तक कलकत्साम वीरशासनका माईद्वय महमाब्दि महोत्सव मनाया जाने वाला है, जिसके लिये बनी बडी तय्यारियों होरही हैं, देश-विदेश की विदजनता जुडेगी और वीरशासनको अपनी द्धाजलि कपंण करेगी यह अपूर्व रश्य देखने ही योग्य होगा। प्रत: वीरशासनक प्रेमी सभी मजनों को इस शुभ अवसरपर कलकत्ता पधारकर वीरशासनके प्रति अपनी कृतज्ञता व्यक. करनी चाहिये और विद्वानोंके सभागममे यथेष्ट लाभ उठाना चाहिये।
मम्पादक
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* ॐ महम् *
* अनेकान्त , सत्य, शान्ति और लोकहितके संदेशका पत्र
नीति - विज्ञान - दर्शन - इतिहास - साहित्य कला और समाजशास्त्र के प्रौढ विचारोंसे परिपूर्ण
सचित्र-मासिक
सम्सदक
जुगलकिशोर मुख्तार 'युगवीर' अधिष्ठाना 'वीरसेवामन्दिर' ( समन्तभद्राश्रम )
सरसावा जि० सहारनपुर
सातवाँ वर्ष [ भाद्रपद वीर नि० सं० २४७० मे भाषण धीर नि० सं० २४७१ तक]
अगस्त सन् १६४४ से जुलाई सन् १९४५ तक
प्रकाशक
परमानन्द जैन शास्त्री बोरसेवामन्दिर, सरसावा जि० सहारनपुर
वार्षिक मूल्य चार रुपया
सितम्बर सन् १९४५
(एक किरसका मूल्य
मामाने
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अनेकान्तके सातवें वर्षकी विषय-सूची
विषय और लेख पृष्ठ विषय और लेग्वक
पृष्ठ अपमान या अत्याचार-[सम्पादक
६५ भ० महावीरप्ररूपित अने, स्वरूप-[श्रीकानजी स्वामी ११८ अमृतचन्द्र-स्मरण-[सम्पादक
६. भारतीय इतिहासका जैनयुग-[बा. ज्योतिप्रमाद ७७,१२१ अहंस्मरण-सम्पादक
४१ भा० इनिहाम महावीरका स्थान-बा. जयभगवान ६६७ अहिंसाकी विजय (कविता)-[कल्याणकुमार 'शशि' 18 मानवसं के इतिहाममें महावीरकी देन-[पं. रतनलाल ३५ कलकत्तामें वीरशामनका सकल महोत्सव-सम्पादक ३७ मोक्ष तथा मोक्षमार्ग-[पं० बालचन्द काव्यतीर्थ १४४ कृर्चकोंका मम्प्रदाय-[पं. नाथूराम प्रेमी
रन श्रा०और श्रासमी०कर्तृव-[प्रो.हीरालाल३०,५२,६२ क्या न कर्ता स्वामी सही है "-[4. नाथूगम प्रेमी२. विद्यानन्दका समय-न्या. पं० दरबारीलाल कोठिया ६७ क्या रत्नकाण्डश्रा. स्वामी समन्तभद्रकी कृति नहीं है? विनय स्वीकारो (कविता) पं.सूरजचन्द
१५८ -न्यायाचायं ५० दरबारीलाल जैन, १०५,18 वीरकी लोकमेवा-वा. माणिकचन्द्र बी० ए०३ क्या वर्तनाका वह अर्थ गलत है ?-[पं. दरबारीलाल २१४ वीरके वैज्ञानिक विचार-[पं. धन्यकुमार जैन एम ए.१३६ गजपन्यत्रका प्रति प्राचीन उद्भव-[० दरबारीलाल १४८ वीरशासन-पर्वका स्वागतगान-वैरा ओमप्रकाश २०६ गजपन्थक्षेत्रके पुराने उल्लेख-[५० नाथूगम प्रेमी ६४ वीरशासनाभिनन्दन-[सम्पादक .... . गुलामी (खण्डकाव्य-म्ब० भगवत स्वरूप जैन १३१ वीपसन्देश [पं. नाथूराम डोंगरीय .... १२८ छमवेषी खग्धारियांप कविता।-[पं. काशीराम शर्मा ७३ वीरगंवामन्दिरमै वीर जयंती उ०-[पं. दरबारीमान २२३ जगन्-रचना-श्री कर्मानन्द
६१ वैराग्यकामना, राग वैर ग्यका अन्नर-[म्व.भूधरदाय जीवटाया ०६३ मे मृद० मंजद' पाट [प्रो. हीराजाल १५. शिवभूति, शिवायं और शिवकुमार-पं० परमानन्द १७, जनअनुश्रुतिका ऐतिहासिक महत्व-बा. ज्योतिप्रमाद १७६ श्रीचन्द्रनामके तीन विद्वान-पं. परमानन्द शास्त्री०३ जैनजातिका सूर्य अम्त -[जुगलकिशान मुख्तार २२५ श्रीदादीजी-वियोग-[जुगलकिशोर मुग्टतार .. १०९ जैन धर्मकी चार विशेषताएं-[प० पन्नालाल माहिन्या. २२ श्रीधवलाका ममय-बा. ज्योतिप्रमाद एम० ए० २०७ जैन संस्कृति के प्राण जैनपर्व- [प. बलभद्र जैन १५ श्रीवीर-जिन-म्मरगा-[मपादक तुम महान मानव थे. कविता-श्री 'नन्मय' बुग्यारया ६ श्रीश्रमणभ० महावीर, उनके मिक-मुनि आत्माराम ४१ त्रैलोक्यप्रकाशका रचनाममय-[श्री अगरचन्द नाहटा ६० सन्देशदात्री-पुष्पेन्दु । धनपालनामके चार विद्वान [प. परमानन्द शाम्बी ४ समन्तभद्का एक और परिचयपध-[सम्पादक २६ ध्यानारूढ प्रादिजिनेन्द्र-सम्पादक
समीचीन धर्मशास्त्र और हिन्दी भाष्य-[सम्पादक ११,१५३ नागार्जुन और समन्तभद-न्या. ५० दरबपीलाल १८ सम्पादकीय
.... ... २०.१६४ पत्रकारके कनंग्यकी अचहलना-[सम्पादक ९४६ माहित्यपरिचय और समालोचन-[पं० परमानन्द २८,१६६ पथिकसे (कविता)-ज्ञानचन्द्र भारिल्ल
१२७ मिद्ध-स्मरण-[सम्पादक ... . पं० पन्नमुन्दरके दो ग्रन्थ पं. नाथूराम प्रेमी
मुख और दुख-[श्रीजमनालाल जैन विशारद १३५ प्रकाश रेखा (कविता)-[स्व. भगवन् जैन १६. सुम्ब और ममता-[बा० उग्रमेन जैन एम.ए. वकील ७४ बन्दिनी (कहानी)-श्री भगवन जैन " २६ सुलोचनाचरित्र और देवसेन-[पं० परमानन्द शास्त्री १५६ भगवतीदास नामके चार विद्वान-पं० परमानन्द शास्त्री ५४/ स्वयंवरा (खंडकाव्य)-[म्ब० भगवस्वरूप 'भगवन्' ८६ भगवान् महावीर-[पं० सुमेरुचन्द्र दिवाकर, ११. स्वामी समन्तभद्र धर्मशास्त्री तार्किक, योगी-[सम्पादक ४२ म. महावीर और म० बुद्ध-[श्री फतेहचन्द बेलानी ११३ स्वावलम्बन और स्वतंत्रमा-श्रीजमनालाल जैन १७ भगवान महावीरसे०(कविता)-[पं. नाथूराम डोगरीय . हमारी शिक्षा-समस्या-बा०प्रभुलाल जैन प्रेमी २५
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* ॐ अहम् *
वस्ततत्त्व-सघातक
विश्व तत्त्व-प्रकाशक
वापिक मूल्य ४)
PLANNARY
इस किरणका ।)
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34.
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N नीतिविरोधध्वंसी लोकव्यवहारवर्तक सम्प। परमागमसाज भुवनैकगुरुर्जयत्यनेकान्तः॥
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REPORT सम्पादक-जुगलकिशोर मुख्तार बीरसेवामन्दिर (समन्तभद्राश्रम) सरसावा जिला सहारनपुर अगस्त-सितम्बर भाद्रपद-आश्विनशुक्ल, वीरनिर्वाण संवत् २४७०. विक्रम सं. २००१
वप किरण १,२
वीर-शासनाभिनन्दन
सब जिन ! शासन-विभवो, जयति कलावपि गुणाऽनुशासन-विभवः । दोष-कशाऽमनविभवः, स्तुवन्ति चैनं प्रभा-कृशाऽऽसनविभवः ।।
-स्वयंभूस्तोत्र, श्रीसमन्तभद्रः
(हे वीर जिन!) आपका शासन-माहात्म्य-आपके प्रवचनका यथावस्थित पदार्थों के प्रतिपादन-स्वरूप गौरव-कलिकाल में भी जयको प्राप्त है-सर्वोकृष्ट रूपसे वर्त रहा है--, उसके प्रभावस गुणों में अनुशासनप्राप्त शिघ्यजनोंका भव विनष्ट हुआ है-संसार-परिभ्रमण सदाके लिये छूटा है--इतना ही नहीं, किन्तु जो दोषरूप चाबुकोंका निराकरण करने में समर्थ हैं-चाबुककी तरह पीड़ाकारी काम-क्रोधादि दोषोंको अपने पास फटकने नहीं देते और अपने ज्ञानादि-तेजसे जिन्होंने प्रासन-विभुत्रोंको-लोकके प्रसिद्ध नायकोंकोनिस्तेज किया है वे-गणधर-देवादि महात्मा-भी आपके इस शासन-माहात्म्यकी स्तुति करते हैं।'
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अनेकान्त
[वर्ष ७
दया-दम-स्याग-समाधिनिष्टं नय-प्रमाण-प्रकृताञ्जमार्थम् । अधृष्यमन्यैरग्विलैः प्रवादैर्जिन स्वदीयं मतमद्वितीयम् ॥
युक्त्यनुशामने, श्री मन्तभद्रः __हे वीर जिन ! आपका मन-शामन-नय-प्रमाण के द्वारा वस्तु-तत्वको बिल्कुल स्पष्ट करने वाला और सम्पूर्ण प्रवादियोंम अवाध्य होनेक माथ माथ दथा (अहिंसा), दम ( मंयम), त्याग और ममाधि ( प्रशस्त ध्यान ) इन चारोंकी तत्परताको लिये हुए है। यही सब उसकी विशेषता है, और इमीलिये वह अद्वितीय है।'
सर्वान्तवत्तद्गुण-मुख्य-कल्पं सर्वान्तशून्यं च मिथोऽनपेक्षम् । सर्वापदामन्तकरं निरन्तं सर्वोदयं तीर्थमिदं तवैव ॥
-युक्त्यनुशामने, श्रीममन्तभद्र: 'हे वीर प्रभु ! आपका प्रवचन-तीर्थ-शामन-सर्वान्तवान है-मामान्य, विशेष, द्रव्य, पर्याय, विधि, निषेध, एक, अनेक, आदि अशेप धमों को लिये हुए है और वह गुण-मुख्यकी कानाको माथमे लिए हुए होनेसे सुव्यवस्थित है-उसमें असंगतता अथवा विगंधके लिये कोई अवकाश नही है-जो धो परम्पर अपेक्षाका नहीं मानते-- उन्हें मर्वथा निरपेक्ष बलाते हैं-उनके शासनमें किसी भी धर्मका अस्तित्व नहीं बन सकना और न पदार्थ-व्यवस्था ही ठीक बैठ सकती है। अतः आपका ही यह शामनतीथ सर्वदाग्बोका अन्त करनेवाला है, यही निग्न्त है--किमी भी मिथ्यादर्शन के द्वारा बण्डनीय नही है--और यही सब प्राणियों के अभ्युदयका कारण तथा आत्माके पूर्ण पभ्युदय (विकाम ) का साधक ऐमा 'मर्वादयतीर्थ' है। भावार्थ--
आपका शासन अनेकान्तके प्रभावसे मकल दर्नयों ( परस्पर निरपेक्षनयों ) अथवा मिथ्यादर्शनोंका अन्त (निग्मन) करनेवाला है और ये दुर्नय अथवा सर्वथा एकान्तवादरूप मिथ्यादर्शन ही मंमारमे अनेक शारीरिक तथा मानमिक दुःश्वरूप आपदाओं के कारण होते हैं, इमलिये इन दुर्नयरूप मिथ्यादर्शनोंका अन्त करने वाला होनेम आपका शामन ममस्त आपदाओका अन्त करनेवाला है, अर्थात जो लोग आपके शामनतीर्थ का आश्रय लेते हैं--उमे पूर्णतया अपनाते हैं. उनके मिथ्यादर्शनादि दर होकर ममस्त दुःख मिट जाते हैं। और वे अपना पूर्ण अभ्युदय (उत्कर्ष एवं विकाम) सिद्ध करनेमें समर्थ हो जाते हैं।'
कामं द्विषन्नप्युपपत्तिचतुः समीक्षतां ते समदृष्टिरिष्टम् । स्वयि ध्रुवं खण्डितमानशृङ्गो भवत्यभद्रोऽपि समन्तभद्रः॥
-युक्त्यनुशासने श्रीममन्तभद्र: (हे वीर भगवन !) आपके इष्ट-शासनमे भरपेट अथवा यथेष्ट वेप रखनेवाला मनुष्य भी यदि समदृष्टि (मध्यस्थवृत्ति) हुआ उपपत्तिचक्षम---मात्मय के त्यागपूर्वक युक्तिमंगत समाधानकी दृष्टिम--श्रापके इष!-- शासनका--अवलोकन और परीक्षा करता है तो अवश्य ही उपहा मानशृङ्ग खण्डित होजाता है-सर्वथा कान्तरूप मिथ्यामतका आग्रह छूट जाता है और वह अभद्र अथवा मिथ्यादृष्टि होता हुआ भी सब ओरसे भद्ररूप एव सम्यग्दृष्टि बन जाता है--अथवा यूं कहिये कि आपके शासननीर्थका उपासक और अनुयायी हो जाता है।'
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वीरकी लोक-सेवा (ले०-वा० माणिक्यचन्द्र जैन, बी० ए०)
-- - "जब अधर्मका दुम्बद गज्य होता है जागे। रक विषय-कषायोके वशीभूत अथवा इन्छाअकि गुलाम न होने हैं अन्याय जगनम निश-दिन भारी॥ थे। इच्छाश्रीको दमन करनेकी शक्ति उनम भरपूर थी। मामाजिक सब नीनिीतियाँ नम जाती है। अशवा । कहिये कि व ऐसी इच्छाश्रीको उम्पन्न ही नही अनाचार -वृत्तियों हृदयमे बम जाती है। होने देते थे। भगवान महावार मंमारके श्रादर्श-सेवक एवम् नब ऐसे मत्पुरुपका, हाना झट अवतार है। मनुष्यों के मफल मनानायक थे। ममारमेमे बर्बरताको दूर जो अपने मच्चरिनम, हरना पापाचार है॥" हटाकर मनुष्योको हिमा, शान्ति, मल और मदाचारका
(पुष्कल) पाठ पटाना उनके जीवनका उद्देश्य था । वे मर प्राणियों भगवान् वीर सन्चे वार हैं। मंमारक बड़से बड़े पुरुषों की पावन पथका अनुगामी बनाना चाहते थे। व मनुष्यको मेमे वे एक हैं। वे हमाग तरह ही माना रहे है। नरम मानव बनाना चाहते थे। शैता'नयत और हैवानियतको नागपग हुए हैं। उन्होंने लोकिकनामे अलौकिकता पामका दर हटाकर इन्मानियनका आधिपत्य स्थापित करना है। इसीलिये उनका जीवन हमारे नये श्रादर्श है। मारी चहत थे। मनुष्य जातिको ऐसे ही श्रादर्शकी श्रावश्यकता है।
मनुष्य अत्यन्त ऋर बन गया था। इनना कर कि एक अंग्रेज विद्वान्ने भगवान वाक जीवनपर प्रकाश उसकी ऋग्ना शेर और बचीमा ऋग्नाको भी मान करती डालते हुए कहा है :
थी। दया श्री विवेकको कोई स्थान नहीं मिला हा था। __"But I want to interprete मानवताक स्थानपर पाशविकता काण्ड ताण्डव कर रही Mahabird's lite as using fronm थी। पाखण्डी महात्मा बने हुए थे । जनता त्राहि त्राहि कर "Manhood to Godhood" And not as रही थी। पशुबलि और कर्मकाण्डका अभिक्य था। दीन from "God hood to super Godhood" पशुश्रीको प्राननाद मुनने वाला कोई न था। इतना ही It that were so I would not even नही, भाग्नवसुन्धग पर नग्मेध-यज भी प्रचलित होगये थे। touch Mahalira's life, as we are not इन यजी श्रार कर्मकाण्डोम जनता विक्षुब्ध हो उठी थी, पर gods bur IAI. Man is the greatest उस ममयम धर्माचार्यों का विरोध करनेकी ताकत तत्कालीन subject for man's study"
जनताम न थी । ऐम मंक्टा-गन-विनियम्न ममयमे, मत्य, अर्थात्-महावीरक जीवनका महत्व यह है कि वह अहिमा और मानवता के प्रतीक अादर्शवीर भगवान महावीर पुरुष मनुष्यवसे ईश्वरत्वकी ओर बढा है, न कि ईश्वर- वीर अपने विचागेको न दवा मक। उन्दोंने मामारिक तसे परमेश्वरत्वकी ओर । अगर वह ईश्वग्त्वमे परमेश्रग्त्वकी भौगोपभोगोंको लात मार कर लोक कल्याणका हामंकल्प
ओर बढ़ता तो मैं उनके जीवनको स्पर्श नक न करना, क्यों किया। कि हम मनुष्य है देवता नहीं। मनुनही मनुष्य के लिये भगवान बीग्ने उम ममयके प्रचलित अत्याचारपूर्ण सबमे अधिक अध्ययन करनेकी वस्तु है।"
रीति-रिवाजो और विधि-विधानों के खिलाफ तथा ढांग और उक्त लेखकका विचार यथार्थ है। भगवान वीर मच्चे उमके पोषकोंके विरुद्ध अपनी भावान बुलन्द की। यजी मानव थे। मानव-जीवनकी वास्तविकताको वे खूब ममझते और कर्मकाण्डाको कडी बालोचना करके पे धूपित कृत्या थे। उनमें चरित्रका तेज और शानका बल था। वे मामा के खिलाफ जिहाद बोल दिया। अपने तप, त्याग और
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अनेकान्त
[वर्ष
वीरत्व-द्वारा जनताको ममझा दिया कि जैमी तुम्हारी स्वयं उम मोक्ष अवश्य मिल सकेगी। चाहे वह किसी भी वर्ण की आत्मा है वैमी ही प्रात्मा अन्य प्राणियोंकी है। जिस और जानिका क्यों न हो? अपने कमौकी निर्जग करनेमे प्रकार तुम स्वपं जीना पमन्द करते हो उसी प्रकार मागेको प्रत्येक प्राणीको मोक्ष मिल मकना है। मोक्षका द्वार किमीके भी जीने दो। 'जीवो और जीने दो के मिदान्त-द्वारा मग- लिये बन्द नहीं है। पान बीरने परमपनीन अहिमा धर्मका महत्व विश्वको बतला गभवानके इम सिद्धान्तका जनता पर मुन्दर प्रभाव दिया। उनकी अहिमा उच्चमे उच्च कोटिकी थी पर उनके पड़ा। लाखोकी तादादम लंग भगरानके अनुयायी बन जीवनम अहिमा कमी भी अव्यवहार्य न हो पायी । उन्होने गये। भगवानके पाम ब्राह्मण, क्षात्रय, वैश्य और शूद्र मब गृहरण और योगीको अहिमाका वास्तविक रूप जनताके यान थे। भगवानके ममक्ष ऊंच और नीचका कोई भेदममक्ष ग्यवा। जनताने अहिमाके मर्मको ममझा और अपने भाव नहीं था। र, आज उन्दी भगवान वीरके अनुयायी जीतनम अहिमाको उत्ताग्नेकी कोशिश की । अहिमाके अावश्यकतामे अधिक साम्प्रदायिकता और कट्टरताक भक्त अान्दोलन-द्वाग यज और कर्मकाण्ड बन्द हो गये। भारत बने हुए हैं। श्राजके जैनी इतने मंकीर्ण विचागे वाले स्यो में मत्य, अहिमा और शान्तिका प्रादुर्भाव दुधा। अहिसाम बने हर है ? ममझमे नही पाना! क्या वे भगवान नारका निश्वका कल्यागा हुअा। यह भगवान बीरकी लोक मेवाका दिव्य-मन्देश भूल गये? जाति-पातिके भेदभावको दर हटा प्रथम पहलू है।
कर जनताको मन्मार्ग पर लगाना वीरकी लोक-मेवाका भगवान वीर धर्म-संस्थपकके रूपमे भाग्नमें नहीं पाये दूमग पहलू है। ये। उन्होंने परागगन जैन धर्मका अनुमग्गा करके ही बी-जातिका निगदर करना लोगोंके लिये साधारण मी ईश्वगत्वको प्राप्त किया है। हो, वे धर्म-प्रमारक, और गष्ट्र- बात थी। उनकी बड़ी दुगवस्था थी। कामान्ध स्थायी सुधारक अवश्य थे। वे एक क्रान्निकारी पूर्ण युगपुरुष थे। पुरुषोंने स्त्रियोको अपने भीक माधनकी मामी मात्र समझ उन्होंने भारनमें उम महान गज्यक्रान्तिको जन्म दिया, जिम रकया था। उनके अस्तित्व और अधिकार्ग पर पुष्पा-द्वाग में भारतीय लोगोंके जीवन में कल्पनातीन परिवर्तन हो गया। कुठागघात किया जाता था। वे अपने अधिकारीको भूनी उम समय वर्ण व्यवस्थाकी बड़ी दयनीय अवस्था थी। दुई-मी थी। वे परतत्रााकी वेडियोसे जकड़ी हुई थी। जाति-पांति और ऊँच-नीचका भेद-भाव भारतीय मन्तिाको करुणाके मूर्तरूप भगवान वीर स्त्रियोंकी प्रेमी अवस्थाको न को ग्योम्बला किये हुए गा। कुछ लोगोने धर्मको पैतृक देव मके। उन्होंने स्त्री नानिको कगवरके अधिकार दिलाना मम्पनि ममझ कवी थी और वे लोग ही धर्मके ठेकेदार पमन्द किया । स्त्रियों के मार्गमे जो कटिनाइयो और मढियों बने हुए थे। दूसरे वर्ण के लोगों जन्मजान अधिकारों पर के पहाड़ बडे हुए ये उनको चकनाचूर करके भगवान नीग्ने कुठागपात करनेमे भी वे लोग नही हिचकत थे। उन स्त्रियोंके अधिकारोंकी रक्षा की। इतना ही नही, उन्होंने यह ढोगियोंके बान्य आचरणसे कुछ ऐमा प्रतीत होता था मानों भी बतलाया कि पुरुष मदियोंसे स्त्री-जातिके अधिकागे पर उन्होंने ही मोक्षका पट्टा ले रकबा है, चाहे उनके कृत्य कुठागघात करता चला आया है। पुरषने नारीके मूल्यको कितने ही घणित क्यो न हो ? ऐमे विकराल ममयमे मग- अभी तक समझनेकी कोशिश ही नहीं की है। यह पुरुपकी वान वारने उन मत्ताधारियों को खुला चैलेज देदिया और भारी भूल है। भगवान वीग्ने स्त्रियोंके लिये भी पुरुषोंक उनके विरुद्ध जोरदार आन्दोलन प्रारम्भ कर दिया | उन ममान ही प्राध्यात्म-मार्ग बोल दिया। वे पापांके ममान लोगोके एकाधिकारको नष्ट भ्रष्ट कर दिया। जाति-योतके ही मामाजिक राष्ट्रीय एवम् धार्मिक कृत्य करनेके लिये भेदभाव को दूर हटा कर जनताको बनला दिया कि मोक्ष स्वतत्र ममझी जाने लगी। नारी जातिके अधिकागेके लिये पर किमी वर्ण या नानि-विशेष अथवा कुछ चुने हुए लोगों इतना प्रयास करना वीरके जीवनका क्रान्तिकारी स्टेप का ही अधिकार नहीं है । मोक्ष प्रामि सब प्राणियोंका जन्म- (Step) था। वीग्ने यह भी मिद कर दिया कि स्त्रियाँ मिद्ध अधिकार है। जो व्यक्ति श्रादर्श जीवन व्यतीत करेगा गुरूपदको भी प्राप्त कर सकती हैं। वीरका प्रधान लक्ष्य
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किरण १-२]
वीरकी लक-पवा
नोक-कल्याण था। ४३ वर्षको अवस्थामे ७२ वर्षकी अपरिग्रहादका निकर्ष है। वीर एक तरह से अपने ममप अवस्था नक वीरका पवित्र ज'वन लोक-मेवा ही म व्यतीत के मवमे बड़े माम्गवादी थे। वे चाहते थे कि मब प्राणी इश्रा । इममे मालूम होता है कि बारका जीवन लाक- अानन्दमे रहें । हम विश्वके ममस्त प्राणी सुग्नमे रहें । वीर कल्याणार्य ही हुआ था।
प्रभु इस बातको अवश्य जानते थे कि यदि कोई व्यक्ति मच्चा वीर अपना मार्ग म्यं निर्धारित करना है। वीर अावश्यकतामे अधिक सम्पत्ति और वस्तुये जुटाण्यानो भगवानने भी ऐमा ही किया। उनमे पहिले होने वाले दूसरे मनुष्योकी श्रायश्यकीय वस्तुप्रीमे कमी पडेगी। यह अाचा अर महात्मा संस्कृत भाषाम उपदेश देने थे पार भी भलीभौनि जानते थे कि गगयोंके रक्त-शोषणमे ही नामस्कृन हमेशामे विद्वानों की भाषा रही है। अत: मर्वमाधा- पात बनते हैं। अत: जन-हिनकी ओर हा रम्बने हुए उन्हों गणननी उम भाषाको बोल सकते थे और नममझ माने ने अपरिग्रहवादकी मुष्टि की।
त्रयों और शद्रोंकानो मम्कृत बोलनेका अधिकार भी वीर चाहते थे कि मनुष्य वीर बनकर ममाग्मे रहे। इमीम मम्मत नहीं था। लोग उन मत्परूपांके उपदेशोंमे अधिक उन्होने सदाचार और ब्रहाचर्य र अधिक जोर दिया। ब्रानाम नहीं ले मकते थे। पर भगवान वाग्ने म ममयकी च यंके पालन बिना-वीर्यकी रक्षा बिना-मनुष्य वीर नही बन मर्च-माधारणकी प्रचलित भाषामे उपदेश देना प्रारम्भ मकता । कमजोर श्रादमी कापुरुषकी भाति ममाग्मे श्रग्नी किया। मंस्कृतका मोह घटाकर जनताकी भाषाका महत्व जीवन-लीला व्यतीत करता है। उसका जीना न जाना बदाया। भगवानके उपदेशका जनता पर पर्यात प्रभव बराबर है । वीरका नीवन आदर्श होना। वीर परुष मब पड़ा। वीरका उपदेश अमीर और गरीब, राजा और फकीर का हो जाता और मब उसकं । अत: भगवान वाग्ने यहां तक कि पशु और पक्षी मबके लिए हिनकर था। यह वाय-रक्षाका महल बतलाकर भीलोककी अपूर्व मना की। है। नोवारण है क के उपदेशों और दिव्य सन्देश
वीरका सम्पूर्ण जीवन श्रात्मानुभूति (Selg मबका कल्यागा हुआ।
realization) और मर्वस्वत्याग (Sehrage) वीग्ने बतलाया कि अावश्यकतासे अधिक वस्तुओंके का जीवन है । वे ममारके आदर्श-संबक थे। उन्होंने अपने मञ्चयमे मनुष्यकी प्रकृति चंचल रहती है। अधिकाधिक अगाध और अबाध ज्ञान-द्वाग ममारकी श्रचक मेवा की मन यस तृष्णा बढ़ती जाती है । और कभी कभी उमे धनका है। उनका जीवन ही लोक-सेवाका जीवन है । उनका उन्माद मताने लगता है। वह न्यायमार्गका छोड देता जीवन, तप, त्याग और ज्ञान महान है। अन्तम कहना
और मंमाग्म कुकृत्य करनेपर उतारू हो जाता है। हम होगा कि भगवान महावीर वास्तवम महावीर है, प्रादर्श लिये मनुष्यको मयत जीवन व्यतीत करनके साथ वस्तुश्री पुरुष है। मन्मार्ग-प्रदर्शक सच्च लोक मनक, अनु की सीमा भी निर्धारित रखनी चाहिये । मनुष्यको आव- करणीय महात्मा है और इसलिय उपामनीय है-भागश्यकतासे अधिक वस्तुएं नहीं बनी चाहियं । यह वाग्के धना किये जानेक योग्य है।
वीरसेवामन्दिरके सदस्योंसे निवेदन वीर-शामनके अवतार को २५०० वर्ष हो चुके, इस उपलक्षमें समका माधयमहस्राब्दि-महोत्सव ता.३१ अकर मे ५ नवम्बर मन् १४ (कार्निकसुदि पूर्णिमामे मार्गशीर्ष बदि चतुर्थी) तक कलकत्ता रावराजा मर मेठ दुकमचन्दजी इन्दौरके सभापतित्वमें बड़ी धूम-धामके साथ मनाया जायगा । माथमें, जैनमाहिन्य-मम्मेलन मी होगा, जो अनेक विषयों के अनेक सभापतियोंके मभापनिबमें अपना कार्य सम्पन्न करेगा । मा.दि.जैन तीर्थक्षेत्रकमेटीका अधिवेशन भी होगा। मभी प्रन्तोंके श्रीमान् और श्रीमान् पधारेंगे। संक्षेप में यह महोत्सव जैन इतिहास, माहिग्य और संस्कृतिक दृष्टिमे अपूर्व होगा। अनः वीरसेवामन्दिरके सदस्यों और उमकी कमेटीके मेम्बरोंमे सामतौरपर निवेदन है कि वे हम मुभ अवमरपर अवश्य ही कलकत्ता पधारने की कृपा करे, और इस शामन-सेवाके महान् कार्य में अपना पर महयोग प्रदान करके हमें अनुगृहीन करें।
-जुगलकिशोर मुम्तार (अधिष्ठाता), पन्नालाल जैन अप्रवाल (मंत्री
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तुम महान मानव थे भगवन् ! युगों युगों तक विश्व न तुमको भूल सकेगा, त्रिशला-नन्दन !
तुमने तब अवतार लिया जब
करमें धवल अहिंसा-ध्वज ले, पशु-हत्या ही धर्म हुआ था !
बीतगगताका सम्बल ले. अपनी सर्वश्रेष्ठता - मदमें
विद्रोही । सत्याग्रह धर तुम जब मानव बेशर्म हुआ था !!
जब ममता-सीमास निकलेतुमने स्वगृह, वजन, बवैभव,
लेखक
तबर्गव,शशिभी भिमक उठे थे, सब कुछ तब त्यागा जब यौवन श्री 'तन्मय' लघु नक्षत्रोंकी बिसात क्या ? अपने पूरे यौवनपर था,
बुम्बारिया
तब सुरगण भी सिहर उठे थे, और नियंत्रण-रहित देह-मन ।
कवि मानवकी कहे वान क्या ? जब कि देखता था संमृतिक
खेल उठा था भू-प्राङ्गण में अणु अणुमें नूतन आकर्षण ।
एक निराला ही परिवर्तन ! तुम महान मानव थे भगवन !
तुम महान मानव थे भगवन : युगों युगों तक विश्व न तुमको
युगों युगों तक विश्व न तुमको भूल सकेगा, त्रिशलानन्दन !
भूल मकेगा, त्रिशला-नन्दन ! वर्षों तक अपना मन मथकर, जब तुमने सतज्ञान पा लिया ।
और अनवरत तप-चिन्तनसे, मानव-धर्म महान पा लिया, वब तुमने उपदेश दिया यह--"मानव-पशु दोनों समान हैं, दोनों में अनुभूति एक है, दोनोंमें ही एक प्रारण हैं ! नर यदि चाहे, तो वह कर्मो से नारायण बन सकता है ! राग-द्वेष इत्यादि शत्रुओं को कर्मोस हन सकता है !! 'स्वयं जियो, पर औरोंको भी जीने दो'-बस धर्म यही है ! 'सदा अहिंसापर दृढ़ रहना' मूल धर्मका मर्म यही है !!" तुमने भू-संचालनसे ही बदल दिए दुनियाके दर्शन ! तुम महान मानव थे भगवन् ! युगों युगो तक विश्व न तुमको भूल सकेगा, त्रिशला-नन्दन !!
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कूर्चकोंका सम्प्रदाय (लेखक-श्री प० नाथूगम 'प्रेमी' )
अभी हाल ही कदम्ब राजवंशके दो दानपत्रोंपर मेरी और दानपत्र इमसे पाँच वर्ष पहलेका (भारमन. राज्यस्य नजर पड़ी जिनमें कूर्चकोंके मम्प्रदायका उल्लेख है। इनमें तृनीमे वर्षे) मिला है जिसमे कालवंश नामक प्रामके तीन में पहला दानपत्र' शान्तिवर्माके ज्येष्ठपुत्र राजा मृगेशवर्मा हिस्से करके पहला हिस्मा जिनेन्द्र देवके लिए, दूसरा का है। उन्होंने स्वर्गगत राजा (शान्तिवर्मा) की भक्तिमे श्वेतपट श्रमण संघके लिए और तीसरा निर्गन्ध श्रमण पजाशिका नामक नगरमें जिनालय निर्माण कराके अपनी सबके लिए दान किया गया है। उसके मूल शब्द ये हैंविजयके पाठवें वर्ष में यापनीयों निर्ग्रन्थों और कूर्चकोके अईच्छालापरमपुष्कलस्थाननिवामिभ्यः भगवदहन लिये भूमि-दान किया है। दूसरा दानपत्र इमी वशके महाजिनेन्द्र देवताभ्य एको भाग., द्विनीयोई-प्रोक्तमद्धर्मकरणमहाराजा हरिवर्माका है। उन्होंने अपने राज्यके चौथे वर्षमे परस्य श्वेतपटमहाश्रमणमंघोपभोगाय, तृतीयो निर्ग्रन्थशिवरथ नामक पितृव्यके उपदेशसे, सिंह मेनापतिके पुत्र महाश्रमणसघोपभोगायेति । मृगेश द्वारा निर्मापित जैन मन्दिरकी अष्टादिकापूजाके लिए इसमें श्वेतपट (श्वेताम्बर) और निग्रन्थ श्रमणमंघ
और पर्व मघके भोजन के लिए वसुन्तवाटक नामक गाँव अलग अलग निर्दिष्ट किये गये हैं, इमलिए निर्मन्य कूर्चकोंके वारिषेणाचार्यसंघके हाथमें चन्द्रशान्तको प्रमुख श्वेताम्बर नही दिगम्बर ही प्रतीत होते हैं। तब ये कूर्चक बनाकर प्रदान किया। ये दोनों दानपत्र ताम्रपत्री पर है। और कौन होंगे?
यापनोय संघके साधु भी वे कूर्चक नहीं हो मकने । पहले दान-पत्र में यापनीय, निग्रन्थ और कृर्चक इन
क्योंकि पूर्वोक्त लेबमे ये कूर्चकोंसे भी अलग ही बतलाये नीन सम्प्रदायोके नाम हैं और दूसरेमें मिर्फ कूर्चकसम्प्र
गये हैं। प्रेमी दशामे यही कल्पना करनी पड़ती है कि दाया। दूसरेमे मालूम होता है कि इस सम्प्रदायमें 'वारि
निर्ग्रन्थ और कुर्चक दोनों ही दो जुदाजुदा दिगम्बर संप्रदाय षेणाचार्यमंघ' नामका एक संघ था, जिसके प्रधान चन्द्र
रहे होंगे। शान्त (मुनि) थे।
अब प्रश्न यह होता है कि इस कृक सम्प्रदायका पहले दान-पात्रके यापनीयाँको तो हम अब जानने स्वरूप क्या होगा? लगे हैं, और उनके विषयमें अन्यत्र बहुत कुछ लिख कूर्चक (प्राकृत 'कुच्चय') शब्दके अनेक अर्थ हैं, दर्भ,
कुशाकी मुठी, मयूरपिच्छि और दादी-मूंछ। कृची इसका
देशी रूप। कर्नाटकमे कृची कमंडलु साधुओंके उपकरणों अब रहे निग्रन्थ और कूर्चक । यद्यपि प्राचीन साहित्य
के रूपमें आमतौरम व्यवहृत होता है। इससे दानपत्रांक मे श्वेताम्बर माधुओंके लिए भी निग्रन्थ शब्द आमतौरमे
इस शब्दने पहले-पहल हमें मयूरपिच्छि रखने वाले जैन प्रयुक्त हुआ है, परन्तु हम दानपत्रमें तो उनका ग्रहण नहीं
साधुओंके ही किसी सम्प्रदायको समझने के लिए ललचाया। हो सकता। क्योंकि इन्हीं महाराज मृगेश वर्माका एक
यापनीय साधु मयूरपिच्छि रखते थे और दिगम्बर-सम्प्रदाय १ इडियन एण्टिक्वेरी जिल्द ६, पृष्ठ २४-२५ ।
के माधु भी मयूर-पिच्छि रखते हैं, परन्तु दानपत्रोंका उक २ ई. ए. जिल्द ६ पृ. ३०-३१॥
४ देवो जैनहितैसी भाग १३ अंक ७-८ में 'कदाम्ब वंशी ३ जैनसाहित्य और इतिहास पृ० ४१-६० ।
राजाओंके तीन दान पत्र ।'
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अनेकान्त
[ वर्ष ७
कृक सम्पदाय इन दोनोंये भिन्न कोई तीसरा ही प्रसोन ठाक बैठते है। होता है और कुछ प्राचीन उल्लेखांक मिल जाने से अब हम इसी तरह एक जगह बृहस्कल्पसूत्रके संघदामणिकृत इस नतीजेपर पहुंचे हैं कि यह कृचंक जैनमाधुओका एक लघुभाष्य और मकी वृनिमे भी कृचिक साधुनोंकी चर्च मा सम्प्रदाय होना चाहिए जो दाढी-मूंछ रखना होगा। आई है। प्रसङ्ग यह है कि निर्गन्थियो (आर्यिकाओं) को
प्राचीन काल में जटाधारी, शिखाधारी, मुडयिा, कूर्चक, किस किमी वस्त्र नहीं लेना चाहिए-- बखधारी और नग्न श्रादि अनेक प्रकारके जैन माधु थे। कालिए य भिक्खू मुइवादी कुच्चिए अवेमथी। जान पड़ता है इसी तरह जैनोंमे भी माधुओंका एक एमा वाणियग तरुण संसह मेहुणे भोइए चेव ॥२३॥
प्रदाय था, जो दादी-मूंछ (कूर्चक) रखने के कारण कृर्चक इसमे कापालिक मितु (बौद्ध माध) और शुचिवादी कहलाता होगा।
साधुनोंके माथ कुञ्चित्र या चिों का नाम है । वृत्तिकार प्राचार्य जिनमेनके द्वारा वरांगचरितके कर्ता जटाचार्य
कूचिकका अर्थ 'कूचंन्धर' अर्थात कृचं धारण करने वाले की जो स्तति की गई है, उसमें उनकी हिलती हुई जटानी करते है और प्रगकी रष्टिय ये दादी-मछ वाले अन्य वा वर्णन किया है, जो जैनमाधुओके 'जटी' सम्प्रदायका धर्मी माध ही जान पड़ते है। श्राभाय देना है। इसी तरह दादी-मूंछ रखने वाले कूचक भागे कचका उल्लेख करने वाले दोनो दानपत्रोंकी सम्प्रदायकी भी कल्पना करनेको जी चाहता है।
प्रतिलिपि दी जाती है-- स्व. मि० काशीनाथ तैलंगके भनुमार कदम्ब वंशके
(प्रथम दानपत्र ) पूर्वोक दानपत्रासाकी पाँचवीं शताब्दीमे पहलेके हैं, अत- [11 स्वस्ति [] जयति भगवान्जि(नन्द्रो गुणपर उस समय और उपमे परले यह एक प्रसिद्ध जैन
रुन्द्र ४ प्रथितपरमकारुणिक त्रैलोक्याश्वामकरी सम्प्रदाय था और उसके 'वारिषेणाचार्यसघ' जैसे अनेक [2] दयापताकोच्छिता यस्य [1] कदम्बकुजसकेती: संघ भी थे।
हेतो पुण्यकमकृची या कृर्चकोंका उल्लेख उत्तराध्ययनकी शान्या- [3] पदाम् श्रीकाकुस्थनरेन्द्रस्य सूनुर्भानुरिवापर [0] चार्य कृत टीकामें 'वाचकवचनं' कहकर इस प्रकार किया __ श्रीशान्तिवर-- गया है
[4] यति राजा राजीवलोचनः खलेव बनिताकृष्टा सम्यक्त्वज्ञानशीलानि तपश्वेतीह सिद्धये।
[5] येन बमोर्दिषद्गृहात् [1] तप्रियज्येष्ठतनय. तेषामुपग्रहार्थाय स्मृतं चीवरधारणम् ॥१॥ श्रीमृगेशनराधिपः । जटी कुर्ची शिग्वी मुण्डी चीवरी नम्न एव च । [9] लोकधर्मविजयो बिजसामन्तपूजित: [I] मन्वा तप्यन्नपि तपः कष्टं मोठ्याद्धिस्रो न सिद्धर्यात ॥२॥ दान दरिद्वाणाम् सम्यग्ज्ञानी दयावास्तु ध्यानी यम्नप्यते तपः। [7] महाफलमितीव यः स्वय भयदरिद्रा(दो)पि नग्नश्चीवरधारीवा मसिद्धति महामुनिः॥३॥
शत्रुभ्यो दामहामयम् [] इस उद्धरसके दूसरे श्लोकमे जटाधारी, कूचंधारी, [8] तुझगाकुलोरसादी पशवप्रलयानलः स्वार्यके नृपती चोटीधारी, मुखिया, चीवर (वस) धारी और नग्न साधुनों भक्त्या के नाम आये हैं और जिस क्रमसे आये हैं उस पर ध्यान [0] कारयित्वा जिनालयम् [u] श्रीविजयपनाशिकायाम् देनसे मालूम होता है कि कुर्ची साधु मयूरपिच्छि वाले यानि(नी)यनिर्ग्रन्थकूच नही किन्तु दादी मछवाले होंगे । जटावालो, चोटीवालों [10] कानामस्वजयिके प्रथमे वैशाखे संवत्सरे कार्तिकऔर विना बालों वाले मंडियोके बीच दाढ़ी-मूंछवाले ही पौर्णमास्याम् । १ काव्यानुाचन्तने यस्य जटा: प्रचलवृत्तयः ।
[11] मातृसरित प्रारभ्य मा इनिणीसामान् राजमानेन अथांगस्मान्वदन्तीव जटाचा:स नोऽवतात् ।।ा. पु. अयो(ब)स्त्रि (रित्र) शरिवर्तनं ।
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किरण १-२]
कूर्चकोंका मम्प्रदाय
[12] श्रीविजयवैजयन्तीनिवापी दनवान् भगवन योहंद्र. [7] शृङ्गयाम मर्वजनमनोवादवचनकम्मा मपितृश्येस तत्राज्ञाप्ति ।
शिव-- [1.5] दाम मीनिमाजकः जियन वायुना मज़म्यानुष्ठाना [8] स्थनामध ()येनोपदिष्ट पनाशिकायाम् भारद्वाजइति [I] अपि च ।
पगोत्रमिकृहमना[14] उकम् [0] बहुभियमुधा दत्ता राजमिस्मगदिमि [9] पनिमुनेन मृगेशन कारितस्याईदायननम्य प्रतिवर्षयम्म यस्य यदा
माष्टाहिक तदा फलम् [1] बदत्ता(त्ता) [10] महामहमताचस्पनेपनक्रियायनदशिष्टं मन्यमबपाहता त्ता) वाम् (वा) यो इंग्न वमु
[11] भोजनायेति नदि) नि कुन्दविषये वमन्तबाट [1] धगम् परिवर्पपासामिा कुम्भीपाक म पाने [1]
सम्बपरिहारसयुन मिडिरस्तु।
1] कुन्दकानाम वार्षिणाचार्यमतहम्ले आन्द्रयान्न (द्वितीय दानपत्र) [I] मिद्धम् ॥ मनि म्वाभिमहामेनमातृगणानुध्याना
प्रमुखम मिपिकानाम मानन्यमगी
[11] कथा दनवान 10] य एच न्यायती मिनिस [2] ब्राणाम् हारिनीपुत्राणाम् पनिकनस्वाभ्यापचिका
नपुण्यफलभाम्भवति नाम् कदम्मा(वा)ना
[11] यश्चनं गगळेपनाममोहरफहनिय निकृष्टनमा गतिमना 13] महाराज श्रीहरिव म्र्मा बहुभनक पुण्य गज्य मानि[] स्वतत्ता परद्रता पा या हर গিয় নিলঃৰামু
वसुन्धगम पाट वर्ष[4] पकनिषु हिन प्राप्तो व्यासो जगयगमाविलम्
[10] मायाणि नाक पश्यने नु म. [1] बहुभिर्चमुधा श्रुनजलनिधिः वि
भुना गजभ[5] यावृद्धवादष्टय स्थित' स्वबलकुन्निशापानोच्छिन ।
[I] म्मतिभि गम्य यम्य पहा भृमिम्नम्य तस्य तदा . द्विप(प)
फलिमिान [1] 10 मधाधर [1] बगज्यमंवामरे चनुन्य फाल्गुणशाल [IN] वर्धा वर्धमानाहरछाम्नं मयमामनम् वनाद्यापि जगत्रयोदश्णाम् उच्च--
[4] जावपापण नामजनम् [1] नमो ने वर्धमाना [a]
कलकत्तामें श्रीवीर-शासन-महोत्सव
७-८ जुलाई को गनागरि-अधिवेशम न प्रनायक अनमार श्री- शामन-मादियमहमाब्दिमदात्मक आयोजना गजगिरिमे दी होनेको यो। किन्नु महामारीका भीपण प्रकार, नान्न अावश्यक वस्नुका अलपना और रेल तथा यातायातके अन्य माधनकी भार कमी श्रादका नान करम उन्मनका श्रा..। ३१ अक्रीवर नवाबर (कार्तिक मुदी पूणिमाम मार्गशीर्ष कृष्णा चतुर्थी) नक गवगना मरमंट हकमचन्द नाक मभापनि म नलकम किया जाना स्थिर हुश्रा है। इसके माय मा. दिगम्बर जैनतीर्थक्षत्र-मटीका अधिग्शन भी होगा ।
ममाजके विचारशल विद्वानों और प्रानान मजनास निवदन है कि बदम मदोन्मवर्क महन्न ।। श्रार प्रभावनाका गान कर उत्मवम अवश्य महयोग प्रदान का।
विननाम प्रार्थना है कि व मदोन्मय के लिये स्मृानमन्धक जैन मम्माननिहाम, मनिष विज्ञान, वा श्राद ममी विषगर प्रभावशाली लेग्व भेजनकी कगाव अकबर के द्वितीय ममा 'बाबुछोटलाल जन. मंत्री म्वागतममिान, १७४ चिनरंजन एवेन्यू, पो.बड़ाबाजार, कलपना' के पनपर आजाने चाहिये।
शान्तिप्रशाद जैन, म्बागताध्यान
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नागार्जुन और समन्तभद्र (लेखक-न्यायाचार्य पं० दरबारीलाल जैन, कोठिया )
बौद् ताकि नागार्जुन ईमाकी दूसरी शताब्दि (1८१ यदि चाहेनीसिद्धिःम्वभावविनिवर्ननस्य ते भवति । A.D)के एक प्रसिद्ध विद्वान् माने जाते हैं। इन्हें स्वाभागाग्नित्वं ममापि निहेत मिद्धम ॥१८॥ शून्यवादका पुरस्कर्ता होने का गौरव प्राप्त है। 'माध्यमिका', स्वामी समन्तभद्र प्राप्तमीमांमामे नागार्जुनकी उपर्युक "विग्रहव्यावर्ननी', 'युकिषष्टिका प्रादि तार्किक्कृतियों इनकी युक्तियोको अपनाने हुए अद्वैतका खण्डन निम्न प्रकार बनाई हुई हैं। इनमे प्रथमकी दो कृतियों तो प्रकाशित हो करने हैं:-- चुकी हैं और वे प्रायः मुलभ हैं। किन्तु युकिषष्ठिका अब नारद्वैतमिद्धिश्चन द्वैतं स्याद्धेतुमाध्ययोः । तक प्रकाशमे नहीं पाई और इस लिये उसका मिलना हेनुना चेद्विना मिद्धिन वा मात्रता न किम ॥ २६ ॥ दुर्लभ बना हुआ है। इनके सिवाय नागार्जुनकी श्रीर भी यहाँ अद्वैतके खण्डन करने के लिये ममन्नभने यही रचनाएँ सुनी जाती है, पर वे आज उपलब्ध नहीं हैं। सरणि अपनाई है जो नागार्जुनने भावक खण्डन करने
पिछले दिनों जब मैं 'समन्तभद्र और दिग्नागमें पूर्व में प्रयुक्त की है। नागार्जुन कहते हैं कि 'हेनु भावकी वर्ती कौन ? लेस्वकी तैयारीमें लगा हुआ था, तब नागा- सिद्धि करते हो या बिना हेतुके ? हेतुमे तो भावकी सिद्धि जनकी 'माध्यमिका' और 'विग्रहम्यावर्तनी के अध्ययन नहीं हो सकती. क्योक निस्वभाव होनेसे हेतु ही प्रसिद्ध करनेका भीममे अवसर मिला। इन दोनों ग्रन्थोंके अध्य- है। बिना हेतुके भावकी मिद्धि माननेपर हमारे प्रभावकी यनने मुझे स्वामी समन्तभद्रकी प्राप्तमीमांमाके साथ इनका भी मिद्धि बिना हेनुके हो जाय ।' मतन्तभद्र कहते हैं कि तुलनात्मक सूचम अन्त:-परीक्षण करने के लिय विशेष रूपसे तो परत / t a प्राकर्षित एवं प्रेरित किया। मेरे हृदयमे इन दोनों ग्रन्थ- हेतु और माध्यकी अपेक्षा द्वैतक प्रसङ्गामे छूट नहीं सकोगे कारोंकी कृनियाका तुलनामक परीक्षण करने के लिये उम और यति विनातकी मिति कोगे तो ममय तीव्र इच्छा तो पैदा हो गई पर कुछ कारणकि वश मात्र द्वैत (भाव और प्रभाव मादि ) क्यो न सिद्ध हो परीन हो सकी। बादको मुझे पुन: कुछ बौद्-ग्रन्थोंके जायगा।' यहाँ. पाठक देखेंगे कि दोनों ही जगह एक ही अध्ययन करनेका मौका मिला और उस समय मेरा यह सरणि उपयोगमें लाई गई है। विचार स्थिर होगया कि 'नागार्जुन और ममन्तभद्र' शीर्षक
(२) नागार्जुन विग्रहग्यावर्तिनीमे लिखते हैं--- के साथ इन दोनों नार्किकोके माहित्यिक अन्त.परीक्षणके
मत ण्व निधो नाम्नि घटो गेह इत्ययं यस्मान । रूपमें एक लेख अवश्य ही लिम्बा जाना चाहिए। उमीके
दृशः प्रतिपेयोऽयं मनः स्वभावस्य ते नम्मात ॥१२॥ परिणामस्वरूप आज यह लेख अपने पाठकोके मामने,
समन्तभद्र हमे अपनाते हुए प्राप्तमीमाराामें जैनरष्टिये उपस्थित कर रहा हूँ
प्रतिपादन करते हैं:-- (6) नागार्जुन अपनी विग्रहव्यावर्तनी में कहते हैं:
द्रव्याद्यन्तरभावेन निषेधः संज्ञिनः मतः। हेतोस्ततोन द्धिः नः म्वाभाव्यान कुनो हित हतुः। अमददोन भावस्तु स्थान विधिनिषेधयोः॥४७॥ निर्हेतुकम्य मिद्धिने चापपन्नास्य तेऽर्थम्य ।। १७ ।। नागार्जुनने जिम बातको और जिस ढंगसे पूर्वपक्षक १ देग्यो, तत्त्वमग्रहकी भूमिका LAVIII, वादन्यायमे रूपमें प्रस्तुत करके यह कहा कि 'सत्' का ही प्रतिषेध २५. A D. दिया है।
होता है-असत्का नही, जिस तरह मतरूप घरमे ही सन् २ 'अनेकान्त' वर्ष ५ किरण १२मे यह लेख प्रकट होगया। रूप घटका ही प्रतिषेध किया जाता है-अमतका नहीं।
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किरण १, २]
समन्तभद्रने भी उपर्युक्त श्राप्तमीमांसागत कारिकामे जैनदृष्टि उसी बात को अपना सिद्धान्त स्थापित किया है और और स्पष्ट किया है कि परद्रव्यादिचतुष्टयमे मतरूप पदार्थ का ही प्रतिषेध किया जाता है प्रसतका नहीं क्यों के भाव विधि-विधान और निषेधका स्थान होता है ।
नागार्जुन और ममन्तभद्र
(३) नागार्जुन श्रागे चल कर जब यह कहते हैं-पूर्व चेन प्रतिषेधः पश्चान प्रतिषेधनिन चोपपन्नं । पत्रानुपपन्नो युगश्च यतः स्वभावोऽमन ॥ २० ॥
तब समन्तभद्र इसका उत्तर देते हुए कहते हैं-मंज्ञिनः प्रतिषेधो न प्रतिपेध्याहते कचिन । ०२७
यो नागार्जुनने 'प्रतिषेध्यासिद्धेः' कह कर प्रतिषेध्य और प्रतिषेवकी अनुवत्ति दिखलाई है और इस तरह शून्यतम्वका साधन किया है। समन्तभद्र इसका सयुक्तिक विरोध करते हुए कहते हैं कि प्रतिषेध करनेके पूर्व प्रतिपेध्यको माने बिना प्रतिषेध हो ही नही सकता और प्रति घेध्य अवश्य सतरूप मानना होगा। यह तो स्पष्ट ही है कि नागार्जुनने गौतमीय न्यायसूत्रके कितने ही सूत्रोका खंडन किया है जिनकी कुछ झलक ऊपरकी कारिकाश्रम नथा विग्रहव्यावर्तनी और माध्यमिकाकी दूसरी अनेक कारिकाथों में निहित है
1
(४) मापेक्षता और निरपेक्षताको लेकर नागार्जुन विग्रहव्यावतिनीमें कहते हैं :--
अथ प्रमाणमिद्धया प्रमेयमिद्धिः प्रमेयमिद्धया च । भवति प्रमाणसिद्धि: नास्त्युभयस्यापि ते सिद्धिः ॥
समन्तभद्र भी प्राप्तमीमांसा मे यही कहते हैं:-- यथापेक्षिकसिद्धिः स्यान्न द्वयं व्यवतिष्ठते । ७३
श्रपेतिकमिद्धि माननेमे नागार्जुनने जो 'नाम्म्युभयम्यापि ते सिद्धि' शब्दों द्वारा दोनो की भी सिद्धि न होन रूप दोष दिया है वही समन्तभद्रने 'न द्वयं व्यवतिष्टते शब्दों द्वारा द्रकट किया है।
(५) नागार्जुन पुनः विग्रहन्या० मे लिखते हैंयदि च प्रमेयसिद्धिरनपेक्ष्यैव भवति प्रमाणानि । किन्ते प्रमाणमिद्धया तानि यदर्थं प्रसिद्धं तन ॥ ४५ समन्तभद्र भी इसी बानका प्रतिपादन करते हैं:-- अनापेक्षिकसिद्धौ च न सामान्यविशेषता | | ० ७३ ॥ (६) नागार्जुन श्रागे चल कर पुनः कहते हैं:--
११
यदि च स्वतः प्रमागामिद्धिरपेक्ष्य ते प्रमेयाणि । भवति प्रमाणसिद्धिः न परापेक्षा हि सिद्धिः ॥४५॥
इसपर समन्तभद्र आप्तमीमांसामे नागार्जुनकी तरह स्वरूपमिद्धि तो परापेक्ष न होनेका अपना भी मत प्रकट करते हैं । पर साथमें अनेकान्तर मे अपेक्षा और अनपेक्षा दोनों वस्तु-सिद्धि (वस्तु के व्यवहार और स्वरूपकी सिद्धि) की सुन्दर एवं सयुक्तिक व्यवस्था भी करते हैं। यथा-धर्मविनाभावः सिध्यत्यन्योन्यवीक्षया । न स्वरूपं स्वतो ह्येतन कारकज्ञापकाङ्गवन ॥ ७५ ॥
अपेक्षा अनपेक्षाकी समस्या नागार्जुन के लिये माध्यमिका भी रहती है । यथा-यदीन्धनमपेक्ष्याग्निरपेक्ष्याग्नि यदीन्धनम् । कनग्न पूर्वनिष्पन्नं यदपेयाग्निरिन्धनम || गन्धनमपेदग्निर्भवतीति प्रकल्प्यते । एवं सतीन्धनञ्चापि भविष्यति निरग्निकम् ॥ योऽपेक्ष्य मिध्यते भावम्नमेवापेक्ष्य सिध्यति । यदि योऽपेक्षितव्यः समिध्यतां कमपेक्ष्य कः ॥ योऽपेक्ष्य सिध्यते भावः सोऽसिद्धोऽपेच्यते कथम । अपेक्षयेन्धनमग्नि न नानपेक्ष्याग्निमिन्धनम् ॥ - पृ० ७०, ७१ यहाँ पाठक देखेंगे कि नागार्जुन अपेक्षा और अनपेक्षा के एकान्तोकी पकडकर जब उनके समन्वयका हल न निकाल सके तो शुन्य तत्वको मान बैठे। पर समन्तभद्रने इसका हल निकाल लिया और लोकमे दिख रही अपेक्षा अनपेक्षा मिद्धिको मानकर अनेकान्तदृष्टिसे उसका व्यव स्थापन किया । जैसा कि उपर्युक्त वाक्योंस प्रक्ट है।
इस उपर्युक्त थोडेसे परीक्षण पर यह माफ जाना जाता है कि समन्तभद्रपर नागार्जुनके साहित्यका निकट समयवर्ती प्रभाव है । इस लिये दोनोंका अस्तित्व प्रायः एक कालीन है अथवा नागार्जुनके तुरन्त बाद समन्तभद्र हुए जान पढते हैं।
(७) और देखिये
श्राचार्य उमास्वातिप्रभृति विद्वानोंने मनका या वस्तुका लक्षण 'उत्पाद, व्यय और धोन्य' किया है और बतलाया है कि संसारकी सभा चेतम श्रचेतन वस्तु उत्पा१' उपादव्यय-व्ययुक्त मत्-तत्वार्थ सूत्र ५- ३०
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अनेकान्त
[ वर्ष ७
दादत्रयान्मक हैं । इन उपादादिके एक जगह रहनेमे कोई एकत्र' 'एकदा' के जबाबमे कहे गये हैं। समन्तभद्र युकि. विरोध भी नही है। नागार्जुन इम वस्तु-लणकी मान्यता के साथ प्रतिबन्धि उत्तर देकर ही सन्तुष्ट नहीं हुए वे दो का जोरोंमे खण्डन करते हुए 'माध्यमिका' मे लिम्बने हैं:-- दृष्टान्तोद्वारा भी वस्नुके उत्पादादि यात्मवकी मान्यता उत्पादाद्यानयो व्यस्ता नालं लक्षणकर्मणि। को मिद करते हैं :सस्कृतस्य ममस्ताः म्युरेकत्र कथमेकदा ।। ४५॥ घटमौलिम्वणार्थी नाशोत्यादस्थितिप्वयम ।
अर्थात--उत्पादादि तीन अलग अलग मतके लक्षण शं क-प्रमोद-मास्थ्यं जनो याति महेनुपम ॥ है या मिलकर तीनों ही मनका लक्षण हैं ? अलग अलग पयोव्रता न यत्ति न पयोत्ति दधित्रतः । ता व पतके लक्षण नही होमकते क्योंकि इसमे कोई व्यवस्था अगोरमव्रता नाभ तस्मात्तत्वं त्रयात्मकम ।। नही हो सकनी । और यदि मिलकर तीनों मत्का.लक्षण इससे स्पष्ट है कि ममन्तभद्रपर नागार्जुनके नाकालिक है तो वतीनो एक जगह कैसे रह सकते हैं ? इसी बातको शब्दोंकी चोट पहुंचा है और उनसे उन्हें जननाके विचलित मागार्जुन माध्यमिकाकी एक दूसरी कारिकाके द्वारा भी होनेकी आशंका उत्पन्न हुई है। इसीसे वे इतनी सबलताक स्पष्टतया प्रकट करते है :--
साथ उतर देने में प्रवृत्त एवं अग्रसर हुप जान पहने है। उत्पादतिमङ्गानामन्यत मंस्कृतलक्षणम । समन्तभद्रने नागार्जुनका इतना ही बालोचन नहीं किया अस्ति चंदनवस्थैवन्नाम्ति चत्ते न संस्कृताः ।। किन्तु नागार्जुनने जिन मुद्दों-भाव-भाव, निन्य-अनिय.
नागार्जुन के इस प्रबल श्राक्षपका सबल जवाब उमा- अपेक्षा अनपेक्षा प्रादि--को आधार बनाकर शून्याद्वैतका स्वातिक उत्तरवती स्वामी समन्तभद्रने प्राप्तमीमासाकी साधन किया है प्रायः उन मभी मुद्दोपर प्राप्तमीमामा निम्न कारिकाके द्वारा दिया है और उसमें उमास्वातिक सविस्तर विचार प्रक्ट करके स्याहादीनिमे अनेकान्तावस्तुलक्षणकी उत्पादादित्रयात्मकन्व मान्यताको पयुनिक रमक प्रमेय वस्तुका व्यवस्थापन किया है। मैं इस सम्बन्धी पुष्ट किया है.
और अधिक विस्तारकं माथ लिखना चाहता गा और न मामान्यात्मनोदेति न व्येनि व्यक्तमन्वयान। कितनी ही बानोपर प्रकाश डालनेकी दरछा थी पर पत्रीका व्येत्यति विशेपात्ते महकत्रोदयादि सन ॥ कलेवर इनना क्म होगया है कि लम्बे लेखों के लिये
हममें बतलाया है कि सामान्यरूपमे मत्का न तो गुञ्जाइश नही रही। अस्तु । उत्पाद होता है और न विनाश, क्योकि सतका पूर्वोत्तर इस अन्तःपरीक्षणपरम प्राय: यह माफ है कि स्वामी पर्यायोमे स्पष्ट सद्भाव पाया जाता है, किन्तु विशेषरूपमे-- समन्तभद्र के सामने नागार्जुनके विचागेकी खूब वर्ण और पर्यायकी दृष्टिपे--सत् उत्पन्न होता है और विनष्ट भी होता आलोचना रही है। समन्तभद्रने नागार्जुनक जिन विचारी है। अत: उत्पादादि तीनों मिलकर ही सत्का लक्षण हैं को अच्छा समझा उन्हे अपनाया और जिन्हें प्रयुक्त समझा और वे एक साथ एक जगह रहने हैं--इसमें विरोधादि उनका डटकर सयुक्तिक खण्डन भी किया है । और कोई भी दोष नहीं है।'
इसलिये समन्तभद्र नागार्जुनके या तो समकालीन थे पाठक, देखेंगे कि नागार्जुनने उमास्वा नके जिस अथवा कुछ ही समय बाद हुए जान पड़ते हैं । यह कुछ 'उत्पादव्यय ध्रीव्ययुक्तं मन्' [नवा० ।-३.] सिद्धान्तकी ही समय भी १०, २० वर्षसे अधिक प्रतीन नहीं होता कड़ी आलोचना करके मतको जड़से ही उखाइनेकी चेष्टा नागार्जुनके समय ई० मन् १८१ मे यदि ये दस या बीम की थी और 'संस्कृतस्य पमस्ताः स्युरेकत्र कयमेकदा जैसे वर्ष और मिला दिये जाय तो ममन्तभद्रका समय ई. सन् वाक्योका प्रयोग किया था । उमका सवा मोलह आना १ या २०१ के लगभग होता है। इस तरह समन्तभद्र उत्तर स्वामी समन्तभदने ‘महकत्रोदयादिसन' कह कर का जो समय जैन मान्यतानुसार दूमरी, तीसरी शताब्दी दिया। यहाँ ममन्तभद्रके 'मह' 'एकत्र' 'उदयादि सत्ये माना जाता है वही ठीक ठहरना है। तीन पद खास ध्यान देने योग्य हैं, जो नागार्जुनके 'कथ' वीरसवामन्दिर, सरसावा
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सन्देश-दात्री
ले-'पुष्पेन्दु', लखनऊ
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महामेन-एक विजयी गजा । केशवाजकुमार धनंजय-शवका मित्र और यज्ञाचार्यका शिय। कुन्तलकेशी-राजकन्या।
[ एक दृश्य ]
स्थान-राजमहलका एक भाग [ धनंजय बैठा हुआ किसी कार्य में निमग्न है. केशवका प्रवेश ]
केशव-धनंजय ! धनंजय-क्या है, गजकुमार! केशव-अब नही महा जाता। रहने दो अपने उपदेश,
बहुन मुन चुका। धर्म के नामपर अत्याचागेका ताण्डव देखते देखते हृदय पक चुका । श्राज
अंतिम निर्णय होगा। धनंजय-निर्णय । कैमा निर्णय !! केशव ! तुम क्या कह
रहे हो? क्या उन्मत्त तो नही होगये ? कुछ श्राभप्राय भी बनाओगे, किस बात का निर्णय
करना चाहते हो? केशव-तुम अनभिज्ञ नही हो । बच्चे बूढे मभी इम
घोषणाको सुन चुके हैं। धनंजय-(श्राश्चर्ययुत ) किम घोषणाको केशव ? क्या
कोई .... केशव-कल महायज होगा। धनंजय-तो कौनमा अनर्थ होगा? केशव-कोनसा अनर्थ होगा! मुझीसे पूछते हो कौनमा
अनर्थ होगा !! क्या महायज्ञकी श्रागमे विशालाश्च
को नस्म करनेकी श्रायोजना नही हुई? धनंजय-महायज्ञ की पूर्ति के लिये ऐमा होना आवश्यक है।
क्योंकि राज्यका मर्वश्रेष्ठ अश्व विशालाही तो है।
केशव--परन्तु धनंजय ! तुम्हें यह भी मालूम होगा कि
पिता जी उसको कितना प्यार करते है और मुझे भी स्वयं उमम कितना मोह है। क्या यज्ञ की धधकती हुई लपटोपर उसका बलिदान देवकर
मेग हृदय तिलमिला न उठेगा? धनंजय-हृदयपर अधिकार करना होगा केशव ! इसी
कायरता और मोहकी भावनापर विजय प्राम करनेका दूमग नाम आत्माकी स्वतंत्रता है; क्योंकि हम जितने हा अशम अपनी प्रिय वस्तु को पवित्र यज्ञकी भेट करते हैं, उतने ही अंश में हम अात्मविजयी होकर संसारके बंधनौम मुक्त होते हैं। प्रात्माकी लाग-शक्तिकी परीक्षा
महायज-द्वारा ही पूर्ण हो मकती है। केशव-तब फिर महायज्ञकी श्रातिका प्रारम्भ अपने
कुटुम्ब ही मे क्यो न किया जाय ? क्यों न सगा भाई मगे भाई की अाहुनि दे डाले? और मगाभाई ही क्यों ? स्वयं अपनी दो भेंट देकर क्यों न मुक्ति
पर अधिकार किया जाय? धनंजय-केशव ! तुम्हे अाज क्या होगया है ? अाज तक
तो कभी भी ऐमी बहका बहकी बाते न की थी? इम राजपरिवार में अनेको ही यश हो चुके और
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अनेकान्त
[वर्ष ७
महायज्ञकी आयोजना तो स्वयं तुम्हारे पिताजीने महासेन-भगवन् ! यह कैमी बिडम्बना है ! रक्षा कगे, ही गुरुदेव (यज्ञाचार्यजी) के पगमर्शमे की थी।
रक्षा ... ' उन्होंने ही अपने प्यारे घोड़े विशालाकी आहुति केशव-रक्षा नहीं, पिताजी, बलिदान! मुक्ति पाने की मोहदेना स्वीकार किया है।
मयी लालसा में, अपनी यात्माको मुखी बनानेकी केशव-क्या उन्हे मति-भ्रम नही हो सकता?
स्वार्थमयी भावनाम, जिम कर्तव्यने अबतक लाग्यो (महामनका प्रवेश)
प्राणी यज्ञकी धधकती हुई अग्निमें स्वाहा कर महामन-पुत्र! विवाद क्यों करते हो। धनंजय जो कुल दिये, उमका यह स्नेह भरा हुआ रुदन कैमा ? कह रहा है वह ठीक है और ऐसा ही होगा।
करो न भेट, पिताजी, मे अपना जीवन दनको केशव-पिताजी ! श्राप क्या कहते हैं; क्या विशालाका प्रस्तुत हूँ। करलो अपनी आत्माका उद्वार, पत्रकी बलिदान होगा?
भेट देकर। महासेन-हॉ पुत्र ! प्रिय वस्तुका मोह त्याग करना ही महासेन-बम करो, केशव ! नहीं सुना जाना । धनंजय ! मुक्तिका साधन है. और अब में वृद्ध भी हो
मेरी अात्मा धधक रही है। शान्ति, में चाहता चला, सम्भवत: यही मेग अंतिम यज्ञ हो। इसी
हूँ शान्ति । कारण जिस अश्वपर चढ़कर मैंने अनेकों (नेपथ्यमे कुंनलकेशीका गाना मुनकर ) गज्योपर विजय प्राप्त की और जिम के कारण यह कैमा मंगीन मुनाई दे रहा है ! अाज में विजयी महामेन कहलाता हूँ, उमीकी
[कुंतलकेशी गाती हुई पानी है ] . आहुति होगी। उसमे बढ़कर मुझे और किस जिमने जगके सब जीवोको, निर्भय जीवनका दान दिया। पदार्थका मोह हो सकसा है ?
मिथ्या भ्रममें भटकी जनताको जिमने अनुपम ज्ञान दिया । केशव-श्राप भूलते हैं, पिताजी ! एक वस्तु आपको उम खुद जियो जगतको जीने दो, सुम्ब शानि मुधा रम पीने दो। से भी अधिक प्यारी है।
जिसने जगको यह मंत्र दिया, फिर बंधनमुक्त स्वतंत्र किया । महासेन-कहो, केशव, कहो ना। मैं महायज्ञका पूनिके उम जगतपूज्य परमेश्वरका सुनलो पावन उपदेश मखे! लिए उसे भी दे डालू गा।
हिमाम धर्म नहीं रहना, है यही सुग्वद मन्देश मग्न ! केशव-वह मैं हूँ; आपका पुत्र कशव ।
जगम हैं जीत्र समान मभी, दुरवसे रहने भयवान मभी , महासन-पाह! क्या कहा! तुम मेरे जीवन-मेरी सब ही को प्याग है जीवन, इसकी रक्षाके हेतु यतन ।
प्रात्मा ओह! यह न हो सकेगा। जिन नेत्रोंने जिले मब ही करते हैं बेचारे, सबको अपने बच्चे प्यारे । राज्यमहलके सुन्दर पलनेम झूलते देखा, सन्त तुम सबपर करुणा दिखलाओ, तुम विश्व-प्रेमको अपनाश्रो। कुसुमकी तरह फलते फूलते देखा, वे नेत्र उम तुमने यह मानव तन पाया, तुमने सुन्दर जीवन पाया,
का यह हृदय-विदारक दृश्य न देख सकेंगे। पर तुम्हें प्रात्मका जान नहीं, अपनेपनकी पाहचान नहीं। केशव-क्यों न देख सकेगे? पिताजी !-जिन नेत्रोने यदि निश्चल होकर संयमसे, अानमका ध्यान लगाओगे,
अनेकों माताओंके हृदयोंके टुकड़ोका यज्ञकी तो निश्चय ही धीरे धीरे भगवान स्वयं बन जाअागे । अग्निमें तड़पना देखा और उन माताओका करुणामयका उपदेश यही, है महावीर-मदेश यही ॥ बिल बिलाना, ऑसू बहाना देखा, वे यह न देख महासेन-कौन ? कुन्तल केशी ! तुमने यह गीत कहोमे सकेगे? जिन नेत्रोंके सामने हँसते खेलते हुए
सीवा? बच्चे चीखते चिल्लाते यज्ञको अग्निमे भस्म होगये! कुन्तल-क्यो, क्या यह सुन्दर नहीं लगता, पिताजी ? किन्तु करुणा या दयाका एक ऑसू भी जिन नेत्रों महासेन-बहुत सुन्दर लगता है। इस गीतको सुननेसे में न पाया, वे क्या अब भी इतने कठोर न हा सके?
ऐसा मालूम होता था जैसे कोई अमृत बरसा
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किरण १-२ ]
सन्देश-दात्री
रहा हो। कहाँसेमीवा, कुन्नल ?
कुन्तल - श्राज कैलाश बनमे वीर शासन- जयन्ती मनाई
कुन्तल - अरे श्राप नहीं जानते । आज श्रावण कृष्ण प्रतिपदा है न, श्राज कि दिन तो जैनधर्मक चौवीसवं नीर्थकर श्रीमहावीर स्वामीने संमार के सब प्राणियोको सुखी बनाने के लिये अहिसा धर्मका उपदेश दिया था ।
महामेन - श्रभी जो सुन्दर गीत तुम गार ही थी क्या यह उन्हीका उपदेश है ?
कुन्तल -- जी हाँ । महासेन -- परन्तु श्राचार्यश्री तो
जारही है, वही सुना था ।
महामेन - वीर शासन - जयन्ती ! वीर शासन -जयन्नी किसे महासेन परन्तु श्राचार्यश्रीने बतलाया था कि यज्ञमे
कहत हैं ?
जला हुआ जीव मीधा स्वर्ग जाता है--उमे कष्ट कैसा ? इस प्रकार हमारे द्वारा उसे भी मुक्ति मिल जाती है।
कुन्तल -- हुइ ! बरबस बिचारेर मुक्ति लाद दी । यदि ऐसा ही है तो सबसे पहले अपनी ही आहुति देना चाहिये। देर होने सम्भव है अकाल मृत्यु के कारण ऐसा श्रवभर न मिल सके !
महासेन - कुन्तल ! तुम ठीक कहती हो । मेरी भूल थी, मैं धकार था। अब मैं अपनी भूल समझ रहा हूँ । केशव ! श्राश्रो, चलें, हम भी धीरशामन - जयन्तीम साम्मलित होकर उनका सुन्दर उपदेश सुने |
धनंजय - - महाराज ' अश्वपालकोको क्या श्राज्ञा दी जाय ! महासेन - अब महायज्ञ नहीं होगा, वे जायें ।
धनजयार
महासेन
कहते थे कि महावीर - स्वामी ने भी मोहका त्याग करनेमे ही मुक्ति मानी है और मोहका त्याग दी तो हम महायज्ञ द्वारा भी करते हैं।
कुन्तल - श्राप जिसे मोहका त्याग कहते हैं, वह तो झूठे स्वार्थकी साधना है | जब हम दुख और कष्टसे डरते हैं तो हमे कौनमा अधिकार है कि हम दूसरोंको दुख दं | भगवान महावीर ने कहा था
कात्मकता के यज्ञमें अपने राग-द्वेष भावोंकी और अपने झूठे स्वार्थी आहुति देन
मैं सोचता हूँ, अगर जीवनमेंले पर्व या उत्सव अलग कर दिये जॉय, तो जीवनको क्या कोई हानि हो जायगी ? इस प्रश्न के उत्तरसे हम निश्चित रूपसे पर्वोंकी आवश्यकता या अनावश्यकताका अनुमान लगा सकेंगे ।
१५
चाहिये वही सच्चा मोदका त्याग है, पर आपने अपने झूठे स्वार्थके यशमं बेचमाणियां की श्राहात दे डाली! यह अर्थ का अनर्थ नही तो क्या है ?
जैनसंस्कृतिके प्राण- जैनपर्व
( लेखक - पं० बलभद्र जैन )
एक बार पंडित जवाहरलाल नेहरूपे किसी व्यक्तिने कांग्रेसके उत्सवों, समारोहों और आयोजनोंके सम्बन्धमें पूछा कि इनमें देशके समय, धन और शक्तिका व्यर्थ ही
और और कुछ नहीं, धनंजय जाश्री— कुन्तल श्राश्र ! हम सब सन्देश गान करते हुए चले।
[ सबका वीर मदेश की पुनरावृति करते हुए प्रस्थान ]
अपव्यय होता है तो इन सबमे क्या लाभ है या इनका देशके लिये क्या उपयोग है? पंडितजीने इसका उत्तर देते हुए कहा -- कॉंग्रेस के उत्सव और समारोह देश को कांग्रेस का सन्देश सुनाते हैं, वे देश को स्वतन्त्रताकी भावनाके रूपमे नवजीवन और स्फूर्ति प्रदान करते हैं, और उस भावनाका सार्वजनिक और सामूहिक प्रचार करते हैं। देशको ऐसे कुछ इने गिने ही उसकी आवश्यकता नहीं है, बल्कि गुलामी से यदि हमें मुक्त होन
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अनेकान्त
[वर्ष ६
है तो प्रतिदिनको ही हमे कांग्रेसके उत्मक रूपमे मनाना जैसे गाय, पीपल और तुलसीको धार्मिक दृष्टिमे वैदिक होगा। जो बात श्रीनेहरूजीने कोंग्रेसके लिये कही थी, वही सस्कृतिने पूज्य करार दिया, उसी प्रकार कृषको सम्बन्धी बात प्रत्येक संस्था, जाति और धर्मके लिये भी है । अगर पर्बोको भी धार्मिक रूप दिया। इस प्रकारके पोंके अति. किमी राष्टकी भावना उसके उन्मयों में मिल सकती है तो रिक्त शेप जो धार्मिक पर्व है, वे भी पब वैदिक संस्कृतिका किपी समाज और धर्मकी भावनाकी कसौटी भी उसके पर्व देन नहीं है। सच बात तो यह है कि बाहरसे पाने वाले हो सकते हैं । इस प्रकार पर्व किसी भी संस्कृति और राष्ट्र प्राोंने इस देशमे प्रचलित जिन • पर्वोको महत्वपूर्ण की भावनाके प्रतीक हैं और वे ही उस संस्कृति और राष्ट और जनतामे अधिक प्रचलित देखा, उन २ पर्वो को उन्होने की भावनाके मापदण्ड हैं। समय उन पोंमें विकति ला अपनाना शुरू कर दिया और धीर २ उन्हें अपने ही सकता है, लेकिन उसका मूल ध्येय और भावना निश्चित. मांचेमे ढाल लिया, जैसे अक्षय तृतीया, अनन्तचतुर्दशी, रूपसे सुरक्षित रहती है। अगर जीवन में पर्व या उत्सवों सलूनो श्रादि । वास्तव में वैदिक संस्कृति समन्वय प्रधान का अस्तित्व अलग कर दिया जाय तो निश्चय ही हमारा रही है, उसने अनेक भगिनी संस्कृतियोमे बहुत कुछ लिया जीवन शून्य मा निरर्थक और अधूरा रह जायगा। मनुष्य है। लेकिन जो उसके निजी पर्व हैं, उनको दम्यते हुए भावनाशील है. उसको पर्वोम ही भावनाका बल मिलता तो यह कहा जा सकता है कि वैदिक संस्कृतिका ध्येय है वह विनोद और ताजगी चाहता है, वह भी उसे पर्वो केवल मनुष्यका प्राध्यामिक विकास या नैतिक उमति नही ही मिल सकती हैं, उसको जिम सांस्कृतिक और नैतिक रहा है, बल्कि प्रचार और स्थान पाना रहा है। इसी लिये आधारकी श्रावश्यकता रहती है. वह उसके पास ही पूरी उपके सामने जो कुछ भी पाया भला या बुरा, सभीको होती है। वह एक सामाजिक प्राणी है और पर्व उपकी अपनेमे पचाती गई। यही सबब है कि वैदिक संस्कृतिकी इस सामाजिकताको प्रति करते है। इसलिये ही पर्व विभिन्न धाराओं में न तो कोई एकरूपता ही है. न ल च्य भिन्न देशों में भिन्न २ धर्म या संस्कतिका अवलम्ब पाकर के विषयमे ही समानता है। वह एक नदीकी तरह है, भिन्न २ रूप धारण कर लेते हैं। लेकिन उससे उस समाज जिसमें मोती और मीप, कीचड़ और जल सभी कुछ है की रुचि और उस संस्कृतिकी प्रवृत्तिका तो पता चल ही लेकिन अपने बहावकं कारण वह नदी है। यही कारण है, जाता है। इस तरह हम देखते हैं कि पोंके बिना न तो जिसमे हम उपके पर्वो यह निष्कर्ष निकालने में असमर्थ मनुष्य रह ही सकता है और न पर्व उसके जीवन से अलग है कि उसके सभी पर्वोका ध्येय मनुष्य के नैतिक धरातलको ही किये जा सकते है. बल्कि उनकी जीवनके लिये अनिवार्य ऊँचा उठाना है। आवश्यकता है।
लेकिन जब जैन संस्कृति और उसके पर्वोकी हम जैनपोंका दृष्टिकोण
समीक्षा करने बैठते हैं तो हमें मिलना है कि उनका एक __उपर्युक्त कथनसे इतना तो निष्कर्ष निकाला जा सकता निश्चित दृष्टिकोण है । जैन संस्कृतिका मूल उसका है कि अगर किसी संस्कृतिकी परीक्षा करनी हो तो वह स्नत्रय-सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक-चारित्र उसके पास हो सकती है। पर्वोमे वह संस्कान अपने पूरे है, जिनका उद्देश्य मनुष्यका चरम आध्यात्मिक रूपमें विद्यमान रहती है, अगर हम यह कहें तो सभवतः विकास काना है। जैनसंस्कतिके सभी अंग-- किसी भी संस्कृतिके प्रति अन्याय न होगा। जैसे-हिन्द- साहित्य हो या पर्व, कला हो या क्रियाकाण्ड-सभी इस समाजके त्योहार अगर वैदिक-सस्कृतिकी देन है तो इससे रत्नत्रयके ध्येयको लेकर चले और विकसित हुए हैं । जो इन्कार नहीं किया जामकता कि वे समय और राष्ट्रकी रत्नत्र के विरुद्ध पाया गया है, उसका जैनसंस्कृतिने स्थितिको देख कर बनाये गये थे। कृषि प्रधान भारतमे बहिष्कार कर दिया । जैन पर्वोका दृष्टिकोण-रन्नत्रयका वैदिक पार्योंने ऐसे अनेक त्योहारोंका प्रचलन प्रारम्भ किया पाराधन और उसकी साधना एवं प्राप्ति ही है अथवा उन जो किसानों और ऋतुभोंसे ही सम्बन्ध रखने वाले थे। महापुरुषों का स्मरण करना है, जिन्होंने इस रत्नत्रयकी
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किरण १-२]
शिवभूति, शिवार्य और शिनकुमार
सम्पूर्ण-मापना-द्वारा अपना चरम श्राध्यामिक विकाम कर अपने माचे में ढाल तो लिया, लेकिन उन पर्वोके पवित्र लिया है, या इसके द्वारा अपना नैतिक धरातल ऊँचा ध्येयको भुला दिया, जिसमें वे सर्वसाधारणको अपने उस उठाकर आध्यात्मिक लाभ प्राप्त किया । अथवा जिन्होंने ध्येयसे प्रेरित न कर सके, बल्कि कंवल मनोरंजन और धर्म, धर्मायतन या धार्मिकोंका संरक्षण किण या उन्हें विनोदके साधन बन गये। जैसे दिवाली भाज मिठाइयों अग्ना उदार सहयोग प्रदान किया। कुछ भी हो, यह सब और रोशनाका त्योहार रह गया है। उसका ध्येय भ. भी रत्नत्रयमे गर्भित हो सकता है और इस प्रकार हम महावीरक निर्वाणके उपजचपमें उनके पवित्र जीवनका नि.संकोच कह सकते हैं कि जैन पर्वोका उद्देश्य रस्नत्रय स्मरण या गौतम गयाभरकी ज्ञानप्राप्तिके उपलक्ष्य में की माना है। इनकी चरितार्थता और उपयोगिता भी यही सम्यग्ज्ञानका अर्जन था, वह भुला दिया। निश्चय ही यह है । जैसे--श्रुतपंचमी, वीरशासन-जयन्ती प्रादि मम्यग्ज्ञान खेदजनक स्थिति मतत-प्रचारमे दूर की जा सकती है। के मारापनके लिये हैं । दशलक्षया पर्व, अष्टाहिका, लेकिन इस ओर कभी प्रयत्न ही नहीं किया गया, न प्रचार मोनहकारणवत रविवत आदि अनेकों बन मम्याचारित्र ही हुश्रा और न माहित्य-वितरण ही। अस्तु । पदौसी संस्क की मापनाके लिये हैं । महावीर-जयन्ती, अक्षयतृतीया, तियाँ प्रापममें एक दूसरम बहुत कुछ लेती देती हैं और रक्षाबन्धन पर्व, दिवाला, अपभजयन्ती आदि उन महा- जैनसस्कृतिको गर्व है कि उसने अपनी बहिन संस्कृतियोंको नुभावों के स्मरण के लिये हैं, जिन्होंने बस्नत्रयकी माधना जो दिया है, वह बहुत महत्वपूर्ण है और जो उससे कहीं की या जिन्होंने धर्म और धार्मिकों की रक्षा की।
अधिक मूल्यवान है, जो उसने दूपरी संस्कृतियों लिया। म तरह हम देखते हैं कि जैन पौंका एक निश्रित दृष्टिकोण और समीष्टिकोणको लेकर वे न तो केवल नोट-इमके अनन्तर लेग्वमें महावीर-जयन्ती, अक्षयतृतीया जैन मस्कृति के अनुयायियोंकी ही वग्न मम्पूर्ण भारतीयोंको श्रुतपंचमी, वीर-शामन-जयन्नी, रक्षाबन्धन, पयूषगा, नवजीवन, स्फूर्ति और माध्यात्मिक प्रेरणा देते भारहे हैं। क्षमावा और दीपावली जैसे पौंका कुछ परिचय अगर जैनेतर संस्कृतियोंने उपके पौंको अपनाया है तो दिया गया है और अष्टान्दिका जैमें कुछ पोंकी इसमें जैन सस्कृति का विशेष महत्व ही प्रगट हुमा है और नाममात्र सूचना भी की गई है। लेग्वका यह अंश इममे उसको प्रसन्नता हीहै। लेकिन इतना खेद भी स्थानाभावके कारण नही दिया जा सका। अवश्य है कि जनेतर संस्कृतियोंने उसके पर्यों को अपनाकर
सम्पादक
शिवभूति, शिवार्य और शिवकुमार
(लेग्वक-६० परमानन्द जैन, शाम्री )
प्रो.हीरालालजी जैन एम० ए० (अमरावती) ने प्रकाशित किया है और उसमें यह सिद्ध करनेका यत्न हालमें 'शिवभूति और शिवार्य' नामका एक लेख किया है कि मावश्यक मनभाष्य और श्वे. स्थविगवली * यह लेख पहले अंग्रेजीम नागपुर यूनिवमिटीके जर्नल में वोटिक संघ (दिगम्बर जैन सम्प्रदाय ) के संस्थापक
न०६ में प्रकाशित हुआ था और अब एक ट्रैक्टरूपसे जिन 'शिवभूति' का उल्लेख है वे कुन्दकुन्दाचार्य-प्रणीत हिन्दीमें प्रकट हुश्रा है।
भावपाहुडकी ५३ वी गाथामें उल्लिखित 'शिवभूति'.
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अनकान्त
[ वप ७
भगवती पारावनाके का 'शिवार्य और उक्त भावपाहु यहाँ भी कुन्दकुन्दका अभिप्राय इही शिवायंस हो तो की वी गाथामे वर्णित 'शिवकुमार' में भिक नही हैं- आश्चर्य नहीं। उनके उपदेशका उपचारमं उनमें सद्भाव चारों एक ही व्यक्ति हैं अथवा होने चाहिये । और इस मान लेना असभव नहीं है।" (प्रथम लेख) एकताको मानकर अथवा इसके प्राधारपर ही आप जैन "मैंने अपने 'शिवभूति और शिवार्य' शीर्षक लेखमें इतिहासका एक विलुप्त अध्याय' नामका वह लेख लिग्वन में मूलभाष्य में उल्लिखित बोटिक मघक संस्थापक शिवभूतिको प्रवृत्त हुए हैं जिसे आपने अखिल भारतवर्षीय प्राध्य. एक ओर कल्पमूत्र-स्थविगवलीके आर्य शिवभूति और सम्मेलनके १२ वें अधिवेशन बनारममें अग्रेजी भाषामें दूसरी ओर दिगम्बर प्रन्थ पागधनाके कर्ता शिवार्यमे पढ़ा था, जो बादको हिन्दीमें अनुवादित करके प्रकाशित अभिन्न सिद्ध करनेका प्रयत्न किया है जिससे उक्त तीनों किया गया और जो अाजकल जैन समाजमें चर्चा का विषय नामोंका एक ही व्यक्तिमे अभिप्राय पाया जाता है जो बना हुआ है। इस विषय में प्रोफेसर माहबके दोनों लेखाके महावीरके निर्वाण ६०६ वर्ष पश्नात प्रसिद्धि में पाये। निम्न वाक्य ध्यान रखने योग्य हैं
मूल भाष्यको जिन गाथाओंपरमे मैंने अपना अन्वेषण "आवश्यक मूलभाष्यकी बहुधा उल्लिखित की जाने प्रारम्भ किया था उनमेंका एक गाथामें शिवभूतिकी परंपरा वाली कुछ गाथाओंके अनुसार वोटिक संघकी स्थापना महा- में कोडिनकुहवीर' का उल्लेख पाया है, अतः प्रस्तुत वीरक निर्वाणसे ६.१ वर्षके पश्चात रहवीरपुरम शिवभूतिके जेवका विषय शिवभनि अपर नाम शिवार्य उत्तराधिकानायकत्वमें हुई, वोटिकोको बहुधा दिगम्बगेम अभिम माना रियोंकी खोज करना है।" (द्वितीय लेख) जाता है, अत: श्वेताम्बर पट्टावलियोम वीरनिवागामे ६०६ वर्ष अब मैं अपने पाठकोपर यह स्पष्ट कर देना चाहता हूं पश्चात दिगम्बर सम्प्रदायकी उत्पत्तिाउल्लेख किया गयाहै।" कि प्रो. माहबने जिन दो शिवभूतियों. शिवार्य और
'श्वेताम्बरोंद्वारा सुरक्षित प्राचार्योकी पट्टावलियोंमें शिवकुमारको एक व्यकि सिद्ध करनेका प्रयत्न किया है वह कल्पसूत्र-स्थविरावली सबसे प्राचीन समझी जाती है। बहुत ही पदोष तथा प्रात्तिके योग्य है। ये चारों एक इसमें हमे फग्गुमित्तके उत्तराधिकारी धनगिरिक पश्चात् व्यक्ति नही थे और न किमी नाहपर एक व्यक्ति सिद्ध शिवभूतिका उल्लेख मिलता है। ये ही शिवभूति मूल ही होते हैं, जैसा कि निम्न प्रमाणसिं प्रकट है:भाष्यमें उल्लिखिन शिवभूतिमे अभिम प्रतीत होते हैं।" (1) भावगहुडकी ५३ वी गाथामे जिन 'शिवभूति' ___ "कुन्दकुन्दाचार्यने अपने भावपाहुडकी गाथा ५३ में शिव का -ल्लेख है वे केवल ज्ञानी थे. जैसा कि उस गाथाके भूतिका उल्लेख बड़े मम्मान किया है और कहा है कि वे महा- 'केवलग्नागी फुडं जात्रा' इन शब्दोंपरसे स्पष्ट है। नुभाव तुष-माषकी घोषणा करते हुए भावविशुद्ध होकर कंवल. स्थविगवलीके शिवभूति और भगवती पाराधनाके 'शिवार्य' ज्ञानी हुए । प्रसंगपर ध्यान देने से यहाँ ऐसे ही मुनिसे तात्पर्य दोनो हा कंवलज्ञानी न होकर छमस्थ थे-जम्बूस्वामीक प्रतीत होता है जो द्रव्यलिंगीन होकर केवल भावलिंगी मुनि बाद कोह केवलज्ञानी हुआ भी नहीं। भ. पाराधनाके कर्ता थे। ये शिवभूति अन्य कोई नहीं वे ही स्थविरावलीक शिवार्य स्वयं गाथा न. २१६७ में अपनेको बास्थ लिखते हैं शिवभूति और श्राराधनाके कर्ता शिवार्य ही होना चाहिये। और प्रवचनके विरुद्ध यदि कुछ निबद्ध होगया हो तो गीतार्थों
__ "भावपाहुस्की गाथा ११ में शिवकुमार नामक भाव- से उसके सशोधनकी प्रार्थना भी करते हैं। यथा:श्रमणका उल्लेख है जो युवतिजनसे वेष्ठित होते हुए भी छदुमत्थारा एत्थ दुजं बद्धं पवयणविरुद्धं । विशुद्धमति रहकर संसारमे पार उतर गये । इसका जब सोधेतु मुगीदत्था तं पवयणवच्छलत्ताए। हम भगवती भाराधनाकी ११०० से १११६ तककी अत: ये तीनों एक व्यक्ति नही हो सकते । गाथाओंसे मिलान करते हैं जहाँ स्त्रियों और भोगविलासमें (२) केवलज्ञानीको मर्वज्ञ न मानकर मात्र निर्मलज्ञानी रहकर भी उनके विषसे बच निकलनेका सुन्दर उपदेश माननेसे भी काम नहीं चल सकता, क्योंकि भावपाहुड़की दिया गया है तो हमें यह भी सन्देह होने लगता है कि उक्तगाथा ५३ में 'तुममास घोसंता' पदोकेद्वारा शिवभूतिको
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किरणा १-२
शिवभूति, शिवार्य और शिवकुमार
'बीजबुद्धि' सूचित किया है और जो बीजबुद्धि होते हैं व विदेहक्षेत्र स्थित महापन चक्रवर्तीके पुत्र थे मागरचन्द्र पक पदके प्राधारपर सकल श्रतका विनारकर उसे ग्रहण मुनीन्द्र अपने पूर्वभव श्रवण कर विरक्त होगये थे और करते हैं तथा मोक्ष जाते हैं। चुनाचे प्राचार्य वीरसेनने मुनि होते होते पिताके तीव्र अनुरोधवश घरमे इस प्राश्वा. श्रानी धवला टीका, वंदना अपर नाम कम्माय डि पाहुडके मनको पाकर रहे थे कि वे घरमें रहते यथेप्सित रूपसे चौथ कम्म' अनुयोगद्वारका वर्णन करते हुए, ध्यान-विषयक उग्रनप तथा ब्रतादिकका अनुष्ठान कर सकेगे । चुनींचे मुनि जो शंका-समाधान दिया है उसमें स्पष्ट रूपमे शिवभूतिको वषको न धारण करते हुए भी वे घरमै भावापेक्षा मुनिके बीजबुद्धि ध्यानका पात्र और मोक्षगामी सूचित किया है। ममान रहते थे, अपन। अनेक स्त्रियोंमें घिरे रह कर भी जैसाकि उसके निम्न अंशमे प्रकट है .--
कमल पत्रकी तरह निलिप्त, निर्विकार और प्रकामी रहकर । जदि णवपयवमयणाणणव मागाम्म यभवो पूर्ण ब्रह्मचर्यका पालन करते थे, जैसा कि जम्बू स्वामीचरित्र होह, तो चोहम-दम-वपुब्वधर मात्तण अगणसि पि माणं और उत्तरपुराणके निम्न वाक्योम प्रक्ट है:-- किराणा संपज्जदे ? चोहम-दस-णव-पुवेहि विणा थोत्रण "एवमस्तु करिष्ये ऽहं यथा तात ! मनीषितम् ।।१५।। वि गंधेण णवपयथा-नगमो-वल भादो। ण थोवेण गंथंण कुमारस्तादनान्नूनं सर्वमंगपराव मुम्बः । गिस्सेसमवगंतु बीजबुद्धिमुणिणो मोनण अराणे मिमुवाया- ब्रह्मचायकवम् ऽपि मुनिवत्तिने गृहे ।। १६०|| भावादो । जीवाजीवपुरणपावभासवसवाणिजराबध- अकामी कामिनां मध्ये स्थिती वारिजपत्रवत।" ज.च. मोक्वहि ण वहि पगन्थेहि दि रित्तमण ण कि पि अस्थि “दिनयत्री-सन्निधौ स्थित्वा सदाऽविकृतचेतमा। श्रण वलंभादो। नम्हा गा थोवण सुदेण पदे श्रवगंतुं तृणाय मन्यमानम्ता तपो द्वादशवत्मरान ॥२०७॥ सक्किाजंते विरोहादो । ण च दचसुदेण पन्थ अहियारो, चन्निव निशानासिधारायां संप्रवर्तयन् । योग्गल वियारस्प जलस्समायोलिगभूदास मुदत्तविगेहादो। संन्यम्य जीवितप्रान्ते कल्पे ब्रह्मेन्द्रनामनि ।।" २०१० जानवरदेगा अवगमार्गमगवपयत्थागणं मिवभृदि- श्रत इन शिवकुमारको पाराधनाके कर्ता शिवार्य आदिबीजबद्धीण भागाभावेगा मक्विाभावःयमंगादो। मान लेना भलमे खाली नहीं है। और यह कल्पना तो
--धवला. खतौली प्रति प० ६२६ बडी ही विचित्र जान पड़ती है कि शिवार्यने चूंकि स्त्रीजनो जब ये शिवभूति मोक्ष गये हैं और मोक्ष जाना विना और विषयोंके विषसे बच निकलनेका उपदेश दिया है केवल ज्ञान (मर्वजना) की उत्पत्तिके नहीं बनता, तब वे
इसलिये श्रीकुन्दकुन्दाचार्यने उपचारसे उन्हींको मात्र निर्मलज्ञानी न कहे जाकर सर्वज्ञ ही कहे जायेंगे और
युवतिजनोंसे वेष्टित विशुद्धमति मान लिया होगा और यही भावपाहुडकी उक्त गाथा ५३ में केवलणाणी' पदसे
शिवकुमार नामसे उल्लेखित कर दिया होगा ! परन्तु श्री कुन्दकुन्दाचार्यको विवक्षित है। और इलिये म्थ.
गाथामे शिवकुमारको द्रव्यरूपमे श्रमण न बतलाकर केवल विरावलीके शिवभूति तथा श्राराधनाके शिवार्यके साथ
भावरूपसे श्रमण बतलाया है और आराधनाके कर्ता इनका एक व्यक्तित्व घटित नही हो सकता। वे दोनों न तो
शिवार्य द्रव्यरूपसे भी श्रमण थे, साथ ही, युवतिजनों बीजबुद्धि थे और न मोक्ष ही गये हैं।
परिवेष्टित रहनेका उनके साथ कोई प्रसग भी नहीं था। (३) भावपाहडकी ५१ वी गाथामें जिन शिवकुमारका बालन शिवमारको शिवार्य नही राय उल्लेख है उन्हें इसी गाथामें युवतिजनसे वेष्टित, विशुद्ध
सकता और न उक्त दोनों शिवभूतियोंके माथ उसका एक मति और धीर भावश्रमण लिम्बा है-द्रव्यश्रमण नही तथा
व्यक्तित्व ही स्थापित किया जा सकता है । स्थविगवलीके 'परीतसमारी' हुया बतलाया है, और यह उन शिवकुमार
शिवभूतिकी गुरुपरम्परा भी शिवार्यकी गुरुपरम्परा का प्रसिद्ध पौराणिक अथवा ऐतिहामिक उल्लेख है जो
नहीं मिलती-शिवार्यने अाराधनामें अपने गुरुत्रोंका अन्तिम केवली श्रीजम्बृस्वामीके पूर्व ( तीसरे ) भवके
नाम प्रार्य जिननन्दी, सर्वगुप्तगणी और प्रार्य मित्रनन्दी * देखो, तिलोयपएगानी ४-६७६-७६
दिया है जब कि स्थविरावलीमे शिवभूतिको धनगिरि
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अनकान्त
[वर्ष ७
का शिष्य और धनगिरिको फग्गुमिक्तका उत्तराधिकारी है कि श्रापकी उम मदोष खोज का प्रबल विरोध हो प्रकट किया है। ऐसी स्थितिम कुन्दकुन्दाचार्य को भगवती रहा है, जिसका एक ज्वलन्त उदाहरण 'क्या नियुक्तिकार श्राराधनाके कर्ता शिवार्य मे बदका विद्वान सिद्ध करने भद्रबाहु और स्वामी समन्तभद्र एक हैं ?' इस शीर्षक का यह सब प्रयत्न ठीक नही कहा जा सकता।
का लेख+ है, जिसमें श्रापकी इस मान्यताका प्रबल इस तरह प्रो. मा. ने जिन आधारोंपर जो निष्कर्ष युक्तियोग खगडन किया गया है कि श्वे. नियुक्तिकार निकाले हैं वे सदोष जान पड़ते हैं, और इस लिये उन भद्रबाहु और श्राप्तमीमांसादिक कर्ता स्वामी समन्तभद्र निष्कर्षों की बुनियाद पर जैन इतिहासके एक विलुप्त एक हैं।
वीरसवामन्दिर, सम्मावा अध्यायकी इमारत खड़ी करते हुए शिवार्यके उत्तराधि- * 4 लेख वासवामन्दिर के विद्वान न्यायाचार्य पं. कारियोंकी जो ग्वोज प्रस्तुत की गई है वह कैसे निर्दोष दरबार लाल नी काटयाने लिया है और अनेकान्न क, गन हो सकती है। इसे पाठक स्वयं ममम सकते हैं। यही कारण छठ वर्षको मयु कि गण १०-११ मे प्रकट हुआ है।
सम्पादकीय १ नव वषोरम्भ___ इस किरण के साथ अनेकान्तका सातवों वर्ष प्रारम्भ होरहा है। गत वर्ष में अनेकान्तने अपने पाठकोंकी जो सेवा की और जैसे कुछ महखके लेखोद्वारा अनेक विषयोपर नवीन प्रकाश डाला और अनेक गुत्थियोंको मुलझानका यत्न किया उसे यहाँपर बतलाने की जरूरत नहीं-वह सब पाठकोपर प्रकट है । यहोपर मैं अपने मान्य लेखकों को धन्यवाद देनेके माथ उन सभी सजनोंका भी धन्यवाद करता है जिन्होंने अनेकान्तकी सेवायोग्मे प्रसन्न होकर उसे सहायता भेजी तथा भिजवाई है और अपनी ओर से दूसरों को अनेकान्त फ्री भिजवाया है। प्राशा है वे सब सजन इस वर्ष भी अनेकान्तपर अपनी कृपा दृष्टि बनाये रखेग।
पिछले वर्ष कागज की बड़ी कठिन समस्या रही और उपके कारण पिछली कुछ किरणो को देर भी निकालना पड़ा फिर भी मैटर तथा पृष्टीमे कमी नही होने दी गई टाइटलपेजोंके अलावा ३२ पृष्ट प्रति किरण का जो सकल्प किया गया था उसके अनुसार पूरे ३८४ पृष्ठ पढने को दिये गये हैं. विज्ञप्ति अक इम्पसे अलग रहा कागज की इस समस्या को हल करने मे ला. जुगल किशोर जी कागजी मालक फर्म धूमीमल धर्मदाम देहली ने बड़ी मदद की है और परिश्रम करके ३० रिमके करीब कागज कटरोल पर दिलाया है. इसके लिये श्रापको जितना धन्यवाद दिया जाय वह सब थोड़ा है। प्रतिवर्षकी भांनि बारहवीं किरणमें वर्ष भरकी विषय-सूची देनेका विचार था परन्तु सरकारी श्रार्डिनेमके कारण पृष्ट सख्या कम होजानेके कारण अधिक पृष्टोंकी तरह उसे नहीं दिया जा सका आगामी किसी किरण के साथ देनेका विचार है। अधिक पृष्टोंके दिये जानेके लिये प्रयान हो रहा है, वे भी श्राज्ञा प्राप्त होते ही जिसकी बहुत कुछ पाशा है पृष्ठ बढ़ा दिये जावेगे और इस किरणमे जो पृष्ट कम जारहे हैं उसकी कमीको भी पूरा कर दिया जावेगा। यदि ऐसा न होसका तो अनेकान्त का वार्षिक चन्दा कम कर दिया जाएगा और जो चन्दा अधिक आया हुआ होगा वह ग्राहकों को इच्छानुसार या नो अगले वर्षमें जमा कर लिया जायगा, या वापिस कर दिया जायगा अथवा उसके उपलक्षमे वीर पवामन्दिरके जो अभी नये प्रकाशन हुए हैं वे उन्हें दिये जा सकेंगे। २ अनेकान्तका विशेषाङ्क
वीरशासनाङ्क नाममे जो बड़ा विशेषाङ्क निकलने वाला था और जिसके लिये १० से अधिक विद्वानोंके लेख पाये हुए हैं वह विशेषाङ्क और कागजके इस्तेमाल तथा पृष्ठसंख्या नियमक दो पार्डिनेमोंके कारण रुका हुआ है। कोशिश होरही है. यदि न्यूज प्रिंट पेपरका ही कोटा मिल गया तो उसीपर उसको निकाल दिया जायगा । इस विषयमे ठीक सूचना बादको दी जा सकेगी। पाठकों और ग्राहकों को जो प्रतिक्षा-जन्य कष्ट उठाना पड़ा। वह मजबूरीके कारण क्षमाके योग्य है।
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वीरसेवामन्दिरको सहायता
गत वर्षकी संयुक्तकिरणा नं. १०-११मे प्रकाशित बुलन्दशहर, (ला. विलायतरामके स्वर्गवासके महायताके बाद वीर सेवामन्दिर मरमावाकी, अनेकान्त
अवमापर निकाले हुए दानमेंमे) महायता और सदस्य फीसके अलावा जो दूसरी फुटकर १५१) श्री दि. जैन शाम्त्रसभा, नया मन्दिरधर्मपुरा, देहली महायता प्राप्त हुई है वह क्रमश: निम्न प्रकार है, और इसके
२८१) लिये दातार महोदय धन्यवादकं पात्र हैं:
नोट-इनके अलावा १००० एक हजार रु० बा. नन्दलालजी १०५) बा० छोटेलाल जी जैन नईम कलकत्ता (सफरवचं
जंन कलकनानं अपनी स्वर्गीया पत्री नागमाई ग्वमका की सहायतार्थ)
की स्मृतिम ग्रन्थ प्रकाशनार्थ प्रदान किये हैं, २०) ना.गंदीलाल विरंजीलाल जी संथलवाले जयपुर
जाश्रानेवाले हैं और जिनके लिये श्रापको दार्दिक (चि० प्रभुदयालक निवाहके उपलक्षमे)
सन्यवाद है। ५) ला. मागरमल विलायतराम जी जैन खुर्जा जि.
अधिष्ठाता वीग्मेवामन्दिर
अनेकान्तको सहायता गत मंयुक्त किरण १० ११ (मई-जून) में प्रकाशित टीकमचन्दकं विवाहकी खुशीमे) महायनाके बाद अनेकान्त' को जो महायना उसके हंडाफिम ला. मुक्टबिहारीलाल जैन मुरादाबाद (शादीके मरमावाम प्राप्त हुई है वह क्रमश निम्न प्रकार है, और
अवसरपर निकाले हुए दानमेंसे) इसके लिये दातार महोदय धन्यवाद के पात्र हैं। ५०) माह श्रेयांपप्रमादजी, बम्बई (स्वीकृत सहायताके १) जिनेन्द्र चन्दजी जैन यहियागज लखनऊ (निति
मध्य बाकी रह हुए) सस्थाओको फ्री भिजवाने के लिये पहले भेजी हई १०) बा लाल चन्दजी जैन एडवोकेट गेहतक (स्वीकृत२०) स०महायताके अलावा)
महायनाक मध्ये बाकी रहे हुए) ५) ला सर्वसुग्वजी गजमलजी कोटानिवासी (श्री ११)
अधिष्टाना वीरसवामन्दिर
वीरसेवा-मन्दिरके नये प्रकाशन
१ अनित्य-भावना-श्रीपअनन्दि आचार्य विचित ४ परममाधुमुग्वमुद्रा और ५ मसाधुवन्दन नामके पाँच अनित्य पचाशन. मुग्तार श्रीजुगलकिशोर कृन हिन्दी पद्या. प्रकरण है। पुस्तक पढते समय बडे ही सुन्दर पवित्र नुवाद और भावार्य-पहित, अतीव शिक्षाप्रद .) विचार उत्पन्न होते है और साथ ही प्राचार्योंका कितना ही
आचार्य प्रभाचन्द्रका नत्रार्थमूत्र-नया प्राप्त इनिहाम सामने बाजामा है। नित्यपाट करने योग्य है मू०॥) मंसित मूत्र, मुख्तार श्रीजुगल किशोरकी मानवाट व्याख्या अध्यात्म-कमल-माण्ड-यह पंचाध्यायी तथा और प्रस्तावना महित।
लाटीसं हिना आदि ग्रन्थोके कर्ता कविवर राजमालकी अपूर्व ३ मत्माधु-स्मरण-मंगलपाट-मुन्तार श्री जगल- रचना है। इसमे अभ्यामसमुद्रको कृजेमे बन्द किया गया किशोरकी अनेक प्राचीन पाको लेकर नई योजना, मुन्दा है। माथमे न्यायाचार्य पं. दरबारीलाल कोटिया और पं. हृदय ग्राही अनुवादादि महिनाइम श्रीवीर बर्द्धमान और परमानन्द शास्त्री का मुन्दर अनुवाद विस्तृत विषयमूची उन के बाद के जिनमनाचार्य पर्यन्न, २. महान प्राचार्योंके नथा मुग्न्तार श्री जुगल किशोर की महत्वपूर्ण प्रस्तावना है। अनेकों प्राचार्यों तथा विद्वानो द्वारा किये गये महावके पुण्य बड़ा ही उपयोगी ग्रन्थ है। (१५ दिनमें प्रकट होगा मू.॥) ग्मरणोंका संग्रह है और शुम्मे , नकमगलकामना,
प्रकाशन विभाग निम्यकी श्रामप्रार्थना, ३ माधुयेपनिदर्शक जिनम्नुनि
वीरमवान्दिर, सरसावा (महारनपुर)
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Registered No. A-721
वीर-शासन-महोत्सव
(२५०० वर्षकी ममाप्तिके उपलक्षमे) ता०३१ अक्टोबरम नवम्बर १९४४ को कलकत्ता में मनाया जायगा। भगवान महावीरका जीवन समारके उन इने गिने जीवन-मोमेमे है जिनकी दमकती हुई प्रकाश रेखाने भूलेभटके विश्वको सुपथपर लगाया था।
मीर देशनाके पूर्व संसारकी अवस्था नितान्त पतित हो गई थी। मामयोंका विवेक अपनी मानवता मूल प्रायः गुलाम हो चुका था। पुरोहितोंकी मनमानी प्राज्ञा पालन करना ही उनका धर्म हो गया था। उस समय धर्मकी दीपर दयाको तिलांजलि दे जितने प्राणियोंका बलिदान किया गया था उतना शायद विश्वके इतिहास में कभी भी न हुआ होगा। बलिवेदियों पर चहें निरीह प्राणियोंके छन्न-भिन्न हाड-मुण्डोंके संग्रहमे हिमालय जैमी गगनचुम्बी चोटियां चिनी जा सकती थीं और रक-प्रवाहम गंगा-यमुना-पी नदियां बहाई जा सकती थीं। पेस ही विश्वके उम बेवसी और कपीके दिनोमें वीर भगवानने मियाव और उम कर हिमामे बचने के लिये विश्वके मर्थ पाणियोंके हिनका नामम्देश मनाया जिमने अनाचारको दूर कर सर्वोदयनीर्थकी धारा प्रवाहित की।
उमी पुण्यमयी श्रीवीरशासन-जयन्तीके २४०० वर्ष अब पूर्ण हुप है श्रतएवं श्रागामी कार्तिक पूर्णिमा भार्गशीर्ष कृष्णा ४ तक कल कनेमें वह लोकहितकर वीर शासन-महोम्मव मनाया जायगा।
इम महोम्मन पर देशके विभिन्न प्रानाम अनेक विद्वान, श्रीमान और न्यागजिन पधारेंगे। यहाँ जनतर प्रपित विद्वान और गण्यमान महानुभायोंकी भी निमंत्रित किया गया है।
इस धर्मवक महामवकी महानता और अपूर्वता पर ध्यान देने हुए हमाग फर्कव्य है कि जैन धर्मका यथार्थ नभावना करने में हम कोई प्रयन्न उठा न सम्बं ।
विक्रम संवतके मात्र .... वर्षोकी समाप्तिके उपलक्षम "नियहवालदी उम" गायो कपया व्यय कर विजन पमधाममे मनाया गया है.तो फिर क्या जैनोंका यह क्नंन्य नहीं कि ने श्री वीर प्रभु पनि कमजना और प्रांतरिक श्रन्न।महित मंसारके समक्ष पुनः वीर प्रभुका सन्देश सर्वव्यापक करने के लिये विक्रम उन्मवम भी महान प्रायोजन करें । ममा नैनयन्धुपे निवेदन है कि वे श्रीवीरशासन-महोत्सव-स्वागतमिनिके मदम्य बमें श्रीर महोग्यमको मन मन, नये यफन बनाये । इस संबन्धमे विशेष जानकारी के लिये निम्नलिखित पनेपर रिगान को और सभामद फार्म भार भने। ___ याद राव अाने जीवनकाल में पह उस पवित्र दिवस २४०० वर्षकी पूर्णताका शुभ अवसर प्राप्त हना है जिस दिवम भगवान वीर प्रभुने संसारके मोहान्धकार तथा पापाचारोंका नाश कर संपार में शान्ति स्थापन कर जैन धर्मको पुन हद बनाया था। अतएव जैनी होनेके नाते अपना कर्तव्य पालन करना न भूले।
समाचारपत्रों में पढ़ा होगा कि अमेरिकाके क्रिस्टान पादरी भारत में अपने धर्मप्रचारके लिये नाग्य पुस्तकालय स्थापित करनेका आयोजन कर रहे हैं, तो क्या हम अपने इतने प्राचीन और लोकहितकर पवित्र धर्ममे समारको वंचित रखें,
छोटेलाल जैन विनीत- बलदेवदाम मरावगी मंत्री-वीरशामन-महोत्सव निर्मलकुमार जैन (भाग)
स्वागत समिति शांतिप्रमाद जैन (डा. नगर) ५२, बासर चिसपुर रोड, गजराज गंगवाल कलकचा
मोहनलाल लमेच
nodelivere please rem... VEER SEWA MANDIR,
SARSAWA. (SAHARANPUR)
TO)
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DUSTA
ATHERE
ARENA
सम्पादक-जुगलकिशोर मुख्तार
'न्यायदीपिका के प्रिय पाठकों के लिये यह जानकर हर्ष होगा कि वीरमवामन्दिरके अन्यतम विद्वान पं० दरबारीलालजी कोठिया, जैनदर्शन शास्त्री न्यायतीर्थ, न्यायाचार्य द्वारा सम्पादित और अनुवादित न्यायदीपिकाका नया विशिष्ट संस्करण छप कर प्रायः तैयार हो गया है। प्रस्तावना और कुछ परिशिष्ट मात्र बाकी है । यह संस्करण अपनी खास विशेषतायें रखता है। अब तक प्रकाशित संस्करणोमे जो अशुद्धियाँ चली आ रही थी उनका प्राचीन प्रतियों पर संशोधन होकर प्राकथन, सम्पादकीय प्रस्तावना, विषय-सूची, मूल न्यायदीपिका न्यायदीपिकाका हिन्दी अनुवाद और कोई ६ पशिष्टोसे संकलित है। प्रस्तावनामे न्यायदीपिका और अभिनव धर्मभूषण यतिका विस्तृत परिचयके साथ न्यायदीपिकाम उल्लिखित ग्रन्थ और ग्रंथकारोंका तथा न्यायदीपिकागत प्रमेयका संक्षिप्त परिचय कराया गया है। इस संस्करणकी सबस बड़ी विशेषता एक यह है कि सम्पादकका स्वनिर्मित संस्कृत भाषामें ग्रंथगत कठिन शब्दों और विषयोका खुलासा करने वाला 'प्रकाशाख्य' टिप्पण भी लगा हुआ है जो कई दृष्टियोंसे महत्वपूर्ण और विद्यार्थियो तथा कितने ही विद्वानोके कामकी चीज है। लगभग ३०० पृष्ठोमे यह पुस्तक समाप्त हुई है। कीमत लागतमात्र तीन रुपया रक्खा गया है।
प्रकाशन-विभाग,
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१ अईस्मरण २ स्वामी समन्तभद्र धर्मशास्त्री, तार्किक
और योगी तीनों थे ३ पं० पद्मसुन्दरके दो ग्रन्थ ४ रत्नकरण्डश्रावकाचार और श्रा० कर्तृत्व, .. ५ भगवतीदास नामके चार विद्वान ६ बन्दिनी कहानी] - .. १६ ७ त्रैलोक्यप्रकाशका रचना-गर्म और रचयिता
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कलकत्तामें मेरे ४६ दिन
वीरशासन-जयन्ती महोत्सवके जन्मदाता आदरणीय श्राप सिद्धहस्थ थे चाहे वह दरिद्र भिखारीसे लेकर बंगालका मुख्तार साहब पं० जुगल किशोरजीको प्राज्ञाय महोत्सव गवर्नर अथवा भारतका वायसराय ही क्यों न हो। कोई कार्यमे सक्रिय सहयोग देने के लिये मुझे कलकत्ता जाना काम ऐसा नहीं होता था जिसके सम्बन्धमे आपको ज्ञात न पडा था। मैं १४ सितम्बरको यहोम रवाना होकर देहली हो और जिसमे श्राप जानकारी न रखते हों। श्राप कार्यहोता हुश्रा १८ सितम्बरको कलकत्ता पहुचा और ६ नवम्बर माधनामे इतने व्यग्र और चिन्तित रहते थे कि कभी भी तक रहा। मेरे वहां पहुँचते ही अधिवेशन सम्बन्धी कार्य- मैंने थापको शांनिमे भोजन करते नही देम्बा। भाई तथा क्रम प्रारम्भ होगये। कलकत्ते अधिवेशनको सफलता और सहयोगी प्रायः मुझसे कहा करते है कि तुम प्रत्येक कार्य प्रभावनाके समाचार अनेक पत्रामे प्रकाशित होचुके हैं। बडी जल्दी करते हो और मालस्य नही करते हो पर अत: उस सम्बन्धमे कुछ भी लिखना पिष्टपंपण होगा, पर बाबूजीक निरन्तर अध्यवसायको देखकर मेरे भी छक्के सूटते अधिवेशनमे विशेषताय क्या थीं और वास्तविक सफल पा थे। जिस कार्यमे वे हाथ डालने थे उसे वार्यम् वा साथ
पा कारण था इस पर प्रकाश डाल देना अावश्यक येयम् शरीरम् वा पातयेयम्' वाली - कि. द्वारा चरितार्थ दिखता है।
करने थे। कभी २ उनको अस्वस्थ और अधि। चिनित ___ भारतके किसी न किमी प्रान्तम प्रतिवर्ष जैन व देख मै और बहिन सुशाहा कहते थकि बाप श्रथवा अधिवेशनादि होते रहते हैं. पर उनका महब केवल इतना अधिक श्रम न कर दम्म प्रापका साग तथा जैन कौम तक ही सीमित रहा है। इस अधिवेशन मानायक दानों ही प्रकारको होता है। श्री उत्ता भारत के सभी प्रान के विद्वानोंका भाग मनी प्रान्तोकी देते थे कि इस शरीरका और उपयोग ही क्या है? सभी धर्मावलम्बी बालाओं द्वारा मडाभिवादन, प्रबन्धमे राजनीति दृन्हिाम, धर्म, समान, योगराद विशेषकर बंगालियोंका हाथ तथा जैनमाहित्य प्रचारार्थ सभी : काके माहित्यमे श्रापका अधिकार पूर्ण मान है। अजनों द्वारा दान, नह विशेषताश्रीन वीरशासन महावको जनता पर प्रेमपूर्ण : भान है श्री. राज्य पर्मचारियो श्राप गधर्म सम्मेलनका वह रूप देदिया था जो भाउ ढाई का सम्मानपूर्ण परिचय है । इपीका परिणामक कलकत्ते हजार वर्ष पहिले भगवान महावीर की शामन ममाम दृष्टि. जैसे स्थानमे श्राजकी भगानक स्थिनिम इगना विशाल गोचर होता था, और जिसे देखनेक दिये हम आज भी अधिवेशन मभी प्रकार सफल होपका।। उत्सुक है । इन विशपनों औरधिवेशनकी सफलताका श्रापका जीवन बहुत ही मादा नया पवित्र है। समाजमुलाधार अपने आपको होस दन यात्रा दुवती पतली सेवाकी अमिट भावनाय और अदृट लग्न भाग रग में दहवाला वही अधंद व्यक्ति है, जिसे सर्वप्रथम दिनहाने समाई हुई है। श्राप बड़े ही उदार विचारों वाले तथा कार्यालयमे बैठा हुमा कार्यभाधना मग्न पाया था। पाप प्रेमाले म्वभाव वाले है। पर हां नामकी चाह और नेतागिरी आपका नाम बाबू छोटेलालजी मैंने पहिले भी सुना था पर की इच्छामे श्राप कोसों दूर हैं। श्राप बडे हा जागरूक और मुझे विश्वास नहीं होता था कि क्लबते। एक कुशल माथ ही कर्तव्य विमुख व्यक्तियोंके लिये कठोर शासक हैं। व्यापारी और सस्कारों मेट सेवाक्षेत्र में इस प्रकार मामा श्राप वास्तवम समाजके मूक सबक हैं। मैने धारके लांघ सकेगा।
जीवनका खूब अध्ययन किया और उससे बहुत कुछ सीग्या श्राप प्रातःकाल के ७ बजे गत्रिक २॥ वजनका इस है। श्राशा है अथ संवापती भाई भी श्रापके मानव साफप्रकार श्रमपूर्वक कार्यमें लगे रहते थे कि दयार दग ल्योपयोगी गुणोंका अनुकरण कर अपने पापको सच्चा
सेवक बना सकेंगे। अन्तम परमात्मासे प्रार्थना करता है कि कार्यशीन व्यकियाकी श्रावश्यकता है, वहां श्राप पूर्ण
पाप जैसे मुक संबक दीर्घजीवी हो और श्रापका यश. पहयोगी एक भी न था पर हा आपमे सबकी श्रद्धा, तथा
सौरभ पारिजातिवी प्रस्फुटित कुमुम कलिकाओं तुरुय पापके कार्य में सबकी सहानुभूति थी। जब भी आपको विगाद किमीपे सहयोगकी अावश्यकता पड़ता तो उसे प्राप्त करने में
प्रभुलाल 'प्रेमी' पोहरी (गवालियर)
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* अहम् .
वस्ततस्व-सपासक
विश्वतत्त्व-प्रकाशक
वापिक मूल्य ४)
इस किरणका मूल्य)
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नीतिविरोधप्वंसी लोकव्यवहारवर्तक सम्यक् । परमागमस्यबीज भुवनैकगुरुर्जयत्यनेकान्तः।।
वप ७ किरण ५.६
) ।
सम्पादक-जुगलकिशोर मुनार वीरमेवामन्दिर (समन्तभद्राश्रम) सरसावा जिला महारनपुर पौष-माघशुक्ल, वीरनिर्वाण संवत २४७१, विक्रम सं० २०.१
दिसम्बर १६५४ जनवरी १६४५
।
अहत्म्मरण गगो यस्य न विद्यते कचिदपि प्रध्वस्त-संग-ग्रहादुअस्त्रादेः परिवर्जनान्न च वुधैर्दोषोऽपि सम्भाव्यते । तस्मात्साम्यमथास्मयोधनमतो जातः क्षयः कर्मणाम् आनन्दादि-गुणाश्रयस्तु नियतं सोऽहंन्सदा पातु नः ।।
--श्रीपानन्द्याचायः परिग्रह-पिशाचके नष्ट होजानम-ममत्वपरिणामक सर्वथा त्यागसे-जिनके आत्मा में कही भी गग (पर-पदाम प्रामक्तिका भाव) विद्यमान नही है, अस्त्र-शस्त्रादिक मर्वथा त्यागसे विवेकीजन जिनमें उपकी (दृमरीके प्रति शत्रुनाके भावी) सम्भावना भी नहीं कर सकते, गग और द्वेष दोनोंक अभावसे जिन्हें ममनाभाव तथा आत्मज्ञानकी प्राप्ति हुई है, ममताभाव तथा श्रात्मजानम जिनके कर्मोंका-ज्ञानावरण, दर्शना परगण मोहनीय और अन्तराय नामक धानिचतु'कका-क्षय हुआ है-श्रात्माम मदारे लिये सम्बन्ध छूटा है-और जो नियमसे आनन्दादि गुणों के आधारभूत हैं ये श्री अर्हत्परमात्मा मना हमारी रक्षा करी-अपने ग्रादर्श-द्वाग हमे ऐमी शिक्षा प्रदान कगे जिसमें हम राग-द्वेपका ननि-गृर्वक माम्यमाव और प्रान्मज्ञानका अवलम्बन लेकर कमों का नाश करने हए उस अात्मस्थिरताको-अात्माकी स्वाभाविक मिनिकी-पान करने में समर्थको म जी अनन्तदर्शन. अनन्त ज्ञान, अनन्तमुख श्रोग् अनन्तवीय-स्वरूप हैं।'
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स्वामी समन्तभद्र धर्मशास्त्री, तार्किक और योगी तीनों थे
[सम्पादकीय ]
अनेकान्तकी पिछली किरण (नं. ३-४ ) में सुहृदर कर्ताका नाम सूचित किया है और वन लाया है कि वे म. पं. नाथूरामजी प्रेमीका एक लेख प्रकाशित हुया है जिसका म. सतीशचन्द्र विद्याभूषण के अनुसार ई. सन् २००० के शीर्षक है 'क्या रत्नकरण्डके कर्ता स्वामी ममन्तभद्र ही लगभग हुए हैं। हो सकता है कि ये 'विषमपद-तापर्यहैं ?' इस लेख में रनकरण्डश्रावकाचार' पर स्वामी वृत्ति' के कर्ता समन्तभद्र ही प्रेमीजी की दृटमे उन समन्तभद्र के कर्तृत्वकी आशंका करते हुए प्रेमीजीने वादि- दुसरे समन्तभट्टके रूपमें स्थित हों जिनके विषयमे गन्नराजसूरिके पार्श्वनाथचरितसे 'स्वामिनश्चरितं तस्य', करण्डके कर्ता होनेकी उपर्युक्त कल्पना की गई है। परन्न 'अचिन्त्यमहिमादेवः', 'त्यागी म एव योगीन्द्रो', इन एक तो इन्हे योगीन्द्र सिद्ध नहीं किया गया, जिसम उक्त तीन पद्योंको इसी क्रमसे एक साथ उद्धृत किया है और पदमे प्रयुक योगीन्द्र' पदके साथ इनकी संगति कुछ बतलाया है कि इसमें क्रमश: स्वामी, देव और योगीन्द्र ठीक बैट सकती। दृपरे, इन विषमपद-तात्पर्य वृत्तिके कर्माइन तीन श्राचार्योकी स्तुति उनके अलग अलग ग्रन्धों विषयमे प्रेमीजी स्वयं ही धागे लिखते हैं(देवागम, जैनेन्द्र, रत्नकरण्डक) के संकेत सहित की गई है। "नामतो इनका भी ममन्तभद्र था. परन्तु म्वामी 'स्वामी' तथा 'योगीन्द्र' नाम न होकर उपपद हैं और 'देव' समन्तभद्र से अपने को पृथक् बतलाने के लिए इन्होने श्राप जैनेन्द्रव्याकरणके कर्ता देवनन्दीके नामका एक देश है। वो 'लघु' विशेषण सहित लिखा है।" स्वामी पद देवागमके कर्ता स्वामी समन्तभद्रका वाचक है अत: ये लघु समन्तभद्र ही यदि रस्नकरण्डके कर्ता
और 'योगीन्द्र' पद, बीचमें देवनन्दीका नाम पद जानेये, होते तो अपनी वृनिके अनुसार नागडमे भी म्बामी स्वामी समन्तभद्रसे भिन्न किसी दूसरे ही श्राचार्यका वाचक समन्तभद्रये अपना पृथक बोध कराने के ल्दियं अपनेयो है और इस लिये वे दूसरे भाचार्य ही 'ग्नकरगड के 'लघुसमन्तभद्र के रूपमे ही उल्लेलित करते. परन्तु रन. कर्ता होने चाहिये । परन्तु योगीन्द्र' पदके वाच्य वे दुसरे करगड़के पद्या, गद्या'मक मधियो और टीका तकमे कही भी श्राचार्य कौन हैं यह प्राने बगलाया नहीं। हा, इतनी ग्रन्थकं कर्तृवरूपमे 'लवुममन्तभद्र' का नामोल्लेख नहीं है, कल्पना जरूर की है कि-"असली नाम रत्नकरण्डके कर्ता तब उसके विषय में लघुममन्तभद कृत होनेकी कल्पना का भी समन्तामनी सकना है, जो स्वामी समन्तभदमे कैसे की जा सकनी है ? नहीं की जा सकती --ग्यासकर पृथक शायद दुसरे ही ममन्तभद्र हों। यह कल्पना भी स्वामिना अापकी ( हो सकता है. 'शायद' और 'हो' जैसे शब्दोंके
ममी-
पिटल प्रयोगको लिये रहने और दूसरे समन्तभद्रका कोई स्पष्टी.
दिन लघुममन्तभद्र के अलावा चिकम०, गेममी पे म., करा न होनेसे) पन्देहामक है, और इस लिये यह ।
अभिनव स०, भट्टारक स० और गृहस्थ म नाम के रोच कहना चाहिये कि योगीन्द्र' पदके वाच्यम्पमें श्राप दसरे मालटोको और खोजी भी से ग्राम किसी प्राचार्यका नाम अभी तक निर्धारित नही कर सके
कोई २० वर्ष पहले मा. दि. जैन ग्रन्यमालाम प्रकाशन हैं। ऐसी हालत में आपकी श्राशका और कल्पना कुछ बल
रत्नकरण्ड-श्रावकाचारको अपनी प्रस्तावनाम प्रकट किया वती मालूम नहीं होती।
था और उसके द्वारा यह स्पष्ट किया था कि ममयादि की लेखके अन्नमें "समन्तभद्र नामके धारण करने वाले दृष्टिम इन छदो दृमरे समन्तभद्रोमसे कोई भी रत्नकरण्ड विद्वान और भी अनेक हो गये हैं" ऐसा लिख कर उदा- का का नहीं हो मकता है। (देग्यो, उक्त प्रस्तावनाका हरणके तौर पर भ्रष्टसहस्रीकी विषमपद-तात्पर्य वृत्तिके 'ग्रन्थपर सन्देद' प्रकरण पृ० ५ से।)
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किरण ५, ६]
स्वामी समन्तभद्र धर्मशास्त्री, तार्किक और योगी तीनों थे
ऐसी हालतमें जब कि रत्नकरण्डकी प्रत्येक सन्धि समन्त- रत्नकरण्डकाख्यं शास्त्रं कर्तुकामो निर्विघ्नतः शास्त्रभद्रके नामके साथ 'स्वामी' पद लगा हुआ है, जैसा कि परिसमाप्त्यादिकं फलमभिलषनिष्टदेवताविशेष नमसनातन जैनग्रन्थमालाके उस प्रथम गुछ कसे भी प्रकट है स्कुर्वन्नाह-" जिसे सन् १६०५ में प्रमीजीके गुरुवर पं. पन्नालाबजी "इति प्रभाचन्द्रविरचितायां समन्तभद्रस्वामिबाकलीवालने एक प्राचीन गुटके परसे बम्बई के निर्णयसागर विरचितोपासकाध्ययन टीकायां प्रथमः परिच्छेदः॥शा" प्रेममे मुद्रित कराया था और जिमकी एक सन्धिका नमूना प्रेमीजीने अपने 'जैनसाहित्य और इतिहास' नामक इस प्रकार है--
ग्रन्थ (पृ. ३३६) में कुछ उल्लेखोंके आधारपर यह "इति श्रीसमन्तभद्रस्वामिविरचिते रत्नकरण्ड- स्वीकार किया है कि प्रभाचन्द्राचार्य धाराके परमारवंशी नाम्नि आसकाध्ययने सम्यग्दर्शनवर्णनो नाम प्रथमः राजा भोनदेव और उनके उत्तराधिकारी जयसिंह नरेशके परिच्छेदः।। १॥”
राज्यकालमें हुए हैं और उनका 'प्रमेयकमलमार्तण्ड' और इस लिये लेखके शुरूमें प्रेमीजीका यह लिखना भोजदेवके राज्यकालकी रचना है। जब कि वादिराजमूरिका कि 'ग्रन्थमे कहीं भी कर्ताका नाम नहीं दिया है। कुछ पार्श्वनाथ चरित जयसिंहके राज्य में बन कर शकसंवत् १४७ संगत मालूम नहीं देता। यदि पद्यभागमै नामके देनेको ही (वि० सं० १०८२) मे समाप्त हुया है। इसमे प्रभाचन्द्रा ग्रन्थकारका नाम देना कहा जायगा तब तो समन्तभद्रका चार्य वादिराजके प्रायः| समकालीन डी नही बल्कि कुछ 'देवागम' भी उनके नामसे शून्य ही ठहरेगा, क्यों कि उस पूर्ववर्ती भी जान पड़ते हैं। और जब प्रेमीजीकी मान्यता के भी किसी पद्यम समन्तभद्रका नाम नहीं है।
नुसार उन्हीने निकरण्डकी वह टीका लिखी है जिसमें तीसरे, लघुसमन्तभद्ने अपनी उस विषमपदतापर्य- साफ तौर पर रत्नकरण्डको स्वामी समन्तभद्रकीकति प्रनि. वृत्तिमै प्रभाचन्द्र के 'प्रमेयकमलमार्तण्ड' का उल्लेख पादित किया गया है तब प्रेमीजीके लिये यह कल्पना करने किया है, इससे लघुसमन्तभद्र प्रभाचन्द्र के बादके विद्वान. की कोई माकुल वजह नहीं रहती कि वादिराजसूरि देवारम ठहरते हैं। और स्वय प्रेमीजीके कथनानुसार इन प्रभाचन्दा- और रस्नकरण्डको दो अलग अलग प्राचार्योंकी कृति चार्यने ही रत्नकरण्ड-श्रावकाचारकी वह सस्कृत टीका लिखी मानते थे और उनके समक्ष वैमा माननेका कोई प्रमाण या है जो माणिकचन्द्रग्रन्थमालामें उन्हींके मत्रित्वमें मुद्रित हो जनश्रुनि रही होगी। चुकी है । इस टीकाके मन्धिवाक्योंमें ही नही किन्तु मूल
यहाँ पर मुझे यह देखकर बड़ा आश्चर्य होता है कि ग्रन्थकी टीकाका प्रारम्भ करते हुए उसके धादिम प्रस्तावना प्रेमीजीने वादिगजके स्पष्ट निर्देशके बिना ही देवागम और वाक्यमे भी प्रभाचन्द्राचायने इस रग्नकरण्डको स्वामी
रत्नकरण्डको भिन्न भिन्न कर्तृक मानकर यह कल्पना ती समन्तभद्रकी कृति सूचित किया है। वह प्रस्तावना-वाक्य कर डाली कि वादिराजके सामने दोनों ग्रन्थोंके भिन्नकर्तृव और नमूनेके तौर एक सन्धिवाक्य इस प्रकार है-- का कोई प्रमाण या जनश्रुति रही होगी, उनके कथनपर ___ "श्रीममन्तभद्रम्वामी रत्नानां ग्क्षणोपायभूतरत्न- एकाएक अविश्वास नहीं किया जा सकता, परन्तु १३ वीं करण्डकप्रख्यं सम्यग्दर्शनादिग्नानां पालनापायभतं शताब्दीके प्राचार्य कल्प पं. पाशाधर जैसे महान विद्वान् 'अथवा नच्छक्तिममर्थनं प्रमेयकमलमातेण्ड द्वितीय
- ने जब अपने 'धर्मामृत' ग्रन्थमें जगह जगहपर सनकरण्ड
को स्वामी समन्तभद्रकी कति और एक पागम ग्रन्थ प्रतिपरिच्छेदे प्रत्यक्षतरभेदादिल्या व्य ख्यानावमरे प्रपञ्चत: प्रोक्तमत्राचगनाध्यम।"
पादित किया है तब उसके सम्बन्धमें यह कल्पना नहीं की "तथा च प्रमेयकमलमार्तण्डे द्वितीय-परिच्छेदे इतरे
कि पं० श्राशावरजीके सामने भी वैसा प्रतिपादन करनेका नराभावप्रवट्टके प्रतिपादितं....।
कोई प्रबल प्रमाण अथवा जनश्रुतिका अाधार रहा होगा !! देखो, 'जेनमादित्य और इतिहास' ग्रन्थम श्रीचन्द्र और क्या श्राशाधरजोको एकाएक अविश्वासकापात्र समझ लिया प्रभाचन्द्र' नामक लेख, पृष्ठ ३३६ ।
सिहे पाति जयादिके वमुमनी'
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४४
अनेकान्त
गया जो उनके कनकी जाँच के लिये तो पूर्व परम्पराठी खोजको प्रोसेजन दिया गया परन्तु वादिराजके तथाकथित कपनकी के लिये कोई संकेत तक भी नहीं किया गया ? नही मालूम इसमें क्या कुछ रहस्य है ! श्राशाधरजीके सामने तो बहुत बड़ी परम्परा आचार्य प्रभाचन्द्रकी रही है जो अपनी टीका द्वारा रत्नकण्डको स्वामी समन्तभद्रका प्रतिपादित करते थे और जिनके वाक्योंको आशावरजं ने अपने धर्माती टीका अढाके साथ उत किया है और जिनके उद्धरणका एक नमूना इस प्रकार है
"यथास्तत्र भगवन्तः श्रीमत्प्रभेन्दुदेवपादा रत्नकरगढ़ टीकायां 'चतुरावर्तत्रितय' इत्यादि सूत्रे 'द्विनिप' इत्यस्य व्याख्याने 'देववदनां कुर्वता हि प्रारम्भ समाप्तौ चोपविश्य प्राणामः कर्तव्यः" इति ।
- अनगारधर्मामृत प० नं० ६३ की टीका पं० श्राशाधरजीके पहले १२ वी शताब्दीमें श्रीपद्मप्रभमनचारिदेव भी हो गये हैं, जो स्नकरण्डको स्वामी समन्तभद्रकी वृति मानते थे, इसी नियमसारको टीकामे उन्होंने 'तथा चोक्त' श्रीसमन्तभद्रस्वामित्रिः ' इस वाक्य के साथ रत्नकरण्डका 'अन्यूममनतिरिक्त' नामका पद्य किया है।
इस तरह पं० श्राशावरजीमे पूर्वकी १२ वी और 15वीं शताब्दी में भी वादिराजसूरके समय अथवा उसमे भी कुछ पहले तक, रत्नकरण्डके स्वामी समन्तभद्रकृत होनेकी मान्यताका पता चलता है । खोजने पर और भी प्रमाण मिल सकते हैं। और वैसे रस्नकरण्डके ग्रस्तिस्वका पता तो उसके क्योंके उद्धरणों तथा अनुसरण के द्वारा विक्रमकी aठी (ईसाकी ५ वी) शताब्दी तक पाया जाता है और इस लिये उसके बादके किसी विद्वान द्वारा उस के कर्तृस्वकी कल्पना नहीं की जा सकती ।
[ वर्ष ७
यहाँ पर पाठकोंको इतना और भी जान लेना चाहिये कि श्राजमे कोई २० वर्ष पहले मैंने 'स्वामी समन्तभद्र' नामका एक इतिहास ग्रन्थ लिखा था, जो प्रेमीगीको समर्पित किया गया था और माणिकचन्द्र जैनमाल रत्नकरण्ड श्रावकाचारकी प्रस्तावना के साथ भी प्रकाशित हुआ था। उसमें पार्श्वनायचरितकं उक 'स्वामिनश्ररित' और 'त्यागी स एव गोगीन्द्रो' इन दोनों को एक साथ रख कर मैंने बतलाया था कि इनमे वादिराजसूरिने स्वामी समन्तभद्रकी स्तुति उनके 'देवागम' और 'रत्नकरण्डक - नामक दो प्रवचनों (ग्रन्थों ) के उल्लेख पूर्वक की है। साथ ही, एक फुटनोट-द्वारा यह सूचित किया था कि इन दोनों पोके मध्य मे "अचिन्त्य महिमा देवः सोऽभिबन्यो दिनैषिणा शब्दाश्र येन सिद्धयन्ति साधुत्वं प्रतिलम्भिताः " यह पद्य प्रकाशित प्रतिमे पाया जाता है, जो मेरी राय में उक्त दोनों पयोंक बादका मालूम होता है और जिसका 'देवः' पद संभवतः देवनन्दी ( पूज्यपाद ) का वाचक जान पड़ता है । और लिखा था कि "यदि यह तीसरा पथ सचमुच ही ग्रन्थकी प्राचीन प्रतियों में इन दोनों पयोंके मध्य में ही पाया जाता है और मध्यका ही पद्य है तो यह कहना होगा कि वादराजने समन्तभद्रकी अपना हित चाहने वालोंके द्वारा वन्दनीय और श्रचिन्त्यमहिमा वाला देव भी प्रतिपादन किया है। साथ ही यह लिख कर कि उनके द्वारा शब्द भजे सिद्ध होते हैं. उनके समन्तभ) किमी व्याकरण ग्रंथका उल्लेख किया है ।" इस सूचना और सम्मति के अनुसार विहान लोग बराबर यह मनते रहे हैं कि म एव चन्द्रो येनायाः अर्धिने भव्य सार्थादिष्टो रत्नकरण्डकः " इस पथके द्वारा वादिराजसूरिने पूर्वके 'स्वामिनश्वरितं' पथमें उल्लिखित स्वामी समन्तभद्रको ही कर्ता सूचित किया है. चुनाँचे प्रोफेसर हीरालालजी एम० ए० भी सन् १६४२ मे परागमकी चौथी जिल्दकी प्रस्तावना लिखते हुए उसके १२ वे पृष्टपर लिखते हैं-
उदाहरण के तौर पर रत्नकरण्डका 'मनुल्लं पद्म न्यायावतार उद्धृत मिलता है, जो ई० की ७ वी शताब्दि की रचना प्रमाणित हुई है। और रत्नकरण्डके कितने दी पदयापीका अनुसरण 'सर्वार्थसिद्धि' (० की ५ वी श० ) में पाया जाता है और जिनका स्पष्टीकरण 'सर्वार्थसिद्धिर समन्तभद्रका प्रभाव' नामक लेखमे किया जा चुका है (देखो, अनेकान्त वर्ष ५०१०-११ )
"श्रावकाचारका सबसे प्रधान, प्राचीन, उत्तम और सुप्रसिद्ध ग्रन्थ स्वामी समन्तभद्रकृत स्नकरण्ड श्रावकाचार है, जिसे वादिराजसूरिनं 'अक्षयसुखावह' और प्रभाचन्द्र 'अखिल सागारमार्गको प्रकाशित करनेवाला सूर्य' लिखा है"
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किरण ५-६]
स्वामी समन्तभद्र धर्मशामी, ताकिक और योगी तीनो थे
__ मेरे उक्त फुटनोटको लक्ष्य में रखते हुप प्रेमीजी अपने दिये हुए हैंलेख में लिखते है-'यदि यह कल्पना की जाय कि पहले
नमः ममन्तभद्राय महतं कविवेधस । मोकने बाद ही तीसरा श्लोक होगा, बीनका श्लोक गलतीसे यढची व गतेन निर्मिना: कुमताद्रथः ।।४३।। तीसरंकी जगह छप गया होगा-अयपि इसके लिये हस्त
करीनागमकानांप वादीनां वाग्मिनामपि । लिखित प्रतियोंका कोई प्रमाण अभी तक उपलब्ध नही
यशः मामन्तभद्रीयं मूनि चूड़ामणीयते ।।४४॥ हुआ, तो भी, दोनों को एक साथ रखनेपर भी, स्वामी और योगीन्द्रको एक नहीं किया जा सकता और न उनका
-आदिपुगगग, प्रथम पर्व पम्बन्ध ही ठीक बैठना है।" परन्तु सम्बन्ध क्यों कर ठीक यहाँपर यह बात भी नोट कर लनेकी है कि भगवजिन. नहीं बैठना और स्वामी तथा योगीन्द्रको एक कैमे नही मेनने, 'प्रवादिकरियूथानां' इस पचपे पूर्वाचार्योंकी स्तुनि किया जा सकता ? इसका कोई स्पष्टीकरमा पापने नही का प्रारम्भ करते हुए. ममतन्द्र और अपने गुरु धीरपेनके किया। मात्र मह कह देनेमे काम नहीं चल सकना कि लियं तादादो पद्यामे स्तुनि की है, शेषमे किमी मी "तीनोंमे एक एक आचार्यकी स्वतंत्र प्रशस्ति है" । क्योंकि प्राचार्य की स्तुनिके लिये एक से अधिक पधका प्रयोग नहीं यह बात तो अभी विवादापन ही है कि तीनों एक एक किया है। और इस लिये यह स्नानकर्ताको दरछा और मचिप्राचार्यकी प्रशस्ति है या दोकी अथवा तीनकी। वादिरात पर निर्भर है कि वह मबकी एक एक पथ स्तुति करताहुमा मरिने तो कही यह लिखा नही कि हमने १५ भोकाम भी किसीवानी या तीन पयोम भीस्तुति कर सकता है--उप पूर्ववती १५ ही प्राचार्योका या कवियाका स्मरण किया है" कोमा कग्नम बाधाकी कोई बाम नहीं है। और इस लिये
और न परे ही किसी पाचायने मी कोई सूचना की है। प्रेमीजीका अपन उमनपर यह नतीजा निकालना कि इम मिवाय समन्तभद्रके माथ 'देव' उपपर भी तुवा नब उन दो लीकाम एक ही समन्तभद्रकी स्तुति की या पाया जाता है, जिसका एक उदाहरण देवागमकी
होगी, यह नहीं हो सकता" कुछ भी युक्ति-संगन सनन्दि वृत्तिके अन्त्यमंगलका निम्न पद्य है--
मालन नही होता। समन्तभद्रदेवाय परमाथावकाल्पने।
हा. एक बात जेवक अन्तम प्रेमीजीने और भी कही ममन्तभद्रदेवाय नमोऽस्तु परमात्मने ॥ १॥ । मभव है वही उनका अन्तिम तर्क और उनकी
और इम लिये उक्त मध्यवर्ती श्लोकम पाए हप ' आमकाका मूलाधार हो, वह बात हम प्रकार हैपद वाग्य समन्तभद्र भी हो सकते हैं, जैसा कि "देवागमादिकं कत्ती और नकरणक कर्मा अपनी मल्लिखित फुटनोटमे कहा गया है, उसमें कोई बाधा रचनाशैली और विषयको टिम भी एक नहीं मालूम होने। नहीं पानी।
एकता महान तार्किक हैं और दूसरे धर्मशास्त्री। जिनमेन इसी तरह यह कह देनेसे भी काम नहीं चलता कि
धाति प्राचीन ग्राचार्याने उन्हें वादी, वाग्मी और तार्किकके 'तीनो श्लोक मजग अलग अपने आपमे परिपूर्ण हैं, वे
क रूपमे ही उल्लेखित किया है, धर्मशाम्रीक रूपमें नही। एक दुसरेकी अपेक्षा नहीं रखने।' यो कि अपने आपमे
योगह जैमा विशेषण तो उन्हें कही मीनई दिया गया।' परिपूर्ण होते और एक दूसरेकी अपेक्षा न रम्बने हुए भी इससे मालूम होता है कि प्रेमीजी नामी ममन्तम क्या ऐसे एकमे अधिक श्लोकोंके द्वारा किमीकी स्तुति नहीं को ताकिक तो मानने है, परन्नु 'धर्मशाम्री' और 'योगी' की जा सकती ? जरूर की जा सकती है। और हमका एक माननेमे सन्दिग्ध है. और अपने इस मन्दहके कारण सुन्दर उदाहरण भगवजिनसेन-द्वारा समन्तभद्रकी ही म्वामीजीके द्वारा किसी धर्मशाप्रकारचा जाना तथा पाचस्तुनिके निम्न दो श्लोक हैं, जो अलग अलग अपने परि- नाथ-चरितके उम नीम श्लोक में योगीन्द्र' पदके द्वाग पूर्ण हैं, एक दूसरे की अपेक्षा नही रखने और एक माय भी स्वामीजीका उल्लेख किया जाना उन्हें कुछ संगत मालुम
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५६
अनेकान्त
[वर्ष
नहीं होता, और इम लिये वे शंकाशील बने हुए है। यद्भारत्याः कविः सोऽभवत्संज्ञानवाग्गः ।
मा नही कि वे एक कार्किकका धर्मशास्त्री तथा योगी तं कविनायकं स्तामि समन्तभद्र-योगिनम ॥ होना असंभव समझते हो, बल्कि इस विषयमें उनकी इसके सिवाय ब्रह्म नेमिदत्तने अपमे 'राधना थादूसरी दलील है और वह केवल इतनी ही कि-किसी कोश' मे, ममन्तभद्रकी क्थाका वर्णन करते हुए, जब प्राचीन श्राचार्योंन स्वामी ममन्तभद्रका धर्मशानी रूपमै योगिचमकारक अनन्तर समन्मभद्रके मुम्बम उनके परिचय उल्लम्बित नहीं किया और योगीन्द्र जैमा विशेषगनी के दो पद्य कहलाये हैं तब उन्हे स्पष्ट शब्दोंम 'योगिन्द्र उन्हें कही भी नहीं दिया गया। परन्तु यह दलील ठीक लिखा है जैसा कि निम्नवाक्यमं प्रकट है.नहीं है, क्यों कि श्रीजिनमनाचार्य मी प्राचीन प्राचार्य "म्फुटं काव्यद्वयं चेति गोगीन्द्रर मुवाच मः।" अक्लक देवनं नागम भाग्य के मंगलपथमे 'यनाचाय- ब्रह्म नेमिदत्तका यह कशाकश प्राचार्य प्रभाचन्द्रक ममन्नभद्र-तिना तम्मै नमः मंततं' इस वाक्य के द्वारा गद्यकथाकोशक प्राधारपर निर्मित हश्रा, और इसलिये समन्मभद्रको 'प्राचार्य' और यति बोनी विशंपणोंके साथ स्वामी समन्तभद्रका इनिहाय लिखने समय मैने प्रमाजीको पल्ले ग्विन किया है जिसमें प्राचार्य विशेषण 'धर्माचार्य उत गद्यक्थाकोशपरम ब्रह्मनेरिदत्त वणित कथाश अथवा 'पागर्यपरमष्टि का वानक है, जो दर्शन, ज्ञान, मिलान करके विशेषतानीका नोट कर देनकी प्रेरणा की थी। चारित्र तप और वीर्यरूप पाचार धर्मका म्बयं पाचरण नदनुग्मार उन्होंने मिन्नान करके मुझे जो पत्र लिखा था करने और दूसंगो अाचरण क.ाने हैं। और हम लिये उपका तुलनामक वाक्यों साथ उल्लेग्न मन फुटनोट यह भानार्यपद धर्मशास्त्री से भी बड़ा है--धर्मशाखिव में उक्त इमिहापके पृ० १०५ १०६ पर कर दिया । हमके भीतर मंनिहिन अपना समाविष्ट है। स्वयं ममन्त. उसपर मानम होता है कि-"दोनों कयायाम कोई भदने भी अपने एक परिचय-पत्र में अपनेको प्राचार्य विशेष फर्क नहै। मिटनकी कथा प्रभाचन्द्रकी गद्य मृचिन किया है।
__कथाका प्राय पूर्ण अनुवाद है।" और जोमाधारणमा दमग 'यनि विशेषण सन्मार्गमे यग्नशीत योगीका फर्क है वह उन फुटनोटमे पत्रकी पपियोंके उद्धग्गा नग वाचा है। श्री विद्यानन्दाचार्य ने अपनी अष्टमहम्रीम स्वामी व्यक्त है। अमः उसपरमे यह कहने में कोई आपत्ति मालम ममन्तभद्रको 'यतिमन श्रीर 'यतीश' तक लिखा है जो नहीं होती कि प्रभाचन्द्रने भी अपने गद्य कथाशेशम स्वामी दांना ही योगिराज अथवा योगीन्द्र अर्थके द्योतक हैं। ममन्तभद्रको योगीन्द्र रूपमे उल्लेम्विन किया है। चूंकि कवि हतिमल्ल और अरपायन विक्रान्तकारबादिक ग्रंथांम प्रेमीजीके कथनानुमार य गद्य थानगश का प्रभानन्द्र समन्तभद्रकी पदद्धिक-धारण ऋद्धिका धारक-लिखा भी वे ही प्रभाचन्द्र हैं जो 'प्रमेयकमलमानगड' और 'रनहै. जो उनके मान योगी होनेका सूचक है। श्रीर कवि करण्हु-श्रावकाचारका टीकाके का है। अत: स्वामी समन्तदामोग्ने अपने चन्द्रप्रभचरिनमें मापनीर पर 'योगी' भटके लिये योगीन्द्र शिंपण प्रयोगका अनुसन्धान विशेषगाका हा प्रयोग किया है। यथा--
प्रमेयकमलमानगडकी रचनाकं ममय अथवा वादिराजमारक
पश्वनाथ चरितकीरचनामे कुछ पहलेनक पहुँच जाता है। प्रेमी दमणगाणा कारवानिवनवापारे । '
हालनमे प्रेमीजीका यह लिम्वना कि 'योगीन्द्र जैमा विशश्रा ५२ चन--- माया मगा भेगा ।। ५२ ।।
पण ना उन्हें कहीं भी नहीं दिया गया छ भी मंगत --द्रव्यमग्रह
मालूम नहीं होता और वह बीजम कोई विशेष सम्बन्ध न देना, अनंन ... राम प्रकाश । 'ममन्नभद्र रग्वना हुया चलनी लेखनीका ही परिणाम जान पड़ता है। काक या 4.15 शीर्षक मादकार लेग्न । अब रही रचनाशैनी और विषयकी बात। इसमें x"म श्रीवामिममनन भूयाहिमानमान ।' किमीको विवाद नहीं कि 'देवागम' और 'नकरण्ड का "वामी नाम अयनारताशोऽकन मकानि ||" *देखा, जेनमाहित्य श्रार नाम' पृ० ३२६
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करण ५,६] .
स्वामी समन्तभद्र धर्मशास्त्री, तार्किक और योगी तीनों थे
विषय प्रायः अलग--एक मुख्यतया प्राप्तकी मीमांसा नहीं पाते ये नो उमका निषेध कर देते थे। माथ ही, जिस को निये हुए है तो दूसरा श्रासकथित श्रावकधर्मके निर्देश बतका उनके लिये नितेश करते थे उसके विधिविधानको को। विषयकी भिन्नता रचना शैलीमे मित्रताका होना भी उनकी योग्यताके अनुकूल नियत्रित कर देते थे। हम स्वाभाविक है, फिर भी यह भिन्नता ऐसी नहीं जो एक नरह पर गुरुजनों द्वारा धर्मोपदेशका सुनकर धर्मानुष्ठानकी माहिन्यकी उनमा तथा दूसरेणी अनुत्तमता (घटियापन) जो कुछ शिक्षा गृहस्थाशे मिलती थी उमीक अनुमार को द्योतन करती हो। रनकरण्डका साहित्य देवागममे जरा चलना वे अपना धर्म-अपना कर्तब्यकर्म-समझते थे. उम भी हीन न होकर अपने विषयकी रष्टिय इतना प्रौढ, मुंदर में 'धरा' (कि, कथमित्यादि) करनाउन्हें नहीं पाता था. जैचानला और प्रौरवको लिये हुए है कि उस सूत्रग्रन्थ अथवा यो कहिये कि उनकी श्रद्धा और भकि उन्हें उस कहने में जरा भी संकोच नही होता। प. प्राशापरजी जैम और (मशयमार्गकी तरफ्त) जाने हीन दी थी। श्राव प्रौढ विद्वानांने तो अपनी धर्मामृत टीकामे उमें जगह जगह में मयंत्र श्राजाप्रधानताका साम्राज्य स्थापिन था और श्रागम ग्रथ लिखा ही है और उसके वाक्योंको 'मूत्र' रूपमे अपनी इस प्रवृत्ति तथा परिणनिके कारण ही वे लोग उल्लेखित भी किया है--जैमा कि पीछे दिये हुए एक 'श्रावक' तथा 'श्राद्ध' कहलाते थे। उस वक नक श्रावव उद्धरण प्रकट है।
धर्म अथवा स्वाचार-विषयपर धावाम तर्कका प्राय और यदि रचनाशैलीमे प्रेमीजीका अभिप्राय उस प्रवेश ही नहीं हुआ था और न नाना प्राचार्याका परस्पर 'नर्कपद्धनि' मे है जिम्मेव देवागमादिक कंप्रधान ग्रंथाम इतना मनभेट ही हो पाया था जिसकी व्याख्या का देख रहे हैं और समझते हैं कि नकरण्ड भी उसी रंग अथवा जिमका सामजस्य स्थापित करने आदिक लिये किसी ग्गा हुया होना चाहिये या तो यह उनकी भारी भूल है। को नर्कपद्धतिका प्राश्रय लेने की जरूरत पड़ती। उस वन और तब मुझे कहना होगा कि उन्होंने श्रावकाचार-विषयक नर्कका प्रयोग प्राय: स्व परमतके सिद्धान्तो तथा प्राप्तादि जैनपाहिन्यका कालक्रममे अथवा ऐतिहासिक दृष्टिमे विवादग्रस्त-विपयांपर ही होता था। वे ही तर्ककी कसौटी अवलोकन नहीं किया और न देश तथा समाजकी तात्कालिक पर चढ़े हुए थे. बीकी परीक्षा तथा निर्णयादिकं लिये स्थिनिपर ही कुछ गंभार विचार क्यिा है। यदि ऐसा उमका मारा प्रयास था। और हम लिये उस वकके जो होता तो उन्हें मालूम हो जाता कि उस वक्त--स्वामी तप्रधान अथ पाये जाते हैं वे प्राय: उन्ही विषयों समन्तभद्रके समयम-- और उपमं भी पहले श्रावक लोग की चर्चाको लिये हुए हैं। जहा विवाद नही होता वहा प्रायः माधु-मुग्यापंक्षी हुआ करते थे--उन्हें स्वतत्ररूपमे नर्कका काम भी नहीं होता। इसीमे छंद, अलंकार. काव्य ग्रंथाको अध्ययन करके अपने मार्गका निश्चय करनेकी जरू- कांश, व्याकरसा, वैद्यक, ज्योतिषादि दमरे कितने ही विषयों रन नहीं होती थी, बल्कि साधु अथवा मुनिजन ही उस के ग्रन्थ तर्कपद्धतिमे प्रायः शून्य पाये जाने हैं। खुद स्वामी वक, धर्मविपर में, उनके एकमात्र पथप्रदर्शक होते थे। समन्तभद्रका 'जिनशतक' नामक ग्ध भी इसी कोटिमे स्थित देशमं उस समय मुनिजनीकी स्वामी बहुलना थी और है--स्वामी द्वारा निर्मिन दोनेपर भी उममें 'देवागम जैम, उनका प्रायः हर वमका मम्ममागम बना रहता था। इससे नर्कप्रथानना नही पाई जाती--वह एक कठिन, शब्दा. गृहस्थ लोग धर्मश्रयणके लिये उन्हीक पाम जाया करते लहार-प्रधान ग्रंथ है और प्राचार्यमहोदयक अपूर्व काग. थं और धर्मकी व्याख्याको सुनकर उन्हाप अपने लिये कौशल, अद्त व्याकरण पाण्डित्य और अद्वितीय शब्द: कभी कोई व्रत. किसी खास बन, अथवा व्रतपमूह की धिपन्यको भूचित करना है। नकरयर भी उन्ही तर्क याचना किया करते थे। साधुजन भी श्रावकोको उनके यथेष्ट वर्तव्यकर्मका उपदेश देते थे. उनके यांचित व्रतको "शृणोति गुवाद- धमिनि श्रावन : यदि उचित मममते तो उसकी गुरुमंत्र-पूर्वक उन्हें दीक्षा
-मा. धर्मामृत टीका दंने ये और यदि उनकी शकि तथा स्थितिक योग्य जमे "श्रादः श्रद्वामान --- प्राधर, रमचन्द्र"
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अनेकान्त
[वर्ष ७
पधानता-रहित ग्रंथोममें एक ग्रंथ है और इस लिये उस ऐसा कोई नियम भी नहीं है जिससे एक ग्रंथकार अपने की यह तर्क-हीनता सन्देहका कोई कारण नहीं हो सकती। संपूर्ण ग्रंथोम एक ही पद्धतिको जारी रखने के लिये बाध्य *ऐसा नही कि रत्नकरण्डमे तर्कस बिल्कुल काम हीमालया हो सके। नानाविषयोंक ग्रन्थ नाना प्रकारके शिष्योंकी लपव
करके लिखे जाते हैं और उनमे विषय तथा शिष्यचिकी गया है। जरूरत होने पर उसका अच्छा स्पष्टीकरण किया विमित्र
विभिन्नसाके कारण लेखन पद्धति में भी अक्सर विभिनता जायमा। यहाँ सुचनारूपम ऐसे कुछ पद्याक, नम्वरोको हुमा करता ह। (१५० की संख्यानुसार) नीट किया जाना है, जिनमे तर्कस
ऐसी हालतम प्रेमीजीने रत्नकरण्ड-श्रावकाचारके कर्तृत्व कुछ काम लिया गया है अथवा जो तर्कष्टि का लक्ष्यमे विषयपर जो अ.शंका की है उसमें कुछ भी सार मालूम रख कर लिखे गये हैं:-५,८,६, २१, २६, २७, २९.,
नही होता। प्राशा है इस लेख परमे प्रेमीजी अपनी शका ३०, ३१, ३२, ३३, ७, ४८,५३, ५, ६७, ७०.७१, का यथोचित समाधान करने में समर्थ हो सकेंगे। ८२, ८४, ८५.८६,६५, १०२, १२३ ।
वीरभवामन्दिर, सरसावा, ना. २७-१२-१६४४
शो क संवेदना श्री भगवत्स्वरूप-वियोग! चौधरी जग्गीमल-वियोग!
यह मानमरके बड़ा ही दुःख तथा अफमाम हुश्रा बहला जैनममा लब्धप्रनिष्ठ श्रीमान चौधरी लाला कि अनेकान्तके प्रसिद्ध कविता तथा कहानी लेखक श्री जग्गामलजी जैनका ता. २६ अक्तूबरको ८० वर्षकी अवस्था भगवस्वरूपजी प्रान इस सम्माम्मे नही -ता. ४ दिस. में मात्र तीन दिनकी बीमारी में स्वर्गवास हो गया। आपके म्बरको मोमवार के दिन प्रान्तोंकी बीमारीके कारण उनका इस निधनमे स्थानीय जैन समाजकी ही नहीं, किन्नु भारत स्वर्गवास होगया है, और इस तरह व समाज तथा अने- के सारे जैन ममानकी एक बड़ी भारी क्षति हुई ।प्राप जान्नके पाठकों सदाके लिये बिड गये हैं । आप एक स्थानीय और बाइरके धार्मिक कामोमेसदा अग्रसर रहते थे। परछे उदीयमान कवि तथा साहित्यमेवी थे, आपकी शक्तिया बद्धो, युवकों या संस्थानों का वेहलीमे ऐसा कोई जस्सा नहीं दिन पर दिन विकसित हो रही थी और समाजको श्राप जिसमे आपकी मौजूदगी न रहती हो। समाज और धर्मकी बड़ी बड़ी प्राशाग थी । आप भनेकान्तसे बड़ा प्रेम रखने मेवाके लिये श्राप सदैव तत्पर रहते थे । आप वीरसेवा
और उसे अपनी अछी अच्छी रचनाएँ भेजा करते थ। मन्दिरक बडे हितैषी थे और उसके कार्योम नथा विद्वानों यापक इस वियोगमे अनेकान्त परिवारके चित्तको बडा धका के साथ पूरीमहानुभूति रखते थे। आपके अधीनस्थ पंचाईचा। हम पद्गत प्रारमाके लिये परलोकमे सुम्पशांति यती जैनमन्दिरका शामा भगडार वीरसेवामन्दिरक विद्वानो की हार्दिक भावना करते हुए कुटुम्बी जनाके इस प्रसता के लिये बराबर खुला रहता था । वीरसेवामन्दिर परिवार द खमे समवेदना प्रकट करते हैं।
आपके इस वियोगमे अत्यन्त दुखी है और उनके लिये
शान्तिको कामना करता हुमा कुटुम्बी जनांके प्रति हार्दिक -मम्पादक मवेदना प्रकट करता है।
-सम्पादक
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पं० पद्मसुन्दरके दो ग्रन्थ
(लम्बक-श्री पं० नाथूराम प्रेमी)
विक्रमकी मत्रहवीं सदी के प्रारंभमें पं० पानमंदर साहु रायमल्लजी गोइल गोत्री अग्रवाल थे। इन नामके एक अच्छे संस्कृत कवि हो गये हैं, जिनके के पूर्वजों में छाजू चीवरी देश-परदेशमें विख्यात थे 'भविष्यदत्तचरित' और 'गयमल्लाभ्युदय महाकाव्य' और उनके पाँच पुत्र थे-१ही (१), बूढणु, ३ नरनामक दो ग्रन्थ उपलब्ध हैं।
पालू, ४ भांजा और ५ नरमिह । नरमिहकी मदनाही ५० पद्मसन्दर आनन्दमेरुके प्रशिष्य और पं० नामक पत्लीमे नानू और सहणपाल नामके दो पुत्र पामेम्के शिष्य थे । अपने गुरुको और अपने आप हुए। इनमसं नानी कटरही नामक पस्नीस साहु को वे पंडित लिम्बते है, इमग वे मुनि बा भट्टारक ना गयमल्लजीका जन्म हुआ, जो बड़े भारी दाता, ज्ञाता, नही थे, परन्तु साधारण गृहस्थ श्रावक भी नहीं जान आर चतुर थे। पड़ने । क्यों कि वे अपनी गुरुपरम्पग देते है। ऐसा माह गयमल्लजीके छोटे भाई भवानीदास बड़े जान पड़ता है कि वे किमी गद्दीधर भट्टारक पाई पुण्यात्मा ओर राजमभा-सम्मानिन थे। या पंडित शिष्य होंगे। इन पंडितांमम जो अपने गुरु साह रायमल्लजीके भी दो पत्नी थी। उनमेंसे भट्टारककी मृत्यु के बाद भट्टारकमा पद नहीं पाते थे, प्रेथम पत्नी ऊधाहीस अमीचन्द्र नामक पुत्र हुआ, जो वे स्वयं अपनी पंडित परम्पग चलाने लगते थे, और नविनयशील-सम्पन्न और धर्मात्मा था और जिमकी उनके बाद उनके शिष्य प्रतिशिष्य होते रहते थे जो पत्नीका नाम जेठमलही था । दूसरी पत्नी मीनाहीग पांडे या पंडित कहलाते थे।
उदयसिंह, शालिवाहन और अनन्तदाम नामक तीन भविष्यदत्त-चरितकी प्रतिके अंतमे जोगदाप्रशस्ति पुत्र हुए। इन सबकी कविने मंगल-कामना का है। है और जो ग्रन्न र्माणकालके लगभग सवा वर्ष कामासंघ-माथरान्वय-पुष्करगणक उद्धरसनदेव, बाद ही लिग्बी गई है उममें काष्ठामंघ-माथुगन्वय- देवसेन, विमलसन, गुणकाति, यश-कीनि, मलयकीनि पुष्करगण के भट्टारकांकी गुरुपरम्पग दी है । कविक गुणभद्र भानुकीर्ति, और कुमारसन इन भट्टारकोकी
आश्रयदाता और ग्रन्थ बनानेकी प्रेरणा करने वाले नामावली दी है। इनमे अन्तिम कुमारसनक समयम माद रायमल्लजी इन्हीं भद्वारकाकी अाम्नायक थे। भविष्यदत्त-चरितका प्रतिलिपि की गई है। दुर्भाग्यस उक्तप्रशस्ति अधूरी है, उसका अन्तिम पत्र भविष्यदत्त-चरितका रचनाकाल कार्तिक सुदी खो गया है, फिर भी जितनी है उससे यह नहीं पंचमी वि० सं० १६१४ और रायमल्लाभ्युदयका जेठ मालूम होता कि कवि पद्मसुन्दरका उक्त भट्टारकास सुदो पचमी वि० सं० १६१५ लिखा है। किसी प्रकारका सम्बन्ध था। कविने अपने संघ या आग दोनो ग्रन्थ प्रतियांका परिचय और उनकी मम्प्रदायका भी कही लेख नही किया है।
प्रशस्तियाँ दी जाती हैउक्त दोनों ग्रन्थ चरस्थावरम उम समय के प्रसिद्ध भविष्यदत्त-चारनी एक अपूर्ण प्रति बम्बई के धनी माह गयमालजीकी अभ्यर्थना और प्रेरणाम ए०प० मरस्वती-भवनम है, जा फागन सुदी ७वि० लिखे गये थे और इस लिए उनमें उक्त माहजी और सं० १६१५ की अर्थात ग्रन्थनिर्माणकालम लगभग १ उनके समस्त परिवारकी प्रशंसा की गई है। चर- वर्प४महीने बादकीलिखी हुई है। इसके शुरुके पत्र स्थावर मुजफ्फरनगर जिलेका वर्तमान चरथावल
और २३, २५, २६, २७, २६, ३२, ३७ चे पत्र नहीं है जान पड़ना है जो उस समय बड़ा समृद्ध नगर था। और अन्तका ४३ वॉ पत्र नहीं है। प्रत्येक पत्रमें १३
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५०
अनेकान्त
[वर्ष ७
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पंक्तियां और प्रत्येक पंक्तिम ५२ अक्षर हैं । साग ग्रंथ लिनीविकामनैकदिनर्माणः भट्टारकश्रीदेवनदेवा पाँच मगों में विभक्त है। प्रत्येक मर्गके अन्तमे यह तत्प? कविविद्याप्रधानभट्टारकश्रीविमलमेनदेवाः पुष्पिका है
तत्पट्टे भट्टारकर्ष'गुणकी निदेवाः तत्पट्टे भट्टारकश्री"इति श्री श्रतपंचमी-फलानुस्मृते भविष्यदत्त
यशःकीर्निदेवाः तत्पट्टे 1 दयादि(द्रि) चूडामणिचरित पं० पद्मसुन्दर विचित माधुनावात्मज साधु भट्टारकश्रीमलयकीनिदेवाः तत्पटे वादीभकुंभस्थलश्रीगयमल्ल मभभ्यचिते भविष्यसंगभो नाम ... .. विदारणैककेसरि भव्याम्बुज विकामनकमार्तण्टः दुर्गम
द्वितीय परिच्छेदके अन्तम और चतुर्थ परिच्छेद पंचमहाव्रतधारणकप्रचण्डः चारुनारित्रोद्वहनधगधीरः के अन्तमं नीचे लिखे दो पद्य हैं
निर्जितैकवीरः भट्टारकश्रीगुणभद्रसूग्देिवाः नत्पट्टे श्रीजिनशामनर्यः श्रावकवयः कतामपरिचर्यः ।
भट्टारकश्रीभानुको तिदेवाः नत्मिप्यमंडलाचार्यश्रीकुमारश्रीरायमल्लनामा जोगाद्धार्मिकशिगेरत्नम ॥
सेनिदेवा तदाम्नाये अग्रोतकान्वये गोडलगोत्रे सुदेमजिनेन्द्रपूजाचरणे पुरन्दरः सदा सदाचार्गवचारसुंदरः।
परदेशविष्यातामनु चौधरी छाजू तयो पुत्र मेरुवन विशुद्धमद्धर्म विधा(धो)धुरधरःमरायमल्लो जयतात्मुबंधुः।
पंच । प्रथमपुत्र अनेकदानदाइकु चौधरी ही(?), दुतियं
' पुत्र चौधरी बूढणु २, त्रितियु पुत्र चौधरी नग्पालु ३, पंचम परिच्छेदकी समाप्ति के पहले नीचे लिख
चौधरी भोगा ४, चौधरी नरसिंघ भायां दो पद्य हैं
सीलतायतरंगिणी माध्वी मदनाही, तयोः पुत्रत्रयं, आन्दन्दोदयपर्वतकतरणगनन्न मेरोगेंगे:
प्रथमपुत्रु चौधरी नानृ भार्या माध्वी प्रोढरही नयो। शिष्यः पंडितमालिमंडनमणिः श्रीपद्ममेकः।
पुत्र द्वी, प्रथमपुत्रु चौधरी ( दुतियपुत्र) अनेकदाननच्छिायोत्तनपद्मसुन्दरविः काव्यविभिधं
दाइकु चौधरी गगमनु नस्य भार्या मावी हो । प्रथम चके धार्मिकरायमल्लभविकम्याभ्यर्थनामंकनः ॥२५
भार्या माध्वी उधाही दुतिय भार्या माध्वी मीनाही, अन्दे बिक्रमराज्यतो मनु-रस-श्वनांशुमंख्यकता
तयो पुत्रत्रयं प्रथमपुत्रनिरंजीव अमीचंदु, तम्य भार्या नन्दे कार्तिक शुक्मलोम्यमहिनो घरपंचमीवामरे ।
माध्वी जेठमलही, चौधरीगयमल्ल दुनियपुत्रु चिरजीवी मक्तियक्तिभविष्यदनचरित काव्यं सुबन्ध मनां उमीघ, त्रितियपुत्र चिरजी-(इसके आग का पत्र श्रत्यर्थ किल गयमल्लविक्म्याभ्यर्थनाशनः ।।६
नही है)। पंचमपरिच्छेद के बाद माह रागमालका नीचे बनीभवनके गंजप्टरम और ग्रन्थक उपर लिया आशीर्वाद देकर फिर लिपिक.मी प्रशनि दी इम ग्रन्यका नाम 'कथाकोश' और ग्रन्थव नावा नाम गई है
'पद्मनन्दिमूरि' लिग्या हुआ है ! ग्रन्थका नम्बर अग्रोनवंश गगनाग मनमप्तिः मन्मानिर्वपग्णवृत्तनपानुरक्तः ।
द्वितीय ग्रन्थ गयमल्लाभ्युदय खंभानकी श्री आप्रोक्तयुक्तपरमागमभाविनात्मा
कल्यागाचंद्रकी लायब्रेगमे है जिम्की नांध प्रो. नान्यात्मजो जगान नन्दतुगयमहः।। गीटर पिटसनने 'जनल आफ दि बाम्बेत्रांच रायल
आशीर्वादः ।५ । हान भी भविष्यदनचरिनं एशियाटिक मोमाइटी' के (पाटा नम्बर सन १८५७) श्रतपंचमीगर्मिन ममाप्त। .
म ली है। मंवत १६५ वर्प मागुणमुदि मममी बुधवामा उक्त प्रति १०५ पत्रोंकी है और सम्पूर्ण है। अकाग्गज्ये प्रवनमाने अंगाष्ठमधे माथुगन्वये ग्रन्थम चौबीम तीर्थकरोका चरित्र है। ग्रन्थका पुष्करगणे उभयभापानवारण तपोनिधिः भट्टारक श्री- प्रारम्भिक अंश और अन्त्य प्रशस्ति आगे दी उद्धरमदेवाः तत्व मट्टानजलममुद्रविवेका लाम- जाती है । अन्त्य प्रशस्ति । भविष्यदत्तचरितकी
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किरण ५]
पं० पद्मसुन्दरके दो ग्रन्थ
और इसकी लगभग एक सी है।
पुष्करिण्यः पुष्करोघैः माहसः परिशीलिताः ॥६॥ म श्रीमानाभिमुनुविलसदविकलब्रह्मविद्याविभूति- यत्र मौधाः मुधाशुभ्राश्चंद्रिका धौतभूतलाः। प्रश्लेषानंदमांदवमधुरसुधासिंधुमग्नानुभूतिः । जनताजनितानंदाः संति मतापहारिणः ॥७॥ यस्यांतग्विारेंधनदहनशिखाधूमभूमभ्रमाभा
नंद्यावदियो यत्र नागराणां बमुहाः। भाजते मूलिनीलच्छवि टलजटाः पातुवः श्रीजिनेन्द्रः। स्फुटस्फुटिकपाषागा_टतामविग्रहाः ॥ ज्याग्रोनकवंशजा शुचिमतिस्तत्वार्थविद्यापटु
यत्सौधशिखरम्थानां मुग्धानां मुखमंडलैः । यम्याभिज्ञमतल्लिकाभिरनिशं गोष्टीस्फुटं रोचते। लक्ष्यते पौरवृन्देन शतचंद्रायितं नमः ॥ मान्यो राजमभासु मन्जनमभाशृङ्गारहारो भुवि । सुश्रावकाणां यत्र श्रीयिता जिनसदनम् । श्रीजैनेन्दपदगयाच्चनरतः श्रीगयमल्लो भवत् ।। प्रात्तुंगशिखरव्याजादुच्चैः पदमिवादिशन् ॥१० तेनाभ्यर्थनयार्थितः सविनयं तेजः पुरस्थः सदा] तत्राग्रोतकवंशे गोदलगोत्रे बभूव नरसिहः । |मान्यः मंसदि पद्मसुन्दरकविः पटनर्कमक्रांतधीः । सिंहः मत्पुरुषाणां पौरुपवृत्या विभाति स्म ॥११ श्रीनाभेजिनादिवीरचरमश्रीनीर्थकृत्संकथा नत्पत्नीमदनाही शीलवती धर्मकर्ममु नितांत । गर्भ चारुविधीयतां मृदमहाकाव्यं ममं प्रीतये ॥ कुशलाय रत्नगर्भा सुतरत्नद्वयमसौ सपुवे ।। १२ यः पूर्व अनपंचमीफलकथा गर्भ भविष्याह्वयं नानू च महापालम्तत्तनयो विनयनयकलाकुशली। काव्यं कारितवान [याज] पदयोनत्वा पुनः सत्कवि । श्रास्तां निरम्तकलुपी जिनधर्मपरायणी नित्यं ॥ १३ नाभेयादि समस्ततोथपमहाकल्याणवृत्तांकित नानूमाधोश्च सुधासुधांशुशुद्धांशुविशदगुणकीतः । मत्काव्यं क्रियतां सतां श्रतिमनः प्रह्लादनश्रेयने । १ऊढरही पत्न्यागी निजशीलपवित्रितचरित्रा ॥ १४ चतुर्विशतितीर्थेशकल्याण चरितामृतं ।
रोहणभूग्वि रत्नं नररत्नं रायमल्लतनयं सा।। प्रारभ्यते महाकाव्य महापुरुपमंश्रितं ॥१०॥
प्रासूत रत्लगां जननी जननयनकुमुदु ॥ १५ महाकवीनामालंव्य मतमागमसम्मतं ।
यस्तु जिनचरणपूजापुरंदरः सुंदरः सदा सुगुणः। संपर्माचभव्यांगिप्रीतये तदभिदध्महे ।। ११ ।।
दाता ज्ञाता निपुणो जिनधर्मधुरंधरः सततं ।। १५ आनंदोदयपर्वतकतरगगरानन्दमेगेगुरोः
एकोनपंचवर्गमितजिनानां चरित्रसंहब्धं । शिष्यः पंडितमीलिमंडनमणिः श्रीपद्ममेरुगुरुः। यो गयमल्लपूर्वाभ्यदयं काव्यं च कारितवान ॥ १६ नच्छिष्योत्तमपद्ममुन्दरकविः श्रीगयगलोदयं
'यस्य धनं धनबीजं सुदेवगर्वागमयादिसत्क्षेत्र - काव्यं नव्यमिदं चकार मकलाईवृत्तभव्यांकिन।।१०० .
०० उ श्रद्धाभोभिः सिक्तं स्वगादिफलदायि ।। १७ जनपदेपु महान्कुरजंगलः सुकृतिभिः कृतिभिः कृतमंगलः उदगणपनिशाकरमंडलाकिम विभाति विभाकरदिलः १ भविष्यदत्तचारतकी प्रशग्निम इस पंक्ति के बदले नीचे यत्रासिधागमतीर्थ सुम्नानं कुरुपांडवैः ।
लिवी पक्ति है --- वसुंधगवधृवाह कृते कृनपरिश्रमैः॥२॥
"विख्यातस्तनयों मृन्नृपमामो गयमल्ल इति ।" यत्र गंगामरित्पुरधाग हागयतं भृशं ।
अोर गेहणभूग्नि' श्रादि श्लोक नही है । विलमभूमिभामिन्या:शंखकुंदेन्दुमुंदग ।।३।। १-२-भविष्यदनम इन दो पयोंके स्थानमनीच लिग दर तत्र मुत्रामपुरवद्धस्ति नागपुरं परं ।
पद्य हैनमधाग्यानगरं रम्यं चरस्थावरसंज्ञकं ॥४॥ येन श्रुतपंचम्याः फलमंदर्भण गर्भिन रम्यं । यच नानाद्रमागमपरिमंडितमंडलं ।
मुभविष्यदनग्निं काग्निमात्मश्रवणहेतोः ॥ २१ विभ्राजते न वसुधावनिताकर्णकुंडलं ।।५।। यच्चरितस्य श्रवणाद्भाविकाना जायते फलभुदारं । पत्र रूपाः स्फुग्दरूप वी-ह परिमंडलः।
नंदनिकारणमिह प्रेत्य वर्गापवर्गक॥ २२
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अनेकान्त
[वर्ष७
यस्य भवानीदासः सहोदरः पुण्यवानपि कनीयान्। आद्यस्तूदयमिहोनुजस्तथा शालिवाहनाभिख्यः । नृपसदसि लब्धिमानः मौभाग्यसुभाग्यभोगनिधिः॥१८ अपरोग्यन्तदामो नंदनु चिरं त्रयस्तनयः ।। २३ सच रायमल्लसाधुः सद्धर्मसुधाब्धिवर्द्धननवेंदुः। व विक्रमगज्यतः शरकलाभृत्तकेभसमितं । जैनक्रियास कुशलः कुशलकशिरोमणिर्जीयात् ।।१६।। ज्य मासि मिते च पंचमदिनेहवृत्तसंदर्भित।
ऊधाहीति प्रथमा तद्भार्या दानशीलसंपन्ना। काव्य काग्निवानपूर्वरसत्रयो रायमल्लोदयं । धुरि मौभाग्यवतीनां पतिव्रतासीत्कुलगरिष्ठा ॥२० जीयादारविचंद्रनारकमयं श्रीरायगल्लाह्वयं ॥ २४ "तत्पुत्रांमी[चंद्रो दक्षो नविनयशीलसंपन्नः। इति श्रीपरमाप्तपरमपुरुष चतविशति तीर्थकरसद्धमकर्मनिरनो जयताजंद्रनाराक ॥२१
गुगणानुवादचरित पं० श्रीपद्ममेविनये पं० पद्ममंदरअथ रायमल्लसाघार्मानाहीति द्वितीय भार्यासीत। विरचित र मानजिनचरितमंगलकीरीनं नाग पंचनत्कुक्षिशुक्तिगर्भ बभुः सुताः शुक्तिजाकृतयः ॥ २२ विंगः मर्गः ।। २५ ॥ ३ भविष्यदत्तमं इस प्रकार है
श्रग्सुरनरेद्रव्यूहकोटीरक' टीसच रायमल्लमाधुर्नय विनयसुशीलशालिनासततं ।
मणिगणकिरणांभा धौतपादारविदः । तनयेन्नामीचंद्राहयेन सहित: सदा जीयात् ।।
चरगजिनपतेस्न वर्द्धमानः ममिहां ४-५-६-७ ये पद्य भविष्यदत्तमे नही हैं।
प्रदिशत शिवन्तलमी गजमल्लाहाय ॥शा बन्धई, १५.७-४४
आशीर्वादः।
रत्नकरण्डश्रावकाचार और आप्तमीमांसाका कर्तृत्व
(ले०--प्रो० हीरालाल जैन एम०७०)
[गन करया में
आगे]
वहीपर एक ऐसा उल्लेख विद्यमान है और यह ठीक उसी अब हम अपनी तीमरी समस्यापर पाते हैं। न्याया- स्थल पर है जहांके पृष्टीका उन्दोने एक अन्य बानक लिये बायजीने वादिराज और प्रभाबन्द्र सम्बन्धी दो उल्लेख विशेषरूपसे उल्लेख किया है। मुगतार मा० की प्रस्तावना ऐसे दिये हैं जिनसे रनकरण्ढश्रावकाचारकी रचना ग्यारहवी के पृ०११पर वादिराजसूरिकृत पार्श्वनाथचरितके दो ऐसे शताब्दिसे पूर्वकी सिद्ध होती है। किन्तु उसका प्राप्त- श्लोक उदृत हैं जिनमें क्रमश: दवागम (पाप्तमीमांसा) नामांमाके साथ एक कर्तृत्व सिद्ध करनेके लिये उन्होंने और रनकरण्डक एव उनके क्तांनी उल्लेख है। उन
वन तुलनात्मक वाश्योंका आश्रय लिया है, पर पेमा उल्लेखोंपनये मुम्तार माने यहां यह निष्कर्ष भी निकाला कोई ग्रंथोल्लम्ब पेश नहीं किया जिसमें किसी प्रथकारद्वारा है कि "इस ग्रंथ ( पार्श्वनाथचरित) में माफ नीरसे दवागम ने स्पष्टरूपसे एक ही क्र्ताकी कृतियां कही गई हो। यह और ररनकरण्डक दोनों कर्ता स्वामी समन्तभद्रका ही मान नहीं है कि ऐसा कोई उल्लेख उन्हें उपलब्ध न हुआ सूचित किया है।" इन पकियोको देखते हुए हमें आश्चर्य हो, क्योकि विद्रद्वयं पं० जुगल किशोरजी मुख्तारकी जिम होता है कि न्यायाचार्यजीने अपने प्रस्तुत लेख में इस प्रबल प्रस्तावनापरमे उन्होंने अपनी ऐतिहासिक सामग्री ली है प्रमाणका उपयोग क्यों नहीं किया ? उसे तो उन्हें अपने
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किरण ५-६]
रत्नकरण्डश्रावकाचार और आममीमामाका कर्तृत्व
५३
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मतकी पुष्टिमें अधिकमे अधिक प्रबल नाके माथ प्रस्तुत करना जाना है कि वे प्राप्तमामासा और रनकरण्डको दो मित चाहिए था। पर उन्होंने वादिराजके रत्नकरण्डक सम्बन्धी प्राचार्योकी कृतियां मानते हैं । यह सुस्पष्ट ऐतिहासिक उल्लेखका तो कथन किया, किन्तु उन्हींके द्वारा मुग्टतार प्रमाण क्यों दबाया गया है यह समझ नहीं आता ? मा० के अवतरणानुमार ठीक उसीसे पूर्वके श्लोकमे उल्लि. वादिराजसूरि द्वारा डाले हुए इस प्रकाशकी रोशनी में अब खित प्राप्तमीमांसाकी बातको वे सर्वथा छिपा गये । इसका यदि हम इनकरण्ड और सर्वार्थसिद्धि के उम समान अंशोपर कारण हमें तब समझमें आया जब हमने वादिराजकृत दृष्टि दालें जिन्हें मुख्तार साहबके लेखपरसे न्यायाचार्यजीने पार्श्वनाथ चरितको उठाकर देखा । वहां हम प्रस्तुत प्रसंगी. उद्धृत क्यिा है तो हमें स्वीकार करना पड़ेगा कि पयोगी एक साथ दो ही नहीं किन्तु तीन श्लोक पाते हैं पर्वार्थसिद्धिकारने उन्हें रत्नकर गइसे नहीं जिया, किन्तु जो इस प्रकार हैं -
संभव है रत्नकरण्डकारने ही अपनी रचना सर्वार्थसिद्धिके स्वामिनश्चरितं तस्व कस्य नो विस्मयावहम् ।
आधारसे की हो! देवागमेन सर्वज्ञो येन अद्यापि प्रदर्श्यते ॥ १७ ॥
इस सम्भावनाको लेकर ज्यों ही मैंने अपनी दृष्टि
स्नकरण्डश्रावकाचारपर डाली यो ही मेरी दृष्टि उस रचना भचिन्त्यमहिमा देव सोऽभिवन्धी हितैषिणा।
के उपान्न लोकपर अटक गई जहा उम ग्रन्थके कर्ताने शब्दाश्च येन सिद्ध यन्ति साधुत्वं प्रतिलम्भिताः ॥१८
श्लेषरूपसे अपनी रचनाके भाधारभून ग्रन्थों व अंधकारोंका स्यागी स एव योगीन्द्रो येनाक्षयसुग्वावहः ।
उल्लेख किया है । वह श्लोक हम प्रकार हैअधिने भन्यसार्थाय दिष्टो रस्नकरण्डकः ॥ २६ ॥
येन स्वयं वीतकलङ्क-विद्यादृष्टिक्रियात्मकरण्डभावम् । वादिराजसूरिने इन तीन श्लोकोमेसे प्रथममें स्वामी व
नीतस्तमायाति पतीच्छयेव सर्वार्थसिद्धिनिपु विष्टपेषु ।२८ उनके देवागमका, दूसरेमे देवकृत शब्दशास्त्रका एवं तीसरे यहाँ टीकाकार प्रभाचन्द्र द्वारा बतलाये गये वाच्यार्धके योगीन्द्रकृत रत्नकरण्डका उल्लेख किया है । प्रथम और अतिरिक्त श्लेषरूपसे यह अर्थ भी मुझे स्पष्ट दिखाई देता तृतीय उल्लेख तो स्पष्ट हैं, किन्तु यह बीचका उल्लेख है कि "जिसने अपनेको प्रकल और विद्यानन्दिके द्वारा किसका है यह प्रश्न उपस्थित होता है । यदि ये तानों प्रतिपादित निर्मल ज्ञान, दर्शन और चारित्ररूपी रत्नोंकी उल्लेख किसी एक ही ग्रंथकार और उसकी ही तीन पिटारी बना लिया है उस तीनी स्थलोपर सर्व श्रर्थों की रचनाओंके माने जा सकते तो न्यायाचार्यजी उसका उल्लेख मिद्धिरूप सर्वार्थ सिद्धि स्वयं प्राप्त हो जाती है, जैस इच्छा किये विना कभी न रहते । पर उन्होंने ऐसा नहीं किया। मात्रम पति को अपनी पत्ना।' यहाँ निस्पन्देहत: स्नकरगढइसका कारण यही समझमे आता है कि वे न तो उस कारने तत्वार्थसूत्रपर लिस्बी नई तीनी टीकाओंका उल्लेख बीचके उल्लेखको समन्तभद्र स्वामीकी रचना सम्बन्धी किया है। सर्वार्थसिद्धि कही शब्दशः और कही अर्थत: स्वीकार कर सके और न उसे किसी अन्य ही ग्रन्थकार अकलंकृत राजवानिक एवं विद्यानन्दिकृत श्लोकवार्तिक सम्बन्धी स्वीकार कर सके । फलतः प्राप्तमीमांसा और में प्रायः पूरी ही प्रथित है। अत: जिपने अकलककृत भौर गनकर एकको भिन्न कालवर्ती दो भिन्न भिन्न प्राचार्योकी विधानन्दिकी रचनाओको हृदयगम कर लिया उसे सर्वार्थरचनाएँ मान सके । बात यह है कि वह बीचका उल्लग्न पिन्ति स्वयंपा जाती है। गनकरण्डक इस उलग्नेश्वपरमे उन्ही देव अर्थात् देवनन्दी पूज्यपाद और उनके सुप्रसिद्ध निर्विवादम सिद्ध हो जाता है कि वह रचना न केवल शब्दशास्त्र जैनेन्द्र व्याकरणका है जिनका उल्लेख हविश पूज्यपाद मे पश्चा' कालीन है, किन्तु अकलच और विद्यानन्दि गुगण, आदिपुराण तथा अन्य अनेक ग्रंथा व शिलालेखो मे भी पीछे की है। अतएर जिन ग्रन्थों में इस ग्रन्थम पादिमें पाया जाता है (देखो, पं० जुगलकिशोरजी मुन्नार नुस्य वाक्यादि पाये जाते हैं उनके पुर्वापरयका विचार अब द्वारा सम्पादित समाधितंत्रकी प्रस्तावना पृ० ३) । इस इमी प्रकाशमं करना चाहिये । च् कि न्यायाचार्यजी प्राप्तश्लोककी स्थितिपरमे वादिराजसूरिका यह मत स्पष्ट हो मीमामाकारको पूज्यपादसे सुप्राचीन स्वीकार करते हैं,
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अनेकान्त
[ वर्ष ७
प्रतएव प्राप्तमीमांसा और रस्नकरणरके रचनाकारोंमें अब श्रावताचार और रत्नमालाका रचनाकाल समीप आ जाते कई शताब्दियोंका अन्तराल पता है जिससे वे दोनों एक हैं और उनके बीच शताब्दियोका चन्तराब नहीं रहता, लेखककी कृतियां कदापि नहीं रवीकार की जा सकती। क्योंकि न्यायाचार्यजीने उहापोह पूर्वक उस सन्बन्ध में यह विद्यानन्दिका समय ईसाकी ८ वीं शताब्दिका अन्त वह निष्कर्ष निकाला है कि 'रत्नमालाका समय , वीं वीं शताब्दिका प्रारम्भकाल (ईस्वी सन् ८१६ के लगभग) शताब्दिसे पूर्व सिद्ध नहीं होता।" अतएव उन दोनों सिद्ध होता है। अतएव रत्नकरण्डकी रचनाका समय इस ग्रन्थोंके कांकि सम्बन्धमे जिस सम्भावनाकी सूचना मैंने के पश्चात् और वादिराजके समय अर्थात शक सं०१७ से अपने पूर्व लेखमें की थी वह अब भी विचारणीय है। पूर्व सिद्ध होता है । इस समयावधिके प्रकाशमें रत्नकरण्ड
(धगलं अङ्क में समाप्त)
भगवतीदास नामके चार विद्वान
(लेखक-पं० परमानन्द जैन शास्त्री )
जैन समाजमें भगवतीदास अथवा भगोनीदाम नामके समय मवत ६१३ मे किया है और उन्हें उनम बुद्धिवाला अनेक विद्वान् हो गये हैं, परन्तु श्राम तौरपर 'ब्रह्मविलास' बतलाते हुए यह प्रकट किया है कि वे उन पोच प्राध्यामिक के कर्ता हीपं. भगवतीदास समझे जाते हैं। अस्तु, मुझे विद्वानोंमेंसे थे जिनकी प्रेरणापर उन्होंने नाटक समन्वयसार इस नामके चार विद्वानोका पता चला है। जिनका संक्षिप्त की रचना की है। साथ ही पंडित हीगनन्दजीने पंचापरिचय अनेकान्त-पाठकोंकी जानकारीके लिये प्रकट किया स्तिकाय' का हिन्दी पद्यानुवाद करते समय पवन १७१५ जाता है।
में जिनका ज्ञाता भगवतीदास के नाम उल्लेख किया है। एक पांडे जिनदायके गुरु ब्रह्मचारी भगवतीदाय थे। ये भगवतीदासमंवत १६४० वाले ब्रह्मचारी भगवतीदास पाडेजीने संवत १६४० भाटोंवदि पंचमी गुरुवार के दिन से भिन्न जान पर है। अन्यथा कविवर बनारसीदास 'जम्बस्वामीचरित्र' की रचना की है । और उसे श्रागराके और प. हीरानन्दजी अपने अपने ग्रन्यामे इनका 'समति' माइ पारसके सुपुत्र उन माह टोडरके नामांकित किया गया और 'झाना जैसे विशेषणोंक साथ उसले खमकरके ब्रह्मचारी है जिन्होंने मथुराके पास निमही बनवाई थी। उस ग्रन्थमे भगवतीदासक रूपमें ही उल्लेख करते । इसके सिवाय जिनदासजी अपने गुरुका नाम ब्रह्मचारी भगोनीदास प्रकट पाडे जिनदासजीको ग्रंथ रचनाकं समय पं. १६४० में करते हैं; जैसा कि उनके निम्न बाक्यमे प्रकट है :--
उनके गुरु भगवतीदासजीकी अवस्था ४० वर्षक बगभग "ब्रह्मचारि भगोतीदाम, ताको शिष्य पाडे जिनदास"। जरूर रही होगी। और ऐसी स्थितिमे उनका . १७९५
परन्तु यह ब्रह्मचारी भगोतीदाम (भगवनीदाम) कौन तक जीवित रहना कुछ संभव प्रनीत नहीं होता। अत: य ये और इनका विशेष परिचय क्या है ? यह ग्रन्धपरमे कुछ दोनों व्यनि भिन्न मिन ही मालूम होने हैं। मालूम नहीं हो सका।
नीमरे भगवनीदाम बुड़िया जिला अम्बाला निवामी दुसरे भगवतीदास वे हैं जिनका उल्लंग्व कविवर बनारसीदासजीने अपने नाटक समयमारकी रचना करते .
थे। यह अग्रवाल कुल में उत्पन्न हुए थे. इनका गोत्र * मंवत्मर सौरहस भए, चालीस तास ऊपर गए । x 'सुमतिभगोतीदाम' नाटक समयसार प्रशस्ति ।
भादविदि पाचे गुरुवार, तादिन कियो कथा उच्चार। + तहा भगोतीदाम है ग्याता-पंचास्तिकाय प्रशस्ति ।१०
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किरण ५-६ ]
भगवतीदास नामके चार विद्वान्
'मल' था । और ये देहलीके भट्टारक गुणचन्द्र के समय मंदिरमें ब्रह्मचारी जोगीदास और पं. गंगाराम प्रशिष्य तथा म. सकलचंदके शिष्य भ. महेन्द्रसेनके उपस्थित थे। शिष्य थे। और वूढियासे योगिनोपुर (देहली) में ही जाकर चौथे भगवतीदास 'ब्रह्मविलास' ग्रंथके कर्ता है। रहने लगे थे। कुछ समय हिमारमें भी रहे थे। भ. ग्रंथपरसे जाना जाता है कि आप भागराके निवासी थे। महेन्द्रसेनके शिष्य होते हुए भी ये भट्टारक नहीं थे, किन्तु आपके पितामह श्रोसवाल जातिके कटारियागोत्री साहू पं. भगवतीदास नामसे ही प्रसिद्ध थे। ये ७ वीं शताब्दी दशरथलाल थे, जो आगराके प्रसिद्ध व्यापारियोंमेंसे थे के विद्वान् थे। इनकी इस समय तीन रचनाएँ उपलब्ध और जिनपर पुण्योदयवश नचमीकी बड़ी कृपा थी। हैं-सीता सतु० (बृहत् व लघु) अनेकार्थनाममाला और विशाल सम्पत्तिके स्वामी होनेपर भी जो निरभिमानी थे। मृगांकलेखाचरित्र । सीतासतु नामकी विस्तृत कृति इन्होंने उनके सुपुत्र अर्थात् कविवरके पिता साह लालजी भी सं० १६८४ में तरयार की थी। बादको उसे ही संक्षिप्त करके अपने पिताके ममान सुयोग्य, सदाचारी, धर्मात्मा और संवत् १६८७ में चैत्रशुक्ला चतुर्थी चंद्रवार के दिन भरणी उदार मजन थे। नमें लघु सीतासतु नाम दिया गया। इस ग्रंथमें बारह- भगवतीमा वी शतान्टिके प्रतिभास मापाके मंदोदरी सीता प्रश्नोत्तरके रूप में रावण और मंदोदरी विद्वान कवि और आध्यात्मिक समयसारादि ग्रंथोंके बड़े की चित्त वृत्तिका परिचय देते हुए सीताके दृढ़तम सतीवका
ही रसिक थे। इनका अधिक समय तो अध्यात्म ग्रंथों के अच्छा चित्रण किया गया है। रचना मरल और हृदयग्राही
पठन-पाठन तथा गृहस्थोचित षट्कर्मोंके पालनमें व्यतीत है तथा पढ़ने में रुचिकर मालूम होती है।
होता था, और शेष समयका सव्यय विद्वद्गोष्ठी, तबदूसरी रचना अनेकार्थनाममाना है। यह एक पद्या- चर्चाए हिन्दीकी भावपर्या कविताओंरचने में होता था। मक कोष है, जिसमें एक शब्दके अनेक अर्थोको दोहा छंद श्राप प्राकृत, संस्कृत तथा हिन्दी भाषाके अभ्यासी होने में संग्रह किया गया है। यह कविवर बनारसीदामजीकी
साथ साथ उर्द, कारमी, बंगला, तथा गुजराती भाषाका नाममालाने १७ वर्ष बाद की रचना है, जो संवत् १६८७ में
भी अच्छा ज्ञान रखते थे, इतना ही नहीं किन्तु उर्दू और श्राषाढ कृष्णा नृतीया गुरुवारके दिन शाहजहाँके राज्यकाल गुजरातीमे अच्छी कविता भी करते थे । अापकी कविताएं में देहली-शाहदरामे पूर्ण की गई है। इन दोनों रचनाओं मरज और सबोध हैं और वे पदनेमें बहुत ही रुचिकर का संक्षिप्त परिचय अनेकान्त वर्ष ५ किरण १-२ में कराया मालम होती है। उनकी भाषा प्राम्जन और अर्थबोधक है जा चुका है।
और ये भाषासाहित्यकी प्रौढताको लिये हुए हैं। उनमें तीसरी रचना 'मृगांक लेखाचरित्र है। इसमें ग्रंथकार ने 'चंद्रलेखा और मागरचन्द्र के चरित्रका वर्णन करते हुए .
लोगोंके अनुरंजनकी शक्ति है और साथ ही प्रामकल्याण चद्रलेखाके शीलवतका महत्व स्थापित किया । चन्द्रलेखा * घना-मगदह सय मंवदनीद नदा, विक्कमराय मायए । अनेक विपत्तियोंको माहम तथा धैर्यके माथ महते हए अगदमिय पंचाम मामादिणे, रागाटियउ अचियपए।" अपने शीलवतसे विचलित नही ह. प्रत्युत उममें स्थिर दवाइ-चरिउ मयंकलेह चिरुणंदउ, जामगारवि-मसिहरो। रहकर उसने सीताके समान सतीत्वा अच्छा और अनुपम
मंगलमारुह वह जणि मेहणि, धम्म पसंग्गहिद कगे।२ आदर्श उपस्थित किया है।
गाया-हयो कोट हिमारे जिणहरि चार माणस । कवि भगवतीदासने इस ग्रंथ को हिमारनगरके भगवान तथाठी वयधारी जोईदामो वि बंभयारीयो ।। ३ वर्धमान (महावीर ) के मन्दिरमे विक्रम संवत १७०० में
भागवई महुरीया वनिगवरवित्ति माइणाविरिण । अगहन शुक्ला पंचमी सोमवार के दिन पूर्ण किया है। उम विबुध सु गंगारामो तथठिया जिणहम महतो * नगर बदिए बसै भगोती, जनमभाम है श्रामि भगोती। दोहा-ससिलेवा सुयबंधुजे अहिउ कविण जो श्रामि । अग्रवाल कुल बंसल गोती, पडिनपद जन निरव भगोती। महर्ग भामउ देसकरि भाउ भगोतीदासि ॥ ५ -सीतासतु प्रश.
-मृगाकलेखाचरितप्रशस्ति ।
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अनेकान्त
[वर्ष ७
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प्रशस्त पुट लगी है, इसीसे वे स्व-पर-कल्याण में बहुत कुछ न्द्रिय सम्बाद ३ मनवत्तीसी ४ बाईस परीषहजय ५ सहायक जान पढ़ती हैं । कविका विशुद्ध हृदय विषय- वैराग्यपरचीसिका ६ स्वप्नवत्तीमी . सूवाबत्तीसी - और वासनाके जंजाबसे जगतके जीवोंका उद्धार करनेकी पवित्र परमात्मशतक प्रादि रचनाएँ बदी ही चित्ताकर्षक और भावनासे ओत-प्रोत है। और उनमेंकी अधिकांश कविताएँ शिक्षाप्रद जान पद्धती हैं। ये अपने विषयकी अनूटी रच. दूसरोंके उद्बोधन निमित्त लिखी गई है।
नाएं हैं। कविवर भक्तिरपके भी रामक थे, इसीसे आपकी आपकी एकमात्र कृति ब्रह्मविलास है। यह भिन्न-भिन्न कितनी ही रचनाएं भक्तिरससे श्रोतप्रोत हैं । इस सग्रहम विषयोंपर लिखी गई ६७ कविताओं का एक सुन्दर संग्रह अापकी रचनाएं संवत् १७३१ से १७५५ सककी उपलब्ध है। इसमें कितनी ही रचनाएँ तो इतनी बड़ी हैं कि वे होती हैं। इसके बाद कितने समय तक श्राप और जीवित स्वयं एक एक स्वतन्त्र ग्रंथके रूपमें संकलित की जा सकती रहे हैं यह कुछ मालूम नहीं हो सका । अन्वेषण होनेपर हैं, और जो कितने ही ग्रंथ-भंडारों में स्वतन्त्र ग्रथके रूपमे संमव है आपके जीवन-सम्बन्धमें कुछ अधिक जानकारी उपलब्ध भी होती हैं । उक्त विलासकी ये कविताएँ प्राप्त हो सके। काव्य-कलाको दृष्टिसे परिपूर्ण हैं उनमें रीति, अलंकार, इस तरह भगवतीदास नामके चार विद्वानोंमेम दो अनुप्रास और यमा यथेप्त रूपमें विद्यमान हैं साथ ही, ऐसे हिन्दी कवि हैं जिनकी रचनाएँ उपलब्ध हैं और अन्तापिका, बहिर्लापिका और चित्रबद्ध काव्योंकी रचना जिनमेसे एक अग्रवाल जातिके और दूसरे प्रोसवाल जाति मी पाई जाती है। प्रस्तुत संग्रहमें यद्यपि सभी रचनाएँ के दिगम्बर जैन हैं । एकका अस्तित्वकाल विक्रमकी प्राय; अच्छी है; परन्तु उन सबमें १ चेतन कर्मचरित्र २ पंचे- १७ वी शताब्दी और दूसरेका १८ वीं शताब्दी है।
__ ---- बन्दिनी --- [ भगवान महावीरके जीवन की एक झाँकी ]
(लेखक-स्व० श्री भगवतस्वरूप जैन )
[ यह कहानी 'वारशासनाई' नामक विशेषाङ्कक लिये कुछ माम पूर्व प्राप्त हुई थी । खेद है कि लेखक महाराप प्रानी इस मुन्दर कृतिको अपने जीवन में प्रकाशित नहीं देख सके ! और ता. ४ दिमम्बरको अनेकान्त पाठको में भी मोह छोड़कर एकाएक स्वर्ग मिधार गये । अत: उनकी यह घरोहर उनके चिरपाटकोको समर्पित है। संपादक ]
थी। उपवन महक रहा था । नर्गिक सौन्दर्य बिखर रहा चमना...
था--हरी-हरी दुब रंग-विरगे विले-अधस्विले फूल । कोमलसी प्रतिमूर्ति, अनुपम सुन्दरी ! मुग्ध और किन्तु उधर, बेचारी चन्द नाका दुर्भाग्य झांक रहा था। समृद्धिके बीचमें विकसित होने वाला वह शरीर, जो दूसरे कोई नहीं जानता था, कि क्या होने जा रहा है, इन्हीं के भीतर प्रपन्नता, मुग्धना और अतृप्तता प्रविष्ट करनेमें मनोरंजनकी दो-चार घड़ियोंकि भीतर ? समर्थ।
सखियो-पहेलियां, दाग्रियां सभी राजकुमारीका पदा. राजकुमारी खिले हुए नए फूलोंमे मन बहला रही नुसरण कर रही थी। सब प्रमोदमन !
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किरण ५,६1
वन्दिनी
सहसा उपवनका सुवासित, शीतल वातावरण भात- विशमान थी। पुरुषकी कठोरता और अपनी कोमलताको ध्वनिमे प्रकम्पित हो उठा।
अनुभव करते हुए भी पुरुषके विरुद्ध मुँह खोलनेकी ताकत मखियां, सहेलियां, दासियां रोने लगीं। राजकर्मचारी वह अपने में मानती थी। दौडने लगे। उपवनसे लगाकर राज भवन तक चीख उठा! आवश्यकतासे अधिक दब्बूषन जहां नारियोंकी प्रगति महाराजका ठाँध गया। राज-रानीकी आँखें सूज पाई। में बाधक है, वहाँ पुरुषोंको अन्याय, अनाचार और दुराचार
सैकड़ी कण्ठ एक साथ एक ही प्रश्न कह रहे हैं-- के मार्गपर बढ़ने देनेका अवसर देता है । वह कहती-यह 'राजकुमारीजीको कौन ले गया?'
बुरी चीज़ है। पति बिगड़ना आय और गृहणी देखती रहे, सिर्फ उसीको लेकर कि उसे बोलनका हक नहीं, क्योंकि
वह पुरुषकी दासी है यह कदापि अच्छी बात नहीं कही तरुण-बुद्धिमें तीक्ष्णता, तरुण-विचारों में गांभीर्य जा सकती। न इसमें नारीके ममतामयी स्नेहकी गन्ध श्राती और तरुण-शरीरमें कान्ति रहती है. बल रहता है। पर, है, न स्वकर्तव्यकी' बह बहुत कम रहता है, जिसमे अपना और दूसरेका हित- पति हाग, पनीने विजय पाई। चन्दनाकी और श्रॉल साधन हो। कुछ बदलकर कहें तो इसका नाम होगा- उठाकर देखनेका बल भी विद्याधर अपनेम नही पा रहा श्राध्यास्मिक दृष्टि!
था। वह चुप था! भीतरका अपराध उसकी बची-खुची ___ तरुणाईके भीतर वासना जागृत रहती है, तो विवेक क्षमा शक्तिको भी समाप्त किए दे रहा था। पश्चातापकी भागम मोग लेता है। फिर उसके हाथों शुभ-कर्म मुश्किलसे ही जल रहा था वह ! हो पाते हैं। बुद्धि काम नही देती, उमगे ढकेलती हैं-- चन्दना रो रही थी। नलहटीकी ओर !...
विद्याधरी कह रही थी- 'यह गनेका हथियार श्राज विमान में बैठा जा रहा था--पृथ्वीकी शोभा देवता- कुछ काम भी देता है, आगे चलकर बिल्कुल व्यर्थ हो भालता। श्राकाशमं जो कुछ देखनेको नहीं था--शून्य जाएगा । बिना इस छोडे नारीका कल्याण नहीं ! रोश्रो श्राकाश ! केवल विशालना ही तो उसने पाई है। दूसरेके मत, बहिन ! हिम्मतपर भरोसा करना सीखो !' न हप्पनमात्रसे कब किसको सुख मिला है ? अनाया उसकी तरुण-दृष्टिने देखी--रूपकी रानी--
लघुपरणी-विद्याके सहारे चन्दनाको पृथ्वीपर उतारकर चन्दना ! मन मुग्ध होगया। मनके पास गांभीर्य नहीं था, विद्याधर अपने रास्ते लगा। उसे यह सोचने-समझनेका विवेक नहीं था। उमंग थी, तरुण और शक्तिशाली ! वह अवकाश भी उम चक्क नहीं था, कि राजकुमारी कहाँ नीचे उतर आया, शायद अपने व्यक्तिरवसे भी!...
पहुंचेगी, क्या होगा उसका ?
पर, चन्दनाके दुर्भाग्यका छोर नहीं आया था प्रारम्भ
ही हुश्रा था । अच्छे स्थानपर उतरती, यह कैसे हो चन्दनाका अपहरण करने के बाद भी अभागे विद्याधर सकना था ? को सुख नहीं मिला । मिलनकी उत्सुकता जरा भी टिकाऊ लघुपरणीके सहारे वह पृथ्वीपर श्रागई-मकुशल ! नही निकली। इस अन्याय-कर्ममे उसने रस लिया, पर किन्तु अब एसे स्थानपर उसने अपनेको पाया, कि जहा अानन्द नहीं मिला। हाथोंहाथ उसे यह कडुवा-घूट उगल चारों ओर अकुशल ही अकुशल दीग्व रही थी । श्रागके देना पडा!
भीतर बैठकर, शीतलताकी अाशा करना. मुर्खतासे अधिक गृहणी साथ थी। दुर्भाग्यसे वह बिल्कुल सीधी सादी है क्या ? कुछ भी नो नहीं। नहीं थी। नारी थी, पुरुषकी दबैल भी, किन्तु पुरुषके चन्दनाकी विपद्ग्रस्त बुद्धिने बनाया--'त्राणकी भाशा अन्यायपर बढे हुए पदको पीछे ढकेलनेकी शक्ति उसमें नही। जीवन, मृत्युके मु में प्रतिक्षण पहुँचता जारहा है।'
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अनेकान्त
[ वर्ष ७
और सभी उमने देखा--हाथियों का झुण्ड भागा जा काजल सा काला शरीर था। सुर्व आंग्वं, बडी नाक रहा है, पीछे बाघ दहाड़ रहे हैं । अनेक पेड़ उखड़ते और मोटे-मोटे मोठ थे। हाथ-पांव भी सुन्दर नहीं थे। जा रहे हैं!
बाल-सफेद हो चले थे। करीब-करीब बृढा ही था । पर "कितनी भयंकर अटवी। यह ?'-काँपते स्वरमे था मजबूत ! - चन्दनाके मुंहये निकला।
चन्दनाने अपने राज्य शौर्यको काममें लाना चाहा। वह रो रही थी--अपने दुर्भाग्यपर ! और मोचती जा किन्तु वह इसमें कृतकार्य न हो सकी, दयनीय परिस्थिनिने रही थी -'यहांमे किम तन्ह निकला जाय ? निकला जाय!
उसे विवश कर दिया। उसके मुहम निकला -- बाबा । भयमे कोप रही थी। शरीर दुर्बलता अनुभव कर रहा हिंसक जन्तुकी नरह देखता रहा, वह---एक टक । था, जैसे लम्बी बीमारीसे उठी हो। वह उठकर खडी हुई, फिर बोला--'क्या कहती है--छावरी । मैं विरातदो कदम आगे बटी भी । अनायास उसकी दृष्टिके पथपर मरदार हैं।" वह दृश्य पाया कि वह वही चीख मारकर बैठ गई। चन्दना स्तंभित रह गई । वह मनती पा रही है कि श्रॉम्ब मींच ली।
भील-जाति कितनी नृशंम, कितनी क्टोर. कितनी असभ्य एक मोटा ताजा अजगर राम्तेर पड़ा सोस ग्वीच रहा होती है। है। शायद मौकर उठा है. और भूग्व निवृत्तिके उपक्रम उसकी धारणा बदली--'अभी अशुभका बल क्षीण बगना चाह रहा है : बार-बार मुंह फाडकर अपनी भया- नही हुश्रा है। नकताको विकाम दे रहा है। गोल-गोल ऑम्बाको ग्बोलकर
x इस तरहसे इधर-उधर देख रहा है जैसे मतलबकी चीज़ खोज निकालनी हो।
चन्दनाके रूपने पहले तो भीलप्रभु श्रन्दर विकारकी अजगर रेंग रहा है।
ज्वाला ही दहकाई ! किन्तु बादमे वह शान्त हो रहीं ' दी और चन्दना मूर्दित पड़ी है।
सबब हुए, एक तो चन्दनाकी हट दृष्टिने उसे इरादा बदलने को विवश किया, दूपरे उसके बुढापेने उसे रोका और
मम्मति दी--'अगर वह इस तरुणीको बेच डाले तो घरमे दही बिलोने देखा है । डोरीका एक मिरा अच्छी रकम हाथ लग सकनी है।-बूढ़ी, ममझदार-अक्स खींचते हैं, ना सरकी ढील पहुँचनी है। वह यह मोच की बात टालने लायक उभे हगिज़ नही जंची। और उसने मकना है कि मेरे माथ रियायन हुई, पर, चीज असल में यह ऐसा ही किया! अटवीमे वह उसे अपनी पढ़ी तक लाया नही है ! वह जबनक बन्धन मुक नहीं है, तब तक खतरेमे था। अब शहर ले चला। वाली नहीं है। उसका अपना कुछ नही। दूसरेके इशारेपर चन्दना मन ही मन खुश हो रही थी ! शायद मोचनी ही सो चलना है-वह खीचे, चाहं ढील दे!
थी--'शहरम पहुँचकर, वह अपने घर तक जानेका प्रयग्न और इमीका नाम हम मुग्य और दुःख रखकर, हंसने यामानीमे कर सकेगी!' और रोने लगे तो शायद विवेककी गयमै बुद्धिमानी किन्तु देवकी आंख-मिचौनी अभी समाप्त कहां हुई थी? नहीं होगी।
एक पैसे वालेने चन्द्रनाको खरीद लिया । भाशाम चन्दनाकीर प्रास्त्र म्बुनी तो ठीक ऐसी ही स्थिति अधिक धन भील-राजको प्राप्त हुआ। वणिकवर चन्दनाके उमे देखने को मिन्नी। पलक मारने उमने मोचा-'अब रूपपर अपनी पहली ही दृष्टिम मब-कुछ निछावर करनेकी निस्तार हो मकनाविधन की दृष्टि शायद टडी पर तैयार होगए थे! सौन्दर्य-मदिरा उन्हें चेतना-हीन कर
चुकी थी! विडरूप मानव मुनि !!
चन्दनाको वणिकपतिकी प्रांवों में स्पष्ट दीखा-उमका
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किरण ५-६]
बन्दिनी
दुर्भाग्य झांक रहा था । ...
निकलने तककी श्राजादी उसे नहीं है। सिर्फ वातायनके वह थरथरा उठी।
द्वारसे झाँककर बाहर को देख सकती है। देख सकती है समीप ही था कि पतनकी घृणित मूर्ति उसके सामने कि एक बूढा-प्रहरी उसके कागगृहकी निगरानी किया पाती ! पर, सौभाग्य, कि वैमा कुछ हुआ नहीं! करता है।
पूँजीपति जब तक कुछ करने का साहम-संचय करें, चन्दना सोचती-'क्या वह स्वतंत्र है? हथकडीउसमे पहले उनकी पत्नीको विदित हो गया कि पतिदेव बेड़ियां उसके हाथ-पैरोमें नही पडी, बन्द भी वह नहीं है। घया करने जा रहे हैं । और तब फिर पतिदेवके लिए यह फिर "? पर, यह चक्कर क्या काटा करता है कोठरीके बिल्कुल सम्भव न रह गया, कि वे कुछ कर सके । तब इर्द गिर्द ? -किसके इशारेपर" गायद पुरुपके भीतर नारी-सम्मानकी मात्रा, या उत्तरदायि- और उसे मानना पड़ता कि वह बचाग भी उसीका बका स्मरण ब रहता था। जहां नारी अपनेको पदानु- भांति विवश है, परतत्र हैं ! कई दिनांके संयोगने, चन्दना मारिणी मानने में गौरव अनुभव करती, वहां पुरुष परनी का मन सहानुभूतिसे भर दिया । वह उसके प्रति कराया प्रति वह व्यवहार करता जो एक प्राश्रयमे श्राप हुएके हो गई । अवसर मिलता और वह उसके सुख-दुखके बारे माथ करना मनुष्यताका धर्म कहा जाता है।
में पछ उठती। उमने जाना कि वह माधु-प्रकृति, पचरित्र चन्दनाका रूप ईर्षाकी वस्तु था । ईर्षाकी मिकदार दरिद्र श्रावक है। नारियों में अधिक होती पाई है। वे किसी रूपमीकी प्रशंसा, एक दिन वह बोली-'बाबा ! बैठ जाओ, थक गए यह अनुभव करते हुए भी, कि 'यह सुन्दर है', नहीं कर होगे। विश्वास करो, मैं भागी नहीं।' सकती ! वैसे शब्द उनके श्रोठी बाहर नहीं पाते।
बुढा हैंसा, फिर विचित्र-सी प्राकृति बनाकर कहने ईषा में डूबे हुए बणिक-पत्नीके मनमें एक विचार लगा-'नुम्हारी पोरमे तो मुझे यह चिन्ता नही है-- उठा-'चन्दना रूपवती है । रूपवनी है, इसीलिए पुरुषो बेटा! कि भाग जाओगी। पर, मैं जो चाकरी कर रहा को विद्वलता देती है, पतनका मार्ग बतलाती है। न जाने हूँ, वह छूट सकती है। और उसका हटना मेरे लिए बहन कितने पुरुषका अहित हुआ होगा इसके द्वारा ? कितनी बुरा प्रमाणित होगा।' गृहस्थिर्यो में संघर्ष पैदा हुभा होगा ? कितनी पराधीन चन्दना चुप रह गई। नारियोंको मनःस्तापने जलाया-झुलसाया होगा ? . ' विवशताका अन्तरग उसका देखा हुआ था ! पिछल
व, बैठी सोचती रही-'इसे छोड देना ठीक नहीं दिनो उसे इसीका अध्ययन करना पड़ा है। होगा। यही कैद रखकर, इसके रूपको नष्ट करनेका प्रयत्न करना चाहिए ! इसके कुरूप होनेसे बहुतांका भला हो
[] सकता है। काश ! यह कुरूप हो सकी।
नित्यकी तरह उस दिन भी वणिक-पत्नी दो मविकाधा वणिक-पत्नीके मुखपर सन्तोष-सा प्रतिभासित हुआ, के माथ चन्दनाको भोजन देने और उसकी अवस्था देखने कुछ मुस्कराहट भी दीखी और श्राप ही अपनेको कहने आई थी। जगी- 'तब 'उनसे' कहूँगी-यह वही है-चन्दना । कारागारका द्वार खुला हुआ था। अब करो इससे प्रेम ! इसी चमक-दमकपर पत्नीव्रत मलिन-वेष चन्दना जमीनपर बैठी थी। मिट्टीक बर्तन बिगाइने चले थे।'
में कोदों-चावल परोसे जा रहे थे । नित्य यही खाना उम
मिलता है । मेटानीकी धारणा है-मिर्फ कोदो खाते रहने बन्दिनी चन्दना गर्दिशके दिन काट रही है। हथकडी. से रूप, कुरूप हो जाता है। कोदाका प्रभाव सौन्दर्यपर बेडियोंसे विवश ! बाहिरी दुनियासे दूर ! वही एक छोटी- बुरी तरह पडता है। कोदो सौन्दर्य नाशक भोज्य है।' मी कोठरी उसका संसार है, उसका कारागार है । बाहर जल-पात्र धोने के लिए चन्दना उठी । खिड़की तक
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अनेकान्त
[वर्ष ७
आई, और देखने लगी रष्टिके पथपर जो कुछ सामने आया। हृदयकी शुद्ध धावाज भगवान तक पहुंच चुकी थी। बाबा अपनी चाकरी वजा रहे थे।
वह मुग्ध हो इधर उधर देखने लगी। चारों और परिवर्तन सामने राज-मार्गपर?
था। हथकड़ियां, बेडियां टूट रही थी। मिट्टी सारे बर्तन, चन्दनाने देखा और एक वारगी प्रफुजित हो गई। स्वर्श-पात्र हो चुके थे । कोदोंकी जगह शुद्ध, प्रासुक खीर उसका रोम-रोम प्रसनतासे उठ खडा हुना, भूल गई कि दिखलाई दे रही थी। वह बन्दिनी है हथकड़ी-बेडिया उसे बांधे हुए हैं ..... वह प्रानन्दविभोर हो उठी । भरा हुआ जल-पान कितना पावन-दृश्य था ? ...
लेकर वह द्वारपर आई । भावाज दी-'बाबा...!' भगवान महावीर चर्याको निकले हुए थे ! दिगम्बर- बाबा पहले ही प्रसन्नताम दूब रहे थे। गद्गद्-स्वरमें रूप, उद्दीप्त, सौम्य-शान्त शरीर, नासाग्र-दृष्टि ईर्या-पथ- बोले-'भाग्यशाली हो बेटी!-और पास श्रा खड़े हुए। मण्डित बढ़े चले पारहे थे-धीरे-धीरे !
भगवान द्वार तक पा पहुंचे थे। चन्दना, वन्दिनी चन्दनाके सारे तार मनमना उठे। श्रद्धामे मस्तक झुक गया, भक्ति आंखोंके रास्ते बहने लगी वह कितनी प्रसन्न थी ?"
'राजकुमारी चन्दनाकी जय हो ! एक ही सणके भीतर वह विचारोंमे तैरने लगी- जय-धोषसे आकाश गुज उठा, फूल बरसने लगे। काश आज मैं उस स्थितिमें होती कि भगवानको श्राहार पंचाश्चर्य हो रहे थे। देस जन्म-मफल कर सकती !..' ।
___ भगवान महावीरका निविन पाहार हुश्रा था। वणिक अनुतापग्मे मुंह मलिन होने लगा।
पत्नी कह रही थी-'धन्य हो देवी । तुमने मुझे भी भगवान महावीर चले भा रहे थे।
स्मरणीय बना दिया । लोग जहां चन्दना-उद्धार की क्या चन्दना एकटक देख रही थी-विश्व वंदनीय, कहेगे वहां वे मुझे भी याद करेंगे। मैं बाज लज्जासं गढी दयावतार भगवान महावीरकी शान्तिमुद्रा । पराधीना जा रही हैं. मुझे क्षमा करीबहिन ।' चन्दनाकी यांचे बरस रही थी। "मन दुख रहा था !
x भगवान और समीप पाए !
[10] चन्दनाकं भीतरसे ध्वनि आई-'काश ' तू पाहार दूसरे दिन : दे सकती!' उसने विवश-दृष्टिसे अपने करपात्रकी पोर बाबाको उस चाकरीम छुट्टी मिली हुई थी । घरक दखा। और वह चौक परी--'यह क्या ? • 'चमत्कार'?' दुसरे काम-धन्धे उनके सुपुर्द थे।
त्रैलोक्यप्रकाशका रचना-समय और रचयिता
(लेखक--श्री अगरचन्द नाहटा)
जैन मत्यप्रकाशके व अ६ मे श्रीयुत मूलराजजी लेख प्रकाशित हुभा है। उसमें आपने ग्रन्थका रचनाकान जैनका श्री हेमप्रभमूरि-विचित त्रैलोक्यप्रकाश' शीर्षक "यह प्रथ सं० १९७० से बहुत पहलेका म होगा" शब्दों * अनेकान्त वर्ष ५ अङ्क १२ में भी इमकी वचनिका शाह द्वारा उसके पास पामका अनुमान किया है। पर वे ठीक जवाहरलालजीके बनाने आदिका उल्लेग्न हे ।
समय निीत न कर सके और न ग्रंथकर्ताक गच्छका
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निर्णय एवं उनके रचित अन्य प्रन्थपर ही प्रकाश डाला देवेन्द्रसूरिके गच्छका निश्चितरूपसे निर्णय करनेके एक गया है। अतः हम इन विषयोंपर प्रकाश डालनेका प्रयत्न संकेत हमारे प्रेषित उपयंत प्रतिके लेखकका किया हुमा इस लघु लेख में कर रहे हैं।
निर्देश है-इस प्रतिके पत्र १६ मे दिनचर्याप्रकरणकी प्रन्थका इतना समय-बीकानेरके ज्ञान भंड.रोंमेंसे समाप्तिमें (पत्र २०-२२) देवेन्द्रसूरिका विशेषण इस 'अलोण्यप्रकाशकी २ प्रतियाँ श्राधी श्राधी पं. रामस्वरूप प्रकार लिखा है:भार्गवको मैंने भेजी थीं, उनमेमे एक प्रति काफी प्राचीन- "महा मण्डलेश्वर प्रगानपाद त्रैवेद्यवृन्दारक प्रतिभा हमारे खयाल से विक्रमकी पन्द्रहवीं शदीसे पीछेकी न होगी सर्वज्ञ श्रीमद्देवेन्द्र शिष्य श्री हेमप्रभामूहिकृत" का अनिम आधा हिस्सा हमारे पास रह जाने मूलराजजी महामण्डलेश्वर गुरु श्रीदेवेद्रमूर्शिशस्य हेमप्रभपूरिग्रंथके रचनाकालका निर्णय न कर पाये। जब कि उपर्युक्त विचिते।" प्रतिमें त्रैलोक्यप्रकाश ग्रन्धकी समाप्तिके पश्चात् प्रतिके लेखक
उपर्युक्त प्रशस्ति में उल्लिम्बित महामण्डलेश्वर कौन थे? में संभवत: जिस प्रतिय उपकी नकल की गई हो उसके
एवं उसके गुरु देवेन्द्रसूरि कम गरछमें हुए है, यह बात शाधारसे स्पष्टरूपमे इस ग्रथा रचनाकाल इस प्रकार किसा अन्य आधारस नात हा जानम हमप्रभमुरिक लिखा है-'सवत् १३.५ न माघ बदि १३ गुगै
गच्छका स्वत: निर्णय हो जायगा । अाशा पाहिन्यसेवी निष्पन्न." इस उस लेखमे ग्रंथका रचना सवत, तिथि और विद्वानोंका इस सम्बन्धम कुछ विशेष उल्लेख देखने में का भी निश्चित हो जाना।
श्राया हो तो प्रकाश लावगे।
हेमप्रभसूरिक अन्य ग्रन्थ----जैन प्रन्यातली पृ. ग्रन्यकार-५ ५ ग्रथन अपने गुस्का नाममात्र
३४६, ३४६, ३५६ मे हेमप्रभमुरि के ३ ग्रथोंका उल्लेख ही देकर गच्छका कोई उल्लेख नही किया है। अन्य साधनों
है-१ अर्थकाण्ड, २ मण्डलपति ३ मेघमाला। इनमेसे के श्रभानम गछका निर्णय करना भी कठिन है क्योंकि
अर्थकार-अर्घकाण्ड है और वह त्रैलोक्यप्रकाशका ही इसी समय के लगभग देवेन्द्र सूरन के ३ श्राचार्योंका पता
एक अश है । मण्डल पति भी इसी ग्रन्थके एक प्रकरण चलता है। नवाच्छ, २ नागेन्द्र गच्छ और ३ तपागच्छ ।
का नाम है अत: त्रैलोषयप्रकाशके अतिरिक्त केवता , ग्रंथ और इन याचार्योक गिप्योके नामोमे हमप्रभसूरका नाम
'मेघमाला' ही इनकी दुमरी रचना है। हमारे प्रेषित नही पाया जा। हमारे ख़याल से प्रस्तुत देवेन्द्रमूरि चन्द्र
पन्द्रहवीं शनीकी उपयुक्त प्रति २३ पत्रोंका है और उसके गच्छके होनसभा हैं। जनमाहित्य नो इतिहासकं पृष्ट ३२४
२३ व पत्रमे हेमप्रभमूरिक त्रैलोक्यप्रकाशकी समाप्तिक म चन्द्र गच्छ ना धर्ममूरि-रत्नसिह-देवेन्द्रसूरिना शिग्य
अनन्तर मेघमाला ग्रयों को श्राप हैं। उसके बाद के कनकप्रभ हमन्यायमार नो उद्धार को लिख्या है। इससे
पत्र नहीं मिलने के कारण वह प्रथ इम प्रनिमें अधूरा रह चन्द्रगच्छक देवेन्द्रमूरिक प्रभान्त नाम वाले शिप्य होनेश पता चलता है। मप्रभ और कनकप्रम नाम एकार्थक और
गया है। पर हममे पहन यह नो निश्चित हो जाता है कि
मेघमाला ग्रथ उन्हीकी रचना है। इसकी पूरी प्रति जैन मिलते जुलते भी हैं। अत: दोनोका गुरु भ्राता ह.ना कोई असंभव नही है।
प्रन्थावलीके अनुसार 'लीबड़ीके भष्टारक्षम है।
* जैनग्रन्थावलीक. पृ० ३४६ की टयगाम अवघापमारक * यह प्रतिबंई ज्ञानमडारक अंतर्गत वहमानभंडार के न० शिष्य होने का अनुमान किया गया है पर की। नही है । २१ की है। त्रैलोक्यप्रकाशको श्लोकसंख्या इन के अनुर *प्रकाशित लीचड़ी भडामचंग का उल्लय नही १२०६ पद्य है।
पाया जाता।
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Regd. No. A-731.
वीरसेवामन्दिरके नये प्रकाशन
१ आचार्य प्रभाचन्द्रका तत्वार्थसूत्र-नया प्राप्त ३ अध्यात्म-कमल-मार्तण्ड-यह पंचाध्यायी तथा । संक्षिप्त सूत्र, मुख्तार श्री जुगलकिशोरको सानुवाद व्याख्या लाटीसंहीता आदि ग्रंथोंके कर्ता कविवर राजमल्लकी अपूर्व और प्रस्तावना सहित। मूल्य ।)
रचना है। इसमें अध्यात्मसमुद्रको कूजेमें बन्द किया गया। २ सत्साधु-स्मरण-मंगलपाठ-मुख्तार श्री जुगल- है। साथमें न्यायाचार्य पं. दरबारीलाल कोठिया और पं. किशोरकी अनेक प्राचीन पोंको लेकर नई योजना सुन्दर परमानन्दशास्त्रीका सुन्दर अनुवाद विस्तृत विषयसूची तथा
हृदयप्राही अनुवादादि सहित । इसमें श्रीवीर वर्द्धमान और मुख्तार श्रीजुगलकिशोरकी लगभग ८० पेजकी महत्वपूर्ण : । उनके बादके जिनसेनाचार्य पर्यन्त, २१ महान् प्राचार्योंके प्रस्तावना है। बड़ा ही उपयोगी प्रन्थ है। मू. १)
भनेकों प्राचार्यों तथा विद्वानों द्वारा किये गये महत्वके पुण्य उमास्वामिश्रावकाचार-परीक्षा-मुख्तार श्रीजुगलस्मरणोंका संग्रह और शुरूमें १ लोकमंगलकामना, किशोरजीकी ग्रंथपरीक्षाओं का प्रथम अंश, ग्रंथपरीक्षाओं के २ नित्यकी भारमप्रार्थना. ३ साधुवेषनिदर्शक जिनस्तुति, इतिहासको लिये हुए १४ पेजकी नई प्रस्तावना ४ परममाधुमुखमुहा और ५ सत्साधुवन्दन नामके पांच पहित । मूल्य।) प्रकरण है। पुस्तक पढते समय बड़े ही सुन्दर पवित्र विचार उत्पन्न होते हैं और साथ ही प्राचार्योंका कितना ही
प्रकाशन विभाग इतिहास सामने प्राजाता है। नित्यपाठ करने योग्य है मू०॥)
वीरवान्दिर, मरमावा (सहारनपुर) अनकान्तका सहायता अनेकान्तकी गत अगस्त-सितम्बरबी किरण (१-२) में प्रकाशित सहायताके बाद 'अनेकान्त' को जो महागता उस के हेड माफिम वीरमेवामन्दिर परमावामें प्राप्त हुई है वह क्रमश: इस प्रकार है, और इसके लिये दातार-महानुभाव धन्यवादके पात्र है:२) मा. जवरचन्द मोतीचन्दजी भोपाल (ला. मोतीचंद
जीके स्वर्गवास पर निकाले हुए दानमेमे)। ५) ला. धन्नालाल जी सरावगी धूलियान जि. मुर्शिदाबाद
(चि. मोहन लालके विवाहकी खुशीमे)। २५) बाबू फूलचन्दजी सेठी नागपुर
अधिपता 'वीरसेवामन्दिर' वीरसेवामन्दिरको सहायता
पिछलीकिरणा में प्रकाशित मायनाके बाद वीरम्मेवामंदिर को ५) की पहायतादि जैन पच न बाराबकीपे और २५) की ला.दमरूलाल कप्नालालजी जैन गुरडा, खुरई जि. मागरमे प्राप्त हुई है। अत: इसके लिये दातार महानुभाव धन्यवादके पात्र हैं।
अधिनाता वीरसेवामन्दिर'
If nodols.cred please return VIR SEWA MANDIR, SARSAWA. (SAHARANPUR)
___T.,
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बनेकान्त
मम्पादक-जुगलकिशोर मुख्तार
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श्रीमान बाब नन्दलालजी जैन कलकत्ताकी
वीरसेवामन्दिरको सहायता
श्रीमान बाष नन्दलालजी जैन. मपुत्र मंठ गमजीवनजी मगवी, कलकत्ताक एक प्रमग्य व्यापारी हैं और बही ही सरल प्रकृति, धार्मिक वृति तथा मौम्य म्वभावके मजन । श्राप वाग्मवामन्दिर में बड़ा प्रेम रखते है, उसके 'आजीवन सदस्य हैं और ममय ममयपर उम महायता देने तथा दिलाते रहते हैं। हालमें वीरशासन-महोत्मवके अवसर पर आपन वाग्मत्रामन्दिरको अपनी ओरम २०००) और अपनी पुत्री म्वर्गीया ताराबाई की भोरस १०००) इम नरह तीन हजार की मगना प्रान कोर. जिमक लिये आपको हार्दिक धन्यवाद है।
अधिष्ठामा 'योग्मेवा-मन्दिर'
विषय-मची
यावश्यक निवेदन , मिड-स्मरण
पिछले वर्ष न ममीन अपनी माग्मे अनेक . जैनधर्मकी चार विशेषताएं
लायरियों, अजैन सस्थानी तथा विद्वानोको अगवान ४ समन्तभद्रका एक और परिचय-पत्र ३ माहिन्य-परिचय और समालोचन
फ्री भिजवाया है उनमे निवनवैम वर्ष भी २ या एनकाण्डके का स्वामी समन्तभद्र ही हैं। अपनी महायता भेजकर उन्ह अपवा तमगेको क्री ५ रनकरण श्रा. और प्राप्तमीमांमाका कर्तृव ३. भिजवानेकी कृपा कर । १४) रुपयमे ४ को फ्रा भंगा
मानव मस्कृतिक इतिहास में म. महावीरकी देन ३५ जा सकता। ८ कलकत्तामे वीरशासनका सकस महोसव
व्यवस्थापक 'अनेकान्न'
वर्य
किरमा
अक्तृबर-नवम्बर १६४४
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बाबू छोटेलालजी बीमार !
पाठकोको यह जानकर दुःख होगा कि कलकत्ता वीर-शासन-महोत्सवके प्राण बाबू छोटेलालजी महोत्सवकी समाप्ति के अनन्तर ही ता०५ नवम्बरसे बीमार चल रहे हैं-महीनों के दिनरातके अनथक परिश्रमने उनके स्वास्थ्यको भारी धक्का पहुँचाया है। उन्हें पहले इन्फ्लुएंजा हुश्रा, फिर मियादी ज्वर (टाई. फ्राइड फीवर)। ज्वरके न जाने पर छातीका ऐक्स रे लिया गया, उससे मालूम हुआ मुरिसिसकी बीमारी है जो पीछे बढ़कर थाइसिस हो जा सकती है। अतः उनको अब मद्रासके पास मदनपल्जीके T. B. Sanatorium में जाना पड़ेगा, जहां उनके लिये अलग स्थानका निर्माण किया जा रहा है और वहां उनको ५-६ महीने रहना होगा। वे संभवतः २२.या २३ दिसम्बर तक वहांके लिये कलकत्तासे रवाना हो जाएँगे, ऐसा उनके १५ दिसम्बरके पत्रसे ज्ञात हो रहा है। आपकी इस बीमारीके कारगा कलकत्तामे जिस महती संस्थाकी नींव पड़ी है उसके कार्यमे कोई प्रगति नहीं हो सकी । इस संबंध में या छोटेलालजीके पत्रके निम्न शब्द हृदयमें बड़ी ही वेदना उत्पन्न करते है-"चन्दा जितना हुआ था-अन्दाज पौने चार लाखका-उतना ही है। मेरे बीमार होजाने के कारण जो कार्य जितना जहां था वहां ही है और मेरी ऐसी हालतमें अव ५-६ मास कुछ होना संभव नहीं है। इस बीच में समाज का रुपया अन्य कार्यो में उठ जायगा
और मेरी १० लाखकी स्कीम यों ही रह जाती जान पड़ती है ! जैन समाजका भाग्य ही ऐसा हे । या तो पच्छे कार्यकर्ताओंका महयोग नहीं मिलता, या कोई आगे पाता है तो धन्दरोजमे जीवन समाप्त हो जाता है-या कुछ प्रत कर कार्य जहांक तहां ही रह जाते हैं। मैं बीमार न होता तो तुरन्त यहां पाँच लाख हो जाते और वाकी पांच लाख दौरा करके ले आता । भगवानकी मर्जी ! कृपा रक्खें।"
माशा है समाज बायु० छोटेलालजीकी शीघ्र नीरोगताके लिये अविरल भावना भाएगा और उन्हें उनकी स्कीम के विषय मे जग भी निराश न होने देगा।
-जुगलकिशोर मुख्तार
पाठक नोट करलें। भब भी कुछ बन्धु 'भनेकान्त' सम्बन्धी पत्रव्यवहार मेरे पतसं करते रहते है जिससे उन्हें उत्तर भादि मिलने में व्यर्थ की प्रतीक्षा करनी पड़ती है। मै व्यवस्थापकत्वक भारसे मुक्त हो चुका हैं । अतः अनेकान्तके सम्बन्धमें मारा पत्रव्यवहार उसके मम्पादक श्री पं० जुगलकिशोरजी गुख्तार या मैनेजर 'भनेकान्त' बीरसेबामन्दिर मरसावाके पते पर करना चाहिये। -कोशलप्रसाद जैन, सहारनपुर ।
मावश्यकता
बीरमेवामन्दिर को दो तीन अच्छे मेवाभावी विद्वानों की आवश्यक्ता है । जो सजन भाना चाहे उन्हें अपनी योग्यता और कृतकार्यादिके परिचय-सहित नीचे लिखे पते पर शीघ्र पत्र व्यवहार करना चाहिये। बेतन बोग्यतानुसार ।
भधिष्ठाता 'बीरसेवामन्दिर'
सरमाया मिला महारनपुर
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* ॐ अहम् *
स्ततत्व-सघातक
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विश्व तत्त्व-प्रकाशक
वाधिक मूल्य ५)
इस किरणका मूल्य :-)
नीतिविरोधदसी लोकव्यवहारवर्तकः सम्यक् । पागागमस्यबीजे भुल्नैकगुरुर्जयत्यनेकान्तः॥
Lorenasewasi
सम्पादक-जुगलकिशोर मुख्तार वीरसेवामन्दिर (समन्तभद्राश्रम) मरमावा जिला सहारनपुर कार्तिक-मार्गशीर्षशुक्ल, वीरनिर्वाण संवत् २४७१, विक्रम सं० २००१
वर्ष६ किरमा ३.४
अक्तूबर-नवम्बर
१६४४
सिद्ध-स्मरण सिद्धानुभूत-कर्मप्रकृति-समुदयान साधितात्म-स्वभावान ; वन्दे सिद्धि-प्रसिझे तदनुपम-गुण-प्रग्रहाकृष्टि-तुष्टः । मिद्धिः स्वास्मोपलब्धिः प्रगुण-गुण-गणोच्छादि-दोषापहारात्, योग्योपादान-युक्त्या दृषद इह यथा हेमभावीपलब्धिः॥
--मिद्धभत्ती, श्रीपूज्यपातः 'जिन्होंने । पूर्ण तपश्चर्याक बलपर) कमप्रकृतियोंक समहका-अात्मामे सम्बद्द मूलार-प्रकृानयाक भेदरूप सम्पूर्ण कर्मगाशका--मृलीच्छेद किया है- अामा के साथ उसके मम्बन्धका अभाव किया है-और (इम तरह) अात्मस्वभावको मान लिया है.- कर्म ननित मकल विभाव-भानका अभाव कर अपने प्रात्मा स्मरूपम स्थिर किया है-उन मद्धोक अनुपम गुणरूप रजके आकर्षगाम मन्तुष्ट हा- उनके प्रति भक्तिभावको प्राप्त हुअामैं सिद्धिकी उत्कृष्ट माधना के लिये उनकी वन्दना करता है-उनके गुणों और उनका मानना श्राकृत होकर सम्पहीने के लिये उनके धागे नतमस्तक होता हूँ।
(जिम मिद्धि के लिये यह वन्दना की जाती है। उम मिद्धिको स्वात्मभावकी लब्धि अथवा मम्प्राप्ति कहते हैं, और वह योग्य माधनोंकी योजना-द्वारा उन दोपोंके-जानाबरणा द कमकि--जो अनन्तज्ञानादि महान गुगगोंके आन्द्रादक हैं उच्छेदनने नमी प्रकार मिद्ध होती है जिस प्रकार कि (अग्निप्रयोगादि ) योग्य माधनों द्वारा इस संसारमं सवर्णपापागासेसवर्गवकी उपलब्धि होती है-मुवावोअलग किया जाता है।
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जैनधर्मकी चार विशेषताएँ ( लेग्बक-पं० पन्नालाल जैन, साहित्याचाय )
जैनधर्म अनेक विशेषताओं का भाण्डार है। उसमे मानवको दशम गुणस्थानके बाद ही प्राप्त हो सकती है। संसारके प्रत्येक प्राणीका सुख-सन्देश निहित है। हम स्पष्ट उसके पहले उपचारसे अहिंसा मानी जाती है । यथार्थ शब्दोंमें कह सकते हैं कि जैनधर्मका एक एक सिद्धान्त दृष्टि से देखा जाये तो जहाँ जीव-विधातके परिणाम होना जन-कल्याणकी पवित्र भावनास योतप्रोत है। यदि प्राज हिंसा है वहाँ जीवोंकी रक्षा करनेके भाव होना भी हिंमा संसार जैनधर्मके वास्तविक रहस्यको समझ जावे तो उस है। अहिमाका वास्तविक रूप इन दोनों भावोंसे भागेकी की समस्त प्रशान्ति और बेचैनी एक क्षण में दूर हो जावे। वस्तु है। यदि घाजका मानव अपने आप को कलिकाल के दूषित अहिंसा और वीतरागता समानार्थक शब्द हैं। 'अहिंसा प्रभाव प्रभावित न होने दे, अपने अभिप्रायको शुद्ध रक्खे परमो धर्मः' कहिये या 'वीतरागता परमो धर्मः' कहिये तथा जैनधर्मके उपदेष्टा उसकी नयभङ्गीका रचनात्मक उप. दोनोंका एक ही अर्थ होता है। अहिंसा या वीतरागता ही योग करने लगें तो जैनधर्म संसारका एकमात्र सार्वधर्म प्रामाका उत्कृष्ट धर्म-स्वभाव है। यद्यपि वर्तमान कर्म माज ही हो जावे । उल्लिखित कारणों का प्रभाव ही उसके की उपाधिसे आत्मा अपने अहिंमा धर्ममे च्युत होकर विश्वधर्म होने में बाधक है।
हिंसा या रागादि रूप परिणमन करने लगता है परन्तु वह ___ संक्षेपमें जैनधर्मकी चार विशेषताएं हैं-हिसा, औपाधिक परिणमन श्रात्माका स्वकीय भाव नहीं कहा अनेकान्त, स्वतन्त्रता और अपरिग्रहवाद । ये चार विशेष- जा सकता। अग्निका संसर्ग पाकर पानी उष्ण हो जाता है ताएँ वे सुदृढ स्तम्म है जिनके ऊपर जैनधर्मका विशाल और लाल पीले पदार्थ के संसर्ग स्फटिक भी लाल पीला प्रासाद खड़ा हुआ है । यहाँ संक्षेपरूपमै उक्त चारों ही हो जाता है परन्तु यथार्थ दृष्टि से विचार किया जावे तो न विशेषतानीका कुछ निरूपण कर देना प्रामङ्गिक है। उष्ण होना पानीका स्वकीय भाव है और नहीं लाल पीला १ अहिंसा
होना स्फटिकका । अग्निका संसर्ग दूर होनेपर पानी शीतल हो जैनधर्ममें अहियाका बड़ी सूक्ष्म दृष्टिमे विश्लेषण जाता है और लाल पीले पदार्थका संपर्क दूर होनेपर स्फटिक किया गया है। जीवों का प्राण विधात न करना ही अहिमा धवल हो जाता है। इसमे मालूम होता है किपानीका स्वकीय नहीं है बल्कि प्राणघातका अभिप्राग ही नहीं होना मी भाव शीतलता तथा म्फटिकका स्वकीय भाव धवनना है। अहिंसा है। नये तुलं शब्दों में जैनशास्त्रका निचोर रग्बत
जिम वस्तुका जो स्वकीय भाव या धर्म होता है वह वाधक हए प्राचार्योने बतलाया है कि--श्रामाम राग द्वेष
कारण न रहनेपर निरंतर उसके पाप रहता है और जो श्रादि भावोंके उत्पन्न न होनको 'अहिंसा' और उन्हीके औपाधिक भाव होता है वह उपाधिके सद्भाव तक ही रहता उत्पन होने की हिमा' कहा यह वास्तनिक का है। हम लोग कसाईको महान् हिंसक कहते हैं क्योंकि वह बड़ी * काल: काला यनुवाश यो का श्रीनु: प्रवक्तर्वचनानयाना।
निर्दयताके साथ गाय प्रादि पशुश्रीका वध किया करता है यदि त्वच्छामकाधि नित्वलक्ष्मी प्रभुत्वशक्तेपवादहेतुः ।।
आप विचारकी दृष्टि से, दिन रात होने वाले उनके मनोभावोंकी युक्रनुशासने ममन्तभद्रम्य देखेगे तो पापको मालूम होगा कि वह कुछ समय तक ही अप्रादुर्भाव: ग्वलु रागादीना भवत्यसिति । हिंसामय भाव रखता है। जो कसाई पशुवधके ममय बरा तेषामेवोत्यत्तिमिति जिनागमस्य संक्षेपः। रुद्ध मालूम होता है वही अन्य समयमे यहा शान्त मालूम होने
-रूपामिल गये अमनचन्द्राचार्यस्य लगता है। वह अपनी सी. महोदर तथा सन्तान प्रादिक
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किरण ३-४ ]
जैनधर्मको चार विशेषताएँ
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माद स्नेह भी रखता है। उक्त उल्लेखसे मालूम होता है स्वीकार कर हम उसके शेष धर्मोंका अस्तित्व स्वीकार कि वह कसाई भी स्वकीयभाव-अहिंसाको छोड़ कर अन्य न करें तो ऐसा करनेसे उस वस्तुके पूर्ण स्वरूपका औपाधिक भाव निरन्तर नहीं रख सकता।
प्रतिपादन नहीं किया जा सकेगा और उस अपूर्ण प्रतिपादन ___ सच्चा प्रात्मस्वभाव होनेके कारण प्राचार्योंने अहिंसा से संसारके प्रत्येक प्राणीको लाभ भी नहीं हो सकेगा। को ही परमब्रह्म माना है * । परन्तु जहां पर पदार्थोके साथ जीव निस्य भी है और भनित्य भी। परन्तु जब कोई मम्बन्ध--रागद्वेष है वहां अहिंसा स्थिर नहीं रह सकती, साधक सल्लेखनाके समय भूख प्यास प्रादिकी बाधामोंसे इसलिये जैनधर्ममें बाह्य पदार्थों मे सम्बन्ध छोड़ कर दुग्वी होकर अपने आपको मरणोन्मुख जान दुखी होने निष्परिग्रह होने का उपदेश दिया गया है। जैन धर्म में एक लगता है तब उसे स्वकीय यतमें स्थिर रखने के लिये उपअहिंसाको ही मुख्य धर्म माना गया है। शेष सत्य, अस्तेय, देष्ट। जीवको नित्य मानकर उपदेश देता है कि हे प्रामन् ! ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह आदि जितने धर्म है वे सब इसीके तू अजर है, अमर है। इन शारीरिक यातनामोंसे तेरी परिकर है- इसीके रक्षक हैं और अपत्य प्रादि हिंसाके कभी मृत्यु नही हो सकती। हां, शरीर भले ही नष्ट है। विस्तार हैं+ । इसके मिवाय जितनी कुछ व्रत विधान प्रादि सकता है परन्तु यह तेरा है कहाँ? और जब कोई पुरुष की व्यवस्था की गई है वह सभी राग द्वेष घटा कर सच्ची अपने पापको स्थायी मानकर तरह तरह के अत्याचार करने अहिंसा प्राप्त करनेके उद्देश्यसे ही की गई है। प्रत्येक प्राणी लगता है तब उसे उपदे। समझाते हैं कि 'रे मानव । का नव्य हो जाता है कि वह इस यथार्थ अहिंसाका समारमें एकसे एक बढ़ कर हो गये परन्तु अाज तक कोई स्वरूप समझकर उसे ही प्राप्त करनेका प्रयत्न करे। क्योंकि भी स्थिर नहीं रह सका: फिर तू तो होक्या?क्यों इस जैन शास्त्रोमे यह रगष्ट बतलाया गया है कि जो इस थोड़ी सी जिन्दगीमें इतना अत्याचार करता है। यदि अहिमा वीतराग परिणतिको न समझकर केवल शरीराश्रित जीवको निप्य या अनित्य ही मानकर एकही दृष्टिसे दोनो क्रियाकाण्डमे ही उलझा रहता है वह व्यलिङ्गी है और के सामने प्रतिपादन किया जाता तो दोनोंको लाभ नही उपकी वे समस्त क्रियाएँ संसारका ही कारण हैं। हो सकता था। इसमे मालूम होता है कि बस्नुके भीतर
अहिंसाके इस लक्ष्यविन्दु तक पचनेके लिये अनेक गुण हैं परन्तु अपनी अपनी विवक्षासे उन सबका श्राचार्याने हमारे रहन सहन, आचार विचार प्रादिको
निरूपण किया जाता है। जहां अनेकान्त अन्य धर्मोको अनेक विभागाम विभाजित किया है। उसे लक्ष्यका साधन
अनर्पित या गौण मानता है नहीं अन्य एकान्त मत उम समझकर उसके अनुरूप प्रवृत्ति करनी चाहिये । यहो उन समय उनका अभाव ही मान लेते हैं। यही कारण है कि सब विभागोंका वर्णन विस्तारभयसे हम लोद रहे हैं।
उनके द्वारा प्रतिपादित वस्तु अपूर्ण रह जाती है।
नीबू खट्टा भी है, सुगन्धित भी है और है पीला भी। २ अनेकान्त
उसमें चार धर्म हैं । यद्यपि भोजन के समय में सिर्फ उस अन्त :दका अथ धर्म या गुण है। प्रत्येक पदार्थमें के खनको प्रावश्यकता है और जी मचलानके सम्य अनेक धर्म रहा करते हैं। उन सभी धमाका योग्य समन्वय सगन्धित होनेवी। परन्त इसमे यह नहीं कहा जा सकता के साथ अम्तिाव प्रतिपादन क ना ही 'अनेकान्त' कहलाता
कि नीबू में भोजन के समय खट्टेपनको छोड़ कर और कोई है। यदि अनेक धर्मवाली वस्तु के किसी एक खास धर्मको
गण नहीं है। हैं अवश्य, परन्तु अावश्यकता न होने * अदिमा भूताना जगति विदित ब्रह्म परमम्'
उन्हें गौण कर दिया जाता है । नयवादसे एक समय में -स्वयंभूपत्र ममन्तभद्रस्य एक पदार्थका एक ही धर्म कहा जा सकता है परन्तु उस अात्मपरिगामहिमन द्वेतुत्वात्मवमवास्मिनत् । समय दूसरे धर्मका प्रभाव नहीं मानना चाहिये और नहीं अमृतवचनादिवे बलमुदाहृतं शियबोधाय ।। दोनों धर्मों परस्परमें निरपेक्ष होकर वर्णन करना चाहिये।
-पुरुषार्थमिद्धय पाये श्रम चन्द्रस्य मनुष्य दो पैरोमे चलता है, वह दक्षिण पैरपे चलते
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अनेकान्न
वाम वैरको पीछे कर लेता है और वाम देश्मे ख दक्षिणको पीछे कर लेना है परन्तु दोनों कैस
आवश्यक है | वह दोनों पैरों एक साथ भी नही चल सकता और न एकको निष्क्रिय कर सिर्फ दूपरसे ही चल सकता है। इसी प्रकार पदार्थ निरूपण मे हव्यदृष्टि और पर्यायदृष्टि आदि अनेक दृष्टियों काम करनी हैं।
यह अनेकान्त जीवन के प्रत्येक क्षण में काम चानेवाला सिद्धान्त है। इसके विना मानवका एक क्षण भी काम मडी चल सक्सा, इसलिये इसका वास्तविक स्वरूप समझ कर उसे जीवन घटिन करनेका उद्योग करना चाहिये। यदि हम अनेकाका ठीक ठीक स्वरूप समतो परस्पर की तू-तू मैं मैं भी ही शान्त हो जाये । हम आपके दृष्टिकोणको मम और आप हमारे दृष्टिकोयाको समझ जं तथा उनका उपयोग अपनी अपनी आवश्यकताथोके ऊपर छोड़ दें तो विरोध ही क्या रह जाता है ? हमारा तो विश्वास है कि जैसी अनेकाला भाविर्भाव इमी लिये किया है कि सबके सब मित्र रहे सब सबके दृष्टि - जैनधर्मकी विभेदको मममनेकायन करें। धर्म
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तर बौद्धधर्म भी वैराग्यप्रधान धर्म है। उसने वैराग्यका प्रतिपादन करनेके लिये आसक्तिका अभाव करनेके लिये मारके प्रत्येक पदार्थको अनित्य माना है और सांख्यधर्म ज्ञानप्रधान धर्म है। उसने थामा और परपदार्थका -- पुरुष और प्रकृतिका ठीक ठीक विश्लेषण कर उनका यथार्थ ज्ञान प्राप्त करने उपदेश दिया है। इसलिये प्रत्येक पदार्थको निष्य मानना है बड़ा अभिप्राय पर्या
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है और साख्यका अभिप्राय द्रव्यदृष्टिसे है । एकान्त ठ पत्र जानेसे दोनो एक दूसरे विश्व हो जाते है परन्तु जैन धर्म द्रव्य और पर्याय दोनों धनीको अपनाकर दोनों का समन्वय कर देना है । वाग्नयमे यह श्रनेकान्ती जैनागमका जीव है-प्राण है और समन विरोधी दूर करनेवाला है।
परमागमस्य जीवनपद्धजा पन्धमिधुरविधानम् । सफल नवलसिताना निरोधमयनं नमान्यनेकान्तम् । गुरुणामिव गये अमृतचन्द्राचा
[ वर्ष ७
३ स्वतन्त्रता
जैन धर्मकी तीसरी विशेषता है स्वतन्त्रता । जहां धन्य धर्मो जीवको प्रत्येक कार्यमे- निर्वाण प्राप्त करनेमें भी ईश्वरके परतन्त्र माना है वहां जैनधर्ममें जीवको स्वतन्त्र माना है । यहाँ इस बातकी घोषणा की गई है कि संसार सभी प्राणी जीवम्व नावे समान है। संसारका प्रत्येक प्राणी 'सच्चिदानन्द बन्द' है। जो जीव आज निगोद पर्याय में रह कर एक श्वासमे अठारह वार जन्म मरणकं दुख उठा रहा है वही कालान्तर में अजर अमर हो स परमेष्ठी हो सकता है।
जैनधर्ममं जीवके बहिगमा अन्तरात्मा और परमात्माक भेदमे तीन भेद बतलाये गये हैं। जो जीव और शरीरको एक ही मानना है- शरीरको ही श्रात्मा मानता है-वह बहि रामा है। जो आत्मा और शरीरको भिन्न भिन्न अनुभव करना है वह अन्तरात्मा है और जो कर्ममलको नष्ट कर उत्कृष्ट अवस्था प्राप्त कर लेता है वह परमात्मा कहलाता है। जब कि अन्य धर्मो परमात्माकी मत्ता अलग मानी गई हैन जैनधर्ममे यह बताया गया है कि बदमा जीव ही अपनी सतत माघनामे श्रन्तरामा बनता है और वही कर्मावरण दूर होने पर परमामा बन जाता है। इस परमात्माके सिवाय जैनधर्म किसी अन्य ईश्वरकी सत्ता स्त्रीकृत नहीं करता ।
जैन शास्त्रों धर्म पार कर सकते हैं की बार सभाओमे देव देवियों तथा मनुष्य और महिलायोंके लिये स्थान दिया गया है वहीं पशुपक्षियोंके लिये भी स्थान दिया गया है। प्रकार राम-दिन जिस सुख शान्तिवदेन सम्यग्दर्शन धारण कर सकते हैं उसी प्रकार रात दिन मारकाटके बीच रहने वाले सप्तम नरक्के नारकी भ) सम्यग्दर्शन धारण कर सकते हैं। जैनधर्म समारा धर्म है। वह किसी प्रमुख जाति अथवा योनिके श्राधीन नहीं है। प्रत्येक प्राणी अपनी योग्यता के अनुसार धारण कर इसमें लाभ उठा सकता है। जैनधर्मका र सिद्धान्त है कि गुण पूजाके स्थान है' । जिम लामामे जितने अधिक गुण विकसित होंगे वह उतना
है कि पशु पक्षी भी भगवान्के
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किरण ३-४]
जैनधर्मकी चार विशेषताएँ
ही अधिक पूज्य होगा। भले ही वह किसी जाति अथवा सूत भी रखना पाप बताया है। जिस प्राणीका अन्तरङ्ग किसी योनिका क्यों न हो?
बाबा पदार्थोसे जितना अधिक ममता-रहित होता जावेगा करणानुयोगमें द्रव्यलिंगी मिथ्याष्टि मुनिकी अपेक्षा
वह उतना ही अधिक परिग्रहका त्याग करता जायेगा। सम्यग्दृष्टि तिर्यञ्चको अधिक मूज्य बतलाया गया है। व्य. याप पूर्ण अपरिग्रह मुनि अवस्थामें ही हो सकता है तो लिङ्गी सुनिके जहां बन्धयोग्य समस्त कर्मप्रकृतियोंका
भी उसका यह अर्थ नहीं है कि हम गृहस्थाको उसका कुछ प्रास्रव होता है वहां अविरतसम्यग्दृष्टि तिर्यमके भी परित्याग नहीं करना चाहिये । जो पूर्ण परिग्रहका त्याग प्रकृतियोंका पासव रुक जाता है। जैनधर्मका यह प्रमाणित नहीं कर सकते ऐसे गृहस्थोंके लिये भागोंने परिङ्गहसिद्धान्त है कि संसारका प्रत्येक प्राणी 'ग्रामहित-साधनमें परिमाण भगुवतका उपदेश दिया है। स्वतन्त्र है। हम स्वय पुरुषार्थके द्वारा अपने प्रारभाको परिग्रहपरिमाण व्रतका सच्चा रहस्य यह है कि किसी समुन्नत बना सकते हैं और प्रालस्य-अकर्मण्यताय श्रव को आवश्यकतामे अधिक परिग्रह-धनसम्पत्तिका स्वामी नत बना सकते हैं । यही दृष्टि हृदयमे रख कर कहा गया है नहीं बनना चाहिये । जैसे शरीर में एक जगह मावश्यकतासे कि 'पारमा ही प्रामाका बन्धु है और प्रारमा ही प्रामाका अधिक रक्त रूक जानेस शरीरकं अन्य भङ्ग निविष्य होजाते शन है'। इस प्रकार हम देखते हैं कि जैनधर्ममे प्रारम- हैं उसी प्रकार एक जगह आवश्यकतासे अधिक रुक जानेसे स्वातन्त्र्य पर जितना जोर दिया गया है उतना अन्य धर्मों ससारके अन्य प्राणी उसके बिना निस्क्रिय हो जाते हैं। मे नही दिया गया है। वहाँ या तो सब कुछ ईश्वरके हाथ जिम प्रक र रक्तका श्रावश्यक संचार होते रहनेसे ही शरीर मे सोंप दिया गया है या फिर ईश्वरका बहिष्कार ही कर की व्यवस्था ठीक रह सकती है उसी प्रकार परिग्रह-धन दिया है।
सम्पदाका श्रावश्यक सगर होते रहनेसे ही संसारके समस्त ४ अपरिग्रहवाद
लोगोंकी व्यवस्था ठीक रह सकती है। इसके सिवाय परिऊपर बतलाया गया है कि परिग्रह रागद्वेषकी उत्पत्ति.
ग्रहका परिमाण र ले नेसं इच्छाभोंकी उद्दाम प्रवृत्ति रुक का कारण है और राग-द्वेषका उत्पन्न होना ही हिमा है, इस
जाने के कारण तत्काल ही प्रानन्दका अनुमय होने लगता लिये जो सच्चा अहिंसक बनना चाहता है वह परिग्रह के
है। भाजके साम्यवादकी जद मे जैनधर्मका यह अपरिग्रहसंपर्कमे नर रहे। परिग्रहका श्रर्थ है पर पदार्थोंमे ममता वाद ही पानी दे रहा है। भाव । इमीको कहते हैं मूछी । शान्त बिच विचार करने भगवान् महावीर स्वामी के द्वारा प्रवाहित जैनधर्ममें पर यह परिग्रह ही दुबका कारगा मालूम होता है। इसी यही प्रमुम्य विशेषताए हैं जो भाकीय इतर धर्मोंमे इसका लिये जैनधर्ममे इसके छोडनेका अधिकमे अधिक उपदेश पृथक और उच्च स्थान बनाये हुए हैं। दिया है। इतना अधिक, कि मुनि अवस्थामे शरीर पर एक वमन्त कुटीर, मागर
संशोधनकी आवश्यक सूचना भाई कौशनप्रमाद के स्पष्टीकरगा' नामक वक्तर से अन्यत्र प्रकाशित है मालूम हाकि प्रमाचन्द्र क तत्वार्थस्त्रकी प्रस्तावनामे जो कोटा' वगा है वह गलत उम के स्थानर बूदी' 'ना चाहिये। अत: जिन मजनोंक पाम उक्त तत्वार्थसूत्रकी कोई प्रति हो उनमे निवेदन है कि वे अपनी उम प्रतिको प्रस्तावनाके ७ व पृष्ट पर २० वी पंक्ति में दो जगह और 4 वें पृष्ठकी ४ था पंक्ति में एक जगह पर जहां कोटा छपा हे बदा 'बूंदा' बना लेनेकी कृपा करें। सम्पादक
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समन्तभद्रका एक और परिचय-पद्य
[ सम्पादकीय ]
स्वामी ममन्तभद्र के प्रात्म-परिचय-विषयक अभी तक श्राचार्योहं कविरहमहं वादिराद पंडितोहं दो ही ऐम पद्य मिल रहे थे जो रानसभायोंमें राजाको दैवज्ञोहं भिषगहमह मांत्रिकस्तांत्रिकोहं । मम्बोधन कर के कहे गये है-एक 'पूर्व पाटलिपुत्रमध्यनगरे ___ राजन्नस्यां जलधिवलयामेखलायामिलायाभेरी मया नाडिना'* . मका है, जो करहाटकको गनसभामें आज्ञःसिद्धः किमिति बहुना सिद्धमारस्वतोहं ॥३॥ अपनी पूर्ववाद-घोषणााका उल्लेख करते हुए कहा गया इस पद्यमे वणित प्रथम तीन विशेषण-श्राचार्य, था और दूमग 'काच्या नग्नाटकादं'। इम वापसे प्रारंभ कवि और वादिराट--तो पहलेमे परिज्ञात हैं-अनेक पूर्वाहोता है जो किमी दूसरी राजसभामे कटा हुअा जान पटना चार्योके वाक्यों, ग्रन्यो तथा शिलालेग्योम इनका उल्लेख है और जिसमें विभिन्न स्थानोपर अपने विभिन्न माधुवेषोका मिलना है। चौथा 'पंडित' विशेषण अाजकल के व्यवहार उल्लेख करते हुए अपनेका जैननिHथवादी प्रकट किया है में 'कवि' विशेषरणकी तरद भले ही कुछ माधारण ममझा
और माथ ही यह चैलेंज किया है कि जिम किसी की भी जाता हो परन्तु उस समय काबके मुख्यकी तरह उमका भी वाद की शक्ति हो वह मामाने श्राकर बाद बरे।
बड़ा मूल्य था और वह प्राय: गमक ( शास्त्रोके मर्म एवं हालम समन्तभद्र-भारतीका मशोधन करते हुए, रहस्यको ममझने और दूमरीको समझानेम निपण ) जैसे स्वयमस्तोत्र पाचन प्रतियोको खोनम, मझे देहलाके विद्वानोके लिये प्रयुक्त होना था । भगवा जनसेनाचार्यने पंचायती मन्दिरम एक ऐमा निजाम्-शार्ग गुटका मिला ग्रादि पुराण में मभन्नभद्र के यशको कवियो, गमको. वादिया है जिसके पत्र उलटने पटने दिकी जरा मी भी श्रमाव- और वाग्मियों के मस्तकका चूनामरिण बतलाया है + और धानीको मदन नहीं कर सकते। इस गुट केके अनगिन सयंभ हमके द्वारा यह मचिन किया है कि उम ममय निनने कनि स्तोत्रके अन्नग उक्त दानी यथाक्रम पद्यों के अन्तर एम. गमकनादी और वाग्मी थे उनमबार समन्तभद्र के यशकी छाया तीमरा पद्य और मगृत है, जिमग स्वामीजीके पारचय- पड़ी हुई धी-उनमे कवित्व, गमकत्व,वादिव और वाग्मिल विषयक दम विशेषग उपनगदत है और वे है- नामके ये चारो गुण असाधारण काटिके विमामको प्रान हुए थे, १ श्राचार्य, २ कवि, ३ वादगट , ४ पण्डित, ५ दैवज और इसलिये पंडित विशेषण यहो गमकत्व में गंगा (ज्योतिर्विद , ६सय दि) ७ अन्त्रिा. (भत्रतिशेषन), विशेषका गोतक है। शेष मब विशेषण इस पयर द्वारा प्राय: ८ तान्त्रिक (नंशेिषज्ञ), प्राशामा और मिड- नये ही कामे पार हैं और उनमें ज्यातिप, वैद्यक, मत्र सारस्वन । १८ पय :म प्रकार है :
और तत्र जेम विषयोमे भी ममन्तभद्र की निपणताका पता * पूर्व पाटापत्रमध्यनगर भेग मया ताडि
चलता है । रत्नकरण्डश्रावकाचारमे अंगहीन सम्यग्दर्शनको पश्चानमाल समन्धुटक्कानपये काचीपर बदिशे।
जन्मान्त तक छेद में असमर्थ बत नाते हुए, नो विषवेदना प्राप्तोऽहं करहाटक बहुमट चिोकटं संकटं,
के दरनेम न्यूनाक्षरमंत्रकी अममर्थताका उदाहरण दिया है वादार्थी विचराय नपत ! शार्दलावक डिम
वह और शिलालेग्नी तथा ग्रन्याम 'स्वमत्रवचन-व्याहनकाच्या नग्नाटकोऽदं मलमालनगनुर्नाम्बुशे पाण्डुनि:: देखो, बार मेवामन्दिरसे प्रकाशिन 'मत्माधुम्मरगामंगलपाठ' पुण्ड्रोई शाक्यभिक्षुर्दशपर नगरे मृ(भिष्टभोजी पारबा। में स्वामिसमन्तभद्र स्मरण'। वाराणस्यामभूव शशि(श)धरधवल: पाण्डुरांगस्तपस्वी, + कवीना गमकाना च वादीना वाग्मिनामपि । राजन् ! यस्यास्ति शांत: मरदतु पुरतो जैना..प्रथवादी॥ यश: सामन्तभद्रामि मूनि चूडामणीपते।
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किरण ३-४
समन्तभद्रका एक और परिचय-पद्य
चन्दनमः' जैसे वाक्योका जो प्रयोग पाया जाता है वह मब उन सब कयनोकी पनि भी हग मिद्धमारस्वत' विशेषणसे भी श्रापक मंत्रविशेषज्ञ तथा मंत्रवादी होनेका सूचक है। भले प्रकार हो जाती है। अथवा यो कहिये कि श्रापकं 'मांत्रिक' विशेषणते अब समन्तभद्रकी वह सरस्वती (वाग्देवी जिनवाणीमातार्थ: उनमय कथनोंकी यथार्थताको अच्छा पोषण मिलता है। जिमकी अनेकान्तदृष्टिद्वारा अनन्य भागधना करके उन्होन घर हैवी शताब्दीके विद्वान् उग्रादित्याचार्यने अपने अग्नी वाशीमे वह अतिशय प्राप्त किया था जिमफे भागे कल्यागाकारक' वैद्यक अन्यमे 'अष्टाद्गमणनिलमत्र ममान- मभी नतमस्तक हात ध श्रोर जीशान भी महृदय विद्वानो भद्रः प्रोक्तं सविस्तरवचौविभवैविशेष त्' इत्यादि पद्य (२०- को उनकी श्रीर श्रापित किये हुए है। ८६) के द्वाग ममन्तभद्रकी अष्टग वेयकावषयपर विस्तृत
___यहाँपर में इतना और भी बतला देना चाह है कि रचनाका जो उल्लेख किया है उसको टाक बतलानेमे
उक्त गुटकेमे जो दूसरे दो पद्य पाये जाते हैं उनमें फही कही 'भषक' विशेषण अच्छा महायक जान पड़ता है।
कुछ पाठभेद भी उपलब्ध होता है, जैसे कि प्रथम पद्यम अन्त के दो विशेषण प्राशामिद' और मिद्धमारस्वत' ताडिता'की जगह त्राटतादर्श'की जगह बहुशे बहभट 31 बहुत ही महत्त्वपूर्ण है और उनसे स्वामी समन्तभद्रका विद्योत्कटं' की जगह 'बहुमटविद्याकट: और 'शादीअमाधारण व्यक्तित्व बहुन कुछ मामने या जाता है। विक्रीडित' के स्थानपर 'शा लवक्रीडितु' पाठ मिलता।
मिशेषणा प्रस्तुत करते हुए रवानाजा गजाको मम्बा- दुमरे ५द्यम 'काच्या' की जगह 'कान्या' 'लाबुशे' की जगह चन करते हुए कहते है। --हे गजन् ! में हम ममुद्र लाबुम', 'पुडोका जगद 'पिडा , 'शाकभिन्नः' का ए । पृजीर आशासिद्ध' है-जो प्रादश: वही हाना है। जगह 'शाकभक्षा, वागगगस्समभूव' की जगह बागगाम्या पार अधिक क्या कहा जाय ' उमारस्वन' हूँ- बम', 'शशाधवल:' की जगह 'शशधाधरला' और स्विनी मुझे मि । म सरस्वताका मद्धि अथवा परयास्ति' की जगह 'जस्याम' पाठ पाया जाता है। हम पचनाागदी ममन्तभद्रकी जम मकालनाना सारा रहस्य पाटभदोमन छ तो माधारण है, कुछ लेपकाकी लिपिको समितिजा स्थान स्थानपर वादोषणा वगैरर उन्हें अशुद्धि के परिणाम जान परतं और कुछ मालिक म' मान ईनी अगना एक शिलालेग्वक कथनानुमार धीर दोगुकते। 'शामिनुः' की जगह 'शासमती' जैमा
जोन्द्र के शामाता की हमारण) डि रने रूपम पाटभेद विचारणीय देशमारक प्रमानन्द्र और प्रधान मदन Inम प्राव कर मवे. थx |
के कथानापाम जिम प्रकार मभन्तभद्रकी कयादा उमक. अनेक विद्वानाने भरस्वती स्वरनि:मय:' जैम पदो अनुमार ता पद 'शामिन.ही बनना है, पर यह भी हा के द्वारा मन भद्र का जो मरतीकी मछन्दावहारभूमि मकना है कि उम घाट के कारण ही कथाको वेगा रूप दिया पकट किया है और उनके रच हुए प्रबन्ध ( अन्य )रूप गया दो बार वह भोनी परिबाट' में मिलता जलता
नल मर मरती कीग करती हुई बतलाया हे* शाकमीज, परिवादका बानो । बु.न माटो, अभी . दो, मत्मारा गयगलपाट पृ० ३४, ४६ | निक्रितरूपमे एक बात नदी का मकना । मावश्यम देवो, बेल्लूग्नाल्नु फका शिलालेग्य नं. १७ (r c.v.)
अधिक बोजकी श्रावश्याना है। नया ममा चुस्मरणमंगल गट, पृ. ५१
बीग्सवामन्दिर, सरमाया
बा०२-१२-१६४४
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साहित्य-परिचय और समालोचन
१ षट्खण्डागम (धवला टीका हिन्दी अनुवाद यशपाल जैन बी. ए. एल. एल. बी. कुटेश्वर । प्रकासहित)-मूल लेखक, भगवान पुष्पदंत भूलबली। टीका- शक, प. नाथूगमजी प्रेमी मालिक हिन्दी ग्रंथ रत्नाकर कार प्राचार्य वीरसेन । सम्पादक, प्रो. हीरालालजी जैन कार्यालय हीराबाग, बम्बई नं.४। पृष्ठ संख्या १८।। एम. ए. अमरावती। प्रकाशक, श्रीमंतसेठ सितावराय मूल्य, चार श्रीसू। नचमीचद जैन साहित्योद्धारक फंड, अमरावती । पृष्ठ संख्या प्रस्तुत पुस्तक स्वर्गीय हेमचन्दजी मोदीके संस्मरणों ५६६ । मूल्य सजिल्द प्रति १०) शास्त्राकारका १२)। और उनके जीवन परिचयके रूप में प्रकाशित हुई है। इस ___ यह षट् खण्डागमके जीवट्ठाण नामक प्रथमखंडकी की प्रस्तावनाके लेखक पं० बनारसीदासजी चतुर्वेदी हैं। छठी पुस्तक है। इसमे उक्त खंडकी नौ चूलिकामोंको दिया हेमचन्द्र कितना योग्य विद्वान, गम्भीर विचारक और स्पष्ट गया है जिनके नाम इस प्रकार हैं-१ प्रकृतिमयुरकीर्तन, वादी था. यह बात उसके साथ सम्पर्क रखने वाले मनन २ स्थानसमुत्कीर्तन, ३ प्रथमदंडक, ४ द्वितीयदंडक, तृतीय तो जानते ही हैं किंतु ओ लोग उसके इन संस्मरणों और महा दंडक ६ उत्कृष्ट स्थिति ७ जघन्य स्थिति ८ सम्य- संकलित पत्रोंको पढ़ेंगे वे भी उमसे परिचित हुए बिना न क्योपत्ति है और गत्यागति । इन चूलिकाओंका संक्षिप्त रहेंगे। इस पुस्तकमे ४ लेख या सस्मरण विभिन्न विद्वानी परिचय 'विषय-परिचय' शीर्षकके नीचे प्रस्तावमामें दिया द्वारा लिखे गए हैं, प्रत्येक लेखकने हेमचद्रके व्यक्तिवके विषय गया है।
मे प्रकाश डालनेका प्रयत्न किया है और कुछ लेम्बकोंको छोड़इस पुस्तकका अध्यन करनेसे सम्यक्त्यके सम्मुख जीव कर सभीने उसकी स्पष्ट वादित्ताको स्वीकार किया है । प्रेमी की परिणति, उसके कर्मबन्धादि, तथा सम्यक्त्वकी उत्पत्ति जीके लेखकी घटना तो उसके स्पष्टवादी होनेका और भी किस प्रकार होती है और उसके परिणामोंमे उत्तरोत्तर समर्थन करती ही है। प्रेमीजाके लेखको पढ़कर असमय में कितनी विशुद्धि निरंतर बढ़ती रहती है इसका विशद हुई पुत्र-वियोग जन्य वेदना की एक टीम हृदयमें घर कर वर्णन श्राचार्य वीरसनने किया है। साथ ही कर्मोपशमना जाती है और उससे प्रेमीजीकी इस वृद्धावस्थामें सहसा
और क्षपणाका विधान भी रुचिकर दिया हुश्रा है। उमगे बापरे दुःखका अन्दाजा लगाया जा सकता है। हेमचन्द्रकी इसकी प्रमेय बहुलताका पता सहज ही लग जाता है। मौलिक साहित्यके निर्माण की भावना कितनी उच्च और पिछले खंडोंकी अपेक्षा स्वाध्याय प्रेमियोको इस खडके साहित्यिक जगतमे क्रान्ति लाने वाली थी यह उनके कतिपय अध्ययन और चिंतनमें तथा प्राचार्य नेमिचक्र लब्धिसार- सजनाको लिखे गये परोसे स्पष्ट जानी जाती है। प्रेमीजी सपणासारको सामने रख कर तुलनात्मक दृष्टिसे अध्ययन यदि हेमचन्द्रको उत्साह दिलाते तो बहुत मभव था कि वह करनेसे विशेष रस पाये बिना न रहेगा। अनुवाद अच्छ। अपने इतने अल्प जीवन में ही जगतके लिये अरछे विचारहुना है. और विशेषार्थों द्वारा विषयको और भी स्पष्ट कर पूर्ण माहित्यको स्पष्टी कर जाता। अब तो जितने साहित्य दिया गया है। ग्रंथके अंतमें ६ निम्नपरिशिष्ट दिये हुए हैं। का वह निर्माण कर गया है उसी पर संतोष करना होगा। सूत्र पाठ२ अवतरण गाथा सूची३ न्यायोक्तियां४ ग्रंथोल्लेख यह जान कर प्रसन्नता हुई कि प्रेमीजी हेमचन्द्र के सभी २ पारिभाषिक शब्द-सूची ६ विशेष टिप्पण । इनसे प्रस्तुत साहित्यको प्रकाशित करेंगे। इस पस्तवका प्रकाशन, अच्छा प्रथकी उपयोगिता अधिक बढ़ गई है। छपाई सफाई सभी हाई और वह इतने गंचा टगमे यकलिन हुई है कि पूर्ववत् है, ग्रंथसंग्रहणीय और पठनीय है।
जो भी व्यक्ति से पढ़ेगा वह हेमचन्द्र के लिये चार सामू २ स्वर्गीय हेमचन्द्र-सम्राहक और सम्पादक, वा० बहाये बिना न रहेगा।
परमानन्द जैन शास्त्री
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क्या रत्नकरण्डके कर्ता स्वामी समन्तभद्र ही हैं ?
(ले० श्री ५० नाथूराम 'प्रेमी )
रत्नकरण्ड-श्रावकाचार बहुत ही प्रसिद्ध ग्रन्थ है। यद्यपि इसके लिए हस्तलिखित प्रतियोंका कोई प्रमाण यद्यपि उसमे कही भी कर्ताका नाम नहीं दिया है, फिर भी अभी तक उपलब्ध नहीं हुमा है, तो भी, दोनोंको एक परम्परासे यही माना जा रहा है कि प्राप्तमामांसा, वृहत्स्व. साथ रखने पर भी. स्वामी और योगीन्द्रको एक नहीं किया यंभु-स्तोत्र श्रादि के कर्ता स्वामी समन्तभद्र ही इसके कर्ता जा सकता और न उनवा सम्बन्ध ही ठीक बैठता है। इस है । परन्तु वादिराजसुरिने अपने पार्श्वनाथ-चरितके प्रारभमे के सिवाय तीनों श्लोक अलग अलग अपने आपमे परिपूर्ण पूर्वाचार्योंका जो स्तवन किया है उससे मालूम होता है कि हैं, वे एक दूसरेकी अपेक्षा नही रखते, तीनों में एक एक दोनों एक नहीं हैं। वे कहते हैं
प्राचार्यकी स्वतंत्र प्रशस्ति है। स्वामिनश्चरितं तम्य वस्य नो विम्मयावहं । एक बात और भी ध्यान देनेकी यह है कि वादिराजने देवागमेन सर्वज्ञो येनाद्यापि प्रदर्श्यते ॥१७ श्लोक नं० १६ से ३० तक १५ श्लोकोंमे पूर्ववर्ती १५ ही अचिन्त्यमहिमा देवः माऽभिवन्द्यो हितपणा। प्राचार्योका या कवियोका स्मरण किया है. अर्थात् प्रत्येकके शब्दाश्च येन सिद्धयन्ति माधुत्वं प्रतिभिताः॥१८ लिए उन्होंने पूरा पूरा एक ही श्लोक, अपने आपमें सम्पूर्ण त्यागी म एव योगीन्द्रो येनाशय्यमुग्यावहः। दिया है। कही भी इस क्रमको भंग नहीं किया है । तब अर्थिने भव्यमार्थाय दिष्टो रत्नकरण्डकः ।।१६ उक्त दो श्लोकों में एक ही समन्तभद्रकी स्तुति की होगी,
इन तीन श्लोकामे 'स्वामी', 'देव' और 'योगीन्द्र' इन यह नहीं हो सकता। नीन पृथक पृथक प्राचार्योकी स्तुति की गई है। इनमसे जिस तरह 'स्वामी' नाम नही है उपपद है, उसी पडले 'स्वामी' तो समन्तभद्र हैं जो देवागम (प्राप्तमीमांसा) तरह योगीन्द्र भी नाम नहीं है। असली नाम रनकरराटक के कर्ना हैं । और भी अनेक विद्वानांने इन्हें स्वामी शब्दमे कर्ताका भी समन्तभद्र हो सकता है, जो स्वामी समन्तभद्र म्मरण किया है। दूसरे देव जैनेन्द्र व्याकरणके कर्ता देव- से पृथक् शायद दूसरे ही समन्तभद्र हो। नन्दि हैं और उन्हें उनके नामके एक देशसे उहिखित किया यह स्मरण रखना चाहिए कि वादिराजसूरिने पार्श्वहै। कहा है कि जिनके द्वारा शब्द साधुताको ग्रहण करके सिद्ध नाथ चरित शक सं० ६४७ (वि० सं० १०८२) में समाप्त हो जाते हैं, वे अचिन्ननीय महिमा वाले 'देव' बन्दनीय हैं। किया या, और वे बड़े भारी विद्वान थे। उनके समक्ष अवश्य ही ये शब्दशास्त्रके कर्ता देवनन्दिही हैं। तीसरे श्लोक अवश्य ही देवागमके कर्ता और स्नकरण्डके कर्माको के 'गोगीन्द्र अक्षय मुम्बके दाना 'नकरण्ड' के का है। पृयश्वका कोई प्रमागा या कोई अनुश्रति होगी और इस तीनामें कथिाक स्पष्ट पुरे नाम न देकर सकेन या उनके लिए जब तक उनके पदलेका दानाकी एकताका कोई दूसरा विशेषण दिये हैं. फिर भी गुगा गणनमे व स्पष्ट हो जाते हैं। प्रमाण न मिल जाय, तब तक उनके कथन पर एकाएक
तीनी श्लोक अलग अलग नीन ग्रन्थकर्ताओं का स्मरण अविश्वास नहीं किया जा सकता। करते हैं और साथ ही उनके प्रथाका संकेत | बीच में देव. *स्व० गुरुजी (पं. पन्नालाल बाकलापाल) ने जयपरके नान्द : अनएन पहना और तीसरे श्लोकमे स्मृत 'स्वामी' ग्रन्यमंडागेके ग्रन्या के कुछ प्रारंभिक अंश और अन्यऔर योगीन्द्र' एक नहीं हो सकते। यदि यह कल्पना की प्रशस्निया भेजी थी उनमें वादिगज कृत पाश्वनाथ-चरिन जाय कि पहले इलेकिके बाद ही तीसरा श्लोक होगा, का प्रारंभिक अंश भी है। उममें उक्त तीन श्लोकोका बीचका श्लोक गल्तीये तीसरेकी जगह छप गया होगा-- वही कम है, जो मा० अ० मानाकी छपी हुई प्रतिम है।
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अनेकान्त
[वष ७
देवागमादिके कर्ता और पस्नकरण्डके कर्ता अपनी भी समन्तभद्र था, परन्तु स्वामी समन्तभद्रमे अपनेको रचनाशैली और विषयकी दृष्टिमे भी एक नहीं मालूम होते। पृथक् बतलानेके लिए इन्होंने प्रापको 'लघु' विशेषण एक तो महान् तार्किक हैं और दूसरे धर्मशास्त्री। जिनमेन सहित लिखा है।
आदि प्राचीन श्राचार्योंने उन्हें वादी वाग्मी गमक और यहाँ यह स्पष्ट कर देना आवश्यक है कि पं. पाशाधर तार्किकके रूप में ही उल्लेख किया है. धर्मशास्त्रीके रूपमें श्रादि पिछले विद्वानोने स्वामी समन्तभद्रको ही रत्नकरण्ड नहीं। योगीन्द्र जैमा विशेषण तो उन्हें कहीं भी नहीं का कर्ता माना है। इसके पहलेके विद्वानोंमेमे किस किसने दिया गया।
माना है, इसकी खोज होनी चाहिए। ममन्तभद्र नामके धारण करने वाले विद्वान् और भी प्राप्तमीमामा श्रादिक का ही रनकरण्डके कर्ता हैं. अनेक हो गये हैं जैसे कि अष्टमहस्त्री विषमपदतात्पर्य वादिराजसूरि इस बातको नहीं मानते थे और इसीको स्पष्ट वृत्तिके कर्ता, जो म. म. सतीश चन्द्र विद्याभूषणके अनु. करने के लिए यह नोट लिखा गया है। दोनों को एक विद्ध सार ई. स. १००० के लगभग हुए हैं। नाम तो इनका करनेके लिए अब अन्य प्रमाण आवश्यक हो गये हैं।
रत्नकरण्डश्रावकाचार और प्राप्तमीमांसाका कर्तृत्व
(ले०-प्रो० हीरालाल जैन एम० ए० )
मैंने अपने 'जैन इतिहासका एक विलुप्त अध्याय' करण्डको स्वामी समन्तभद्रकी कृति नहीं मान रहे हैं।" शीर्षक निबन्धमें जो बातें प्रस्तुन की हैं उन पर दो लेख मुझे अाश्चर्य है कि उल्लिखित पंक्तियोंके अन्तर्गत कानपी न्यायाचार्य प. दरबारीलालजी जैन काठियाके अनेकान्त मान्यताको छोड़ देने का न्य याचार्य जीको भ्रम हुआ है। भा० ६ किरण नं. १०-११ तथा १२ इन दो अंकोंमें मैंने जो वहां स्वामी समन्तभद्र कृत स्नकरगड श्रावकार निकल चुके हैं। उनके पहले लेखका शीर्षक है "क्या को एक प्राचीन, उत्तम और मुघमिद्ध ग्रथ कहा है वह में नियुक्तिकार भद्रबाहु और स्वामी समन्तभद्र एक हैं ?" अाज भी मानता हूँ। वादिराजसूग्नेि नये अक्षय मुग्यावह एवं दूसरे लेखका शीर्षक है "क्या ररनकरण्डश्रावकाचार और प्रभाचन्दने अखिलसागार धर्मको प्रकाशित करन वाला स्वामी समन्तभद्रकी कृति नहीं है ?" चूकि दूसरे लेखका सूर्य कहा है। उसमे भी अभी तक मुझे कोई आपत्ति नती विषय हमारी चिन्तनधाराम अधिक निकटवर्ती है अतएव दिखाई देती। उसके पश्चात् अब यदि मैंने कोई यान श्रीर पहले उमी पर यहाँ निचार किया जाता है। इस विषयका अधिक कही है तो केवल यह कि इस रत्नकरगड श्रायका निर्णय हो जानेके पश्चात ही प्रथम लेख सम्बन्धी विषय पर चारके कर्ता स्वामी समन्तभद्र और प्राप्तमीमांमाके कर्ता विचार करना उचित होगा।
स्वामी समन्तभद्र एक ही व्यकि नही प्रतीत होते । यदि लेखके प्रादिमें ही पंडितजीने मेरे द्वारा पटग्य डागम- मैंने उन पूर्व पक्तियों में प्राप्तमीमामा और रनकरगडके जीवस्थानके क्षेत्रस्पर्शनादिकी प्रस्तावना पृष्ट १२ पर लिखित ___ एक कवकी कोई बात कही होती तब तो न्यायाचार्यजी उन पक्तियोको उद्धन किया है जिनमे मैंने नकरण्ड- का उस कथनके आधारसे मुझ पर कोई मान्यता छोड़ देने श्रावकाचारका उल्लेख किया था और उस परमे पडितजी का श्राक्षेप न्याययुक्त था। किन्तु जब मैंने उन पनि योम ने यह भाक्षेप किया है कि "मालूम होता है कि प्रो० मा. दो प्रयोके एक कर्तृत्वका कोई विधान ही नहीं दिया तय ने अपनी वह पूर्व मान्यता छोड्दी है और इसी लिये रत्न- न्यायाचार्यजीका मुझ पर यह प्राक्षेप सर्वधा निर्मूल और
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किरण १, २]
रत्नकरण्डश्रावकाचार और प्रात्ममामांसाका कतृत्व
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निराधार सिद्ध होता है। यद्यपि गवेषणाके क्षेत्रमें नये कामवश्यो। उन दोषका केवलीमें प्रभाव समीको स्वीकृत अाधारोंके प्रकाशसे मतपरिवर्तन कोई दोष नहीं है किन्तु है। अब प्रश्न रह जाता। कंबल जुधा, पिपासा, जरा, किसी कथनविशेष परसे निराधार धाक्षेष उपस्थित करना, प्रातङ्क (व्याधि) जन्म और अन्सक (मृत्यु)का। ये दोष कमसे कम न्यायाचार्यजी द्वारा, उचित नहीं कहा जा उन शेष कर्मोंक द्वारा उत्पन्न होते हैं जिनका केवली में मत्व सकता।
और उदय दोनों वर्तमान रहते हैं, अतएव इनका उनमें इसके पश्चात् पंडितजीने क्रमश:-(१) रत्नमाला प्रभाव माननेसे एक सैद्धान्तिक करिनाई उपस्थित होती और रत्नकरण्डकी रचनाओं के भिन्न कालीन होनेके प्रमाण है जिपका उचित समाधान नहीं मिल रहा। उपस्थित किये हैं। (२) रत्नकरण्डके समान स्वयभूस्तोत्रमें अब यहाँ विचारणीय प्रश्न यह कि जिस प्रकार केवली क्षुधादि वेदनायोके अभाव माने जानेके उसलेख रस्नकरण्डकारने प्राप्तमें इन प्राधातिया कोसे उत्पन्न पेश किये हैं; (३) मेरे द्वारा प्रस्तुत की गई श्राप्तमीमांसा प्रवृत्तियोका प्रभाव प्रतिपादित किया है उसी प्रकार उनके की कारिका १३ का अर्थ ऐसा बैठानेका प्रयत्न किया है
प्रभावका प्रतिपादन क्या कहीं प्रप्तमीमांसाकारने भी दिया
, जिसमे उसके द्वारा केवलीमे सुख दुखकी वेदनाका सद्भाव है न्यायाचार्यजी प्राप्तमीमांसा तथा युक्त्यनुशासनमे सो सिद्ध न हो; एवं (४) सनकरण्ड व युक्त्यनुशामनादि मंथों कोई एक भी ऐसा उल्लेख प्रस्तुत नही कर सके जिपमें से कुछ तुलनात्मक वाक्य पस्तुत कर उन सबको एक ही।
उक्त मान्यताका विधान पाया जाता हो। यथार्थत: यदि ग्रन्थकारकी कृतियां प्रकट की हैं। इन परसे मेरे सन्मुख प्राप्तमीमामाकारको प्राप्तम उन प्रवृत्तियों का प्रभाव मानना विचारके लिये निम्न प्रश्न उपस्थित होते हैं--
अभीष्ट था तो उसके प्रतिपणामक लिये सबमे उपयुक्त (१) क्या रनकरण्ड के समान कंवलीके खुधादि वेद
__ स्थन वहीं ग्रन्थ था जहां उन्होंने भारत के ही स्वरूपकी नाओंका प्रभाव स्वामी समन्तभद्रकी प्राप्तमीमांसादि
मीमांसा की है, उन्हें वहां ही इनकी सायवना भी सिद्ध कृतियों में भी बतलाया गया।
करना थी। किन्नु यह बात नहीं पाई जाती। इससे न्या(२) क्या प्राप्तमीमामाकी कारिका ६३ फा यथार्थत:
याचार्य जी ने श्रातमीमापा व युन यनुशासनका कोई वह अर्थ नहीं है जैसा कि मैंने समझा है"
उल्लेख प्रस्तुत न कर अपने मतकी पुष्टिमे स्वयभूस्तोत्रके (३) क्या बाह्य और अन्तरग प्रमाणोंम धातमीमांसा
कुछ अवतरण उपस्थित किये हैं। जिस प्रकार ये उल्लेग्य और रम्नकरण्डका एक कर्तृव सिद्ध होता है?
मप्रव किये गये हैं उसमे जन होता है कि पांडतजीने यहां मैं इन तीन बानी पर विचार करूंगा।
ग्रन्थकारकी ममम्त कृतियाँको बजनी कर डा। तावे प्रथम बानकी ऊहापोर में पंडित जाने जिस प्रकार
ये उल्लेख प्राप्त कर सके हैं। इससे आप मुझे विश्वास उल्लेख प्रस्तुत किये है उनको देखते हुए मुझे इस बातकी
होता है कि इनके अतिरिक्त, अब इस मत्तकी पुष्टिक अब भी आवश्यकता प्रतीत होती है कि यहां सबसे
उल्लेख वाम! समन्मभद्र की कृतियोम मिमा प्रायः पहले मैं अपने दृष्टिकोणको स्पष्ट करदें। केवलीमे चार
असम्भव ही है। धातिया कर्मोका नाश हो चुका है, प्रकार उन कोम प्रथमत: पंडितजीने स्वयममात्रका 15 वो शोष उत्पन्न दोषोंका केवली में प्रभाव मानने में कही कोई मतभेद प्रस्तुत किया है और उस पर यह निष्कर्ष निकाना है कि नहीं है। रामकरण्डके छठवे श्लोक्में उल्लिवित दोपॉम यहाँ "समन्तभद्र कितने मोमे भातियतीक इस प्रकार के पांच दोष हैं---भय, मय, राग, द्वेष और आहारादिक अभाव। श्री। सुधादि मुग्व-दुख घेदनाओं मोह । अतएव इन दोपोक केवलीमें प्रभावके सम्बन्धके प्रभावका प्रतिपादन करने हैं। किन्तु यहुन प्रयान करनेपर उल्लेख प्रस्तुत करना अनावश्यक है। पडितजी द्वारा भी मुझे उस लोकमे केवली धादि वेदनाभोंके प्रभाव प्रस्तुत किये गये ऐसे विशेषणामा उल्लेख हैं-निमोह, का कोई प्रतिपादन दिग्वाई नही दिया। जहां तक मैं ममम गतमदमायः वीतराग, विवानगर, स्नेहो वृथात्रेति, भय- सका है उस श्लोकका अर्थ यह है-- धादि दुखांक
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अनेकान्त
प्रतिकार तथा इन्द्रियार्थयेउ सुखों मे न तो शरीरकी स्थिति रखी जा सकती है और न जीवकी, श्रतएव शरीर या जीवके गुण नहीं हैं ऐसा भगवानने उपदेश दिया है ।" इसका भावार्थ यह समझ मे आता है कि भूखप्यास मिटाकर व इन्द्रियसुखको प्राप्त करके शरारका चाईना पोषण किया जाय पर उससे शरीर सदैव स्थानीय जरा और मरयके आधीन होगा ही । उनमें जीवका भी कोई उपकार नहीं होना । अव शरीर पीपय व इन्द्रियमुखको स्वधर्म न मान कर परधर्म ही जानना चाहिए, ऐसा भगवान्का उपदेश है । यही अर्थ आगेक अर्थात् १६ वें पचले और भी स्पष्ट हो जाता है जहाँ कहां गया है कि मनुष्य अत्यन्त लोलुप होकर भी अनुबन्धके शेषमे अकायोंमें प्रवृत्त नही होना किन्तु जो इस लोक और परलोक अनुबन्ध जनित शेप जानता है वह कैसे होगा, सुखीमे श्रायक ऐसा भी भगवान कहा है। यहां प्रन्धकारने केवल यही बतलाया है कि भगवान सुख दुखोमं धाम न होने अर्थात् राग को जीतने उपदेश दिया है। पर यहा केवली में भूख नामके प्रभावका तो जरा भी प्रसग दिखाई नहीं देता। मुझे पार्य होता है कि इस लोकके आधार पंडितजी ऐसा कैसे कह सके कि "स्वयभृस्तोत्रमे स्वामी समन्तभद्रन दोपका स्वरूप वही समझाया है जो स्नकरण्ड मे।" रत्नकरण्डके उठने और स्वयम्ती में पथमं १८ यदि कोई साम्य है तो केवल इतना कि दोनों पक्ष शब्द मे प्रारम्भ होते हैं। पर उनके अर्थ मे श्राकाशगताल का अन्तर है। तुन मात्र के श्राधारसे पडितजी ने जो यहां केवली में उक्त वदनाशी के श्रभावकी कल्पना करती हैं वह सिद्धही होती।
का दूसरा पतीने २ किया है जिसमें कहा गया हैं कि 'हे जिनदेव, प मानुषी प्रकृति कर गये हैं, देवताओं भी देवता है अतः एव परमदेवता है। अतः हमारे कल्याणक लिये प्रपन्न होइये ।" यहां भी पंडितजी कहते हैं कि इससे यह निर्विवाद प्रकट है कि समन्तभाणको दि रहित मानते हैं" किन्तु मुके पुनः चम्पन्त दुख और निराशा के साथ कहना पडता है कि यह भी पंडितजीकी
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निरी कल्पना है। इसमें मिस मानवी प्रकृतिको पार करने की बात कही गयी है उसे समझने के लिये हमें उससे पूर्वकं श्लोक ७४ पर ध्यान देना चाहिये जो इस प्रकार है
काय वाक्य मनसां प्रवृत्तयो नाभवंस्तव सुनचिकीर्षया । नाममीय भवतः प्रवृत्तयो घीर तावकमचिन्त्यमीहितम् ॥
इस पचमे कहा गया है कि आप मुनिराज की मन वचन और कार्यकी प्रवृत्तियां करनेकी अभिलाषासे नहीं हुआ करतीं, फिर भी आपकी प्रवृत्तियों बिना समीक्षा नहीं होती, सएव हे धीर, आपका ईडित थिय है।" इस श्लोक के अनुपमे अगले रोगंत यदि किसी मानवी प्रकृति के पार जानेका केवली में प्रतिपादन स्वीकार किया जा सकता है तो वह केवल यही हो सकता है कि साधारण मनुष्य की मन, वचन और काय सम्बन्धी क्रियाएँ राग, द्वेष और अज्ञान पूर्वक हुआ करती है जिनके कारण
उनकी पूरी समीक्षा नहीं कर पाये पर यह बात केवली मे नही है कि उनके राग, द्वेष और अज्ञानका सबंधा भाव हो चुका है जिससे उनकी मन, वचन और कायकी क्रियायोंमें मज्ञानता है और श्रासक्ति नहीं है। यहां जो मन और वचन के अतिरिक शरीरकी प्रवृत्तियोंका भी स्पष्ट विधान है कि मान्यतामा अनुकूल है, जिसके अनुसार केली मी मनुष्यगति, मनुष्यधायु पचेद्रियजात चारिक शरीर व गोपांग तथा निर्माण एव साता माता वेदनीय श्रादि कर्मोंका उदय स्वीकार किया गया है। ऐसी अवस्थामै इन कर्मोसे उत्पन्न भावीका श्रभाव माना ही कैसे जा सकता है ? इस प्रकार न्याया चार्यजी द्वारा प्रस्तुत किये गये इस दूसरे श्लोकमे भी केवीके के अभाव प्रतिपादनकीजेश मात्र भी सम्भावना नही पाई जाती।
पंडितजी द्वारा प्रस्तुत किया गया तीसरा पद्य है स्वस्तोत्रका ६३ व जिसमें कहा गया है कि " श्रन्तक (मृत्यु) अपने जन्म और अररूपी माधके साथ मनुष्यों का अर्थात् रुलाने वाला है, किन्तु श्रन्तकके श्रन्तक ऐसे आपके पास जब वह श्राता है तब वह अपने कामकार तारसे रुक जाता है इस पथके द्वाग वीमें मरण और उसके साथी जन्म और
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किरण ३-४]
रत्नकरण्डश्रावकाचार और पाप्ममीमांसाका कर्तृत्व
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ज्वरका प्रभाव" प्रमाणित करते हैं। किन्तु श्लोकका भावार्थ कुन्थुप्रभृत्यखिलसस्वदयैकतानः तो इसके सिवाय कुछ नहीं दिखाई देता कि जम्म, ज्वर कुन्थुर्जिनो ज्वर-जरा-मरणोपशान्त्य । और मृत्यु जिस प्रकार पाकर पाधारण लोगोंको व्याकुल
त्वं धर्मचक्रमिह वर्तयसि स्म भूत्यै करते और रुलाते हैं, उस प्रकार वे श्रापको नहीं रुला पाते।
भूस्वा पूरा क्षितिपतीश्वरचक्रपाणिः॥ पाते तो वे आपके पास भी हैं, पर वे अपनी मनमानी करने में अर्थात रागद्वेषभाव उत्पन्न करने में सफल नहीं इसका अर्थ यह है कि "भाप कुन्थु भगवान्ने पहले राजराज होते, क्यों कि, जैसा उससे पूर्ववर्ती श्लोकमें कहा गया है. चक्रवती होकर पादको यहां कुन्थु मादि समस्त प्राणियोंकी 'आपने विद्यारूपी नावसे तृष्णारूपीमदी पार करली है।" दया करनेमे एकचित्त हो ज्वर, जरा और मरणाकी उपशान्ति
रूपी विभूतिके लिये धर्मचक्रका प्रवर्तन किया है।" यहां केवलीमे जन्म, जरा, ज्वर और मरणका प्रभाव प्रमा. मी स्पष्टतः केवली द्वारा ज्वर, जरा और मरणकी णित करने के लिये न्यायाचार्यजीने दो और उल्लेख प्रस्तुत उपशान्तिके लिये प्रयनका विधान किया गया है, न कि किये हैं--'जन्म-जरा-जिहासया' (४१) तथा 'ज्वर-जरा- केवली होनेसे पूर्व उनके प्रभावका । मरणोपशान्य' (1) और कहा है कि "यहां जिहासा और उपशान्ति शब्दोंसे केवली अवस्था पाने पर प्रभाव
यहाँ रह भी विचार करने योग्य है कि केवलीम जन्म, ही विवक्षित है।" जिहासाकी व्युत्पत्ति और व्यवहार-सिद्ध
जरा धौर मरणके प्रभावकी मान्यताका अभिप्राय क्या है? अर्थ 'दूर करनेकी इच्छा' ही होता है और 'उपशान्त्यै' का
यदि इस मान्यताका यह तात्पर्य हो कि केवलीकी वर्तमान
श्रायुका लय और शरीरका अन्त हो जाने पर सिद्ध अवस्था शब्दार्य होता है 'उपशान्तिफे लिये'। पर चूंकि न्याया
मे फिर उन्हें कभी जन्म, ज्वर, जरा और मरणकी बाधाएं चार्य मीने कहा है कि यहां इन शब्दोंके द्वारा प्रभाव ही विवक्षित है, श्रतएव उस विवक्षाको समझनेके लिये हम
नही होगी, तब तो इससे कहीं विरोध उपस नहीं होता, पूरे पयों पर ध्यान देना आवश्यक प्रतीत होता है। प्रथम
कों कि केवलीने कोई नया आयुषन्ध किया ही नहीं है, पद्य पूरा इस प्रकार है
इस लिये सिद्धगतिको छोर किसी संसारगतिमें उन्हें
जाना ही नहीं है। किन्तु जिस शरीरमं केवली अवस्था अपत्यविनोत्तरलोकतृपण या तपस्विनःकचन कर्म कर्वन। उपन्न हुई है उसका मनुष्ययोनिमें जन्म हुना ही है, उप भवान्पुनर्जन्मजगजिहामया त्रयीं प्रवृत्तिममधीरवामान
शरीरका योग भी उनके विधमान है वह शरीर माता
असाता बेदनीय कर्मोदयके वशीभूत भी है, उनकी मनुप्यअर्थात् "कितने ही तपस्वी पुन, धन व परलोकी श्रायु भी क्रमश: ताण हो ही रही है और वह समय भी तृष्णाप कर्म भरते हैं. किन्नु पापने पुनर्जन्म और जरामे आने वाला है जब उनकी समस्त प्रायुका क्षय हो जानेसे बचने के विचारमं अपनी मन, वचन और काय-सम्बन्धी उम शरीरका वियोग हो जावेगा। तब फिर उसी अवस्था नीनों प्रवृत्तियोका निरोध किया। यहां केवली में उन मे उनके जन्म, ज्वर, जरा और मृत्युका प्रभाव कैसे माना वृत्तियोंके अभावकी तो कोई विवक्षा नहीं पाई जाती, बल्कि जा सकता है? यह स्पष्ट प्रतिपादन पाया जाता है कि ये प्रवृत्तियां उनमें विद्यमान हैं पर वे उनका प्रभाव करने में प्रयत्नशील है।
इस विवेचनका यह निष्कर्ष निकलता कि प्राप्त और इसीके लिये वे अपने नीनों योगोंका निरोध कर
मीमांसा और युक्यनुशासनमें तो स्वयं न्यायागयंजीकी ही अयोगी हो जाते हैं। इसके पश्चात ही बे उम बाधांसे
रत्नकरण्डश्रावकाचारकी मान्यताका पोषक कोई प्रमाण वियुक्त हो पाते हैं।
प्राप्त नहीं हो सका, एवं स्वयंभूस्तोत्रम जहाँ उन्हें
उम मान्यताकी पुष्टी दिखाई दी वहां भी यथार्थन: दूसरा पद्य पूरा इस प्रकार है--
उसका कोई विधान सिद्ध नहीं होता।
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अनेकान्त
[वष ७
वती माधुका ग्रहण करनेसे दो श्रापत्तियां उत्पन्न होती है। अब हम बातमीमांसाकी उम कारिकाके प्रथंपर पाने
एक तो यह कि यहां यदि सामान्य मुनिका ही ग्रहण हैं जिसके प्राचारमे मैंने यह कहा है कि उस ग्रंथके कर्ताको किया जाय तो वीतराग और विद्वान् इन दो विशेषणोंक।
सुख दुःखकी वेदना स्वीकार है । वह कारिका इस प्रयोग सर्वथा निरर्थक होकर कारिका अपुष्टार्थ दोष उत्पा प्रकार है:-- पुण्यं ध्रुवं स्वतो दुावान् पापं च सुग्यतो यदि।।
होता है, जो प्राप्तमीमामा जैमी अत्यन्त ठोस रचनाम वीतरागो मुनिविद्वांस्ताभ्यां युज्यानिमित्ततः ।।।
अकल्पनीय है। क्या इतनी शिथिल रचना ऐसे ग्रंथकार इस कारिकाके अर्थका स्पष्टीकरण करने के लिये उसके ।
द्वारा संभव है जो अन्यत्र स्वयं कहते हैं कि-- 'विशेष प्रसंगपर ध्यान देलेना आवश्यक है। प्राप्तमीमांसाकार यहां
वाच्यस्य विशेषणं वचो यतो विशेष्य विनियम्यते च यत ? यह सिद्ध करना चाहते हैं कि अन्य लोगोंका जो यह मत है
दूसरे, यदि रचना सदोष ही मानकर न्यायाचार्यजी कि सुख या दुखसे निबयत: पुण्य पापका बंध होता है वह
द्वाग छठे प्रादि गुणस्थानवर्ती मुनिश ग्रहण किया जाय यथार्थ नहीं हैं। प्राचार्य १२ वीं कारिकामें कहते हैं कि
तो फिर प्रतिपाद्य विषयकी युक्ति ही बिगड़ जाती है और यदि मरेको दुःख देनेसे निश्चयत: पापबन्ध होता हो और
हेतु विपरीत होनेमे जो बात अमित करना चाहते हैं वही सुख देने पुण्य, तो अचेतन वस्तुओं और कषाय रहित
M सिद्ध होती है, क्योंकि छठे गुणस्थानमे सुख-दुख की वेदना जीवों को भी यह बन्ध होना चाहिये, क्यों कि वे भी तो
- के साथ प्रमाद और क्षाय इन दो बन्ध के कारणोंसे कर्मदूसरेके सुमा दुःख उत्पादनमेनिमित्त कारण होते हैं। अभ.
बन्ध अवश्य होगा। यहां ज्ञानावरणादि घातिया कोकी द्वाय यह कि दूसरोंके सुख-दुख उत्पादनमें निमित्त कारया
पाप प्रकृतियों एवं वेदनीयादि अघातिया काकी पुण्य होनेपर भी जब वस्तुओं एवं प्रकषायी जीवों के पुण्य-पापका
कृतियोका परिणामानुसार बन्ध होना अनिवार्य है । सातवे बन्ध नहीं होता। अतएव परमें सुख-दुखका उत्पादन पुण्य
गुणस्थानमें प्रमादका प्रभाव हो जाने पर भी पायोदयमे पारका ध्रन कारण नहीं है। अब संभव है कोई यह कहे कि
कर्मबन्ध होगा ही, और यही बात सूचमसाम्पराय गुण स्थान दूसरोंको नहीं, किन्तु स्वयं अपनेमे दुखके अनुभव से पुण्य और
तक भी उत्तरोत्तर हीन क्रमसे पाई जावेगी। अतएव छठे सुखपे पाप उत्पन्न होता है तो उसके उत्तरमे श्रार्य कहते
दश गुगुस्थान तक तो श्रातमीमांयाकारकी युक्ति किसी हैं कि नहीं, ऐसा भी नहीं है, क्यो कि यदि अपनेमे दुखसे
प्रकार भी मिद्ध नही होती। हां, ग्यारहवे अहि गुणस्थान
कषायोदिन रहित होने वीतराग एव श्रवन्धक है, अत निश्यत: पुण्यबन्ध होता हो और सुखसे पापन्ध तो वीतराग विद्वान मुनि भी पुण्य-पापसे बधगे, क्योंकि उनमें
यहि कारिकामं विद्वान विशेषण न जगा होता तो ग्यारह भी दुःग्य-सुख का निमित्त विद्यमान हैं। इसका तात्पर्य यह
प्रादि गुणस्थानवी वीतराग मुनिके ग्रहण करने से प्रर्थकी निकमाता है कि व.तगत विद्वान मुनिम सुख दुम्बका बंदन
मिति हो सकती थी। किन्तु कारिक मे जो विद्वान् विशेषगा होते हुए भी पाप-पुण्यका बन्ध नहीं होता।
भी लगाया गया है, और जिमपर न्यायागर्यजीने मयथा ही यहां न्यायावार्यजीका विवेक यह है कि यह जो वीत. कोई ध्यान नहीं दिया है, उसमे है कि प्राचार्य ग्याराग मुनिमें सुख-दुम्ब स्वीकार किया गया है वह छटे रहव और बारहवं गुणस्थानोके भी पार जाकर केवलीके श्रारि गुणस्थानवी वीतराग मुनियोके ही बतलाया है न दो स्थानोकी ओर ही यहां दृष्टि रखते हैं। उनके रोमा कि तेरहवं चौदहवें गुणस्थ ननी वीतराग मुनि केवलियां करनेका कारण यह प्रतीत होता है कि ग्यारहवे और के।" पहितजीने सुख दुखके समावको छठे गुणस्थान बारहव गुणस्थानाम
बारहवं गुणस्थानोम वीतरागता होते हुए भी अज्ञानक मादिमें स्वीकार किया है और तेरहवे चौदह गुणस्थानों में सद्भावसे कुछ मलोत्पत्तिकी श्राशका हो सकती है। किन्नु उनका निषेध किया है. इससे उनका अभिप्राय छठेसे लेकर अन्तिम दो गुणस्थान ऐसे हैं जहां माता व श्रयाता वेदनीय बारहवं गुणस्थान तक उनके सद्भाव माननेका अनुमान ग्रादि अघातिया कोके उदयमे नग्य और नग्वया वेदन किया जा सकता है। किन्तु उक्त कारिकामे छठे गुणस्थान- तो संभव है किन्तु कषाय व अज्ञानके भावमे पुण्य पाप
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किरण ३,४]
मानव-संस्कृति के इतिहास में भगवान वीरकी देन
बन्ध या किसी भी प्रकारके अंतरंग मनकी सवथा संभावना प्रारमसुखदुःखाभ्यो पापेतरेकान्तकृतान्ते पुनरकवावस्थापि नहीं रहती। अतएव उन्होने इन्हीं दो गुणस्थानोंका ग्रहण ध्रुवमेव बन्धः स्यात्-इत्यादि । इस प्रकार उक्त कारिकाकिया है जहां पुण्य-पापके बन्धकी जरा भी आशंका न की न्तर्गत वीतरागो मुनिविद्वान्' से अभिप्राय ठीक उन्हीं जा सके और उनकी युक्तिमें थोडासा भी दूपण न निखाया केवलीसे हो सकता है जिन्हें उहोंने स्वयंभूस्तोत्रमे "सब्रह्मजा सके । स्वयं अष्टमहस्त्रीकारने भी यहां वीतरागो मुनि निष्ठः सममित्रशत्रुर्विद्याबिनिन्तिक षायद ष" (१०), विद्वान' से प्रकाषाय वीतराग तत्वज्ञानी ही अर्थ ग्रहण "कृष्णानदी स्वयोती विद्यानाचा विषक्तया" (१३) व विया है जैसा कि उनके टीका वाक्योंसे स्पष्ट है-"स्वस्मिन काय-वाक्य-मनसा प्रवृत्तयः ..." (७४) मादि प्रकारसे दुःखस्य सुखस्य चोपत्तो अपि वीतरागस्य तत्वज्ञानवतस्त- र्णित किया है। अन्य किसी प्रर्यमे कारिका की युति सिद्ध दभिसंधेाभावात् न पुण्य-पापाभ्यां योगस्तस्य तदभि नहीं होती। सन्धिनिबन्धनस्यात् इति त नेकान्तसिद्धिरेवायाता ।
(क्रमश:)
मानव-संस्कृतिके इतिहासमें भगवान् वीरकी देन
( लेग्वक-पं० रतनलाल संघवी न्यायतीर्थ विशारद )
भगवान महावीर राजकुमार थे, सब सुख सुविधा, बलिदान द्वारा हृदयकी पूर्ण निर्मना साथ अहिंसाका भोगांकी विशालता एव वैभवकी विफलता सामने मुख सर्वोच्च एवं उदात्त सिद्धान्त मानव-संस्कृतिक सम्मुख उप पूर्वक समुपस्थित थी। किसी भी प्रकारको चिन्ता एवं स्थित किया। यह पविनतम कार्य-राजकीय-माज्ञा पत्र द्वारा अभाव उनके लिये नाम शंष थे। शरीर पूर्ण स्वस्थ एवं नहीं, बल्कि महत्तम प्रारम-दमन एव मवस्व वैभव-परियुवा था। किन्तु फिर भी दुखियोंका दुःख पीड़ितोंकी याग द्वारा किया। इसमें वीरकी अनुपमेय वीरता, वीकी पीडा, शोपितों का शोपण, अनीका दर्द सामाजिक विष- लोकोत्तर महानमा और वीरकी कभी न बुझनेवाली मता एवं धार्मिक अत्याचार उमकी पवित्र विचारधाराके उज्वल ज्योतिका रहस्य सन्निहित है। सामने नग्न नृत्य कर रहे थे। उनका हृदय धार्मिक क्षेत्रमें चीर कालीन भारतीय संस्कृति में हिंसाका स्पष्ट रूपमा होने वाली हिं पाये विचलित हो रहा था, वे धार्मिक नोट पूर्ण साम्राज्य था । अहिमाकी उपेक्षा थी। अहिापाके रहमें होने वाली इस प्रकारका हिमामं मानव सस्कृनिका महान स्य और शकिके प्रति अविश्वास एवं प्रमामथ्र्य प्रशि हाम और पतन देख रहे थे । उनको विच र-धाराम धर्मका किया जा रहा था; ऐसी विकट परिस्थिति में भी हिमाय। यह पर्वथा विपरीत मार्ग था। यद्यपि जमता. राजा. पुणे पूर्ण समर्थन भगवान वीरन किया। इसके लिये राजय हिनवर्ग बनाम बाह्म यावर्ग यज्ञके क्रियाकाडोमे ही और मुश्व-मुविधा और सब प्रकार मोगोपभोगांका परियाग हिंयामें ही परमधार्मिकता एच उच्च श्राध्यामिक ग्रामी- मथा एव पदेषकं लिये कर दिया। एक महान नति बतला रहे थे। इस प्रकार तत्कालीन वैदिक संस्कृतिका तपस्वी बन कर जगलकी और चल दिये तथा बारह वर्ष रूप इतना विकृत, घृणित, एव हिंसासे दूषित हो रहा था मक महान तपस्या और अनेकानेक कष्ट उठा कर जनताक कि जिममे मानव जाति मघंथा निम्नतम कोटिकी और हृदय में अहिंसाकी प्रतिष्ठा की। मानव-संस्कृतिक प्रवाह-मुख माकर्षित हो रही थी। ऐसे अधकारमय युगमें भगवान को अहिंसाकी भोर मोर दिया। महिमाको ही धर्म धर्मक। वीमने अपनी माम ज्योति, स्याग, तप, प्रामबल, और हृदय एव जनताकी माराध्यदेवी बना दिया।
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३६
अनेकान्त
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वोरकी विचार-धारामें आरमाका और ईश्वरका सत्ता. धिक श्रद्धाशील एवं भक्तिशील बनती चली जायगी। रूपसे अस्तित्व था। नास्तिक नहीं थे। आरमाकी नित्यता मानव-समाज और जीव-जगतके प्रति भगवान वीरके और उसमे (पारमाकि) ईश्वरीय रूपमें उन्हें पूर्ण विश्वास अनेक प्रकार के उपकार है, किन्तु अहिंसा सिद्धान्तका यह था। वे इसी विश्वासको जन-साधारणमें अहिंसामय एक उपकार ही इतना शक्ति-संपस और हद है, जो कि प्राचारकी भिसिपर ही विकसित होता हुआ देखना चाहते सदैव वीरका प्राणी जगत्केचमें स्मरणीय, और ज्योति. थे। उनकी दृष्टि में केवल शुष्क ज्ञानमय दार्शमिकता शून्य- संपच विश्वविभूतिके रूपमें माम-कीर्तन कराता रहेगा। वत् थी, जब तक कि प्राचारमें पूर्ण रूपसे अहिंसा न हो। वीरकी दूसरी देन है--प्रात्मनिर्भरता। तकालीन
भगवाम वीरमे भारतीय साहिस्य और भारतीय दार्शमिक जगत में ईश्वर जगत्-कत्ता माना जाता था। संस्कृतिमें अहिंसाके के अक्षय बीज बोये जो कि अाज किन्तु वीरकी दृष्टिम यह श्रात्माकी नपुंसकता थी। वीरका दिन तक नष्ट नहीं हो सके और सदैव फखते रहे तथा आदेश था कि प्रत्येक प्रारमा ईश्वर ही है, और बिना सिद्ध प्रागे मी फलते फूलते रहेंगे। धीर-कालके पश्चात् आज प्रारमाकी प्रेरणाके ही प्रत्येक पाएमा अहिंसाके बल पर दिन तककी मानव-जातिकी विचार-धाग निरन्तर इसी विकास करता हुआ पूर्ण, सिद्ध, बुद्ध और मुक्त हो सकता विचार पर रद होती चली जारही है कि मानव-जातिकी है। विश्वकी रचनाके प्रति और सांसारिक प्रामाओंके प्रति समुन्नति और सुख-सुविधा एवं स्थायी शांति अहिंसामें ही सिद्ध-प्रारमाका किसी भी प्रकारका हाथ मानना अहिंसाके समिहित है, न कि अन्यमार्गमें।
प्रति अनास्था प्रकट करना है। भगवान वीर प्रत्येक प्रात्माके वर्तमानमें विज्ञान-सामग्रीके बलपर मानव जातिके लिये स्वबल पर स्वतंत्र विकासके हामी थे और वह भी संहारके लिये विविध शस्त्रास्त्रोंका निर्माण किया जाकर अहिंसाके आचरण द्वारा ही। जो विश्वव्यापी महायुख प्रवलित हो उठा है एवं प्राजकी प्रारमतत्वकी स्थिति के संबंधमे उमकी यह दृढ़ धारणा राजनीति में कपटका जो पूर्ण रूपेण प्रवेश हो गया है उस थी कि प्रकृतिकी मूल भूत वस्तुओं-हवा, पानी, पृथ्वी, से संपूर्ण विश्व संग्रसित हो उठा है और इससे अब बनस्पति और अग्निमें अनसानत प्रात्माओंका निवास है, मानव-समाजको अपने कल्याणका मार्ग केवल एकमात्र जो कि सिद्ध-प्रात्मा याने ईश्वरकी रचना नहीं है, किन्तु अहिंसामें ही दिखाई दे रहा है।
प्रकतिरूप विश्वमें अनादि कालकी स्वाभाविक देन है। विश्व-विभूति महात्मा गाँधीके त्याग और तपके बल इस लिये मुक्ति एकमात्र मार्ग अहिंसा ही है। तदनुसार पर यह संभव दिख रहा है कि आगे आने वाली संतति पूर्ण शक्तिके साथ प्राध्यामिक उच्चतम विकास के लिये अहिंसाको ही विश्वकी संपूर्ण सस्कृति साहित्य, व्यवहार स्व-प्रात्म-निर्भर बनो । ईश्वर-कर्तृत्व जैसे सिद्धान्तके और राजनीतिका प्राधार बनावेगी। निस्स देह विश्वपूज्य अनुयायी बन कर प्रारमाको नपुंसक मत बनायो। महात्मा गांधीने वीरकी इस महान देनरूप अहिंसाको उसी वीरकी तीसरी देन है--वस्तु-विचारके प्रति अनेकान्ताअर्थ में विकसित पवित और भाचरणीय यमाया है, रमक विशाल दृष्टि । उनका आदेश है कि प्रत्येक वस्तु जिस अर्थमें कि वीरने इसका प्रतिपादन किया है। सापेक्ष है। निरपेक्ष रह कर कोई भी वस्तु अर्थक्रियाकारी
यह वीरके महान् और अपरिमेय त्यागकी ही महिमा स्वशील नहीं बन सकती। बिना प्रक्रियाकारोवके वस्तु है कि जिसके बलपर अहिंसाकी अमिट छाप पड़ी, और का वस्तुत्व ही नष्ट हो जाता है। तथा बिना अनेकान्त-दृष्टि धार्मिक क्षेत्रमें सदैवके लिये अहिंसा देवी बन गई। मानव के शेयकी शेयतामें भी भ्रम, विपरीतता, तथा अस्पष्ट ज्ञाम संस्कृति के इतिहासमें भगवान वीरकी यह सर्व प्रथम महान् होनेकी पूर्ण संभावना है। अतएव दार्शनिक विचार-धारामें देन है, कि जिसके लिये मानव-जाति ज्यों २ संस्कृत, स्याद्वादको-अनेकान्त-रष्टिको अवश्य स्थान देना चाहिये। विचारशील एवं अधिकाधिक सभ्य होती जायगी त्यों २ सापेक्ष विचारष्टिसे अनेक प्रकार विचारोंकी पारस्परिक पोरकी महानताके प्रति और इस महान देनके प्रति अधिका- विषमता, असहिष्णुता, मादि तुषण एवं धार्मिक तथा
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किरण ३-४]
मानव-संस्कृतिके इनिहापमें भगवान् वीरकी देन
दार्शनिक जगन के मरजेश नष्ट हो जायगे। विवार-प्रस्न चहा, अनधिकार हस्तक्षेप, और पर-अधिका-हरण भादि विषयोंका विषम-विवाद खत्म हो जायगा। इससे मानध- बातें पाप है, जिनका फल प्राधेक प्राणीको अवश्य भोगना जातिमें सौहार्द उत्पन होगा। विश्व-बधुस्व एवं प्रेमका ही होगा। तदनुसार पाप-पुरुषको मान । म संबंधी विकाम होगा। जिसके बल पर मानव जात सतुष्ट, संपुध, फल-प्राप्ति प्रकृतिकी स्वाभाविक बात है-यही कममिद्धान्त सुखी और ज्ञानशील बनेगी। यह वीरकी वह अमृतमय है-जो कि ईश्वर-कर्तृत्व और वरीय प्रेरणा जैस बंधदेन है, जो कि मानव-जातिके सुख-खोतको मदेव मिर्मरमय विश्वासमे जनताको विमुक्त करता है। बनाती रहेगी।
रघर-कर्तृत्व जैसी कुछ एक बातोंका निषेध करणा वीरको धौथी और उसनदेन कर्म निन्द्रान्त है । वीर ईश्वरीय पत्ताचा निषेध करना नहीं है। ईश्वरीय सत्ता प्राध्यापक महापुरुषनाथे । किन्तु माय मानव-जीवनके पत्ता है, और प्रत्येक प्रात्माका अंतिम ध्येय और अंतिम लिये वे व्यावहारिकताको भा प्रावश्यक समझते थे। उन नम विकाय ईश्वर ग्व-प्राप्ति ही है। का विचार-धारामे यह प्रवाह स्पष्ट रूपेण प्रवाहित हो रहा इस प्रकार हम देखते है कि सामय-संस्कृतिक इतिहास था कि स्वस्त पाप-पुण्यका फन प्रत्येक प्रामाको अघश्य । मामव-जासिक मुखलिये वीरकीबसी देन है-- २ मिन्नता ही है और उसका मानना स्वाभाविक ही है, उपकार हैं। गंभीरता-पूर्ववक मांधा जाय तो पता चलेगा अन्यथा--"कृतका नाश, और अकृतका भोग प्रादि कई कि भगवान वारने मानव-समाजके वियामके इतिहममें एक' महावृषण उत्पन्न हो जायेंगें जो कि मौलिक क्राति की है। इसहायकी धारा हा मोद दो है। मानवता हायके साथ २ व्यवहा मार्ग एवं राजनीति इस प्रकार वीर केवल जैनियोंकी ही विभूति नहीं है बक्षिक मार्गको भी विपरीत-मार्गपर संचालित कर दंगे. निर्बल त्रिकालवी संपूर्ण मानव जाति और जीव-जगतकी त्रिकालमालका मदेव भषय बनता चला जायगा। अध्यवस्था एवं वदनीय विभूति हैं। अनवस्था उत्पन्न हो जायगी। हमी लिये पास-पुण्यकी युति यह निस्संकोच कहा जा सकता है कि ज्यो समय गगन व्यवम्गका प्रामाणिक एवं वास्तविक सिद्धान्त कायम बीतता चला जायगा यो ३ पोरके त्याग और तपके फर पुनर्जन्म, मृ' मुम्ब दुग्य-प्राप्ति एवं मुनि श्रानि स्वा- मूल्यको अधिकाधिक रूपमे आंका जायगा। तथा विश्व. भाविक घटनापोका मगति कम-पिवान्तकी अनुरू। व्याख्या समस्याओं का हन और निश्व शौतिका माधार धारक कथित के रूपमे प्रतिपादन की।
पिवानकि पावरमा में ही सखिहित है. यह भी भली भांति तापर्यय यह है कि प्रत्येक प्राणीको अपने अधिकार ज्ञात होता चला जायगा। प्राप्त करने और भोगनेका ममान अधिकार है। अनधिकार
कलकत्तामें वीरशासनका सफल महोत्सव
वीरशासन जिम सार्धयमहस्राब्द महोत्सवकी भौ तथा भावासस्थानको कमी तथा कंट्रोल भागे भादिम होने मे मावाजे सुनाई पड़ रही थी, योजनाएं हो रही थी और वाली परेशानीके कारण स्वागतममिनिकी ऐमी भावन प्रतीक्षा की जा रही थी वह आखिर कलकत्तामै गन ३, कि बाहरके भाई पहलेसे सूचना लिये बिना उपस्थित न अक्तूबरमे ४ नवम्बर तक हो गया और बड़ी सफलता हो, कम संख्या ही उपस्थित हो और को उपस्थित साथ हो गया। कलकत्ता जैसा दरवर्ती नगर, रेल्वे सफर हो वे सब कामके ही मामी होय--वीरशासन प्रमा की भारी कठिनाइयों और इधर कलकसा साच पदार्थों कार्यों में सक्रिय भाग बोने वाले ही होवे, इन सब बातोंको
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अनेकान्त
[ वर्ष
देखते हुए यह पाशा नहीं थी कि राजगृहके लिये संकल्पित कारण यह और भी अधिक विशेषताको लिये हुए था और मह महोत्सव कलकत्ते में इतने अधिक समारोहके साथ अपने रंगढंगसे जैनियोंकी सामाजिक प्रभावनाको दसरोंगर मनाया जा सकेगा। परन्तु यह इस महोत्सव की ही विशे- अंकित कर रहा था। दिगम्बरोंका जलम चावपट्टीके पता है जो कलकत्ते वालोंके मुंहमे भी यह कहते हुए पचायसी मन्दिरमे चलकर बेलगडियाके उपवनी मन्दिर में समा गया कि इतना बा महोत्सव कलकत्ते इससे पहले समाप्त हुया था, जो बड़ा ही रमणीक स्थान है और वहीं कभी नहीं हुआ। अनेक प्रतिबन्धोंके होते हुए भी दूर दूर पर महोत्सवमा मध्य पण्डाल (सभा मण्डप) बना था,
सभी प्रान्तोकी जनता मण्डी संख्यामें उपस्थित हुई थी, जिसमें ऊँचे विशाल प्लेटफार्म ( स्टेज ) के अलावा बैठने के प्रतिक्षित सजनों और विद्वजनों का अच्छा योग भिड़ा था, लिये कुपियां भी, बिजलीकी लाइट थी और लाउरस्पीकरों सभी वर्गोंके चुने हुए विद्वानों का इतना बड़ा समूह तो का भी प्रबन्ध था। शायर ही समाजके किसी प्लेटफार्म पर इससे पहले कभी जलपकी समाप्ति पर भोजन निमरते ही उपस्थित. देखने को मिला हो।
जन पिण्डाल में पहुंचने शुरू हो गये और बातकी यातमें ___ ता. ३१ को रथयात्राका शानदार जलूम दर्शनीय सभामण्डप जनतास खचाखच भर गया। उस दिन यह या दिगम्बर और श्वेताम्बर दो सम्प्रदायोंका जलूस मिल ___ ममम कर कि जलूमके कारण जनता थकी हुई होगी, रात्रि कर ॥ मील के करीब बम्बा था। जलपमें रथों, पालकियों के पपय कोई विशेष तथा भाग प्रोग्राम नहीं रखा गया चदी पोने के सामानों, घजानों, बेंबाजों और दूसरी था। परन्तु उन्मुक जनसमूहको देख कर यह महसूस हुआ शोभाकी चीजोंकी इतनी अधिक भरमार थी कि दर्शकोकी कि उप रात्रिको विद्वानोंके भ षणादि रूपमें यदि कोई रष्टि भी बगातार देम्बते २ थक जाती थीं, प.न्तु देखने की अच्छा प्रोग्राम रक्खा जाना नो वह खूब सफल होता। उत्सुकता बन्न नहीं होती थी--चीजोंमें अपने अपने नये प्रस्तु, दो विद्वानोंके भाषण हुए और फिर क.िसम्मेलनका रूप, रंगढग और कला कौशम भादिका जो भाकषण था वह साधारणमा जल्पा करके तथा अगले दिनका प्रोग्राम सुना जनताको अपनी ओर भाकर्षिन और देखने मे उत्सुक किये कर कार्रवाई समाप्त की गई। तदनन्तर मन्दिरमें श्रीजनेहए था। लाखों की जनता उत्सवको टकटकी लगाये देख न्द्रमूर्तिके सम्मुख कीर्तन प्रारम्भ हुआ, जिसमें सेठ गजरही थी, कलकत्तेके लम्बे चौडे बाजार दर्शकोंये भरे हुए राजजीके नृत्यपर सबकी खे लगी हुई थी और श्री वीर ये और दोनों ओरके कई मंजिले मकानोंकी सभी मंजिलें जिनेन्द्र तथा वीरशासनकी जय जयकार हो रही थी। दर्शकोंमे पटी पदी थी--भीसके कारण नये भागन्तुचोंकोली नवम्बरको सुबह से ११॥ तक जैन भवन में प्रवेशमें बड़ी दिक्कत होती थी। बाजारों में ट्रेम्वे तथा मोटर स्वापनसमिति और श्रागत प्रतिनिधियोंका एक सम्मेलन बसोंपादिका समना प्रात:कालयेही बन्द था-उनकी बन्दी सेठ गजराजजीके सभापतित्वमें हुआ जिसमें वीरशासन
लिये पहले दिन ही पत्रों में सरकारी प्रार्डर निकल गये महोत्सवकी सफता और कलकत्तामें उसकी एक यादमार थे। जलूमका झंडा बहुत ऊँचा होने के कारण जगह जगह कायम करनेक भादिके विषय में विचार-विमर्श किया गया पर बिजली के तार काट दिये जाते थे और फिर बादको और इस सम्बन्धमें अनेक विद्वानोंके भाषण हुए. जिनमें जोरे जाते थे। यह खास विचायत जैनपमाजकोही वहीं उन्होंने अपने अपने टिकायाको स्पष्ट किया। तासरे पहर अपने वार्षिको सबके लिये प्राप्त है, जो कार्तिकी पूर्णिमामे बेलगछियामें मजैन विद्वानोंके लिये एक टी-पार्टी की मंगसिर बदि पंचमी तक होता है. श्रीजिससे यह स्पष्ट योजना की गई, जिसमें लगभग १०. प्रतिष्ठित विद्वानों है कि वहाँका जैनसमाज बहुत पहले से ही विशेष प्रभाव. तया स्कालरों प्रादिने भाग लिया और जो बड़ी ही शानके शासी तथा राजमान्य रहा है। कलकत्ते की रथयात्राका यह साथ सम्पन हुई। जैनियों के लिये संध्या-मोजनका प्रबन्ध जलूम भार वर्षके सभी जैन रथोत्सबके जलूमोसे बना तथा भी बेजगहियामें ही था। टी-पार्टी और भोजनके मनन्तर महत्वका समझा जाता है। इसबार पीरशासन-महोत्सबके संध्या समय मंडाभिवादनकी रस्म सर सेठ हुकमचन्नजी
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किरण ३-४ ]
कलकत्तामें वीरशासनका सफल महोत्सव
प्रधान सभापति महोत्सवने प्रक्षा की। इस अवसर पर भाषण पढ़ा, जो अनेक रष्टियोंसे महत्वपूर्ण था और जिसमें विमित्र प्रान्तों, विभिन्न समाजों और विमिस धर्म सम्प्रदायों वीरशासनकी विशेषताओं तथा तसंबंधी महत्वका दिग्दर्शन के" कालिज छात्राोंने श्रीसुशीलादेवीके नेतृत्वमें कराते हुए उसके प्रति संक्षेपमें अपने कर्तव्यपालनका असा ऊँचा झंडा जिनशासनका' यह सुन्दर गान बड़ी ही मधुर निर्देश किया गया है। इसके बाद ता.कालीदास नाग . ध्वनिसे गाया, और वह सबको बड़ा ही प्रिय मालूम दिया। एम.ए. का म. महावीरकी सेवामों और उनके अहिं.
तत्पश्चात् सभामण्डपमें अधिवेशनकी कार्रवाई प्रारंभ सादि शासनकी महत्ताके सम्बन्ध में एक बड़ा ही महत्वपूर्ण हुई। मगलाचरण और उक्त छात्राओंका 'अखिल जग सारण भाकर्षक भाषण हुमा, जो खूब पसन्द किया गया। को जलयान. प्रक्टो वीर ! तुम्हारी वाणी जगमें सुधा- ता. २ नवम्बर को सुबह जैन भवनमें जैनधर्म परिषद समान' यह मंगलगान हो जानेके अनन्तर सभापतिका का जत्सा बाबू अजितप्रसादजी एम० ए० लखनऊ के सभा. चुनाव हुआ। इसके बाद डा. श्यामप्रसाद मुकरजी एम. पतिस्वमें हुमा, जिसमें पं. कैलाशचन्द्रजी शाबीने 'भ. ए० डी० लिट०, प्रेसीडेंट प्रान डिया हिन्दु महासभा, महावीरका अचेलक धर्म' नामक निबन्ध पदना शुरु किया, का महोत्सव उद्योधन रूपमें महत्वका अंग्रेजी भाषण जो विषयकी दृष्टिसे ऐतिहासिक एवं महत्वपूर्ण था, परन्तु हुमा, स्वागताध्यक्ष साहू शान्तिप्रसादजीने अपना भाषण स्वागताध्यक्ष ने उसे कुछ अप्रासंगिक तथा उस ऐक्य में पढ़ा, एक महिलाने बाजे पर बगलामें 'महावीर सदेश' बाधक समझ कर ऐका जो दिगम्बर और श्वेताम्बर समाजों गाया और फिर बाबु निर्मलकुमारजीने माहिल्यादिके रूपमें में इस महोत्सव सम्बन्ध में वहाँ सम्पन हुभा था। इससे वीरशासनके प्रचार तथा शोध खोज कार्योके लिये कलकत्ता विद्वानों में असन्तोषकी कुछ सहर तथा गरबडी सी पैदा में एक संस्थाकी योजनाका शुभ समाचार सुनाया और हुई। फिर जैनेन्द्र जीका भाषण हुमा। मभापतिजीके सम्बे बतलाया कि उसके लिये दो लाखमे कुछ उपरका चन्दा भाषणको पूरा पढ़े जानेका अवसर ही न मिल सका। हो गया है, जो सुनाते ही तीन लाख करीब होगया और रात्रिको बेलगखियाके सभामण्डपमें 1. सातकोसी बादको दो तीन दिनों में चार लाख तक पहुंच गया। इस मुकर्जीके सभापतित्वमें जैनदर्शन परिषद्का अधिवेशन हुमा चन्वेमे सबसे बड़ी रकम ७१ हजारकी सेठ बल्देवदासकी जिसमें न्यायाचार्य प. महेन्द्रकुमारजी और प्रो. हीरामान और ४-० हजारकी तीन रकमें क्रमशः बाबू छोटेलाल जी एम.ए. के महत्वपूर्ण व्याख्यानों के अनन्तर सभापति जी, साहू शान्तिप्रमादजी और सेठ दयारामजी पोतदारकी जीका जैनधर्म अहिमादि सिद्धान्तों पर अंग्रेजी में भोजस्वी है। पोतदार महोदय प्रजैन बन्धु हैं और बा. छोटेलालजी भाषण हुश्रा । भाषणकी गति इतनी तेज थी कि वह स्थेमादि प्रतिष्ठित जैन बन्धुभोम्मे बड़ा प्रेम रखते हैं। उन्होंने शन टेनकी गतिको भी मात करती थी और इसीसे रिपोर्टमें जब यह सुना कि बाबू छोटेलालजी ५१०००)की रकमके को यथेष्ट रिपोर्ट लेते नहीं बनता था, वे कलम थाम कर साथ साथ अपना जीवन भी इस शुभ कामके लिये भर्पण बैठ गये थे। तत्पश्चात साकालीदास नागका बंगला भाषामें कर रहे हैं तो उनमे नहीं रहा गया और उन्होंने भी बड़ी जैनधर्मकी प्राचीनता, महत्ता तथा शिल्पकलादि-विषयक प्रसानाके साथ अपनी भोरमे ११...)रु. की रकम बहा ही रोचक व्याख्यान हुमा और बादको उसके माथमें श्रद्धाम्नलिके रूपमें अर्पण की, जो अनेक दृष्टियांसे बड़ी छाया चिोंकी योजनाने उमे और भी अधिक मनोरंजक मूल्यवान है । पेठ गजराजजीकी भोरम ३ हजारकी रकम बना दिया। मारी जनता एकान थी और चित्रोंको देखकर को घोषणा हुई। इस शुभ समाचारसे सारीसमा मानंद तथा भाषणको सुनकर गद्गद् हो रही थी। बाब लक्ष्मीबागया और उत्साहकी लहर दौड़ गई। तदनन्तर भारत के चन्दजी साथ साथ बंगाका हिन्दी अनुवाद भी सुनाते सभी भागोंसे माए हुए देशके प्रतिष्ठित जैनेतर विद्वानोंके जाते थे। जैनधर्म प्रचारका यह तरीका अच्छा प्रभावशाली सन्देशोंको बालचमीचन्दजी जैन एम. ए. ने संक्षेपमें जान पड़ा। इसके बाद वैद्यराज 4. कमीयामावजी सुनाया और फिर सभापति महोदय सर सेठजीने अपना कानपुरके सभापतित्वमें जैन मायुर्वेद परिषद् हुई। समा
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अनेकान्त
[वर्ष ७
पलिजीने अपना खम्बा मुद्रित भाषण संक्षपमें पढ़कर हुआ। इस अवसर पर कितने ही दिगम्बर तथा श्वेताम्बर सुनाया । अधिक समय हो जानेसे दूसरे भाषणोंको अवसर विद्वानों एवं प्रतिष्ठित पुरुषोंने परस्परके इस मिलन और नहीं मिल सका।
मिलकर वीरशासन महोत्सव मनाने पर हार्दिक हर्ष व्यक्त ता.३ नवम्बरको सुबह जैनमवनमें जैनविज्ञान-परि- किया। साथ ही अनेकान्तको अपनाकर वीरशासनके सच्चे षदका अधिवेशन प्रो. हरिमोहन भट्टाचार्य के सभापतित्वमें उपासक बनने तथा वीरशासनके प्रचार कार्यमें सबको मिल हुमा। पं. नेमि चन्द्रजी उपोतिषाचार्यने अपना महत्वपूर्ण कर एक हो जाने की आवश्यकता व्यक्त की। समय अधिक निबन्ध पढ़ा और उसके द्वारा जैन ज्योतिषकी महत्ताको हो जानेसे सभापतिजीने थोड़े में ही हितकी बात सुमाई, अनेक प्रकारसे ख्यापित किया। प्रो० होरालालजी श्रादि अपनी अपनी त्रुटियोंको शोधने, मिल कर कार्य करने और और भी कुछ विद्वानों के भाषण मंत्रशास्त्रादि-विषयों पर बौद्ववाहित्यकी तरह जैनसाहित्यको सर्व भाषाओंमे प्रक्ट करने हुए। अन्त में सभापतिजीका जैन वज्ञान के अनेक अंगोचर की आवश्यकता बतलाई । आजकी इस कार्रवाई दिगम्बर और जैन मिद तोंकी प्रशंसामें मार्मिक भाषण हुआ।
श्वेताम्बर दोनों सम्प्रदायोंपर अच्छा प्रभाव पड़ा और परस्पर ___ रात्रिको बेलगछियामें कला और पुरातत्व परिषद्का का भ्रातृभाव कुछ उमड़ा हुआ और उत्सुकसा नजर भाया । अधिवेशन प्रो. टा. एन. रामचन्द्रन एम. ए. के सभा- रात्रिको बेलगछियाके सभामण्डपमें अनेक विद्वानों के पतित्वमें हुआ, जो बा. बोटेलाल जीके अनुरोध पर मद्रास भाषण हुप, तदनन्तर हिन्दुला संशोधन समिति के सामने से पधारे थे और अपने साथ चित्रों आदि के रूप में जैनकला जेनमांगों को उपस्थित करने, और वर्णी गणेशप्रसादजीकी और पुरानस्वकी कितनी ही सामग्री लाये थे, जिसे देखकर हीरकजयन्तीका अभिनन्दन करने के रूपमे दो प्रस्ताव पास बड़ी प्रसन्नता हुई। अापका मार्मिक भाषण अंग्रेजी में लिखा किय गये और फिर धन्यवाद तथा अाभार प्रदर्शनादिके हुमा था। जिप प्रापने बड़े ही प्रभावक ढंगमे पढ कर अनन्तर महोत्सवकी कार्रवाई भगवान महावीरकी जय' के सुनाया और उसके द्वारा जैनकला तथा पुरानावके मभी साथ समाप्त की गई। अंगोंपर अच्छा प्रकाश डाला और उनकी भूरि भूरि प्रशंसा
सबस बड़ा काम की। साथ ही यह भी बतनाग कि भारतमें सब और इस महोत्सवक अवसर पर श्रीमती पंडिता जैनकला और शिल्पका भण्डार भरा पड़ा है। अापके चन्दाबाईक सभापतित्वमें महिला परिषदकी अच्छी सफल बाद डा. बी. एम. बदुश्रा एम० ए० का बंगालीमे बैठक हुई, कितने ही विद्वानोंने मिल कर एक विद्वत्परिषद
और डा. एम. परमशिवम् (मद्रासी) का अंग्रजीमें भाषण की स्थापना की, तीर्थक्षेत्र कमेटीकी मीटिंग होकर उसके हुमा। इसके बाद जैनइतिहास परिषद्का कार्य प्रो. हीरा- सुधारका बीज बोया गया और उसके लिये पाँच लाख लाल जै० एम. ए. नागपुरके सभापतित्वमें प्रारम्भ रुपयके स्थायी फण्डकी तजवीज की गई, जिसमें से हुमा । सभापतिजीके भाषणके अनन्तर प्रो. कालीपदमजी दो लाख के करीबके बचन मिल गये, प्रो. हीरालालजीके मित्रका बंगालीमें भाषण हुमा और उसमे जैन इतिहासकी साथ उनके मन्तव्योंके सम्बन्ध में विद्वत्परिषदकी कुछ महत्ताको प्रकट किया गया। तदनन्तर बाल छोटेलालजीने महत्वपूर्ण चर्चा हुई है। और सरसेठ हुकमचन्द तथा सेठ
आए हुए कुछ अंग्रेजी निवन्धोंकी सूचना की और बतलाया गंभीरमल पांड्याका पारस्पिरिक विरोध मिट कर सम्मिलन कि समयाभावके कारण वे पढे नहीं जा सकते । तदनन्तर भी हुआ। ये सब भी इस महोत्सव सुन्दर परिणाम पं. नाथूरामजी प्रेमी बम्बईका यापनीयसंघके इतिहासपर हैं। परन्तु सबसे बड़ा काम जो इस महोत्सवके द्वारा बन कुछ प्रकाश डालता हुमा संक्षिप्त भाषण हुअा।
सका है. वह बाबू छोटेलालजीका वीरशासनके लिये अपना ता. ५ नवम्बरको सुबह बजेसे श्वेताम्बर गुजराती जीवनदान है। लाखों-करोडोंका दान भी उसके मुकाबले में जैन उपाश्रयमें जैन पाहित्य और कथा विभागका अधि- कोई चीज नहीं। वास्तवमें यह सारा महोत्सव ही बाब बेशन . कालीदास नाग एम. ए.के सभापतित्व में छोटेल.नजीका ऋणी है, उन्हींके दिमागकी यह सब उपज
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(पृ ४. से आगेका अंश)
तथा स्वास्थ्य तककी बलि चढ़ानेसे वह इस रूपमें सम्पस ही इसे वीरसेवामन्दिरसे राजगिरि,राजगिरिसे कलकत्ता हो सका है। अतः इसके लिये बाबू छोटेलालजी जैसे मूक लेगये, कलकत्ताकी सारी मशीनरीके वे ही एक मूविंग- सेवकका जितना भी मामार माना जाय और उन्हें जितना एजिन ( Moving Enging ) रहे हैं और उन्हींकी भी धन्यवाद दिया जाय यह सब थोरा है। भाप स्वस्थता योजनामों, महीनोंके अनथक परिश्रमों, ग्यक्तिगत प्रभावों के साथ दीर्घ जीवी हों, यही अपनी हार्दिक भाषना है।
सम्मेदशिखरका ज़हरीला पानी
भसेंसे भीसम्मेद शिखर तीर्थ-मधुवनके पानीकी और इस लिये वे उस दृषित जलको पकाकर अथवा विना शिकायत और उससे होने वाली प्राणोंकी हानिकी कहानियों पकाए ही पीनेके लिये मजबूर होते हैं ! जिन यात्रियोंके बराबर सुनने में भारही हैं। परन्तु अभी तक उसके सुधार धनमे ये सब कोठियां खड़ी हैं, जिनसे अनेक खातों में चन्दा का कोई प्रबन्ध नहीं किया गया। इस बार कलकत्ता वीर- माँगा जाता है और जो मधुवनकी सारी समृद्धिके मूल हैं शासन महोत्सवको जाते हुए अथवा उससे लौटते हुए उनके जीवनके साथ यह खिलवार, यह मात्राही और बहुतसे यात्री श्रीसम्मेद शिखर पहुँचे हैं और उनमेंसे प्रायः यह उपेक्षा !! बड़ी ही शर्म तथा लज्जाकी बात है !!! इस ..प्रतिशत व्यक्तियोंके मलेरिया स्वरसे पीड़ित होने की सारी जिम्मेदारी तीर्थक्षेत्रके प्रबन्धकों, तीर्थक्षेत्रकमेटी समाचार मिल रहे हैं, जिनमेंसे कांको भारी प्रायोंकी और उसके सदस्योंपर है। उन्हें शीघ्र ही अपनी जिम्मेदारी पाजी लगानी पड़ी और कुछ तो अपनी जानसे भी हाथ धो को ममझ कर जलके दोषको दूर करने, भास-पासकी गन्दगी बैठे हैं ! यह बरे ही खेदका विषय है !! श्री सिंघई पसा- को माफ कराने और समस्त यात्रियोंके लिये शुद्ध-निर्दोष नामजी भमरावती तो अपने घर भी न पहँचने पाए और जल के प्रबन्धका पूरा पत्न करने में अब जरा भी विलम्बन मार्गमें ही भाराकी तरफ उनका देहान्त हो गया ! उनके करना चाहिय और जब तक यह मुख्य कार्य न हो जाय, इस निधनसे पदी सनसनी फैल गई है। भाप समाजके जिप्सके विना इतना महान् तीर्थक्षेत्र कलंकित हो रहा है, पुराने नेता, दानी. तथा राष्ट्रीय कार्यकर्ता थे, ऐक्स पम० तब तक तामीर जैसे कामों में शक्तिका कोई अपम्ययन किया एल. पी. और पापने राहत के लिये जेलयात्रा भी जाय। और पटि ने ऐसा करने में असमर्थ हैं तो उनमें की थी। भभी कलकत्तामे मापने ४-५ मास बाद वीरसेवा- अपनी उस असमर्थताकी स्पष्ट घोषणा कर देनी चाहिये,
दरमें पाकर रहने और उसे अपनी फ्री सेवाएं अर्पण जिससे मामाजिक व्यक्तियों के प्राणोंका मूल्य समझने वाले करनेका वचन भी दिया था, इससे मुझे मापके इस पाक- दूसरे कार्यकुशल महानुभाव मागे माएँ और कार्य स्मिक निधनसे और भी अधिक प्राघात पहुँचार करके दिखलाएं। और यदि किसी तरह भी मधुवनमे ब्रह्मचारी नौरंगलालजीके देहावसानकी भी ऐसी ही घटना निर्दोष जलकी सप्लाई का कोई प्रबन्ध न बन सकता हो, सुनने में भारही है!!
जो कल्पनासे बाहरकी बात जान पड़ती है, तो फिर मैं भी कलकत्तासे अनेक सापियोंके साथ, जो प्रायः मीमियाघाट मादिकी तरफसे यात्रा जारी कर देना ही श्रेयसभी भाकर बीमार पड़े हैं, श्री सम्मेदशिखरकी यात्राको कर होगा और उधर ही कुछ धर्मशालाएँ बन जानी गया था और मैंने मधुवनके पानीको बहुत ही दूषित करवा- चाहिये । मधुवनकी धर्मशालाओंके मोहवश कीमती जानों कसाथक्षा तथा विषैला पाया है। पकाकर पीनेमें भी अथवा यात्रियोंके जीवनको खतरेमें रानना किसी सा भी स्वादमें कुछ विकृति बनी रहती थी। साथ ही तेरहपन्यी अयस्कर नहीं कहा जा सकता। भाशा है तीर्थक्षेत्रकमेटी कोठीसे यह भी मालूम हुआ कि वहाँ कोठियोंके प्रबन्धक और तीर्थ के प्रबन्धक अपनी गुरुतर जिम्मेदारीको समझेंगे अपने लिये तो कोठियोंकी लगारी द्वारा तीन मीनके और इस प्रतीव प्रावश्यक कार्यकी और सबसे पहले कासखेपर एक गांवके कुएँसे रोजाना पानी मगाते हैं परन्तु पूरा ध्यान देंगे। बाधिक क्षिपन्य विवॉप जवा कोई प्रबन्ध नहीं,
सम्पादक
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है.हीसे वीरसेवामन्दिरसे राजगिरि, राजगिरिसेकसकसा तककी बलि हासे यह इस रूपमें सपा हो सका।
गये हैं, कलकत्ताकीसारी मशीनरीके वे ही एक मूविंगऍजिन प्रतः इसके लिये बाब छोटेलालजी जैसे मूक सेवकका (Moving Engine) रहे हैं और उन्हींकी योजनाओं जितना भी भाभार माना जाय और उन्हें जितमा भी महीनों के अनथक परिश्रमों, व्यक्तिगत प्रभावों तथा स्वास्थ्य धन्यवाद दिया जाय वह सब थोड़ा।
वीरसेवामन्दिरके नये प्रकाशन
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१ आचार्य प्रभाचन्द्रका तत्वार्थसूत्र-जया प्रास ३ अध्यात्म-कमल-माण्ड-यह पंचाध्यायी तथा संक्षिप्त सूत्र, मुख्तार श्री जुगलकिशोरकी सानुवाद व्याख्या नाटीसंहिता भादि ग्रन्थोंके कर्ता कविवर राजमझकी भपूर्व और प्रस्तावना सहित।
रमाइममें मध्यात्मसमरको क्रमे बन्द किया गया
है। साथमें भ्यायाचार्य पं. दरबारीलाल कोठिया और पं. २ सत्साधु-स्मरगा-मंगलपाठ-मुख्तार श्री जुगलकिशोरकी अनेक प्राचीन पोंको लेकर मईयोजना, सुन्दर
परमानन्द शास्त्रीका सुन्दर अनुवाद विस्तृत विषयसूची
तथा मुख्तार श्री जुगलकिशोरकी महत्वपूर्ण प्रस्तावना है। हरायमाही अनुवादादि सहित । इसमें श्रीवीर वर्द्धमान और
बड़ा ही उपयोगी ग्रन्थ है। उनके बादके जिनसेमाचार्य पर्यन्त, २. महान् प्राचार्योंके भनेको भाचार्यों तथा विद्वानों द्वारा किये गये महलके पुण्य ४ हमास्त्रामिश्रावकाचार-परीक्षा-मुल्तार श्रीजुगलस्मरणोंका संग्रह है और शुरुमें । लोकमंगलकामना, किशोरजीकी ग्रन्थपरीक्षामोंका प्रथम अंश, ग्रन्थपरीचाओंके २ नित्यकी भारमप्रार्थना, ३ साधुवेषनिदर्शक जिलस्तुति, इतिहासको लिये हुए १४ पेजकी नई प्रस्तावना . पामसाधुमुखमुद्रा और ५ मामाधुवन्दन नामके पांच सहित। मूल्य ।) प्रकरण है। पुस्तक पढ़ते समय बरे ही सुन्दर पवित्र विचार उत्पन्न होते है और साथ ही प्राचार्योंका कितना ही
प्रकाशन विभाग इतिहास सामने प्राजाता है। नित्यपाठ करने योग्य है भू.)
वीरसेवान्दिर, मरसावा (सहारनपुर) वीरसेवामन्दिरको महायता गत किरगामें प्रकाशित सहायताके बाद वीरसेवा-मन्दिर को भनेकान्त सहायता और अन्यत्र प्रकाशित बाबू नन्दलाल जी कलकत्ताकी सहायताके अलावा जो दूसरी फुटकर सहायता प्राप्त हुई है वह इस प्रकार है, और इसके लिये दातार महोदय धम्यवादके पात्र है...1)दानवीर साहू शान्तिप्रसादजी जैन सबमिया
नगर (पूर्व स्वीकृत दस हजार रु. की सहायता
के मध्ये)। २) श्रीमती चम्मावाईजी धर्मपत्नी स्व. बाब हेमचन्द
जी मोदी, (पुत्रवध पं. नाथूरामजी प्रेमी) बम्बई। श्रीमती धर्मपत्नी मायालालजी जैन, सम्मागेट, परंगख (निजाम स्टेट) सायडेरीमें ग्रन्धके लिये।
अधिष्ठाता 'वीरसेवामन्दिर'
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If not delivered please return to;-- VIR SEWA MANDIR. SARSAWA. (SAHARANPUR)
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सम्पादक-जुगलकिशोर मुख्तार
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वीर-शासन-जयन्तीका वार्षिकोत्सव
. . ५५५ ६-१०
प्रिय बन्धुनो! .. ................।
पापको मालूम है कि भावण कृष्ण प्रतिपदाकी इतिहास प्रसिद्ध पुण्यतिथि भारतीय पावन पर्व 'वीर-शासन-जयन्ती को लिये हुए सामने पा रही है। इसके स्वागतार्यवीरसेवामन्दिरने हर वर्षकी तरह इस वर्ष मी वार्षिकोत्सवका आयोजन किया है, जो इस वर्ष और भी अधिक उत्साहके साथ मनाया जायगा और जिसमें बाहरसे अनेक बध-प्रतिष्ठ विद्वानों तथा श्रीमानोंके पधारनेकी पूर्ण प्राशा है । उत्सवकी तारीखें २५, २६ जुलाई सन् १९४५, दिन बुधवार तथा गुरुवारकी हैं । अत: मापसे सानुरोध निवेदन है कि भाप इस शुभ अवसरपर
अवश्य ही वीरसेवामन्दिरमें पधारनेकी कृपा करें और अपने इस सर्वातिशायी पावन पर्वको : यथेष्टरूप में मनानेके लिये अपना पूर्ण सहयोग प्रदान करते हुए हमें प्राभारी बनाएँ।
निवेदकछोटेलाल जैन (सभापति) पन्नालाल जैन (मंत्री) जुगलकिशोर मु० (अधिष्ठाता) ।
: विषय
पृष्ठ | विषय श्रीवीर-जिनस्मरण
गुलामी (खण्डकाव्य) 1 - २ भगवान महावीरसे (कविता). १२ सुख और दुख , ३ समीचीन-धर्मशास्त्र और उसका १३ वीरके वैज्ञानिक विचार १३ हिन्दी-भाष्य
१४ श्री श्रमणम. महावीर और ४ श्रीदादीजी-वियोग! १॥ उनके सिद्धान्त ५ श्रीचन्द्रनामके तीन विद्वान् १०३१५ मोक्ष तथा मोक्षमार्ग १४४ ६ क्या लकरएडा. स्वामी १६ गजपन्य क्षेत्रका अविप्राचीन
समन्तभद्रकी कृति नहीं है? १०५ उस्लेख * ७ स्वावलम्बन और स्वतंत्रता ११७ | १७ पत्रकारके कर्तब्यकी
८ भारतीय इतिहासका जैनयुगा२१ अवहेलना! *. पथिकसे (कविता) १२७ / १८ जीवठाण सम्प्ररूपणाके सूत्र *१०वीरसन्देश
१२८ ।
१३में संजद' पाठ १५०
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AN
भगवान महावीरसे--=-00-00-=-(पं० नाथूराम जैन, डोंगरीय) मूक पशुओंके ऊपर अहह !
ज्ञान-रवि लखकर यह अन्याय धर्मकी लेकर श्रोट अपार
मानवोंका पशुओं पर आह ! यज्ञ में वधके द्वाग जब कि,
अस्त हो गया विश्वमें पूर्णकिया जाता था अत्याचार !
छा गया तम अज्ञान अथाह ! नहीं दिखता था सत्पथ देव ! कहीं भी भूमण्डलके बीच । अखिल भारतका जन-समुदाय,
फैमा था पाप-सरोवर-कीच ! पापका करनेको संहार,
यथा प्राचीमें प्रातःकाल, बचानेको पशुओंकी जान ।
उदित होता है सूर्य ललाम । ज्ञानका करने दिव्य-प्रकाश,
मात-त्रिसलासे तैसे वीर ! विश्वका करनेको उत्थान ।।
प्रकट तुम हुए दिव्य-सुखधाम । देख यह दशा विश्वकी वाह ! त्याग कर भूमण्डलका राज । ब्रह्मव्रत धारण किया प्रखण्ड,
सजाया आत्मोन्नतिका साज । अहिंसाका लेकर दिव्यास्त्र,
मिली तब विजय प्रापको नाथ ! प्रेमका बख्तर पहिन सॅभार -
हुआ पापोंका सत्यानाश । सत्य-गज पर हो कर आरुढ़
ज्ञान-रवि उदित हुआ जग-बीच, किया पापोंसे युद्ध अपार ।
प्रेमका फैला विमल प्रकाश । आपने दया धमेकी सुखदछेड़ कर मधुर रसीली तान । किया था मुग्ध जनोंका चित्त
सुना कर विश्व-प्रेमका गान । अन्तमें सज कर परम समाधि--
विभो ! फिर निखिल-विश्वमें आह ! बन गये मुक्ति-रमाके कान्त ।
स्वार्थ-वश कैसे अत्याचारसर्वथा दोषोंसे उन्मुक्त--
हो रहे हैं दीनों पर आज ! हुए गम्भीर सिन्धु-सम शान्त ।
नहीं है जिनका पारावार !! विलयको प्राप्त हो गये देव ! शान्ति सुख भी कर्पूर-समान । मची है त्राहि-त्राहिकी घोर,
करुण पुकार महान् ! अतः फिर हो ऐसा गुणधाम !
बनें तब सम हम सब बर वीर, निखिल पाखण्डोंका संघर । हृदयमें अखिल-विश्व में प्रेम
सुखी हों, विचरें पूर्ण स्वतन्त्र, तथा नव-जीवनका सञ्चार ।
उठा दें नत-भारतका भाल ।
स्वार्थका करदें त्याग विशाल ।
में प्रेम-
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समीचीन-धर्मशास्त्र और उसका हिन्दी-भाष्य
[सम्पादकीय ]
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| | मी समन्तभद्रका 'समीचीन-धर्मशास', जो दिमाग हीट-चने-मिट्टीका होरहा था। भाखिर, २४ अप्रैल x==x लोकमें रनकरण्ड, रत्नकरण्ड उपासकाध्ययन मन
सन् १९३६ (अक्षय-तृतीया) को वीर-सेवामन्दिरके उद्घातथा रत्नकाण्डश्रावकाचार नामसे अधिक
टनकी रस्म होजाने और उसमें अपनी लायब्रेरी व्यवस्थित प्रसिद्ध है, समन्तभद्रभारतीमें ही नहीं किन्तु किये जानेपर मेरा ध्यान फिरसे उस भोर गया और मैंने समूचे जैनमाहित्यमें अपना नास स्थान और महत्व रखता अनुवाद की सुविधाके लिये इस ग्रन्थके सम्पूर्ण शब्दों का एक है। नैनियोंका कोई भी मन्दिर,मठ या शास्त्रभण्डार ऐसा नहीं ऐसा कोश तय्यार कराया जिससे यह मालूम होसके कि होगा जिसमें इस ग्रन्थरस्नकी दो-चार दस बीस प्रतियों न इस ग्रन्थका कौनसा शब्द इसी ग्रन्थों तथा समन्तभद्रके पाई जाती हों। पठन-पाठन भी इसका सर्वत्र बड़ी श्रद्धा- दूसरे ग्रन्थों में कहां कहांपर प्रयुक्त हुमा है, और फिर उस भक्ति के साथ होता है। अनेक भाषात्मक कितने ही अनु- परस अर्थका यथार्थ निश्चय किया जा सके। क्योंकि मेरी वादों तथा टीका-टिप्पोंसे यह भूषित हो चुका है। और यह धारणा है कि किसी भी अन्धका यथार्थ अनुवाद जबसे मुद्रण-कलाको जैनसमाजने अपनाया है तबसे न जाने प्रस्तुत करनेके लिये यह जरूरी है कि उस ग्रन्थके जिस कितने संस्करण इस प्रन्धके प्रकाशित हो चुके हैं। दिगम्बर शब्दका जो अर्थ स्वयं ग्रन्थकारने अन्यत्र ग्रहण किया हो समाजमें तो, जहाँ तक मुझे स्मरण है, यही ग्रन्थ प्रथम उस प्रकरणानुसार प्रथम ग्रहण करना चाहिये, बावको प्रकाशित हुआ था।
अथवा उसकी अनुपस्थिति में वह अर्थ लेना चाहिये जो उस ग्रन्थ के इन सब संस्करणों, टीका-टिप्पणों और अनु ग्रन्थकारके निकटतया पूर्ववर्ती अथवा उत्तरवर्ती भाचार्या दक वादों को देखते हुए भी, नहीं मालूम क्यों मेरा चित्त भर्सेसे द्वारा गृहीत हुभा हो। ऐसी सावधानी रखनेपर ही हम सन्तोष नहीं पा रहा है। उसे ये सब इस धर्मशास्त्रके अनुवादको यथार्थरूपमें अथवा यथार्थताके बहत ही निक्ट उतने अनुरूप मालूम नहीं हुए जितने कि होने चाहिये। रूपमें प्रस्तुत करने के लिये समय होसकते हैं। अन्यथा (उक्त
और इसलिये उसमें बर्सेसे यह उधेद-बुन चलती रही है सावधानी न रखनेपर) अनुवादमें ग्रन्थकारके प्रति अन्याय कि ऐसा कोई अनुवाद या भाग्य प्रस्तुत होना चाहिये जो का होना सम्भव है क्योंकि भनेक शब्दोंके पर्थ द्रव्य-सत्रमूल प्रन्यक मर्मका उद्घाटन करता हुमा अधिकसे अधिक काल-भावके अथवा देश-कालादिके अनुसार बदलते रहे हैं. उसके अनुरूप हो। इसी उधेड़-बुनके फलस्वरूप समन्त- और इस लिये सर्वथा यह नहीं कहा जासकता कि जिस भद्राश्रमके देहलीसे सरसावा पाजानेपर, मैंने अनुवाद तथा शब्दका जो अर्थ भाज रूढ है हजार दो हजार वर्ष पहले व्याख्यानके रूप में इस पर एक भाष्य लिखनेका संकलन भी उसका वही अर्थ था। यदि किसी शब्दका जो बर्थ किया था और तदनुसार भाष्यका लिखना प्रारम्भ भी कर प्राज रूढ है वह हजार दो हजार वर्ष पहले रूढ न हो तो दिया था, परन्तु समय समयपर दूसरे अनेक जरूरी कामों
उस समयके बने हुए प्रन्धका अनुवाद करते हुए यदि तथा विघ्न-बाधाओंके मा उपस्थित होने और भाष्यके योग्य हम उस शब्दका भाजके रूढ अर्थ में अनुवाद करने लगे यथेष्ट निराकुलता एवं अवकाशन मिल सकनेके कारण वह तो वह अवश्य ही उस ग्रन्थ तथा प्रन्थकारके प्रति अन्याय कार्य भागे नहीं बढ़ सका । कई वर्ष तो बीर-सेवामन्दिरकी होगा। बिल्डिग के निर्माण कार्यमें ऐसे चले गये कि उनमें साहिस्य- उदाहरण के लिये पार्ष(ख)टी' शब्दको बीजिये, सेवाका प्रायः कोई खास काम नहीं बन सका-सारा जिसका रूढ अर्थमाजकल 'धर्त' अथवा दम्भी-कपटी-जैसा
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अनेकान्त
[वर्ष ७
होरहा है। परन्तु स्वामी समन्तभद्रके समयमें इस शब्दका को पाखण्डी मान खेना और वैसा मानकर उनके साथ तद्रूप ऐसा अर्थ नहीं था। उस समय 'पापं खंब्यतीति पाखड भादर-सत्कारका व्यवहार करना । इस पदका विन्यास इस निरुक्ति के अनुसार पापके खण्डन करनेके शिये प्रवृत्त ग्रन्थ में पहलेसे प्रयुक्त देवता-मूढम्' पदके समान ही है, हुए तपस्वी साधुओंके लिये यह शब्द भामतौरपर व्यवहत जिसका प्राशय है कि जो देवतानहीं है--राग-द्वेषस मलीन होता था-चाहे वे साधु स्वमतके हों या परमतके । और देवताभास है--उन्हें देवता समझना और वैसा समझकर इस लिये स्वामी समन्तभद्रने अपने इस धर्मशास्त्रमें उनकी उपासना करना।' ऐसी हालतमें 'पाखविडन्' शब्द 'पापण्डिमूतता' का जो लक्षण दिया है उसका प्राशय का अर्थ 'धूत जैसा करमेपर इस पदका ऐसा अर्थ हो इतना ही कि.अमुक विशेषणोंसे विशिष्ट जो पाखण्डी' जाता है कि 'धूर्तीके विषय में मूढ होना अर्थात् जो धूर्त हैं वे वस्तुत: पाखण्डी (पापके खण्डनमें प्रवृत्त होनेगले महीं हैं उन्हें धूर्त समझना और बैसा समझकर उनके साथ तपस्वी साधु) नहीं हैं, उन्हें पाखंडी समझकर अथवा भादर-सत्कारका व्यवहार करना' और यह अर्थ संगत नहीं माधु-गुरुकी बुद्धिसे उनका जो श्रादर सरकार करना है उसे कहा जा सकता । इसीसे एक विद्वानको खींच-तान करके 'पाखपिसमूह' कहते हैं। यहां पाखण्डी' शब्द का प्रयोग उस पदका यह अर्थ भी करना पड़ा है कि-"पाखण्डियदि घृत, दम्भी, कपटी अथवा कुठे ( मिथ्याटि) साधु नामुपदेशेन संगत्या च मोहनं मिथ्यात्वमिति पाखजैसे अर्थ में लिया जाय, जैसा कि कुछ अनुवादकोंने एिडमोहन गुरुमढतेत्यर्थः४" अर्थात्-पाखण्डियोंके उपलिया, तो अर्थका अनर्थ होमाय और 'पाषगिड-मोहन' देशसे और उनकी संगतिसे जो मोहन-मिथ्याव होता पद में पाया पाखन्'ि शब्न अनर्थक और असम्बद उसे 'पाखविडमोहन' कहते हैं, जिसका भाशय गुरुमूढता (NonSICHI) ठहरे। क्योंकि इस पदका अर्थ है का है । परन्तु इस अर्थका भी ग्रन्थ-सन्दर्भके साथ कोई पाखविडयोंके विषय में मुहहोना अर्थात् पाखण्डीके वास्तविक मेल नहीं बैठता । अस्तु । स्वरूपको न समझकर अपाखण्डियों अथवा पाखरख्याभासों अपनी उक्त धारणाके अनुसार ही मैंने प्रकृत ग्रन्थका
एक अच्छा मूलानुगामी प्रमाणिक तथा उपयोगी भाष्य १ मूलाचार (4०५)में रत्तवड-चरग-तावम-परिहत्तादीय
लिखनेका संकल्प किया था और सन् ११३में 'समाधिअण्णासंडा' वाक्यके द्वारा रक्तपटादिक माधुरोको
तंत्र' को प्रकाशित करते हुए उसके साथ में वीरसेवामन्दिरअन्यमतके पाखण्डी बतलाया है, जिमसे साफ ध्वनित है
ग्रन्थमालामें प्रकाशित होनेवाले प्रन्योंमें उसकी भी कि तब स्व( जैन )मतके तपस्वी साधु भी 'पाखण्डी'
विज्ञप्ति कर दी थी, परन्तु वीरसेवामन्दिरमें उत्तरोत्तर कार्य कहलाते थे। और इसका समर्थन श्रीकुन्दकुन्दके समयसार
का भार इतना बढ़ा कि मैं बराबर अनवकाशसे घिरा रहने की 'पाखण्डियलिङ्गाणि य गिहलिङ्गारिणय बहुप्प
लगा और इसलिये भाष्पका संकल्पित कार्य, जो बहयाराणी' इत्यादि गाथा नं. ४३८ श्रादिसे भी होता है,
परिश्रम-साध्य होने के साथ साथ चित्तकी स्थिरता और जिनमें पाखण्डी लिङ्गको अनगार-माधुनों (निर्ग्रन्यादि
निराकुलताकी सास अपेक्षा रखता है, बराबर टलता रहा। मुनियों) का लिङ्ग बतलाया है।
उसे इस तरह अनिश्रित काल के लिये टलता देखकर मुझे २ मग्रन्यारम्भहिंसाना संमारावर्तवनिनाम् ।
बड़ा खेद होता था और इस लिये मैंने अपनी ६५ वीं पाखण्डिनां पुरस्कारो ज्ञेयं पापण्डि-मोहनम् ॥
वर्षगांठके दिन--मंगसिर सुदि एकादशी वि० संवत् ११३ पाखण्डीका वास्तविक स्वरूप वही है जिसे ग्रन्थकार
को-यहढ प्रतिज्ञा की कि मैं अगली वर्षगांठ तक स्वामी महोदयने 'तपस्वी' के निम्न लक्षण में समाविष्ट किया है।
समन्तभद्रके किसी भी पद-बाल्यका अनुवादादि कार्य ऐसे ही तपस्थी पागेका खण्डन करनेमे समर्थ होते है:
विषयाशावशातीनो निरारम्भोऽपरिग्रहः । ४ देखो, सिद्धान्तशास्त्री पं० गौरीलाल-दाग नुवादित शान-ध्यान-तपोरक्तस्तपस्वी स प्रशस्यते ॥१०॥ और समादित रत्नकरण्डश्रावकाचार ।
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किरण ६-१०]
समीचीन-धर्मशास्त्र और उसका हिन्दी-भाष्य
प्रतिदिन अवश्य किया करूँगा--चाहे वह कितने ही थोडे में कोई खास सुझाव देना इष्ट हो तो उसे अवश्य ही देने परिमाणमें क्यों न हो। और इस प्रतिज्ञाके अनुसार उसी की कृपा करें। उनकी इस पाके लिये मैं अवश्य उनका दिन (ता. २६ नवम्बर सन् १९५१ शनिवारको) इस पामारी हूँगा। धर्मशास्त्रका नये सिरेसे अनुवाद प्रारभ भी कर दिया, जो
मूलका मंगलाचरण सामान्यतः १५ मई सन् १६४२ को पूरा हो गया। इसके
नमः श्री-वर्द्धमानाय निर्धत-लिलात्मने । बाद स्वयम्भूरतोत्रके अनुवादको लिया गया और वह भी साऽलोकानां त्रिलोकानां द्विद्या दणायते ॥शा कोई छह महीने में पूरा होगया । इस तरह प्रतिज्ञाबद्ध हो जिन्होंने आत्मासं पापमलको निर्मूल किया हैकर मैं एक बर्षमें दो ग्रन्थोंके अनुवादको प्रस्तुत करनेमे राग द्वेष काम-क्रोधादिवकार-मूलक मोहनीयादि घातिया समर्थ हो सका । साथ ही समन्तभद्र-भारतीके सभी कर्मकलङ्कको अपने प्रात्मासे पूर्णतः दूर करके उसे स्वभाव ग्रन्थोंका एक पूरा शब्दकोष भी तरयार करा लिया गया, मे स्थिर किया है और इससे) जिनकी विद्या-केवलजिससे अनुवाद कार्यमे बढी मदद मिली। इसके पश्चात ज्ञानज्योति–अलोक-सहित तीनों लोकों के लिये दर्पण 'युक्त्यनुशासन'के अनुवादको भी हाथमें लिया गया था की तरह श्राचरण करती है- उन्हें अपने में स्पष्टरूपसे
और 'देवागम' के अनुवादको हाथ में लेनेका विचार था. प्रतिबिम्बित करती है। अर्थात जिनके केवलज्ञानमें प्रलोकक्योंकि मैं चाहता था कि इन सब अनुवादोंके साथ, जिनमें महित तीनों लोकोंके सभी पदार्थ साक्षातरूपसं प्रतिभासित 'स्तुतिविद्या' का अनुवाद माहित्याचार्य पं. पन्नालालली होते हैं और अपने इस प्रतिभास-द्वारा ज्ञानस्वरूप प्राप्मामें (सागर) कृत अपने पास पहले से मौजूद है, समन्तभद्र- कोई विकार उत्पन्न नहीं करते-वह दर्पणकी तरह भारतीको शीघ्र ही प्रकाशित कर दिया जाय । चुनाचे निर्विकार बना रहता है-उन श्रीमान वर्तमानको'युक्त्यनुशासन' का एक तिहाईके करीब अनुवाद हो भी भारताविभूति (दिव्यवाणी) रूप श्रीसे सम्पमा भगवान् चुका था, परन्तु वह अनुवाद दि. जैन परिषद के कानपुर महावीरको-नमस्कार हो। अधिवेशनकी भेंट हो गया--वहीं वॉक्सके साथ चोरी व्याख्या- 'वईमान' यह इस युगके आईत-मत. चला गया ! इससे चित्तको बहुत आघात पहुंचा और प्रवर्तक अथवा जैन धर्मके अन्तिम तीर्थरका नाम है, जिन्हे प्रागेको अनुवादकी प्रवृत्ति ही रुक गई !"
वीर, महावीर तथा सन्मति भी कहते हैं। कहा जाता है कि हाल में पिछली एक घटनाके कारण मेरा ध्यान फिरसे आपके गर्भमे श्राते ही माता-पितादिके धन, धान्य, राज्य, भाष्यकी ओर गया और यह खयाल पैदा हश्रा कि बडे राष्ट्र, बल, कोष, कुटुम्ब तथा दूसरी अनेक प्रकारकी विभूति पैमानेपर नहीं तो छोटे पैमानेपर ही सही, जीवनके इस की अतीव वृद्धि हुई थी, जिससे 'वर्द्धमान' नाम रखनेका लक्ष्यको शीघ्र पूरा करना चाहिये--इसपे बहुतोंका हित पहले से ही संकल्प होगया था, और इसलिये इन्द्र-द्वारा होगा । तदनुसार कितने ही पद्योंके अनुवाद के साथ व्याख्याने दिये गये 'वीर' नामके साथ यह 'बर्द्धमान' नाम भी प्रापका लगा दियागया है और कितने ही पोंकी व्याख्या जो अभी १जयभिचणं एस दारा कुच्छिसि गम्भताए वक्ते लिखनेको बाकी है उसके जल्दी लिखे जाने का प्रयत्न जारी है। तापभिई च णं अम्हे दिग्रोणं वढामो सुवरणेणं धरणेणं
यहाँ मैं इस भाप्यकं वुछ अशीको, नमूने के तौर पर, धन्नेणं रज्जेणं ?ण बलेणं वाहणेणं कोसणं कुष्टागारेणं मूलके साथ अनेकान्त-पाठकोंके सामने रखता हूं. जिससे परेणं अन्तेउग्णं जणवएण जावसएणं बहामो विपुलधणउन्हें इसके स्वरूपादिका ठीक परिचय प्राप्त हो सके और कणग-रयण- मणि - मुत्तिय - संख-सिलप्पवाल - रत्तस्यणवे इसकी उपयोगिता तथा विशेषताका कुछ अनुभव कर माइएणं मंत-सारसावइज्जेणं पीइ-मकारेणं अईव अईय सके। साथ ही, अनुभवी विद्वानोंम्प मेरा यह नम्र निवेदन वढामी, तं जयाणं श्रम्हं एस दारए जाए भविस्सह तयाणं है कि वे त्रुटियोंसे मुझे सूचित करें और यदि अपने अनु- अम्हे एयस्स दारगस्स एयागुरूवं गुएणं गुणनिप्पणं नामभवके बलपर उन्हें अनुवाद तथा व्याख्याके स्वरूप-संबन्ध धिज्जं करिस्मामो-वद्धमाणु ति ॥१०॥" -ल्पसूत्र
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अनेकान्त
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अम्मनाम है। 'श्री' शब्द नामका अहम होकर साथमें तवार्थोंका कीर्तन (सम्यग्वर्णन) होनेसे उसे 'कीर्ति' नाम विशेषण, जो उनकी श्रीमत्ता अथवा श्रीविशिष्टताको भी दिया है और वर्द्धमानस्वामीको महती कीर्ति (युक्तिसूचित करता है। और इस लिये 'श्रीवर्द्धमानाय' पदका श.साविरोधिनी दिव्यवाणी) के द्वारा भूमण्डलपर वृद्धि विग्रहरूप अर्थ हुमा श्रीमते वर्द्धमानाय'-श्रीमान्(श्रीसम्पन्न) (व्यापकता) को प्राप्त हुया बतलाया है | जिस पाईन्स्यबर्द्धमानके लिये। स्वयं ग्रन्थकार महोदयने अपनी स्तुति- लक्ष्मीमे प्राप्तभगवान देव-मनुष्यादिकी महती समवसरण विद्या(जिनशतक)में भी इस पदको इसी प्रका मे विश्लेषित सभामें शोभाको प्राप्त होते हैं उसका यह दिव्यवाणी फरके रक्खा है, जैसा कि उसके निम्नवाक्यसे प्रक्ट है- प्रधान अङ्ग है, इसीके द्वारा शासनतर्थ अथवा प्रागमतीर्थ "श्रीमते वर्द्धमानाय नमो नमित-विद्विषे” ॥१०॥ का प्रर्वतन होता है और उसके प्रवर्तक शास्ता, तीर्थङ्कर
इससे स्पष्ट है कि ग्रन्थकार महोदयको 'बर्द्धमान' नाम तथा प्रारमेशी कहलाते हैं। शेष दो प्रमुख अङ्ग निर्दोषता ही अभीष्ट है-'श्रीवर्द्धमान' नहीं। ग्रन्थकारसे पूर्ववर्ती और सर्वज्ञता हैं, जिन्हें उक्त मङ्गल-पद्यमें 'निर्धतकलिप्राचार्य श्रीकुन्दकुन्दने भी अपने प्रवचनसारकी आदिमें लात्मन' धादि पदोंके द्वारा व्यक्त किया गया है। और पणमामि बढ़माणं' वाक्यके द्वारा 'वर्द्धमान' नामकी इससे भी यह और स्पष्ट होजाता है कि प्राप्तके प्रमुख तीन मृचना की है। अत: 'श्री' पद यहाँ विशेषण ही है। विशेषयों में से अवशिष्ट विशेषण तीर्थप्रवर्तिनी दिब्यवाणी
'श्री' शब्द लचमी, धनादि सम्पत्ति, विभूति, वाग्देवी. ही यहां 'श्री' शब्दके द्वारा परिगृहीत है और उस श्रीसे सरस्ववाणी-भारती२, शोभा, प्रभा, उच्चस्थिति, महानता, बर्द्धमानस्वामीको सम्पन्न बतलाया है। इस तरह प्राप्तके दिव्यशक्ति, गुणोत्कर्ष और आदर-सत्कारादि अनेक अर्थोंमें उत्सन्नदोष, पर्वज्ञ और प्रागमेशी ये तीन विशेषण जो प्रयुक्त होता है और जिस विशेषण के साथ जुडता हे उसकी भागे इसी ग्रन्थ कारिका) मे बताये गये हैं और स्थितिके अनरूप इसके अर्थ में अन्तर, तर-तमता, न्यूना- जिनके बिना प्राप्तता होती ही नहीं: ऐपा निर्देश किया है, धिकता अथवा विशेषता रहती है। यहां जिन प्राप्त उन सभीके उल्लेखको लिये हुए यहां प्राप्तभगवान भगवान वईमानके लिये यह पद विशेषणरूपमें प्रयुक्त वर्द्धमानका स्मरण किया गया है। युक्त्यनुशासनकी प्रथम हा है उनकी उम भारती-विभूति अथवा वचनश्रीका कारिकामे भी. वीर वर्द्धमानको अपनी स्तुतिका दिषय द्योतन करता है जो युक्ति शास्त्राविरोधिनी दिव्यवाणीके बनाते हुए, स्वामी समन्तभद्रने इन्हीं तीन विशेषणोंका रूपमें अवस्थित होती है और जिसे स्वयं स्वामी समन्तभद्र प्रकारान्तरसे निर्देश किया है। वहाँ 'विशीण-दोषाशयने सर्वज्ञलचमीसे प्रदीप्त हुई समग्र शोभा-सम्पत्र 'सरस्वती' पाश-बन्धम' पदके द्वारा सि गुणका निर्देश किया है लिया है तथा जीवन्मुक्त (महन्त) अवस्थामें जिसकी उसके लिये यहां निधतलिलात्मने पदका प्रयोग प्रधानताका उल्लेख किया है। साथ ही, उसके द्वारा किया है. और यह पद-प्रयोग अपनी खास विशेषता रखता १ अलं तदिति तं भक्तथा विभूष्योद्यविभूषणः । है। इस धर्मशास्त्रमें सर्वत्र पापोंको दूर करनेका उपदेश है वीरः श्रीवर्द्धमानस्तेविल्याख्या-द्विनयं व्यधात् ॥२७६॥ और वह उपदेश उन वर्द्धमानस्वामीके उपदेशानुसार है
उत्तरपुराण, पवं ७४ जोतीर्थर हैं और जिनका धर्मशासन (तीथ) इस समय २ 'श्रीलक्ष्मी-भारती-शोभा-प्रभासु सरलद्रुमे ।
भी लोकमें वतमान है। और इस जिये धर्मशास्त्रकी प्रादि वेश-त्रिवर्ग-सम्पत्तौ शेषारकरणे मतौ ॥'
--विश्वलोचने. श्रीधरः
में जहां उनका स्मरण सार्थक तथा युक्तियुक्त हुआ है वहाँ 'श्रीलक्ष्य... ." मतौ गिरि । शोभा-त्रिवर्गसम्पत्योः ॥ ४काय
४कीर्त्या महत्या भुवि वर्द्धमानं त्वा वर्द्धमानं स्तुतिगोचरत्वम् । --अभिधानसंग्रहे, हेमचन्द्रः ।
. निनीषवः स्मो वयमद्य वीरं विशीर्ण दोषाशय-पाशबन्धम् ।। ३ बभार पद्मा च सरस्वती च भवान्पुरस्तात्पतिमुक्तिलक्ष्म्याः ।
. -युक्त्यनुशासन १ सरस्वतीमेव समग्रशोभा सर्वशलक्ष्मी-ज्वलिता विमुक्तः ॥२७ ५श्राईन्त्यलक्ष्म्याः पुनरात्मतन्त्रो देवाऽसुरोदोरसभे राज ॥ -स्वयम्भूस्तोत्र
-स्त्रयम्भूस्तोत्र ७८
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किरण :-१०]
समीचीन धर्मशास्त्र और उसका हिन्दी-भाष्य
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उन्हें 'निधताललात्मा'-पारमासे पापमलको दूर करने नरक भी पा जाते हैं, तद्गत द्रव्यों-महित 'अधोलोक' वाला-प्रदर्शित करना और भी सार्थक तथा युक्तियुक्त कहलाता है । रत्नप्रभाभूमिसे ऊपर सुदर्शनमेर की चूलिका हुधा है और यह सब ग्रन्थकार महोदयकी कथनशैलीकी तकका सब क्षेत्र तद्गत द्रव्यों सहित 'मध्य जोक' कहा खूबी है-वे भागे-पीछेके सब सम्बन्धोंको ठीक ध्यानमें जाता है और उसमें सम्पूर्ण ज्योतिर्लोक तथा तिर्यक्लोक रखकर ही पद-विन्यास किया करते हैं।
अन्तिमवातवलय-पर्यन्त शामिल है। और सुदर्शनमेरुकी 'कलिल' शब्द कल्मष, पार और दुरित जैसे शक के चूलकासे ऊपर स्वर्गादिकका इधर-उधरके मब प्रदेशों साथ एकार्थता रखता है। इन शब्दोंको जिस अर्थ में स्वयं सहित जो मन्तिम वातवलय पर्यन्तका स्थान है वह तद्गत स्वामी समन्तभद्र ने अपने ग्रन्थों में प्रयुक्त किया है प्राय: उस दयों सहित अर्ध्वलोक' कहलाता है। लोकके इन तीन सभी अर्थ को लिये हुए यहां कलिल' शब्दका प्रयोग विभागोंकी जैनागममें 'त्रिलोक' संज्ञा है। इन तीनों लोकस है। उदाहरण के तौरपर स्वयम्भूस्तोत्रके पार्श्वजिनस्तवनमें बाहरका जो क्षेत्र है और जिसमें सब ओर अनन्तमाकाशके 'विधूतकल्मषं' पदके द्वारा पार्श्वजिनेन्द्रको जिस प्रकार सिवाय दूसरा कोई भी द्रव्य नही है। उसे 'अलोक' कहते घातिकर्मकलङ्कमे-ज्ञानावरण, दर्शनावकण मोहनीय और है। लोक अलोकमें संपूर्ण ज्ञेय तत्वोंका ममावेश होतानस अन्तराम नामक चार घातियाकर्मोंसे-रहित सूचित किया उन्हीं में ज्ञेय-तस्वकी परिसमाप्ति की गई है। अर्थात् प्राम है उसी प्रकार यहां 'निधुतकलिलात्मन' पदके द्वारा में यह प्रतिपादन किया गया है कि 'ज्ञेयतत्व लोक-अनक बर्द्धमान जिनेन्द्रको भी उसी घातिकर्मकलसे रहित व्यक्त है-लोक-लोकसे भिन्न अथवा बाहर दूसराकोई ज्ञेय' पदर्थ किया है। दोनों पद एक ही अर्थक वाचक हैं। है ही नहीं। साथ ही, ज्ञेय ज्ञानका विषय होने और ज्ञान
'लोक' उसे कहते हैं जो अनन्त श्राकाशके बहुमध्य- की सीमाके बाहर शेयका कोई अस्तित्व न बन सकनेसे यह भागमे स्थित और प्रान्त में तीन महायातवलयोंग वेष्टित भी प्रतिपादन किया गया है कि 'ज्ञान ज्ञेयप्रमाण है'। जीवादि षट् द्रव्योंका समूह है, अथवा जहां जीव-पुद्गलादि जब ज्ञेय लोक-प्रलोक-प्रमाण है तब ज्ञान भी लोकछह प्रकारके द्रव्य अवलोकन किये जायें देखे-पाए जायें- अलोक-प्रमाण ठहरा. और इसलिये ज्ञानको भी लोकवह सब 'लोक' है। उसके तीन विभाग हैं-ऊलोक, अलोककी तरह सर्वगत (व्यापक) होना चाहिये, जैसा कि मध्यलोक और अधोलोक । सुदर्शन-मेरुके मूलभागसे नीचे श्रीकुन्दकुन्दाचार्य-प्रणीत प्रवचनसारकी निम्न गाथासे का इधर-उधरका सब प्रदेश अर्थात् रत्नप्रभा भूमिसे लेकर प्रकट है:नीचेका अन्तिम वातवलय तकका सब भाग, जिसमें श्रादा णाणपमाणं गाणं ऐयप्पमारणमुहिडं । व्यन्तरो तथा भवनवासी देवोके प्रावास और सातों णेयं लोयाप्लोयं तम्हा गाणं तु सव्वगः ॥५-०३।। १श्रीकुन्दकुन्दाचार्य-द्वारा प्रवचनमारकी श्रादिमे दिया हा इसमें यह भी बतलाया है कि 'मामा ज्ञानप्रमाण वर्द्धमानका 'धोदघाइकम्मम." विशेषण भी इसी श्राशय है'-ज्ञानसे बड़ा या छोटा प्रारमा नही होता। और यह का द्योतक है ।
ठीक ही है, क्योंकि ज्ञानस मारमाको बडा माननेपर प्रात्म। २जैन विज्ञान के अनुसार जीव, पद्गल, धर्म, अधर्म काल का वह बढ़ा हुआ अंश ज्ञानशुन्य जड ठहरेगा और तब यह
और अाकाश ये छह द्रव्य हैं। इनके अलावा दूसग कोई कहना नही बन सकेगा कि आत्मा ज्ञानस्वरूप है अथवा द्रव्य नहीं है। दूसरे जिन द्रव्योकी लोकमे कल्पना की जाती ज्ञान प्रारमाका गुण है, जोकि गुणी (प्रारमा)में व्यापक है उन सबका समावेश इन्दीमे होजाता है। ये नित्य और (सर्वत्र स्थित) होना चाहिये। और ज्ञानमे प्रारमाको अवस्थित है-अपनी छहकी संख्याका कभी उल्लवन नही छोटा माननेपर प्रारमप्रदेशोसे बाहर स्थित ( बढ़ा हुश्रा) करते । इनमेसे पुद्गलको छोड़कर शेष सब द्रव्य अरूपी हैं। ज्ञान गुण गुणी(द्रव्य)के प्राश्रय-वना ठहरेगा और गुण
और इनकी चर्चा से प्राय: सभी जैन-सिद्धान्त-ग्रन्थ गुणी (द्रव्य) के आश्रय विना कहीं रहता नहीं, जैसा कि भरे पड़े हैं ।
'द्रव्याश्रया निगुणा गुणाः' गुणके इस तस्वार्थसूत्र-वर्णित
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३
अनेकान्त
[वर्ष ७
जक्षणसे प्रकट है। अत: श्रामा जान ये बड़ा या छोटा न होकर होते हैं और इस दृष्टिसे उनका वह निर्मलज्ञान स्वात्मप्रदेशों ज्ञान प्रमाण है. इसमें प्रापत्ति के लिये जा भी स्थान नहीं। की अपेक्षा सर्वगत न होता हा भी सर्वगत कहलाता है
जय प्रारमा ज्ञान प्रमाण है और ज्ञान ज्ञेष प्रमाण होने और तदनुरूप वे केवजी भी स्वारमस्थित होते हुए सर्वगत से लोंकाऽलोक प्रमाणित तथा पर्वगव है तब पारमा भी कहे जाते हैं । इसमें विरोधकी कोई बात नहीं है। सर्वगत हुधा। और इससे यह निष्कर्ष निकला कि प्रान्मा इस प्रकारका कथन विरोधालङ्कार का एक प्रकार है. जो अपने ज्ञानगुण पहित पर्वगत (पवव्यापक) होकर लोकाs. वास्तवमें विरोधको लिये हुए न होकर विरोध-सा जान लोकको जानता है, और इसलिये श्रीवर्द्धमानस्वामी लोकाs- पड़ता है और इसीसे 'विरोधाभाम' कहा जाता है । अतः जोकके ज्ञान होने पे 'मर्वज्ञ' हैं और वे सर्वगन होकर ही श्रीवर्द्धमान स्वामीके. प्रदेशापेक्षा सर्वव्यापक न होते हुए लोकानोकको जानते हैं। परन्तु प्रारमा मदा स्वारम प्रदेशों भी, म्वात्मस्थित होकर पर्वपदार्थोको जानने-प्रतिभासित में स्थित रहता है-समारावस्थामे प्रारमाका कोई प्रदेश करने में कोई बाधा नहीं पाती। मुलोत्तररूप प्रारमा देहसे बाहर नहीं जाता और मुक्ता- अब यहांपर यह प्रश्न किया जा सकता है कि दर्पण बस्थामे शरीरका सम्बन्ध सदाके लिये छूट जानेपर प्रात्मा तो वर्तमानमे अपने सन्मुख तथा कुछ तिर्यकस्थित पदार्थों प्रदेश प्राय: चरमदेहके प्राकारको लिये हुए लोकके अग्रभाग को ही प्रतिबिम्बित करता है-पीछेके अथवा अधिक में जाकर स्थित होते है, वहाँस फिर कोई भी प्रदेश किसी अगल बगल के पदार्थों को वः प्रतिविम्बत नहीं करतासमय स्वाप बाहर तिकलकर अन्य लदार्थोंमें नहीं और सन्मुखादिरूपसे स्थित पदार्थों में भी जो सूक्ष्म हैं, जाता । इसीसे ऐसे शुद्धामाओं अथवा मुक्तारमाओं को दरवर्ती हैं, किसी प्रकारके व्यवधान अथवा प्रावरणसे युक्त स्वामस्थित' कहा गया है और प्रदेशोंकी अपेक्षा सर्व है. अमर्तिक * भूतकाल में सम्मुख उपस्थित थे भविष्य व्यापक नहीं माना गया, परन्तु साथ ही सर्वगत' भी कहा कालम सन्मुख उपस्थित होंगे किन्तु वर्तमानमें मन्मुख उपस्थि गया है. जैमा कि 'स्थात्मस्थितः मवगतः समस्तव्यापार- नहीं हैं उनमें से किमीको भी वर्तमान समयमें प्रतिबिम्बित वेदी विनिवृत्त मंगः'' जैप वाक्याप प्रकट है । तब उनके नहीं करता है: जब ज्ञान दर्पणके समान है तब कवली इस पर्वगतत्वका क्या रहस्य है और उनका ज्ञान कैसे एक
अथवा भगवान महावीरके ज्ञानदर्पणमें अलोक-पहित तीनों जगतस्थित होकर मब जगतके पदार्थों को युगपत जानता लोकोंके सव पदार्थ युगपत कैम्प प्रतिभासित होसकते हैं ? है? यह एक मर्मकी बात है. जिम स्वामी समन्तभद्रने और यदि युगपत प्रतिभासित नहीं हो सकते तो
प्रदिशादायते' मे शब्दोंके द्वारा थोडेमें ही व्यक्त कर सर्वज्ञता कैसे बन सकती है? और कैसे 'सालोकानां दिया है। यहां ज्ञानको दपण बतलाकर अथवा दर्पणकी त्रिलोकानां यद्विद्या दर्पणायते' यह विशेषण श्री वर्द्धमान की उपमा देकर यह स्पष्ट किया गया है जिस प्रकार दर्पण
स्वामीके साथ संगत बैठ सकता है? मरने स्थानपे उठकर पदार्थों के पाप नही जाता, त उनमें
इसके उत्तरमें मैं सिर्फ इमना ही बतलाना चाहता हूँ प्रविष्ट होता है और न पदार्थ ही अपने स्थानसे चलकर
कि उपमा और उदाहरण (दृष्टान्त) प्रायः एकदेश होने हैंहमारे पास आने तथा उसमें प्रविष्ट होते हैं, फिर भी सर्वदेश नहीं. और इसलिये सर्वापेक्षामे उनके साथ तुलना पदार्थ दर्पग में प्रतिविम्बित होकर प्रविष्टमे जान पड़ते हैं और न की जाती
नहीं की जा सकती । उनले किसी विषयको समझने में
। उनसे किसी विषय दर्पण भी उन पदार्थों को अपनेमे प्रतिबिम्बत करता हुआ सद्
मदद मिलती है, यही उनके प्रयोगका लक्ष्य होता है। गत तथा उन पदार्थों के प्राकाररूप परिणत मालूम होता है,
जैसे किसीके मुखको चन्द्रमाकी उपमा दी जाती है, तो
लेकिन और यह सब दर्पण तथा पदार्थोकी इच्छाके बिना ही वस्तु-स्व. उमका इतना ही अभिप्राय होता है कि वह अतीव गौरमावसे होता है। उसीप्रकार वस्तुस्वभावसे ही शुद्धारमा केवलीके वर्ण है-यह अभिप्राय नहीं होता कि उसका और चंद्रमा केवल-शा रूप दर्पणमें अलोकसहित सय पदार्थ प्रतिबिम्बित का वर्ण बिल्कुल एक है अथवा वह सर्वथा चन्द्र-धातुका , देखो, श्री धनंजयकृन विषापहार स्तोत्र ।
ही बना हुआ है और चन्द्रमाकी तरह गोलाकार भी है।
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किरण ७-८]
समीचीन-धर्मशास्त्र और उसका हिन्दी-भाष्य
इसी तरह दर्पण और ज्ञानके उपमान-उपमेय-भावको दर्पण तो उससे भी बढ़ा चढ़ा होता है, जिसमें पूर्व जन्म समझना चाहिये । यहां ज्ञान (उपमेय) को दर्पण (उपमान) अथवा जन्मोंकी सैंकड़ों वर्ष पूर्व और हजारों मील दूर तक की जो उपमा दी गई उसका लक्ष्य प्रायः इतना ही है कि की भूतकालीन घटनाएं साफ झलक पाती हैं। इसी तरह जिस प्रकार पदार्थ अपने अपने स्थानपर स्थित रहते हुए निमित्तादि श्रतज्ञान-द्वारा चन्द्र-सूर्य ग्रहणादि जैसी भविष्य भी निर्मल दर्पण मे ज्योंके त्यों झलकते और तद्गत मालूम की घटनाओं का भी सवा प्रतिभास हुमा करता है । अब होते हैं और अपने इस प्रतिबिम्बित होनेमें उनकी कोई लौकिक दर्पणों और स्मृति प्रादि क्षायोपश मक ज्ञानइच्छा नहीं होती और न दर्पण ही उन्हें अपने में प्रति- दर्पणोंका ऐसा हाल है तब केवलज्ञ न-जैसे अलौकिक बिम्बित करने-करानेकी कोई इच्छा रखता है--सब कुछ दपंणकी तो बात ही क्या है ? उस सर्वातिशायी ज्ञानदर्पण वस्तु स्वभावये होता है, उसी तरह निर्मल ज्ञानमे भो में प्रलोक-सहित तीनों लोकोंके वे सभी पदार्थ प्रतिभासित पदार्थ-ज्योंके त्यों प्रतिभासित होते तथा तद्गत मालूम होते है जो 'ज्ञेय' कहलाते हैं-चाहे वे वर्तमान हों या होते हैं और इस कार्यमें किसीकी भी कोई इच्छा चरितार्थ अवर्तमान । क्योंकि ज्ञेय वही कहलाता है जो ज्ञानका नही होती-वस्तुस्वभाव ही सर्वत्र अपना कार्य करता विषय होता है--ज्ञान जिस जानता है । ज्ञानमे लोकहुआ जान पड़ता है। सस अधिक उसका यह प्राशय अलोकके सभी ज्ञेय पदार्थों को जाननेकी शक्त है, वह तभी कदापि नहीं लिया जा सकता कि ज्ञान भी साधारण दर्पण तक उन्हें अपने पूर्णरूपमें नही जान पाता जब तक उसपर की तरह जड है, दर्पण-धातुका बना हुआ है, दर्पण के पड़े हुए श्रावरणादि प्रतिबन्ध सर्वथा दूर होकर वह शक्त समान एक पावं (Sd- ) ही उसका प्रकाशित है और पूर्णत: विकसित नहीं हो जाने। ज्ञान-शक्तिक पूर्णविकमित वह उस पार्श्वके सामने निगवरण प्रथषा व्यवधानाहित और चरितार्थ होने में बाधक कारण हैं ज्ञानावरण, दर्शनाअवस्थामें स्थित तात्कालिक मृतिक पदार्थको ही प्रतिबि. वरण, मोहनीय और अन्तराय नामके चार घातिया कर्म । म्बित करता है । ऐसा श्राशय लेना उपमान-उपमेय-भाव इन चारों घातिया कर्मोकी सत्ता जब प्रारमामें नही रहती तथा वस्तुस्वभावको न समझने जैसा होगा।
तब इसमें उस अप्रतिहत शक्ति ज्ञान-ज्योतिका उदय इसके मिवाय, दर्पण भी तरह तरहके होते हैं । एक होता है जिसे लोक-अलोकके सभी ज्ञेय पदाथोंको अपना सर्वसाधारण दर्पण, जो शरीरके ऊपरी भागको ही प्रति- विषय करनेसे फिर कोई रोक नहीं सकता। बिम्बित करता है--चर्म-मांसके भीतर स्थित हाडों श्रादि जिस प्रकार यह नहीं हो सकता कि दाहक-स्वभाव को नहीं. परन्तु दूसरा ऐक्स-रेका दर्पण चर्म-मांसके व्यव- अग्नि मौजूद हो, दाह्य-इन्धन भी मौजूद हो, उमे बहन धानमें स्थित हाहो श्रादिको भी प्रतिविम्बित करता है। करने में अग्निके लिये कोई प्रकारका प्रतिबन्ध भी न हो और एक प्रकारका दर्पण समीप अधवा कुछ ही दूरके पदार्थों फिर भी वह अग्नि उस दाह्यकी दाहक न हो, उसी प्रकार को प्रतिविम्बित करता है, दूसरा दर्पण (रे.डयो श्रादि यह भी नहीं हो सकता कि उक्त अप्रतिहन-ज्ञानज्योतिका द्वारा) बहुत दूरके पदार्थों को भी अपने प्रतिविम्बित कर धारक कोई कंवलज्ञानी हो और वह किसी भी ज्ञेयके लेता है। और यह बात तो साधारण दर्पणों तथा फोटों विषयमें अज्ञानी रह सके। इसी श्राशयको श्रीविद्यानन्न दर्पणों में भी पाई जाती है कि वे बहुतसे पदार्थों को अपने में स्वामीने अपनी अष्टसहस्रीमे, जो कि समन्तभद्रकृत छाप्त. युगपत् प्रतिविम्बित करलेते हैं और उसमें कितने ही निकट मीमांसाकी टीका है, निम्न पुरातन वाक्यद्वारा व्यक्त किया हैतथा दूरवर्ती पदार्थों का पारस्पिरिक अन्तराल भी लुप्त-गुप्त ज्ञो मे ये कथमज्ञः स्यादति प्रतिबन्धने । सा हो जाता है, जो विधिपूर्वक देखनेसे स्पष्ट जाना जाता दाह्येऽग्निर्दाहको न स्यात्सति प्रतिबन्धन ।। है। इसके अलावा स्मृतिज्ञान-दर्पणमें हजारों मील दूरकी प्रतः श्रीवर्द्धमानस्वामीके ज्ञानदर्पणमें प्रलोक-सहित
और बीमियों वर्ष पहलेकी देखी हुई घटनाएँ तथा शक्लें तीनों लोकोंके प्रतिभासित होने में बाधाके लिये कोई स्थान (श्राकृतियाँ) साफ झलक पाती हैं। और जातिस्मरणका नहीं है, जब कि वे घातिकर्ममलको दूर करके नि
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अनेकान्त
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कलिलात्मा हो चुके थे, इसीसे उनके इस विशेषणको का अवसर भी दिया है। पहले रक्खा गया है। और चूंकि उनके इस निधं नकलि- निसन्देह. इस सुपरीक्षित और सुनिर्णीत गुणोंके नारमत्व नामक गुण विशेषका बोध हमें उनकी युक्ति- स्मरणको लिये हुए मङ्गल-पद्यको शास्त्रकी आदिम रखकर शास्त्राविरोधिनी दिव्य वाणीके द्वारा होता है। इसलिये स्वामी समन्तभद्र ने भगवान वर्द्धमानके प्रति अपनी श्रद्धा, उस भारती-विभूति-संसूचक 'श्री' विशेषणको कारिकामें भक्ति, गुणज्ञता और गुण प्रीतिका बड़ा ही सुन्दर प्रदर्शन उसमे भी पहला स्थान दिया गया है।
किया है। और इस तरहसे वर्तमान धर्मतीर्थ के प्रस्तक इस प्रकार यह निबद्ध मङ्गलाचरण ग्रन्थकारमहोदय श्रीवीर-भगवानको तद्पमे - प्राप्तके उक्त तीनों गुणोस स्वामी सपन्तभद्रके उम अनुचिन्तनका परिणाम है जो ग्रन्थ विशिष्ट रूपमें-देखने तथा समझने की दूसरोंको प्रेरणा की रूप-रेखाको स्थिर करनेके अनन्तर उसके लिये अपनेको भी की है। श्रीवर्द्धमानस्वामीका आभारी माननेके रूप में उनके हृदय में इम शष्ट-पुरुषानुमोदित और कृतज्ञ-जनताभिनन्दित उदित हया है, और इसलिये उन्होंने सबसे पहले 'नमः' स्वेष्ट-फलप्रद मालावरण के अनन्तर अब स्वामी समन्तभद्र शब्द कहकर भगवान् बर्द्धमानके आगे अपना मस्तक झुका अपने अभिमन शास्त्रका प्रारम्भ करते हुए उसके प्रतिपाद्य दिया है और उसके द्वारा उनके उपकारमय प्राभारका विषयकी प्रतिज्ञा करते हैं:स्मरण करते हुए अपनी अहंकृतिका परित्याग किया है।
ग्रन्थ विषय-व्यावर्णनात्मक-प्रतिज्ञा ऐसा वे मौखिकरूपसे मङ्गलाचरण करके भी कर सकते देशयामि समीचीनं धर्म कर्मनिवर्हणम । थे-उसे ग्रन्थमें निबद्ध करके उसका अङ्ग बनाने की जरूरत संसारदुःश्वतः सत्वान यो धरत्युत्तमे सुखे ।।२।। नहीं थी। परन्तु ऐसा करना उन्हे इष्ट नहीं था। वे प्राप्त 'मै उस ममीचीन धर्मका निर्देश (वर्णन) करता पुरुषोंके ऐसे स्तवनों तथा स्मरणों को कुशल परिणामोंका- हैं जो कर्मों का विनाशक है और जीवोंको संसारके पुण्य-प्रमाधक शुभभावोंका-कारण समझते थे और उनके दुःखसे-दुःखममूहस-निकाल कर उत्तम-सुख में धारण द्वारा श्रेयोमार्गका सुलभ तथा स्वाधीन होना प्रतिपादन करता है। करते थे। उन्होंने 'पागमां जये' जैसे पदोंके द्वारा अपनी व्याख्या-इस वाक्यमें जिम धर्मके स्वरूप-कथनकी स्तु तेनियाका लक्ष्य 'पापोंका जीतना' बतलाया है। 'देशयामि' पदके द्वारा प्रतिज्ञा की गई है उसके तीन ख़ास और इसलिये ऐसे स्तवनादिकोंमे उन्हें जो प्रारमसन्तोष विशेषण है-सबसे पहला तथा मुख्य विशेषण है 'समीचीन' होता था उस वे दूसरों को भी कराना चाहते थे और दूसरा का निवर्हग' और तीसरा 'दुखम उत्तम-मुखमें प्रमोत्कर्षकी साधनाका जो भाव उनके हृदयमे जागृत धरण'। पहला विशेषण निर्देश्य धर्मकी प्रकृतिका द्योतक होता था उसे वे दूसरोके हृदयमें भी जगाना चाहते थे। है और शेष दो उसके अनुष्ठान-फलका सामान्यतः (संक्षेपमें) ऐसी ही शुभ भावनाको लेकर उन्होंने ग्रन्थकी प्रादिमें निरूपण करने वाले हैं। किये हुए अपने मङ्गलाचरणको ग्रन्थमें निबद्ध किया है, 'कर्म' शब्द विशेषण-शून्य प्रयुक्त होनेस उममें द्रव्य
और उसके द्वारा पढने सुननेवालोंकी श्रेय-साधनामें महायक कम और भावकर्मरूपस पब प्रकारके अशुभादि कोका होते हुए उन्हें अपनी तात्कालिक मनःपरिणतिको समझने समावेश है, जिनमें रागादिक 'भावकम' और ज्ञाना
पीक मामी ममतने वरणादिक 'द्रव्यकर्म' कहलाते हैं। धर्मको कोंका निवर्हणअपने 'श्राप्तमीमामा' (देवागम) नामके दूसरे ग्रन्थमे 'स बिनाशक बतलाकर इस विशेषणके द्वारा यह सूचित किया त्वमेवासि निर्दोषो युक्ति-शास्त्राविरोधिवाक्' इत्यादि गया है कि वह वस्तुत कर्मबन्धका कारण नहीं, प्रत्युत वाक्यो के द्वारा विस्तार के माथ किया है।
४इभी बातको श्रीअमृतचंद्राचार्यने पुरुषार्थसिद्धयुपायके निम्न २ देखो, स्वायम्भूस्तोत्र कारिका ११६
वाक्योमे धर्मके अलग अलग नीन अङ्गीको लेकर स्पष्ट किया ३ देखो, स्तुति विद्या (जिनशतक), पद्य न० १
है और बतलाया है कि जितने अंशमे किसीके धर्मका पद
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किरण ६-१०]
समीचीन-धर्मशास्त्र और उसका हिन्दी-भाष्य
इसके बन्धनसे छुदानेवाजा है। और जो बन्धनसे छुडाने सांसारिक उत्तम सुखोंका प्राप्त होना उसका मानुषङ्गिक कक्ष वाला होता है वही दुखसे निकालकर सुख में धारण करता है- धर्म उसमे बाधक नहीं, और इस तरह प्रकारान्तरसे है; क्योंकि बन्धनमें-पराधीनतामें - सुख नहीं किन्तु धर्म संसारके उत्तम सुखोंका भी साधक है, जिन्हें प्रन्थमें दुःख ही दु.ख है। इसी विशेषणकी प्रतिष्ठापर तीसरा 'अभ्युदय' शब्दक द्वारा उल्लेखित किया गया है। इसीसे विशेषण चरितार्थ होता है, और इसी लिये वह कर्म- दूसरे प्राचार्योंने 'धर्मः सर्वसुखाकरो हितकरो' इत्यादि निवर्हण' विशेषणके अनन्तर रक्खा गया जान पड़ता है। वाक्योंके द्वारा धर्मका कीर्तन किया है। और स्वयं स्वामी
सुख जीवोंका सर्वोपरि ध्येय है और उसकी प्राप्ति समन्तभद्रने ग्रन्थ मन्तमें यह प्रतिपादन किया है कि जो अपने धर्मसे होती है। धर्म सुखका साधन (कारण) है और आत्माको इस (रत्नत्रय )धर्मरूप परिणत करता है उसे साधन कभी माय (कर्म) का विरोधी नहीं होता, इसलिये तीनों लोकोंमें 'सर्वार्थ सिद्धि' स्वयंवराकी तरह बरती है धर्मसे वास्तव में कभी दुखकी प्राप्ति नहीं होती, वह तो अर्थात उसके सब प्रयोजन अनायास सिद्ध होते हैं।' और सदा दःखोंप बहाने वाला ही है। इसी बातको लेकर इपलिये धर्म करनेमे सुख में बाधा पाती।'ऐया समझना श्रीगुणभद्राचार्यने, प्रात्मानुशासनमें, निम्न वाक्य द्वारा भूल ही होगा । सुखका आश्वासन देते हुए उन लोगों को धर्म में प्रेरित किया वास्तवमें उत्तमसुख जो परतन्त्रादिके अभावरूप शिवहै जो अपने सुख में बाधा पहुंचने के भयको लेकर धर्मम (निःश्रेयस)सुख है और जिम स्वयं स्वामी समन्तभदने विमुख बने रहते हैं
'शुद्धसुख२ बताया है उसे प्राप्त करना ही धर्मका मुख्य धर्मः सुग्वस्य हेतुर्हेतुर्न विरोधकः स्वकार्यस्य । लक्ष्य है-इन्द्रियमुखों अथवा विषय भोगोंको प्राप्त करना तस्मात्सुम्बभङ्गभिया माभूर्धम्य विमुग्यस्त्वम ॥२० धर्मामाका ध्येय नहीं होता। इन्द्रियसुख बाधित, विषम,
धर्म करते हुए भी यदि कभी दुःख उपस्थित होता है पर श्रित, भंगुर, बन्धहेतु और दुःखमिश्रित प्रादि दोपोंसे सो उसका कारण पूर्वकृत कोई पापकर्मका उदय ही दूषित है। स्वयं स्वामीसमन्तभद्ने इसी अन्धमें 'कर्मसमझना चाहिये, न कि धर्म । 'धर्म शब्दका व्युत्पत्यर्थ परवशे' इत्यादि कारिका-द्वारा उसे 'कर्मपरतन्त्र, सान्त अथवा निरुत्यर्थ भी इसी बातको सूचित करता है और (भंगुर), दुःखोंमे अन्तरित-एकरसरूप न रहने वाला तथा उम अर्थको लेकर ही तीसरे विशेषणकी घटना (सृष्ट) की पापोंका बीज बतलाया है। और लिखा है कि धर्मात्मा गई है। उसमें सुग्वका 'उत्तम' विशेषण भी दिया गया है. (पम्यग्दृष्टि) ऐसे सुखकी प्राकांक्षा नहीं करता। और इस जिससे प्रकट है कि धर्मम उत्तम सुखकी-शिवसुम्बकी लिये जो लोग इन्द्रिय-विषयोंमे प्रामक्त हैं फंसे हुए हैंअथवा यो कहिये कि अबाधित सुखकी प्राप्ति तक होती अथवा सांसारिक सुख को ही सब कुछ पमझते हैं वे भ्रामग. है; तब साधारण सुख तो कोई चीज़ ही नहीं-वे नो धर्म चित्त हैं-उन्होंने वस्तुतः अपनेको मममा ही नहीं और सं सहजमें ही प्राप्त होजाते हैं। सांसारिक दुःखोंके छटनेसे न उन्हें निराकुलतामय मच्च्चे स्वाधीन सुखका कभी दर्शन अङ्ग है उतने अशम उसके कर्मबन्ध नही होता-कर्म- या आभास ही हुधा है। बन्धका कारण रागाश है, वह जितने अशी साथ होगा यहाँ पर इतना और भी जान लेना चाहिये कि उक्त उतने अंशोमे बन्ध बँधेगा।
१ देखो, निःश्रेयममभ्युदयं' तथा 'पूजार्थाजैश्चय:' नामकी येनाशेन सुदृष्टिस्तेनाशेनाऽस्य बन्धनं नास्ति । कारिकाएँ (१३०, १३५) येनाशेन तु रागस्तेनाशेनाऽस्य बन्धनं भवति ॥२१२॥ २ 'निर्वाणं शुद्धसुखं निःश्रेयसमिष्यते नित्यम् ।' (१३१) येनाशेन ज्ञानं तेनाशेनाऽस्य बन्धन नास्ति । ३ श्रीकुन्दकुन्दाचार्य प्रवचनसार(१-७६)मे, ऐसे इन्द्रियसुख । येनाशेन तु रागस्तेनाशेनाऽस्य बन्धनं भवति ।।२१।। वस्तुतः दु:ख ही बतलाते हैं । यथा-- येनाशन चरित्रं तेनाशेनाऽस्य बन्धनं नास्ति । सपरं बाधासहियं विच्छिरणं बंध कारणं विसमं । येनाशेन तु रागस्तेनाशेनाऽस्य बन्धनं भवति ॥२१४॥ जं इंदियेहि लद्धं तं सोक्सं दुक्खमेव तहा ।।
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अनेकान्त
तीसरे विशेषण के संघटक व.क्य ('संसाग्दुरावतः सत्वान्
और धमका भी किसीके साथ कोई पक्षपात नहीं है-वह यो धरत्युत्तमे सुखे') में 'मत्वान पद सब प्रकारके विशे- प्रथकारके शब्दोंमें 'जीवमात्रका बन्धु है तथा स्वाश्रयमें षणोंसे रहित प्रयुक्त हुना है और इससे यह स्पष्ट है कि प्राप्त सभी जीवोंके प्रति समभावसे वर्तता है। इसी दृष्टिको धर्म किमी जाति या 'वर्ग-विशेषके जीवोंका ही द्वार नहीं लयमें रखते हुए ग्रन्थकार महोदयने स्वयं ही प्रन्थमें करता बल्कि ऊँचनीचादिका भेद न कर जो भी जीव--भले अगे यह प्रतिपादन किया है कि 'धर्मके प्रसादसे कुत्ता भी ही वह म्लेच्छ, चाण्डाल, पशु नारकी, देवादिक कोई भी ऊँचा उठकर (अगले जम्ममें ) देवता बन जाता है और क्यों न हो-उसको धारण करता है उसे ही वह दखसे ऊँचा उठा हुआ देवता भी पापको अपना कर धर्मभ्रष्ट हो निकाल कर सुख में स्थापित करता है और उस सुखकी जानेमे (जन्मान्तरमें) कुत्ता बन जाता है। साथ ही, यह मात्रा धारण किये हुए धर्मकी मात्रापर अवलम्बित रहमी भी बतलाया है कि धर्मसम्पन एक चाण्डालका पुत्र भी है-जो अपनी योग्यतानुम्पार जितनी मात्रा में धर्माचरण 'देव'--आराध्य है, और स्वभाव अपवित्र शरीर भी करेगा वह उतनी ही मात्रामें सुखी बनेगा। और इसलिये धर्म(रत्नत्रय)के सयोगसे पवित्र हो जाता है। अत: अपजो जितना ज्यादा दु:खित एवं पतित है उसे उतनी ही वित्र-शरीर एवं हीन जाति धर्मात्मा तिरस्कारका पात्र नही-- अधिक धर्मकी आवश्यकता है और वह उतना ही अधिक निजुगुप्सा अंगका धारकं धर्मात्मा ऐसे धर्मात्मासे घृणा न रख धर्मका शाश्रय लेकर उद्धार पानेका अधिकारी है। कर उसके गुणोंमें प्रीति रखता है और जो जाति आदि
वस्तुनः पतित' उसे कहते हैं जो स्वरूपमे च्युत है- किमी माके वशवा होकर ऐसा नहीं करता, प्रत्युत इसके स्वभावमें स्थिर न रहकर इधर उधर भटकता और विभाव ऐसे धर्मात्माका तिरस्कार करता है वह वस्तुतः प्रारमीय. परिणतिरूप परिणमता है- और इसलिये जो जितने धर्मका तिरस्कार करता है--फलतः श्रारमधर्मसे विमुख है। अंशों में स्वरूपमे च्युत है वह उतने अंशोंमें ही पतित है। क्योंकि धार्मिकके बिना धर्मका कही अवस्थ न नहीं और इस तरह सभी संसारी जीव' एक प्रकारसे पतितोंकी कोर्ट इमलिये धार्मिकका तिरस्कार ही धर्मका तिरस्कार है-- में स्थित और उसकी श्रेणियों में विभाजित हैं। धर्म जीवों जो धर्मका तिरस्कार करता है वह किसी तरह भी धर्मात्मा को उनके स्वरूपमें स्थिर करने वाला है, उनकी पतिता- नहीं कहा जा सकता। ये सब बात समन्तभद्र स्वामीकी वस्थाको मिटाता हुथा उन्हें ऊँचे उठाता है और इसलिये धर्म-मर्मज्ञताके साथ साथ उनकी धर्माधिकार-विषयक 'पतितोहाक' कहा जाता है । कूपमें पड़े हुए प्राणी जिम उदार भावनाओंकी द्योतक हैं और इन सबको दृष्टि-पथमें प्रकार रस्मेका सहारा पाकर ऊँचे उठ पाते और अपना रखकर ही 'मत्वान' पद सब प्रकारकं विशेषणोंसे रहित उद्धार कर लेते हैं उसी प्रकार ससारके दुःखोंमें डूबे हुए प्रयुक्त हुआ है। प्रस्तु। पतितमे पतित जीव भी धर्मका प्राश्रय एव सहारा पाकर अब रही 'समीचीन' विशेषणकी बात। (क्रमश) ऊँचे उठ पाते हैं और दुःखोंमे छूट जाते हैं२ । स्वामी :
४ पापमरातिधर्मो बन्धुजीवस्य चेति निश्चिन्वन् । (१४८) समन्तभद्र तो अतिहीन' (नीचातिनीच) को भी इसी नो.
५ श्वाऽपि देवोऽपि देवः श्वा जायते धर्म-किल्विषात् । में 'अतिगुरु' (अत्युच्च) तक होना बतलाते हैं। ऐसी स्थिति में स्वरूपसे ही सब जीवों का धर्मपर समान अधिकार है ६ सम्यग्दर्शनसम्पन्नमपि मातङ्गदेहजम् ।
- देवा देवं विदुर्भस्म-गूढागारान्तरौजसम् ।। (२८) १ जीवोके दो मूल भेद हैं-संमारी और मुक्त, जैसाकि 'ममारिणो
देवं श्राराध्य' इति प्रभाचन्द्र: टीकायाम् । मुक्ताश्च' इस तत्वार्थसूत्रसे प्रकट है। मुक्तजीव पूर्णत: स्व. रूपमे स्थित होनेके कारण पतितास्थासे प्रतीत होते हैं।
का ७ स्प्रभावतोऽशुचौ काये रत्नत्रय-पचित्रिते। २ "संमार एष कूपः सलिलानि विपत्ति जन्म-दःखानि निर्जुगुप्सा गुगण प्रीतिर्मता निर्विचिकित्सिता ।। (१३)'
१६ धर्म एव रज्जुस्तस्मादुद्धरति निर्मग्नान ॥" (परातन) ८ स्मयेन योऽन्यानत्येनि धर्मस्थान् गर्विताशयः । ३ 'यो लोके त्वा नतः मोऽतिहीनोऽप्यतिगुरुय॑तः ।"
सोऽत्येति धर्ममात्मीयं न धर्मों धार्मिकेविना ।। (२६) -जिनशतक ८२
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श्रोदादीजी-वियोग!
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जिन श्रीदादीजी श्रीमती रामीबाईजी धर्मपत्नी श्रीमान हृदय उदार और अतिथिसत्कार सराहनीय था; जो अपने ला. सुन्दरलालजी जैन रईस नानौताका सचित्र परिचय हितकी अपेक्षा दूसरोके और खासकर आश्रितजनोके हितकी अनेकान्त वर्ष ५ की मंयुक्त किरण ६-७ (जुलाई-अगस्त अधिक चिन्ता रखती थी; जिसका सारा जीवन बड़ा ही सन् १६४२) में मैने भनी रुमावस्थाके समय यह समझकर नम्र प्रेमपूर्ण तथा सेवापरायण रहा है जो गुएरीजनोंको देख दिया था कि कहीं बीमारीके चक्कर मे ऐसा न हो कि मुझे कर प्रफुल्लित हो उठती थी और विद्यासे बड़ा प्रेम रखती श्रापका परिचय लिखने और श्रापके प्रति अपनी कृतज्ञता थी; सत्कार्योमे जिसका सदा सहयोग रहा है, जो सदा बात व्यक्त करनेका अवसर ही न मिल सके, उन्दी पूज्य दादीजी का आज अनेकान्तके.ही कालमोमे मुझे वियोग लिखने के लिये बाध्य होना पड़ रहा है, यह मेरे लिये नि: मन्देह बड़ा ही कष्टकर है ! परन्तु इतना सन्तोषका विषय है कि मैं दादी जीकी बामारीकी खबर पाकर देहलीसे नानौता पाठ दिन पहले उनकी सेवा में पहुंच गया था और मैंने अपनी शक्तिभर उनकी मेवा करनेमे कोई बात उठा नही रक्खी । मेरे पहुंचने के कुछ दिन पहलेसे दादीजी बोलती नही थी और न अॉखे ही खोलती थी, मेरे पानेका समाचार पाकर उन्होंने श्रोख जग खोली और पुकारने पर शक्तिको बटोरकर कुछ हँगूग भी दिया। अगले दिन (१ ली जूनको) तो उन्होने अच्छी तरह श्रॉग्वे खोल दी और वे बोलने भी लगी, इससे उनके रोगमुक्त होनेकी कुछ अाशा बँधी और साथ ही उनके उम श्रद्धा-वाक्यकी भी याद हो श्राई जिसे वे अक्सर कहा करती थी कि 'जब तुत श्राजाते हो हमारे रोग-मोग सब चले जाते हैं'-कई बार रोगामे मुक्तिके ऐसे प्रसंग उपस्थित भी हुए हैं जो उनकी श्रद्धाके कारण बने हैं, और इस लिये उन्हे उनके उक्त श्रद्धा-वाक्यकी याद दिलाते हुए कहा गया कि 'अब तुमको अपनी धारणानुसार जल्दी अच्छा होजाना चाहिये। कई दिन वे कुछ अच्छी रही भी, परन्तु । अन्नको श्रायुकर्मने माथ नहीं दिया और वे ता. ७ जून (ज्येष्टकृष्ण १२) गुरुवारको दिनके ११॥ बजेके करीब इस की सच्ची एवं धुनकी पकी थी, दूसरेके थोड़ेसे भी उपकारको नश्वर एवं जीर्ण देहका समाधि-पूर्वक त्याग करके स्वर्ग बहुत करके मानतीर्थ और हमेशा दूसरोंको नेक सलाह सिधार गई! और इस तरह जैनसमाजसे एक ऐसी धर्म- दिया करती थी!! परायण-वीरगना उठ गई जिसमें पुरुषों-जैसा पुरुषार्थ और जीवन के पिछले आठ दिनोंमे मैंने उनके पास रहकर, वीरों-जैसी हिम्मत तथा होमला था: जो कष्टोको बड़े धैर्यके उन्हें धर्मकी बातें सुना कर और उनसे कुछ प्रश्न करके साथ सहन करती हुई कर्तव्य-पालनमें निपुण थी; जिसका जो निकटसे उनकी स्थितिका अनुभव किया तो उससे
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१०२
अनेकान्त
मालूम हा कि वे अपने अन्तिम जीवनमे भी वीर बनी स्वयं मातृ-वियोग जैसे कष्टका अनुभव कर रहा हूँ। रही है। उन्होने अपने कष्टको स्वयं झेला, दमरो पर अपना माताकी तरह श्रार सदा ही मेरे हितका ध्यान रखती, मुझे दुःख व्यक्त नही किया और न मुखमुद्रापर ही दु:स्वका कोई धैर्य बँधाती और सत्कार्योंके करनेमे प्रेरणा प्रदान करती खास चिन्ह प्राने दिया-इस खयालसे कि कही दूसरोंको रही हैं। हार्दिक भावना है कि श्रामको परलोकमें यथेष्ट कष्ट न पहुँच जाय,' कुल्हने-कगहनेका नाम तक नहीं सुना सुख-शान्तिकी प्राप्ति होवे । गया, गुस्सा और मुझलाहट जो अक्सर कमजोरीके लक्षण हॉ. अपने दानका संकल्ल श्राप बहत पहलेसे कर
पास नहीं फटकन थ, पूछन पर भा कि तुम्ह क्या चुकी थी, जिसकी संख्या १००१) रु० है और जिसका कछ वेदना है?-मिर हिला दिया, नही। ऐसा मालूम विभाजन निम्नप्रकारसे किया गया है:होता था कि श्राप कर्मोदयको समताभावके साथ महन १००) दोनो श्रीजैनन्दिरजी, नानौता। करती हुई एक माध्वीके रूपमे पड़ो हैं। अापकी परिगति ३००) जैनकन्या-पाठशाला, नानौता। बहत शुद्ध रही है, पाशा, तृष्णा और मोह पर आपने बड़ा २५०) वीरसेवामन्दिर, सरसावा । विजय प्राप्त किया है, किसी चीजमे भी मनका भटकाव नहीं
) जैनवाला-विश्राम, श्राग। रसखा. किसी भी इष्टपदार्थस वियोगजन्य कष्टकी कोई रूप- १०.) मुमुक्षु-महिलाश्रम, महावीरजी। रेखा तक आपके चेहरे पर दिखाई नहीं पड़ती थी। किसी
१५) जैनकालिज, बड़ौत । को कुछ कहना या सन्देश देना है ? जब यह पूछा गया तो
१०) श्राविकाश्रम, बम्बई। उत्तर मिला-'नहीं'। इतनी निस्पृहताकी किसीको भी
१०) जैनमहिला-परिषद्, श्रा।। श्राशा नही थी। अापने सब बारसे अपनी चित्त-वृत्तिको हटा
१०) जैनकन्या-पाठशाला, सहारनपुर लिया था, धार्मिक पाठोको बड़ी रुचि तथा एकाग्रताके
१०) जैनकन्या-पाठशाला, कैराना (मुजफ्फरनगर)। सुननी थी और उनमे जहाँ कहीं वन्दना या उच्चभावोके
५) जैनअनाथालय, देहली। प्रस्फुटनका प्रसंग प्राता था तो श्राप हाथ जोड़ कर मस्तक
५) ऋषभब्रह्मचर्याश्रम, मथुग। पर रखती थों, और इस तरह उनके प्रति अपनी श्रद्धा तथा
५) दि० जैनसंघ, मथुरा भक्ति व्यक्त करती थी। इन सब बातोसे श्रापकी अन्तरात्म
५) स्याद्वाद-महाविद्यालय, बनारस । वृत्ति और चित्तशुद्धि सष्ट लक्षित होती थी। अन्त ममय
५) महावीर ब्रह्मचर्याश्रम, कारंजा । तक प्रारको होश रहा तथा चित्तकी सावधानी बराबर बनी
५) सत्तर्क सुधातरंगिणी जैनपाठशाला. सागर । रही, और इस तरह आपने समाधि-पूर्वक देहका त्याग किया
५) जैनौषधालय, बडनगर । है, जो अवश्य ही आपके लिये सद्गतिका कारण होगा।
५) नमिसागर जैनौषधालय, देहली। देहत्यागके समय आपकी अवस्था ८६-८७ वर्षकी
५) जैनस्वैराती शफाखाना, सहारनपुर । थी। आपके इस वियोगमे श्रापकी पी गुणमाला और पोती
५) जैनकीर्तन, नानौता। जयवन्नीको जो कष्ट पहुँचा है उसे कौन कह सकता है ? मैं ।
___४५) पत्रोकी सहायतार्थ, जिनमें २५) अनेकान्त, १०) *मेरे पहुँचनेसे कुछ दिन पहले जब उनसे पूछा गया कि जैनमहिलादर्श, ५)जैनसन्देश और ५) जैनमित्रको। 'क्या तुम भाईजीको देखना चाहती हो उन्हें बुला' तो १) मनीआर्डर खर्च। उन्होंने यही कहा कि देखने की इच्छा तो है परन्तु उन्हें .
दु:म्वित-हृदय श्राने में कष्ट होगा ! दूसरोके कष्टका कितना ध्यान !! १००१)
जुगलकिशोर मुख्तार
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श्रीचन्द्रनामके तीन विद्वान
( ले० - पं० परमानन्द जैन शास्त्री )
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श्रीचन्द्र नामके तीन दिगम्बर विद्वानोंका पता चलता है, जो विक्रमकी ग्यारहवीं शताब्दी से सोलहवीं शताब्दी तक हुए हैं। इनमें प्रथम श्रीचन्द्र बलात्कार गणके आचार्य श्रीनन्दिके शिष्य थे जो लाड वागड़ संघ में हुए हैं । इन्होंने सागरसेन मैद्धान्तिक से महापुराणके विषम-पदोंका विवरण जानकर और मूलटिप्पणका अवलोकन कर उत्तरपुराणकी रचना वि० सं० २०८० में की है । इनकी दूसरी कृति पुराणमार है जिसका रचनाकाल संभवतः वि० सं० १०८० या १०८५ के आस-पासका अनुमान किया जाता है, क्यों कि समय-निर्देशक पुष्पिकामें लेखकोंकी कृपासे पाठ में कुछ अशुद्धि पाई जाती है। इनकी तीसरी कृति रवि पेणाचार्य पद्मचरितका टिप्पण है जिसे इन्होंने पं० प्रवचनसेनसे उक्तचरितको सुनकर वि० सं० १०८७ में बनाया था। इस टिप्पणी प्रतियां कितने ही ग्रंथभंडारों में पाई जाती हैं।
विक्रमकी तेरहवीं शताब्दी के विद्वान पंडित आशाधरजीने भगवती श्राराधनाकी 'मूलाराधना 'दर्पण' नामक टीका में ५८६ नं० की गाथाकी टीका करते हुए, श्रीचन्द्र टिप्पणका उल्लेख किया है यथा - "कूरं भक्त, श्रीचन्द्र - टिप्पण के त्वेवमुक्तं
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कथार्थप्रतिपत्तिर्यथा चन्द्रनामा सूपकारः इत्यादि" । इससे स्पष्ट है कि पं० श्रशाधरजी के समय में भगवती आराधनापर श्रीचन्द्रका कोई टिप्पण मौजूद था, जिसके कर्ता संभवतः उक्त श्रीचन्द्र ही जान पड़ते हैं । और यह भी हो सकता है कि उनसे भिन्न कोई दूसरे ही श्रीचन्द्र उसके कर्ता हों । परन्तु अधिक संभावना इन दोनोंके एकत्वकी ही मालूम होती है । #इन ग्रंथोंके परिचय के लिये देखो, पं० नाथूरामजीका जैनसाहित्य और इतिहास पृ० ३३५-६
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दूसरे श्रीचन्द्र विक्रमी १२ वीं शताब्दी के विद्वान हैं । यह अपभ्रंशभाषा के अच्छे विद्वान और कवि थे, साथ ही संसार देह-भोगोंसे विरक्त थे इन्होंने ग्रन्थ में अपनेको 'मुनि' 'पंडित' और 'कवि' विशेषणों के साथ उल्लेखित किया है। इनकी अभी तक दो कृतियों का पता चला है, उन दोनों ग्रंथों में इन्होंने अपनी जो गुरु-परम्परा दी है, उससे दोनों प्रन्थों के कर्ता एक ही जान पड़ते हैं। यह कुन्दकुन्दान्वय देशीगरणके आचार्य सहस्रकीर्तिके प्रशिष्य थे। और सहस्रकीतिके पांच शिष्यों में से यह वीरचन्द्र के प्रथम शिष्य थे* । सहस्रकीर्तिके गुरुका नाम श्रुतकीर्ति था और श्रुतकीर्ति श्रीकीर्तिके शिष्य थे। ऊपर जिन दो कृतियों का उल्लेख किया गया है उनके नाम 'कथाकोश और रत्नकरण्ड श्रावकाचार' हैं ।
कथाकोशमें विविध व्रतोंके अनुष्ठान द्वारा फल प्राप्त करने वालोंकी कथाओंका रोचक ढंग से संकलन *महस्रकीर्तिके पाचों शिष्योका उल्लेख कथा कोश की संस्कृत प्रशस्ति में नहीं है, किन्तु रत्नकरण्ड श्रावकाचार की प्रशस्ति मे निम्न रूप से पाया जाता है लेकिन उसमें लेखकोके द्वारा कुछ शुद्धि रह गई है, जिससे उनके शिष्योंके सभी नाम ठीक नही मालूम होते :सिरि चंदुजल जम संजायत । यामे सहसकित्ति विक्वायड । घत्ता-तहो देव इंदि गुरु सीसु हुउ, बीउ हो वा मिणि मुणि वीरें हुउ उदयकित्ती वि तह, सुहइंदु वि पंचम भणिश्रो ( ? ) । जो वरण कमल श्रायम पुराणु, गाउत्तई बहु साइम समाणु । श्राइरिय महागुण गण समिद्धु, वच्छल्ल महो वह जय पसिद्धु । तो वीरहंदु मुणिपंचमासु, दूरुज्भिय दुम्मइ गुण णि वासु । स उ जण मद्दामाणिक्करवाणि वय मीला लंकिउ दिव्ववाणि । सिरिचदु ग्राम सोइण मुखीसु, मंजायउ पंडिय पढम सीसु । तेणे उ प्रणेय उद्धरिय धामु, दंसण कद रयणकरंड गामु । - प्रशस्ति रत्नकरण्डश्रा०
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अनेकान्त
[वर्ष ७
किया गया है ग्रंथके शुरूमें मंगल और प्रतिज्ञा-वाक्य ग्रन्थको विक्रम संवत् ११२३में कर्णनरेन्द्रके के अनंतर ग्रंथकारने जो कुछ वर्णन किया है उसमें राज्यकालमें वालपुर या श्रीबालपुर में पूर्ण किया था । देह-भोगोंकी असारताको व्यक्त करते हुए ऐंद्रिक सुख यह कर्णदेव वही सोलंकी कर्णदेव मालूम होते को सुखाभाम बतलाया है । साथ ही धन यौवन और हैं जो राजा भीमदेवके पुत्र थे और जिनका राज्यशारीरिक सौंदर्य वगैरहको अनित्य एवं अस्थिर ममम काल प्रबन्ध चिन्तामणिके कर्ता मेरुतुंगके अनुसार कर मनको विषय-वासनाके आकर्षणसे हटाने का सुंदर सं० ११२० से ११५० तक २६ वर्ष आठ महीना और एवं शिक्षाप्रद उपदेश दिया है, और जिन्होंने उसे इक्कीस दिन माना जाता है। संभव है इन दो ग्रन्थों जीतकर अात्मसाधनाकी है अथवा रत्नत्रयादिको प्राप्त के अतिरिक्त अन्य ग्रन्थोंकी रचना भी इन्होंने की हो किया है उनकी कथावस्तु ही प्रस्तुत ग्रंथका विषय है। और उनमें अपना विशेष परिचय भी दिया हो।
अणहिलपुरमें प्रसिद्ध सज्जनोंमें उत्तम 'सज्जन' तीसरे श्रीचन्द्र वे हैं जो ब्रह्म-श्रुतसागरके शिष्य मामका एक श्रावक था जो प्राग्वाट वंशमे उत्पन्न हुआ थे। श्रुतसागरका समय विक्रमकी सोलह वीं शताब्दी था, धर्मात्मा मूलराज नृपेन्द्रकी गोष्ठीमें बैठने वाला निश्चित है। अतः यही समय इन श्रीचंद्रका समझना था। और अपने समयमें धर्मका एक आधारभूत था। चाहिये । इन्होंने 'वैराग्यमणिमाला' नामकी एक उसके 'कृष्ण' नामका पुत्र हुआ, जो गुणरूपी रत्नोंका सप्तति पद्यात्मक रचनाकी है, जो मुमुक्षु जीवोंके लिये समुद्र था और धमे-कर्ममें निरत जनों में शिरोमणि अच्छी उपयोगी है, भाषा सरल है और पढने में प्रिय तथा दानादि द्वारा चार प्रकारके संघका संपोषक था। मालूम होती है। आपकी यह कृति माणिकचंद ग्रंथइसकी 'राणू' नामकी साध्वी पत्नी थी, जिससे तीन मालामें 'तत्त्वानुशासनादि संग्रह' के अन्तर्गत प्रकापुत्र और चार पुत्रियां हुई थीं। इसी महा श्रावक प्रकाशित भी हो चुकी है। कृष्णकी प्रेरणाको पाकर कविवर श्रीचन्द्रने कथाकोश
वीरसेवामन्दिर. सरसावा की रचना की है।
सम्मत्तस्स य सोहा णिदिवा पंचवीसमलरदिया। दूसरा ग्रंथ 'रत्नकरण्डश्रावकाचार' है, जो वास्तव छड्डायदण-तिमूढा अट्ठमया तहय संकाई॥ में स्वामीसमन्तभद्रकी सुप्रसिद्ध 'रत्नकरण्ड' नामकी पत्र ५६ पर निम्न पंद्य उक्तं च रूपसे दिया है :गंभीर कृतिका विस्तृत व्याख्यान मात्र है । कविने इस छसु हेटिमासु पुढविसु जोइस-वण-भवण-सव्व इत्थीसु ।
आचार-ग्रंथकी रचना करते हुए उसे २१ सन्धियोंमें बारस मिच्छावादे सम्माइट्ठी एवज्जेई ॥ १ ॥ विभाजित किया है जिसकी आनुमानिक श्लोक संख्या यह गाथा प्राकृत पंचसंग्रहमे पाई जाती है और विक्रमकी चारहजार चारसौ अट्ठाईस बतलाई गई है। ग्रंथमें तेरहवी शताब्दीके विद्वान पं. श्राशाधरजीने अपनी श्रनउदाहरण रूपसे प्रस्तुत व्यक्तियों के कथानकोंका भी गार धर्मामृतकी टीकामे इसे उद्धत किया है। उल्लेख किया गया है। साथ ही विषयको स्पष्ट करनेके *एबारह नेवासा समया विकमस्स महीवइयो। लिये कुछ प्राचीन पद्योंको भी जहाँतहां उद्धृत किया है। जइया गया हु तहया समाणिए सुंदरं एयं ॥
ग्रंथमें हरिनन्दि,मुनीन्द्र, समंतभद्र, अकलंक, कुल- कण्या गरिदहो रजसु सिरि वालपुरम्मि बुद्ध सिरियंदे । भूषण,पाद पूज्य (पूज्यपाद) विद्यानंदि,अनन्तवीय, वर- +अथ सं० ११२० चैत्रवदि ७ सोमे हस्तनक्षत्रे, रत्नकरण्डसण, महामति वीरसेन, जिनसेन, विहगसेन, गुणभद्र, श्रावकाचार प्रशस्ति मीनलग्ने श्री कर्णदेवस्य राज्याभिषेक: सोमराज, चतुमुख, स्वयंभू, पुष्पदन्त, श्रीहर्ष और संजातः । प्रब चि०३-८२ कालिदास नामके विद्वानोंका उल्लेख किया गया है। सं० ११२० चैत्रसुदि ७ प्रारभ्य सं० ११५० पौष वदि २ ४१. वे पत्रकी द्वितीय संधिमें सम्यग्दर्शनकी पिशुद्धताका यावत् वर्ष २६ मास ८ दिन २१ अनेन राज्ञा राज्यं कथन करते हुए निम्नगाथा 'उक्तं च' रूपसे दी है :- कृतम् ।। प्रब० चि०।
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क्या रत्नकरण्डश्रावकाचार स्वामी समन्तभद्रकी कृति नहीं है ?
(ले०-न्यायाचार्य पं० दरबारीलाल जैन, 'कोठिया' )
। द्वितीय-लेख ] उक्त शीर्षकके साथ मैंने 'अनेकान्त' वर्ष ६ किरण १२ पहले उसका उत्तर न देकर मेरे दूसरे लेखका उत्तर यह में एक लेख लिखा था और उसके द्वारा प्रो. हीरालालजी कारण बतलाते हुए लिखा गया है कि "कि दूसरे लेख एम. ए. के रखकरण्श्रावकाचारको स्वामी समन्तभद्रकृत का विषय हमारी चिन्तनधारामें अधिक निकटवर्ती है।" न माननेके मतपर उहापोह के साथ विचार किया था तथा किन्तु आपने यह नही बतलाया कि प्रापकी वह चिन्तनयह सिद्ध किया था कि रत्नकरण्डश्रावकाचार स्वामी धारा कौनसी है? और उसमें इस लेखसं क्या निकटवर्तिस्व समन्तभद्र (भाप्तमीमांसाकार) की ही रचना है, उसमें न है ? वास्तवमे तो मेरे पहिले लेखका विषय ही उनकी तो दोष के स्वरूप-विषयमे भिन्न अभिप्राय है और न उस चिन्तनधारामें अधिक मिक्टवर्ती जान पड़ता है जहाँ के कर्ता रत्नमालाकार शिवकोटिके गुरु ( समन्तभद्र ) सिद्ध नियुक्तिकार भद्रबाहु और स्वामी समन्तभद्रको दो पृथक होते हैं, क्यों कि रत्नमाला और उसके कर्ताका समय सोम. व्यक्ति स्पष्ट करके बतला दिया गया है और जिन्हें कि प्रो. देव (११ वीं शताब्दि) के उत्तरवर्ती है जब कि रत्नकरण्ड सा० ने एक व्यक्ति मानकर विलुप्त अध्यायकी इमारत खड़ी और उसके कर्ताका अस्तित्व सिद्धसेन (वि. की ७ वीं की थी। बहुत सोचने पर भी मैं यह रहस्य नही समझ शताब्दी) और पूज्यपाद (४५० ई.) के पूर्ववर्ती प्रसिद्ध मका। किन्तु जब मैंने अपनी दृष्टि दौडाई और ५० फूलहोता है। यह लेख कितने ही विचारशील विद्वानोको पसन्द चन्दजी सिद्धान्तशास्त्री तथा उनके बीच हो रही चर्चाकी भाया । विद्वद्वर्य पं० सुमेरुचन्दजी 'दिवाकर' न्यायतीर्थ, ओर ध्यान दिया तब मुझे स्पष्ट मालूम होगया कि प्रो. शास्त्री, बी० ए० एल.एल. बी. सिवनीने तो उक्त लेखको सा० की रीति-नीति ही कुछ ऐसी बन गई है कि वे मुख्य पसन्द करते हुए ता. १३-१-४४ के पत्रमं स्वत ही मुझे विषयको टालनेके लिये कुछ अप्रयोजक प्रश्न या प्रसंग लिखा था-"अनेकान्तमे रस्नकरण्डके बारेमें आपके गवे- अथवा गौण बात प्रस्तुत कर देते हैं और स्पष्ट तथ्यको षणापूर्ण लेखको पढ़ कर बडा हर्ष हश्रा। ऐमी महत्वपूर्ण झमेले में डाल देते हैं। अन्यथा, जब उनकी घोषणा है कि रचनाके लिये बधाई है।"
उनकी शकाएँ केवल गम्भीर अध्ययन के लिये हैं तो क्या परन्तु प्रो० सा० को वह लेख पसन्द नहीं पाया और वजह है कि जिनका उत्तर प्रमाण युक्त एवं ठीक है उन्हें आपने अनेकान्त वर्ष - किरण ३-४ ५-६ और ७-८ में स्वीकार करके प्रागे नहीं बढ़ा जाता ? मैंने अपनी इस 'रस्नकरण्डश्रावकाचार और प्राप्तमीमांसाका कर्तृत्व शीर्षकमे मालूमातको उस समय और पुष्ट एवं सत्य पाया जब प्रत्युत्तर देनेका प्रयत्न किया है। यद्यपि मैं उक्त लेखके कलक कामें उनके साथ मौखिक चर्चा हुई और पीछे उनका पहिले भी उनके विलुप्त अध्याय सम्बन्धी निबन्धके एक आश्चर्यजनक वक्तव्य निकला । मालूम नही तस्वचर्चा मुख्य अंशका, जोकि हम निबन्धकी प्रधान प्राधार-शिक्षा है, सम्बन्धी वीतरागकथामें भी इस प्रकारकी अन्यथा प्रवृत्ति उत्तरस्वरूप क्या नियुक्तिकार भद्रबाहु और स्वामी समन्त. को क्यों स्थान दिया जाता है ? और क्यो नही सस्यको भद्र एक हैं ? इस नामका एक विस्तृत लेख प्रकट कर चुका उदारताके साथ अपनाया जाता ? अस्तु । श्राज मैं उनके हूं और इस लिये उसीका प्रो. सा. के द्वारा प्रथमत: इस प्रत्युत्तर लेखपर भी अपना विचार प्रकट करता है। प्रत्युत्तर लिखा जाना क्रमप्राप्त एवं न्याययुक्त था। परन्तु सर्व प्रथम प्रो० सा० ने मेरे लेखके उस स्पष्ट तथ्यपर,
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अनेकान्त
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जिये मापने मेरे द्वारा किया गया निमून और निराधार वास्तवमें हृदयगत जो भाव होता है वह प्रकट हो प्राक्षेप' बनलाया है (जो कि वास्तवमें माक्षेप नहीं है, ही जाता है। आपने अपने प्रस्तुत लेखके अन्त में यह और पाचेपतो तब कहलाता जब वह अमतः उद्भावनरूप भी स्पष्ट तौरपर स्वीकार किया है कि प्राप्तमीमांसाके का होता-उसे पाप स्वीकार न करते होते और मैं उस पाप की तो 'स्वामी' उपाधि थी और रत्नकरण्डके कर्ता योगीन्द्र' पर भारोपित करता), बढी सफा के साथ पर्दा डालनेकी कहलाते थे-उनकी 'स्वामी' उपाधि नहीं थी। जैसा कि कोशिश की है। भोर अधिक आश्चर्य तो तब होता है जब आपके ही निम्न शब्दोंसे स्पष्ट हैउसे यह कहते हए स्वीकार भी कर लिया है कि 'यद्यपि वादिराजके उल्लेखानुसार श्रावकाचारके कर्ताधोगींद्र' गवेषणा क्षेत्रमे नये प्राचारोंके प्रकाशसं मतपरिवर्तन कोई कहलाते थे और देवागम या प्राप्तमीमांसाके कांकी दोष नहीं है।" बात बिल्कुल सीधी थी। उन्हें स्पष्टतया
उपाधि थी स्वामी"। ऐसी हालतमे मेरा यह लिखना यही स्वीकार कर लेना नाहिए था कि हम रस्नकरण्डको
कि "अब मालूम होता है कि प्रो. सा. ने अपनी वह पूर्व पहिले तो स्वामी समन्तभद्रकृत मानते थे, किन्तु अब हम मान्यता छोड़ दी है और इसी लिये रत्नकरण्डको स्वामी न अपना वह मत बदज दिया ह । लाकन इस साध (प्राप्तमीमामाकार) समन्तभद्रकी कृति नहीं मान रहे हैं।" वत्तव्यको न देकर उन्हान जो स्पष्टीकरण किया । उसख निमून और निराधार भाक्षेप' नहीं है--वह तो स्पष्ट बे और पापा..में पड़ गये हैं। भाप लिखते हैं :--
तथ्य है। हो, यदि भवलाकी चतुर्थ पुस्तककी प्रस्तावना . मैंने जो वहाँ स्वामी समन्तभद्रकृत नकरण्डश्रावका
(पृ. १२) तथा सिद्धान्त और उनके अध्ययनका अधिकार' चारको एक प्राचीन, उनम और सुप्रसिद्ध अन्य कहा है वह
शीर्षक निबन्धमे रत्नकरण्डश्रावकाचारके कर्ताका नामोल्लेख मैं प्राज भी मानना हूँ व यदि कोई बात और अधिक
केवल 'समन्तभद्र' या 'योगीन्द्र समन्तभद्र' रूपमे होता-- कही तो केवल यह कि हम एनका गडश्रावकाचारकै क्र्ता साथमें 'स्वामी' पद न लगा होता मो मेरेद्वारा उक्त उद्धरण स्वामी समन्तभद्र और प्राप्तमोमापाके कर्ता स्वामी समन्त
प्रस्तुत न किया जाता। पर मजेकी बात तो यह है किवहा भद्र एक ही व्यकि नही प्रतीत होते।"
स्वामी पद भी नामके माथमे दिया हुआ है, जिसमें प्रो. पाठकके लिये यह स्पष्ट करनेकी आवश्यकता नहीं है
मा. अभिमतानुसार एकमात्र स्वामि-उपाधिवाल प्राप्त कि यहाँ प्रो. मा. दोना ग्रन्थोके कमी दोनी समन भदोको मीमांसाकार समन्तभद्रका उममे बोध होना अस्वाभाविक निःसन्देह रूपसे 'स्वामी' मान रहे एव कह रहे हैं। परन्तु नही है। इतना ही नही. रनकरण्डको स्वामी समन्मभद्र उनका यह मानना और कहना पूर्वापर विरुद्ध है। श्रापन (प्राप्तमीमामाकार) कृत कहने अभिप्रायमेही उमे उल्लखित विलुप्त अध्यायम प्राप्तमीमामाके कर्मा ममन्तभद्रशे
श्रावकाचारका सबसे प्रधान, प्राचीन, उत्तम और सुप्रसिद्ध' ही 'स्वामी' पदम विभूषित स्वीकार किया है और सरन
ग्रन्थ भी बनलाया है। और प्रभाचन्द्रने जी उमं स्वामी काण्डके का समन्तभद्रका स्वामीपदोपलक्षित नही माना
मान्तभद्रकी कृति मानकर 'अखिल सागारधर्मको प्रकाशित है-उनके साथ तो 'स्वामि' पद पीछे जुड़ गया बतलाया करने वाला सर्य' प्रक्ट किया है उसका कोई विरोध न है। जैसा कि आपके निम्न वाक्योंमे प्रक्ट है :
करके उक्त वाक्यको मापने मान्य पिखा है। वास्तवमें दिगम्बर जैन साहित्यम जो प्राचार्य स्वामीकी उपाधि स्वामी ममन्तभद्रके वचनोंका जैनसमाजमे जो प्रभाव एवं मे विशेषत: विभूषित किये गये हैं वे प्राप्तमीमामा कर्ता मान्यता है उसी आधारपर अपना विवक्षित लाभ उठाने ममन्तभद्र ही हैं । इनके पीछेके ममन्तमद (सनकरण्डके लिये ही वहां स्नकरण्डको स्वामी समन्तभद्रकी-प्राप्त कर्ता) के साथ जो 'स्वामि' पद भी जुड़ गया है और पूर्व मीमांमाकारकी ही रचना बतलाना प्रो०मा० को स्पष्टतः वर्ती समन्तभद्रका अन्य घटनाओंका सम्पर्क भी बतलाया अभीष्ट था। अन्यथा कोई वजह नही थी कि वहाँ वादि.. गया है वह या तो भ्रान्तिके कारण हो सकता है या जान- राजकं उसे 'अक्षयसुखावह' बतलानेका तो उल्लेख किया बुम कर किया हो तो भी पाश्रर्य नहीं।"
जाना और उनके ही द्वारा 'योगीन्द्र' कृत कहनेका उल्लेख
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किरण ६-१०]
क्या रत्नकरण्डश्रावकाचार स्वामी समन्तभद्रकी कृति नहीं है?
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न किया जाता--उमे छिपा लिया जाता जिसे अब प्रकट में प्रो. सा. को कोई भापत्ति नहीं जान परती । अब उन किया जा रहा? हमसे बिल्कुल स्पष्ट है कि मेरे द्वारा का विवाद अथवा प्रश्न केवल क्षुधा, पिपासा, जरा, भातक कही गई पापके पूर्वमान्यताको छोड देनेकी बात सर्वथा (ब्याधि) जन्म और अन्तक इन ६ दोषोंपर रह गया है। यथार्थ है-वह 'निमून और निराधार आक्षेप' नही। जैसा कि उन्होंने स्वयं स्वीकार किया है। इन दोषोंके बल्कि भापका लिखना ही पूर्वापर विरुद्ध और असगत जान प्रभाव निदर्शक भी उल्लेख मैंने उसी स्वामी ममन्तभद्रके पडता है। जैसा कि हम ऊपर देख चुके हैं।
स्वयम्भूस्तोत्रमे उपस्थित किये थे । इसपर प्रो. सा. भागे चल कर प्रो० मा.ने मेरे उत्तर लेखके निष्कर्षो कहते हैं-- को निकालते हुए उन परमं तीन प्रश्न करके अपना विचार "न्यायाचार्यजी प्राप्तमीमांसा तथा युक्त्यनुशासनमेंये उपस्थित किया है। पाठगेको स्मरण है कि मैंने अपने तो कोई एक भी ऐमा उल्लेख प्रस्तुत नही कर सके जिसमें पूर्व लेख में यह बतलाया था कि प्रो. सा.का रनकरण्ड उक मान्यताका विधान पाया जात हो। यथार्थत: यदि को स्वामी समन्तभद्र कृत न माननेमे केवल एक ही हेतु प्राप्तमीमांसाकारको प्राप्नमें उन प्रवृत्तियोंका प्रभाव अथवा भारत्ति है और वह यही कि 'उसमे दोषका जो मानना अभीष्ठ था तो उसके प्रतिपादन के लिये सबमे उपस्वरूप समझाया गया है वह साप्तमीमांमाकारके अभि- युक स्थल वही ग्रन्थ था जहां उन्होंने अप्तके ही स्वरूपकी प्रायानुसार हो ही नही सकता।" मैंने उनकी इस आपत्ति मीमांसा की है।" यहाँ यह देखकर बड़ा पाश्चर्य होता है का उस लेख में सप्रमाण ण्वं सूचम ममीक्षा साथ परिहार कि प्रो. मा० कैसा विलक्षण हेतुवाद उपस्थित करते हैं।. किया है और स्पष्ट करके यह बतलाया है कि दोषके क्या मैं उनसे पूछ सकता हूँ कि किमी ग्रन्थकारके पूरे और म्वरूप-सम्बन्धमे रत्मकरगडकार और प्राप्तमीमांपाकारका ठीक अभिप्रायको एकान्तत: उसके एक ही प्रथपरसे भिन्न अभिताय कदापि नही है। इसक समर्थन में मैंने जाना जा सकता है ! यदि नही तो भारतमीमामा परमही स्वामी समन्तभद्रकी ही प्रसिद्ध रचना स्वयम्भूस्तोत्रपरमे प्रामामायाकार स्वामी समन्तभद्र के पूरे अभिप्रायको तुवादिदोषों और उनके केवलम प्रभावको बिद्व करने जानने के लिये क्यों प्राग्रह किया जाता है और उनके ही वाले अनेक उल्लेखोंको उपस्थित किया था। प्रसन्नताकी दूसरे ग्रन्थ परसे वैसे उल्लेख उपस्थित किये जानेपर क्यों बात है कि उनसे राग, द्वेष, मोहकं माथ भय और अश्रद्धा की जाती है। ममममें नहीं पाताक प्रो. सा. ममयके प्रभावको भी केवलीम प्रो. माने मान लिया के इस प्रकारके कथनमे क्या रहस्य है। वास्तवम प्राप्तऔर हमनगह उन्होंने रत्नक ण्डम उन १ दोषोमेमे पाच मोम्याम प्राप्तके राग, द्वेषादि दोष और श्रावरणका दोषोके प्रभावको तो स्पष्टतः स्वाकार कर लिया है और प्रभाव बतला देने से ही तजन्य क्षुधादि प्रवृत्तियोका-- चिन्ता, खेद रनि विस्मय और विषाद ये प्रायः मांहकी पर्याय लोकमाधारण दोषोंका- प्रभाव सुतरा मिड हो जाता है। विशेष हैं. यह प्रकट है। अत: मोहके प्रभावमे इन दोषो १ 'श्रामस्वरूप' नामके महत्वपूर्ण प्राचान ग्रन्थमे मी जो का प्रभाव भी प्रो. सा. अस्वीकार नही कर सकते हैं। वाग्मेन स्वामी, वाचस्पति मिश्र और विद्यानन्दम भी पूर्व निद्रा दर्शनावरण कर्म उदय होती है। इसलिये केवली की रचना है, हमारे इस कथनकी रिहो जाती है। में दर्शनावरण कर्मके नाश हो जानेसे निद्राका प्रभाव भी यहां उसके उपयोगी कुछ पद्योंको दिया जाता है :प्रो. मा० को अमान्य नहीं हो सकता। विद्यानन्दके अष्ट- मोहकमारपी नटं सर्वे दोषाश्च विद्रताः । सहस्री गत उल्लेखानुसार स्वेटके प्रभाव--निः स्वेदत्वको छिन्नमूलतरोर्यद् वस्तं सैन्यमगजबत् ।। भी मापने अपने प्रस्तुत लेख (देखो, 'अनेकान्त' वर्ष कि. नष्ट छद्भस्थरिज्ञानं नष्ट केशादिवधनम् । ७८ पृ. ६२) मे ही प्राय: स्वीकार कर लिया है। इस नष्ट देहमलं कृत्स्नं नष्टे घातिचतुष्टये ॥ प्रकार अस्पष्टत . दोषोंके प्रभावको और भी आप मान नया: तुन्तृड्भयस्वेदा नष्ट प्रत्येकबोधनम् । लेते हैं । अर्थात् प्राप्त ५+७-१२ दोषोंका प्रभाव मानने नष्ट भूमिगतस्पर्श नष्ट चेन्द्रियज सुम्बम् ।।
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अनेकान्त
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उनके प्रभावको प्राप्त में अलग बतलाना अमुख्य एवं सर्वज्ञताको हितोपदेशित्व (यथार्थवक्तृत्व-युक्तिशास्त्राविरोधि. अनावश्यक है।
____वाक्रव) की बराबरीमें ही रख कर तीनोंको जो क्रमविकदूमरे. सम्पूर्ण दार्शनिक जगतमें प्राप्तका स्वरूप सित प्रारमाके असाधारण सर्वोच्च गुण हैं, मिलकर प्राप्तका अवञ्चकपना अथवा अविसंवादीपना बताया गया है। म्वरूप प्रतिपादन किया है। समन्तभद्रकी दार्शनिकलोकमें अर्थात्--जिमका उपदेश (वचन ) वचना-रहिस (युक्ति यह सबसे बड़ी विशेषता है और जो मूलत: जैनमान्यता शास्त्राविरोधी) है वही प्राप्त है अन्य नहीं, और चूँ कि ही है तथा प्रागोमे पाई जाती है। समन्तभदने यही बचना या विसंवाद राग, द्वेषसे और मोहसे-अज्ञानमे विराम नहीं लिया किन्तु भागे चल कर वे बीरभगवान्को होता है तथा तीनोसे ही मिथ्याभाषणका प्रसंग पाता है। वीतराग और सर्वज्ञ तथा हितोपदेशी सिद्ध करनेके अतः यथार्थवक्ता प्राप्त:' यथार्थवक्ताको प्राप्त सबने स्वी- उपरान्त उनके उपदेशोंकी दूसरे दर्शनोंके तथाकथित कार किया है। प्राप्तमें राग, द्वेष और मोहका प्रभाव प्रति प्राप्तोंके उपदेशोंके साथ तुलना करते हुए वीरजिनके पादन करना भी प्राय: सभी दार्शनिकोंको इष्ट है । बौद्ध उपदेश (अनेकान्तसिद्धान्त स्याद्वाद ) को ही युति शास्त्रादर्शनमें बुद्धको अविसंवादी या अवंचक प्रतिपादन करके विरोधी-अविसवादी प्रतिपादित करते हैं। यही वजह है ही उन्हें प्राप्त होनेकी गारंटी दी गई है। स्वामी समन्त- कि श्राप्तमीमांसामे हमें मुख्यतः दो ही बातोंका विवेचन भद्र भी दार्शनिक जगतके अन्यतम दार्शनिक थे उन्हें भी मिलता है । एक तो सर्वज्ञकी मम्यक् मिद्धिका । दूसरा उन अपने महावीर ( वीर ) को प्राप्त सिद्ध करना इष्ट था। के उपदेश-स्यावादकी सम्यक् सिद्धिका । प्राचार्य महोदय अत: उन्होंने दृष्टि और अवलम्बन तो रखा श्रागमिक और ने इन दोनो बातोको कारिका ५ मे 'इति सर्वज्ञसंस्थितिः' पद्धति अपनाई दार्शनिक (तार्किक)। यही कारण है कि और उपान्त्य कारिका ११३ में 'इति स्याद्वादसंस्थितिः' सतन्तभद्रने दूसरों की अपेक्षा एक विशेष बात यह कही कि शब्दों द्वारा स्वय ही स्पष्ट कर दिया है। तापर्य यह कि जहां दूपरे दार्शनिक राग-द्वेषके प्रभावको परम्परासे प्राप्त- समन्तभद्रको प्राप्तमीमांसामें यथार्थवक्तव और उसके स्वका प्रयोजक कहते हैं और सीधा केवल एक यथार्थवक्तत्व जनक वीतरागव तथा सर्वज्ञस्वरूपसे ही प्राप्तके स्वरूपका या अविसंवादिषको ही भारतका स्वरूप प्रतिपादन करते हैं स्पष्टतः निर्वचन करना इष्ट है । सुधादि तुच्छ प्रवृत्तियों के वहाँ समन्तभद्रने जैनागमोंकी मान्यतानुसार वीतरागता, प्रभावकी सिद्धि तो प्राप्तमे मोहका प्रभाव होजानेसे
अस्पष्टतः एवं भानुषङ्गिक रूपमें स्वतः हो जाती है। अत: १नष्टा स्वदेहजा छाया नष्टा चेन्द्रियजा प्रभा। उसके साधनके लिये सीधा प्रयत्न या उपक्रम करना खाप नष्टा मूर्यप्रभा तत्र सूतेऽनन्त चतुष्टये ॥ तौरसे आवश्यक नहीं है। नुधादिप्रवृत्तियां वस्तुतः मोहनीय क्षुधा तृषा भयं द्वषो गगो मोहश्च चिन्तनम् । सहकृत वेदनीयजन्य है । अतएव मोहनीयके बिना केवलीमें जरा रुजा च मृत्युश्च स्वेद: ग्वेदो मदो रतिः ।।
वेदनीय उन प्रवृत्तियों को पैदा करनेमे सर्वथा असमर्थ है। विस्मयो जननं निद्रा विषादोऽष्टादश ध्रवाः ।
यहाँ मैं वेदनीय और मोहनीयकी पारस्परिक निर्भरता त्रिजगत्सर्वभूताना दोषा: साधारणा इमे ।।
पर कममिद्धान्तव्यवस्थानुमार दो शब्द कह देना भी एतदोपैविनिर्मक्तः सोऽयमातो निरञ्जनः।
अचित समझता है। प्रो. सा. कर्मसिद्धान्तको व्यवस्था विद्यन्तं ये ते नित्यं तेऽत्र संसारिणः स्मृताः ॥१७॥ बतलाकर इस बातपर जोर देते हैं कि वेदनीय चकि संसारो मोहनीयस्नु प्रोच्यतेऽत्र मनीषिभिः ।
प्रघाति प्रकृति है और उसका केवलीमें उदय विद्यमान है। संसारिभ्य: परो ह्यारमा परमात्मेति भाषितः ॥१८॥ अत: वह मोहनीयकी अपेक्षा किये बिना ही अपना सुख१"रागाद्वा द्वेषाद्वा मोहाद्वा वाक्यमुच्यते ह्यनृतम् । दुखवेदनका कार्य करती है। मैंने कार्मिक ग्रंथों में जब यस्य तु नैते दोषास्तस्यानृतकारणं नास्ति ॥" वेदनीयके सम्बन्धमे कर्ममिद्धान्तकी व्यवस्थापर ध्यान दिया
-श्राप्तस्वरूप, यशस्तिलक। तो वहां मुझे बहुत ही सुन्दर सयुक्तिक विवेचन मिला है,
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किरण १-१०
क्या रत्नकरण्ड श्रावकाचार स्वामी समन्तभद्रकी कृति नही है?
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जो स्वास ध्यान देने योग्य है । मैं उसे यहां संक्षेपमें प्रस्तुत (अनेक कारणों) से होता है, अकेले एक कारण नहीं। करता हूं:
इसी कार्योत्पत्तिके सामान्य नियमपर प्रसिद्ध दार्शनिक दिगम्बर और श्वेताम्बर सभी काग्रंथों में मूल कर्म- शान्तरक्षित' और वाचस्पतिने भी विशेषत: जोर दिया है। प्रकृतियां पाठ बतलाई गई हैं और उनकी क्रम व्यवस्था यदि प्रो. सा. ने कार्योत्पत्तिके इस नियमपर अब तक इस प्रकार दी गई- ज्ञानावरण, २ दर्शनावरण, ३ ध्यान न दिया हो तो वे कृपया अवश्य दे ले। इस लिये वेदनीय, ४ मोहनीय, ५ पायु, ६ नाम, ७ गोत्र और प्राप्तमीमांसामें मोहनीयका प्रभाव प्रतिपादन करनेसे ही ८ अन्तराय । इनमें ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय क्षुधादि दोषोंके प्रभावका भी प्रतिपादन होजाता है। और अन्तराय इन पर कोको घातिकर्म कहा गया है तीसरे, कोई भी अन्धकार इसके लिये बाध्य नहीं और यह बतलाया गया है कि ये जीवके अनुजीवी गुणोंका होता कि वह अमुक विषयक ग्रन्थम ही अमुक विषयका घातन करते हैं। (देखो, गो० क. गा०८, . ) तथा साङ्गोपाङ्ग वर्णन करे अथवा मुख्य और अमुख्य फक्षित वेदनीय, प्रायु, नाम और गोत्र इन शेष चार कर्मोको और अफलित सभी तरहका प्रतिपादन करे । यदि ऐसा हो अघाति कर्म सूचित किया गया है । मूल कर्मप्रकृतियोंकी तो विद्यानन्द स्वामी प्राप्त में सुधादि प्रवृत्तियोंके प्रभावके इस प्रकारमे क्रम-व्यवस्था करने वाले कर्मसिद्धान्तकागेमे के समर्थक और पोषक थे । स्वयं प्रो. सा.के शब्दों में जब यह पूछा गया कि वेदनीय यदि अघातिप्रकृति है तो वे केवलीमे क्षधादिवेदनाओंके प्रभाव सम्बन्धी मतके उसे अघातियोंके साथ ही परिगणित करना चाहिए ? प्रबल पोषक थे । और उन्होंने प्राप्तके ही स्वरूपकी घातियोंके मध्यमे और वह भी मोहनीयके पहिले उसे क्यो मीमांसा (परीक्षा) करने के लिये श्राप्तपरीक्षा' नामका गिनाया? इसका गृढ रहस्य क्या है ? इस प्रश्नका जो महत्वपूर्ण ग्रन्थ लिखा है तथा उसपर स्वय ही 'श्राप्तमहत्वपूर्ण खुलासा कर्मसिद्धान्तके व्यवस्थापकों ने किया है परीक्षालंकृति' नामकी सुन्दर टीका भी गद्यमे लिखी है। वह इस प्रकार है:
तब उन्होंने भी वहां क्यों नही उसके मूलभागमे अथवा घादि व वेयणीयं मोहस्स बलेण घाददे जीवं । टीकाभागमे क्षधादिके प्रभावरूपसे प्राप्त के स्वरूपका प्रतिइदि घादी मज्झं मोहस्सादिम्हि पढिदं तु ।। पादन किया ? असल में बात यह है कि क्षबादि प्रवृत्तियों
-गो. क. १६ ॥ का अभाव धातिकर्मजन्य अतिशय है । जो केवल ज्ञानादिके अर्थात्-वेदनीयकर्म मोहनीयकी सहायतामे घातिया
अतिशयोमें है। अत: वीतरागता, सर्वज्ञता और हितोपदेकर्मोकी तरह जीवके गुणोका घातन करता है इस लिये
शिताका (युक्तिशाखाविरोधी वाक्वका) प्रतिपादन करनेसे वेदनीयको धातिकर्मोके मध्यमें और वह भी मोहनीयके
उन लोकोत्तर अतिशयोंका-सुधारिके प्रभावका प्रतिपादन पहिले रखा गया है। वास्तवमें वेदनीय राग-द्वेष जन्य ।
भी अनुषगतः हो जाता है। इस लिये प्राप्तमीमांसाकार इष्टानि बुद्धिमे सहकृत होकर सुग्व-दुखका वेदन कराता है।
राता है। प्राप्तमीमांसामे ही तुधाद प्रवृत्तियोके केवलीमें प्रभावको प्रत वह अपने सम्बदुखोत्पादनरूप कार्यमें मोहनीय
कराठत: बतलाने के लिये बाध्य नहीं हैं । जैसा कि हम सापेक्ष है। यह इस गाथासे भले प्रकार प्रकट होजाता है।
१-२"न किञ्चिदेकमेकस्मात्सामग्रन्या मर्वसम्भवः । इस व्यवस्थासे ही हमे समझ लेना चाहिए कि वेदनीय
____एकं स्यादपि सामग्रचोरित्युक्तं तदने ककृत् ॥" को मोहनीयके पहिले कहनेका कर्म सद्धान्तकारोंका यही
-वादन्यायटी० पृ० ३६, भामती पृ. ४५४ । अभिप्राय रहा है। अतएव केवलीमे अकेले वेदनीयका ३ देवी, तत्वार्थश्लोकवानिक पृ. ४६२ । उदय विद्यमान रहनेसे क्षुधादि वेदनाओंका उत्पादन नहीं ४ "श्रथ यादृशो धातिक्षयजः स (विग्रहादिमहोदयः-नि:हो सकता है।
स्वेदत्यादि: अतिशयः) भगवति न तादृशो दवेषन्यायका सर्वमान्य सिद्धान्त भी है कि 'सामग्री- येनानै कान्तिक: स्यात् ..."जनिका कार्यस्य नैक कारणम्' अर्थात हरेक कार्य सामग्री
-अष्टस. प्राप्तमी० का ।
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१५०
अनेकान्त
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[वष
प्राप्तमीमांमाकी तरह विद्यानन्दकी प्राप्तपरीक्षामें भी देखरहे हैं। टीकाकारोंका आप्तमें सुधादिके अभावको माननेका
चौथे विद्यानन्दके' उल्लेखानुसार स्वामी समन्तभद्रने अभिप्राय उपस्थित करता है:अपनी प्राप्तमीमांसा श्रा. उमारवातिके सस्वाथसूत्रके जिस प्राप्तमीमांसाकी पहली कारिका निम्न प्रकार है:'मोक्षमार्गस्थ नेतारम्' मङ्गलश्जोकपर रची है उसमें देवागमनभोयानचामगदिविभूतयः । वीतरागत दि तीन ही अपाधारण बालोंका मुख्यत: और मायाविष्वपि दृश्यन्ते नातस्त्वममि नो महान ॥११॥ लक्षणरूपसे प्रतिपादन है। अत: इन्ही तोन अमाधारण अर्थात् - 'देवोंका भाना, पाकाश में चलना, चामरोंका गुणों को प्राप्तमीमांसा श्राप्तकी स्वरूपको टमें प्रविष्ट किया दुरना प्रादि विभूतियाँ तो भगवान की तरह विद्या मंत्रादिसे गया है। उसीका अनुसरण विद्यानन्दने किया है और उन विभूतियोंको दिखानेवाले मायावियों-मकी श्रादि प्राप्तके स्वरूप प्रतिपादनार्थ प्राप्नपरीक्षा लिखी है। रोनों धर्मप्रवतंकोमें भी देखी जाती हैं । प्रत मात्र इन विभूही ग्रन्थकर्ताओंका यह प्राशय कदापि नहीं है कि प्राप्नमें तियोंसे ही आप हमारे (परीक्षाप्रधानियों-तार्किकोंके) बडे उन्हें आधादि प्रवृत्तियोंकाअभाव अस्वीकृत हो। सिर्फ उनके नहीं हैं।' प्रकलङ्क, विद्यानन्द और वसनन्दि तीनों ही टीकाप्रभावप्रतिपादनकी मुख्यत: अविवामान है । इसके कारोंका इस विषयमें एक ही श्राशय है और वे सब देवाकारणकी भी जब हमने खोज की तो प्राप्तमीमांसा और गमादिकको श्रागमाश्रय बतलाते हैं । अर्थात्-श्राज्ञाप्रधानीप्राप्तपरोक्षामे उपलब्ध होगया । अर्थात् दोनों ही प्राचार्य श्रागमवादी (कुन्दकुन्दादि) भले ही देवागमादिको परमात्मा प्राप्तके स्वरूप में ऐसे विशेषणोंको हो परीक्षाप्रधानियों का चिन्ह माने पर युक्ति-हेतुमे परमात्माको सिद्ध करनेवाले युक्ति-हेतुसे प्राप्तको सिद्ध करनेवालों (नकि प्राज्ञाप्रधानियों) हम युक्तिवाशी-परीक्षाप्रधानी मात्र देवागमादिको हेतु नहीं को दृष्टिमे रखकर देना चाहते हैं जो दूसरों के द्वारा माने बना सकते हैं, क्योंकि देवागमादि विभूतियाँ मायावियों में गये प्राप्तों (प्राप्तानामों)-देवों, कपिल, महेश्वरादिकोंमें पायी जाने से व्यभिचारी हैं । मूलकारिका और उसके. अनाप्तत्वका विधान और प्राप्तस्वका व्यवच्छेद करके वीर व्याख्यानमे यह स्पष्ट जान पड़ता है कि यहां उन्हीं भागजिनके ही प्राप्तपनेकी मिद्धि करते हैं।
मोक्त विभूतियों-कतिपय अतिशयोका प्रतिपादन किया प्रो. सा. मे जो ढग अख्तियार किया है उस परमे गया है जो अरहन्तके ३४ अतिशयोंमें प्रतिपादित है और यह आशंका होती है कि यदि प्राप्तमीमांसा और उसकी जिनका आप्त-भगवानमें अस्तित्व स्वीकार किया गया है। टीकानों में भी केवलीमें जुधादिके अभावको माननेका अत: देवोंका पाना श्रादि विभूति-अतिशय यद्यपि भगवान प्राप्तमीमांपाकार और उनके टीकाकारका अभिप्राय बतला मे मौजूद है पर दूसरों-अनाप्तों में भी पाया जा सकनेमे दिया गया और सप्रमाण सिद्ध कर दिया गया तो प्रो. वह अन्ययोव्यबरछेदपूर्वक परमात्मा (श्राप्त) का ज्ञापक सा. उपेमानेंगे या नहीं, सन्तुष्ट हो सकेंगे या नही? चिन्ह (व्यावर्तकलक्षण) नहीं है । उपलक्षण मात्र है। और अपना मन बदलगे या नहीं ? परन्तु श्राशंका करके यह बात इस कारिका और इसके व्याख्यानमें प्रक्ट की गई हम अपने कर्तव्य . पालनमें शिथिल होना नही है। अब प्रातमीमांसाकी दूसरी कारिकाको गौरमे देखे जो चाहते, प्रो. सा. का मानना न मानना, सन्तुष्ट होना न इस प्रकार है :होना उनके प्राधीन है। हमे तो विचार क्षेत्रमे अपने अध्यात्म बहिरप्येष विग्रहादिमहोदयः। कर्तव्यको पूरा करना ही चाहिए । अत: मैं प्राप्तमीमांसा दिव्यः सत्यो दिवौकस्वम्ति गगादिमत्सु मः ॥२।। और उसकी टोकानी गरसे भी प्राप्तमीमांसाकार और इस कारिकामें कहा गया है कि 'अन्तरंग और बहिरंग १ देखो, श्राप्तम मामाका. १ व २ की अकलंक तथा यह शरीरादिका अतिशय भी, जो कि दिव्य है-चक्रवाविद्यानन्दकी टीका और
दिकोंमे भी नहीं पाया जाता है (अमानुषीय है) और सत्य 'इत्यसाधारणं प्रोक्तं विशेषणमशेषतः । परसंकल्लिनासाना १ 'चउसटिचमरसाहो चउर्त सहि अइमएहि संजुत्तो' व्यवच्छेदपमिद्धये"। श्रामपरीक्षा श्लोक ३।
-दर्शनप्रा. गा० २१
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किरण ६-१०]
क्या रत्नकरण्डश्रावकाचार स्वामी समन्तभद्रकी कृति नहीं है ?
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है-माजावियों (पूरणकश्यपादिकों) में भी असंभव है कर्मक्षय-जन्य वह निःस्वेदत्वादि भाभ्यन्तर महोदय और अर्थात वे भी उसे विद्या, मत्रादिसे प्रकट करने में असमर्थ हैं, गन्धोदककी दृष्टि प्रादि बाह्य महोदय भगवानमें पाया रागादिमान देवों में भी पाया जाता है। अत: इस शरीरादि जाता है वैसा देबों में नहीं है उनके तो घातिया कर्म मौजद महोदय-अतिशय द्वारा भी आप हमारे (तार्किकोंक) है। अत: हेतु अनेकान्तिक नहीं है । और इस लिये यह महान् -बड़े (माप्त) नही हैं।' टीकाकार प्रा. विद्यानन्द महोदय प्राप्तपनेका निर्णायक हो सकता है।' इसका वे इस कारिकाके व्याख्यानमें क्या कहते हैं ? सो भी देखिये.- उत्तरकार बनकर उत्तर देते हैं तथाप्यागमाश्रयत्वादहेतुः
"आत्मानमधिश्रित्य वर्तमानोऽध्यात्ममन्तरङ्गो पूर्ववत' अर्थात उक्त प्रकारसे व्यभिचार बारित होजानेपर विग्रहादिमहोदयः शश्वनिःस्वेदत्वादिःपरानपेक्षत्वात्। भी हेतु भागमाश्रय है पहिलेकी तरह । अर्थात् वह भागम ततो बहिर्गन्धोदकवृष्ट्यादिर्बहिरङ्गो देवोपनीतत्वात् । की अपेक्षा लेकर ही साध्य-सिद्धि कर सकेगा । क्योंकि स च सत्यो मायाविष्वसत्वात् । दिव्यश्च मनुजेन्द्राणा- भागममे ही निःस्वेदावादि महोदयको धातियाकर्मक्षयजन्य मध्यभावान।"
बतलाया गया है। इससे हम इस निष्कर्षपर सहज पहुँच यहाँ विद्यानन्द 'अन्तरंग विग्रहादिमहोदय' का अर्थ जाते हैं कि प्राप्तीमांसाकार और उनके टीकाकार विद्यानंद 'शश्वनि स्वेदस्वादिः' अर्थात् शरीरमे कभी पसीना न आना का केवलीमें जुधादिके प्रभाव मानने व प्रतिपादन करनेका प्रादि अतिशयोंका प्रकट होना सूचित करते हैं, क्योंकि स्पष्ट अभिप्राय है । अन्यथा विद्यानन्द निस्वेदस्वादिको इनमे परकी अपेक्षा नहीं होती। और बहिरंग महोदयका 'पातिक्षयज:' कदापि न कहते और न उसके माय भादि अर्थ 'गन्धोदकवृष्टयादिः' अर्थात् गन्धोदककी वर्षा होना शब्दका प्रयोग ही करते । माप्तमीमांसाकारका दोनों जगह श्रादि ब'ह्य चमकारोका होना बतलाते हैं, क्योंकि वे देवी प्रयुक 'श्रादि' शब्द भी उपेक्षणीय नहीं है । जब मैंने के द्वारा किये जाते हैं। विद्यानन्दन अन्तरग महोदयका प्राप्तमीमामाकी प्राचार्य वसुनन्दि सैद्धान्तिकदेवकृत 'नि:स्वेदत्वादि' और बहिरंग महोदयका गन्धोदकवृष्ट यदि' टीकाको भी देखा तो मुझे वहाँ धादिके अभावका अर्थ करके और दोनो ही जगह 'प्राद' शब्दको द करके प्रतिपादन शब्दश: मिल गया जो इस प्रकार है :उन भागमोक्त अतिशयों को बतलाया जान पड़ता है जो "अात्मनि अधि अध्यात्मं । स अन्तः । क्षुत्पिपाकेवळीमे कुछ तो जन्मसे और कुछ केवल ज्ञान होनेसे साजगाजापमृत्यवाद्यभाव इत्यर्थः बहिरपि काह्योऽपि। (घातिकर्मक्षयसे) तथा कुछ देवोंके निमित्तम प्रकट होते एषः प्रत्यक्षनिर्देशः । विग्रहो दिव्यशरीरमादियषां, हैं । वे हैं - शरारमे कभी पसीना न श्राना, कवलाहारका निःस्वेदत्व-निमलत्व-अच्छायत्वादीनां तानि विमहान होना, बुढ़ापा नहीं होना, गन्धोदककी वर्षा होना, आदि दीनि तेषां नान्येव वा महोदयः, विभूत
विस्थाया श्रादि । ये अतिशय पूरणकश्यप श्राद मतप्रवर्तकों- अतिरकोऽतिशयो वा विग्रहादिमहोदयः अमानुपातिमायाचियों में न होनेपर भी अक्षीणकषायी स्वर्गवासी देवा शय इत्यथः।" मे विद्यमान हैं। लेकिन देव प्राप्त नही हैं । अत: इन यहाँ प्रा. वसुनन्दिने केवलीमे भूख, प्यासादिकके अतिशयोंसे भी प्राप्तताका निर्णय नहीं किया जा सकता अभावका मट कथन किया है । परन्तु वह रागादिमान् है। यहाँ प्रा. विद्यानन्दने एक बहुत ही महत्वपूर्ण शंका- अक्षीणकषायी) देवों में भी पाया जाने से हंतु अथवा समाधान प्रस्तुत किया है जिमसे प्रकृत विषयका निर्णय लक्षण नहीं है । विद्यानन्दके नि:स्वेदस्वादि' शब्द में और विद्यानन्दका अभिप्राय और भी स्पष्टतया मालूम पडे 'श्रादि' पदमे सूचित होने वाले निलव मलका नहीं होजाता है। वे शंकाकार बनकर कहते हैं कि “अथ यादृशो होना, अच्छायाव-छायाका नहीं पड़ना आदिका ग्रहण भी घातिक्षयजः स भगवति न तादृशो देवेषु येनाने- उन्होंने बतलाया है । कारिका ६ की वृत्तिमं तो उन्होंने कान्तिकः स्यात् । दिवौकस्स्वप्यस्ति रागादिमत्सु स, 'निर्दोष' पदका अर्थ स्पष्टतया क्षुधादि रहित भी किया है। वारुतीति व्याख्यानादभिधीयते" अर्थात् 'जैसाघातिया- यथा-"निर्दोषः अविद्यारागादिरहितः क्षुधादिरहितो
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अनेकान्त
[वर्ष ७
या अनन्तज्ञानादिमम्बन्धेन इत्यर्थः।"
क्षुधादिके प्रभाव दोनोंको 'उरिछन्नदोष' के स्वरूपकोटि ऐसी हालतमें यह कहना कि प्राप्तडीमांसामें अथवा
में प्रविष्ट किया गया है। यद्यपि 'रागद्वेषमोहाः यस्य न उसकी टीकाओंमें सुधादिप्रवृत्तियोंके प्रभावका प्रतिपादन
सन्ति स प्रातः' इतना ही लक्षण पर्याप्त है. स्वत: मिट्ट नहीं है । इस उपर्युक्त संपूर्ण विवेचनका पर्यव
क्षधाद्यभावको भी स्वरूप में देना अनावश्यक है तथापि सितार्थ यह हुआ कि प्राप्तमीमांसाकार और उनके द
दोष और दोषजन्य उन प्रवृत्तियों के प्रभावको भी प्राप्तमें टीकाकारोंने प्राप्तमीमांसा कारिका २ में प्राप्तमे क्षुधादि
ग्रन्थकार बतला देना चाहते हैं जिनसे सारा ही संसार के अभावको स्वीकार किया है । परन्तु खाना नहीं खाना,
उत्पीडित है (इदं जगजन्मजरांतकात-स्वयम्भू. १२) और पानी नहीं पीना, सोना नहीं माना प्रादि ये प्राप्तकी कोई जिनके लिये ही सारे दुःखोंको उठाया जाता है । तात्पर्य खास विशेषताएँ नहीं हैं, क्योंकि वे रागादिमान यह कि प्राप्तमीमांसामे जहाँ दोष और उनके कारण श्रावदेवों में भी हैं। अतः इन विशेषताओंमें भी सबसे बड़ी रणादिकी रहितताको वीतरागका स्वरूप बतलाया है वहा सर्वोच्च एवं साधारण विशेषता-रागादिरहितता है वह रत्नकरण्डमें दोष (रागादि) और दोषोंके कार्य वृधादिकी जिसमें पाई जाती है अर्थात् जिसने सब अनर्थोंकी जड़ रहिनताको वीतरागका स्वरूप प्रकट किया है। रनकरण्डम और संसारके कारणभूत अविद्या तृष्णा, रागादिको भी
दोषमं भिन्न प्रावरणोंको नहीं बतलाया गया है। वास्तवमे नष्ट कर दिया है वही प्राप्त है-महान् है, स्तुत्य है. वन्दनीय
दोष ही स्वयं प्रावरण हैं क्योंकि वे प्रात्माके गुणों को प्रकट है, देवाधिदेव हैं, लोकोत्तर अमानुषीय है। जैसा कि स्वामी नहीं होने देते । यही कारण है कि प्राप्तमीमांसामे भाट्टाकसमन्तभद्र ने स्वयं ही कहा है
लकदेव और विद्यानन्द स्वामीने दोषोंको ही आवरण मानुषीं प्रकृतिमभ्यतीतवान देवतास्वपित्र देवता यतः।
बतलाया है और चूंकि कारिकामें 'दोषावरणयोः' ऐसा
द्विवचनका प्रयोग किया गया है। अत: उसकी सार्थकता तेन नाथ परमाऽसि देवता श्रेयसे जिनवृष प्रसीदतः ॥
प्रकट करनेके लिये भावकों को दोष और द्रव्यकर्मोको
-स्वयम्भू ७५ प्रावरण सूचित किया है और यह स्वयं प्राप्तमीमांसाकार यहां अब मैं इतना और कह देना चाहता हूँ कि स्व. के भी अनुकूल है । श्रतएव उन्होने अगली कारिकामे करण्ड (श्लोक ५) मे प्राप्तका स्वरूप तो सामान्यतः श्राप्त- 'स त्वमेवामि निर्दोषों' कहकर केवल 'निर्दोष' पद रखा है मीमांसाकी ही तरह 'प्राप्तेनोच्छिन्नदोषेण' इत्यादि किया आवरणको छोड़ दिया है। अन्यथा--दोषोंसे प्रावरणोंको है। हां प्राप्तके उक्त स्वरूपमें आये 'उच्छिन्नदोष' के सर्वथा भिन्न प्रपिपादन करनेकी हालत में 'निर्दोषावरण:' स्पष्टीकरणार्थ जो वहां 'क्षुत्पिपासा' आदि पद्य दिया है जैसा कोई प्रयोग अनिवार्य था। अत: उपर्युक्त विवेचन उसमें बक्षण-रागद्वेषादिक प्रभाव और उपलक्षण'- प्रकाशमे यह प्रकट है कि प्राप्तमीमांसा भी धारि
.--...-...-- प्रवृत्तियोंके प्रभावका प्रतिपादन अन्तर्निहित है-उसे १ लक्षण और उपलक्षण में इतना ही अन्तर है कि लक्षण सर्वथा छोढा नहीं गया। और इस लिये यह कहना किसी तो लक्ष्य में व्याम होता हुश्रा अलक्ष्यका पूर्णत: गावर्तक तरह भी उचित नहीं हो सकता कि स्वामी समन्तभद्रको होता है । परन्तु उपलक्षण लक्ष्य के अलावा तत्सदृश दूमरी प्राप्तमे क्षुधा द प्रवृत्तियोंका अभाव प्रतिपादन करना इष्ट वस्तुअोका भी बोध कराता है। वह लक्ष्यमे पूर्णत: व्याप्त नहीं था। रहता हुअा अलक्ष्यका नियतसे व्यावर्नक नहीं होता। अतएव उपलक्षणरूपसे अभिमत वस्तु केवल लक्ष्यके स्वरूपका कुछ अनियत रूपसे बोध कराती है । इतरसे इससे रत्नकरण्डमें केवलक्षुधादिके अभावको ही प्राप्तका मर्वथा व्यावृत्ति नही कराती । देखो, न्यायकोश पृ० स्वरूप प्रतिपादन नही किया । रागादि सहितको ही १७०-१७३ | तथा संक्षिप्त हिन्दीशब्दमागर पृ० १५०। बतलाया है।
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किरण :-१०]
क्या रत्नकरएहश्रावकाचार स्वामी समन्तभद्रकी कृति नहीं है?
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अब हम उन ६ दोषोंके सम्बन्ध में भी विचार कर लेना हुभा। जब वे इतने सीधे पद्यका अपने पक्षको पुष्ट करनेके चाहते है जिनके विषय में ही अब प्रो.सा.का प्रश्न रह गया लिये इच्छानुकूल भावार्थ करते हैं तो उन पद्योंका अर्थ या है। जैसाकि आप स्वयं लिखते हैं-"अब प्रश्न रह भावार्थ इच्छानुकूल निकालने में भी उन्हें शायद संकोच जात है केवल सुधा पिपासा, जरा, प्रातक (पाधि, नहीं हो सकता जो कि गूढ, गम्भीर और सूत्रात्मक हैं। जन्म और अन्तक (मृत्यु) का। ये दोष उन शेष कर्मों द्वारा उक्त पद्यका अर्थ और भावार्थ क्या है? प्रो. साने जो उत्पन्न होते हैं जिनका केवलमें सत्व और उदय दोनों भावार्थ निकाला है वही उसका भावार्थ? अथवा मैंने वर्तमान रहते हैं, अतएव इनका उनमे प्रभाव मानने में एक जो प्रमाणित किया है कि यहां (इस पद्यम) अन्तक-मरण सैद्धान्तिक कठिनाई उपस्थित होती है।"
और उसके साथी जन्म और ज्वर (रोग) इन तीन दोषों प्रो. सा.के इस कथनपरसे और खासतौरसे उनके का प्रभाव बतलाया गया है। यह ठीक है। इसका निर्णय द्वारा प्रयुक्त हुए 'केवल' शब्दके योगसे इतना तो स्पष्ट मर्मज्ञ विद्वान् स्वयं कर सकते हैं । मै यहां इतना और होजाता है कि रत्नकरण्डमे कहे गये उन १८ दोषोंमेंसे बतला देना चाहता है कि मेरे उक्त कथनकी पुष्टि स्वयं प्राप्तमें राग-द्वेषादि १२ दोषोंका अभाव स्वीकार करने में स्वामीसमन्तभद्रके इसी स्वयम्भूस्तोत्रगत निम्न दूसरे श्रापको कोई आपत्ति नहीं रही । केवल क्षुधा, पिपासा उल्लेखोंसे और अच्छी तरह होजाती है:श्रादि उपर्यत ६ दोषोंका उनमे अभाव माननेमें ही उन्हे १-'तस्माद भवन्तमजमप्रतिमयमार्याः' (८५) कुछ सैद्धान्तिक कठिनाई नज़र श्रारही है । अत: मैं २-'त्वमुत्तमज्योतिग्जः क निवृतः (४०) इन ६ दोषोंके अभावपर मा विशेष विचार प्रस्तुत करता हूं। ३-'त्वया धीमन ब्रह्माणधिमनमा जन्मनिगलं।
मैंने केवलीमें जन्म, अातङ्क (व्याधि) और मरण इन समूलं निभिन्न वर्माम विदुपां मोक्ष पदवी ॥ ११७ तीन दोषोंका प्रभाव प्रमाणित करने के लिये स्वयम्भूस्तोत्र ४- 'शाल जलधिग्भवो विभवस्त्वमरिष्टनेमिजिन - का निम्न पद्य उपस्थित किया था -
कुञ्जगेऽजरः।' (१.३) अन्तकः क्रन्दको नृणां जन्म-ज्वर-मखा सदा । इन ठल्लेखोमेंसे पहले तीन उल्लेखों मे केवलीके स्वामन्तकान्तकं प्राप्य व्यावृत्तः कामकारतः ॥६३|| अन्मका प्रभाव और चौथे उल्लेखम 'जरा' का प्रभाव
इस पद्यमें कहा गया है कि 'हे जिन ! जन्म और ज्वर स्टतया बतलाया गया है। 'अन्तकान्तक' पदके द्वारा मग्णा जिसके मित्र हैं और जो मनुष्योंको सदा रुलाने वाला है का प्रभाव प्रतिपादित हो ही जाता है। इन उल्लेखोंके ही वा अन्तक-मरण अन्तकका अन्त-नाश करनेवाले श्रापको प्रकाशमें मेरे उन दो उल्लेखों-जन्म-जरा-जिहासया (पाप्त होकरके अपने कामकार-यथेच्छ व्यापार (प्रवृत्ति) से (४६) और 'ज्वर-जरा-मरणोपशान्त्ये' (८१)को भी देखना व्यावृत्त हो गया अर्थात अन्तक श्रापको अन्तकान्तक जान चाहिए जिनके बारे में मैंने यह स्पष्ट करते हुए कहा था कि कर जन्म और जर मित्रों सहित अलग होगया।' "इनमें जम्म, ज्वर और मरण तो पहले आगये । 'जरा' का
स्पष्टत: इस पद्यपरसे मर्मज्ञ विद्वान् केवलीमें मरण, भी प्रभाव बतलाया गया है। यहा 'जिहामा' और 'उपजन्म और ज्वर (रोग) इन तान दोषोंका अभाव-प्रतिपादन शान्ति' शब्दोंसे केवली अवस्था पानेपर प्रभाव ही विवक्षित प्रमाणित कर सकते हैं। परन्तु प्रो. साने हल पद्यका जो है।" जब मैंने 'जन्म-जरा-जिहासया' इस ४६वें पके भावार्थ प्रस्तुत किया है वह इस प्रकार है-"जन्म, ज्वर और भागेका 'स्वमुत्तमज्योतिरजः क निवृतः' यह ५०वां पद्य मृत्यु जिस प्रकार साधारण लोगोंको व्याकुल करते और देखा तो वह मेरी वह विवक्षा मिल गई जहां स्पष्टत: रुलाते हैं उस प्रकार वे आपको नहीं रुला पाते | पाते तो वे केवली अवस्था प्राप्त करने (स्वमुत्तमज्योतिः) के साथ ही आपके पास भी हैं, पर वे अपनी मनमानी करने में अर्थात् 'प्रजः' पदका प्रयोग करके ग्रन्थकारने उनके जन्मका प्रभावराग द्वेष भाव उत्पन्न करने में सफल नहीं होते।"
प्रो० सा०के इस भावार्थको पढ़कर मुझे बड़ा पाश्चर्य यहां एक बड़े महत्वकी बात यह है कि प्रो. सा. के
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अनेकान्त
[वर्ष ७
अभिमत स्वामी समन्तभद्र-नियुक्तिकारभद्रबाहुने भी अपनी ग्रहण बतलाते हैं । यद्यपि रखकरण्डमें सीधे तौरसे भावश्यकनियुक्ति गाथा ६३१ में भगवान महावीरको केवली ही उनका प्रभाव बताया गया है किन्तु स्वयम्भूस्तोत्रमें हो जानेपर जन्म, जरा और मरण इन तीन दोषोंसे इश पचके द्वारा देह और देही दोनोंके लिये सुधादिप्रतिरहित प्रकट किया है। यथा
कारकी भनुपयोगिता बमलाकर सपारी जनोंमें सद्भाव और 'श्राभट्ठो य जिणेणं जाइ-जरा-मरण-विष्पमुक्केणं। केवली में प्रकारान्तरसे उनका प्रभाव सूचित किया गया है।
नियुक्तिकार भद्रबाहुने ग्यारहों गणधरोंकी शकाओंके यदि प्रो. सा. ने 'चुत्' शब्नके साथ लगे 'मादि' शब्दकी निवारक भगवान् महावीरको अनेक जगह इसी प्रकार पोरसे उपेक्षा न की होती तो इस पच और रत्नकरण्डके 'जन्म, जरा और मरणा' रहित बतलाया है।
पद्यके अर्थ में सर्वथा प्राकाश पातालका अन्तर न बतलाते । सबको वहींसे देख लें।
केवली में सुधादिका प्रभाव समर्थनार्थ स्यम्भूस्तोत्र इस तरह स्वयं स्वामीसमन्तभद्रके स्वयम्भूस्तोत्रगत का ही एक दूसरा ७१ वौँ पद्य यह कहते हुए मैंने प्रस्तुत उल्लेखोपरमे केवलीमें स्पष्टत: जन्म, जरा, ज्वर और मरण किया था कि 'भोजनादि करना और इन्द्रियविषयसुखोंका इन चार दोषोंका प्रभाव प्रतिपादित एवं समर्थित अनुभवन करना तो मनुष्यका स्वभाव है, मनुष्य-स्वभावसे होजाता है।
___रहित केवली भगवान्का नहीं वे उस स्वभावसे सर्वथा अब रह जाते हैं केवल शुधा और तृषा ये दो दोष, छुट चुके हैं. और परमोश भलौकिक अवस्थाको प्राप्त होचुके सो प्रथम तो अब उनका कोई महत्व नहीं, दूसरे, उनका है। मनुष्य और केवलीको एक प्रकृतिका क्यों बतलाया प्रभाव प्रतिपादनार्थ मैंने स्वयम्भूम्तोत्रका 'क्षुधादिदुख- जाता है ? स्वय स्वामी समन्तभद्र क्या कहते हैं ! देखिये प्रतिकारतः स्थितिन' दि १८ वा पद्य उपस्थित किया -'और अन्तमें दोनों पोपरसे यह निष्कर्ष प्रस्तुत किया ही था और उसपरसे यह कहा था ।क क्षुधादि वेदनाओंके था'--इससे यह निर्विवाद प्रकट है कि समन्तभद्र प्राप्तको प्रतिकारसे न शरीरकी स्थिति है और न प्रास्माकी'। जब यह सुधादिदोषरहित मानते हैं।' परन्तु प्रो. सा० को यह मेरा सामान्यजनोके लिये उपदेश है तब यह स्वयं सिद्ध होजाता कथन 'निरी कल्पना' जान पड़ा है और इस ७५ वें पद्यमें है कि केवली भगवान इनसे रहित होचुक हैं- उन्हें न तो 'केवजीके क्षुधादि वेदनाओंके प्रभावके प्रतिपादनकी लेश भूख-प्यासकी वेदना होती है और न उसके दूर करनेके मान भी संभावना न पाई जानेका उल्लेख करते हैं । मैं लिये भोजन-पानादिको ग्रहण करते हैं। अन्यथा उनका इस सम्बन्ध अधिक कुछ न कहकर इतना ही बतला यह उपदेश केवल 'परोपदेशे पाण्डित्यम्' कहलायेगा। देना चाहता हूँ कि यह मेरी निरी कल्पना नहीं है। इस अत: इस पचहा फलित यही है कि केवलीके शुधा और बातको कौन अस्वीकार कर सकता है कि कवलाहारादि तृषाकी वेदना नहीं होती। तीसरे केवलीके जब अनन्त सुख करना मानवप्रकृति है। रोग होना, बुढ़ापा आना, मरण सर्वदा मौजूद है ('शर्मशाश्वतमवाप शङ्करः') तब उनके होना, जन्म लेना आदि ये सब तुच्छ प्रवृत्तियों मनुष्यकी वेदना हो भी कैसे सकती है ? मैंने पूर्व लेखमें यह कहा था है ? फिर केवलीने तो इस मानवप्रकृतिको प्रतिक्रान्त कर कि स्वयम्भूस्तोत्रमें दोषका स्वरूप वही समझाया है जो दिया है। यहां तक कि वे देवताओं में भी देवता हैं अर्थात् निकरण्डमें है' हम मेरे कथनपर आश्चर्य व्यक्त करते हुए उनके भी ऊँचे हैं. अत एव केवली परम देवता हैं । इस प्रो. सा. लिखते हैं कि "रत्नकरण्डके छठवें और स्वयम्भू. भावको ही मैंने स्वयं स्वामी समन्तभद्रके स्वयम्भूम्तोत्रगत स्तोत्रके १वें पद्यमें यदि कोई साम्य है तो केवल इतना 'मानुषीं प्रकृतिमभ्यतीतवान्' इत्यादि पद्यद्वारा प्रकट किया था। ही कि दोनों पद्य 'क्षुत्' शब्दसे प्रारम्भ होते हैं। पर उनके इस पचको ही प्राधार बना कर पूज्यपादके उत्तरवर्ती अर्थ में पाकश-पातालका अन्तर है"। आप यह भूल जाते और प्रकलंकदेवके पूर्ववर्ती पुरातनाचार्य पात्रस्वामी अपने हैं कि स्वयम्भूस्तोत्रमें 'आदि' शब्दका प्रयोग निहित है पात्रकेशरी स्तोत्रमें निम्न प्रकार कहते हैं :-- और जिसके द्वारा टीकाकार प्रभाचम्दाचार्य पिपासादिकका अनन्यपुरुषोत्तमो मनुजनामतीतोऽपि स
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क्या रत्नकरण्डश्रावकाचार स्वामी समन्तभद्रकी कृति नहीं
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मनुष्य इति शस्यसे त्वमधुना नरैर्वालिशैः। वारस चेव य वासा मासा छच्चेव अद्धमासो य। का ते मनुजगर्भिता क्व च विरागसर्वज्ञता वीरवरस्सभगवो एसो छउमस्थपरियाो ।५६६। । न जन्म-मरणात्मता हि तव विद्यते तत्वतःारश अत: पावश्यकनियुक्तिकारके मतसे भी कंपनी में स्वमातुरिह यद्यपि प्रभव इष्यते गर्भतो कवलाहारके भभावकी स्पष्टत: पुष्टि होती है। -मागे मलैरनुपसंप्लुतो वरमरोजात्रेऽम्बुवत् । नियुक्तिकारने बीरके विहार, शमवशरणकी रचना, गण. हिताहितविवेकशून्यहृदयो न गर्भेऽप्यभूः धरोंका शङ्का-समाधान और उनके उपदेश-प्रवर्तनका ही कथं तव मनुष्यमात्रमहशत्वमाशचते ? ।२६। विस्तृत कथन किया है। उनने ३० वर्षकी शेष अवस्थामें न मृत्युरपि विद्यते प्रकृतमानुषस्येव ते । उन्होंने इस इस तरह और इतनी पारणाय की-कवलामृतस्य परिनितिन मरणं पुनर्जन्मवत् हार किया, मादिका बिल्कुल उल्लेख नहीं किया है। यदि जरा च न हि यद्वपुर्विमलकेवलोत्पत्ततः । केवली अवस्थामें भगवान् महावीरने पारणा की होती प्रभृत्यरुजमेकरूपमतिष्ठते प्रामृतेः ॥ २७॥ अथवा सम्भव होती तो कोई वजह नहीं कि ये उसका भी
पात्रस्वामीके निम्नपचको भी दे देनेका लोभ मैं संवरण वर्णन न करते । इससे स्पष्ट है कि प्रो. सा. जिन्हें स्वामी नहीं कर सकता जहां जिनेन्द्र में सुधादिका प्रभाव स्फुटतया समन्तभद्र बतला रहे हैं उन नियुक्तिकार भद्रबाहुके प्रतिप्रदर्शित किया गया है
पादनानुपार भी केवली में कबलाहार सिद्ध नहीं होता। प्रसन्नकुपितात्मनां नियमतो भवेदुःखिता। ___एक जगह तो नियुक्तिकार भद्रबाहुने यह भी प्रतितथैव परिमाहिता भयमुपद्रतिश्वामयैः।। पादन किया है कि यदि जिनेन्द्र भगवान् सतत् उपदेश तृपाऽपि च बुभुक्षया च न च संमृतिश्छिद्यते। देते हैं तो सुननेवालों सकके लिये भी- यदि वे भगवानके जिनेन्द्र भवतोऽपरेषु कथमानता युज्यते ।३४। पास सुनने में अपनी सारी आयु भी बिता देवे-भूख, प्यास,
अत: स्वयम्भूस्तोत्रके उक्त ७५ वें पद्यमें जो मैंने उण्ड, गर्मी, परिश्रम और भयकी बाधा नहीं होती। सब आधादि दोषोंके अभावका कथन किया है वह मेरी 'निरी जिनके निमित्तसे दूसरों तकको जीवनपर्यन्त कोई भूखकल्पना नहीं है । वह तो पूर्वाचार्य परम्परागत प्रतिपादन है। प्यासादिकी वाधा नहीं रहती तो उन्हें-केवलीको स्वयं
यह मैं एक खास बातका और उल्लेख कर देना भूख-प्यासादिकी कैसे बाधा हो सकती है? यह गम्भीरताके चाहता है जो ऐतिहासिक दृष्टिसे बड़े महत्वकी है । वह साथ तस्वदृष्टिसे विचारना चाहिये। भद्रबाहुकी पावश्वक यह कि श्वेताम्बर परम्पराके प्रसिद्ध और प्रमुख प्राचार्य नियुक्तिगत वह गाथा निम्न प्रकार है:निर्यक्तिकार भद्रबाहने जिन्हें हमारे प्रो. सा. भाप्तमीमांसा सव्वाउ यि सोया खवेज जइइ सययं जिणो काए । औरचयिता स्वामी समन्तभद्र बतलाते हैं, अपनी प्राव. मोउगह-खुप्पिासा-परिमम-भए अविगणेतो ॥५७६।। श्यकनियुक्ति (गा. ५२८ से १३६ ) में भ. महावीरके प्राचार्य पूज्यपादने (४५० ई०) अपनी मन्दीश्वर केवली अवस्थामें कवलाहारको स्वीकार नहीं किया । केवल भक्ति (५८) में परहन्तके चौतीस प्रतिशयोंका वर्णन करते उन्होंने उनके सदस्थ-अवस्थाकाल--१२ वर्ष और ६ हुए केवलज्ञानके १० प्रतिशों में केवलीके 'भुक्त्यमाव' महीने तथा १५ दिन की पारणाओं को ही स्वीकार किया (कवलाहारके प्रभाव) को स्पष्टतया बतलाया है। विद्याहै और एक एक करके गिनाते हुए उन्होंने कुल ३५६ ही नन्दाचार्यने बड़े जोरोंके माथ तत्वार्थश्लोकवार्तिक पारणाये बतलाई है। केवली अवस्थाकी किसी एक भी (पृष्ठ ११२)में केवलोके कवलाहार और सुधादि वेदमानों पारणाका उल्लेख उन्होंने नहीं किया। यहां आवश्यक का प्रभाव मयुक्तिक प्रदर्शित किया है। जैसा कि मैं पूर्ण नियुक्तिकी उपयोगी दो गाथाएँ दी जाती है :-- लेखमें भी कह चुका हूंतिरिणसए दिवसाणं अउणावण्णं तु पारणाकालो। योगदर्शनके प्रवर्तक महर्षि पातञ्जलिका माध्यात्मिक उक्कुडुयनिसेज्जाणं ठियपडिमाणं सए बहुए ॥५३५।। विद्याके क्षेत्रमें अच्छा स्थान माना जाता है। उन्होंने
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आध्यात्मिकविद्याके बहुचमत्कारों को प्रदर्शितकरते हुए योगी जरा भी न होंगे--'जरा च न हि यदपुर्विमलकेवलोपमें भूख और प्यासकी बाधाकी निवृत्ति होना सम्भव प्रतिपातितः। प्रमृत्यहजमेकरूममवतिष्ठते प्रामृतेः॥' वास्तवमें दित किया है। जैसा कि योगदर्शनके निम्न सूत्रसे स्पष्ट है:- 15 हजार शीलोंको धारण करने वाला और शरीरबला
__ 'कण्ठकृपे क्षुत्पिपामानिवृत्तिः' ३-३०। धान हेतुभूत शुभ पुद्गलोंको ग्रहण करने वाला प्रारमा
अर्थात-उस विशिष्ट योगीके कण्ठकूपमें भूख-प्यासकी नहीं, नहीं परमात्मा ज्वर और जरासे प्राकान्त नहीं हो निवृत्त होजाती है - फिर उसे जीवन्मुक्त अवस्थामें भूख सकता। 'न योगा न रोगा न चोद्वेगवेगाः' (सिद्धसेन) प्यासकी बाधा नहीं रहती - वह नष्ट होजाती है। 'अजर', ( समन्तभद्र) 'जाइ-जरा-मरणविरमुपकेण'
इस उपर्युक्त विवेचनसे यह स्पष्ट होजाता है कि केवल्लीके (भद्रबाहु) श्रादि पुरातनाच र्यवचन हमें यही बतलाते हैं। झुधा और पिपासा इन दोदोषोंका प्रभाव भी मर्वथा होजाता भोगभूमियों और देवोंकी भी आयु प्रतिक्षण क्षीण है। और यह स्वामी समन्तभद्रके लिये भी अभिमत है। होती है और जन्म तथा मरण वे भी ग्रहण करते हैं
प्रो. सा. केवलीके जन्म, ज्वर, जरा और मृत्युके साता-असाता का दय उनके भो विद्यमान है, परन्तु न प्रभावकी असम्भवता बतलाते हुए लिखते हैं:-''जिस तो उन्हें जीवनभर कोई रोग ही होता है और न बुढ़ापा ही शरीरसे केवली अवस्था उत्पन्न हुई है उसका मनुष्ययोनिमे आता है। ऐसी हालत मे भोगभूमियों और देवोंसे भा जन्म हुअा ही है, उस शरीरका योग भी उनके विद्यमान महान् केवली परमात्माके ज्वर और जराके अभावकी है, वह शरीर साता-असाता वेदनीय कर्मोदयके वशीभूत भी असम्भावता बतलाना अनुचित है वह न तो युक्ति और है, उनकी मनुष्य प्रायु भी क्रमशः क्षीण हो ही रही है अनुभव से ही सम्बन्ध रखता है और न श्रागम से ही। और वह समय भी पाने वाला है जब उनकी समस्त प्रायु केवलीके यद्याप असाता आदि कर्म विद्यमान हैं और का क्षय होजानेसे उस शरीरका वियोग होजावेगा। तब उनका उनके सव भी है परन्तु वे मोहके न होने से अपना फिर उसी अवस्थामें उनके जन्म, ज्वर, जरा और कार्य करनेमे सर्वथा असमर्थ हैं । यह दि. साहित्यसे तो मृत्युका प्रभाव कैसे माना जा सकता है ?" यदि प्रो. सा. स्पष्ट है ही। साथमे नियुकिकी निम्न गाथा (५७३ से भी ने केवजीके जन्मादि दोषोंके श्रभावकी मान्यताके सम्बन्धमे प्रमाणित हो जाता है .-- पूर्वाचार्योंके अभिप्रायको पहले जान लिया होता तो वे इस "अस्सायमाइयाओ जाविय असुहा हवंति पगडीओ। प्रकारका शायद प्रतिपादन न करते । जिन कुन्दकुन्द, स्वामी णिवरसल वोव्य पए ण होति ता असुहया तस्स ॥" समन्तभद्र और नियुक्तिकार आदि महान् प्राचार्योंने जन्म- जब असाताका रदय अशुभ कुफल नहीं देता तब जरा-मरणादिका कवलीके प्रभाव प्रतिपादित किया है वे क्या भूख-प्यासका दुख उनके कैसे हो सकता है? अर्थात् नहीं यह नहीं जानते थे कि केवल का मनुष्ययोनिमें जन्म हुआ है हो सकता। अतः इस सब विवेचनाका निष्कर्ष यह हुआ साता-मसात वेदनीय काका उदय भी उनके है, आयुके कि केवलीके क्षुधा, तृषा, जन्म, ज्वर, जरा और मरण इन स्पर्द्धक भी प्रतिसमय क्षीण होरहे हैं और वर्तमान शरीर ६ दोषोंका भी प्रभाव हो जाता है। केवलीके जिन शेष का त्याग भी अवश्य होगा ? फिर भी उन्होंने जो उनके कर्मोंका उदय और सत्व विद्यमान है उनसे ही ये दोष जन्मादि दोषोंका अभाव बतलाया है। उसका रहस्य वह पैदा नहीं होते, बल्कि उनका वास्तविक ऊनक मोहकर्म है है कि केवलीके मोहनीयका नाश होजानेमे अब पुनर्जन्म न और उसका देवलीमें प्रभाव हो चुका है। अतः इन दोषों होगा-'समूलं निभित्रं जन्मनिगलम्', और न अब पुन- का अस्तित्व उनके नहीं है और वह स्वामी समन्तभद्रको जन्म बाला साधारण मरण होगा--म मृत्युरपि विद्यते अभिमत है। जैसा कि हम उल्लेखखोंपरसे देख चुके हैं। प्रकृतमानुषस्येव ते । मृतस्य परिनिवृतिनं मरणं पुनर्जन्म- इसलिये इस विषयमे सैद्धान्तिक भी कोई कठिनाई नहीं है। बतच कि केवळीके मोहादि घातिकर्म नष्ट होचुके और
[ क्रमश ] केवलज्ञान पैदा होगया है इसलिये अब उनके ज्वर और वीरसेवामन्दिर, सरसावा
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स्वावलम्बन और स्वतन्त्रता
( जमनालाल जैन, अर्धा )
स्वावलम्बन और स्वतंत्रता दोनों शब्द, इतने प्रचलित चाहिए और उसके होनेके बाद तो हम मापसे-माप ही. और रूढ होगए हैं कि, उनका नया अर्थ प्रतिपादन करने यह अनुभव करने लग जावेंगे कि किसीको अपने अधीम की आवश्यकता, कमसे-कम प्राज तो प्रतीत नहीं होती। कैसे रखा जाम्यकता है, जब कि सब अपने बंधु है--यही इन दोनोंका परस्परमें इतना घनिष्ट समम्बन्ध है कि किसी स्वतंत्रता प्रचारका मुख्य साधन है। और इसी लिए कहा एकको अलग नहीं रखा जासकना। स्वावलम्बनको छोड़ जा सकता है कि दोनों एक दूसरेस मिन्न न होकर एक कर स्वतंत्रता और कोई वस्तु ही नहीं है। जहां स्वावलंबन है-अभिल हैं। का उपयोग होरहा होगा, स्वतंत्रता प्रापसे श्राप वहां पहुंच इनका महत्व भी बहुत अधिक है। जब स्वावलम्बन जापगी। दोनों शब्दोंके आदिमें पढे हुए 'स्व' अक्षर ही यह और स तंत्रता, हमारे जीवनमें एक रस होकर व्याप्त होजाते पतला रहे हैं कि उनमें पराधीनता, परवशता भीर प्रमाद है, तब हम पाते हैं कि उसके कारण हम अपने धर्म अपने को बिलकुल भी स्थान नही है। किसी दूसरेके अधीन- समाज, अपने राष्ट्र तथा समस्त विश्वका हित सारे ही दृष्टि वशवर्ती होकर रहना ही स्वावलम्बनका अपहरण और कोणोंम, प्रत्येक विषय में, कर सबने में समर्थ हो उठते हैं। स्वतंत्रताका त्याग है। दोनोंकी एकतामे भी हम देख सकते उस अवस्था में हम अपने कतव्योंके प्रति सचेष्ट हो जाते हैं हैं कि उनमें थोडासा अर्थ-भेद, उस समय तक हो सकता और उन्हें करना ही होता है, क्योंकि उस समय हम यह है, जिस समय तक उन दोनोंका एकीकरण न होजाए सस्पष्टतया समझने लगते हैं कि हमारे हाथमे जो कार्य है. अथवा वे जीवनके क्षण क्षणमें व्याप्त न हो जाएँ। स्वावः उसे मरा नहीं कर सकता और यदि कर भा पके तो, लम्बनका अर्थ हम ग्रहण कर सकते हैं भ्रातृभावका विकास उसकी सहायता प्राप्त करना, स्वयं अपने लिए अनुचित हो
और स्वतंत्रताका-स्वाभिमानका महत्व । स्वावलम्बनमें हम जाता है। इस तरह, प्रत्येक व्यक्ति अपने २ कर्तव्योंके पाते हैं कि कोई भी व्यक्ति, अपने भिन्न व्यक्तिको दृमग-- उत्तरदायित्वको समझने लगता है और निकम्मा नहीं रह पराया न समझ कर, आत्मीय समझता है और उसमे सकता । जाति ममाज और राष्ट्रमें बढ़ती हुई बेकारी तथा वैसा ही वर्ताव करना अपना कर्तव्य समझता है कि यह प्रालयको रोकनेके लिये यह मनोवृति अथवा स्वावलम्बन भी मेरे ही समान मेरा एक बन्धु है और जब यह विश्वास की यह पुनीत शिक्षा, एक एमे शस्त्र अथवा अंकुशका काम हद हो जाता है तब वह व्यक्ति किसीको पराधीन या अपने देती है कि जिसके आगे कानुनका डर और ऊपरके प्रध. कब्जे में रख नहीं सकता, तो यह कह सकते हैं कि स्वतंत्रता कारी भी वैमा कार्य अपने अधीनस्थ दासों द्वार। नही करवा स्वावलम्बनका पल्लवित और विकसित रूप है। स्वतंत्रता सकते। क्योकि उसमें स्वके माथ २ किमी एक निश्रित में स्वाभिमान संनिहित होने के कारण उसमें वीरता और व्यक्ति विशेषके लिए अपना कर्तव्य न होकर समस्त विश्व पुरुषार्थका सर्वाङ्गीण अधिकार रहता है ! वीरता और अथवा देशके लिए होता है--पानेकी लालसाका प्रभाव पुरुषार्थ अथवा कर्तव्य-क्षमताके बिना यदि कोई गहे कि होता है, जब कि अधीन होकर कार्य करनेमें इसके विपरीत स्वाभिमान स्थिर रह सकता है, बिलकुल असम्भव बात प्रवृत्ति पाई जाती है। उसमें होता है एक अानन्द और है। अतएव, हम इस तथ्यपर पहुंच सकते हैं तथा इसमे होता क्लेश, यद्यपि कार्य दोनों एक भी होते और निःसंकोचरूपसे कह सकते हैं कि प्रथमतः हमें स्वावलम्बन होसकते हैं। उसमें भेद इतना ही होता है कि पकमें की शिक्षा ग्रहण कर प्रत्येकके प्रति भ्रातृभाव जागृत करना प्रारम-दानकी भावना होती है और दूसरे में प्रारम-प्रतारणा
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होता है। दूसरे उसमें निजस्वका स्वाभिमान होनेके कारण कि वे स्वप्न में भी पराधीनता और परवशताका विचार नहीं अपने २ कर्तव्यों के प्रति स्वाधीनता रहती है और निजस्वके सकते और इसी लिए अपने जीवनसे सम्बन्धित किसी भी अभिमानके कारण प्रारम-विकासके लिए तरह तरह के साधन छोटे या बड़े कार्यको करनेमें वे अपना सौभाग्य ही नहीं, उपलब्ध होते हैं. प्रात्म-विश्वास और प्रारम-दृढ़ताकी वृद्धि कर्तव्य समझते हैं। होती है। साथ ही इस साहससे प्रारमतेज भी तेजस्वी हो परावलम्बन और परतंत्रता अपने पापमें कोई सद्गुण चमक उठता है, जिसका अंतिम परिणाम होता है अनन्त नहीं हैं। उनका प्रभाव भी जीवनपर. उस योग्य नहीं स्वाधीनताकी उपलब्धि जिसे कह सकते हैं मुक्ति। यह पड़ता जिससे कि जीवनका उत्तरोत्तर विकास हो और क्या कोई कम महत्व अपने आपमें रखती है?
उसमे उन्नतिके लक्षण दिखाई हैं। वर्तमान समयमें, अ. • इस स्वाधीनताका जीवनपर भी अकल्पनीय अथवा भारतीय शिक्षण परिपाटीका हम लोगों पर जो प्रभाव पड़ा अपतिम प्रभाव दृष्टिगोचर होने लगता है ! केवलमात्र है, यद्यपि हमारा जीवन उसीमें घुला-मिला होनेके कारण हम महत्वको स्वीकार करके हीमो हम कर्तव्योंकी मोर प्रवृत उसे अपने लिए अच्छा समझते हैं, तथापि, वास्तवमें देखा नहीं हो सकते। जब तक किसी बातका हृदयपर प्रभाव जाए तो वह हमारे लिए अनिष्ट और घातक ही सिद्ध हुई नहीं पड़ता तब तक यह माननेको जी नहीं चाहता कि है। अधिकांशत: आज देखा जाता है कि लोग अपने हाथ चास्म-चेतना जागृत हो और जिसके सहारे हम अपने प्रति से पानीका गिलाम भी भर कर पीनेमे अपना अपमान और सजग हो अपने कार्यों की ओर अग्रसर हो सके। स्वाधीनता श्रोछापन समझते हैं और कहते हुए पाए जाने हैं कि क्या का अनुभव करनेके उपरांत हम अपने श्राप में देख सकते यह कार्य करना भी हमारा ही कार्य है ! इस बढ़ापन हैं कि दुर्बलता, कायरता, प्रमाद और दुर्भावनाओंका सर्वथा प्रदर्शनकी भावनाका ही यह परिणाम हमे आज भुगतना अंत हो जाता है। वोरता, पौरुषता. साहस और सद्- पह रहा है कि आपसमें भेद भाव बढ़नेपर कलह होती भावनाओंका उनके स्थानमें निवास हो जाता है। और सब गई और जिसके कारण ढियांस पर-राष्ट्रीय हमपर शासनसे बड़ी बात तो हम अपने जीवनमें तब यह पाते हैं कि चक फेर रहे हैं। जहां ऊँच-नीचकी भावनाका जन्म होजाता किसीके आश्रित रह कर जीवनयापन करना हम अपना है. वहॉपर हृदयकी एकता और प्रेमकी कल्पना भी नहीं अपमान समझते हैं और किसीको अधीन रखने में लजाका की जाती ! जिसके पास पैमा हृमा कि वह फिर नीच होने अनुभव करते हैं। स्वाधीन, स्वावलम्बी और स्वतत्र पुरुषो पर भी अपने पाप ऊँच बन जाता है! को आप देखेंगे कि वे अपने लिए किसीसे कुछ याचना
क व अपने लिए किसीसे कुछ याचना धार्मिक-जगत में भी इसका विष बडे वेगमे फैला है ! करनेकी कामनासे मुक्त होते हैं, वे क्षुधा और तृषास कपडे चातुर्वर्ण व्यवस्थाका प्रतिपादन कर वैदिकोने भेद-भाव और लत्तेके अभावमे, तड़फ २ कर जीवन विमर्जित मानद और ऊँच-नीचता वृक्षको इतनी तत्परताप पल्लवित और से कर देंगे परन्तु उन्हें तरफको मिटाने के लिए किसीको एक विकसित किया है कि श्राज़ भी सर्वत्र उसका विषैला शब्द भी कहना उस तहफसे भी ज्यादा दुःखित करता है। परिणाम दिखाई दे रहा है ! शूद्रोंको वेदाध्ययनके अधिकार उन्हें हल्केसे हल्का और नीचेसे नीचा कार्य करने में भी वंचित रखना, उन्हें धार्मिक कार्यों में भाग लेनेसे रोकना संकोच नहीं होता। उन्हें अपने शिक्षण, पोशाक और और कंबल उनसे सेवावृत्ति करवा कर अपने स्वार्थ और स्थितिपर जरा भी मिथ्या गर्व नहीं होता, वे इसकी भी अहकारकी पुष्टि करनेका ही एकमात्र बीदा जब ब्राह्मणोंने परवाह नहीं करते कि कहीं बृटकी पालिश तो खराब नहीं उठा लिया और तदनुरूप प्राचार शाखौं-स्मृतियोंकी सृष्टि हो रही है। उन्हें तो बस एक चिंता होती है और वह है करने लगे तब कोई भी व्यक्ति सोच सकता है कि उन अपने निजत्वको बनाए रखने के लिए कर्तव्योंको पूरा किस बेचारोंका हश्य क्या कहना होगा ! अपने अधिकार, अहं. तरह किया जाए। कहनेका मरांश यह कि स्वावलम्बन और कार और विद्वत्ताके बलपर चाहे जिस, हर तरह नचाया स्वातंत्रताका उनके जीवनपर इतना गहरा प्रभाव पड़ता है जा सकता।
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किरण ६-१०]
स्वावलम्बन और स्वतन्त्रता
यह तो हुई मामाजिक व्यवस्थाकी बात, लेकिन गत-वर्णवादपर ऐसा कुठाराघात उन्होंने किया है जिसका साविक क्षेत्रसे भी कोई कम आघात भारतीयोंको नहीं प्रत्युत्तर अाज तक भी किसीसे नहीं बन पड़ा !श्वरपहुंचा ! एक ही ईश्वरकी सत्ताको स्वीकार करना, मारे कर्तृत्ववादको उन्होंने चुकटियोमें उबा दिया, भाग्यवादको कर्मोंके फलके दे देने का भार उसीपर लाद देना और उसे हवामें विलीन कर दिया और वंशगत-वर्णवादको धूखही सृष्टिका कर्ता-धर्ता-हर्ता मान लेना इत्यादि निरूपणोंसे धूमरित कर दिया। सच बात तो यह थी कि उनका स्वयं भी कायरता, दुर्बलता प्रादिकी वृद्धि ही हुई है ! लोगोंने का उद्धार स्वावलम्बन और स्वतंत्रताके पथपर हुभा था, मान लिया है-हमारा कार्य तो केवल ईश्वरकी उपासना, तब यह कब संभव हो सकताथा कि वे तूसरोंको उससे वचित अर्चना वा पाराधना करना मात्र है. हम स्वयं तो ईश्वर हो रखनेके पथपर चलनेका भादेश देते ! स्वावलम्बन और ही नहीं सकते ! इससे हताश होगये, प्रारम-दृढ़ता प्रारम स्वतत्रताकी रचा उनके शब्दों में मात्मरक्षा थी, और जहां तेज और प्रारम-शक्तिसे उत्तरोत्तर हीन हो कायर बन बैठे! यह नहीं है, वहां प्रारमघात है और यही मुक्तिके मार्गका वीरता, स्वाधीनता और भ्रातृ-भावका लोप है। चना! कण्टक है। उन्होंने कहा "प्रत्येक जीव अपने आप में भर लोग ऐशोमारामकी ओर प्रवृत्त हो उठे, प्रारम-साधना जैसी है, किसी अन्यकी आराधना, उपासना और उससे याचना अनुपम वस्तुकी पोरसे अपरिचित होगए ! और क्यों न हों करनेकी आवश्यकता नहीं। कोई किसीको सुख दुख नहीं जब उनके महन्तजी यह कहते हुए पाए जावे कि 'भाई, पहुंचा सकता । 'जैमी करनी तैसी भरनी' ही उनका मुख्य तुम ईश्वर तो हो ही नहीं सकते !' क्या गरज पड़ी है किसी सिद्धान्त था। पुरुषार्थ तस्वका प्रतिपादनकर उन्होंने स्पष्ट को कि वह व्यर्थ ही बीहड बनमें जाकर गर्मी, सर्दी और घोषित कर दिया है--भाग्यवाद केवल थोथी कल्पनामात्र वर्षाके महान कष्ट सहन करे । उन लोगोंने अपना एक है, इसके अपनानेपर व्यक्ति अपनी स्वतंत्रता और स्वाधी. सूत्र बना लिया कि-'अजगर करे न च करी, पंछी करे न नतामे विमुख हो परावलम्बी और परवश होजाता है जिस काम' फिर भी सबको भोजन मिल ही जाता है । और का परिणाम होता यह है कि उसकी अनन्त भात्मशक्ति इसी भाग्यवादने हमारे मनमें जिस दुर्बलताका घुन जमाया विलुप्त हो जाती है ! मनुष्य को अपने कर्म-कर्तव्यपर विश्वास है. वह महान् घातक है । मालूम नहीं इस भाग्यवाद, रखना चाहिए. भाग्यकं भरोम बैठ हमारे हाथ कुछ भा नहीं ईश्वरवाद और वर्णवादकी कट्टरता का कब अंत होगा। आने वाला।" वर्णव्यवस्थाका उपदेश देते हुए उन्होंने
इसका अर्थ श्राप यह न समझ लें कि जैनधर्म भी इम यही कहा कि "वंशपरम्पराका इसमें कोई सम्बन्ध नहीं, से अपना न रह सका। परन्तु वास्तवमे बात यह नही है, जो व्यक्ति जैसा ऊँच या नीच कार्य करेगा, वह उसी पथका है तो यह कि जैन लोग अज्ञानतावश, संसर्गवश, रूदि- मामाजिक दृष्टि में अधिकारी होगा, लेकिन निश्चयमे तो वश, भले ही उन वादोंके पालनकर्ता किसी कालमे होगए उसमें और वृक्षमें भी कोई अतर नहीं है।" हो परन्तु धर्म और उसके तत्वको तो नांछित नहीं किया इस प्रकार हम देखते हैं कि भ. महावीर स्वामीने जो जा सकता! हर हालतमें, जो कुछ विद्वान् होते हैं और उपदंश, अपनी स्वतंत्रसाधनाके उपरान्त स्वानुभवके धर्मके मर्मको समझते हैं, कभी भी किसीके प्रभाव मे नहीं माधारपर दिया था, वह स्वतंत्रता और स्वावलम्बनके मार्ग पा सकते, जैसा कि आज भी हम देख रहे हैं कि जो पर प्रारूढ होने वाले व्यक्ति के लिये प्रकाश स्वरूप था। वास्तविकत: जैन है वे उन वादोंके शिकार नहीं हैं। उनके दिव्य उपदेश में साम्य-माव, भ्रातृभावकी ध्वनि थी।
जैनधर्मके प्रचारकोंमें अंतिम तीथ कर-तीर्थका प्रवर्तन उन्होंने जो कुछ कहा था, अपने अनुभव और साधनाके करनेवाले-भगवान् महावीर स्वामी श्राजसं कोई २४४३ उपरान्त ही कहा और उसी समय लोगोंने देख लिया कि वर्ष पूर्व होगये हैं। उन्होंने अपने ज्ञानबलसे प्रत्यक्ष जिस बातका उपदेश हम महावीर-मुखस श्रवण कर रहे देखते हुए जो कुछ प्रतिपादन किया था, वह वैदिक संस्कृति हैं, वह उनके जीवन के अणु-अणुमे व्याप्त है--भ.महावीर के प्रतिकूल था।श्वरवाद, भाग्यवाद और वशपरम्परा उनके प्रागे भादर्श रूपम उपस्थित थे!
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अनेकान्त
[वर्ष
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श्राग्रह और अहंकारका उस उपदेशमें सर्वथा प्रभाव सकता कि एक दिन वह नहीं पाएगा, जब फूट और वैमथा। जहां यह दोनों प्रचस्थित होंगे, वहां स्वावलम्बन नस्य घर न कर लेगे ! अतएव, आवश्यकता तो आज इस और स्वतंत्रताके पैर ही नहीं टिक सकते । उस जगह तो वातकी है कि पहले भारतीय जनताके हृदयों में प्राध्यायही भावना होती है कि अपना बड़प्पन प्रदर्शित किया स्मिक स्वावलम्बन और स्वतंत्रताके उज्ज्वल विचारोंको जाय और इसके लिये अधिक से अधिक जनताको अपने विराजित कर उनकी प्रात्म-निष्ठा, प्रारम-दृढ़ता, पारम-तेज भधीन किया जाय !
और उसमे होनेवाले "प्रारमवत् सर्वभूतानाम्" "यतो धर्मराष्टीय दृष्टिपे भी स्वावलम्बन और स्वतंत्रताका बहत स्तता जयः श्रादि तरवाका उनम जागृत किया
स्ततो जयः" आदि तत्वोंको उनमे जागृत किया जाय । महत्व है ! आज, विश्ववंद्य महात्मा गांधीजी तथा अन्य और, इसकेलिए, भ०महावीर स्वामी द्वारा दिए गए उपदेश राष्ट्रीय नेतागण स्वतंत्रता देवीका आह्वान करने में जुटे हुए का ही, जो स्वावलम्बन और स्वतंत्रताकी चरम अभिव्यक्ति हैं और उसके प्रागमनकी प्रतीक्षामें रात-दिन एक कर रहे करता है, अत्यन्त आवश्यकता है ! इसके बिना, राष्ट्रीय हैं, अपने खूनका पानी बना रहे हैं और बाजी लगा रहे हैं। स्वतंत्रता यदि प्राप्त हो भी जाय तो भारतीय हृदय आज वे चाहते हैं भारत हमारा है, इसपर पर-राष्ट्रीय शासनचक इतने कलुषित, स्वार्थपूर्ण और अहंकार परिपूर्ण होगये हैं चलाने के अधिकारी नहीं हैं, इसका शासन-सूत्र हमारे ही कि वे जरा भी चोट सहन करनेमे असमर्थ हैं। हाथों में होना चाहिए ! उनका प्रयत्न सराहनीय है, वे जो भ० महावीरने स्वतत्रताकी जो व्याख्या की है उसमे कुछ कर रहे हैं, अपनी शक्ति-अनुसार बहुत ठीक कर रहे निजत्वकी रक्षा तथा प्रारमीय स्वाधीनताका पुनीत अर्थ हैं। वे यह भी चाहते हैं कि घर-घरमें स्वावलम्बनका सनिहित है ! अतएघ यदि भारतको स्वतंत्र देखना है, प्रचार किया जाए, अपने ग्राम, नगर ओर प्रांत अथवा देश स्वाभिमानको बनाए रख मस्तकको ऊँचा रखना है तो हमे की बनी वस्तु ही खरीदी और व्यवहारमे लाई जाए। सबसे पहले मानसिक और अंधश्रद्धापूर्ण धार्मिक दुर्बलता परन्तु उनका प्रयत्न भी स्थायित्वको प्राप्त होसके, वैमा नही को दूर करना होगा और स्पष्ट स्वरमे यह अभिव्यक्त कर, कहा जा सकता। क्योंकि, सदियोंमे पड़े हुए संस्कारोंको विश्वको दिखा देना होगा कि हम उस वीर माताकी संतान मनसे निकाल डालना, कमय कम भारतीयोंके लिए तो तथा उस वीर धर्मक अनुयायी हैं, जिसने कि किसी ईश्वरसहज सम्भव नहीं है ! इनकी मानसिक और बौद्धिक साथ विशेषकी विश्व-सत्तापर भी पानी फेर दिया और जो ही शारीरिक दुबंजता इतनी तिस्तृन हो गई है कि वे बात ललकार कर स्पष्ट शब्दोंमें कहता है कि "प्रत्येक मारमा, बातमें रूदि. प्रथा या रिवाजका आश्रय ग्रहण करनेपर परमात्मा अथवा ईश्वर है, क्यो हम स्वतंत्रता प्राप्तिके नाम लाचार हो उठते हैं---उसके आगे उनकी दौड कठिन बन पर किसी ईश्वर-विशेषकी आराधना करें।" जाती है ! । इस लिए, कदाचिन् राष्ट्रीय शासन-स्वतंत्रता प्राइए एक बार सब मिलकर एक स्वरसे कहेप्राप्त हो भी जाए, तो यह निश्चयपूर्वक नही कहा जा 'स्वतंत्रता प्रचारक भ. महावीरकी जय' ।
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भारतीय इतिहासका जैनयुग (ले०--बा० ज्योतिप्रसाद जैन विशारद, एम० ए० एल-एल० वी०)
[ गत किरणसे आगे भगवान महावीरसे पूर्वकी राजनैतिक परिस्थितिमे भी उन दोनोसे पहिले होना प्रारम्भ हो गया था, भगवान राज्यों के पाठ पडोसी जोड़े अर्थात् बौद्ध अंगुत्तरनिकाय एवं महावीरके पूर्व के सोलह राज्य निम्नप्रकार वर्णन महावंशके सोलह महाजनपदोका जिक्र किया जाता है। अङ्ग, बङ्ग, मगह (मगध), मलय (चेदी), मालव, मङ्ग, मगध, काशी, कोशल, वजि, मल्ल, चेदि, वत्स, कुरु, अच्छ (अश्मक), वच्छ (वत्स), कच्छ (गुजरात काठियावाड़) पाञ्चाल, मत्स्य शूरसेन, अश्मक, अवन्ति, गान्धार पाढ़ (पांड्य), लाढ़ (गधा), श्रावाह (पश्चिमोत्तर प्रान्त ?) कम्बोज-बौद्ध अनुश्रुतिके तत्कालीन सोलह महाजनपद मम्भुत्तर, वजि, मल्ल, काशी, कोशल'। है। हिन्दु अनुश्रुति (ऐतिहासिक पुराणों) मे भी उस समय प्रत्यक्ष ही जैन अनुश्रुतिके इन महावीर-कालीन प्रसिद्ध के बारह प्रसिद्ध राजाश्रोका वर्णन किया है । हिन्दु अनु- सोलह राज्योमें प्राय: समस्त भारतवर्ष के हिन्दुकुशसे श्रुति के प्रायः सब ही राज्य भारतीय संयुक्तप्रान्त, विहार तथा कुमारी अन्तरीप, तथा बगालसे काठियावाड़ तक के सर्व ही मध्यप्रान्तके अन्तर्गत श्राजाते है। दूसरे, वे किसी एक ही आर्य अनार्य राज्य प्रागये, जिनका कि अस्तित्व उक्त समय कालके सूचक नहीं वरन् महाभारत के जरासन्धसे लगाकर के इतिहास में स्पष्ट मिलता है। महावीर कालके पश्चात् तकके राज्य उसमे उल्लिखित हैं। श्रङ्गकी राजधानी चम्मा थी। यह राज्य बङ्गाल और ये सर्व ही राज्य केवल वैदिक प्रायोसे संबंधित है, अवै- मगधके बीच में स्थित था इसके राज्य वंश तथा जनतामें दिक, व्रात्य, नाग, यक्ष, अनार्य राज्यों और प्रदेशोका साथमे जैनधर्मकी प्रवृत्ति अन्त तक बनी रही थी। राजधानी चम्पाकोई उल्लेख नहीं। इससे विदित होता है मानो पूरे दक्षिण- पुगे १२ वे जैन तीर्थकर वासुपूज्य की जन्मभूमि थी। ई. भारत में उस समय कोई भी राज्य नही था। लगभग यही पू० छठी शताब्दीके मध्यमे मगधके श्रेणिक (बिम्बसार) दशा बौद्ध अनुश्रतिकी है। प्रथम तो बौद्ध अनुश्रुति ई० ने अङ्गको विजय कर अपने राज्यमे मिला लिया था। सन्की ६ ठी ७ वीं शताब्दीमें सिहल, बर्मा, तिब्बत, चीन बङ्गदेशमे उस समय नाग, यक्ष आदि प्राचीन जातियों श्रादि भारतेतर प्रदेशोंमे विदेशियों द्वारा संकलित हुई। के छोटे २ राज्य एक सघर्म गुंथे हुए थे, किन्तु इनकी दूसरे, उसमें उल्लिखित महाजनपद भी पश्चिमोत्तर प्रान्त के स्थिति स्वतंत्र रहते हुए भी गौण ही रही। गाधार, कम्बोज व मध्य भारत के अश्मक, अवन्ति एवं चेदि मगह अथवा मगध बादका सर्व प्रसिद्ध एवं सर्वोपरि को छोड़ सर्व ही वर्तमान संयुक्तपन्त तथा विहार के राज्य होगया। राजधानी पञ्चशेलपुर (गिरिब्रज अथवा अन्तर्गत हैं।
राजगृही) थी। काशी राज्य के हास के साथ साथ इस देश में ऐसा प्रतीत होता है कि बादको जन बौद्ध अनुभूति नाग क्षत्रियोंकी एक शाखा शिशुनाग वंशकी स्थापना हुई संकलित हुई उसके संकलन कर्ताअोंने हिन्दु अनुश्रुतिके (ई० पू० ७ वी शतन्दीके प्रारभ में) इस वंशके श्रेणिक प्रसिद्ध राज्यों में से जिनसे भी किसी समय वौद्धधर्म अथवा (बिम्बसार), कुगिक, अजातशत्र), उदयी श्रादि राजाओंके बौद्ध कथानकोंका थोडा बहुत संबंध पाया, उन सब शासनकाल में शनैःशनै: अङ्ग, काशी, वजि, वत्स, कोशल, प्रदेशोसे यह सोलह महाजन पद घड़ लिये।
अवन्ति श्रादि राज्योंको विजय कर भारतवर्ष के प्रथम __ इसके विपरीत जैन अनुश्रतिमे, जो उक्त दोनों अनु- साम्राज्य-मगध साम्राज्यका उत्कर्ष एवं विस्तार होता चला श्रतियोंसे कम प्राचीन नहीं वरन किन्हीं अंशोंमें अधिक Political Hist of Ancient India प्राचीन है, शुद्ध भारतीयअनुश्रुति है और जिसका संकलन P.46-Dr. H.C. Raychoudhry, and १ भा० इ. रूपरेखा पृ० २८७-जयचन्द विद्यालङ्कार । भगवतीसूत्र
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अनेकान्त
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गया। इस वंश के प्राय: सर्व ही गजे जैन थे। बिम्बसार के जीवनसंबन्धी जितना वर्णन जैन अनुभूति में मिलता है प्रारंभमें महात्मा बुद्ध के उपदेशसे प्रभावित हुआ था अन्यत्र नहीं मिलता। मौर्य वंश के तृतीय सम्राट महाराज अवश्य, किन्तु जब ई० पूर्व ५५८ में उसकी राजधानीसे अशोकके धर्मका अभी कुछ निश्चित निर्णय नही हो पाया। लगे हुए विपुलाचल पर्वतसे भगवान महावीरकी प्रथम सामान्य धारणा उसके बौद्ध होनेकी है किन्तु डा. टामस' देशना हुई तो वह उनका अनन्य भक्त हो गया । वह भग- श्रादि अनेक इतिहामज्ञ विद्वानोका मत है कि वह जैन ही वानका प्रथम और प्रमुख गृहस्थ श्रोता था । उसके पुत्र था और यदि उसने बौद्धधर्म अङ्गीकार भी किया तो अपनी अजातशत्र व अभयकुमार तथा अन्य वंशज भी जैन अन्तिम अवस्थामें। वास्तवमें स्वयं बौद्ध अनुश्र निके अनुधर्मानुयायी ही रहे।
सार अशोकने अपने शासनकाल में बौद्धोंपर बड़े अत्याचार शिशुनाग वंशके पश्चात् मगधमें नन्दवंशका शासन किये थे। उस धर्मके प्रति अशोक की उपेक्षाका ही यह रहा । प्रथम शासक सम्राट नन्दिवर्धन था। उसने राजगृही परिणाम हुआ कि तत्कालीन बौद्धधर्माध्यक्षोने बौद्धोंको में प्रथमजिन भगवान ऋषभदेवकी प्रतिमा कलिङ्ग देशसे भारतेतर प्रदेशोंमे प्रयाण कर जानेका आदेश दिया। लाकर स्थापित की थी। उत्तरनन्द भी जैनधर्मानुयायी थे, अशोकका उत्तगधिकारी सम्प्रति तो निश्चय कट्टर उनका मन्त्री शकटाल जैनी था । शकटालके पुत्र ही जैन धर्मानुयायी था और जैनधर्म के प्रचार और प्रसारमें प्रसिद्ध जैनाचार्य स्थूलभद्र थे।
उसने वह सब प्रयत्न किये जिनका श्रेय भ्रमसे बौद्धधर्मके नन्दवंशका उच्छेद कर सम्राट चन्द्रगुप्त ने मगधमें लिये सम्राट अशोकको दिया जाता है। सम्प्रतिके वंशज मौर्यवंशकी स्थापना की वह सर्वसम्मतिसे पक्का जैनसम्राट मगधके शालिशुक, देवधर्म आदि, अवन्तिका वृहद्रथ, था। अन्तिम श्रुतकेवलि भद्रबाहु स्वामी उसके धर्मगुरु थे। गाधारके वीर मेन, सुभगसेन, काश्मीरके जालक–सर्व जैनथे। कुछ समय गज्यभोग करने के पश्चात् द्वादश वर्षीय दुर्भिक्ष ई० पूर्वकी ३ री शताब्दीके अन्त में मगधमें क्रान्ति के समय मम्राट चन्द्रगुप्त गुरु तथा उनके सघके साथ दक्षिण हुई। मौर्य वंशका उच्छेद कर ब्राह्मण शङ्गवंशका और को चला गया था। वहाँ वर्तमान मैसूर राज्य के अन्तर्गत तत्पश्चात् कन्व वंशका राज्य कोई सौ सवासौ वर्ष रहा । श्रवणबेलगोल के निकट चन्द्रगिरि पर्वतपर मुनिरूपमें यह दोनों वंश ब्राह्मण धर्मानुयायी थे। किन्तु कन्व वंशके तपश्चरण कर अन्त में समाधि मरण पूर्वक देव त्यागी थी।३ पश्चात् फिर मगध वैशालीके जैन लिच्छवियोंके अधिकार गिरनार, शत्रुञ्जय आदि तीर्थोकी यात्राके ममय उक्त पर्वतके मे आगया। ई. सन् की ४ थी शताब्दी तक उन्हीके नीचे उसने यात्रियोंके लाभार्थ प्रसिद्ध सुदर्शन झीलका अधिकारमें रहा और अन्त में एक वैवाहिकमबंधके कारण निर्माण कराया था। चन्द्रगुमका उत्तराधिकारी विन्दुमार, लिच्छवियोंकी ही सहायतासे गुमवंशी सम्राट हिन्दु-पनरुद्धार तथा उसका प्रसिद्ध मन्त्री चाणक्य भी जैन ही थे। के प्रवर्तक थे। राजनीति और समाजशास्त्रके इस प्रसिद्ध प्रकाण्ड श्राचार्य मलय अथवा चेदिका विस्तार मध्यभारतसे लगा कर १ Kharvel's Inscriptions in the
कलिङ्ग तक था। चेदिवंशकी एक शाखा वर्तमान बुन्देलOrissa Caves.
खंड श्रा.द प्रान्तोंमें, जिसे मध्यकलिङ्ग भी कहा जाता था, २ Ancient India P. 27-by Dr.
गज्य करती थी। दूसरी शाग्वा कलिङ्ग (उड़ीसा) में । T. L. Shah.
कलिङ्गमें बहुत प्राचीनकालसे जैनधर्मकी प्रवृत्ति थी। वीर. Early Hist. of India-V. Smith: निर्वाण संवत् १०३ में (*. पूर्व ४२४) मगधसम्राट नन्दिAsoka P. 13-Dr. R. K. Mukerjee.,
वर्धन कलिङ्गको विजयकर वहाँसे प्रथमजिनकी मूर्ति मगध
में ले पाया था। किन्तु उत्तर नम्दोंके समय कलिङ्ग फिर etc. Dr. H. Jacobi-Intro. to Jain १ The Early Faith of Asoka-Dr. Sutras P. 62.
E. Thomas.
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किरण ६-१०]
भारतीय इतिहासका जैनयुग
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स्वतन्त्र होगया था। विन्दुसारके शासनकाल में कलिङ्गमें प्राचीन और सबसे अधिक उपयोग जैन साहित्य एवं फिर एक क्रान्ति हुई प्रतीत होती है। प्राचीन चेदिवंशके पुरातत्व में ही मिलते हैं। स्थानमें किसी आततायी और उसके वंशजोका शासन रहा। सम्राट विक्रमके पश्चात् कुछ समय तक गुजरात के सम्राट सम्प्रतिके अन्तिम दिनोंमें वहाँ चोदवंशकी पुनः शकोका अचन्तिपर अधिकार रहा। रुद्रसिह, रद्रदामन, स्थाप हुई। इस वंशका प्रसिद्ध सम्राट महामेघवाहन जयदामन, नहपान श्रादि ये शक छत्रप भी जैन ही थे। खारवेल था। समस्त भारतको इसने अपने प्राधान कर इन शकोका उच्छेद अन्तिसे प्रान्ध्र राजोंने किया और लिया। मगधको भी विजय किया, पुष्यमित्र शुङ्ग, उसके यह बान्ध्र राजे भी अनार्य तथा जैन-धर्मानुयायी ही थे। सामने नतमस्तक हश्रा युनानी दमित्रको उसने देशसे दसरी शतान्दी ईस्वीमेश्राम्ध्र बंशके अम्त तथा ४ थी बाहिर खदेड भगाया, सातकणी आन्ध्र, भोजक, राष्ट्रिक शताब्दीमे गुप्तवंशके उदयके बीच महारथीनामक नाग एवं श्रादि सर्व राजे उसके श्राधीन थे । खारवेल जैनधर्मका दृढ़ वकातक सदार प्रबल रहे उन्हींका आधिपत्य अधिकाश अनुयायी था। उस धर्मके प्रचार प्रभावनाके लिये उसने
मध्य तथा दक्षिण भारतपर रहा। ये नाग गजे प्रायः सर्व सतत प्रयत्न किये। जैन मगध-साम्राज्यके उपगन्त जैन ही जैनधर्मानुयायी थे। उनकी नागभाषा (प्राकृत व अपकलिङ्गसाम्राज्य हुश्रा। इस प्रकार उत्तरीभारतम सन् ३० भ्रश) जैन साहित्यका ही मुख्य भाषा था। उक्त नागयुगमें पूर्वकी २रीशताब्दीके मध्य तक जैनधर्मको ही प्रधानतारही।' जैनविद्वानोने नागरी लिपिका अविष्कार किया, जैन शिल्प
मालव अथवा अवन्तिमें महावीरकालमे प्रद्योतवशका कारोंने जेन मन्दिगेमे नागरशैलीका प्रचार किया। राज्य था । वहाका प्रसिद्ध राजा चंडप्रद्योत तथा उसका पुत्र
अच्छ अथवा अश्मक दक्षिणभारतके उत्तरपूर्वका पालक जैनधर्मानुयायी थे। नन्दिवर्धनने अवन्तिको विजय प्रदेश था। इसकी राजधानी पोदनपुर जेनोंका एक पवित्र कर अपने राज्यका सूबा बनाबा, इसका उत्कर्ष मगधसाम्राज्य स्थान अति प्राचीनकालसे रहा है। सम्राट खारवेलकी के अस्त होने के पश्चात् वरन् खारबेलकी मृत्युके उपरान्त मृत्युके पश्चात् कलिड वंशकी ही एक शाखाका यहा राज्य प्रारंभ हुआ। खारवेलके पश्चात् उसके ही एक वंशजने ।
रहा । इसी कारण यह प्रान्त त्रिकलिङ्गका दक्षिणा अवन्तिमे जो खारवेलके राज्यका एक सूबा थी, स्वतन्त्र कलि कलाम
कलिङ्ग कहलाया। नागयुगमें यह प्रसिद्ध फणिमण्डल के राज्य स्थापन कर्रालया। अब उत्तर भारतकी कन्द्रीय शक्ति अन्तर्गत था और प्राचार्यप्रवर, सिंहनन्दि, सर्वनन्दि, मगध न रह गया था वरन् श्रवान्त हो गई थी। अस्तु; समन्तभद्र, पूज्यपाद श्रादिका कार्यक्षेत्र था । वादको यह तत्कालीन महाराष्ट्रक श्रान्ध्र, पद्मावती भोगवतीक नाग, प्रान्त पहले पल्लव फिर गणवाडीक जैन गजराज्यमें गुजरातके शक छत्रप सर्व ही अवन्तिपर दाँत लगाये रहते सम्मिलित होगया। थ। तथाप लगभग डेढसौ वर्ष तक बहा जैन गर्दभिल्ल
। जन गदाभल्ल वच्छ अर्थात् वत्स देशकी राजधानी कौशाम्बी थी। वंशका ही राज्य रहा। प्रसिद्ध सम्राट प्रथमविक्रमादित्य, इसी नागो बल प्राय वाहनोज सिन गर्दभिल्ल वंशके थे। उनके पिताके अनाचारोंके कारण प्रादिने इस देश में अपना राज्य स्थापित किया था। किन्सु उनके जन्मसे पूर्व ही नवागत शकोंका अन्तिपर अधिकार माग समा
... हो गया था, किन्तु होश सभालन पर उन्हान शकाका दश भी ब्रात्यसंस्कृति मे रंगे गये और उन्होने जैनधर्म अङ्गीकार से निकाल बाहर किया। उनका शासन सर्व प्रकारस कर लिया । महावीरकाल में स्वप्नवासवदत्ताकी प्रसिद्धि कल्याणप्रद तथा श्रादर्श रहा । जैनाचार्य कालक सूरि वाला वत्सगज उदयन जैनधर्मका भक्त था। किन्तु उसके के प्रभावसे वह दृढ़ जैनधर्म भक्त हो गये थे। उन्हीकी एक दो पीढ़ी बाद ही मगधक शिशुनाग सम्राटोने वत्सको स्मृति में प्रचलित विक्रम संवत चला। इस संवतके सबसे विजय कर अपने राज्य में सम्मिलित कर लिया। १ Kharvel's Inscriptione of the कच्छ अर्थात् काठियावार प्रान्तमें उस समय वर्तमान Orissa Caves.
गुजरात तथा बम्बई प्रेजीडेन्सीका बहुभाग था। महाभारत
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भनेकान्त
[वर्ष ७
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कालमें मथुराके यदुवंशी राजा समुद्रविजयने द्वारकामे जैनधर्मकी प्रवृत्ति भी इस राज्य में प्राचीनतम कालसे चली अपना राज्य स्थापन किया था। उनके पश्चात् उनके आती थी। महावीर कालमे यह राज्य समस्त तामिल प्रान्त भतीजे नारायण कृष्ण राज्यके उत्तराधिकारी हए । कृष्ण में सर्वोपरि था, चेर, चोल, केरलपुत्र, सत्यपुत्र, आदि अन्य महाराजके ताऊजाद भाई २२ वें जैनतीर्थकर अरिष्टनेमि थे। तामिल राज्य तथा लंका आदि द्वीप इसके प्राधीन थे और कृष्णकी ऐतिहासिकता निर्विवाद है तब कोई कारण नही ईस्वी सन्के प्रारंभ तक वैसे ही चलते रहे । पाड्य राज्यकी कि अरिष्टनेमिको भी एक एतिहासिक व्यक्ति न माना जाय? राजधानी मदुरा दक्षिण में जैनोंका सबसे बड़ा केन्द्र था दूसरे, उनका स्वतन्त्र अस्तित्व वैदिक तथा हिन्दु पौराणक तामिल के प्रसिद्ध संगम साहित्यका अधिकाश जैन पाड्य साहित्यसे भी सिद्ध है। जैसा कि ऊपर निर्देश किया जा राजाश्रोकी छत्रछायाम प्रकाँड विद्वानों द्वारा ही निर्मित चुका है वह काल उत्तरीभारतमें वैदिक सभ्यताके चरमो. हुअा था । जैन मौर्यसम्राट तथा कलिङ्ग नरेश जैन खारवेल त्कर्षका था । यशादिमे ही नहीं, विवाहादि उत्सवोके अवसर से पाड्य नरेशोंका मैत्री संबंध था। लंका श्रादि द्वीपोमे भी खान पानके हित विपुल पशुहिसा होती थी। अपने विवाहके ई० पूर्व की छठी शताब्दीके स्तूप श्रादि जैन अवशेष मिले उपलक्षम वैसी हिंसाका आयोजन देख ब्रह्मचारी कुमार है। अशोकके सगयसे लंकामे अवश्य ही बौद्ध धर्मका नेमिनाथको वैराग्य होगया, जूनागढ़ (श्वसुरालय) के निकट प्रचार होना प्रारंभ होगया, किन्तु तामिल राज्योंमे सन् ई. विवाहका संकल्प त्याग घर छोड़ गिरनार पर्वतपर जाकर ६ ठी ७ वी शताब्दी तक जैनधर्मको प्रवृत्ति रही। उसके सपश्चरण करने लगे। केवलज्ञान प्राप्त कर जनतामें अहिंमा उपरान्त शैव तथा वैष्णव धर्मोके नवप्रचारके कारण तथा धर्मका प्रचार किया, मध्यभारत एवं दक्षिणापथमें जैनधर्मका तत्संबंधित राज्यवंशोके धर्म परिवर्तनके कारए जैनधर्मकी पुनरुद्धार किया। और उस प्रान्त में उस समयसे जैनधर्म प्रगतिको श्राघात पहुंचा और वहाँ उसका हास प्रारंभ अस्खलित रूपमें ईस्वी सन्की ६ ठी ७ वी शताब्दी तक तो होगया। सारे ही दक्षिण में तथा कुछएक प्रान्तोंमे १३ वी १४ वी लाढ़ अथवा गधा मध्योत्तर दक्षिण भारतका राज्य शताब्दी तक प्रधानरूपसे चलता रहा । इस प्रान्त (कच्छ) था। यहाँ महावीरकालमें राष्ट्रिक, भोजक, आन्ध्र आदि में कुछ काल तक तो जैनधर्म प्रधान यदुवंशका राज्य चला अनार्य राज्योकी सत्ता थी। उसके पूर्व वहाँ यक्ष, विद्याधर तदुपरान्त पार्श्वनाथके समय पाटल (सिन्ध) के नागोंका श्रादि जैन अनार्य राज्य थे, ई. पू. प्रथम शताब्दीमे
आधिपत्य होगया। तदुपरान्त सिन्धु सौवीरके व्रात्य, तथा ही प्रान्ध्र राज्य सर्वोपरि होगया और उसने अन्य पड़ोसी मालवेक मल्ल ब्रात्योका अधिकार रहा । मौर्य राजाश्रोने सत्तारोको अपने में गभित कर साम्राज्यका रूप ले लिया। अपनी विजयपताका उस प्रान्त तक पहुँचा दी थी। किन्तु ये सर्व राज्य और इनकी प्रजा अधिकतर अन्त तक व्रात्य मौर्योके पश्चात् सिन्धुकी अोरसे आने वाले शक छत्रपोका सस्कृतिकी पालक और जैनधर्मानुयायी ही रही। यहाँ गज्य रहा। कुछ काल आन्ध्रोंके अाधीन यह देश श्राबाह पश्चिमोत्तर प्रान्त था । बौद्ध अनुश्रतिके गाधार, रहा । अन्त में सोलंकियोके समय इसका विशेष उत्कर्ष हुआ। कम्बोज और जैन अनुश्रुतिके तक्षशिला तथा उरगयन इस प्रान्तमें महाभारतके समयसे लगा कर १५ वी १६ वीं नामक नाग गणराज्योका यह एक संघ था। ये नाग लोग शताब्दी ईस्वी तक जैनधर्मकी प्रधानता बनी रही। अनेक वैदिक आर्य-संस्कृति के विरोधी और व्रात्य-संस्कृतिके जैनतीर्थ, विपुल जैन पुरातत्व इस प्रान्त में हैं। अनेक विद्वान पोषक थे। दिगम्बर श्वेताम्बर जैनाचार्योने इस प्रान्त मे विशाल जैन- सम्भुत्तर महाजनपद मध्य पजाबका प्रसिद्ध व्रात्य साहित्यका निर्माण किया । श्राज भी वहाँ जैनोंकी संख्या क्षत्रियोंका राज्य था। सैन्धवानके साम्भव लोग भगवान पर्याप्त और उनकी समृद्धि सर्वाधिक है।
संभवनाथ (३रे तीर्थंकर, जिनका चिन्ह विशेष 'प्रश्व' था) पाढ अर्थात् पाड्य सुदूर दक्षिणका प्रसिद्ध तामिलराज्य के अनुयायी थे। इस राज्यकी सत्ता सिकन्दर महानके था। अति प्राचीनकालसे इस प्रनार्य राज्यकी स्थिति थी, आक्रमण के समय भी थी। सिकन्दरने भयङ्कर युद्ध के पश्चात्
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किरण १०]
भारतीय इतिहासका जैनयुग
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इस राज्यपर एक अस्थायी विजय प्राप्त की थी। दक्षिण भान्तम जैन धर्मकी ही सर्वाधिक प्रधानता रही।
पूर्वका वनिसंघ तो ब्रात्य क्षत्रियोंका एक प्रसिद्ध केन्द्र इस प्रकार भारतीय इतिहास के प्राचीन युगमे महाथा। महावीरकालमें इसके नायक वैशालीके राजा चेटक भारत के उपरान्त उत्तरभारत में लगभग ३री शताब्दी ई. थे । वजिसंघके ही अन्तर्गत कुंडलपुरके ज्ञातृवंशी लिच्छवि- तक तथा कितने ही प्रान्तोमे १३वी १४वी शतान्दा ईस्वी नरेश सिद्धार्थके ही पुत्र भगवान महावीर थे । वैशालीके तक जैनधर्मकी ही प्रधानता रही, राज्यवंशा, प्रसिद्ध प्रसिद्ध राजा चेटक उनके नाना थे । चेटककी एक कन्या मगधराज राजाओं तथा जनसाधारण सभीकी से। श्रेणिकको, दूसरी वत्सराज उदयनको और तीसरी कोशलके इस सास्कृतिक प्रधानताका परिणाम भी प्रत्यक्ष हुआ। राज्यवंशमें विवाही थी। इन सर्व राज्यों, गणों और वहाकी वैदिक संस्कृति तथा उससे उदभूत पौराणिक धौम याशिक जनतापर भगवान महावीरका सर्वाधिक प्रभाव पड़ा था, वे हिंसा सदैवके लिये विदा ले गई । खानपानमें सुरा और सब उनके परमभक्त अनुयायी थे। यह वनिसंघ गणतन्त्र मासका यदि नितान्त लोप नहीं होगया तो वह घृणित और का आदर्श था।
त्याज्य अवश्य समझे जाने लगे। बौद्धोने जीवहिसाका तो नवोदित मगध साम्राज्यकी साम्राज्याभिलिप्साके कारण विरोध किया किन्तु माम मदिराके भक्षणपानका समर्थन और वजिसंघ और मगधराज्यमें द्वन्द चलता रहा, अंतमे अजात- प्रचार करनेमे कोई कसर नही की तथापि जैनधर्मके ही शत्रुने वैशाली विजय कर वजिसंघको छिन्न-भिन्न कर दिया, प्रभावसे वह वस्तुएँ अभक्ष्य ही होगई। किन्तु भले ही गौण रूपमें, लिच्छवियोंका अस्तित्व सन् ई० जुश्रा, पशुयुद्ध श्रादि समाज, स्त्रीपुरुषके बीच धार्मिक ६-७वी शताब्दी तक बना रहा ।
बंधनकी शिथिलता, तजन्य व्यभिचार एवं विषयाधिक्य मल्ल भी वजिसंघकी ही एक पड़ौसी व्रात्य जातिका श्रादि श्रार्यों और बौद्धोके प्रिय व्यसन कुव्यसन कहलाने गणतन्त्र था । पावा इनका प्रधान नगर था । वही भगवान लगे। अनेकान्त दृष्टि के प्रचारसे धार्मिक उदारता सहि. महावीरका निर्वाण हुआ।
ष्णुता, मतस्वातन्य श्रादिको पुष्टि मिली । जाति और काशीके संबंधमे ऊपर कहा ही जा चुका है। भगवान कुल धर्मसाधनमे बाधक नही रहे। प्रात्मवादने जड़वादका महावीर के जन्मके पूर्व ही वह कोशलराज्यमे सम्मिलित हो बहिष्कार कर दिया । और कमांसद्धान्तने देवके ऊपर गया था। अजातशत्रने कौशलसे उसे छीनकर मगधमें भरोसा कर हाथपर हाथ रख बैठ रहना भुला दिया । देवमिला लिया था।
पूजा और भक्तिके द्वारा देवताओंको प्रस: कर इहलौकिक कौशलमे प्राचीन सूर्यवंशी राजोका ही राज्य चला फलकी प्राप्तिके प्रयत्नके स्थानमे अात्मसाधन करना अाता था, महावीरकालमें वहाका राजा प्रसिद्ध प्रसेनजित सिखाया । जड़वादका स्थान अध्यात्मवादने ले लिया, था, जो भगवान महावीरका भक्त था । उसके उपरान्त रूढ़िवादका युक्तिवाद और विवेकने । ज्ञान, भक्ति और कोशल भी मगध-राज्यमे सम्मिलित होगया।
सदाचारकी त्रिवेणी बहा दी। दक्षिणमें ईस्वी सन्के प्रारंभकाल से ही अनेक राज्य- इसके अतिरिक्त संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश, तामिल, नाग, पल्लव, गङ्ग, चालुक्य, होयसल, राष्ट्रकूट आदि स्था- तेलेगु, कन्नड़, हिन्दी, गुजराती, मगठी आदि विभिन्न पित होने लगे थे। उन सबमें ही प्रारंभसे जैनधर्मकी ही भाषाओं में विविध विषयक विपुल सुन्दर एवं उच्च कोटिका प्रवृत्ति रही। किन्तु सन् ई०५ वी शताब्दीके उपरान्त शैव साहित्य जैन विद्वानोंडाग जैन राजाओं और श्रेष्टियोंके प्रोत्सावैष्णव धोके बढ़ते हुए प्रचारके आगे तत्संबंधी राज्यवंशों इनसे जितना और जैसा इस जैनयुगमें रचा गया अन्य के आगे पीछे धर्मपरिवर्तनके कारण धीरे धीरे वहाँ जैनधर्म किसी दूसरे युगमें किसी दूसरी संस्कृति द्वारा नहीं । तत्वका वास होता चला गया। तथापि मध्य युगके मध्य तक ज्ञान, दर्शन, प्राचारशास्त्र, इतिहास, नीति, समाजशास्त्र, १ Ancient India. Its invasion by वैद्यक, ज्योतिष, गणित, मन्त्रशास्त्र, न्यायशास्त्र, कथा
Alexander the Great-Mc. orindle. साहित्य, काव्य, नाटक, चम्पु, तर्क, छन्द, अलङ्कार, व्या
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भनेकान्त
[वर्ष
करण, संगीन, शिल्पशास्त्र-स्यात् ही कोई विषय ऐसा शाक्यवंश प्रायः नष्ट होगया था। सिकन्दर और मेगस्थनीज़ बचा इ. जिसार जेनविद्वानोंने सफलतापूर्वक कलम चला के समय बौद्ध सम्प्रदाय कुछ एक "झगडालु व्यक्तियों" का कर भारतीके भंडारको समृद्ध एवं अलंकृत न किया हो। सामान्य सा सम्प्रदाय मात्र था । अशोकके समय तक स्थान्त्य, मूर्ति, चित्र, नाटक, संगीत, काव्य सर्व प्रकारको बौद्ध तीर्थोपर राज्यकी अोरसे यात्री कर लगा हुआ था। ललित कलाप्रोमें जैनोंने नायकत्व किया । इस सबके इस सम्प्रदायके प्रति शासनकी कठोरता और उपेक्षाके प्रमाण उपलब्ध जैनसाहित्य और परातत्वमे पर्याप्त मिलते हैं। कारण उस समयके बौदधर्माध्यक्ष तिस्मने बौद्ध भिक्षों
भाषायों और लिपिक विकासमें सर्वाधिक भाग जैनोंने को देशान्तरमें सो भी उजडु, असभ्य सुदूर प्रदेशोमें जाकर ही लिया और इसी जैनयुगमें। ब्राह्मालिपिका आविष्कार निवास करने और धर्म प्रचार करनेकी श्राज्ञा दी। इस देश कहा जाता है भगवान ऋषभदेवने किया था, किन्तु वह में तो मात्र कुछ कट्टर बौद्ध भिक्षुओंने जैसे तैसे अपना हमारे युगसे पूर्वकी बात है, तथापि ब्राह्मी लिपिका सर्व अस्तित्व बनाये रखा और जब जब राज्यक्रान्तियों अथवा प्रथम उपयोग अधिकतर जैनोंद्वारा ही हुश्रा मिलता है। सामाजिक उथल-पुथलके कारण उन्हें सुयोग मिला, महेन्नादडोके मुद्रालेखोंके अतिरिक्त ई० पूर्व ५वीं शतान्दी उन्होंने अपना धार्मिक स्वार्थसाधन किया, किन्तु विशेष का बड़ली अभिलेख, मौर्यकालीन गुहाभिलेख, सफल फिर भी न होसके, और इसी युगमें सन् ई० ७वीं ८वी शिनाभिलेख, स्तंभले वादि, खारवेल के अभिलेख, गुजरात शताब्दी तक इस देशसे उनका नामशेष होगथा। सीमान्त यथा दक्षिणके अमिलेग्व इसके साक्षी है । देशके प्रदेशोंमे तथा बाह्यदेशोंमे अवश्य ही वह शक, हूण, मङ्गोल कोने कोनेमे और प्रधान एवं महत्वपूर्ण स्थानोंमें जैन- आदि विदेशी आक्रान्ताश्रीको प्रभावित कर अपनी शक्ति तीर्य उसी प्राचीन कालले चले श्राते है । ब्राह्मीसे नागरी बढ़ाने के प्रयत्नमें लगे रहे । सिंहल, पूर्वाभिद्वीपसमूह, स्वर्णलिपिका विकास जैन विद्वानों द्वारा ही हुश्रा । स्थापत्य-कला द्वाप (मलाया), ब्रह्मा, चीन, जापान, तिब्बत मङ्गोलिया की नागरशैलीके अधिष्ठाना भी वही थे । चित्रकलाका आदिमे अवश्य ही अत्यधिक सफल हुए, ठीक उसी तरह शुद्ध भारतीय प्रारंभ भी इन्होंने किया । स्तूप, गुफाये, चैत्य, जैस १५ वी १६ वी शताब्द में इगलैंडसे बहिष्कृत, राज्य मन्दिर, मूर्ति इत्यादिके प्रथम जन्मदाता इस जैन युगक और प्रजा दोनों द्वारा पीड़ित थाड़ेसे धर्मयात्री Pirim जैन ही थे।
Falliers) आज अमरीका जैमा महाशक्तिशाली राष्ट्र ममा नपवस्था, नथा आधुनिक जातियोंकी पूर्वज व्य- निर्माण करने में सफल होगये। वसायिक श्रेणियों और निगमोंका संगठन एवं निर्माण जैन जैनों की प्राजकी राजनैतिक, सामाजिक स्थिति, अल्प युगमे जैन नीतिशास्त्रके प्राचार्यो तथा जैन गृहस्थ मंख्या, अपने महत्वको स्वयं न समझने तथा अपने प्राचीन व्यवसायिक द्वारा ही हुश्रा।
साहित्य के अमूल्य रत्नोको प्रकाशित न कर तालेमे बन्द जन व्यापारियों तथा श्रमणाचार्यों द्वारा भारतका भंडारोंमे कीड़ोका ग्रास बनाने, पुरातत्वसंबंधी अमूल्य निधि प्रकाश भारतेतर देशों तक फैला, वृहद् भारतके निर्माणमें को न पहचानने और जानने का यत्न न करने आदिसे उन इनका पूरा पूरा हाथ था।
के इस युगमे प्राप्त महत्व तथा प्रधानताका अनुमान करना देशके कोने कोनेसे उस युग सम्बन्धी जैन स्मारक श्राज तनिक कठिन है । किन्तु निष्पक्ष इतिहासप्रेमीको अब भी भी उपलब्ध है, और चाहे अल्प अल्प संख्यामे हो देश इम लेखमे विवेचित तथ्योंकी साक्षीमे पर्याप्त प्रबल प्रमाण के प्रत्येक भागमें जैनांका अस्तित्व है।
मिल सकते हैं और मिलते हैं। किसी जातिकी वर्तमान हीन वास्तवमें बौद्धधर्मकी स्थिति तो उस युगमें जहाँ तक अवस्थासे यह निष्कर्ष निकालना कि यह सदैवसे वैसी ही भारतवर्षका संबंध प्राय: नगण्य ही थी । गौतमबुद्धका रही होगी युक्तियुक्त नहीं है । महात्मा ईसाके पश्चात् भी स्वयं तत्कालीन राज्य-वंशोपर कोई प्रभाव नहीं पड़ा, उनके १ यह कर अशोकने माफ किया बताया जाता है-देखो जीवनकाल में ही उनके पिनाका राज्य, राजधानी तथा अशोकके गौण शिलालेख ।
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किरण १.१.
पथिक
कई सौ वर्ष पर्यन्त क्या बूरोपमें इसाइयोंकी वही अवस्था सभ्यताके विविध अङ्गोंकी पुष्टि और वृद्धि विविधवर्गीय जैनों थी जो बाजी? हसरत महम्मदके बहुत पीछे तक क्या ने उस युग में की थी। उस युग में लगी जैन संस्कृतिकी मुसलमानोंकी संख्या और प्रभुत्व उतना था, जितना कि भारतीय समाजपर अमिट छाप आज भी लक्षित की जा पीछे होगया!
सकती है। भारतीय सभ्यताको ही नहीं विश्व सभ्यताको विद्याधर, ऋक्ष, यक्ष, नाग श्रादि वह अनार्य जातिया उस युगमें जैन संस्कृतिने अमूल्य भेट प्रदान की है। उस जिनको उच्च नागरिक सभ्यताने नवागत वैदिक प्रायोको युगमें निर्मित विविध विषयक जैन साहित्य तथा कलात्मक चकाचौंध कर दिया था आज कहा है ? महेन्जोदड़ो रचनाएँ भारतकी गष्ट्रीय निधि के अमूल्य रत्न है। सभ्यताके संरक्षकोका क्या अाज कहीं कोई अस्तित्त्व है! अत: वह युग यदि किसी सॉस्कृतिक नामसे पुकारा
अस्तु, भारतवर्षके इतिहासका प्राचीनयुग, कमसे कम जा सकता है तो वह जैन संस्कृति के नामसे ही । भारतीय उसका बहुभाग जैनसंस्कृतिकी प्रधानता एवं प्रभुत्वका युग इतिहासका वह लगभग २००० वर्षका युग सच्चा यथार्थ था, राजा-प्रजा अधिकाश देशवासी जैनधर्मानुयायी थे। जैनयुग था, न बौद्ध न हिन्दु ।
पथिकसे -(ले०-ज्ञानचन्द्र भारिल्ल )
पथिक ! पथ है तेरा किस ओर ? तारोंकी लड़ियाँ हैं टूटी, सूर्यदेवकी किरणें फुटी, कब तक सोएगा तू अब तो जाग हुआ है भोर । पथिक राही ! खेरे मगमें लाखों, तेरे जीवन-प्राहक होंगे, मावधान हो चलना वरना, देंगे झट झकझोर !! पथिका मरिता, मर, समुद्र तरना है, गिरि-शृङ्गोंपर भी बढ़ना है ! व्यादा क्या, तेरे पथका है, नहीं ओर अहछोर पथिक० चलचल उठ, बढ़ चल रे गाफिल ! पलपल डगडग क्यों रुकता है ? सुन सुन रे ! यमदूत भयंकर, मचा रहे हैं शोर !! पथिक. और सभी तजकर तू गही ! एक लक्ष्य ही बना बढ़ा पल , खींच रही हो तुझे जिधरको, मधुर प्रेमकी होर !
पथिक ! पश्च है तेरा किस भोर ?
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वीर-संदेश [पं० नाथूराम जैन डोंगरीय]
आज मानवीय मस्तक और हृदयमें जबवादका लिये हो रा है ? क्या प्रलयकालीन शांतिके लिये, जबकि शैतानी साम्राज्य छाया हुआ है । जिससे प्रभावित होकर जर्मन और जापान, चीन और हिन्दुस्तान, अमरीका और मनुष्य सुख और विश्वशांतिकी प्राप्तिके बहाने स्वार्थ साधन ईरान, ब्रिटेन और फ्रांस आदि बर्वाद होकर अपना के लिये अपनेमे भिम देश, विचार एवं वर्गके लोगोंका अस्तित्व भी कायम न रख सकेंगे? या उस शांतिके लिये तथा उनके साथ साथ असंख्य अवलाओं, बच्चों और वृद्ध जिसमें कि दुनियाके सम्पूर्ण मनुष्य मानवीय प्रेम, एवं मनुष्यों का भी भीषण संहार करने में उन्मत्त की भांति अंधा- सहानुभूतिके सुख-प्रवाहमे तरंगित हो इस निष्ठुर संसार धुन्द जुटा हुआ है। अधिकाश संसारकी समझमें धन को स्वर्ग बना देंगे? दौलत और साम्राज्यकी प्रतिष्ठा ही अाज सुख-शांतिकी
भगवान महावीरने विश्वधर्मकी घोषणा करनेके साथ प्राप्तिका प्रमोष उपाय बन गई है, जिसका परिणाम प्राज
साथ सर्वथाके लिए प्राणीमात्रके हितके लिए इस जैसी हम सबको ही भयंकर रूपमे भोगना पड़ रहा है।
• सम्पूर्ण समस्याओं को भी जसे २५०० वर्ष पूर्व निम्न ___"जर्मनका गला घोंट दो, ताकि साम्राज्य स्थायी हो संदेश द्वारा हल किया था जिसपर उन्मत्त संसारको जाये. जापानका मुँह मरोड़ दो, ताकि विश्वशांति स्थिर हो गंभीरताके साथ विचार करना चाहिए। उन्होंने कहाजाये, भारतीयोंका खून चूमते रहो, जिससे हमारी भूख 'बन्धुओ! दुःख और प्रशान्ति संसारके प्राणियोंका सदा सदा ही प्रामानी शांत होती चली जाये, और भी कोई सेला पोचती रसलिए प्राणीगण भी इनमे देश निर्बल और कमजोर मिले तो उसे गुजामीकी जंजीरो
छुटकारा पानेका कुछ न कुछ उपाय प्रतिदिन और प्रतिक्षण से जकड नो, कि हमारे व्यापार और राज्यका नीव अटल सोचते व उपपर अमल करनेकी शक्तिभर कोशिश करते हो जाए, ऐसे ऐसे शस्त्रास्त्र बना डालो कि पलक मारते रहते हैं। कोई समझता है कि इन्द्रियोंकी सुख-सामग्रियों प्रलय हो जाये. इतनीसन्य सजाबालो कि जिसे सुनकर को जटाने और इनका इच्छानल भोग कर लेनेपर अवश्य संमार भोचका रह जाये" आदि आदि ।
सुख मिल जायगा दूसरा सोचता है-जब मैं साम्राज्य ये हैं हमारे संसारके सभ्य-नामांकित मनुष्योंके का स्वामी बनकर शानके साथ सिंहासनारूढ हो, संसारके अस्वच्छ एवं भ्रमपूर्ण विचार, जो विश्व में एक सिरेपे लेकर निर्वल प्राणियों की छातीपर शासन करूंगा तब कहीं श्रानंद दूसरे सिरे तक प्रलयकालके भीषण दृश्यों को समुपस्थित प्राप्त करनेका सुअवसर प्राप्त होगा। तीसरा विचार करता कर अग्नी और दूसरोंकी सुख शांतेका सर्वनाश करनेमें है-धन दौलत ही दुनियामें सुखप्राप्त करनेकी कुंजी है, दानवोंसे बाज़ी लगा रहे हैं। प्रांत धारणाओंसे श्रोतप्रोत अपने सम्पूर्ण समयको इसीके इकट्ठा करनेमें लगाकर मनोगड़वादका कैसा भोषण परिणाम है यह, कि दो चार बांछित मौज उदाऊँगा। चौथा ख्याल करता है मैं होऊँगा साम्राज्य बोलपियोंके संगठित बुद्धिबबने सारे विश्वकी और सुन्दर सुन्दर युवतियां जिनके साथ भोग विलास शांतिको चकनाचूर करके रख दिया है। खू ख्वार भेड़ियों और काम-क्रीड़ा कर स्वर्गीय आनाके अनुभव द्वारा कृतकी भांति प्रापसमें लड़ बाकर एवं दूसरोंके गोंपर कृत्य होकर रहँगा। सारांश यह कि अपनी अपनी प्रांत छुरियां चलाकर शांति के बीज बोनेका दम भरने वाले इन धारणाओं क कुचक्रमें पड़े हुए ये प्राणी अहर्निश अविश्रांत नामदारों भला कोई पूछे कि यह सब कौनसी शांतिके परिश्रम करते और इरिक्त सामग्रियों को प्राप्तकर उन्हें
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किरण ६-१०]
वीर-सन्देश
१२६
भोगते हुए भी बेचारे मृगतृष्णाके जाल में फंसे हुए मृगकी बहा करती है। यदि प्रात्मा अपनी शक्तियोको पहिचान ले मांति, अतृप्त और प्यासेक प्यासे ही रह जाते है, इनकीन और वास्तविकताको जान ले कि मैं इन्द्रियोंके लिए नहीं तो इच्छाएँ ही तृप्त हो पाती है और न उस सुखको प्राप्ति बल्कि इन्द्रियों मेरे लिए हैं, तो अधिकांश अशान्तिका ही, कि जिसके लिए प्राणी भटकता फिर रहा है । बाल्क नाश इस तस्व-ज्ञानके होते ही हो जाय। होता यह है कि एक चाहकी पूर्ति होते होते दूसरी चीजो इसलिए मित्रो ! कमसे कम जो बात जैसी है उसे की चाह एव अतृप्त वासनाएँ पुनः जागृत होकर उसकी वैसा तो जानो, फिर चाहे उसपर अमल सुविधानुसार रही सही शान्तिका भी नष्ट कर डालती हैं।
करना । मुझे विश्वास है कि यदि एक बार भी तुमने ___ यह सब मिथ्यादर्शन (उल्टी समझ) का ही दुष्परि- अपने पापको और सुख शान्तिकी वास्तविकताको जान णाम है, जो सम्पूर्ण प्राणियोंको बिना किसी संकोचक
लिया व अनुभव कर लिया तो सुखी बननेमे फिर कोई भोगना ही पड़ता है। सजनां ! इसलिए यदि सचमुच ही खास रुकावट नही पा सकती। यह भ्रम है कि इन्द्रियोंक सुख और शांतिको प्राप्त करने की दिली अभिलाषा है तो भोग राज्य-बचमी और ये नाना भांतिकी विषय सामग्रियां सर्वप्रथम यह तो सोचो कि सुख और शांति वास्तवम हैं मनुष्यको सुखी बना देंगी। मै स्वय इन चीजोंको टुकराकर क्या पदार्थ, वे कहाँ रहते हैं और कैसे प्राप्त हो सकते हैं? ही माज इस परमात्मदशाको प्राप्त हो सका हूँ। लगातार कंवल सुख सुन चिल्लाने और अंधाधुन्द उसको प्राप्त करने १२ वर्ष पर्यन्त इन्द्रियों और मनपर पूर्ण विजय प्राप्त के लिए कहींके कहीं जुट जाने मात्रसे वह कभी भी प्राप्त करने काम, क्रोध, मान, माया, लोभ, मोह, राग, द्वेषादि नहीं हो सकता। सुनो, और निश्चितरूपस जान लो कि इस दुर्भावनाओं के नष्ट करने एवं कठोर तपश्वरण द्वारा कर्मसबंध में तुम्हें पहले सम्यकदृष्टि बनना होगा और अपने शत्रओंकी भस्म करनेका रदतर प्रयत्न हा पाज श्रास्मिक आपको व दृश्यमान संसारको जानना और समझना होगा। वास्तविक सुख प्राप्त करनका सुअवसर लाया है। मैंने जो अभी शायद आप यह नहीं जानते कि सुख क्या वस्तु है। श्राप लोगोंको सम्व प्राप्त करनका उपर्युक्त मार्ग बताया है. देखो, आकुलता और प्रशांतिके न होनेपर प्रात्मामे जो वह न तो कोरा आदर्श है और न पागोंकी बकवास, वह अनुपम शाति एवं प्रानंदका स्त्रोत बहता है वही सुख है, है सीधा सादा, अनुभूत और सरल उपाय, जिसपर अमल जो कि कहींस पाता जाता नहीं और न किसी वस्तुसे प्राप्त करके संसारका प्राणीमात्र सुखी बन सकता है । यह ही होता, वह तो श्रास्माका स्वभाव या गुण है, जो कि सोचना भी भ्रम है कि यह मार्ग किसी खास जाति, व्यक्ति आत्मामें ही इन्द्रियों और मन पर विजय प्राप्त करने एवं अथवा वर्गके लिए ही सेवन करने की वस्तु है. क्योंकि क्रोधादि कषायों व रागद्वेषादि भावों तथा मोहादि विकारों दुनियाके सम्पूर्ण प्राणि गोमे जीवन-तस्व एकसा ही है, जो के जीतनेपर प्रकट होता है । जिस प्रकार लोहेकी जंगको कि स्वभावत. सुख एव शान्तिको प्राप्त करने के लिए जानासानकर रेतीसे रगड़नेपर उसमे छिपी हुई चमक व्यक्त यित है और उसे प्राप्त करने का अधिकारी भी। एक जाति हो जाती है उसी प्रकार वासनाओं और दुर्भावनाओंके दूर दूसरी जातिको सताकर, एक व्यक्ति दूसरेका गला घोटकर, होजानेपर एवं कर्म परमाणुओंरूपी जंगके छूट जानेपर कोई राष्ट्र अपने भिन्न राष्ट्रोंका खून चूसकर सुखी बनने म.सासे सुख व्यक्त होता है । इसके लिए दुनियामें का यदि प्रयत्न करता है तो समझो कि अभी दुनियामें दूसरोंपर पाप और अत्याचार करनेकी जरूरत नहीं, बल्कि मूर्खताका साम्राज्स कम नहीं हुआ, क्योकि किसी को सताने भारमशान और इन्द्रिय विजयकी भावश्यकता है। ये और खून चूसनेकी भावना मात्र ही जब प्रास्मिक शांतिको इन्द्रियों और मन मारमाको अपना दास बनाकर इच्छा- भंग कर डालती है तब उसके प्रयान, जो कि सुनने मे ही नुसार नचाग करते हैं । यह सब भारमाके भ्रमपूर्ण भयंकर मालूम होते हैं, हमें कैसे सुखी बना सकते हैं ? विश्वासका दुष्परिणाम है। वास्तवमें प्रास्माको स्वयंकी इसके साथ ही इन दुष्प्रयत्नोंसे दूसरोंकी सुख और शांति शक्ति और स्वभावका परिचय न होनेसे यह उल्टी गंगा का भंग होना तो सुनिश्चित ही है।
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१३०
अनेकान्त
[वर्ष ७
अतःन केवल मामशांति प्रत्युत विश्वशांति के लिए भी इसके सिवाय उन्होंने यह भी बतलाया कि सम्पूर्ण दुर्भावनाओं एवं प्रयानोंका त्याग ही एकमात्र उपाय है।" प्राणियों में परमात्मा बननेकी शक्ति है। अत: उसे काममे
यह थी पहली घोषणा जो भगवान महावीने विश्व- खाकर कोई भी प्राणी परमात्मा बन सकता है, और उसकी कन्यागकी पवित्र भावनासे प्रेरित होकर विश्वको प्रदान यही अवस्था वास्तविक पानंद प्रदान कर सकती है। इसके की। आगे चलकर संसारके गंप्रदायिक कलहों एवं प्रज्ञा- खिये धर्म पुरुषार्थकी आवश्यकता है। और धर्म वही है नताको नष्ट करके सम्यक्ज्ञानको प्राप्त करने के लिए उन्होंने जिसे हम सम्यक्दर्शन-ज्ञान-चारित्रकं नाममे या श्रद्धा, ज्ञान को सदेश दिया बह था हएिकोणको निष्पक्ष एवं उपचार और सदाचर कहकर पुकार सकते हैं। उन्होंने बताया कि बनानेका । उन्होंने बताया कि तुम्हें यदि वस्तुतत्वका पूर्ण मतो केवल श्रद्धा रखने मात्रसे कोई मुक्त हो सकता है
और गस्तविक ज्ञान प्राप्त करना अभीष्ट है तो वस्तुको और न केवल ज्ञान अथवा भाचरण मात्रसे. प्रत्युत इन प्रत्येक दृष्टिमे देखनेका प्रयत्न करते रहकर उसके प्रत्येक तानोंके एक माथ पालन करनेसे ही मुक्ति मिल सकती है। गुणपर विचार कर निष्पक्ष भावसे जानते चले जाओ, तो जितने अशीमे कोई इनका पालन करता है उतने । तुम्हारा ज्ञान संकुचित न होकर विशाल और वास्तविक में वह सुख और शांतको प्राप्त करता हुआ एकदिन अपने बनकर विकमित होते हए एक दिन पूर्णताको भी प्राप्त हो काका सम्पूणत: नाशकर परमात्मा बन ही जाता है। सकता है । सांप्रदायिक पक्षपात पूर्ण मनोवृत्ति सदा ही
परमात्मा कोई ऐसा ईश्वर नहीं है जो दुनियाको सुख दूषित, संकुचित एव अनुदार हुश्रा करती है, जिससे मनु
दुख देता हो या किमीको मारता जिलाता अथवा सृष्टकी योंके ज्ञानका विकाम तो रुकता ही है, साथ ही उसका
रचना और प्रलय करता है । परमात्मा तो वह पवित्र वह संकुचित अधूरा ज्ञान भी पक्षपात पूर्ण होनेके कारण
पारमा है जो अपने सम्पूर्ण दोषो और कमियोंको नष्टकर अवास्तविक हो जाता है और विवादका कारण बनकर
म्वाभाविक गुणों (अनंत ज्ञान, दर्शन, सुख एवं शक्ति) को विश्वमें अशांति फैलाता व नासमझ और भोले लोगोंको
व्यक कर सच्चिदानद अवस्थामे जीन रहता है । वह रागी । भममें डालकर उन्हें भी दृषिन मनोवृत्तिका बमा डालता
द्वेषी कामी, क्रोधी, लाली आदि नही है। परमात्मतत्व ।अतः प्रत्येक मनुष्य को उसके कल्याणकी दृष्टिमे यह
की दृष्टि से परमात्मा एक और संख्याकी दृष्टिसे अनेक हैं। आवश्यक है कि वह पस्यको, अपना समझकर उसे मानावे. न कि अपने जाने और माने हुए अधूरे एवं संकु
दुनियाके प्रत्येक व्यक्तिको विना किमी भेदभाव चित ज्ञानको ही पूर्ण ज्ञान कहकर हठ करे । यदि वह
परमारमा बना देनेका मार्ग प्रशस्त करते हुए विश्वप्रेम, अपनी संकुचित दृष्टि बनाकर वस्तुके आंशिक ज्ञानको ही
पेवा स्याद्वाद, सदाचार अहिमा साम्यवाद प्रादिसे श्रोत पूर्ण ज्ञान कहेगा तो इसमे पदार्थके स्वरूपको तो कुछ प्रोत सुखमय संदेश सुनाकर भगवान् महावीरने जो विश्व हानि पहुंचती नहीं, अलवत्ता उसकी मूर्खता अवश्य पुष्ट
का चिरकल्याण किया है उससे कोई भी समझदार व्यक्ति हो जायगी। इसी ज्ञानात्मक निष्पक्षताको उन्होंने 'अने
कृतज्ञ हुए बिना नहीं रह सकता । विश्व कल्याण के लिए कांतवाद' या 'स्याद्वार' के नामसे व्यवहत कर सम्यकज्ञान
भाज उनके सिद्धान्तोंके प्रचारकी कितनी पावश्यकता है, को प्राप्त करने व मांप्रदायिकताको नष्ट करनेका वास्तविक
इसे उनके धर्मके अनुयायीगण शायद अभी नहीं समझते। पाठ दुनियाको पढ़ाया।
स्वयं मोहकी प्रज्ञानमयी निद्रामें प्रसुप्त हैं!
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गुलामी [करुणा-मय, पौराषिक, खण्डकाव्य.]
(ले० स्व. 'भगवत्' जैव )
- - सैन्य-संचालक अयोध्यानाथ का,
कभी आजादी गुलामीका रहा, जब चला दर्बारको रथपर चढा ।
किसी भी युगमें नहीं कम फासला। चकित पुरवासी हुए निज चित्तमें,
निर्बलोंकी बात जान दीजिए, था मभीमें एक कौतूहल बढ़ा।
शक्तिशाली भी अगर परतंत्र है। आज किम नृपका अनिष्ट समीप है,
देह उसकी क्या, नहीं है ध्येय भी, पत्तन किस साम्राज्यका अनिवार्य है ?
दूसरेके हाथ ही का यंत्र है। जो बुलाहट है हुई दर्बारसे,
है प्रकट यह आज कोई कार्य है ।। चमूपतिने ग्थ लगाया द्वारपर, पहुँच मेनापति गए अविलम्ब ही,
जानकीसे वचन यों कहने लगे। थी मभा बैठी जहाँ श्रीरामकी ।
'उठो, जननी तीर्थ-दर्शनके लिए, नम्रताके साथ अभिवादन किया,
भाग्यकी जिससे प्रबल रेखा जगे।। चात आई सामने फिर कामकी ।।
दे दिया आदेश है रघुनाथने, सौम्य प्राकृति वक्र थी अवधेशकी,
देर करना अब तुम्हारा व्यर्थ है । था झलकता क्लेश चहरेपर धना !
चाव था जिन-वन्दनाका जो तुम्हेंकिन्तु दृढ़ता भी प्रकट थी दीवती,
यान भेजा नाथने इस भर्थ है। वेदनाके साथ थी संवेदना ॥ धिक् ! गुलामी, क्या कहें तेरे लिए? गम बोले-'बन्धु, सीताको अभी,
प्रकट है यह शक्तिशाली तू बही। छोड़ आओ तुम विपिनके अंकमें।
धन्य है वह वीर जो तुझसे बचा, जगह अब उमको नहीं प्रामादमें,
विजयकी माला गले जिसके पड़ी। दंड है यह, डालना आतंकमें ।
दासका जीवन न कोई वस्तु है, मौन र, हेसेनापतिनिस्तब्ध ही,
जो इशारोंपर हमेशा नाचता ! श्रवण कर इस वनसे आदेशको॥
झूठ-सच करना सभी पड़ता उसे, व्यथासे मन भर गया उनका तभी,
खो चुका जो गांठसे स्वाधीनता ।। सहन पर करना पड़ा संक्लेशको॥ अवधकी गनी उठी श्रद्धा भरी, चाकरी थी, बोल क्या वह बोलते ?
'चलो' कहकर बैठ वे रथमें गई। था गुलामीसे बँधा उनका गला।
चमूपतिका कंठ तब अवरुद्ध था,
चूँद दो अब लोचनोंमें भागई ।। * यह वह दूसरा खण्ड काव्य है, जिसे भगवतजी अनेकान्त
देख सीताने कहा-क्या बात है? के लिये अपने पीछे छोड़ गये हैं।
हर्ष-बेलामें प्रकट यह शोक क्यों ?
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१३२
अनेकान्त
[ वर्ष
-
दुखित-सा मन क्यों तुम्हारा दीखता, श्याम मुख है, है नहीं आलोक क्यों ?
सैन्य-नायक सँभलकर कहने लगे'कुछ नहीं, माता न चिता तुम करो। देव-दर्शनका महत् सौभाग्य ले,
मानवी-तनको महत्तामे भरो ।' और रथ ननने बनाया वेगसे, दौड़ने घोड़े लगे रथको लिए । नहीं सीना पूछ कुछ आगे सकी, चुप रही वह, विन्न अपना मन किए ।
अपशकुन हैं आज यह क्यों हो रहे, क्यों अशुभसा आज दिखलाता मुझे! फड़कती है आँख यह दुख-दायिनी,
दीखता है कष्ट कुछ आता मुझे। रामरानी सोचती यह जा रही और रथ है उड़ रहा गति वायुकी। सोचते हम विश्व-वासी हैं यथा, उधर घटती आयु पल-पल आयुकी ।।
घूलके गुब्बार पीछे उड़ रहे, वेगसे है यान आगे बढ़ रहा। छूटते सब जा रहे वन-ग्राम हैं,
सारथी है जा रहा मनमे दहा ॥ सोचती फिर अवधि-पतिकी कामनी, देव-दशेनसे सभी होगा भला। व्यर्थ चिंता इस लिए मै क्यों करूँ ? मानना है जबकि विधिका फैसला ।।
बाघ थे ऊँची दहाड़ें मारते। इधर भालू भेड़िए थे घूमते,
सर्प अजगर थे उबर फंकारते ।। हिमकों के रूप फिरती मृत्यु थी, काँप उठता देख कर बलवान भी। रोक करके यान मैनानी वहाँ, नगे रोने थे न जो गेए कभी ।।
चकित हो सीता लगी तब पूछने. रो रहे हो क्यों, कहो ए वीरवर । किस लिए हो रुक गए बोलो जरा.
यहाँ ठहरो मत, चलो अपने नगर ।। यह जगह इतनी अशोभन है, जहाँएक क्षणको भी ठहरना काल है। शीघ्र ही आगे बढ़ाओ यानको, हो रहा मेरा यहाँ बहाल है।
चमूपति रोते हुए कहने लगे, रुद्ध-स्वर में कपट-मय अपनी व्यथ।
माँ ! क्षमा मुझको करो मै दाम हूँ.
___ दीन है, असमर्थ हूँ, मै मवथा ।। दीन ही रोते सदा ॥ यहाँ, रो रहा है आज मैं भी दीन हो। दीनका अस्तित्व क्या संसार में ? हे वही जीवन कि जो स्वाधीन हो ।
मैं गुलामीमें बँधा हूँ, भृत्य हूँ, सबल होकर भीन कुछ कर पा रहा। देखना वह दृश्य मुझको पड़ रहा.
दे रहा जो कष्ट प्राणों को महा।। चुप रही अवधेश्वरी बोली नहीं, सोचती मनमे यही अपने रही। है अमंगलकी घटा सिर पर खड़ी, सोचती थी सामने है अब वही।।
कहा-'रोओ मत, कहो जो बात हो, सिर्फ रोनेसे चला है काम कब ? भाग्य-निर्णय टल नहीं सकता कभी,
भोगना ही वह पड़ेगा पुत्र ! सब ।। चमूपति कहने लगे श्राकान्त हो
सभी तीर्थोंकी कराकर वन्दना, रथ घुमाया फिर चमूपत्तिने कहाँ ? उस भयंकर घोर अटवीमें सखे !
मृत्युका साम्राज्य पूरा था जहां।। बाघ, चीते, सिंह, भाल, भेड़िए, सर्प, बिच्छू आदिसे वह थी भरी। वृक्ष थे इतने सघन उसमें खड़े, दिवसमें भी थी प्रविष्ट विभावरी ।।
सब तरफ चिंघाड़ता गज-मुंड था,
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किरण ६-१०]
गुलामी
१३३
'दास है क्या वस्तु स्वामीके लिए। पूछती हो, रो रहा हूँ किस लिए ? रो रहा हूँ मैं गुलामी के लिए।
आज यदि स्वाधीन होता तो अहो, पाप यह होता न मेरे हाथर्स । नारकीपनका घृणित मिलता नही,
मम-बेधी हुक्म ये रघुनाथस ।। माँ ! मुझे आदेश है, अवधेशका, प्रकट करते काँपती मेरी गिरा। क्या करूँ ? कुछ समझमें आता नहीं, आज ऐसी उलझनोंमें हूँ घिरा ॥
दुखित वैदेही लगी तब पूछने, कॉपता स्वर और थे आँसू बहे। क्या कहा है ? नाथने उसको कहो,
क्लेश क्यों तुम व्यर्थ ही हो पारहे ? तब विवश होकर यही कहना पड़ा, माँ! तुम्हारा त्याग है प्रभुने किया। घोर बनमें छोड़ आनेके लिए, है मुझे आदेश राघवने दिया ।।
उठी रथसे जनकनृपकी नंदिनी, प्राणपतिके वचन पड़ते कान में । कष्ट सहसा वह उसे अनुभव हुआ,
था न जो अनुमानके भी ज्ञानमे ॥ उतर कर रथसे चली सीता जभी, सैन्यपतिका हृदय सा फटने लगा। ठीक बच्चोंकी तरह वह रो पड़े, विपिन कोलाहल रुदन ध्वनिसे जगा।।
भयाकुल-सीता धरा पर जा पड़ी, आसुओंसे वस्त्र भीगे थे सभी। भूमि पर बैठी लगी अवधेश्वरी,
वीरसेनापति दुखित बोले तभी। हाय ! यह क्या देखता हूँ आज मै, फूट जाती ऑख क्यों मेरी नहीं ? मूर्खता थी जो अयोध्यामें रहा, भाग जाता मैं विदेशोंको कहीं।
कृत्य यह होता न मेरे हाथसे,
हूँ दयासे शून्य बेशक नारकी। अधम मुझ-सा कौन है संसारमें ?
कौन मुझसे अधिक होगा पातकी ? कुसुम-मा तन, कहाँ बनकी भीमता, दीखती है प्रकट अकुशल प्राणकी । कहाँ यह निर्जन विपिनकी भूमि है, कहाँ महलोंकी निवासिन जानकी ।
मात्र स्वामीके इशरे पर खड़ा, ले रहा हूँ मोल यह घातक-व्यथा । कर रहा हूँ वह अनर्थ महान मै,
हृदयके प्रतिकूल है जो सवथा ॥ आत्मा-तक हाय बिक जाती जहाँ, विश्वके सारे वहाँ दुख क्लेश हैं। स्वाभिमानी मन वही पर नष्ट है, जहॉस यह दामता प्रारम्भ है।
वह मृतकके तुल्य है, परतंत्र जो, यदि कहें जीवित उसे तो दम्भ है। माँ ! क्षमाकी भीख दे करदो विदा,
बाट होंगे देखते रघुकुल-तिलक ।। कुछ संदेशा भेजना हो तो कहो, मै उसे पहुंचा सकूँगा नाथ तक । रो पड़ी मिथ शकी तब लाडली, उच्च-स्वर था, घोर करुणासे भरा।।
गूंज तब कान्तारकी सीमा गई, काँपने-सी लग गई जैसे धरा। रो उठा वह भीम बन भी दोन हो,
पत्थरोंका भी हृदय फटने लगा ।। वृक्ष भी चीत्कार-सा करने लगे, रुक गई बहती हुई भी विपथगा। वाघ, भालू, सर्प, हस्ती, भेडिए, सब चकित हो लगे उसको देखने ।।
सौम्यता उन पर झलकने थी लगी, हों सभी जैसे कि मिट्रीके बने। मर्म-वेधी रुदन रघुपति-नारिका,
गगनको छूने लगा निर्मुक्त हो । सभी नभचर विकल हो आकाशसे,
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अनेकान्त
वर्ष ७
पास आए शोकम संयक्त हो।
लोचनों में नीर आनेको हुआ, बहुन रोका था रुदन दृढ़ चित्त हो,
कण्ठकी दयनीय दिखलाई दशा ।। श्रमह हो वह किन्तु सन्मुख प्रागया ।।
दूरसे ही पूछने वह यह लगे, पूछते ही चमूपतिके गे पड़ी,
'छोड बाए हो कहो सीता कहाँ ? टूट जैसे बॉध हो जलका गया।
कुछ कहे हैं शब्द क्या मेरे लिए, देर तक सीता इधर रोती रही,
ठहरनेकी क्या व्यवस्था है वहाँ ? उधर सेनापति बहाते नीर थे।।। मौन सेनापति रहे कुछ देर तो, किमीको भी तो नहीं अवकाश था,
फिर सुना सन्देश सब उनने दिया। दुखित दोनों ही समान अधीर थे।
राम ऑमू पोंछते सनते रहे, कठिनतासे कह सकी सीता यही,
पाठ इमस क्या कहें कितना लिया ? 'पुत्र ! कहना-प्रभो! यह अरदाम है।।
अवध ति जब शोकमें मंत्रस्त थे, लोकका अपवाद सुन करके मुझे,
चमूपति कहने लगे अपनी कथा । दे दिया जो आपने वनवाम है।
हे प्रभो ! मुझको विदाकी भीख दो, आज कुछ खोटी प्रकृतिके आदमी,
खल रहा जग जाल मुझको सवथा ।। धर्मका अपवाद करते हैं विभो !
कर चुका मै कार्य अंतिम आपका, श्रवण कर म धमके अपवादको,
अब मुझे स्वातंत्र्यका सुख चा हए । छोड़ मत तुम धमेको देना प्रभो !
है मुझं करना प्रयत्न अवश्य ही, त्याग मेग कष्टदायी कुछ नही,
इस दुखद घातक गुलामीके लिए । क्यों कि मैं हैं आपकी पद-सविका ।
किन्तु तजना धर्मका दुष्कृत्य है, कट-दायक नर्क और निगोदका ।। दासताकी शृंखलाको तोड़ कर, बस यही सन्देश कहना जा वहाँ, चमूपति दोड़े तपोवनके लिए।
नाथ ! सीताने कहा है आपको। तनिकमे मन्तुष्ट वह होते न थे, यश निरन्तर आपका बढ़ता रहे,
पुणे आज़ादी उन्हें थी चाहिए। धर्म पल-भरको न विस्मृत कर सको।
गम बोले-बन्धु मुझकोछड़ कर, वीर सैनानी दुखित रोता हुआ,
कहाँ जाते हो बताओ तो जरा ? पैर छू कर पुनः रथमें जा चढ़ा।
चमूपति बोले नहीं, आगे बढ़े, रह गई सीता अकेली ही वहाँ,
उसी पथपर जो कि था श्राशा भरा।। यान खाली अवधके पथपर बढ़ा ।। जहाँ राघवको विकलना थी मिली, * * * *
प्राण प्यारीके विपिन परित्यागसे। चमूपतिको देख कर आता हुआ,
वहाँ पाया वांछनीय प्रकाश था, रामका होने लगा मन-व्यग्रमा ।
चम्पतिने उस विरहकी आगमे ।।
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सुख और दुख
(लेखक श्री जमनालाल जैन, विशारद )
कविवर भूधरामजीका यह कहना" जो संसार विषै सुख होता तीर्थकर क्यो प्यागे काहे को शिवमान करते संयम को अनुरागे" एकाएक हृदयमें उथल-पुथल, आश्चर्य एवं आशका उत्पन्न कर देता है कि क्या वास्तव में हम संसार सुख ही नहीं, दुख ही दुख है ! उस हे समय और भी अधिक कौतूहलका अनुभव होता है, जिम समय वे अपनी पंकि तीर्थकरोका भी समावेश कर देते मे है। तीयंकर जैन धर्मानुसार ऐसे वैसे सामान्य मनुष्य नहीं होते, वे जन्म ही किमीको अपना सिर भी नहीं झुकातेउनकी योग्यता, महानता और आदर्शके प्रतिकूल जो ठहरती है यह बात जब इसने बडे श्वशन् महिमाबाद और ऐश्वर्यवान् और तो और इन्द्रों द्वारा पूजनीय तीर्थंकरों की ही, यह दशा इस समारं तब फिर हम सामन्य प्राणियोंकी है, हालतका तो पूछना ही क्या है !
जो ईश्वर, परलोक, धर्म कर्म आदि कुछ भी नहीं मानते, जिनकी संज्ञा इसके विपरीत धारणा वालोने 'नास्तिक" रस छोड़ी है, उनका कहना है कि जो कुछ है, यहीं पर है-मुख भी और दुख भी परन्तु जब हम दुग्ब । देखते हैं तथा प्रत्येक प्रायकि हृदयस्थ विचारोकी थाह लेते जेते तब यही ज्ञात होता है और जिसे प्रत्येक प्राची समझता है कि ममार भटकनेवाला तुच्छ गुच्छ जीव भी सुखकी महत्वाकांक्षाओं को लिये चारों धोर सुखशांति की खोजमे फिरता रहता है। कोई भी प्राणी मात्रके लिये तो अपने प्रिय निरीह प्रायको दुखकी थकती हुई आवा मे सहर्ष समर्पित करना नहीं चाहता। वह अपना वर्तनान दशापर, फिर वह चाहे जैसी ही दूसरों की दृष्टि क्यों न हो, कभी भी संतुष्ट नहीं रहता- निरन्तर यही सोचना रहता और भावी सुखकी आशा और अभिलाषाओंकी कल्पना कर, उनकी पूर्तिकी चिन्तामे मतत व्याकुल रह सदैव अपने अन्तरको दग्ध करता रहता है कि इससे पक एवं अमिट सुख-शांति किस प्रकार प्राप्त हो । दूसरे
हम निरन्तर प्रत्यक्ष अनुभव करते ही रहते हैं कि जिस प्रकार एक धनसम्पन्न व्यक्ति भो अपनी दयनीय दशापर चाकुल व्याकुल और चिंतित रहता है, उसी प्रकार एक निर्धन भी अपनी अयमर्थता निम्मायता और मनताको कोयना रहता और उस धनिक वैभव और ऐश्वर्यको गिरकर ईर्षाले महमान होता रहता है। एक ओर कोई नित न होने दुखी रहता है. कोई कुसतान होनेसे चितित रहता है तो कोई होर मर जाने दुखी रहता है। एक महाशय अपनेको, अविवाहित जीवन व्यर्तन करनेके कारण जनभाग्य और दुर्भाग्यशाली समझते हैं वहीं दूरी को उन्हींके पीयमे देखनेको मिलता है कि पति पनी आपस मे 'जूती- पत्रम्" कर रहे हैं। इसी लिए एक कविने जगतकी विचित्रताका निरीक्षण करके कहा हैसूक्ष्म दाम बिना निधन दुखी, तृष्णावश धनवान् । कहूँ न सुख संसारमे, सब जग देख्यो ज्ञान ॥ - पार्श्वपुराण, भूधरदाम
ओर
तब यह कहना कि मुख और दुख दोनों भी यहीं हैं और सब कुछ हमी जीवन के लिए है माया कहरो नास्तिव तक उचित और उपयुक्त स्वीकार किया जा सकता है. जब कि लोग पाप, हिंसा, अत्याचार और पाखण्डम भयभीत डोकर कुछ पुरुष कार्य कर अपने भावी जीवनकी कल्याण कामना करते हुए पाए जाते हैं। I
मान भी लें कि यह उनकी मूर्खता है अज्ञानता है और हैं धास्तिकता के नामपर ढोंग, तब भी प्रश्न इन नास्तिक मिरपर भूत बनकर मदार ही रहता है कि महाशयजी, यदि यही जीवन सब कुछ ह ता - इसके आगे कुछ भी न होता तो संसारमें विधि विधानों नियमोरनियम राजकीय नियमों, धार्मिक अनुष्ठानों और सामा जिक प्रथाओंकी आवश्यकता ही क्यों होती ? लोग मनमाने कार्य करते, हमारी बहन-बेटियोंपर सुखे रूपसे निर्भ यथाके साथ बखाकार करते और एक तूपरेको र पहुंचा
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अनेकान्त
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कर अपने स्वार्थ-सापनमें लिप्त रह खाते-पीते और मौज मुनकर ही लोगोंके भागे अनिष्ट पाशंकाका चला चित्र डहाते ! कस्य तो यह है कि ऐसा यदि होता तो यह ससार, उपस्थित हो जाता है और जिनके वशीभूत होकर वे कार्य संसार न रहकर नरक रह जाता, जहां बेचारी संस्कृति, करते हैं, एक तो उनपर कुढ़ते रहते हैं और दूसरे जी जगा सभ्यता धर्म तथा जीवनकी गंध भी नहीं माने पाती और कर कार्य भी नहीं करते। अत. यह निर्विवादरूपेण सिद्ध असम्भव नहीं जो यहां शून्य रहता । और, यदि लोग हो जाता है कि प्रत्येक प्राणी, फिर वह छोटा हो या बसा. अपने कल्याण के लिए, शुभ कार्योंके करने में तत्पर दिख ई सुखका ही अभिलाषी हैपढ़ते हैं तो क्या उनकी कल्याण कामना, उनकी मृत्युके जे त्रिभुवनमें जीव अनंत । सुख चाहे दुख हैं भयवंत ॥ उपरांत मृतिकाके ढेरके लिए है? कह नही सकते, इन इतना कह चुकनेक उपरांत भी, विचार करने के लिएप्रश्नोंका उत्तर, हमारे नास्तिकता दम भरने वाले दंभी और विवेचना करनेके लिए-हमारे सम्मुख कतिपय प्रश्न रह अहंकारी सजन, किन शब्दोंमें दंगे ! परन्तु इतना तो ही जाते है कि सुख प्रास्विर है क्या ? वह है तो भी कहाँ ? निर्विवाद सुस्पष्ट है कि उस सिद्धान्तके अनुयायियोमेमे और वह प्राप्त कैसे किया जा सकता है । अत: सक्षिप्त एक भी सजन एसा न होगा जो अपनेको, अपनी स्थितिमें रूपेण इनपर भी विचार कर लेना अनुचित न होगा। हो, अथवा, उसे उसकी मांगके अनुसार समस्त सुखमाधन सुख-सुख तो सारा संसार चिल्लाता है-दार्शनिकोंने प्रदान कर दिए जाएँ, तो भी, वास्तविक या स्थायी सुखका भी चिल्लाया, विचारकोंने भी और धार्मिकोंने भी । परन्तु पूर्ण अधिकारी सिद्ध कर सकेगा।
हम देखते हैं कि आज भी ये दो अक्षर मनुष्योंके लिए हो सकता है, वे यह दलीज उपस्थित करके अपने को विकट समस्या बने हुए हैं। एक निर्धन कहता है कि यदि विजयी घोषित करना चाहें कि प्राणी कंवल कार्य करने मेरे पास इतना धन होता तो मैं यों करता, त्यों करता और लिए ही उत्पन्न हुआ है। वह इसकी परवाह या अभिलाषा न जाने क्या करता तथा सुखी रहता। परन्तु उसीके पीछे इमलिए नहीं कर सकता अथवा उसे अधिकार ही नहीं एक धनिक चिल्ला रहा है "हाय ! हाय" न उसे खानेकी है कि वह सोचे कि मैं सुखी होऊँ या चैनकी बंशी बजाऊँ! सुध है न पीने की, न सो पाता है न जाग ही सकता हैलेकिन वास्तवमे यह दलील सवा सोबह पाने लघर है। यह उससे भी अधिक चिन्तित और प्राकुल-व्याकुज ऐसा कौन है जो भव्य प्रामादोंमें नरम नरम कोमल गलीचो दिखाई देता है। यह दुविधा सुखान्वेर्ष के लिए एक विचिपर गहियोंपर बैठे बैठे अपने भृत्योंपर हुकुम चलाने के स्थान प्रता उपस्थित कर देती है कि अंतमें सुख कहा किस जाय पर ज्येष्ठकी भरदोपहरीम हाथमें कुल्हाड़ी लेकर जगल और उसका उपयुक्त उपभोक्ता कौन हो सकता है? ज्यो २ मे इंधन काटनेको जाने के लिए उद्यत हो! यह बिलकुज वह अ.गे कदम बढ़ाता है दुख दावानलकी प्रचण्डता ही असम्भव है। यदि प्राणी परिश्रम करना ही उपयुक्त उसे दृष्टगत होती है। ज्यों २ वह इस समस्याको सुलझाने समझता होता तो क्यों यह देखने में आता है कि कई के लिये प्रवृत्त होने जाता है, क्यों २ उसका जाल नझते व्यक्ति कार्योंमे, जिन्हें वे मूल्य या पारिश्रमिक लेकर भी ही जाता है परन्तु सुखका खोजी यथार्थ में यदि कोई करते हैं, जो चुराते हुए पाए जाते हैं। और, यदि परिश्रम है और कुछ सदसद् विवेक बुद्धि रखता है तो उसे, , करनेमे मनुष्यको आनन्द प्राता अथवा वह यदि उसकी ससारसे दूर हट कर. विचार करनेके पश्चात् इसी निष्कर्ष स्वाभाविक प्रवृत्ति होती तो क्यों प्राज पालसियों, अकर्मण्यों पर पहुंचना होगा कि "संसारमें जितनी भी दृश्यमान और ऐयाशियों के विरुद्ध पोथेके पांथे दृष्टिगोचर होते हैं एवं वस्तुएँ हैं, सब ही दुखका कारण हैं, क्यों कि, जैसा वह क्यों परिश्रमकी प्रशंसापर प्रशंसा सुनने में आती है ? जो देख चुका होता है, जो वस्तु एकके लिए हितावह अथवा कार्य, स्वभावत: प्रत्येक मानवके हृदयसे निरन्तर होते ही सुखकर है, जिसे स्थायी नहीं कह सकते, वही दूसरेके लिए रहता है उसके विषय में न तो कहीं प्रशंशाहा सुनी गई उसी समय हानिकारक एवं दुखाद भी है। इस लिए यह और न निंदा ही करते किसीको देखा है। परिश्रमका नाम दुरंगी वस्तुएं, जिनके समूहका नाम ही यह दृश्यमान् संसार
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किरण ६-१०]
सुख और दुख
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है कभी भी स्थ यी सुखप्रद नहीं हो सकतीं।" प्रतएव हालतमें न खाना सूझेगा न पीना न पहनना सूझेगा न यह निश्चित रूपेण स्पष्टतासे कहा जापकता है कि स्थायी प्रोढ़ना, रातका अनुभव होगा न दिनका, वह अवस्था ही सुख उस भावना या मानन्दका नाम है जिसमें इच्छा, एक विचित्र दशा होती है। उसमे एक बार जो तल्लीन हो अभिलाषा, मोह. राग और द्वेषका पूर्णतया प्रभाव हो। जाता है, यदि उसके शरीर परस भयानक विषधर भी गुजर सचा सुख निर कुलत.मय है।
जाय, उसके शरीरको जंगलके मृगगण पत्थरकी दीवान उपर्युक्त पक्तियोंमे, यह तो हम स्पष्ट रूपसे निरख ही समझ कर खाज खुजलाते हुए खिपक जाय तो चुके कि निराकुलता ही सुख है। अब प्रश्न यह रह जाता उस प्रारमध्यानो महामाको तनिक भी भय तो क्या, है कि वह है कहां? सपारमे तो सुख है नहीं. अत: वह भामास भी नहीं होता कि इतनी देरमें मुझपर क्या क्या कहीं तो भी हमके परे ही होना चाहिए, यह जाननेकी बीती है। उसे अपने ध्यानानन्दमें यह भाव ही नहीं होता निशामा सहज ही उद्भूत हो उठती है।
कि मैं कहां हैं. मेरा शरीर कैसा है ! इस ध्यान ही ध्यानसे एक विद्वानका अभिमत हैं कि-"सुख मनसे सम्बन्ध एक समय वह पाता है जब उसके हृदयके सारे विकार, रखता है, प्रायोजन या पाडम्बरसे नहीं।" जहां प्रायोजन सारा मनोमालिन्य, मोह ममता, ग्यानामनकी धधकती
और आडम्बर, इच्छ। और अभिलाषा राग और द्वेष, ज्वालामें भस्मीभूत होजाते हैं और हृदयमें "वसुधैव बड़प्पन और अभिमान, कोच और माया लोभ और मोह कुटुम्बकम्" का तेजोमय अखण्ड प्रकाश विश्वप्रांगणापर का साम्राज्य छाया हुभा होगा, वहाँ सुखकी पाहदकारी प्रकाशित एवं भालोकित हो उठता है। एक हिंदी कविके पताका, जो शांति और निराकुलनाके पुनीत साम्राज्य की कथनानुसार उस ी यह दशा होजाती है-- प्रतीक है, नहीं फहरा सकती । जब तक मन और हृदय "अरि-मित्र, महल-ममान, कंचन कांच, निन्दन थुतिकरन। विकारशून्य नहीं हो जाते, "तेरा-मेरा" के चरपरे विचार अर्धावतारन, अमि-प्रहारनमें सदा ममता धरन ॥" चूर-चूर नहीं हो जाते, तबतक सुखका अनुभव कैसा? उपरांत इसके, एक समय वह पाना है जब उसके सुग्य तो वहां है, जहाँ प्राकुलता नहीं, निराकुलता है। समस्त अज्ञान मेघ, निरंतर समता-सुधाका पान करते २, जहाँ निराकुलता है, वही शांति, संतोष और अनंदकी एक दम नष्ट हो जाते हैं और ज्ञान सूर्यका दैदीप्यमान स्थिति है। हम तनिक मणके लिए भी गार्हस्थिक झंझटोंसे मालोक, अनन्त लोकमें व्याप्त हो उठता है। इसे संपूर्ण हटकर यदि एकान्तमे जा. निर्विकार और निराकुज हो. ज्ञानदशा कहते हैं, जिम जैन धर्म में 'केवलज्ञान' कहा प्रारमाके स्वरूप और प्रकृतिकी सुंदरताका सहृढयतापूर्वक गया है। इस सुदशापर पहुँचने के पश्चात, जिस अश्रुतपूर्व निरीक्षण और चिंतन-मनन करें तो ज्ञात होगा कि कितना सुखका अनुभव उसे होता है, वह लेखनी और वाणीके अलौकिक, अभूतपूर्व और स्वर्गीय सुखका हमें अनुभव घेरेसे आबद्ध नहीं। इस सम्बन्धमें मनम्तुष्टि मात्रके लिए, होता है।
केवल इतना ही कथन पर्याप्त होगा कि जहा इमाग ज्ञान यह तो एक चणिक समय मात्रकी बात हुई। परन्तु इंद्रियोंके वशीभूत होकर सीमित द्रव्य, क्षेत्र, काल और सदा ही ऐसी अवस्था तो संसारमें रहकर उपलब्ध नहीं भावको लिए हुए है, हम जितना कुछ मनन, चिंतन, हो सकती, बिना चिंता और प्राकुलताके काम ही नहीं जो अवलोकन विश्लेषण इन इंद्रियों द्वारा देख, सन, सूध, चता यहांका । इसीलिए एक सूक्ष्मदर्शी साधक कपिने चख और स्पर्श करके कर सकते हैं, उससे भी कम उसे उस सुख के स्थल का संकेत अपने शनोंमें यों किया है- समझ सकते हैं अर्थात विश्वके सम्मुख उसे संपूर्ण सत्य "प्राकुलता शिवमानि ताते, शिवमग लाग्यौ हिये।" रूपसे उपस्थित भी नहीं कर सकते-प्रत्येक विषय गुगेका ___ यदि हम अग्ने अापको-प्रारमाको-शिव( मुक्ति) गुड होकर रह जाता है। वहां, उन ज्ञानियों-केवलज्ञानियों की ओर आकृष्ट करेंगे, भारम-ध्यानमें तल्लीन होंगे और की समस्त इंद्रियां-सुख और ज्ञान-प्राप्तिके समस्त बाह्य निरन्तर प्रारमसरूपके चिन्तनमें ही मन्न रहेंगे तो उस साधन-मत्युमुखमें पहुंच जाती हैं-निष्क्रिय हो जामी
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अनेकान्त
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.हैं. एवं स्वयं प्रात्मा ही सपूर्ण इन्द्रियों का कार्य करने शक्ति है जो उत्थान और पतन-जैसी जिसकीसंगति होबगती है। हमारा ज्ञान परावलम्बी है- यदि हम एक भी की ओर, प्रत्येक प्राणीको प्रवृत्त करती है। असंतोषसे एक इन्द्रियसे पगु हों तो उसके विषयका रसास्वादन स्वममे भी दुख होता है जिससे कुपित होकर वह, सुख-संतोष दृढता सम्भव नहीं, परन्तु प्रात्माको इन बाह्य श्रायोजनोंकी है, और यह सब उस प्रचण्ड और बलवती प्रेरणासे होता किंचित् भी मा.श्यकता नहीं होती-वह संसारकी पारी है, जिसके मूल में स्पर्धा समाहित रहती है, और वह उस प्रवृत्तियों, सारे परिवर्तनोंको हस्तामलकवत जानती है। के साथ की जाती है जिसके निकट सुम्ब-संतोष अधिक
कभी कभी हमें किसी बातका अथवा अनुभवका ऐसा मात्रामे रहता है। इस दृष्टिसे कह सकते हैं कि जिस प्रकार अस्मीय प्रानंग होता है कि तनके रोम रोम पुलकित हो निराशामें प्राशा, रश्मिमें प्रकाश, विलास में काम, घनमें उठते हैं। जहां जरा-सी बातमे ही इतना अलौकिक प्रानंदा- विद्युत और वेदनामें अश्रु अभिन्न भावस सन्निहित रहते हैं, नुभव होता है, वहां जगतके सपूर्ण व्यापारोंका एक उसी प्रकार दुखमें भी सुख विद्यमान रहता है। यदि हमें साथ अनुभव करने वाले महामाको किस कोटि दुख, अतृप्ति और असंतोषका अनुभव न हो, तो यह स्वम का आनंद होता होगा-वर्णनातीत है । संक्षेपत: उसे में भी विभर करना कि सुखकी ओर अग्रसर होना है, 'मनन्त सुख'-प्रखण्ड सुख कहकर मनस्तुष्टि कर सकते हैं! निग दंभमान होगा।
प्रत्युत इसके, दुख तो दुख ही है । सारा सपार ही किंतु एक बात ध्यान में रखना आवश्यक है । यदि उसकी धू-धू करती ज्वालाप संतप्त हो रहा है । परन्तु हमारा दुग्व और असंतोष उदासीनता-निराशामें परिणत दुख भी सुख ही है-दुखको सुखका पर्यायवाची शब्द ही होजाए हम किंकर्तव्यविमूढ बन जाएं तो समझ लीजिए समझना चाहिए क्यों ? स्वाभाविकत: प्रश्न प्रस्तुत होता है! निश्चय ही हमारे भाग्यका सुख-सिंदूर पुंछ रहा है। असं.
मनुष्य जब अति मह्य दुखके भारपे दब जाता है, तोष अथवा अतृप्ति हो तो हमें पूर्णत्वकी ओर अग्रसर होने तब ही उसे क्रान्ति मूझती है-वह अपने हितको मार्ग का सबक सीखने को मिलता है । वह तो हमारे भाग्यखोजनेके लिए व्यग्र हो उठता है। जब तक वह श्राराम परिवर्तन के लिए समय प्राप्त करनेकी एक चेतावनी है, खाता, पीना और मौज उड़ाता है, यह सोचनेकी परवाह घण्टी है, यदि हम उसकी आवाज सुनकर सायपर जाग भी नहीं करता कि मेरा हित किममे कहां और क्यों है? गए और अपने कर्तव्यपर डट गए तो दुनियाकी ऐसी णेरा कर्तव्य क्या है ? मैं इस समय किस पथका पथिक कोई शक नहीं जो हमारे वीचमें रोडा अटका सके. परन्तु हूँ? क्या मेरे कार्य-व्यापार उचित हैं, हेय नहीं ? संसार चाहिए उसके लिए साहस, धीरता, और पुरुषार्थ । और इस समय किस परिस्थितिका अनुभव कर रहा है ? एक यदि नही जागे, अपने उस अमूल्य क्षणको नगण्य समझ नौकरको हम जब तक उसके जीवन-निर्वाहके लिए पर्याप्त यों ही 'काग उडावन मणि' के समान खो दिया. तो कर्म पारिश्रमिक देते रहेंगे, तब तक उसके हृदयमें अनिष्टकी, महारिपुत्रों की जोरदार फटकार और जीवन-पृष्ठोंगर बेतोकी संदेहकी या विनाश की कल्पना भी प्रसूत नहीं हो सकती, बतास एवं पाप-पुण्यमबा जंजीरें तैयार ही हैं-इस वह अपना कार्य पूर्ववत, पूर्ण जिम्मेदारी और ईमानदारीके समय भी संसारकी कोई शक्ति छुड़ाने में समर्थ नहीं होसकती। साथ किए चला चलेगा। परन्तु जहां उसकी आवश्यकताएं अंतमें पाठकोंका ध्यान, विशेषरूपसे कविवर पं. बढ़ीं और व्यय का परिमाण वृद्धिंगत हुआ तथा हाथमें दौलतरामजीके निम्न पद्यांशोंपर आकृष्ट कर, उसे गंभीरताद्रग्य न रहा तो वह निस्संकोच होकर, उसी मार्गपर पूर्वक मनन और अध्ययन करनेके लिए भूत कर, इम पारूढ़ होगा जिसे सभ्य भाषामें 'चोरी' कहते हैं । यही प्राशा और इच्छाके साथ कि विद्वान लोग प्रस्तुत विषयपर हालत प्रत्येक मनुष्यकी होती है-उसे सिखानेकी श्राव. सुंदरसे सुंदर विचारों को प्रकट करेंगे, निबंध समाप्त करता हूँ। श्यकता नहीं होती।
'पातमको हित है सुख, सो सुख, प्राकुलता बिन कहिए।' अतृप्ति अथवा असंतोष ही एक ऐसी अलौकिक पुण्य-पाप-फल माहिं हरख बिजखी मत भाई!'
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वीरके वैज्ञानिक विचार ( लेखक-1० धन्यकुमार जैन, एम० ए०, जेन दर्शनशास्त्री)
इसके पहिले कि हम इस विषयपर कुछ भी लिखने निश्चित करने के लिये विचार करने लगे। उन्होंने विचारा के लिये लेखनी चलावें उस परिस्थितिका दिग्दर्शन कराना 'बड़े होते हुए छोटा कार्य करना कोई आश्चर्यकी बात नहीं अनुचित नहीं सभमते जिसका कि सामना भगवान वीरको है लचाधिपति होते हुए सैकड़ों हजारों रूपये लुटा देना, नहीं व्यक्ति वीरको करना पड़ा था।
एक सहज काम है, मन भर बोझा उठानेकी सामथ्र्य रखने जब वे जीवनके कार्यक्षेत्र में उतरे, उनके सामने एक वाले व्यक्तिके लिये दस सेर बोमा उठाना बायें हाथका समस्या प्रान खड़ी हुई। वे चलते २ ऐसे स्थनपर मा खेल है। इसी प्रकार भगवान होते हुए, अवतार ले कृत्यों खडे हुए जहां उन्हें एक नहीं अनेक मार्ग दृष्टिगोचर होने द्वारा पुरुषोत्तम बन जाना, उससे प्रशशित व पूज्य बनना जगे। वे इस विचारमें पड़े कि इस सम्ते जाउँ मा उन उचित नहीं है। ऐसा प्रदर्श प्राप्माको उन्नत बनाने के राम्तोंसे जाउँ।
बजाय पतनोन्मुखी बनायेगा। वह सिर्फ जनताको धोखेमें एक मत कह रहा था कि अगर मुक्त होना बहते हो डालना कहलायेगा" मानध वीरने इसको हेय समझ, तो हमारी खुशामद करो, चापलूसी करो, भक्ति करो, पूजा तार्किक बुद्धिका अवलम्बन ले दूसरा मार्ग अपनाया। उन्हों करो, हमारी ही शरणमें पात्रो (मामेक शरण बज) हम ने नारायणमे नर होनेकी अपेक्षा नरसे नारायण बननेको तुम्हारा उद्धार कर देगे तुम्हे वैकुण्ठवासी बना देंगे। ज्यादा हितकारी एवं श्रेयस्कर समझा । स्व सुकृत्योंमे
दूसरा मत कह रहा था किसीकी खुशामद चापलूमी अपने व्यक्तित्वको ऊँचा उठाया, ध्यान, साधना और तपके करनेकी आवश्यकता नहीं, किसीकी शरण-भरण में जानेकी बलसे अपनी अंतर्ज्ञानज्योतिको जागृत किया और इस जरूरत नहीं। अपनी मुक्तिके लिये दूसरे पर आश्रित होना प्रकार स्वयं भगवान बन गये। आज इन निम्न लिखित अपनेको निकम्मा एवं मालसी सिद्ध करना है। तुम स्वय पंक्तियोमें हम उन्हीं वीरवर वैज्ञानिक वीरके विचारोंपर ही स्वयंके उद्धारके लिये प्रयत्नशील होश्रो, सफलता या विचार करेंगे। मुक्ति बद्धहस्त हो तुम्हारा स्वागत करेगी।
भाग्य और पुरुषार्थ के बीच में लटकने वाली प्रामाके उनके उपदेष्टा या प्रवर्तक भिन्न व्यक्ति थे। एक बडे लिये उन्होंने उपदेश दिया कि कर्तव्य-परायण बनो छोटा बना, संमारमें अवतारी पुरुष कहलाया और अपने "Work is worship" को अपना लक्ष्य एवं ध्येय अलौकिक कृत्य दिखला जनताको आदेश देने लगा मुझे बनायो । भाग्यवादी होना अपने में पुजदिली एवं कायरता बड़ा मानो, मेरी पूजा करो, मैं तुम्हारा उद्धार कर दूंगा। पैदा करना है। यह मनुष्य जो भाग्याश्रित हो अपनी दूसरेका प्रवर्तक हम श्राप सरीखा दो हाथ पैर वाला जीवनपात्रा करता है यह नर-कंकालको धारण कर स्वयं व्यक्ति था उसने अपने स्वरूप व शक्तिको पहिचाना, भज्ञान को पतित एवं निरुद्यमी सिद्ध करता है। अपनी मुक्तिके के पर्देको हटा कतव्य पथपर चल अपनी उन्नति करने लिये पराश्रित होना अपना अस्तित्व नष्ट करना है। अपने लगा। उ अतिके अंतिम शिखरपर पहुँच जनतासे निवेदन ही कृश्य स्वयके उद्धार । वं पतनके कारण होते हैं अत: करने लगा कि तुम भी मुझ सरीखे उन्मत हो सकते हो यह सोचना कि "भगवान हमारा उद्धार कर देगें" अपने बराते कि परका प्राप्सरा छोड स्वावलबी बनो और कर्तव्य आपको जिम्मेदारीसे मुक्त करनेका असफल प्रयास कह. कर्म करने के लिये पिल पड़ो।
लायेगा। बबूल के बीज बोकर पाम्रफलकी आशा करना श्रीवीर दोनों मागंका अवलोकन कर अपना पथ प्रारमप्रवंचना मात्र ही होगा। प्रत: "पराधीन सपने हु सुख
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भनेकान्त
[ वर्षे
नाही" वाले अर्थको मनमें मनन कर अपने उद्धार करने के ऐसा ही है" ऐसा माननेसे आज विश्व में कई सम्प्रदाय दृष्टिलिये प्रयत्नशील होत्रो सुकृत्य कगे, कर्तव्यपरायण बनो। गोचर होरहे हैं। वे मार्गके किसी सिरेपर खड़े हो. उसकी
__ "परोपदेशे पाण्डित्यम्" वाली उक्ति पर अमल न उत्पत्ति स्थानपर ध्यान न दे कहने लगे यही एक मार्ग है करते हुए वे स्त्रोद्धार पथके नेता बन यात्रार्थ चल दिये। लेकिन चौराहे पर खड़े होने वाले व्यक्तिने कहा भाई "चढ़ जा बेटा बांप पै भला करेगा राम" वाले प्रादेशको तुम्हारा भी कहना ठीक है लेकिन केवल वही म. है यह हेय समझ स्वयं उस स्थान पर पहुँच गये वहां होने वाले बात नहीं है। वस्तुजात कथंचित् नित्य है और कथं चत् सुखा देका अनुभवन किया इस प्रकार उसमें सफल हो, अनित्य है। वीर की यही दृष्टि रही और उन्होंने वस्तुस्वरूप भादर्श बन उन्होंने दूसरोको भी ऐपा बनने की प्रेरणा की। के विवेचन करने वाले इस सिद्वान्तको 'स्याद्वार' के नामसे इस प्रकार उन्होने मिळू कर दिया कि वैज्ञानिकका अनुभव सुशोभित किया। कि वस्तु अनेकान्तरमक, अनेकधर्माया भाविष्कार केवल उसकी ही सम्पत्ति न होकर विश्वकी रमक है अत: उसका वैसा स्वरूप वर्णन करना चाहिये। विभूति हुआ करती है।
अगर यह न हो सके तो एक धर्मको प्राधान्य तथा इतर उन्होंने अपना अनुभव दुनियाके सामने रखा। धर्मों को गौणता दे वस्तुस्वरूप बतलाओ, लेकिन तुम उन्होंने सिखलाया कि विद्वान् बनो, सदसद्विवेकशालिनी धर्मोका तिरस्कार या प्रभाव नहीं कर सकते । वे भी अपना सन्मतिके स्वाम। बनो, किसी भी कार्यको करनेके पहिले अस्तित्व रखते हैं। उमे बुद्धि की कसौटी पर कस लो, तर्कका तेजाब विश्व व्यवस्थाका सुन्दर समन्वय एवं उपकी उत्पत्ति डाल उसका खरा खोट,पन परख लो । जो युक्तियुक्त हो क्रमका वैज्ञानिक-निरूपण वीरवाणीमें ही पाया जाता है। उसे मानाओ और इस प्रकार अपना उद्धार करो। श्रान जिस बात को वैज्ञानिकोंने कई वर्षकी खोज के बाद
वे एक ऐसे अनभूत प्रयोगको सामने लाये जो अभिः प्रत्या कर दिखाया उसीको वीर जिनने अपने प्रात्मज्ञानके नव होते हुए मनोविज्ञान व प्राणिजगत के लिये अति प्राधारपर कई हजार वर्ष पहिले विवेचित कर दिया था। लाभकारी सिद्ध हुना। वह प्रयोग या सिद्धान्त था अहिपा वैज्ञानिकोंने रेडियो यंत्र द्वारा बतलाया "शब्द" एक ऐसी का और उसकी आधारशिला थी जियो और जीने दो" चीज है जिसे पकड़ा जा सकता है, रोका जा सकता है, जिस चीज़को हमने दिया या पैदा नही किया उसका अप- और फेंका भी जा सकता है। भगवान वीरने इसी बातको हरण करने का हमे कोई अधिकार नहीं है। अत: दूसरेको कई सदियों पहिले इस प्रकार कहा था-शब्द, प्राकाशका पीड़ा नह। देना चाहिये । यही अहिंसाकी परिभाषा थी। गुण न होते हुए, रूप, रस, गंध स्पर्श वाली एक पौद्गवीरने इसको भी अहिंसा बताते हुए एक कदम और बढ़ाया। लिक चीज़ है। जो पुद्गल होते हैं वे पकड़े भी सकते हैं, उन्होंने, दूसरे को न पीडते हुए भी अपनी प्रास्माके घात रोके भी जा सकते हैं और केके भी जा सकते हैं। करने, वैकारिक भावोंके विकास करनेको भी हिंसा कहा इसी प्रकार यह भी बताया कि इस विश्वका निर्माण और उसके त्याग करने को अहिंसा कहा।
करने वाला कोई नहीं है। संगोग और विभाग होने उन्होंने 'रज्यते त्यज्यमानेन" वाली उक्तिका साक्षात् से पदार्थजात पैदा होते हैं और नष्ट होते हैं श्राज बडेसे चित्र समोशरण-विभूति प्राप्त कर दिखला दिया। उन्होंने बढा वैज्ञानिक भी उपरिलिखित सिद्धान्तका कायल हो कहा कि यदि तुम चाहते हो कि जगतपूज्य हों तो निस्पृही उसका समर्थन ही करता है। होमो, वीतरागी बनो, विश्वये उदासीन रहो, उसे उपेक्षा वीरके और भी अनेक ऐसे सिद्धान्त हैं जो वैज्ञानिकों दृष्टिसे देखो। विश्व विभूति तुम्हारे पांव पलोटेगी। के लिये प्राविष्कारका क्षेत्र पैदा करदें। हमनका लेखके
चित्रके स्व-रवरूपमें स्थित होते हुए भी उसके वर्णन विस्तार भयसे वर्णन करने में असमर्थ हैं। करनेके या देखनेके कई पहलू, कई दृष्टियों हुआ करती हैं। फिर भी हम यहां एक बातके उल्लेख करनेका मोह उन दृष्टिकोणों से किसी पकको पकड रह कर "चित्र नहीं छोड़ेगे । आजसे कुछ वर्ष पहिलेके वैज्ञानिकोंका
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किरण :-१०]
श्री श्रवण भगवान महावीर और उनके सिद्धान्त
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कथन था कि वृक्ष पोधों वगैरहमें कोई चेतमा शक्ति नहीं बगाया जाय तो बदा भारी काम चल सकता और इस पाई जाती, वे जीव नहीं होते और न वे कुछ खाते पीते बातको 'जिनके रूप में व्यक्त किया, बे रोक टोक यहाँ वहां ही। लेकिन उस समय व उसके कई हजार वर्ष पहिलेसे फैलने वाली भाँपको रोक कर उससे गाडी खिंचवानेका वीरने प्रतिपादित कर दिया था कि न केवल वृक्ष वगैरहमें काम लिया। वीरने यह बात बहुत पहिले अनुभव में उतार किन्तु पृथ्वी, आप, तेज व वायुमें भी जान पाई जाती है। ली थी वे इनसे एक कदम और आगे बढ़ चुके थे। वैज्ञा
इस कथनको वे अपनी हठ वश स्वीकार नहीं कर सके। निकोंने अपने सिद्धान्तको केवल भौतिक पदार्थों पर प्राज़'आज आर्यावर्त्तके एक वैज्ञानिक (सर जगदीशचन्द्र वसु) माया था। वीरने इससे प्रास्मोद्धार किया। इन्द्रिय व मन
ने सिद्ध कर दिया कि उनमें-वृक्ष पौधों में चेतना पाई जाती की शक्तिको जो विषयों में यहाँ वहां नष्ट हो रही थी उसको है, सुख दुःखका अनुभवन पाया जाता है!
केद्रित कर प्रारमदर्शन. स्वावलोकनकी ओर लगा दिया हम, इस प्रकार कह सकते हैं कि वीर वैज्ञानिकोंके और इस प्रकार गाडीको मुक्ति स्थल पर रोका । इस प्रकार प्राचार्योंके भी श्रादि शिक्षक थे उन्होंने वैज्ञानिकों के लिये यह संक्षेपमें वीरके कुछ विचारोंके विवेचनका प्रयास एक विस्तृत कार्य क्षेत्र पैदा कर दिया और इस प्रकार किया गया है। वीरके समस्त सिद्धान्तोंके वर्णन करनेका विज्ञान के विकासमें बड़े प्रबल सहायक हुए।
प्रयास तो वैसा ही उपहासनीय होगा जैसा नभस्थित चन्द्र वैज्ञानिकोंने बतलाया कि एक बेसिलसिले में फैली को पकड़ने के लिये बाल हठ । फिर भी अपनी शक्त्यनुसार हुई चीजको सिलसिलेसे संगठित कर उसको किसी काममें कुछ लिखनेका प्रयत्न किया है।
श्री श्रमण भगवान महावीर और उनके सिद्धान्त
(ले०-उपाध्याय मुनि श्री आत्मारामजी पंजाबी )
प्रिय सुज्ञे पुरुषो!
हम सूत्रका यह भाव है कि दो स्थानोंमे संयुक्त अनआत्म-विकासके लिए उन असाधनों की आवश्यकता गार अनादि अनन्त चार गतिरूप संसाररूपी कान्तारमे पार होती है जिनके कारणसे श्रास्मा अात्म-विकाम कर सकता होजाता है जैसे कि विद्यासे और चारित्रमे । इम सूत्रमे यह है। श्रास्तिकवादियोंका मुख्य सिद्धान्त अात्मविकास कर सिद्ध किया गया है कि कोई भी प्रात्मा जाति वा कुलसे निर्वाण-पद प्राप्त करना ही है । जब श्री भगवान महावीर पार नहीं हो सकता । मात्र विद्या और चारित्रकी श्रात्मस्वामीने जानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय और विकास के लिए अत्यन्त आवश्यकता है । अब प्रश्न यह अन्तराय हन चार घातिए कर्मों का विनाश कर केवलज्ञान उपस्थित होता है कि उत्तराध्ययन सूत्रके २८ वे अध्ययनकी
और केवलदर्शन प्राप्त किया तब जनताके सन्मुख इस द्वितीय गाथामें श्री भगवानने मोक्षके चार मार्ग कथन किए सिद्धान्तको रखा कि प्रत्येक प्राणी विद्या और चारित्रके हैं जैसे कि :द्वारा आत्मविकास कर संसारचक्रसे छूटकर निर्वाणपद प्राप्त नाणं च दमणं चेव चरित्तं च तवो तहा। कर सकता है जैसे कि
एस मग्गो त्ति पत्तो जिणेहि वरदंसिहि निगा _ 'दोहि ठाणेहिं अणगारे संपन्ने अणादीयं प्रणव. अर्थात्-ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप ये चारों यागं दीहमद चाउरंतसारकंतार वीतिवतेज्जा तं जहा- मोक्षके मार्ग है। किन्तु तत्वार्थसूत्रके प्रथम अध्यायके प्रथम विजाए चेव चरणेण चेव ।
सूत्र में यह कथन है
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१४२
अनेकान्त
वर्ष ७
सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः ॥१॥ मणि दुद्धं पाणं तेल्ल फाणियं वसं ॥ इस सूत्रसे सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्र ये तीनों ही
-प्रज्ञापनसूत्र पद १५ उद्देश १ सूत्र १६७ मोक्षके मार्ग बतलाए गए हैं ।
यह भाव है कि श्रीभगवानसे गौतमस्वामीजी पूछते हैं कि इस सूत्रकी सृष्टि उत्तराध्यतन सूत्रके २८ वें अध्ययन हे भगवन् ! कोई व्यक्ति दर्पण (सीसा) को देखता हमा की ३० वी गाथाके श्राधारपर हुई है कि:-
क्या वह अपने शरीरको देखता है, दर्पण को देखता है नादं सणिस्सनाणं नाणेण विणा न हंति चरणगुणा। अथवा शरीर के प्रतिबिम्बको देखता है ? इस प्रश्न के उत्तर
णिस्स णस्थि मक्खिो नत्थि अमक्खिस्सनिव्वाणं॥ म श्री भगवान कहते हैं कि हे गौतम ! दर्पणको देखने
अर्थात-विना दर्शनके ज्ञान नही, ज्ञानके विना वाला व्यक्ति अपने शरीरको दर्पण में नही देखता क्योकि चरणगुग्ण उत्पन्न नहीं हो सकता । यह सर्वकथन नयवादकी उसका शरीर उसके आत्माके साथ मन्बन्धित है न तु अपेक्षासे ही कथन किया गया है दर्शनका समवतार ज्ञान दपए मे । केवल दपणमे शरीर के प्रतिबिन्बको देखता है, से और तपका समवतार चारित्रमे हो जाता है, तब कारण कि प्रकाशनीय और निर्मल पदाथों में छाया के मामान्यरूपसे अात्मविकासके मुख्य कारण विद्या और पद्गल प्रतिबिम्बित हो जाते हैं. क्योंकि पदगलक सामग्रीचारित्र ही सिद्ध हये। श्री भगवानने विद्या के द्वारा प्र.येक वशात् नाना प्रकारसे परिणमन होना स्वाभाविक सिद्ध है, दव्य गण और पर्यायके जाननेका संकेत किया है और केवल विशेष इतना ही है कि प्रकाश और निर्मल पदार्थों चारित्रके द्वारा प्राचीन कोका क्षय और नूतन कोंके मे छायाके पुद्गल उन पदार्थोमे संक्रमणकर अपने शरीर शासकका निरोध करना बतलाया है । जैसे कि-धर्म, के वर्णरूपम अथवा अपने शरीर के आकारपनेमे परिणत हो श्रधर्म, अाकाश, काल, पुद्गल और जीव ये षट् द्रव्यमय जाते हैं । सर्वइन्द्रिया स्थूल पदार्थों को ही अनभव कर जगत । इन द्रव्योके गुण और पर्यायोको सम्यकतया जान सकती हैं न कि सूक्ष्म परमाणुअोंको । यद्यपि अन्धकारमे कर फिर हेय ज्ञेय और उपादेयके स्वरूपको अवगत कर भी छायाके. श्राकारमे परिणत हुए पुद्गल अवश्य होते हैं श्रात्म-विकास के लिए अनुकरणीय शिक्षाको धारण तथापि विना प्रकाशके इन्द्रियों उनका विभाग नहीं कर करना चाहिए । पद्गन-द्रव्यका वर्णन करते हुवे श्री सकती। इस सूत्रकी वृत्तिके कर्ता मलयगिरिसूरि वृत्ति मे भगवानने कथन किया है कि
इस प्रकारसे लिखते हैं जैसे किसबंधयार उज्जोओ पभा छायातवो इवा। भगवान्नाह--आदर्श तावत् प्रक्षेत एव तस्य स्फुटवरुणरसगन्धकासा पुग्गलाणं तु लक्खरणं ॥१२॥ रूपस्य यथावस्थितनया तेनोपलम्भात् , अात्मान-श्रात्मएगत्तं च पुहत्तं च संखा संठाणमेव य।
शरीरं पनन पश्यति, तस्य तत्राभावात् , स्वशरीरं हि स्वामंजोगा य विभागा य पज्जवाणं तु लक्खणं ।१३। त्मनि व्यवस्थितं नादर्श ततः कथमात्मशगरं च तत्र पश्ये
अर्थात्-शब्द, अन्धकार, उद्योत प्रभा, छाया, दिति ? प्रतिभागं स्वशरीरस्य प्रतिबिम्ब पश्यति, श्रथ किपातप, वर्ण, रस, गन्ध और स्पर्श ये सब पुद्गल द्रव्यके मात्मक प्रतिबिम्बं ? उच्यते, छायापद्गलात्मकं, तथाहि लक्षण है । एकत्व होना, पृथक् होना, संख्याबद्ध होना, सर्वमौ ग्रियकं वस्तु स्थूलं चयापचयधर्मकं रश्मिसंस्थानयुक्त होना और संयोग तथा विभाग होना ये सब वच्च रश्मय इति छाया पुद्गला: व्यवहियन्ते च छाया: पर्यापक लक्षण हैं, इनका सविस्तर स्वरूप जैन श्रागमोंमे पुद्गला: प्रत्यक्षत एव सिद्धा, सर्वस्यापि स्थूलवस्तुनः छाया, बड़े ही सुन्दर प्रकारसे किया गया है । उदाहरण के लिए अध्यक्षतः प्रतिप्राणिप्रतीत:, अन्यच्च यदि स्थूलवस्तु जैसे छाया एक पुद्गल द्रव्यका ही पर्याय है इसके अाधार व्यवहिततया दूरस्थितयता वा नादर्शादिष्ववगाढ रश्मि पर वर्तमान काल में फोटोकी सृष्टि निर्माण हुई है। जैसे कि भवति ततो न तत्र तद्दश्यते तस्मादवसीयते सन्ति छाया
अहायं पेहमाणो मणूसे अहायं पेहति नो अप्पाणं पुद्गला इति, ते च छायापुद्गलास्तत्तत् सामग्रीवशाद्वि च. पेहति पलिभागं पेहति एवं एतेणं अभिलवेणं असिं परिणमनस्वभावास्तथाहि-ते छाया पुद्गलादिवा वस्तु
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किरण :-१०]
श्री श्रमण भ० महावीर और उनके सिद्धान्त
न्यभास्वरे प्रतिगता: सन्त: स्वसन्बन्धिद्रव्याकारमाविभ्राणा: पूर्णतया पवित्र एवं स्वच्छ नही बना लेता तबतक मोक्ष श्यामरूपतया परिणमन्ते निशि तु कृष्णाभा: एतच प्रारति नही प्राप्त कर मकता । मोक्षप्राप्तिमें मुख्य कारण ध्यान दिवसे सूर्यकरनिकरे निशि तु चन्द्रोद्यनि प्रत्यक्षएव सिद्धं ही है। ध्यान योग विद्याका मुख्य अङ्ग है इस पर बहुत त एव छाया परमाणव: श्रादर्शादिभास्वरद्रव्यपप्रतिगताः कुछ प्रकाश डालने की आवश्यकता है परन्तु स्थानाभाव सन्त: स्वमम्बन्धिद्रव्याकार मादधान्तः यादृगवर्णः से भी अधिक नहीं लिखा जारहा है। यदि कभी फिर समय. स्वमम्बन्धिनि द्रव्ये कृष्णो नील: सित: पीतो वा तदामा मिला तो इम पर विशेषरूपसे लिखा जायगा। परिणमन्ते एतदन्यादर्शादिष्वध्यक्षतः सिद्धं ततोऽधिकृत- भगवान महावीर साधारण साधको की तरह शुष्क सूत्रेऽपि ये मनुष्यस्य छायापरमाणव आदर्शमुपसंक्रम्य क्रियाकाण्ड तक ही अपने उपदेशों को सीमित नहीं रखते स्वदेहवर्णतया स्वदेहाकारतया च परिणमन्ते तेषा तत्रो- थे, उन्होने तपको सर्वप्रथम स्थान न देकर अध्ययनको पलब्धिर्न शरीरस्य ते च प्रतिबिम्बशन्दवाच्या:"इत्यादि । दिया है। आपका कहना था कि पहले पढो फिर चिन्तन
उपर्युक्त वृत्तिका संक्षेपमे यह भाव है कि छाया- करो और बादमे तपश्चरण करो। तथा च सूत्रम्परमाणु ही श्रादर्श दर्पणमें उपसंक्रान्त होकर स्वशरीराकार तिविहे भगवता धम्मे पं० सं० सुअधिज्झिते रूपमें परिवर्तित होजाते है । अाधुनिक समयमें उक्त दर्पण- सुज्झाति ते सुत वस्सिते । जया सुअधिभितं भवति गत छाया परमाणुओंको ही स्थिरीभूत कर फोटू उतारे जाते तदा सुज्झातितं भवति जया सुज्झातिनं भवति तदा हैं। यह एक उदाहरण है भगवान महावीरने इसी भाति सुत वस्सियं भवति । से सुअधिज्झिते सुज्झातिते सुत द्रव्य गुण तथा पर्यायों के वास्तविक स्वरूप जाननेको वस्सिते सुतक्खाते णं भगवता धम्मे पराणत्ते । ज्ञान बतलाया है । इन पर विशुद्ध विश्वास
-स्थानाङ्ग तृतीय स्थान करनेका नाम दर्शन है तथा कमों के प्रास्त्रवको उपयुक्त सूत्रका यह भाव है कि साधकको प्रथम रोकना चारित्र हे एवं सचित कर्मकी निर्जरा करना तप है। विधिपूर्वक योग्य गुरुजनोके पास शास्त्रोका अध्ययन श्रागममे कहा है :
करना चाहिये, तदनन्तर पठित शास्त्रोका गम्भीर दृष्टिसे नाणेण जाणइ भावे दंसणेण य सदहे। चिन्तन करना चाहिये, तत्पात् निष्काम तप अङ्गीकार चरित्तेण निगिण्हाइ तवेण परिसुज्झइ ॥ करना चाहिये । जब तक विधिपूर्वक शास्त्रों का अध्ययन
-उत्तराध्ययन २८ । ३७ नही होगा तब तक सम्यक् चिन्तन नही होगा और जब तक ज्ञानके द्वारा पदार्थों की जानकारी होती है. दर्शनके द्वारा सम्यक्तया चिन्तन नहीं होगा तब तक सम्यक रूपसे श्रद्धान होता है, चारित्रके द्वारा कर्मास्रवो का निरोध तपश्चरण नहीं होगा। होता है और तपके द्वारा संचित कोका नाश होकर अाजकलका जैन समाज यदि भगयानको प्रस्तुत प्रात्मशुद्धि होती है।
सन्देशको आचरणम उतारे तो अवश्य ही उन्नति के भगवान महावीर तपश्चरण के उग्र पक्षपाती थे, शिखरपर श्रारूढ़ हो जाय, आजका शिक्षाशून्य जैन न तो श्रापका सर्वोपर शिक्षण अन्त में इसी सिद्धान्त को लेकर इस लोक की ही आराधना कर पाता है और न परलोक होता था । तत्कालीन बौद्ध सङ्घके प्रवर्तक भगवान बुद्ध की दी। भगवान महावीरको इसी लिए 'दीर्घ तपस्वी' के नाम से भगवान महावीर की शिक्षाएँ केवल परलोकके लिए सम्बोधित करते थे । परन्तु इसका यह अभिप्राय नहीं कि वे काममे पाने वाली भिक्षोंकी ही चीजे हो सो बात नहीं। अनशनरूप तप का ही उपदेश करते थे, उनके पास दूसरी उनकी धर्मशिक्षाएं वर्तमान जीवनको भी समुन्नत बनानेके कोई साधना न थी । भगवान जहाँ अनशनरूपका कथन लिए पर्यत है यदि हम उन पर चल पड़ें नो ? स्थानाङ्ग करते बहाँ ध्यान तप पर भी अधिक बल देते थे उनका सूत्रके अष्टम स्थान में भगवान बतला रहे हैंकथन था कि जब तक साधक शुक्लध्यानके द्वारा आत्माको अहहिं ठाणेहिं संमं संघडितव्यं जतितव्वं परक्कमि
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१४४
भनेकान्त
[वर्ष ७
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तवं अस्सि च णं अढ णो पयाते तव्वं भवतिअसुयाणं तस्वोंको ग्रहण करनेके लिए तैयार रहो (३) पाप कमौके धम्माणं सम्म सुण णाते अब्भुढे तध्वं भवति १ परित्यागके लिए तैयार रहो (४) पूर्व संचित कर्मोको तपके सुताणं धम्माणं ओगिराहयाते अवधारणयाते द्वारा नष्ट करने के लिए तैयार रहो (५) जो दीन हों श्रनाथ अब्भु? तव्वं भवति २ पावाणं कस्मारणं संजमेण य हो जिनका कोई नही हो उनको हर तरहसे सहायता देनेके करणताते अब्भुट्टे यव्वं भवति ३ पोराणाणं कम्मारणं लिए तैयार रहो (६) धर्मके जिज्ञासुओंको यथोचित श्राचार तवस्त विगि चणताते विसोहणताते अब्भुट्ठयवं विचारकी शिक्षा देनेके लिए तैयार रहो (७) रोगियोंकी भवइ ४ असंगिहीतपरितणस संगिएहणताते प्रसन्न भावसे सेवा करने के लिए तैयार रहो (E) संघमें यदि अब्भुट्टेयव्वं भवति ५ साहम्मिताणमधिकरणंसि कोई कलह हो जाय तो बिना किसी पक्षपातके मध्यस्थभाव उप्पएणंसि तत्थ अनिस्सिनोवस्सितो अपक्खगाही से शान्त करनेके लिए तैयार रहो। मन्मत्थभावभूते कह ए माहम्मिता अप्प सहा अप्प भगवान महावीरके सिद्धान्तोंका पूर्णतया विवेचन झंझा अप्प तुम तुमा उवसामणताते भव्भुट्टेयव्वं करनेका यहाँ अवकाश नहीं है। मात्र संक्षेपमें दिग्दर्शन भवति ।
कराया है। भगवानकी लोक-परलोक-हितकारी शिक्षाप्रोके उपरि लिखित सूत्रका संक्षेपमें यह भाव है कि पाठ ऊपर चलकर हर कोई श्रात्मा स्वनिष्ठ सद् गुणोंका विकाश धर्म प्रवचनोके लिए सम्यक्तया चेष्टा करनी चाहिए यल कर अन्तमे अजर अमर निर्वाण पदका अधिकारी हो सकता करना चाहिए, पराक्रम करना चाहिए, किसी भी कालमे है ? और निर्वाण पद प्राप्त कर सदा काल के लिए दुःखोंसे प्रस्तुत विषयमें प्रमाद न करना चाहिए। जैसे कि-(१) मुक्त हो अनन्त आत्मसुखोमे लीन हो जाता है। यही अश्रुत धर्मतत्वोंको सुनने के लिए तैयार रहो (२) श्रुत धर्म भगवान महावीरका सिद्धान्त है।
मोक्ष तथा मोक्षमार्ग (लेखक-६० बालचंद्र जैन काव्यतीर्थ)
इस परिवर्तन-स्वरूप संसारमें यह प्राणी मोहनीयकर्म प्रकारका अधिक दुःख है साथ २ उन दुःखों को दूर करने के वशीभूत होकर प्रात्मस्वरूपसे अनभिज्ञ होता हुश्रा का प्रयत्न करता भी है परन्तु विचारणीय बात तो यह है अनादिकालसे परिभ्रमण कर रहा है। यद्यपि इस परि. कि यदि कोई राहगीर पूर्व दिशासे चलकर प श्रम दिशाम भ्रमण में इसे दुःखके सिवाय सुखका अंशमात्र भी अनुभव स्थित सुखी पुरुषों के साथ रहकर सुखमय जीवन व्यतीत तब तक नहीं हो पाता है जब तक कि यह प्रारमस्वरूपका करना चाहता है किंतु चलता है वह उत्तर दिशाकी ओर, ज्ञाता नहीं हो जाता है। किन्तु मारमस्वरूपकी जानकारीके तब फिर वह किस प्रकारसे सुखी बन सकता है। यही बात लिये मोहमीय कर्मकी मंदता नियामक है, अर्थात जब तक है कि यह प्राणी सुखी बननेके लिये नवीन कर्मोंका बन्ध मोहनीय कर्मकी कुछ प्रकृतियाँ उपशम, क्षय, या क्षयोप. कराने वाले कार्य करता हुत्रा चला जाता है, यह नहीं शमभावको प्राप्त न होगी तब तक मारमस्वरूपका ज्ञाता सोचता कि इस मार्गसे मैं सुखी बन सकता है या नहीं? नहीं बन सकता है। यही कारण है कि मोहनीयकर्मक निश्चित बात तो यह है कि जहां कर्मबन्धके कारण
आधीन होकर यह जीव परपदार्थों में मिजस्व बुद्धि रखता मौजूद है वहां सुख नहीं! इस लिये सर्वप्रथम नवीन हमा सुखी बनना चाहता है, सोचता है कि मुझे अमुक २ कर्मबन्ध न होने पावे यह ध्यान रखना पड़ेगा, अर्थात्
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किरण ६-१०]
मोक्ष तथा मोक्षमार्ग
मिथ्यारव, अविरति, प्रमाद. कषाय योगदि बन्धके कारणोंमे "निरवशेषनिराकृतकममलकलंकस्याशरीरस्यात्मनो दूर होना पड़ेगा तत्पश्चात् मौजूदा कों को दूर करने के लिये ऽचिन्त्यम्वाभाविकज्ञानादिगुणाव्याबाधसुबमात्यन्ति. मोचना होगा कि-गुप्ते, समिति, धर्म, अनुप्रेक्षा श्रादि कमवस्थान्तरं मोक्षः"। साधनोंसे संचित कर्म दूर किये जा सकते हैं अतएव उनको
अर्थात् सम्पूर्ण का कलंकके दूर हो जानेपर प्रशीरी पालना होगा और जब इस प्रकार शनैः शनै सम्पूर्ण कर्मों प्रमाको स्वाभाविक नानाटिया ARTHथा प्रत्यावा का प्रभाव हो जायगा। तब सच्चा अविनश्वर सुख मिल सख स्वरूप अवस्था हीमोगरे। जायगा, अविनश्वर सुखका मिलना हीमोक्ष है। और अवि
मोक्ष शब्दका अर्थ कर्मबन्धनसे छूटना होता है। नश्वर सुख वही है कि :
अर्थात इस प्रारमाका स्वभाव ज्ञानदर्शनरूप है किन्तु "तत्सुम्बम् यत्र नासुखम"
अनादिकाल में कर्मबन्धके कारण वह शुद्धस्वरूप अव्यक्त है अर्थात--सुख वही है कि जिसके पश्चात् दुख नहीं हो
उमी स्वभावको व्यक्त करने के लिये ज्ञानावरणादिमाठकों और यह अवस्था मात्र मोक्षस्वरूप है। समारमे इस जाति
से छूट करके निजस्वभाव (शुद्ध ज्ञानदर्शन) को व्यक्त कर का सुख नहीं है। यथार्थमें तो संपारके अन्दर सुख है ही
लेना ही मोक्ष है। नहीं, किन्तु जो यह सुखी है यह दुःखी है ऐसा सुना देखा
मोक्ष प्राप्तिके विषयमें पूज्य प्राचार्य श्री उमास्वामीजीने जाता है वह सब कल्पना मात्र है। अनुभव कीजिये कि एक व्या गरीने एक घोड़े पर नमकका बोझा और दूसरे ।
लिखा है कि :घोड़े पर कपासका बोझा रख कर विदेशके लिये प्रस्थान "मम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमागेः" किया, गस्तेमें वर्षा हो जानेके सबब नमक तो घुल गया अर्थात् सम्यगदिकीएकताहीमोक्षका मार्ग है । तात्पर्य यह
और उसका बोझा कम हो गया, किंतु कपासमें पानी भर कि श्रारमा जब रस्नायगुणरूप होजाती है तब वह मुक्तारमा जानेके सबब दूसरेका बोझा बहुत बढ़ गया। उस समय बन जाती है। इन तीनोकी एकता ही मोक्षकी प्राप्तिमें वह दोनों परस्पर अपनी भाषामें यह तय करते हैं कि भाई नियामक है। यदि कारण है कि यदि इन तीनों मेमे कोई तुम्हारा बोझा तो कम हो गया है अतएव तुम सुखी हो भी एक नही होते तब तक मोक्षकी प्राप्ति नहीं हो सकती
और मेरा बोका बहुत भारी हो गया है अतएव मेरा दुःख है। अनुमान कीजिये कि यदि एक बीमार पुरुष अपनी पहिलेसे कई गुना हो जानेके कारण बढ़ गया है। इस बीमारी दूर करना चाहता है तो जब तक उसके श्रद्धा-ज्ञान सरह मैं बहुत दुःखी हूँ, जब कि श्रापके दुखकी मात्रा कम और कार्य यह तीनों बात न होंगीतब तक उसकी बीमारी हो गई है इस लिये भाप सुखी हैं। इस तरह यह तय है पर नहीं हो सकती। क्योंकि उसके वैद्यराजजीको है कि संसारके अंदर सुख और दुःख की बात केवल दुःखके आमंत्रित करके उनकी दवाई ठीक ठीक अनुपानके साथ ले कमती और बढ़ती पर ही निर्भर है। वास्तवमें सुख नही भी ली किंतु यह विश्वास नहीं हुआ कि इनकी दवाईसे है। सुख तो पाकुलताके प्रभाव स्वरूप ही है और वह मेरी तबियत ठीक होगी इस लिये बिना विश्वास-श्रद्धाके निगकुलता मोक्ष में ही है।
औषधिके लेने पर भी सफलता नहीं मिल सकती। अथवा प्राचार्य श्री उमास्वामीजीने मोक्षका लक्षण इस तरह श्रद्धा होने पर भी यदि विपरीत अनुपानसे दवाई ले रहा बताया है कि:
है तब भी सफलता नहीं मिल सकती है। और यदि उसे “बन्धहेत्वभावनिर्जराभ्यां कृत्स्नकर्मविप्रमोक्षो मोक्षः" विश्वास एवं ज्ञान है भी किंतु यदि वह कड़वी दवाई को
तात्पर्य यह है कि बन्धके कारणोंके प्रभाव और नहीं खाता है तब भी उसकी बीमारी दूर नहीं हो सकती निर्जराके निमित्तसे ज्ञानावरणादि सम्पूर्ण कर्मों का प्रभाव है। किन्तु जब वह विश्वासके साथ २ ठीक अनुपानके हो जाने पर प्रास्माकी जो शुद्ध अवस्था व्यक्त होती है वही साथ दवाईको खाता है तब शीघ्र ही उसकी बीमारी दूर हो मोक्ष है। दूसरे शब्दोंमें :
जाती है। उसी प्रकार मोक्षमार्गके विषय में भी विश्वास, ज्ञान
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अनेकान्त
[वर्षे ७
और प्राचाणकी एकाका होना अनिवार्य है। इनकी कारण था कि इतनी चक्रवर्तीकी संपदाके स्वामी होनेपर एकताके होने पर ही इस प्राणीका जन्म-मरण रूपी रोग भी वैरागी? किंतु उनका ध्यान प्रारमाकी ओर भी था । यही दूर हो सकता है।
कारण है कि उनके वैराग्यके विषयमें जानकारीके लिये इस रत्नत्रयमेमे सम्यग्दर्शनके विषय में प्राचार्योंने पानेशले व्यक्ति के लिये कहा गया था कि भाई आप इस "तस्वश्रद्धान" अथवा "देवगुरुशास्त्र का विश्वास होना" कटोरीको परिपूर्णरीत्या तेलसे भर कर हथेली पर रख कर "भेद विज्ञान" या "प्रामस्वरूपकी जानकारी" का होना हमारे सम्पूर्ण कटकको देख पाइये पर ध्यान रहे कि कटोरी में श्रादि प्रकारम सम्यग्दर्शनका लक्षण किया है। यद्यपे से एक बूद भी तैल गिरने न पावे, पानेके पश्चात्, क्या सम्यग्दर्शनकी परिभाषायें कई प्रकारकी हैं फिर भी उन देखा? इस प्रश्न के उत्तरमें उमने यही जवाब दिया कि सबका निचोड़ एक ही है, जहां नत्वश्रद्धानादि कोई भी एक महाराज यद्यपि सब कुछ देखा, पर कुछ भी नहीं देखा, है वहां बाकीका सब परिभाषाये घटित होती हैं । तार्य मात्र ध्यान कटोरी पर रहा कि एक बूंद भी गिर न जाय। यह है कि शब्दभेदके सिवाय अर्थभेद नहीं है।
अस्तु । इसी प्रकारका भरतजीका वैराग्य था। यह है एक जब हम प्राणीको प्रारमस्वरूपके प्रति सचा विश्वास सम्यग्दृष्टीके विचारोंका नमूना । हां ! देखिये कि सम्यग्दृष्टी हो जाता है कि हमारी प्रास्माका स्वभाव पुद्गलादि द्रव्यों की उपरोक्त भावना होते हुये भी वह गृहस्थाश्रमकी से बिलकुल भिन्न सच्चिदानन्द स्वरूप है किन्तु इसकी जो अवस्थामें कर्म मनित शरीराति एवं कुटुम्बादिकका ध्यान यह मनुष्यादिपर्याय व क्रोधादि रूप अवस्थायें देखी जातीं रखता अवश्य है पर उसका विश्वास प्राचार्य श्री शुभचन्द्र हैं, यह सब कर्म जनित है। कर्मके बजपर ही यह सब जीके शब्दोंमें कर्म जनित पर्यायोंके प्रति उसी प्रकारका अवस्थायें हो रही हैं, वास्तव में मेरा स्वरूप इनसे भिन्न होता है कि:है। वह सोचता है कि:
अहं न नारको नाम न तिर्यग्नापि मानुषः । "वर्णाद्या वा रागमोहादयो वा,
न देवः किंतु सिद्धात्मा सोऽयं कर्मविक्रमः।। भिन्ना भावाः सर्व एवास्य पुंसः।"
ताविक बात तो यह है कि सम्यग्दृष्टीको स्व अर्थात्-जो यह रागद्वेष मोहादिरूप अवस्थाये एवं और परविषयक परिपूण विवेक हो जाता है। उसकी वर्णादि रूप अवस्थाये हैं ये सब मुझसे भिन्न हैं, इनसे यह निश्चल भेदबुद्धि हो जाती है कि जिसके बलपर उसे मेरा कोई भी संबंध नहीं है। उस समय उपकी यह नियमत: मुक्तिकी प्राप्ति होती है। नियम है कि:भारणा होती है कि मेरी आमाका जो ज्ञान-दर्शनरूप म्व- "भेदविज्ञानतः सिद्धाः सिद्धा ये किल केचन । भाव है इसमे भिन्न जो भी पर पदार्थों के प्रति राग-भाव तस्यैवाभावतः बद्धाः बद्धा ये किल केचन ॥" देखा जाता है वह प्रेम उपरी हो, प्रांतरिक नही हो, अर्थात् इससे सिद्ध है कि मुक्तिकी प्राप्तिके लिये सम्यग्दर्शन सम्यग्दृष्टिका पर-पदार्थोंके प्रति वैसा ही प्रम होता है जैसा (भेद विज्ञ न) आनिवार्य है। इस वाक्यसे मात्र सम्यग्दर्शन कि एक वेश्याका परपुरुष के साथ । अथवा एक मुनीम को ही नहीं समझना चाहिये, किंतु सम्यग्दर्शनकी उत्पत्तिके गुमास्तेका मालिकके बिये नफा नुकसानके समय उपरी साथ २ ज्ञानकी और यथा समय चारित्रकी उत्पत्ति नियाहर्ष-विषाद, वहां उसकी निजस्व बुद्धि न होने से ऊपरी ही माही है, इससे ही मोक्ष प्राप्तिके लिये सम्यग्दर्शनका हर्ष-विषाद होता है। यही बात है कि सम्यग्दृष्टिका पर. होना अनिवार्य है, सम्यग्दर्शनके प्रभावमें मुमिपद भी क्यों पदार्थों में प्रांतरिक प्रेम नहीं होता है । मात्र ऊपरी प्रेम न प्राप्त कर लिया जाय किंतु वह पूज्यता और मानता नहीं चारित्रमोहनीयके उदयजन्य होता है। फिर भी मम्यग्दृष्टी जो कि एक सम्यग्दृष्टीकी है भले ही वह गृहस्थ क्यों न हो की भावना पदैव प्रात्मनस्वकी ओर रहती है, उसे ये विद्वद्वर पं. दौलतरामजीके शब्दों मेंबाह्याडम्बा विचलित नहीं कर पाते हैं। देखिये भरत महा- "चरित मोह वश लेश न संजम पै सुखनाप जले है"। राजके विषयमें प्रसिद्धि हैं कि वह घरमें ही वैरागी थे, ज्या तथा पूज्यवर कुंदकुंदाचार्यजीका भी यही अभिमत
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किरण :-१०]
मोक्ष तथा मोक्षमार्ग
मिलता है:
जायगा । अाएव प्रत्येक प्राणीका कर्तव्य होता है कि प्राप्त दसणमूनो धम्मो उवइट्ट जिण वरेहिं मिस्साणं ।। हप साधनोंसे लाभ ले और सम्यग्दृष्टी बनें। बिना सम्बतं सोऊण सकरणे देसणहीणो ण वंदिव्यो। दर्शन प्राप्त किये हम सुखी नहीं बन सकते हैं।
यस समिट मोच पिके विषय में और जिस सम्यग्दर्शनकी उत्पत्ति के साथ ही पूज्य. सम्यग्दर्शनका स्थान स्वामी समन्तभद्राचार्य जीके शब्दोंमें पादके वचनोंमें :'कर्णधार' रूप ही होता है। भागे चल करके भी प्राचार्य "तदैव तस्य मत्यज्ञानश्रुताज्ञाननिवृत्तिपूर्वकं मतिज्ञानं श्रीसमन्तभद्रस्वामीनीने सम्यग्दर्शनकी प्रधानताके विषय तज्ञानं चाविर्भवति । घनपटविगमे सवितः मे विस्खा है कि:
प्रतापप्रकाशाभिव्यक्तिवत् ।" विद्यावृत्तस्यसंभूतिस्थितिबृद्धिफलोदयाः ।
उसे उसी समयमत्तिज्ञान, श्रुतज्ञानकी प्राप्ति उमी न मन्त्यमति सम्यक्त्वे वीजाभावे तगेरिव ॥ प्रकार हो जाती है । जिस प्रकार कि मेघपटलके दूर होते ही
प्राशय यह है कि इयलिंगी मुनिराजके भावलिंगी सूर्यका प्रताप और प्रकाश एक साथ व्यक्त हो जाता है। मुनिराजके सदश चारित्र होने पर भी तथा अंग और और जिम सम्यक्ज्ञानके पश्चात ही यथा समय सम्यकपूर्वरूप शास्त्रज्ञानक हो जाने पर भी भेदविज्ञान (सम्यग्द- चारित्र उत्पन्न होता है। र्शन) के प्रभाव में वह ज्ञान और चारित्र कोई काम नहीं प्राप्म वशुद्धिका होना चारित्र कहलाता है यह प्रात्महैं। जब कि यह नियम है कि -
विशुद्धि क्रम क्रमसे होती है । गृहस्थाश्रममें तो सीमित सम्यग्दर्शनकी उत्पत्तिके साथ २ ही जो कुछ भी
आत्म-विशुद्धि होसकती है। अर्थान् पंचमगुणस्थानवी देशयरिकचित् ज्ञान होता है वही सम्यग्ज्ञान कहलाता है। तथा
चारित्र जन्य आत्मविशुद्धि ही गृहस्थाश्रममें हो सकती है। सम्यग्दर्शन-ज्ञानका सद्भाववाला चारित्र ही सम्यक
परिपूर्ण प्रात्म विशुद्धिके लिये मुनिवत धारण करना
भावश्यक है.--- बिना मुनिपद धारण किये परिपूर्ण प्रारमचारित्र नाम पाता है। अतएवसम्यग्दर्शनकी प्रधानता स्वयं
विशुद्धि हो ही नहीं सकती है, क्योंकि प्रारमविशुद्धि में बाधक सिद्ध है।
परिग्रहादिकका प्रभाव मुनिपदमें ही हो सकता है। उस उपरोक्त विषयके लिये निम्न लिखित वाक्यसे भी
साधु अवस्थामें प्रत्याख्यानचतुष्कादिक कर्मप्रकृरियोंके महत्ता मिलती है।
क्षयोपशमके वलपर गुणस्थानवृद्धिके साथ २ ही मारम"दंमणभटाभट्रा दंसणभट्रस्स पत्थि णिवाणं" विशति ली जाती
विशद्धि होती जाती है। आगे मोक्षप्राप्तिका नियामक द्वार
है अर्थात् - जो सम्यग्दर्शनसे भ्रष्ट हैं उनका निर्वाण पकश्रेणीको प्राप्त कर कर्मप्रकृतियोंका क्षय करता हुमा नहीं होता है । इस लिये हमें मम्यग्दर्शनकी प्रारमविशद्धि करता जाता है और यथाख्यात चरित्रकी प्राप्तिके लिये सदैव प्रयत्नशील रहना चाहिये, प्राप्ति होनेपर ६३ प्रकृतियोंके चय होते ही तेरहवें. यद्यपि सम्यग्दर्शनकी प्राप्तिक लिये करणलब्धिका होना गुणस्थानमें पहुँच कर जीवन्मुक्त परमात्मा हो जाता है। इस नियामक है । तथापि जो व्यक्ति सम्यग्दर्शनकी प्राप्ति के लिये महंत अवस्थामें वह संसारके प्राणियोंको कल्याणका तत्वचिंतवन, स्वपरके विषयमें परामर्श, देवशास्त्रगुरुको मार्ग बताता है। पश्चात् यथासमय योगनिरोध पूर्वक बाकी श्रद्धा, एवं प्रारमस्वरूपके चितवनादिकमें अपने परिणामो की सम्पूर्ण ७२ और १३ कर्म प्रकृतियोंका सय हो जानेपर को लगावेगा. उसके नियमसे सम्यग्दर्शनकी बाधक कर्म- मामाकी जो अवस्था होती है वही सिद्ध अवस्था कहलाती प्रकृतियों का उपशम, क्षय, क्षयोपशम होकर उपशमसम्यग्द- है। और उसी अवस्थाको मोक्ष कहते हैं । एवं सम्यग्दर्शन, शन. सायोपशमसम्यग्दर्शन या क्षायिकसम्यग्दर्शन हो सम्यग्ज्ञान और सम्यकचारित्रकी एकता ही मोक्षमार्ग।
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गजपन्थ क्षेत्रका अति प्राचीन उल्लेख
(न्यायाचार्य पं० दरबारीलाल जैन, कोठिया) 'अनेकान्त' वर्ष ७ किरण ७-८ में 'गजपन्थ क्षेत्र
सह्याचले च हिमवत्यपि सुप्रतिष्ठे, पुराने उल्लेख' शीर्षकके साथ प्रसिद्ध साहित्यसेवी श्रीमान्
दण्डात्मके गजपथे पृथुसारयष्टौ। प० नाथूरामजी प्रेमीका एक संक्षिप्त लेख प्रकट हुश्रा है,
ये साधवो हतमला: सुगति प्रयाताः, जिसमे आपने गजपन्थक्षेत्रके अस्तित्व विषयक दो फराने स्थानानि तानि जगति प्रथितान्यभूवन ॥३०॥ उल्लेख प्रस्तुत किये हैं और अपने उस विचारमे संशोधन यहाँ पूज्यगद स्वामं ने 'गजपथे' पदके द्वारा गजपन्थाकिया है जिसमे आपने गजपन्धक्षेत्रको आधुनिक बतलाया गिरिका स्पष्टतया उल्लेख किया है। 'गजपथ' शब्द था-अपनी उस ममयकी खोजके श्राधारपर उसे वि० संस्कृत भाषाका है और 'गजपथ प्राकृत तथा अपभ्रंशका स० १७४६ के पहिलेका स्वीकार नही किया था। उनके के है। और यही शब्द हिन्दी-भाषामें भी युक्त किया जाता प्राप्त उल्लेख वि० सं० १७४६ के पूर्व के हैं। उनमें एक ता है। अत एव 'गजपथ' और 'गजपन्य' दोनों एक हैं। श्रुतसागर सूरिका जो १६ वी शताब्दीक बहुश्रत विद्वान् पूज्यपादका समय श्रामतौरसे ईसाकी पांचवी और वि. की माने जाते हैं। दूसरा उल्लेख शान्तिनाथ-चरितके कर्ता छठी शताब्दी माना जाता है। प्रेमीजी भी पूज्यपादका यही असग कविका है जिनका समय उनके महाकर चरितपरसे समय स्वीकार करते हैं (जैनसाहित्य और इतिहास पृ० शकसं० ११० (वि० सं० १०४५) सर्वसम्मत है। असग १६) । अत: गजपन्य क्षेत्र वि० की ६ ठी शताब्दीमे भी कविने गजपन्य क्षेत्रका उल्लेख अपने शान्तिनाथचारत निर्वाण क्षेत्र स्वीकृत किया जाता था। अर्थात्---असग कवि (७-६८) मे किया है । शान्तिनाथ चरित महावीर-चरितके (११ वी शताब्दी) से भी वह ५०० वर्ष पुराना निर्वाणक्षेत्र उपरान्त लिखा गया है। अत: वि० सं० १०५० के लग- है और उस समय वह जैनपरम्परामें निर्वाणक्षेत्रके रूपमें ही भग गजपन्य एक निर्वाणक्षेत्रके रूपमे प्रसिद्ध था और वह प्रति प्रसिद्ध था। नासिकनगरके निकटवर्ती माना जाता था। इन दो उल्लेखो
यह तो निश्चित और विद्वन्मान्य है कि निर्वाण भक्त से अन्वेषणप्रिय प्रेम जाने गजपन्य क्षेत्रके अस्तित्वकी और सिद्धभक्ति श्रादि सर्व भक्तियोकी रचनाएँ प्रभाचन्द्राप्रामाणिकता स्वतः स्वीकार करली है और उसे पराना चार्य के क्रियाकलापगत निम्न उल्लेखानुसार पुज्याद -११ वीं शताब्दी तकका क्षेत्र मान लिया है।
स्वामीकी हे :
"संस्कृताः सर्वा भक्तयः पादपूज्यस्वामिकृताः। अभी मैं प्रो. हीरालालजी एम० ए० के एक प्रश्नका प्राकृत.स्त कुन्दकुन्दाचार्यकृताः।" उत्त देनेके लिये पूज्यपादकी नन्दीश्वर-भक्तिको देख रहा
-दशभक्त्या दिसं० टी० पृ०६१। था उसी सिलसिले में दशभक्त्यादिसंग्रहके पन्ने पलटते हए प्रेमीजी स्वयं भी प्रभाचन्द्राचार्यके इसी उल्लेख नुसार पूज्यपादकी निर्वाणभक्तिके उस पद्यपर मेरी दृष्टि पड़ी जहाँ संस्कृत की दशों भक्तियोको जिनमे निर्वाणभक्ति भी सम्मिलित पूज्यपादने भी 'गजपन्य क्षेत्रका उल्लेख करते हुए उसको है, पूज्यपादकृत स्वीकार करते हैं और अपनी स्वीकृतिमें निर्वाणक्षेत्रोंमें गिनाया है। पूज्यपादकी निर्वाणभक्तिका वह हेतुरूपसे यह भी कहते है कि 'सिद्धभक्ति श्रादिका अप्रतिहत पद्य इस प्रकार है :--
प्रवाह और गम्भीर शैली देख कर यह सम्भव भी मालूम
होता है।'-(जैनमाहित्य और इतिहास पृ० १२१)। १देखो, 'जैनसाहिस्य और इतिहास' गत 'हमारे तीर्थक्षेत्र इमसे यह निर्विवाद सिद्ध है कि असग कविसे भी पांचसौ शीर्षक लेख।
वर्ष पूर्व के साहित्यमें गजपन्थक्षेत्रका समुल्लेख मिलता है।
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पत्रकारके कर्तव्यकी अवहेलना
[सम्पादकीय ]
'प्रो. हीरालालजीके प्रति अन्याय' नामका एक लेख अधिकार था? अस्तु । पं. नाथूरामजी प्रेमीने जैनमित्रके गत 10 मईके अंक ता. २२ जूनके पत्रद्वारा मैंने सम्पादकजीको कुछ नं. २७ में प्रकाशित कराया था, जिसके अन्तमें उन्होंने गलतियों की सूचना देते हुए उनका संशोधन प्रकट करने यह भी लिखा था कि पो.हीरालालजी के एक नोटको, जिममें और छूटे हुए पैरेग्राफको छापनेका अनुरोध किया था; 'संयत' शब्दके शामिल करने की चर्चापर प्रकाश डालने परन्तु उस पर कोई ध्यान नहीं दिया गया-8स वक्तसे
ओर अग्नी मफाई देने की बात थो, किसी भी जैनपत्रने जैनमित्रके तीन अंक निकल चुके हैं, उनमें संशोधन प्रकट नहीं छापा और ऐमा लिखकर जैनपत्रकारों को अपने कर्तव्य- नहीं हुा-और न पत्रका कोई उत्तर ही दिया गया है। पाजनमें लापर्वाह बतलाते हुए यह चेतावनी भी की थी ऐसा भी नहीं कि पत्र पहुँचा न हो क्योंकि उस पत्रके कि 'इस लापर्वाहीका परिणाम क्या हो सकता है। इसे साथ जो 'अनेकान्त' के प्रकाशनमें विलम्ब-विषयक समाचार पाठक सोचे।
भेजा गया था वह अगले हो अंकमें कुछ तोड-मरोड कर इपी लेखको लेकर मैंने 'प्रो. हीरालालजीकी नीयत
तथा विलम्बका कारण न प्रकट करते हुए छाप दिया गया पर आक्रमण' नामका एक लेख १५ मई को लिखा था और
है। अत: आज मजबूर हो कर उस पैरेग्राफको नीचे प्रकट उस जैनमित्रमें छपनेको भेजते हुए उस परमविकजरूपये किया जाता है:.छाम्ने की सूचना भी करती थी। मेरा यह लेख ३१ मई के "लेखके अन्त में प्रेमीजीने एक बात और भी कही। जैन मिन अंक ३० में छपा जरू। परन्तु उसे अविकल- और वह यह कि 'संयन' शब्दके सामिल करनेकी चर्चापर रूपसे नहीं छापा गया। उसमें साधारण अशुद्धियों के अलावा प्रकाश डालने और अपनी मफाई देनेके लिये प्रो० साहबने कितनो ही अशुद्धियां ऐसी भी पाई जाती हैं जो अर्थभेदको एक नोट कुछ समय पहजे जैनपत्रों में प्रकाशित करनेके लिये लिये हुए हैं तथा साहित्यिक गिरावटको सूचित करती हैं- भेजा था परन्तु अभी भी उन्हीं मालूम हुआ कि उसे जैसे कि 'प्रवृत्त हो' की जगह 'प्रवृत्त हैं.' 'जिज्ञासु प्रकृतिके' किमीने भी छापनेकी कृपा नहीं की।" अच्छा होता यदि की जगह 'जिज्ञासु प्रवृत्तके' 'जिम' की जगह 'जियस', प्रेमीनी यहाँपर उन पत्रों का नाम भी दे देते, जिससे किसी 'चिडाने के स्थानपर 'चिल्लाने', 'शीघ्र तथा स्थायी' के ने भी' शब्दों द्वारा सभी पत्रोंको लौंछित होने का अवसर स्थान पर 'शीघ्रतया स्थायी' और 'अलग रखना चाहिये न मिलता। जहाँ तक मुझे मालूम है 'अनेकान्त' आफिस के स्थानपर मजग रहना चाहिये गलत छपा है- इतना में प्रो. साहबका ऐसा कोई नोट प्रकाशनार्थ नहीं पाया। ही नहीं बल्कि लेखका अन्तिम पैरेग्राफ बिल्कुल ही अाता तो वह जरूर छाप दिया जाता। अस्तु, प्रेमीजीने निकाल दिया गया है और उसके द्वारा लेखको बँडूरा बना ऐसे पत्रकारों को अपने कर्तव्यका पालन करने में लापरवाह' कर उपका वजन हो कम नहीं कर दिया बचेक अपने माथ बतलाया है और उप लापरवाहीका परिणाम क्या हो 'अनेकान्त' की भी उम दोषका दोषी बना रहने दिया है सकता है उसकी और संकेत किया है. जो बहुत कुछ ठीक जिप पर प्रेमीज ने आक्षेप किया था और जिपसे 'अनेकान्त' जान पड़ता है। प्रो. साहबके विषयमें लोग गुमराह रहें का उक्क पैरेग्राफ द्वारा संरक्षण किया गया था। मालूम नहीं और उनकी सफाईसे भी अवगत न हो सकें, इस उद्देश्यको सहयोगी 'जैनमित्र' को जब मेरा लेख अविकलरूपये लेकर जिन्होंने वह नोट नहीं छापा है उन्होंने अवश्य ही बापना इष्ट नहीं था तो उसे क्यों छाग गया ? छापनेके पत्रकारले कर्तव्यकी अवहेलना की है।" मोहको संवरण करके उसे वापिस क्यों नहीं कर दिया लेखक इस पैरेग्राफको न छापनेके लिये बज़ाहिर गया? काट-छांटकर छापनेका उसे ऐसी स्थिति में क्या (प्रकटतया) कोई माकूल वजह नजर नहीं पाती, फिर भी
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अनेकान्त
वर्षे ७
सहयोगी 'जैनमित्र' ने इसे जो नहीं छापा उसका क्या न छापनेमें शुद्ध उद्देश्य जैसी कोई सफाई उसके पास थी कारण हो सकता है और उसका ऐसा करना कोई औचित्य नहीं, इस खिये मेरे उक्त रेग्राफको न छापना ही उसने रखता या नहीं इसपर विज्ञ पाठकों तथा निष्पक्ष विचारकों अपनी बचत एवं रक्षाका साधन समझा, जिससे उसके को अवश्य ही ध्यान देना चाहिये। जहां तक मैं समझता पाठकोंके सामने पत्रकारके कर्तव्यको इस तरह अवहेलनाका हूँ प्रो० साहबका वह नोट 'जैनमित्र' को छपनेके लिये भेजा प्रश्न ही उपस्थित न होने पावे। यदि मेरा यह अनुमान गया है और जैनमित्रने उसे छापा नहीं-न भेजा गया होता ठोक है तो कहना होगा कि सहयोगी जैनमित्रने पत्रकारके तो वह पं. नाथूरामजी प्रेमीके लेखको छापते हुए उनके कर्तव्यकी स्वल अवहेलना की-धर तो प्रो. साके माक्षेपपर अपनी सफाई जरूर देता और यह स्पष्ट कर देता विषयमें लोग गुमराह रहें और उनकी सफाईसे भी अवगत कि उसके पास प्रो० सा० का यह नोट नहीं पाया है अथवा न हो सकें. इस उद्देश्यको लेकर उसने उनका नोट नहीं पाया है तो अमुक कारणसे नहीं छापा गया। परन्तु उसने छापा, जो प्रेमीजीके शब्दों में प्रो. सा. के प्रति जरूर ऐसा कुछ भी नहीं किया। और जब मेरे लेखके उक्त पैरे अन्याय है, और उधर अनेकान्तकी सफाईको छिपानेग्राफमें यह देखा कि मैंने 'अनेकान्त' की पोरसे सफाई उसकी पोजीशनको प्रकृत विषयमें पहन होने देने और प्रस्तुत करते हुए प्रेमीजीके दोषारोपणको 'बहुत कुछ ठीक' अपने दोष (पत्रकारके कर्तव्यकी अवहेलना) पर पर्दा डालने बताया है तथा पूर्ण ठीक होनेके लिये न छापने के उद्देश्य के लिये मेरे लेखसे उक्त रेग्राफको ही निकाल दिया है। को स्पष्ट किया और उस उद्देश्यमे न छापने वालेको यदि ऐसा नहीं है तो सहयोगी जैन मित्रको अपनी स्थिति अवश्य ही पत्रकारके वर्तव्यकी अवहेलना करने वा ठह- स्पष्ट करनी चाहिये और यह बतलाने की कृपा करनी चाहिये राया है, तो सहयोगी जैनमित्रको हमसे कुछ अांच पहुँची कि प्रो. हीरालालजीके नोटको न छापने और मेरे लेखये है और गालबन यह महसूप हुआ है कि यदि वह अब भी उक्त पैरेग्राफको निकाल देने में उसका क्या हेतु रहा है? अपनी भोरसे कोई सफाई पेश नहीं कर सकता तो जरूर जिसमे उसकी नीतिक विषयमें समाजको कोई गलतफहमी अपने पाठकों की नजरों में दोषी ठहरेगा। प्रो.सा.के नोट न हो सके। जीवट्ठाण सत्प्ररूपणाके सूत्र में मृडविद्रीकी ताडपत्रीय प्रतियोंमें 'संजद' पाठ है।
उपलब्ध प्रतियोंके उक्त सूत्रके पाठमें 'संजद पद न होनेपर "टीका वही है जो मुद्रित पुस्तकमें है। धवलाकी दो भी सम्पादकोंने जो वहां उसके होनेकी कल्पना की थी उसपर ताडपत्रीय प्रतियों में सूत्र इसी प्रकार संजद' पदसे युक्त कुछ समयसे विद्वान मुझपर वेहद रुष्ट हो रहे हैं, और लेखों, है। तीसरी प्रतिमें ताडपत्र नहीं है पहले संशोधन मुकाबला शास्त्रार्थों व चर्चामों में नानाप्रकारके मुझपर आक्षेप कर रहे करके भेजते समय भी लिखकर भेजा था। परंतु रहा कैसा, हैं। यहां तक कि उस समयके एक सहयोगी सम्पादकने तो सो मालूम नहीं पड़ता, सो जानियेगा। प्रकट रूपसे अपनेको उस जिम्मेदारीसे पृथक कर लिया है। इसपरसे पाठक समझ सकेंगे कि षट् खंडागमका पाठ इस परिस्थितिको देखकर मैंने मूडविद्रीकी ताडपत्रीय संशोधन कितनी सावधानी और चिन्तनके साथ किया गया प्रतियोंसे उस सूत्रके पुनः मिसान करानेका प्रयत्न किया है। तीसरे भागकी प्रस्तावनामें हम लिख ही चुके थे कि उस जिसके फलस्वरूप मूडविद्रीसे पंडित लोकनाथजी शास्त्री भागमें हमने जिन ११ पाठ की कल्पना की थी उनमेंसे १२ अपने ता०२४-१-५५ के पत्र द्वारा सूचित करते हैं कि- पाठ जैसेके तैसे ताडपत्रीय प्रतियों में पाये गये और
"जीवट्ठाण माग | पृष्ठ नं. ३३२ में सूत्र ताडपत्रीय शेष पाठ उनमें न पाये जाने पर भी शैली और अर्थकी मूलप्रेतिमें इस प्रकार है
दृष्टिसे वहां प्रहण किये जाना अनिवार्य है। अब उक्त सूत्र ___'तत्रैव शेषगुणस्थान विषयारेकापोहनार्थमाह-'सम्मा- में भी संजद' पाठ मिल जानेसे मर्मज्ञोंको संतोष होगा, मिच्छाइटि-भसंजदसम्माइट्टी-संजदासंजन . संजदाणे ऐसी भाशा है।
हीरालाल शियमा पजत्तियाो।
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* *अहम् *
* अनेकान्त र सत्य, शान्ति और लोकहितके संदेशका पत्र .
नीति - विज्ञान - दर्शन-इतिहास-साहित्य -कला और समाजशास्त्र के प्रौढ विचारोंसे परिपूर्ण
सचित्र-मासिक
सम्पादक जुगलकिशोर मुख्तार 'युगधीर' अधिष्ठाता 'वीरसेवामन्दिर' (समन्तभद्राश्रम )
सरसावा जि० सहारनपुर
छठा वर्ष [भाद्रपद वीर नि० सं० २४६९ से श्रावण वीर नि० सं० २४७० तक ]
अगस्त सन् १६४३ से जुलाई सन् १६४४ तक
प्रकाशक
परमानन्द जैन शास्त्री वीरसेवामन्दिर, सरसावा जि० सहारनपुर
बार्षिक-मूल्य चार रुपया ।
जुलाई सन् १६४४
(एक किरयका मूल्य
छह माने
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कान्त (सविज्ञप्ति अंक) छठे वर्षकी विषय-सूची
विषय और लेखक
पृष्ठ
अज्ञाननिवृत्ति- [पं० माणिकचन्दजी न्यायाचार्य २३३ तात स्मृति ( एक स्केच ) - ( पं० कन्हैयालाल ४७ अनेकान्त जैन समाजका गौरव है वि० ० १८ अनेकान्त-रस-लहरी - (सम्पादक ३, ४३, १२३
=
१७२
१७६
१७६
५७
१७६
अन्तर (कविता) - [ मुनि श्रमरचन्द अपमान के बदले में आशीर्वाद - [श्री 'स्वतंत्र' २२० अभिनन्दन - [पं० काशीराम शर्मा 'प्रफुल्लित ' १८६ अभिनन्दन पत्र अभिनन्दनादि के उत्तर में पं० जुगलकिशोर मुख्तारका भाषण - ६५ अभ्यर्थना (कत्रिता) पं० काशीराम शर्मा 'प्रफुल्लित' ३५८ अमरकृतियों के सृष्टा - [ " श्राचार्य श्री मुख्तारजी - [पं० मोहन शर्मा का मैस्मेरेज्म और जैनधर्मका रत्नत्रय[बा० कौशलप्रसाद आत्मशक्तिका माहात्म्य - [ श्रीचन्दगीराम विद्यार्थी २४६ श्रादर्श अनुसन्धाता - [ डा० ए० एन० उपाध्ये आदर्श पुरुष - [पं अजितकुमार शास्त्रीं आवश्यक निवेदन - [ श्री दौलतराम मित्र आँसू (कविता) - ( पं० बालचन्द जैन एकांकी - [पं० रविचन्द्र एक सरस कवि - [पं० मूलचन्द वत्सल ऐतिहासिक सामग्रीपर विशेष प्रकाश - [ अगरचंद कठोर साधक - [पं० लालबहादुर शास्त्री कर्तव्य पालनका प्रश्न - [ श्री राजेन्द्रकुमार कमंबीर (कहानी) - [ बा० महावीरप्रसाद वी. ए. कला प्रदर्शनीकी उपयोगिता - [ श्री अगरचंद नाहटा ३०६ कवि - कर्तव्य (कविता) - (श्री भगवत् जैन कवि-कर्तव्य ( कविता ) - [ श्री पं० काशीराम शर्मा -३६ कवि-प्रतिबोध (कविता) - [पं० कपूर चन्द जैन 'इन्दु' ६८ afa - प्रतिबोध (कविता) - श्रीमामराज 'हर्षित ' ६६
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१८०
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विषय और लेखक
पृष्ठ २०७
कार्यकर्त्ताओं और संस्थाओं के उद्गार केवलज्ञानकी विषयमर्यादा- [पं०माणिकचंद ३१७, ३६५ कौनसा क्या गीत गाऊँ (कविता - [ श्रीश्रोमप्रकाश २४८ कृपण, स्वार्थी, हठमाही - 1 श्री कौशलप्रसाद जैन २१५ क्या गृहस्थ के लिये यज्ञोपवीत आवश्यक है ?[पं० रवीन्द्रनाथ
क्या नियुक्तिकार भद्रबाहु और स्वामी समन्तभद्र एक हैं ? - [ न्या० पं० दरबारीलाल क्या रत्नकरण्ड श्रावकाचार स्वामी समन्तभद्रकी कृति नहीं हैं ? - [ न्या० पं० दरबारीलाल गद्य-गीत - [ श्री 'शशि''
३७६
२३६
ग्वालियर में जैन शासन - [बा० प्रभुलाल जैन प्रेमी १७ ग़लती और ग़लतफ़हमी - [सम्पादक
३६६
गीत (कविता) - ( कमलकिशोर 'वियोगी' ३३८ गुरुदक्षिणा ( कहानी ) - [ बालचन्द जैन विशारद ३३६ गोत्र - विचार - ( पं० फूलचन्द सि० शास्त्री २८६, ३०६ गोत्रविचार परिशिष्ट - [पं० फूलचन्द चरवाहा ( कहानी ) - [ श्री भगवत् जैन
३२८
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चाँदनीके चार दिन (कहानी) - ( श्री भगवत् जैन ३५४ जगत्गुरु अनेकान्त - [सम्पादकीय
१२२
जय जय जुगलकिशोर (कविता) - [ श्री बुद्धिलाल १६१ जागो जागो हे युगप्रधान (कविता) -
१८८
[पं० पन्नालाल जैन साहित्याचार्य 'वसंत' १०२ जीवन और धर्म - [श्री जमनालाल जैन विशारद २७३ जीवनकी दिशा - [ श्रीविद्यानन्द छछरौली जीवनचरित्र - [ बा० माईदयाल जैन, बी० ए० १३३ जैनजागरण के अग्रदूत श्री बा० सूरजभानजीक पत्र १८४ जैनजागरण के दादाभाई बा० सूरजभान[पं० कन्हैयालाल मिश्र 'प्रभाकर' जैनधर्मकी झलक - [पं० सुमेरुचंद दिवाकर ६२, १०५ जैनधर्मपर अजैन विद्वान
८५
११७
६०
३३०
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छठे बर्षकी विषय-सूची
विषय और लेखक
विषय और लेखक जैनधर्म पर अजैनविद्वान-शिवव्रतलाल वर्मन १३२ प्रयाण (कविता)-[पं० चैनसुखदास न्यायतीर्थ १३५ जैनसत्यप्रकाशकी विरोधी भावना-[सम्पादक ३२१ बड़े अच्छे हैं पण्डितजी-[कुमारी शारदा २२२ जैनसाहित्यके विद्वानों की दृष्टिमें २०६ वारह वर्ष बाद ...
२१६ जैनागम और यज्ञोपवीत-[पं० सुमेमचन्द ३०२ बहनोंके प्रति-[चन्दगीराम विद्यार्थी ३४८ ज्वरकी ज्वालामें जलते हुए भी-प्रेमलता २२० बाहर कडुवे भीतर मधुर-[बा० पन्नालाल २२८ तपस्वी-[श्री जमनादास व्यास बी० ए० १८१ बुधजन सतसईपर एक दृष्टि-बा०माणिकचन्द १३८ तीर्थकर क्षत्रिय ही क्यों ?-श्री कर्मानन्द २६६ ब्रह्मचर्य ही जीवन है-चन्दगीराम विद्यार्थी १४३ तुम ढाल रहे जीवन क्षण क्षण (कविता:
भगवान महावीरके विषयमें वौद्धमनोवृत्ति[श्री ओमप्रकाश शर्मा १६१
पं० कैलाशचन्द शास्त्री २८४ तृष्णा (कविता)-घासीराम जैन
३.१ भविष्यके निर्माता-आचार्य वृहस्पति १८० दिगम्बर परम्पराके महान सेवक
भावी पीढीके पथ-प्रदर्शक-बा० कामताप्रसाद १७८ [श्री पं० राजेन्द्रकुमार न्यायतीर्थ १८५ भाषण-[श्रीमती रमारानी .... ३१२ दुखका स्वरूप-[१० पुरुषोत्तमदास साहित्यरत्न ५६ मंगलाशामनम-[श्री पन्नालाल जैन १६८ दव और पुरुषार्थ-[पं० पुरुषोत्तमदास साहित्यरत्न ६ माधव-मोहन (कहानी)-[प्रा० पं० जगदीशचंद्र ६१ धन्य जीवन श्री जुगलकिशोर-[मामराज 'हषित १६० मानवता पुजारी हिन्दी कविधर्म क्या है ?-[पं० वंशीधर व्याकरणाचाये ६ [श्री कन्हैयालाल प्रभाकर . ११५ नया मुमाफिर (कहानी)-[श्री भगवत् जैन २७८ मुख्यारजीकी विचारधारा-[श्रीपुरुषोत्तमदास १८७ नयोंका विश्लेषण-पं० वंशीधरजीव्याकरणाचार्य मुख्तार महोदय और उनका सर्वस्वदान ५६३
८३, १२८, २३७. २६६, २६८ मुख्तारमाहबका जीवन-चरित्र नागसभ्यताकी भारतको देन
मुख्तार सा० के परिचयमें-बा० ज्योतिप्रसाद जैन २२१ [वा० ज्योतिप्रसाद जैन एम० ए० २४६ मुझे न कहीं सहारा (कविता)-[राजेन्द्रकुमार १८ पंडितजीके दो पत्र ....
११७ मुद्रितश्लोक-वातिककी त्रुटि-पुति-[पं परमानन्द ३४३ पंडितजीसे मेरा परिचय-[श्री एम० गोविन्द पै २१२ मेरा अभिनन्दन-न्या० पं० माणिकचन्द १६६ पडिएतप्रवर टोडरमलजी और उनकी रचनाएँ- मेरा अभिनन्दन-[4.धर्मेन्द्रनाथ शास्त्री
[पं० परमानन्द जैन २६३ मेरी भावना (कविता)-अतिरिक्त पृष्टपूर्व १५३ पण्डित बेचरदासजीका अनोखा पत्र-सम्पादक ३२१ मेहमानके रूपमें-ला० ऋषभसैन । २२२ पंडित चंदाबाई-[पं० कन्हैयालाल प्रभाकर ( १४६ मृत्यु-महोत्सव-[जमनालाल जैन ... १४० पथ-चिन्ह-पं० कन्हैयालाल 'प्रभाकर' - १४३ यदि तुम्हारा प्यार होता (कविता)- श्री भगवत' २४६ परिषद्के लखनऊ अधिवेशनका निरीक्षण- युगसंस्थापक-[प्रो० हीरालाल एम० ए० १८०
पिं० कन्हैयालाल मिश्र 'प्रभाकर' '३५४ राष्टोत्थानमें ग्रामोंका महत्व-श्रीप्रभुलाल प्रेमी २६८ प!षणपर्व और हमारा कर्तव्य-बा० माणिकचन्द ३० वर्तमान सङ्कटका कारण-बाबू उग्रसेन एम० ए० ११० पुराने साहित्यिक-[प्रो० शिवपूजनसहाय १८० बाहरे मनुष्य-[बा० महावीरप्रसाद वी० ए० १६ पेड़ पौधों के सम्बन्धमें जैन मान्यताओंकी
विपुलाचलपर वी० ज० अपूर्व दृश्य-[संपादक ३७७ वैज्ञानिकता-[पं० चैनसुखदास न्यायतीर्थ १३६ विश्वको अहिंसाका संदेश-[बाबू प्रभुलाल जैन १११ प्रणाम-[अखिलेश 'ध्रुव'
१८६ विरोधमें भी निर्विरोध-श्रीरवीन्द्रनाथ
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अनेकान्त
विषय और लेखक
विषय और लेखक पृष्ठ वीर पूजाका श्रादर्श-[श्रीमहेन्द्रजी .... १७६ सम्मान समारोहका विवरण-[एक पत्रकार १६४ वीरशा० उत्पत्तिका समय और स्थान-[सम्पादक ७६ सरसावाका सन्त-[श्रीमङ्गलदेव .... २१३ वीर० जयन्तीपर मुनि श्रीकृष्णचन्द्रका अभिमत ३७५ सलाह (कविता)-[श्रीशरदकुमार मिश्र २४८ ,, अनेकान्तके अद्वितीय विशेशाङ्ककी योजना- २२५ सहयोगी सत्यप्रकाशकी विचित्र सूझ-[सम्पादक १४५ वीरसेवामन्दिरकी मीटिङ्ग .... वि० अं०५ सात विशेषताएँ-[श्रीदौलतराम मिश्र' .... १७७ वीरसे०म०के अबतकके कार्योंका परिचय वि० अंक १४ सासादनसम्यक्त्व० शासनभेद-[हीरालाल ६६, ६७ वीरसे० म०के भावी प्रोग्रामकी रूपरेखा वि० अंक ६ साहित्यतपस्वी-[कल्याणकुमार जैन .... १६० वीरसे० म०में वीरशासनजयन्ती उत्सव वि० अंक १ साहित्यतपस्वीको वंदन-[पं० परमेष्ठीदास १८१ वे एक प्रकाशकके रूप में-[श्रीकाशीराम शर्मा २०६ साहित्यदेवता-[पं० माणिकचंद .... १८२ वैदिक व्रात्य और महावीर-[श्रीकर्मानन्द २३५ साहित्यकी महत्ता-मूलनन्द 'वत्सल' ५४ व्यवस्थापकीय निवेदन .... .... ११६ साहित्य-परिचय और समालोचन-परमानंद ३७६ श्रीमुख्तार सा०के प्रति (कविता)-कपूरचन्द १६२ सिंहभद्रको वीरो देश-[बाबू कामताप्रसाद जैन ३७ शित्तन्त्रवाशल-गुलाबचंद अभयचंद ३६३ स्वयं अपने प्रति-[एक भक्त .... २०१ श्रद्धांजलि-बाबू माईदयाल जैन बी० ए० २०० स्वागत-प्रो० गयाप्रसाद शुक्ल ..... १८६ श्रद्धांजलि-[पं० प्रभुलाल प्रेमी .... १० स्वागत भाषण-[श्री ला० प्रद्युम्नकुमार १६६ श्रद्धार्घ-[वाबू छोटेलाल जैन .... १८६ स्वाधीनताकी दिव्यज्योति (कहानी)-[श्रीभगवत् ४६ श्रद्धाके फूल-[श्रीभगवत जैन .... १६०
(एकपरीक्षण)-[एस. सी. वीरन ३५२ श्रीराहुलका सिंहसेनापति-[श्रीमाणिकचंद २५३ हम तुमको विभु कब पाएँगे (कविता)-[श्री हीरक' २४५ सत्ताका अहंकार (कविता)-[पं० चैनसुखदास ११ हमारे गर्व-श्रीदुलारेलाल भार्गव .... १८६ सफलताकी कुंजी-]बाबू उग्रसैन जैन एम० ए० ३५ हमारे पत्रकारोंकी शुभ कामनाएँ .... २०४ सभापतिका अभिभाषण-[श्रीराजेन्द्रकुमार १६३ हमारे माननीय अतिथि .... .... १७३ सभी ज्ञान प्रत्यक्ष है-पं० इन्द्रचन्द शास्त्री १०७ हमारे विद्वानोंकी शुभ कामनाएँ .... समंतभद्रकी अर्हद्भक्ति-न्या०पं० दरबारीलाल १२ हमारे सभापतिःएक अध्ययन-[पं० कन्हैयालाल १६१ समंतभद्रभारतीके कुछ नमूने-[सम्पादक १, ४१, ८१, हमारे सहयोगी .... .... ..... १६६ - १२१, २२६, २६१, २६३, ३२५
हविरस्मि नाम-डा. वासुदेवशरण .... १७८ समाजके प्रमुख पुरुषोंकी शुभकामनाएँ २०१ हार-जीत (कविता)-[श्रीभगवत् जैन २७२ सम्पादककी ओरसे ... .... २२३ हिन्दीका प्रथम आत्मचरित-[पं० बनारसीदास १९ सम्पादकीय .... ..... १४५, ३२१ हिन्दीके जैन कवि-[श्रीजमनालाल जैन विशारद ३२ सम्पादकीय-विचारणा-[सम्पादक .... ३०४
.२३
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सत्साधु-स्मरण-मंगलपाठ
(अभिमत)
'सत्साधु-स्मरण-मंगलपाठ' नामकी पुस्तक पं. जुगल- कैसे अपराधी है कि हमने अपने trust को पूरा नहीं किशोरजी साहब मुख्तार सरसावाने भेजी । इस पुस्तकके किया, हमने केवल उनको कृतियोंको प्राणीमात्र तक न संयोजक और अनुवादक पण्डित जी आप ही है। यह पहुचानेका ही अपराध नहीं किया है बल्कि अपने प्रमाद पुस्तक पंडितजीकी अनुपम कृतियों में से एक है-श्राद्यो- और अज्ञानतावश उनको दीमकों और चूहोंका खाजा बना पान्त इसे पढ़ा, कईबार पढ़ा-बड़ा श्रानन्द श्राया, पण्डितजी डाला !! हमें इस महान् अपराधके प्रायश्चित्तके रूपमें का Selection ऐतिहासिक कमको लिये हुए है और भविष्यमें उनकी कृतियों को सुरक्षित रखनेके लिये तथा महत्वपूर्ण है।
प्राणीमात्रके हितके लिये उनका अधिकाधिक प्रचार ण्डितजीकी वात औली मनकी बात करनेके लिये प्रयत्नशील होना चाहिये। अापने महान् प्राचार्यों के वाक्यों के मर्मको ही अपनी सरल यह पाठ हमें बताता है कि महानसे महान श्राचार्योने तथा भावव्यञ्जक हिन्दी भाषामें पाठकोंके सामने रखा है। भी स्तवनके मार्गको स्वात्मानुभवकी प्राप्तिके लिये कितना
इस मङ्गलपाठके पढ़नेसे देव, गुरु, शास्त्र के प्रति सच्ची अपनाया है। जिन गुणों द्वारा अरहन्त सिद्ध परमेष्ठीका श्रद्धा और भक्ति बढ़ती है; श्रात-रौद्र-परिणामोंका अभाव तथा पूर्वाचायौंका स्मरण किया गया है, शुद्ध द्रव्यदृष्टिसे होकर अात्मामें स्वाभाविक सुख और शान्तिकी तरंगें उठने वे ही गण हमारी अपनी प्रात्मामें विराजमान हैं। हमारी लगती हैं।
आत्मामें स्वयं अगहन्त तथा सिद्ध परमात्मा बननेकी जो व्यक्ति स्तुति-स्मरण श्रादिको कर्त्तावादका एक Potentiality मौजद है। हम भी यथेष्ट मागेपर चल अङ्ग समझकर इनका निषेध किया करते हैं, उनके लिये
कर क्यों न अपने स्वतन्त्र स्वाभाविक अधिकार परमात्मपद यह पाठ उनकी श्रॉखें खोलने वाला है, जैन शासनमें
को प्राप्त करें। इस प्रकार हमारे अन्तरङ्गमें आत्मकल्याण स्तुति और स्मरणका जो वास्तविक माहात्म्य है उसकी
की भावना जागृत होती है। प्रकाशित करने वाला है।
जिस दृष्टिसे भी देखा जावे यह मङ्गल गठ भव्य-जीवोंके श्रद्धा और भक्तिपूर्वक इस पाठको पढ़नेसे क्रमशः
लिये अत्यन्त उपयोगी और कल्याणकारी है, श्रास्माको महान् प्राचार्यों की एक पंक्ति हमारे सामने श्रा विराजमान
पवित्र बनाकर अात्मविकासके मार्गपर लगानेवाला है। होती है। उस समय हम विचारते हैं कि हमारे पुण्योदयसे
ऐसे महान कार्यके लिये हम मुख्तार साहबका जितना ऐसा हुआ है, हमें उनके चरणोंमें नतमस्तक होकर अपनी श्रद्धाञ्जलि पेश करनेका शुभावसर प्राप्त हुआ है। हम
भी श्राभार माने थोड़ा है, आपका परिश्रम और नि:स्वार्थ
सेवाभाव प्रशंसनीय है। आप वीर-शासनके सच्चे भक्त अपनेको धन्य मानते है कि हमें ऐसे महान् श्राचार्योके
और उपासक हैं इसीलिये "युगवीर" भी हैं । हमारी दर्शन, (परोक्षरूपसे) इस पुस्तकके द्वारा प्राप्त हुए।
हार्दिक भावना है कि अभी पण्डितजी कितने ही वर्षों तक उन महान् प्राचार्योका स्मरण होनेपर हमारी ज़बानसे
हमारे दरम्यान बने रहें और जिनवाणी माताकी सेवा सायास यह निकलता है-धन्य ह इमार एस र महान् उनके द्वारा होती रहे। प्राचार्यों को कि जिन्होंने ऐसी २ अमूल्य कल्याणकारिणी कृतियां हमारे लिये छोड़ी, हमें उनके सामने मारे शर्मके
उग्रसैन जैन M.A., LL.B. मस्तक नीचा करके खड़ा होना पड़ता है कि, हाय! हम
रोहतक।
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स
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Arrearnन्दिरके नये प्रकाशन
१- आचार्य प्रभाषन्द्रका तत्वार्थ सूत्र - नया प्राप्त संक्षिप्त सूत्र, मुख्तार भी जुगलकिशोर की सानुवाद व्याख्या और प्रस्तावना सहित । मूल्य 1)
२- सत्साधु- स्मरण - मङ्गलपाठ - मुख्तार श्री जुगलकिशोरकी अनेक प्राचीन पद्योंको लेकर नई योजना, सुन्दर हृदयग्राही अनुवादादि सहित । इसमें श्रीवीर वर्द्धमान और उसके बाद के जिनसेनाचार्य पर्यन्त, २१ महान् श्राचार्योंके अनेकों श्राचार्यों तथा विद्वानोंद्वारा किये गये महत्व के १३६ पुण्यस्मरणोंका संग्रह है और शुरूमे १ लोकमङ्गलकामना, २ नित्यकी श्रात्मप्रार्थना, ३साधुवेष निदर्शक जिनस्तुति ४परमसाधुमुखमुद्रा और ५ सत्साधुवन्दन नामके पाच प्रकरगा हैं। पुस्तक पढ़ते समय बड़े ही सुन्दर पवित्र विचार उत्पन्न होते हैं और साथ ही श्रचायका कितना ही इतिहास सामने श्राजाता है, नित्य पाठ करने योग्य है। मूल्य | )
३- अध्यात्म-कमल-मार्तण्ड - यह पञ्चाध्यायी तथा लाटीसंहिता श्रादि ग्रन्थोंके कर्ता कविवर राजमल्लकी पूर्व रचना है । इसमें अध्यात्मसमुद्रको कूजे में बन्द किया गया है। साथ में न्यायाचार्य पं० दरबारीलाल कोठिया और पं० परमानन्द शास्त्रीका सुन्दर श्रनुवाद, विस्तृत विषयसूची तथा मुख्तार श्रीजुगल किशोरकी लगभग ८० पेजकी महत्वपूर्ण प्रस्तावना है। यह बड़ा ही उपयोगी ग्रन्थ है । मू० १11)
विलम्बका कारण
अनेकान्तकी इस किरणको इतने विलम्बके साथ प्रकट करते हुए हमें बड़ा ही सङ्कोच तथा खेद होता है । इस विलम्बका प्रधान कारण समयपर काग़ज़ न मिलना है । यद्यपि न्यूज प्रिटका श्रच्छा कोटा मंजूर होकर परमिट श्रागया था परन्तु योग्य कारात न मिल सका, जो मिलता था वह बहुत हो रही था और किसीको भी श्रनेकान्तके लिये न रुचा । श्रन्तको यह २८ पौण्डका कागृक्ष मिला, जिसके देहलीसे सहारनपुर पहुँने में भी रेल्वेकी गड़बड़ी के कारण कोई २२ दिन लग गये। इस तरह १३ जूनको मैटर प्रेसमें दिया जा सका और प्रेसकी परिस्थितियोंके कारण यह किरण एक महीने में छुपकर तय्यार हो सकी है। इस विलम्बके कारण पाठकोको जो प्रतीक्षा-जम्य कष्ट उठाना पड़ा है उसका हमें अनुभव है और उसके लिये हम अपनी मजबूरीको सामने रखते हुए उनसे क्षमा चाहते हैं ।
-व्यवस्थापक
Fired. No. A731.
४- उमास्वामिश्रावकाचार - परीक्षा -मुख्तार भीजुगलकिशोरजी की ग्रन्थपरीक्षाओंका प्रथम श्रंश, ग्रन्थपरीक्षा नोंके इतिहासको लिये हुए १४ पेजकी नई प्रस्तावना सहित । मू० |)
५- न्यायदीपिका - ( महत्वका नया संस्करण ) - न्यायाचार्य पं० दरबारीलालजी कोठिया द्वारा सम्पादित और अनुवादित न्यायदीपिकाका यह विशिष्ट संस्करण अपनी खास विशेषता रखता है। अबतक प्रकाशित संस्करणों में जो अशुद्धियां चली श्रारही थीं उनके प्राचीन प्रतियोंपर से संशोधनको लिये हुए यह संस्करण मूलग्रन्थ और उसके हिन्दी अनुवादके साथ प्राक्कथन, सम्पादकीय, प्रस्तावना, विषयसूची और कोई ८ परिशिष्टोंसे संकलित है, जिनमें से एक बड़ा परिशिष्ट तुलनात्मक टिप्पणका भी है । साथमें सम्पादकद्वारा नवनिर्मित 'प्रकाशाख्य' नामका भी एक संस्कृत टिप्पण लगा हुआ है, जो ग्रन्थगत कठिन शब्दों तथा विषयोंका खुलासा करता हुआ विद्यार्थियों तथा कितने ही विद्वानोंके लिये कामकी चीन है। लगभग ४०० पृष्ठोंके इस वृहत्संस्करणका लागत मूल्य ५) रु० है काग़ज़ की कमी के कारण थोड़ी ही प्रतियां छपी हैं। अतः इच्छुकों को शीघ्र ही मँगा लेना चाहिये । प्रकाशन विभाग
वीरसेवामन्दिर, सरसावा (सहारनपुर )
To
If not delivered please return to:
VIR SEWA MANDIR, SARSAWA. (SAHARANPUR)
নy
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कामत
सम्पादक-जुगलकिशोर मुख्तार
अनेकान्तकं पाठकों और लेखकोंको शुभ समाचार
कंट्रोल आर्डरके कारण अनेकान्त कई महीनोंसे बहुत ही क्षीणकाय चल रहा है और कागज न मिल सकने के कारण समयपर उसका प्रकाशन भी नहीं हो रहा । इसीसे हमें दो दो महीनोंकी कई मंयुक्त किरणे निकालने के लिये बाध्य होना पड़ा और उनमे हम उतने भी पेज न दे सके जितने कि एक मामकी किरणमें दिया करते थे। तथा पाठकोको जो प्रतीक्षाजन्य कष्ट उठाना पड़ा उसका कथन भी नहीं किया जासकता कितने ही उत्मक णटकोंको हम उत्तर देने देते थक गये और कई लेखोंको स्थानाभाव के कारण वापिस भी कर देना पड़ा, जिमशहमे खेद है। परन्तु अनिच्छास यह सब कुछ करते हुए भी भविष्यकी और हमारी आशा लगी हुई थी जो अब कुछ फलिन हुई है। यहाँ पर पाठकों को यह जान कर प्रसन्नता होगी कि अनेकान्तको न्यूजप्रिण्टका अच्छा काटजर हआ है, अतः पेपर मिलतेही अनेकान्त अब अप्रैल की किरणसे पहले की तरह अधिक पेजोंको लिये हुए प्रकाशित रा करेगा। हम चाहते हैं कि पिछले महीनों में पंजों की जो कमी पड़ी है उम अगले महीनोंमें यथाशक्ति कुछ पूरा किया जाय । अतः पाटक धैर्य रखें। साथ ही सुलेखकों से अनुरोध है कि वे अपनी सुन्दर रचना शीघ्र ही अनकान्त आफिस वीरम बामन्दिरको भेजने की कृपा करें; क्योंकि अप्रैलकी किरण जल्दी ही प्रेस में दी जानेको है।
* विषय-ममी * 1-श्री अमृतचन्द्र स्मरण पृ० ६, ७-सप्तवेषी व हरधारियोंमे (कविता) ७३ २- रत्न. पा. और प्राप्तगी का कर्तव ८--मुख और समता ३-~गजपन्य क्षेत्रके पुराने उल्लंम्ब
६-भारतीय इतिहासका जनयुग ४-अपमान या अन्याचार
१०-धनपाल नामके चार विद्वान
१-स्वयंवरा (कविता) -विद्यानन्दका समय ६-जगत रचना
৫৫ হাথবন্ধ ‘মনাল
ANAKANIANITA
फरवरी-मार्च १९४५
KANSALAISTELEHUIDUSTAHLBERG
LETINHAIYAWADIANMIK
ANDERE KA
RARIÉ
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वीर-शासन-जयन्ती
अर्थात् श्रावण-कृष्ण-प्रतिपदाकी पुण्य तिथि
यह तिथि-इतिहास में अपना खास महत्व रखती है और एक ऐसे 'सर्वोदय' तीर्थकी जन्मतिथि है, जिसका लक्ष्य सर्वप्राणिहित है।
इस दिन-अहिंसाके अवतार श्री सम्मति-वर्द्धमान-महावीर आदि नामोस मामालिनीर भगवानका तीर्थ प्रवर्तित हुमा, उनका शासन शुरू हुआ, उनकी दिन्यध्वनि वाणी पहले पहल खिरी, जिसके द्वारा मब जीवोंको उनके हितका वह सन्देश सुनाया गया जिसने उन्हें दुःखोंसे छूटनेका मार्ग बतागा, दुःखकी कारणीभूत भूले सुझाई, बहमोंको दूर किया, यह स्पष्ट करके बतलाया कि सच्चा सुख महिमा और अनेकान्तदृष्टिको अपनाने में है, ममताको अपने जीवनका अङ्ग बनाने में है, अथवा बन्धनम्मे-परतन्त्रतामे-विभावपंरिणतिमे टने में है। माथ ही, मब माग्माओंको ममान बतलाते हुए,
प्रामविकासका सीधा तथा मरल उपाय सुझाया और यह स्पष्ट घोषित किया कि अपना उत्थान और फन अपने हाथ में तिल Post, उसके लिये नितान्त दमरों पर प्राधार रखना, मर्वथा परावलम्बी होना अथवा दृमगेको दोष देना भारी भूल है।
इमी दिन-पीडित, पतित और मार्गच्युत जनताको यह आश्वासन मिला कि उसका उद्धार हो सकता है।
यह पुण्य-दिवम-उन कर बलिदानोंके मातिशय रोक्का दिवस है जिनके द्वग जीवित प्राणी निर्दयतापूर्वक छाके घाट उतारे जाते थे अथवा होमके बहाने जलती हुई भागमें फेंक दिये जाने थे। । इमी दिन-लोगोंको उनके प्रत्याचागेको यथार्थ परिभाषा समझाई गई और हिमा-बहिण तथा धर्म अधर्मका नव
पूर्णरूपमे बतलाया गया। लक इमी दिनमे-स्त्रीजाति तथा शुद्रोपर होनेवाले तत्कालीन मन्याचा में भारी बावट पैदा हुई और वे सभी जन दारू यथेष्ट रूपमे विद्या पदने तथा धर्मसाधन करने आदि अधिकारी ठहराये गये।
इमी तिथिमे-भारतवर्ष पहले वर्षका प्रारम्भ हा करता था जिसका पता 'निलायपरमाती' तथा 'धवन' आदि प्राचीन सिद्धान्तग्रंथों परसे चलता है। पावनी-प्राषाढीके विभागलप फ़सली मान भी उसी प्राचीन प्रथाका मूचक जान पड़ता है. जिपकी संख्या प्राजकल ग़जस प्रचलित हो रही।
इस तरह यह तिथि-जिस दिन वीरशासनकी जयन्ती (ध्वजा) लोकशिखर पर फहराई संसारके हित तथा पर्व माधारणके उत्थान और कल्याण के साथ अपना सीधा ण्वं खास सम्बध रखती है और इमलिये ममीके द्वारा हस्मयके ins माय मनाये जानेके योग्य है। इसीलिये इमरी यादगारमें कई वर्षमे वीरसेवामन्दिर परतावामें 'वीरशाम नजयन्ती' org
उत्मव के मनानेका प्रायोजन किया जाता है। गत वर्ष यह उम्मव गजगिरिमें उम स्थान पर मनाया गया था जहाँ वीरशासनकी तीर्थधारा प्रवाहित हाई और उसके बाद कलकनाम हमे माधंद्वयमहस्रान्दि-महोत्सवका रूप दिया गया था।
इम वर्ष-यह पावन तिथि २५ जुलाई मन १९४५ को बुधवार के दिन अवतरित हई है। इस दिन पिछले वर्षोमे Ma भी अधिक उत्साहके माथ वीरमेवामन्दिरम वीरशाम्पनजयन्ती मनाई जायगी और जलमा २६ ता तक रहेगा। प्रतः *म भाईयों को इस पर्वातिशायी पावन पर्वको मनाने के लिये प्रभीमे मावधान होजाना चाहिये और इस शुभ अवमग्पर
वीरपेवामनिम्मे पधारने की ज़रूर कृपा करनी चाहिये। जो मजन बीपमेवामन्दिरमें न पधार म उन्हें अपने २ स्थानों पर उसे मनाने का पूर्ण प्रायोजन करके कर्तव्यका पालन करना चाहिये। दिन -
जुगलकिशोर मुख्तार अधिधाता 'वीरमेवामन्दिर' मरमावा, जि. महारनपुर
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* ॐ अहम् *
ततत्त्व-सद्यातक
विश्वतत्त्व-प्रकाशक
वाषिक मूल्य ४)
इस किरणका मूल्य ।)
नीतिविरोधध्वंसी लोकन्यवहारवर्तकः सम्यक् ।। परमागमस्य बीज भुवनैकगुरुर्जयत्यनेकान्तः ॥
वर्ष ७ किरण ७,८
सम्पादक-जुगलकिशोर मुख्तार वीरसेवामन्दिर (समन्तभद्राश्रम) सरमावा जिला सहारनपुर फल्गुन-चैत्रशुक्ल, वीरनिर्वाण संवत् २४७१, विक्रम सं० २००१-२
फर्वरी, मार्च
१६४५
श्रीअमृतचन्द्र-स्मरण आगम-हृदयग्राही मर्म-ग्राही च विश्वतत्त्वानाम् । यो मद-मोह-विमुक्तो नय-कुशलो जयति स सुधेन्दुः ॥ १ ॥ यवचनामृतवर्षर्जडताऽऽतपथातनादुपागच्छति । शान्तिः सर्वजनानां सोऽमृतचन्द्रो मुनिर्वन्धः ॥ २ ॥
-युगीरः 'जो आगमके हृदय-ग्राही हैं-श्रागमशास्त्रोके रहस्यको जिन्होने भले प्रकार भा है-, विश्वतत्त्वों के मर्मज्ञ हैं- संपूर्ण चराचर जगत्के अन्तर्गत सभी पदार्थों के मर्मको जिन्होने रचून पहचाना है-, मद-मोहसे विमुक्त हैं-अहङ्कार और मोह जिनके पास नही फटकते-और साथ ही जोनयकुशल हैं-नयों के सम्यक स्वरूप तथा व्यवहार से अवगत हैं-ये श्रीअमृतचन्द्राचार्य जयवन्त हैं अपने प्रवचन-द्वारा सदा ही लोक हृदयों में अपने प्रभावको श्रङ्कित किये हुए हैं।
“जनके वचनरूप अमृतकी वर्षामे--पुरुषार्थसिद्धय गाय, तत्त्वार्थमार और ममयमार-कलशादि जैसे प्रवचनोद्वारा की गई तत्वामृत की वृष्टिंसे-जडतारूपी आताप दूर हो जाता है-अज्ञता मय भारी गर्मीसे उत्पन्न हुई बेचैनी मिट जाती है और उसके दर होने अथवा मिट जाने से शान्ति स्वतःही सब जनों के ममीर पाती है-सभी सन्तप्त-हृदय अनायाम ही शान्ति-सुखका अनुभव करते- मुनि श्रीश्रमृतचन्द्रसूरि वन्दनीय हैं-सभी श्रात्मशान्ति के अभिलाषियों-द्वारा नत-मस्तक होकर श्राराधनीय हैं।)
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रत्नकरण्डश्रावकाचार और प्राप्तमीमांसाका कर्तृत्व
(ले०-प्रो० हीरालाल जैन, एम० ए० )
४ [गत किरणस आगे] अब यहाँ मुझे केवल एक बात पर और विचार करना इसी प्रकारकी बात हैं । अष्टसहस्रीकारने विग्रहादि महोदय' भावश्यक प्रतीत होता है। न्यायाचार्य जी ने कहा है कि का अर्थ किया है 'शश्वन्निस्वेदस्वादिः' अर्थात् पसीनाका "रस्नकाण्डश्रावकाचारकारको जो दोषका स्वरूप क्षुधादि कभी नहीं भाना, इत्यादि जिससे और भी स्पष्ट हो जाता अभिमत है वही प्राप्तमीमांसाकारको भी अभिमत है, और है कि शरीर सम्बन्धी गुणधर्मोंका प्रक्ट होना न होना इसी लिये विद्यानन्दके व्याख्यानका भी यही प्राशय लेना प्राप्तके स्वरूपचिन्तनमें कोई महत्व नहीं रखते । प्राप्तका चाहिये। यदि ऐसा न हो तो उन्हीं के श्लोकवार्तिकगत अर्थ है ऐसा गुरु जिसके वचनपर विश्वास किया जा सके व्याख्यानसे जहां सबलतामे तुधादि वेदनाओंका अभाव और ऐसे वचन वे ही हो सकते हैं जिनका युक्ति और सिद्ध किया है, विरोध भावेगा, जो विद्यानन्दके लिये किसी और शास्त्रमे विरोध नहीं पाता एवं प्रत्यक्षसे भी जो बाधित प्रकार इष्ट नहीं कहा जा सकता।" यहां पुनः हमारे सन्मुख नहीं होते । ऐसे वचन बही निर्दोषी महापुरुष कह सकता तीन प्रश्न उत्पन्न होते हैं-(१) क्या प्राप्तमीमांसान्तर्गत है जिसके राग-द्वेष और अज्ञान सर्वथा नष्ट हो चुके हैं और दोष शब्दका वही अर्थ स्वीकार किया जा सकता है जो पूर्ण ज्ञानका प्रकाश हो गया है। विद्यानन्दिने कारिका ४ व रत्नकरण्डकारको भभिमत है ? (२) क्या विद्यानन्दिके दोष ६ की टीकामें यही बात अच्छी तरह स्पष्ट की है। जैसेशब्दके व्याख्यानका वह अभिप्राय हो सकता है जो रत्न- "कः पुनर्दोषो नामावरणादिन्नस्वभाव इति चेदुच्यते, करण्रकार द्वारा प्रकट किया गया, (३) यदि उनके वचनसामर्थ्यादज्ञानादिदोषः स्वपरपरिणामतः।" "श्राव. व्याख्यानका वही अभिप्राय नहीं है तो उनके श्लोकवार्तिक रणस्य द्रब्यकर्मणो दोषस्य च भावकर्मणो भूभृत इव गत व्याख्यानसे विरोव उत्पन्न होकर कैसी परिस्थिति महतोऽत्यन्तनिवृत्तिसिद्धेः कर्मभूभृतां भेत्ता मोक्षमार्गस्य प्रकट होती है।
प्रणेता स्तोतव्य समवनिष्ठते विश्वतत्वानां ज्ञाता च ।" (१) प्रासमीमांसाकारको दोषसे क्षुधादि अभिमत होना "दोषास्तावदज्ञान-राग द्वेषादय उक्ताः" प्रादि । यहां सर्वत्र माननेके लिये न्यायाचार्यजीके प्राधार वे ही थे जिन पर उन्हीं ज्ञामावरणादि घातियाकर्मों व तजन्य दोषाका ग्रहण हम ऊपर विचार कर चुके और देख चुके हैं कि उन किया गया है जिनसे जीवकी दृष्टि व समझदारीमें त्रुटि उल्लेखों परसे ग्रन्थकारका वैसा अभिप्राय मिन्न नहीं होता। उत्पन्न हो जाती है। यहां अघातिया कर्मों द्वारा उत्पन्न स्वयं प्राप्तमीमांसामें जो 'दोषावरणयोहानि' 'बहिरन्तर्मल- परिणामोको कहीं भी दोषरूपसे ग्रहण नहीं किया। यह। क्षयः' 'निर्दोष' जैसे विशेषणोंका उपयोग किया गया है बात युक्त्यनुशासन की प्रथम कारिका पर धान देनेसे और उनका तात्विक अर्थ समझने के हमे दो उपाय उपलब्ध भी स्पष्ट हो जाती है। इस कारिकामें ग्रन्थकारने वीर हैं-एक तो स्वय उसी ग्रंयका सन्दर्भ, और दूसरे धनका भगवान्को "विशीर्णदोषाशयपाशबन्धम्" ऐसा विशेषण टीकाकारों द्वारा स्पष्टीकरण । प्राप्तमीमांसामें प्राप्तका लक्षण लगाया है जिसका अर्थ होता है वे केवली जिनके दोषोंके करते समय ग्रन्थकारने न केवल उन्हीं गुणोंको स्पष्ट किया प्राशय रूप कर्मबन्ध सर्वथा नष्ट हो चुके हैं। अब यदि है जिनका होना प्राप्तमें श्रावश्यक है, किन्तु उन विभूतियों प्रघातिया कर्मजन्य वृत्तियों को भी प्राप्तसम्बन्धी दोषों में को भी स्पष्टत. पृथक बतला दिया है जो मायावियों और सम्मिलित किया जाय तो देवलीमें अघातिया कर्मोके भी सरागियों में भी पाई जाती हैं अतएव प्राप्तके लक्षणमें नाशका प्रसंग आता है जो सर्वसम्मत कमसिद्धान्त के कदापि ग्राहा नहीं हैं। देवोंका श्राना, अाकाशगमन, चम- विरुद्ध है। अतएव दोषसे चेही वृत्तियां ग्रहण की जा रादि, व विग्रह प्रर्थात् शरीरसम्बन्धी चमकार भादि सकती हैं जो ज्ञनावरणादि घातियाकर्मोंसे उत्पन्न होती हैं
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किरण ७-८]
रत्नकरण्डश्रा० और प्राप्तमीमांसाका कर्तृत्व
एवं जो उन कोंके पाथ ही केवलीमे विनष्ट हो चुकी हैं। का वर्तव्य है मूल ग्रंथकारके अभिप्रायको उनकी परिपाटीके स्वयंभूस्तोत्रके 'स्वदोषमुलं स्वसमाधितेजसा मिनाय यो अनुमार व्यक्त करना। अतएव प्राप्तमीमांसाकारका उन्हें निर्दयभस्ममारिकयाम्' (३) आदि वाक्य भी ठीक इसी मैसा अभिमत अर्थ ठीक जंचा उसी प्रकार उन्होंने वहां अर्थका प्रतिपादन करते हैं. क्योंकि पयोगी केवली जिन अर्थ किया है और इस कार्य में उन्होंने एक सो टीकाकार दोषोंके मूलको भस्मसान कर सके हैं वे घातिया कर्म ही हैं सातव्य निवाहा है। पर श्लोकवार्तिक की रचना उन्होंने न कि अघातिया म।
एक ऐसे ग्रंथ पर की है जिसपर उनसे पूर्ववर्ती दो टीकाए (२) ऊपर हम देख ही चुके कि विद्यानन्दिने अपनी
उन्हें उपलब्ध थीं। अतएव उन्हीकी अर्थ परिपाटीके अनुअष्टमहस्रीटीकामें दोषका क्या अर्थ किया है । यदि उन्हें
सार उन्होंने वहां वह भर्य किया है। पर यदि विचार कर आप्तमीमांसाकारके दोष शब्दसे वही अर्थ अभीष्ट था जो
देखा जाये तो वहां पर भी उनका तथा उनमे पूर्ववर्ती रस्नकरण्डकारको है तो मैं न्यायाचार्यजीसे पूछता हूं कि,
दोनों टोकाओं अर्थात् सर्वार्थ सिद्धि और राजवार्तिकका मत उन्होंने वही स्वरूप वहां क्यों नहीं प्रकट किया ? यह बात
तस्वार्थसूत्रकारके मतसे मेल नहीं खाता जैसा कि मैं जैन सत्य है कि विद्यानन्दिने अपने श्लोकवार्तिकमें केवल के
सिद्धान्त भास्कर(भाग १०, किरण २) में प्रकाशित "क्या तुवादि वेदनाांका प्रभाव माना है, या न्यायाचार्यजीके
तस्वार्थसूत्रकार और उनके टीकाकागेका अभिप्राय एक ही शब्दोंमें उन वेदनाओंका उन्होंने "सबलता अभाव सिद्ध
है" शीर्षक अपने एक लेख में प्रकट कर चुका है।न्यायाकिया है।" ऐसी अवस्थामें यदि वे भातमीमांसाके सदर्भ
चार्यजीने उसे अवश्य देखा होगा, यदि नहीं तो कृपया वे परसे या उन्ही प्रन्थकारकी अन्य कृतियों परसे दोपका
उसपर अवश्य ध्यान दे ले। इस विषम परिस्थितिपर कुछ वैमा अर्थ कर सकनेकी गंजाइश पा जाते तो अवश्य उसी
गम्भीरतासे चिन्तन करनेपर दिगम्बर साहित्यमें हमे दो प्रकार अर्थ करते, या यही कह देते कि यहाँ उसी प्रकार
विचारधारा स्पष्ट दिखाई देती हैं। एक है षट्खंडागम विशेषार्थ ग्रहण करना चाहिए जैसा उन्होंने श्लोकवानिकम
सूत्रों, पासमीमांमादि ग्रन्थों तस्वार्थसूत्र एव पश्चात्कालीन किया है, जैसा कि अन्य स्थलोंपर उन्होंने उल्लेख किया
कर्मसिद्धान्तप्रन्यों में स्वीकृत वह मान्यता जिसके अनुसार है। पर उन्होंने वैसा नहीं किया जिससे स्पष्ट है कि उन्हें
साता व असाता वेदनीय कर्मका उदय अयोगी गुणस्थान वहां वैसा अर्थ करने के लिये सर्वथा ही कोई आधार नहीं
तक बराबर बना रहता है जिससे केवबीमें सुख-दुख रूप मिला। हम परसे स्वभावत: यह अनुमान भी किया जा
वेदनाएं सिद्ध होती हैं। दूमरी विचारधारा हमें कुन्दकुन्दासकता है कि यदि उनके सन्मुख उन्हीं समन्तभद्र कृत
चार्यके अन्यों मे दिखाई देती है जिसके अनुसार केवली रस्नकरण्डश्रावकाचार जैसा ग्रंथ होता तो वे उस पर भी
तधादि वेदनाघोंसे रहित माने जाते हैं। इस मान्यताका अपनी टीका लिखते या कमसे कम उसका अवतरण देकर
पूर्वोक्त मान्यताके साथ मेल बैठानेका प्रयान पूज्यपादाचायने प्राप्तमीमांना दोषका अर्थ अवश्य ही उसीके अनुसार
अग्नी सर्वार्थमिद्धि टीकाम किया है और उसीका अनुसरण करते, क्योंकि वे केवलीमें क्षुधादि वेदनाभोंके प्रभाव
अकलंकके राजवानिक व विद्यानन्दिके श्लोकवार्तिकमें भी सम्बन्धी मनके प्रवज पोवक थे। इससे भी यही बात
प्राप्त होता है। इसी परम्पराका ग्रहण रस्नकरण्डश्रावकाप्रमाणित होती है कि विद्यानन्दिको न तो प्राप्तमीमांसामे
चारमे भी किया गया है और उसके कर्नाने अपनी यह दोषका पैसा अर्थ कर सकने की गंजाइश मिली और न
परम्परा प्रथके उपान्त पद्यमें प्रकट भी करदी है जैसा कि उनके समक्ष समन्तभद्रस्वामीकी रत्नकरण्डश्रावकाचार जैसी कोई रचना विद्यमान थी।
हम ऊपर देख चुके हैं। चिसोबास जातील विद्या प्रतएव प्राप्तमीमांसा और श्रावकाचारके कर्ता एक नन्दिके अष्टसहलीगत व्याख्यानके श्लोकवानिकगत व्या- नहीं दो भिन्न भिन्न व्यक्ति हैं। वादिराजके उल्लेखानुसार ज्यानसे विरोध की। पर विचार करनेसे ज्ञात होता है कि श्रावकाचारके कर्ता 'योगीन्द्र' कहलाते थे और देवागम या यथार्थत: वहां ऐसा कोई विरोध उपसनहीं होता। टीकाकार प्राप्तमीमांसाके कर्ताकी उपाधि थी 'स्वामी'।
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गजपन्थ क्षेत्रके पुराने उल्लेख
(ले-श्री पं० नाथूराम प्रेमी )
मैंने 'हमारे तीर्थक्षेत्र' शीर्षक लेख में लिखा था कि वर्तमाम् इस लम्बे समांसपदमें गजध्वज और गजपन्थ दोनों गजपम्य तीर्थका कोई प्राचीन उल्लेख नहीं मिखता और न नाम एक साथ नासिक नगरके समीप बताये हैं। ऐसा उक्त तीर्थ पर ही अब तक उसकी प्राचीनताका कोई हि नहीं जाम पड़ता कि एकका नाम देकर फिर उसका पर्याय. मिला है। परन्तु अभी गत मार्च अप्रैल में जब मैं उक्त तीर्थ वाची नाम दिया है। तब क्या गजभ्वज और गजपन्य दो की धर्मशाला बगभग डेढ़ महीने तक डहरा, तब वहाँके जुदा जुदा पर्वत हैं? मुनीम बंसीलालजीने मुझसे कहा कि प्रसग कविके शान्ति- मेरा अनुमान है कि श्रुतसागर बहुश्रुत विद्वान थे। माथचरितमें इस तीर्थका उल्लेख है। सौभाग्यसे वहां उक्त उन्होंने शान्तिमायचरितके पूर्वोक्त श्लोकका गजध्वज ग्रंथ भी मिल गया। उसके सातवें सर्गमें नीचे लिखा अवश्य पदा होगा और प्राकृत निर्वाणकाण्डका 'गजपंथे हुधा रखोक मिला
गिरिसिहरे' पाठ भी उनसे छुपा न होगा, इस लिए उन्हों अपश्यन्नापरं किञ्चिद्रक्षोपायमथात्मनः।
ने गजध्वज और गजपन्थ दो पर्वत समझ लिये होंगे शैलं गजध्वज प्रापन्नासिक्यनगराबहिः||१८||
और विशेष जांच पड़ताल किये बिना दोनों ही माम दे प्रसंग यह है कि अमिततेज और श्रीविजयने अपनी
देना निरापद समझा होगा। नासिक्यसमीपवर्ती लिखना सेनासहित जब शनिवेग विद्याधरका पीछा किया तब
इस लिए आवश्यक हुआ कि उनकी रधिमें गजपन्थ कहीं वह अपनी रक्षाका और कोई उपाय न देख कर भाग खड़ा
अन्यत्र था नहीं। हुमा भीरमसिक्य नगरके बाहर गजध्वज नामक पर्वतपर पहुंचा जहां कि विजय बलभदवली विराजमान थे।
निर्वाणकांडके अनुसार गजपन्थसे कुछ बलभद्रोंको पहले तो मुझे शका हुई कि 'गजध्वज' पाठ शायद माल प्राप्त हुआ है और शान्तिनाथ चरितमें जिमकी। प्रशद्ध हो सकता कि लेखकों प्रमादसे 'गजाध्वानं' अशनिवेगने की थी वे विजय केवक्षी पहले बलभत थे। का 'गजध्वज' बन गया हो। क्यों कि 'गजाध्वानं' (गजों इस लिए सभावना वही है कि निर्वाणकाण्डके ग या हाथियोंका रास्ता या पन्थ) और 'गजपन्य' का ही एक हो शान्सिरितके कर्माका अभिप्राय है । अब प्रश्म यह ही अर्थ होता है। पन्ना उसी समय बोधप्राभृत' का रह जाता है कि गजपन्थको गजध्वज क्यों लिखा? उत्तर
र स्वाध्याय करते हुए उसकी २७वी गाथाकी श्रुतसागरी
यही सूझता है कि या तो यह दूसरा माम होगा और या टीकाकी निन्न पंक्तियोपर मेरी नजर पड़ी, जिनमें तमाम
फिर लेखकोंके प्रमादसे ही 'गजाध्वाज' का गजबज' तीर्थोके नाम दिये हुए हैं
लिख गया होगा। "ऊर्जयन्त - शत्रुजय - लाटदेशपावागिरि-आमीर- असगने अपना महावीरचरित शक सं० ११० (वि. देशतंगीगिरि-नासिक्यनगरसमीपवतिगजध्वज-गजपंथ सं० १०४५) में समाप्त किया था और उसके बाद शान्तिसिद्धकूट-तारापुर.कैलासाष्टापद-वम्यापुरी-पावापुर- माथचरित । अर्थात् वि० सं० १०५० के लगभग गजपन्थवाराणसीनगरक्षेत्र - हस्तिनागपत्तन-सम्मेदपर्वत-सह्या- तीर्थ नासिक नगरके बाहर माना जाता था। चल-मेद्रागिरि-वैभारगिरि-रूप्यगिरि-सुवर्णगिरि-रत्न- श्रुतसागरसूरिका समय १६ वीं शताब्दि है और उस गिरि-शौर्यपुर-चूलाचल-नर्मदातट-द्रोणीगिरि-कुन्थु- समय भी वह नासिकके समीप समझा जाता था। गिरि-कोटिकशिलागिरि-जम्बूकवन-चलनानदीतटतीर्थ- बाहर' और 'समीप' से गजपन्थको उसके वर्तमान स्थान करपङ्ग कल्याणस्थानानि ।"
में भी माना जा सकता है परन्तु ये शब्द पासके अन्य किसी १ जैनसाहित्य और इतिहास, पृ० १६५
स्थानकी संभावनाको मेटने के लिए काफी नहीं जान पकते।
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अपमान या अत्याचार ?
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कल शुक्रवारको, कोई पहर रात गये खुली छतके प्रायः पुरुषोंकी स्वार्थपूर्ण चेष्टाएँ और उनकी विवेव शुन्य मध्यमें शप्यापर लेटा हुमा, मैं स्त्रियोंकी पराधीनना और क्रियाएँ तथा निरंकुश प्रवृत्तियों ही हैं. जिमसे किसी भी उनके साथ पुरुषजानिने जो अबतक सलूक किया है उसका विचारशीन तथा न्यायप्रिय व्यक्तिको इनकार नहीं होसकता। गहग विचार कर रहा था । एकाएक शील मन-सगंध और अब तो प्रायः सभी विवेकी तथा निष्पक्ष विद्वान इस पवनके झोकोंने मुझे निद्रादेवीकी गोद में पहुंचा दिया और सत्यको स्वीकार करते जाते हैं। ऐसी हालतमे स्त्रियोंपर इस तरहपर मेरा वह सुचम विचारचक्र कुछ देर के लिये उपयुक्त कलंकका जगाया जाना बिलकुल ही निमूल प्रतीत बद हो गया।
होगा है। और वह निजता और भी अधिकताके साथ निद्रादेवीके आश्रय में पहुँचने ही अच्छे अच्छे सुन्दर सुदृढ तथा सुस्पष्ट हो जाती है जबकि भारत और भारतस्से और मुमनोहर स्वप्नोंने मुझे प्राधेरा । उस स्वप्नावस्थामें मैं बाहरकी उन दादागी गुजराती, पारसी तथ. जागनी आदि क्या देखनाहं कि. एक प्रौढास्त्री, जिपके चेहरेसे तेज बिटक उच्च जातियों के उदाहरणोंको सामने रखा जाता है जिनमें रहा है और जो अपने रंग-रूप, वेष-भूषा तथा बोल-चालसे घूघटकी प्रथा नहीं है और जिनकी स्त्रियोंके चरित्र बहुत यह प्रकट कर रही है कि वह 'अखिल भारतीय महिला- कुछ उज्वल तथा उदात्त पाये जाते हैं। भरपका भी निम्य महासभा के सभापतिके प्रासनपर श्रापीन होकर पा रही ही ऐसी कितनी ही स्त्रियोंमे माहाकार होता और वे है, अपनी कुछ सखियोंके माथ मुझम मिलने के लिये आई। खुले मुंह अापको देखती हैं। बतलाइये उनमें से भाजतक अभी कुशनप्रश्न भी पूरी तौरसे समाप्त नहीं हो पाया था कितनी स्त्रियां प्राप पर अनुरक्त हुई और उन्होंने आपसे कि उस महिलारत्नने एक दम बढी ही सतर्क-भाषामें मुझ प्रेमभिक्षाकी याचना की? उत्तर कोई नहीं' के सिवाय से यह प्रश्न किया कि, आप लोग स्त्रियांस जो घट और कुछ भी न होगा। आपने स्वतः ही दृष्टिपातके अत्र. निकलवाते हो---उन्हें पर्दा करने के लिये मजबूर करते सर पर इस बातका अनुभव किया होगा कि उनमें कितना हो इसका क्या कारण है?'
संकोच और कितनी कज्जाशीलता होती है। विकारकी रेखा मैं इस विलक्षण प्रश्नको सुनकर कुछ चाक उठा तक उनके चेहरे पर नहीं पाती। पर्दा उनकी धास्वोंमें ही और उत्तर सोचना ही चाहता था कि वह विदुषी स्त्री स्वत: समाया रहता है, जिसपर उन्हें स्वतंत्रता के साथ अधिकार ही बोल उठी-'या तो यह कहिये कि आप लोगोंका होता है और वे यथेष्ट रीतिमे उस अधिकारका प्रयोग खियों पर विश्वास नहीं है। आप यह समझते हैं कि करती है। उन्हें कृत्रिम पर्देकी-उम बनावटी पकी जिसमें स्त्रियों पुरुषोंको देखकर कामवायसे विकल हो जाती हैं, लालसा भरा रहती है और जो चित्तको उद्विग्न तथा शंकाउनके मन में विकार आजाता है और व्यभिचारकी ओर तुर करने वाला है--जरूरत ही नहीं रहती। और इसलिये उनकी प्रवृत्ति होने लगती है। उसी की रोकथामके लिये यह कहना कि पुरुषों को देखकर खिणेच मन स्वभाव ही यह बंघटकी प्रथा जारी की गई है। यदि ऐसा है तो विकृत होजाता है--वे दुराचारकी ओर प्रवृत्ति करने लगती यह स्त्री-जातिका घोर अपमान है। खियां स्वभाव ही है-कोरी कल्पना और स्त्रीजानिकी अबहेमानाके सिवाय पापभीरु तथा बजाशील होती हैं, उनमें धार्मिक निधा और कुछ भी नहीं है। इस प्रकारकी पाम बीजातिक पुरुषोंमे प्राय अधिक पाई जाती है। चित्त भी उनका शीलपर नितान्त मिथ्या भारोप होता है और उससे उसक सहज ही में विकृत होने वाला नहीं होता। उन्हें व्यभि- अपमानकी सीमा नहीं रहती। साथ ही, इस बातकी मी चारादिमागोंकी और यदि कोई प्रवृत्त करता है तो वह कोई गारटी नहीं है कि जो नियां पदेंमें रहती है ये समोर
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अनेकान्त
(वर्ष ६
उज्जपरित्रवानी होती है। ऐसी बहुतसी सियों के बड़े भव नहीं किया? मैंने तो ऐसी सैंकों स्त्रियोंको देखा है हीकाले चरित्र पाये गये हैं। अत: घूघटकी प्रथाको जारी जो चूंघट निकाले हुए अंधोंकी तरहसे चलती हैं, मार्गमें रखनेके लिये उक्त हेतुमें कुछ भी सार अथवा दम नज़र घोबा, गाबी, प्रादमी तथा दर-दीवार और वृक्षसे टकरा नहीं पाता।
___ जाती है, इंट पत्थर लकडीसे ठोकर खा जाती हैं; मार्ग भूल जरामी देर इक कर और मेरे मुखी ओर कुछ प्रतीक्षा कर इधर उधर भटकने लगती हैं। किसी भाक्रमणकारीसे दृष्टिसे देख कर वह उदारचरिता फिर बोली
अपनी रक्षा नहीं कर सकतीं, और इस तरह पर बहुत कुछ 'यदि आप ऐसा कहना नहीं चाहते और न उक्त हेतुका दुःख उठाती हुई अपनी उस घूघटकी प्रथा पर खेद प्रकट प्रयोग करना ही प्रापको इष्ट मालूम देता है तो क्या फिर करती हैं। उन्हें यह भी मालूम नहीं होता कि संसार में भाप यह कहना चाहते हैं कि-पुरुषों का मन स्त्रियों क्या हो रहा है और देश तथा राष्ट्रके प्रति हमारा क्या को देख कर द्रवीभूत हो जाता है, पुरुष नवनीतके तब्ध है। वे प्रायः मकानकी चारदीवारीमें बंद रह कर समान और स्रियां अंगारके सदृश हैं- 'अंगार उच्च संस्कारों के विकामके अवसरसे वंचित रह जाती हैं, सशी नारी नवनीतसमा नराः"-अंगारोंके समीप जिस इतना ही नहीं बल्कि अपने स्वास्थ्यको भी खो बैठती हैं। प्रकार घी पिघल जाता है उसी प्रकार स्त्रियोंके दर्शनसे ऐसी स्त्रियां अपनी संतानका यथेष्टरीतिसे पालन-पोषण भी पुरुषों का मन चलायमान होजाता है--विकृत हो उठता है। नहीं कर सकतीं और न उसे ठीक तौरसे शिक्षित ही बना उसी मनोविकारको रोकनेके लिये--उसे उत्पन्न होनेका सकती हैं। मैं तो जेलखानेके एक भाजन्म कैदीकी और अवसर न देनेके लिये ही यह चूंघट निकलवाया जाता। उनकी हालतमें कुछ भी अन्तर नहीं देखती। यह सब अथवा पर्दा कराया जाता है। यदि ऐसा है तो यह स्त्रियों कितना अत्याचार है! बिना अपराध ही स्त्रियां ये सब पर घोर अत्याचार है । स्त्रियों को देख कर पुरुषों की यदि दुःख, कष्ट तथा हानियां उठाती हैं और अपने मनुष्योचित सचमुच ही राल टपक जाती है, उनमें इतना ही नैतिक अधिकारों तथा लाभोंसे वचित रखी जाती हैं, इस अन्याय बल है और वे इतने ही पुरुषार्थ के धनी हैं कि अपनी और अन्धेरका भी कहीं कुछ ठिकाना है!!' 'अब बतलाइये प्रकृतिको स्थिर भी नहीं रख सकते तो यह उन्हींका दोष दोनों से भाप अपनी इस मनहूस प्रथाका कौनसा कारण है। उन्हें उसका परिमार्जन अपने ही मुँह पर बुर्का डाल ठहराते हैं ? पहला कारण बतलाकर व्यर्थ ही स्त्रीजातिका कर अथवा धुंघट निकाल कर क्यों न करना चाहिये ? यह अपमान करना चाहते हैं या दूसरे कारणको मान कर कहांका न्याय है कि अपराध तो करें पुरुष और सजा उस स्त्रियों पर अपने प्रत्याचारको स्वीकार करते हैं ? दोनों में से की दी जाय नियोंको? यह तो 'अंधेर नगरी और चौपट कोई एक कारण जरूर मानना और बतलाना पड़ेगा अथवा राजा' वाली कहावत हुई-एक मोटा प्रश्गधी यदि फांसी दोनोंको ही स्वीकार करना होगा। परंतु वह कारण चाहे की रस्सी में नहीं पाता तो किसी पसले-दुबले निरपराधीको कोई हो, पुरुषोंके लिये यह बात क्लंककी, लज्जाकी और ही फांसी पर लटका दिया जाय ! कैसा विलक्षण न्याय सभ्यसंसारमें उनके गौरवको घटाने वाली जरूर है कि उन्हें है!! क्या स्त्रियोंको अबला और कमजोर समझ कर ही प्रकृति तथा न्याय-नियमोंके विरुद्ध अपनी स्त्रियोंको पर्देसे उनके साथ यह सलूक (न्याय) किया गया है ! और क्या रखना पड़ता है।' न्यायसत्ता पानेका यही उपयोग है और यही मनुष्योंका मैं उस वीरांगनाके इस दिग्यमाषणको सुन कर दंग मनुष्यत्व है? मैं तो इसे मानव-जाति और उस संस्कृतिके रह गया और मुझसे उस वक्त यही कहते बना कि, जरा लिये महान् कलंक समझती हूँ।'
सोचकर भापके प्रश्नका समुचित उत्तर फिर निवेदन लियो पाँमें रहने की वजहसे अपने स्वास्थ्य, अपनी करूंगा। जानकारी, अपनी संस्कृति और अपनी प्रात्मरक्षा वगैरह की मेरा इतना कहना ही था कि भाकास में मेघोंकी कितनी हानियां उठाती, क्या इसका मापने कभी मनु- गर्जना और वर्षाकी दोंने मेरा वह स्वम भंग कर
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किरण ७-८]
विद्यानन्दका समय
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दिया और मैं अपनेको पूर्ववत् शय्या पर लेटा हुधा ही है। विद्वानोंको चाहिये कि चेहप पर गहरा विचार करके अनुभव करने लगा। परन्तु अभी कुछ मिनिट पहले जो अपने अपने विचारफलको युक्तिके साथ प्रकट करें। यदि अद्भुत दृश्य देखा था और जो दिव्य भाषण सुना था उसकी उन्हें भी उक्त प्रथाकी उपयुक्तता मालूम न दे और के उस याद चिसको बेचैन किये देती थी कि या तो इसे 'स्त्री- को जारी रखने में पुषोंका ही दोष अनुभव करें तो उनकायह जातिका अपमान' कहना चाहिये और या यह कहना कर्तव्य होना चाहिये कि वे पुरुषजातिको इसक्लक तथापाप चाहिये कि वह स्त्रियों पर पुरषोंका अत्याचार' है। अथवा से मुक्त करानेका भरसक प्रयत्न करे। जुगलकिशोर मुख्तार यों कहना होगा कि उसमें दोनोंका ही-अपमान और * यह स्वप्न मुझे अाजसे कोई २१ वर्ष पहले नानौता अत्याचारका--सम्मिश्रण है। विचारोंकी इसी उधेड़बुनमें (जि. सहारनपर ) में पाया था और थाने के बाद ही ११ सवेश होगया और मैं अपना स्वमसमाचार दूसरोंको मई सन १६२४ को वर्तमान रूपमें लिख लिया गया था । सुनाने लगा।
एक-दो पत्रोंम उम ममय इसे प्रकाशित भी किया था। जैसे संभव है कि पाठकोंमेंसे भी कुछ महानुभाव उस दिन्य जुलाई सन् १९२४ के परतारबन्धु' में । अभी इसके अधिक स्त्रीके प्रश्नका अच्छा विचार कर सके और उत्तरमें तीसरे लोकपरिचयमें आने और इसपर गंभीर विचार किये जानेकी ही किसी निर्दोष हेतुका विधान कर सके । इसी लिये स्वप्न और भी अधिक श्रावश्यकता जान पड़ती है। अत: उपयुक्त की यह संपूर्ण घटना भाज पाठकों के सामने रक्खी जाती समझकर श्राज इसे पाठकोके सामने रखा जाना है।
विद्यानन्दका समय
(ले०-न्यायाचार्य पं० दरबारीलाल जैन कोठिया) मा. विजानन्दने प्राप्तपरीक्षाके अन्तमें 'सत्यवाक्यार्थ- प्राप्तपरीक्षा श्रादिकी रचना १६ ए. टी० के बादकी सिद्धय और युक्त्यनुशासनालङ्कारके अन्तिम श्लोक में होगी। यह निर्विवाद है कि विद्यानदिने सर्वप्रथम विद्या. 'विजयिभिः सत्यवाक्याधिप' शब्दोंका प्रयोग किया है। नन्दमहोदय इसके बाद तत्वाथश्लोकवार्तिक फिर अष्टइन परसे बाबू कामताप्रसादजीका अनुमान है कि विद्या- सहस्री आदि ग्रन्थ रचे हैं, पयोंकि उत्तर ग्रंथों में पूर्वग्रन्धोंक नन्दने अपने समयके राजा राजमलके नामका निर्देश किया उल्लेख पाये जाते हैं। यदि इन तीनों अन्योंका रचनाकाल है जिसकी 'सत्यवाक्य' उपाधि थी और जो विजयादित्यका पांच पांच वर्ष भी माना जाय तो विद्यामदमहोदयकी लड़का था एवं सन् ८१६ के लगभग राज्याधिकारी हुमा रचना ८०१ से ८०५ ए. डी. श्लोकवार्तिककी ८०६ से था। इससे विद्यानन्दका समय ई०८१६ के लगभग होना ८१.ए. डी. और अहमहस्रीकी ८११ से २ ए. चाहिए । न्यायाचार्य पं. महेन्द्रकुमारजी२ और प्रो. डी. तक माननी पड़ेगी और विद्यानन्दमहोय जैसे हीरालालजी एम.ए. भी इसी मतका समर्थन करते हैं। विशाल तार्किक अन्धकी रचनाके समय विद्यानन्दकी प्रच. यहां विचारणीय है कि विद्यानन्दने उक्त शब्दोंका प्रयोग स्था यदि कमसे कम ३० वर्षकी भी होतो वे अकलदेव अपने प्रन्यरचनाकालकी अन्तिम कृतियों--प्राप्तपरीक्षा और (७२०-७८० ए.डी.) को भी देख सकते हैं और उनके
और युक्त्यनुशासमालङ्कारमें किया है। इनसे पूर्व रचित सामाशिष्य भी बन सकते हैं परंतु विद्यानंदको अकलंकदेव सत्यार्यश्लोकवार्तिक, प्रष्टसहस्री भादिमें नहीं किया प्रतः का सामाशिष्य न तो पंडितजी स्वीकार करते हैं और न दूसरे यह मानना पदेगा कि स्वार्थश्लोकवार्तिक और असहस्री विद्वान् ही मानते हैं तथा इतिहाससे भी सिर नहीं होता। पादिकी रचना सन् १६के पहले हो चुकी थी और ऐसा मालूम होता है कि विद्यानन्द प्रकलदेवसे कई श्जैनसिद्धान्तभास्कर भाग ३ कि०३०८७ । २ न्या०वि० दशकोंके बाद हुए हैं। एक धापत्ति यह भी उपस्थित होती भा. प्रस्ता. पृ. २४, ३० । ३ अनेकान्त वर्ष ७ कि५-६ है कि विद्यानन्दका अन्यरचनाकाल १६ ए.डी..
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भनेकान्त
[वर्ष ६
करोष माना जाय तो बीरसेनगमी (८२३ए.डी.)के टीका' शब्द भी वही 'म्यायवार्तिकतारपयष्टीका' विद्यानन्द द्वारा परजा और जयपवलामे तथा जिनसेनस्वामीके द्वारा को इष्ट है क्योंकि न्यायवार्तिक पर जो टीम लिखी गई। जयधवला और यादिपुराण में विद्यानन्द या उनके तत्वार्थ- वह अकेली यही टीका है। परेविद्यानन्दमे म्यायवार्तिक लोकवार्तिक (८.६ से १. ए. टी.) श्रादि ग्रंथोंके और उसके कर्ताका म्यायवार्तिक, न्यायवार्तिककार, वार्तिक वाश्योंका उल्लेख होना अनिवार्य और सम्भव था। कोई कार और उद्योतकर नामोसे ही सर्वत्र उल्लेख किया है।' वजह नहीं कि सैकड़ों ग्रंथों और ग्रंथकारों तथा उनके तथा न्यायभाव्य और उसके कर्माका न्यायभाष्य भाष्यकार वाक्योंका उल्लेख करने वाले वीरसेनस्थाम। और जिनसेन और न्यायभाष्यकार २ नामसे निर्देश किया है। तीसरे, स्वामी अपनी विशाल टीकाओं-पवला और जयधवलामें अनुम नसूत्रका त्रिसूत्रीकरण पाचस्पतिमि ने ही किया है। विद्यानन्द विद्यानन्दमहोदय और तवायश्लोकवार्तिक घत: 'न्यायवानिकटीयाकार' पर विद्यानन्दने धाचस्पति जैप विज्ञान महत्वपूर्ण प्रन्यों के नामों को उद्धृत न करें। मिश्र ई. सन् ८४. काही स्पष्टतया नामोल्लेख किया है। अनदेयके तस्वार्थराजधानिकका वीरन और जिनपेन माननीय पशिडतजीने जो यह लिखा है कि प्रा. विद्यानंद
मामीने धबल्ला और जवधवलामें अनेकों जगह खूब उप. ने तत्वार्यश्लोकवार्तिक (पृ.२०६) में न्य यदर्शनके 'पूर्ववत् योग किया है और उसे तस्वार्थ भाग्यके नाम उतिरिक्त भादि अनुमानसूत्रका निरास करते समय केवल भाष्यकार किया है। यदि तस्त्रार्यश्लोकधार्तिक १६ ए. डी.के और वार्किकारका ही मत पूर्वपक्षरूपसे उपस्थित किया है। पहले रचा गया होता तो धवला और जयधनामे उसका न्यायवार्तिकतापर्यटोकाकारके अभिप्रायको अपने पूर्व भी उपयोग होना सम्भव था। तस्वार्थभाष्यके नामोल्लेख परमें शामिल नहीं करते । वाचस्पतिमिश्रने तात्पर्यटीका से भी मालूम होता है कि उस समय सत्त्वार्थ सूत्रपर दिग- है.४१ के लगभग बनाई थी। इससे भी विद्यमान्दके बरपरम्परामें भाज्य या वार्तिक कहा जाने वाला स्वार्थ. उक्त समय (ई.८१६) की पुष्टि होती है। यदि विद्यानन्द वार्तिक या सवार्यवार्तिकभाष्य नामकी टीका ही उपलब्ध का प्रन्यरचनाकाल के बाद होता तो मे हारपर्यभी विद्यानन्दकी तस्वार्यश्लोकवार्तिक मा सम्बार्यश्लोकवार्तिक- टीकाका उल्लेख किये बिना न रहते।" मलू होता है कि भाष्य नामक राका उस समय नहीं बन सकी थी। अन्यथा पंडतजीको कुछ भ्रान्ति हुई है और उनकी दृष्टि न्याय. न्यावृत्ति के लिये तस्वार्थभाष्य' के स्थानम 'तस्वार्थवार्तिक वार्तिकटीकाकार' शब्दपर नहीं गई जान पाती है। अन्यथा भा 'तस्वार्थवार्तिकभाष्य' ही नामोल्लेख किया जाता । इस उपर्युक अपमा निर्णय देने के लिये बाध्य न होते । यह के अतिरिक्त विद्यानन्दस्वामीने तत्वार्थश्लोकवार्तिक (पृ. उपरोक्त विवेचम और उदरणसं स्पष्ट ही है कि तस्वार्थ२.६) में न्यायवार्तिकटीकाकार वाचस्मतिमिश्रका 'न्याय- श्लोकवार्तिक में न्यायवार्तिकनारपर्यटीकाकार अभिप्रामका भी बार्तिकटीकाकार' शनों द्वारा नामोल्लेख किया है। जैसा निरसन किया गया है। ऐसी हालत में तस्वार्थश्लोकवार्तिककी किनिम्न उदरसे प्रकट है
रचना न्यायवार्तिकतापर्यटीका (2001)के बादकी सिब तदनेन न्यायवातिकटीकाकारव्याख्यानमनुमान- होती है और इस तरह विधानम्मका ग्रंथ-रचनाकानी. सूत्रस्य त्रिसत्रीकरणेन प्रत्याख्याते प्रतियत्तव्यमिति। .८१६न होकर ३५ के बगभग प्रारंभ होना चाहिए।
त० श्लोपृ.२०६। इस समयको माननेमे विद्यानन्दको अकलंकदेव (७२० से यहां स्पष्ट तौरसे 'न्यायवार्तिकटीकाकार' पाचस्पति ए.पी.) का साक्षात शिष्य होने, अवता ८१६ मिश्रका नामोल्लेख हुमाहै जिनका समय उनके 'भ्याय- ए.डी.) जयपवला (८३७ ए.टी.) और भादि पुराण सूचीनिवन्ध प्रन्धरसे ए.सी. सर्वसम्मत माना (८३८ ए.टी. में उनके उल्लेखकी संभावना करने आदि भाता है। यद्यपि योतकरके न्यायवासिकपर वाचस्पतिमिश्र का भी प्रसङ्ग नहीं पाता है। ने जो टीका लिखी है वह तात्पर्षटीका' या 'न्याययार्तिक- देखो, पृ० २०६, २८४, २८७, २८६ आदि । तापटीका' के नामसे अभिहितोतयापि भ्यायवार्तिक. '२ देखो, पृ. २८४, २५, २६७ आदि ।
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जगत्-रचना (लेखक-श्री कर्मानन्द)
यह जगत् भी एक अजीव पहेली है। प्रनादि कालमे बड़े ही मार्मिक शब्दों में खण्डन किया है। यही नहीं जीव इसको समझने का प्रयत्न कर रहा है परन्तु यह श्राज अपितु आज तक सब दार्शनिकोंने जगत रचना के विषयमें तक वैसी ही रहस्यमय बनी हुई है जैसी की हजारों लाखों युक्तियां दी हैं उन सबका उत्तर भी महत्वपूर्ण सुन्दर व वर्ष पहले थी। यद्यपि मात्र विज्ञानने पाश्रर्यजनक उन्नति सरल शब्दोंद्वारा दिया गया है। हम सबसे पहले अम्वेद की है परन्तु वह भी इस समस्याका हल नहीं कर सका को ही लेते हैं क्योंकि यही सबसे पुराना है। इसके प्रथम कि यह जगत् क्यों बना, कैसे बना और कब बना? मंडलका १६४ वां सूक्त दर्शनीय है। यह प्रथम मंडल ही मनरूपी वायुयानपर सवार होकर मनुष्यने बड़ी बडी इसमें सबसे अधिक पुरातन है। लम्बी उड़ानें भरीं परन्तु आज तक वह प्रायः कल्पना- बिनाभिचक्रमजरमभवनम ॥ ऋ० १-१६४-२ कौशल के सिवा और कुछ भी सिद्ध न कर सका। बड़े बड़े अर्थात्-यह बिनाभि रूप चक्रवाता सूर्य, अजरदार्शनिकोंने अपनी बुद्धिके चमत्कार दिखलाये लेकिन वे अमर, अविनाशी है। भागे चलकर इसी जगह लिखा है कि सब शुष्क तर्कवाद ही सिद्ध हुए, अन्त में उनको भी प्रस- सन्तदेव न शीर्यते स नाभिः॥ मन्त्र । फलताका मुख देखना पड़ा। जैनशास्त्र एक स्वरसे कहते हैं । यह सूर्यलोक सनातन (शाश्वन) है इसलिये इसका कि यह लोक किसीसे धारण किया हमा नहीं है और न कभी प्रभाव नहीं होता। वेद इतने पर ही सन्तोष नहीं किसीने इसको बनाया है, यह अनादि कालसे इसी प्रकार करता. अत: आगे कहता है किचला पा रहा है तथा अनन्त काल तक इसी प्रकार रहेगा, द्वादशारं नहि तज्जगय । मन्त्र" इपको ठहरने के लिये किसी ईश्वरादिके पाश्रयकी भाव- वारा मासरूपी मारे इसको बृद्ध नहीं बताते यह श्यकता नहीं है, यह नित्य, अजर अमर है, पर्यायरूपसे जैसा था वैसा ही अब है मथा भविष्य में भी इसी प्रकारका अवश्य अनित्य है । अर्थात् इसकी अवस्थाओं में प्रतिक्षण रहेगा। अर्थात् कालकी अपेक्षामे यह नित्य है। इन बातों परिवर्तन होता रहता है, परन्तु ये सूर्य प्रादि जातिरूपसे को सुनकर अनेक व्यक्तियोंके हृदय में यह शंका उत्पन होने हमेशा बने रहते हैं। अभिप्राय यह है कि ऐसा कभी नहीं लगी कि इस सूर्य मण्डल मेंसे प्रतिपल लाखों टन गर्मी होता कि यह सम्पूर्ण जगत् किसी समय परमाणु होजाये बाहर निकलती है. इस अवस्थामें अवश्य यह एक दिन
और पुन इसकी रचना हो या यह जगत किसी समय समाप्त हो जायगा। क्योंकि जिस खजानेमेंसे निस्यप्रति परमाणु रूप था और उसके पश्चात् यह जगत रूपमें बना व्यय होता हो तो वह अवश्य एक दिन खाली हो जायेगा। हो। यह अनादि निधन है, न यह कभी बना न इसका इसका वैज्ञानिक उत्तर अथर्ववेदमें दिया गया है कि-इसमें कभी नाश होगा।
से जो व्यय होता है उसकी पूर्ति प्रजापति ( प्राकृतिक वैदिक मत
नियम) द्वारा होती रहती हैयद्यपि भाज वैदिकधर्मी इस जगतकी उत्पत्ति मानते यत त उश्नं तत् प्रा पूरर्यात प्रजापतिः । हैं परन्तु हजारों वर्ष पूर्व वैदिकमहर्षियोंने जगत रचनाका
अथर्ववेद कां० १२ सू०१-६॥ * धृतः कृतो न केनापि हायं मिद्धो निराश्यः ।
इस प्रकार दुनियाकी सबसे पुरानी पुस्तकने इस जगत निरालम्बः शाश्वतश्च विहायसि पर स्थितः ॥ लोकप्र०१२ की नित्यताका समर्थन किया है। इसका अभिप्राय यह
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७०
अनेकान्त
वर्ष ६
नहीं है कि उस समय सभी एकमतके थे, उस समय भी अङ्ग देवा अस्य विसर्जने नाथ, अनेक सम्प्रदाय थे, अनेक विद्वान् जगतको उत्पन्न हुश्रा को वेद यन प्रा बभूव ।। मानते थे। उन माननेवालों वैदिक मुनियोंने अनेक ऐसे
ऋ. मं...सू. १२६६ प्रश्न किये हैं जिनका उत्तर आज तक भी जगत-रचना यह सब पमारा कहांमे आया इपका कथन विश्वास वादियों नहीं बन पड़ा है। वेद कहता है--श्रय सृष्टिकी पूर्वक कौन कर सकता है?' वे देव भी बादमें बने होंगे उत्पत्ति माननेवालो ! पार यह बताओ कि पृथ्वी, चांद, जिनकी तुम साक्षी देना चाहते हो। वेद भागे कहता है कि सूरज तथा असंख्य तारागणों पे पहले किपको उत्पन इयं विसृष्टिर्यत अबभूव यदि वा दधे यदि बा न । किया गया। क्योंकि यह सम्पूर्ण चीजें एक दूसरेके पाश्रय यो अस्याध्यक्ष परमे व्योमन मोअंग वेद यदि वान वेद।। से ठहर रही हैं। यदि इनमें एक भी न हो तो यह साग
मन्त्र ७ जगत गिर कर चकनाचूर हो जायेगा। अब यदि आप कहें यदि यह कहो कि सर्वज्ञ श्रादि गुण युक्त हिरण्यगर्भ कि पृथ्वी पहले बनी तो वह किसके श्राश्रयपर स्थित की प्रजापति इसकी रचनाके विषयमें जानते हैं। यह कहना भी गई, यदि कहो कि वह अपने ही प्राधारपर स्थित थी ग़लत है क्योंकि (सो न वेद) वह भी नहीं जानता, जब यह तो पारमाश्रय दोष पाता है। और अन्य सूर्य आदि उस जगत नित्य अजर अमर है इसकी बनावटको यह कैसे जान समय थे ही नहीं जिनके श्राकर्षणसे यह ठहर सकती-- सकता है। अथर्ववेदमे तो स्पष्ट शब्दोंमें घोषणा की गई है
कतरा पूर्वा कतरा पराय: कथाजातो कवयो को न विजानामि यतग परस्तात ।। कां. १०-७-४३ विवेद ॥ ऋ. मं. सू० १८५११
हिरण्यगर्भ प्रजापति कहता है कि मैं नहीं जानता कि इसीके माथ वेद एक महत्वपूर्ण प्रश्न और भी करता कौन प्रथम उत्पन्न हुआ । अतः यह कहना कि सर्वज्ञादि है वह है-क्यों, और कैसे, अर्थात् वेद कहता है कि यदि जानते हैं यह भी मिथ्या कल्पनामात्र है। आप इसका उत्तर नहीं दे सकते कि पहले कौन सी चीज पूर्वमीमांसा और जगत बनी है तो यही बतादो कि यह जगन क्यों बना है ! वैदिकदर्शनमें पूर्वमीमांपाका बहुत ऊँचा स्थान है। (कथाजात:) और कैसे बना है एवं कौनसा वह विद्वान है इसी दर्शनके सुप्रसिद्ध प्राचार्य कुमारित्जभट्टने श्लोकवार्तिक जिसने इसको बनते देखा है, अथवा किसी अन्य प्रमाणसे मे उपरोक्त वैदिक प्रश्नों को दोहराया है । आप लिखने हैं जाना है। तथा च वेद यह भी प्रश्न करता है कि यही
ज्ञाता च कस्तदा तस्य यो जनान बोधयिष्यति । बतादो कि अमुक व्यक्ति ने इस संमारको बनते हुए देखा है
उपलब्धेविना चैतत् कथमध्यवसीयताम् । जिमसे जनताको कुछ तो सन्तोष हो सके--
श्लो० वा० ५१४६ को ददर्श प्रथमं जायमानम || ऋ० १११६४४ प्रजापतिने जब सृष्टि रची उस सयय उसके देखने
यदि आप यह कहें कि क्या हुआ यदि हम इपको बाला कौन था जिसने सृष्टि बननेकी सूचना जनताको दी। नहीं जानते हमारे पूर्वज अथवा देवता आदि तो जानते क्योंकि विना सालाकारके उसका निश्चय कैसे होसकता है? होंगे। इसका उसर वेद स्वयं स्वर्णाक्षरों में लिखने योग्य
प्रवृत्ति कथमाद्या च जगतः संप्रतीयते । शब्दों द्वारा देता है कि न तो आज तक किसीने इसको
शरीरादेविना चास्य कथमिच्छापि सजने ॥४७॥ बनते देखा है और न किसी विद्वान् ने इसका समर्थन किया
शरीरायथ तस्य स्यात्तस्योत्पत्ति वै तत्कृता। है कि यह जगत बना है। जिन देवोंका पाप जिक्र करते हैं तद्वदन्यप्रसङ्गोऽपि नित्यं यदि तदिष्यते ।।४।। वे भी भापके सिद्धान्तानुसार पृथ्वी भादिके पश्चात् ही पृथिव्यादावनुतान्ने किम्मयं तत्पुनर्भवेत् । उत्पन्न हुए होंगे। फिर उन्होंने जगतको बनते हुए कैसे
प्राणिनां प्राय दुःखांश्चसिसृक्षास्य न युज्यते ॥४६॥ देख लिया?
सावनं चास्य धर्मादितदा किंचन विद्यते । कोश्रद्धावेदकहह प्रबोचत, कुतःआजाताकुत इयं विसृष्टिः नच निस्साधनः कर्ता कश्चित्सृजति किंचन ॥५०॥
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किरण ७८]
जगम चिना
अभावाचानुकम्प्यानां नानुकम्पास्य जायते। अशरीली होनेसे मुक्तामाकी तरह सुखी थीं । त: उन सृजेच शुभमेवेकमनुकम्प प्रयोजितः ॥५॥ पर दया करनेका विचार ही उत्पन्न नहीं होता । यदि अथाशुभाविनासृष्टिः स्थितिनोपपद्यते। भविष्यके दुखका रोना हो तो ईश्वरको चाहिये था इस श्रात्माधीनाभ्युगये हि भवेत किं नाम दुप्करम ।।५३ संसारको मानन्दमय बनाता अथवान बमाता । संसार नथा चापेक्षमाणस्य स्वातन्त्र्य प्रनिहन्यते । दुखमय बनाकर उसने जीवापर क्या दया की? यदि भाप जगञ्चामृजनस्तस्य कि नामष्टं न चिति ॥५४॥ यह कहें कि सुख और दुख सापेक्ष हैं अत: दुबके बिना प्रयोजनम्नुद्दिश्य न मन्दोपि प्रवर्तते। सुस्वका अनुभव ही नहीं हो सकता । यह भी गलत है। एवमेव प्रवृत्तिश्चैतन्यनास्य कि भवेत् ॥५॥ क्योंकि ईश्वर और मुतात्मा सुखी है तो क्या वे भी विना कोडार्थायां प्रवृतौ च विहन्येन कृतार्थता। हस्तके सुखका अनुभव नहीं करते। यदि कहो कि हां, तब बहन्यापारतायं च क्लेशो बहुतरो भवेत् ॥५६॥ तो हमारे प्राप में और ईश्वरमें कुछ भी अन्तर न रहा। यदि
अर्थात - जब कुछ भी नहीं था तो सृष्टि रचनेकी कहो नहीं तो अापका यह कयन गलत हुघा कि विना प्रथम इच्छा अथवा प्रवृत्ति कैसे हुई. जब कि भापके मता- दुखके सुखकी अनुभूति नहीं होती। अत: यह बनाश्री कि नुसार ईश्वर अशरीरी है और इच्छाके लिये शरीरी होना यदि भापकाश्विर इस दुखमय जगतको बनाकर अनन्त श्रापक है । यदि ईश्वरको शरीरी माना जाये तो यह जीवोंको दुखी न बनाता तो क्या उसके ईश्वरपने में बहा प्रश्न उठता है कि उस शरीरकी रचना किस तरहसे हुई। प्राता था। यद कहो कि जीवोंका कुछ प्रयोजन नहीं था यदि उससे पूर्वशरीरको इस शरीरका कारण माना जाये तो क्या ईश्वग्ने अपने स्वार्थसाधनके लिये जगत बनाया तो उस शरीरका कारण अन्य शरीरको मानना पडेगा, इस है-यदि ऐपा है तो ऐसे स्वार्थीको ईश्वर बहने के लिये प्रकार अनवस्यादि दोष पायेगा। यदि आप उम शरीरको कौन बुद्धिमान तय्यार होगा ? यदि हो कि यह तो कृतनित्य भी मानले तो वह शरीर पृथ्वी प्रादिके विना फिस कृत्य है उसका कुछ भी स्वार्य नहीं तो यह जगत उसने
आधारपर ठहरेगा । यदि उपरोक्त प्रश्नोंको हम न भी पचा क्यों ? क्योंकि हम देखते हैं कि मूर्यसे मूर्ख व्यक्ति उठावें तो भी यह नो सभी जानते हैं कि यह संसार दुःख- भी विमा प्रयोजन किमी कार्यको प्रारम्भ नहीं करता । मय है, इसीलिये बड़े बड़े राजा महाराजाओंने भी इसके य.दे कहो कि अपने स्वभाववश योंही जगत रचता है तो स्यागमे ही कल्याण समझा है । ऐसे दुःखमय जगतको उमको नानी किस प्रकार मिद्ध कर सकेंगे क्योंकि स्वभावक बनाने की इच्छा ईश्वर जैसे दयालुके मनमें उत्पन्न होना लिये ज्ञानकी कुछ भी प्रावश्यकता नहीं है । यदि हमको उमपर निर्दयताका कलंक लगाना है। यदि इच्छा हो भी श्वरका खेल मानों तो उसमें और पागलों में पया अन्तर गई तो भी इच्छामानसे किसीके मनोरथ पूर्ण होते नहीं रहेगा क्योंकि विमा प्रयोजन निस्सार क्रीड़ा तो उन्मत्त देखे गये । प्रत. इच्छापूर्तिके लिये साधनोंकी मावश्यकता भादि ही करते हुए रष्टिगत होते हैं। फिर क्रीका भी कैसी है परन्तु प्रक्षयावस्थामें साधनों का सर्वथा अभाव था। यदि अनन्न ब्रह्माण्डका उससे रचा जाना | एक तो इस विशाल जीवोंके धर्मादिको साधन माना जाये तो वे भी प्रलयकाल में संमारकी रचना ही महान दुखरूप है। फिर उमका रमण नहीं थे। यदि दुर्जन तोषन्यायमे यह मान मीकि धर्म भाति करना तथा काँका फैमक्षा करते रहमा तो महान् अधर्मादि शेष थे तो भी प्रष्ट धम्मदिमे किसी कार्यकी दुखमय है। मक्षा ऐमा खेल खेखकर वरने दुखके सिवा मिति नहीं होती। क्योंकि हम देखते हैं कि कारीगर क्या लाभ उठाया। जिस प्रकार जगतरचनाको अवस्था कितना ही चतुर क्यों न हो परन्तु वह ष्ट साधनके विना यही हाल प्रलयका भी है। उसका भी कुछ प्रयोजन प्राप इच्छामावसे कार्य नहीं कर सकता । यदि यह कहो कि सिर नहीं कर सकते। यदि यह कहो कि धिरचनामें वेद रिवग्ने जीवापर दयाभाष जगत रचाहैतो दया तो प्रमाण है तो इसका उत्तर कुमारिलमट्टने बरे ही मनो दुखोंको देखकर होती, परन्तु प्रलयकाल में मामा मोहक शब्दों में दिया है। आप कहते है कि
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अनेकान्त
[वर्ष ६
नव तद्वचनेनैषां प्रतिपत्तिः सुनिश्चिता।
अर्थान--यह अवमूल और प्रधः शाखा वाला संसार अमृष्टावध्यमो ब्रूयादात्मेश्वर्य प्रकाशनात् ।।६०॥ रूपी वृक्षको अव्यय (सनातन) नित्य कहा है। क्योंकि न
वेदका प्रमाण इस विषय में नहीं माना जा सकता। तो इसके प्रारम्भका ज्ञान होता है और न इसके अम्तका क्योंकि वेदश्वरप्रणीत हैं संभव है विना बनाये ही ईश्वरने अनुमान किया जा सकता है। प्रत इसका जो स्वरूप दीख अपनी प्रशंसाके लिये वे वाक्य लिख दिये हों जिनमें विश्व रहा है यदि ज्ञानचक्षसे देखा जाये तो वह मिथ्या सिद्ध बमानेका कथन है। यदि कहो कि वेद नित्य हैं तो- होता है। अत: इसको प्रादि-अन्त-रहित नित्य ही कहना
यदि प्रागप्यसो तस्मादर्थासीन तेनसः। चाहिये। सम्बन्ध इति तस्यान्यस्तदर्थोन्यप्ररोचना ।। ६२ ।।
महाभारत पया सृष्टिसे पूर्व भी वेद विद्यमान थे ? यदि ऐसा है
महाभारतमें महर्षिन्यासजीने इसी विषयको विस्तार तो वेदों में कहे हुए पृथ्वी प्रादि पदार्थोंके साथ वेदोंका
पूर्वक लिखा है तथा च सुन्दर शब्दों में इसकी नित्यताका सम्बन्ध था या नहीं। यदि था तो उन कार्यरूप पृथ्वी
वर्णन किया है। माविका होना उस समय सिद्ध होगया जब वेद थे। अत:
सदापर्णः सदापुरः शुभाशुभफदोदयः । वेदोंकी तरह सम्पूर्ण जगत भी नित्य सिद्ध हो गया। यदि
आजीव्यमर्वभूतानां ब्रह्मवृक्षः सनातनः ॥ कहो कि सम्बन्ध नहीं था तो नित्यवेदोंके साथ नवीन
-महाभारत अश्वमेधपर्व अ०३५-३७-१४ पदार्थका सम्बन्ध किस प्रकार हो सकता है। अर्थात नित्य
महाभारतकारने इस जगतरूपी वृक्षको सदा पुष्प और वेदों में भनित्य पदार्थोंका वर्णन कैसे हो सकता है। अत:
सदापर्ण एवं सनातन प्रादि शब्दों द्वारा अलकृत करके जिन मन्त्रों में सृष्टिरपनाका कथन है वह अर्थवाद है।
सम्पूर्ण विवादोंका फैसला कर दिया । क्योंकि उन्होने अर्थात वह कवियों की अपने देवताकी प्रशंसा मात्र है।
स्पष्ट कह दिया कि इस वृक्षके हन चान्द तारे आदि फूल वास्तव में वैदिकसाहित्य में जगतरचनाका खण्डन किया
फलोंसे हमेशा प्रफुलित रहता है। यह सनातन है न कभी गया है। उन श्रतियों का समन्वय भी तभी हो सकता है
बना और न कभी बिगड़ेगा। यही वैदिक मान्यता है यही जब हम उन श्रुतियोंको स्तुतिमात्र माने जिनमें सृष्टिरचना
भारतीय दर्शनका सर्वतन्त्र सिद्धान्त है। का कथन है।
जिन अति भादिमें जगत् रचनाका आभास प्रतीत उपनिषद और जगत
होता है वे सब अर्थवाद स्तुतिपरक मात्र हैं। वैदिक साहित्यमें उपनिषदोंका स्थान वेदोंके समान ही है। उसमें लिखा है कि--
बौद्धदर्शन ऊर्ध्वमूलोऽवाक शाख एषोश्वत्थः सनातनः। बौद्धदर्शन भी विश्वकी निस्यताका समर्थन प्रबल
कठोपनिषद ३-२-१ युक्तियों द्वारा करता है। बौददर्शनके महाविद्वान श्रीशान्तियहां संसार रूपी वृक्षको स्पष्ट शब्दों में सनातन कहा रक्षितजीने अपने तस्वसंग्रह नामक प्रथमें सृष्टि कर्ताका
खण्डन उन अकाट्य युक्तियोंसे किया है कि जिनका उत्सर गीता
असंभव है। आप लिखते हैं कि प्रत्येक अनुमानकी सिद्धि सनातनधर्मका सर्वमान्य ग्रंथ श्रीमद्भगवत गीतामें के लिये अन्वय और म्यतिरेककी आवश्यक्ता है। जैसे जहां भी संसारको इनकी उपमा दी है।
जहां अग्नि है वहां वहां धुवां है रसोईघरकी तरह। यह तो ऊर्ध्वमूलमधः शाखमश्वस्थं प्राहुरव्ययम् । हुमा अन्वय, और जहाँ जहां अग्नि नहीं है वहीं वहाँ धुवाँ
अ०१५-१
भी नहीं हैं जैसे तालाबादिमें, यह हुमा व्यतिरेक । इन न रूपमस्येह तथोपलभ्यते ।
दानोंसे यह सिद्ध हुआ कि पिके कारणसे धुर्क होता है। नान्तोन चादिन च संप्रतिष्ठा ।। ३ ।। परन्तु श्राप लोग ईश्वरको सर्वव्यापक मानते हो प्रतः
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किरण ७-01
छन्वेषी खहरचारियोंसे
७३
उसमें व्यतिरेक दृष्टान्तका प्रभाव है इस लिये उसका कर्ता- चाहिये। परन्तु ऐसा नहीं होता, अत: यह क्रमविकाश पन सिद्ध नहीं हो सकता। यदि कर्तावादी सामान्य रूपसे भी ईश्वरके कर्तापनका खंडन करता है। इत्यादि सैंकड़ों कर्मापन सिद्ध करें तो कहते हैं इसमें हमको कुछ प्रापास यक्ति देकर मापने जगत-रचनावादका प्रवल संडन किया नहीं है, क्योंकि हम भी जीवोंके कादिको कर्ता मानते
किया है। जो विद्वान उन युक्तियोंका रसास्वादन करना हीहैं। यदि आप उनका भी कर्ता ईश्वरको सिद्ध करोगे चाहे उनको उस ग्रंथका अवलोकन करना चाहिये। तो सिद्धसाधनमें दोष होगा। तथा जो स्वयं उत्पत्तिवाला
*अन्वय-व्यतिरेकाभ्या तत्कार्य यस्य निश्चितम् । न हो वह अन्यको उत्पन्न नहीं कर सकता यह नियम है निश्यस्तस्य तदृष्टावतिन्यायो व्यवस्थित: ॥ ६२॥ जिम प्रकार भाकाशका फूल किसी पदार्थको नहीं बना। बुद्धिमत्पूर्वकत्वं च मामान्येन यदीष्यते । सकता। यदि हम रेश्वरको कर्ता भी मानलें तो उसके तत्र नैव ववादोनो वैश्वरूप्यं ही कर्मजम् ॥८० ॥ सर्वव्यापक होने सम्पूर्ण पदार्थ एक साथ उत्पन्न होने
नेश्वरा जन्मिना हेतुरुतत्तिविकलत्वतः । चाहिये, सब मोलमोंमें सब जगह एकसा ही पदार्थ बनने
गगनाम्भोजकत्सर्वमन्यथा युगपद् भवेत् ॥८६॥ छद्मवेषी खद्दरधारियोंसे :-~* ~-(ले०-श्री पं० काशीराम शर्मा 'प्रफुल्लित' )
जो अपने पथको भूल चले, उनसे कविको कुछ कहना है ! जो देश - प्रेमका छद्म धार ,
उनकी बगुला-भक्ती करती-- मर - मिटने का फतवा देते ।
' मानवता पर जब चोट एक । कागज़ की काली बहरीपर
कम्पित हो उठते शील-सस्य , भाजादी की मैय्या खेते ।
साश्चर्य देखते एकमेक ! पर, वे दोजकके की है, जिनका प्रपंच ही गहना है! पर-हित की पालिश करके निज-स्वारथका जामा पहना है ! जोधपने पथको भूल चले, उनसे कविको कुछ कहना है! जो अपने पथको भूल चले, उनसे कविको कुछ कहना है ! बाहर तो वे कुछ और, और
जब तक नहिं होते दूर-दूर वे, अन्तरसम जिनका काला है।
तब तक होती बरबादी ! बाहर दिखते मकरन्द मम्जु ,
ऐसे छलियोंके हाथों पद-- अन्दर उनके विष - हाला है।
मिल पाएगी नहिं आज़ादी ! इस कारण, भाज गुलामीमें हम सबको पढ़ता रहना है ! अमृतमें विष भर कर पीना, जीवनकी शूम्य कल्पना है ! जो अपने पथको भूल चले, उनसे कविको कुछ कहना है ! जो अपने पथको भूल चले, उनसे कविको कुछ कहना है ! जो विश्व-विदित होनेकी धुन
है नम्र निवेदन उनले यह , में ही उधेर - बुन करते हैं।
वे पोजीशनका ध्यान करें ! भारतके वे मानव कृतघ्न ,
अन्याय - अनीतीये पल कर-- जो घरमें हो घुन करते हैं।
मत कुत्तेकी वे मौत मरें ! धिक् , ऐसे पूत-कपूतोंमे मौको पता दुख सहना है! कुछ करें अहिंसा-सत्पथपर, नहि, जीवच व्यर्थ जरुपना है ! जो अपने पथको भूल चले, उनसे कविको कुछ कहना है! जो अपने पथको भूल चले, उनसे कविको कुछ कहना है! सबको देते उपदेश, किन्तु ,
मेरा वक्तव्य यही, उनसे , अपने पर जिनको खाचारी !
- वे सीधे पथ पर भा जाएँ ! ढोंगी, लम्पट, स्वार्थान्ध, धूर्त ,
अपनी काली करतूतों से-- कुछ ऐसे भी खहरधारी !!
मों को लजित न बना पाएँ ! चारित्र हीनताके कल से भी जिनको डर-भय ना! हे राष्ट्रदूत, हो सावधान ! घातकसे किसको लहना है ! जो अपने पथको भूल चने, उनसे कविको कुछ कहना है! जो अपने पथको भूल चले, उनसे ही सब कुछ कहना है !
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अनेकान्त
[ वर्ष ६
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हुश्रा जाता उस वक्त तक प्रयोजनकी सिद्धि नहीं हो पाती। यह सर्वेमर्वा है इसके बिना वे अपने जीवनकी एक घड़ी भी ___ इस प्रकार जब योग्य साधनों द्वारा ममताभाव जागृत जाना अपने लिये हानिकारक समझते हैं-समता उनका होता है तब निःसङ्ग वृत्तिका मार्ग सूझता है। वास्तवमें सर्वस्व है। श्रीकुलभद्राचार्य सारममुच्चयमे फर्माते हैं:समता ही सुखका मूल है, समता रखनेवाले पर कभी समता सर्वभूतेष यः करोति सुमानसः। दुःख नहीं पाता; क्यों कि वस्तुस्वभावका यथार्थ ज्ञान होने ममत्वभाव-निमुक्तो यात्यसौ पदमव्ययम् । से उसे दुःख दुःख रूप नहीं लगता। जो श्राध्यात्मिक मार्ग अर्थात् -- जो मजन सुमनधारी सर्व प्राणी मात्रमें ममता के पथिक बनने के इच्छुक हैं उनके लिये समताका विषय भाव रखता और ममत्वभावको छोड़ता है, वह अविनाशी सबसे अधिक श्रावश्यक है, समताके विना प्रत्येक धर्मक्रिया पदको पाता है। श्रीकुंदकुंदचार्य फर्माते हैं:जप, तप उपवास आदि बहुत ही अल्प फलके देने वाली समसत्तुबधुवग्गो समसुह-दुक्खो पसंम-णिंद-समो। है। जब कोई कार्य समता सहित किया जाता है तो उम समलोट्ठ-कंचणो पुण जीविदमरणे समो समणो ।। कार्यमें कुछ इस प्रकारका सौंदर्य तथा मधुरता बाजानी है अर्थात्-जो शत्रु तथा मित्र वर्गको समभावसे देखते कि जिमसे उसमें एक प्रकारका अपूर्व आनन्द अनुभवमें हैं जो सुख व दुःखमें समभाव के धारी हैं, जो प्रशंसा तथा
आने लगता है। यह अपूर्व श्रानन्द जिव्हासे वर्णन नहीं निंदा किये जाने पर सम भाव रखते हैं, जो सुवर्ण और किया जा सकता, मिसरीके यथार्थ स्वादको बचनो द्वारा कंकरको एक दृष्टिसे देखते हैं, जिनके लिये जाना तथा
ह सकता है । मिसराका डलीका वय अपना मरना एक समान है, वही श्रमण हैं। जिव्हापर रख कर और उसे चखकर ही कोई उसके स्वाद मोहरूपी अग्निकोशात करने के लिये, संयमरूपी लक्ष्मी को जानता है, उसी प्रकार समता द्वारा प्राप्त हुए श्रानन्दको को प्राप्त करने के लिये, रागरूपी महावन को काट डालनेके उस रसके रमिक अनुभवी योगी ही जानते है-वह अंतरा- लिये समताभावका धारण करना ही एक उपाय है। ममता नन्द अवर्णनीय और अनिर्वचनीय है-अनुभवगम्य है। भावसे ही केवलज्ञानकी प्राति होती है, समभावसे ही अर्हत
समताके द्वारा हृदयकी शुद्धि होती है, उसमें जो पद होता है। जब एक संयमी योगी समताभावरूपी सूर्य की मलीन वासनायें अपना अड्डा जमाये रहती है, कषायरूप किरणो द्वारा रागादि अंधकार के समूहको नष्ट कर देता है कडा करकट भरा हुआ होता है वह समता बिना निकलता तब ही वह अपने प्रात्मामें परमानन्द स्वरूपको देखता है। नहीं, और जब तक हृदप-मंदिर शुद्ध और पवित्र नहीं होता, अनादिकालसे चला आया श्रात्माके साथ कर्म संबन्ध भी हम उसमें शुद्ध चिदानंदरूप श्रात्मदेवको स्थापित नही कर समता भावकी प्राप्ति होने पर ही श्रात्मासे विच्छेदको प्राप्त सकते और न हमारे ध्येयकी पूर्ति दी हो पाती है। मोक्षा- कर पृथक होजाता है । वीरभगवानने समताभावको ही उत्तम भिलाषियोंके लिये समताभाव प्राप्त करना बड़ा जरूरी है। ध्यान कहा है, उसीकी प्राप्तिके हेतु सब व्रत, तप, संयम, कोई कहे कि अाजकल मोक्ष इस क्षेत्रसे होता नहीं, समता उपवास स्वाध्याय आदि किये जाते हैं। ध्यानका श्राधार की क्या आवश्यक है ? इसके उत्तरमें इतना ही कहना है समभाव पर है, ममभावका श्राधार ध्यान पर है। श्रीशुभकि इस समय इन्द्रियोंकी अशुभ प्रवृत्तिको रोक कर उनको चन्द्र प्राचार्य ज्ञानार्णवमें लिखते हैं :शुभप्रवृत्तिमें लगाना अपने जीवनको श्रानन्दमय बनाना सौधौत्संगे स्मशाने स्तुति शरन विधौ कर्द समताके द्वारा ही हो सकता है, समताका अभ्यास कर पल्यके काण्ठकाने दृषदि शशिमणौ चर्मचीनांशुकेषु । अपने जीवनको जितना ऊंचा और आनन्दमय इस क्षेत्रमें शीर्णाङ्के दिव्यनार्यामसमशमवशाद्यस्य चित्तं विकल्पैहम बना सकते है उतना तो बनावें, यह अभ्यास हमारा नलीहं सोऽयमेकः कलयति कुशलःसाम्यलीलाविलासं॥निष्फल नहीं जाता भविष्य जीवनका निर्माण बहुत कुछ अर्थात्-जिस महात्माका चित्त महलोको या शमशान उसके श्राधार पर होता है। कामकषायको जीतनेपर ही को देखकर स्तुति वा निदा किये जाने पर, कीचड़ व केशर समता जाग्रत होती है-सम्यक्रष्टि महात्माओंके लिये तो से छिड़ के जाने पर, पल्यंक शय्या व काँटोंपर लिटाये जाने
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किरण ७-८)
सुख और समता
पर पाषाण और चंद्रक्रान्तिमणिके निकराने पर, चर्म है और उसका चित्त काबूम हो जाता है। जिम ममय यह व चौनके रेशमी वस्त्रोके दिये जाने पर, क्षीण शरीर व श्रात्मा अपनेको सर्वपर्यायोस व परद्रव्योंसे विलक्षण निश्चय सुन्दर स्त्रीके देखने पर, अपूर्व शान्तभावके प्रतापसे राग- करता है, उसी समय समताभाव जागृत होता है। यह द्वेष विकल्पोंको स्पर्श नहीं करता है वही चतुर मुनि समता- समताभ व ही ध्यान की सिद्धिका एकमात्र उपाय है। जब भावके श्रानन्दको अनुभव करता है। श्रीपश्यनंदिमुनि सम्यक् ज्ञान के प्रभावसे रागद्वेष मोहका अभाव होता है. एकत्व सप्तति में निर्देश करते हैं:
ममताभाव ज.गृन होता है तब आत्मामे रमण करनेका साम्यं मन्दोध निर्माणं शाश्वदानन्दमंदिरम। उत्साह बढ़ता है, सहज सुखका साधन बन जाना है, स्वानुमाम्यं शुद्धात्मनो रूपं द्वारे मोक्षकसमनः॥ भव जागृत होजाना है जिमके प्रनापसे मुग्व-शान्तिका लाभ
अर्थात्-समताभाव ही सम्यक्शानको रखनेवाला है। होता है. अात्मघन बढ़ता है, कर्मका मैल करता है और यह समनामान ही सहजानंदका अविनाशी मंदिर है। ममता
जीवन परम स्वरर्णमय होनाता है। ऐसा जान कर स्वहिन भाव शुद्धात्माका स्वभाव है, यह मोक्षका एक द्वार है।
बाछकोका कर्तव्य है कि वे जिनेन्द्र-प्रणीत परमागमके जो रागद्वेषकी प्रवृनिको गेकना चाहते हैं उनके लिये
अभ्यामसे सम्यक्ज्ञानको प्राप्त कर अपनेमें समताभावको
जागृत करें । जो गग-ष-मोह-ममताको त्याग कर समताको समताभावकी प्राप्ति परमावश्यक है, जो महात्मा समभाव की भावना प्रकट करता है उनकी श्राशाएँ शीघ्र ही नाशका ।
श्रानाता है वही श्रात्मदर्शन पाता है और वही मोक्ष मुखकी प्राप्त हो जाती है, उसका अज्ञान क्षणमात्रम नष्ट हो जाता
बानगी इम मनुष्य जन्ममें चम्ब लेता है।
भारतीय इतिहासका जैनयुग (ले०-बा० ज्योतिप्रसाद जैन विशारद एम० ए०, L L B. )
इतिहास जातीय-जीवनके अतीतका सर्वाङ्गीण प्रति- मामाजिक संस्थाओं, धर्म, सभ्यता, साहित्य एवं कला विम्ब होता है। अतीत मेंसे ही वर्तमानका जन्म होता है। प्रादिका नियमित, काल क्रमानुसार, बहुत कुछ निधिरा दोनोंका परस्पर इतना घनिष्ट सम्बंध है कि बिना प्रतीतकी इतिहास ( gular History ) उपलब्ध है। पथार्थ जानकारीके वर्तमानका वास्तविक स्वरूप समझना शुद्ध ऐतिहासिक युगके प्रारम्भ कालसे पूर्वका कई कठिन ही नहीं, प्रायः असम्भव है। प्रतः जातीय उमतिके सहस वर्षका प्रनिश्रित समय ऐसा है जिसके अन्तर्गत होने हित समाजशाबके प्रधान प्रजातीय इतिहासका ज्ञान वाले अनेक प्रसिद्ध पुरुषों, महत्वपूर्ण घटनामों, धर्म, परमावश्यक है।
सभ्यता प्रादिके विषय में यद्यपि जातीय अनुश्रुति, तित्व, ऐतिहासिक सम्वेषण एवं अध्ययनकी सुगमताके जाति विज्ञान, मानुषमिति कपासमिति, भूविज्ञान इत्यादि खिये इतिहासका विमिन भागों में विभककर लिया जाता द्वारा अनेक ज्ञातव्य बातोंका शान तो प्रास हो जाता, है। इसी कारण भारतवर्ष अपना भारतीय जातिका इति- किन्तु कोई नियमितता और कालकमकी निखिता नहीं हास भी विविध युगाम बिमकमा मिलता
है। उस काल-सम्बन्धी विहास चना, सन्दिग्ध सर्व प्रथम, लगभग तीन हजार वर्षका यह 'शुद्ध अनिश्चित कोटिका होनेसे, 'पछव अथवा अनियमित ऐतिहासिक काम जिसके अन्तर्गत राज्य सत्ताचा इतिहास ( Proto History) कहलाता।
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अनेकान्त
वर्ष ६
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उससे भी पूर्वका काल शुद्ध प्रागैतिहासिक ( Pre• टन प्रादि पाश्चात्य विद्वानोंने किया था और उनका अनु. historic) है और इतिहासकी परिधिके बाहिर है। करण भारतीय विद्वान भाज तक करते भारहे हैं। शुद्ध ऐतिहासिक कालके भी तीन विभाग किये जाते हैं- किन्तु २० वीं शताब्दीके विकसित ज्ञान, बढ़े हुए
(6) प्राचीन युग, जिसका वर्णन बौद्ध-हिन्दुयुग, अध्ययन तथा नवीन खोगोंक प्राधारपर इस ढांचेमें बहुत अथवा केवल बौन्डयुग करके भी किया जाता है। यह युग कुछ हेर फेर हुमा है। प्रागैतिहासिक कालके विशेषज्ञोंका नियमित इतिहासके प्रारम्भ कालसे लगा कर मुसलमानों मत है कि भारतवर्ष में मनुष्यका अस्तित्व अन्य देशों द्वारा भारत विजय तक चलता है. सन् की १२ वी अपेक्षा सबसे पहिलेसे पाया जाता है। पार्यों भारत शताब्दी तक)।
प्रवेशसे पूर्व कमसे कम एक इजार वर्ष पूर्व-द्राविड जाति (२) मध्य युग-जिसे मुस्लिम युग भी कहते हैं, पड़ोसी देशोपे आकर इस देशमें बसी थी और द्राविड़ोंके प्राचीन युगकी समाप्तिसे प्रारम्भ होकर अगरेजों की भारत मानेसे भी पहिले मानव, यश, अक्ष. नाग, विद्याधर भादि विजय तक चलता है (१८वीं शताब्दीके मध्य तक)। मनुष्य-जातियां इस देशमें बसी हुई थीं। उनकी मत
(३) पर्वाचीन युग अथवा भांग्लयुग मारेजोंकी नागरिक सभ्यता तथा सुविकसित धार्मिक विचारोंके भारत विजयके साथ प्रारंभ होता है।
निर्देश हरप्पा, महेन्जोदडो प्रभृति पुरातत्व तथा प्राचीन साधारणतया, भारतीय इतिहासकी पाठ्य पुस्तकोमें भारतीय अनुश्रुतिमें पर्याप्त मिलते हैं। सर्व प्रथम प्रागैतिहासिक कालीन पूर्व पाषाण युग, उत्तर ईस्वी पूर्व तीनसे चार हजार वर्षों के बीच आर्य लोगों पाषाणयुग, ताम्रयुग, लोहयुग, द्राविड जातिका भारत ने पश्चिमोत्तर प्रान्तोंसे भारतमें प्रवेश किया। यहां बसनेके प्रवेश तथा उमको सभ्यता, भार्योंका भारतप्रवेश और लगभग एक हजार वर्ष बाद वेदोंकी रचना की, उसके कुछ वैदिक सभ्यता प्रादिका अति संक्षिप्त वर्णन करनेके उप- समय बाद रामायण वर्णित घटनायें घटी, और सन् ईस्वी रान्त रामायण तथा महाभारतके आधार पर कल्पित पूर्व १५०० के नगभग प्रसिद्ध महाभारत युद्ध हुना। यह पौराणिक युग अथवा 'महाकाव्य-काल' (Epic Age) युद्ध वैदिक सभ्यता और वैदिक आर्य-राज्यसत्ताओंके हाम का वर्णन होता है। और उसके ठीक बाद भारतवर्षके का सूचक था। नियमित इतिहासका प्रारंभ बौद्धयुगके साथ २ कर दिया भारतवर्षके नियमित इतिहासका, उसके प्राचीन युग जाता है। महात्मा बुद्धके समयकी राजनैतिक तथा सामा- का वास्तविक प्रारंभ महाभारत युद्धके उपरान्त हो जाता जिक परिस्थिति, उनका जीवन-चरित्र, उपदेश और प्रभाव है। युधिष्ठरके वंशजोंका इतिहास, उत्तर वैदिक साहित्य मगध साम्राज्यका उत्कर्ष, सिकार महान्का आक्रमण, का निर्माण, ब्रह्मवादी जनोंकी उपनिषद विचारधारा, सम्राट अशोकके द्वारा बौधर्मप्रचार, मगधराज्यकी भव. सोलह महजन पर्दोका उदय और परस्पर द्वन्द, अन्तमें नति, शुज कन्व तथा गुप्त राजाँके शासनकाल में आंशिक मगधकी विजय हमें बुद्ध जन्मके समय तक पहुँचा देती ब्राह्मणपुनरुद्धार और शक हूण पाक्रान्ताओंका वृतान्त देते है। इससे मागेका इतिहास पूर्ववत् चलता है। हुएई. सन् की ७वीं शताब्दीमें बौद्ध राजा हर्षवर्धनके इस प्रकार स्वी पूर्व १४०० से सन् 'स्वी १२०० साथ बौद्धयुग (Bubdhistic Period) की समाप्ति तकका लगभग २६०० वर्षका लम्बा काल भारतीय इतिहो जाती है। तदुपरान्त राजपूत राज्योंका उदय तथा हासका प्राचीन युग माना जाता है। अनेक विद्वान इसके संक्षिप्त इतिवृत्त बतलाते हुए १२ वीं शताब्दीके अन्तमें प्रादिके ८०.व अन्तके १०० वर्षोंको प्रधानतया हिन्दु मुहम्मद गौरी द्वारा भारत विजयके साथ साथ भारतीय तथा बीचके लगभग चौदह सौ वर्षाको प्रधानतया बौद्धइतिहासका प्राचीन युग समाप्त होजाता है।
I Pre-Historia India P. C Mitra, P. 106. भारतवर्षके अधिकांश इतिहास-प्रन्योंका यही ढांचा,
1 2 Pargitor- inci e t Indian Historical tradiहै। इसका श्रीगणेश ११वीं शताब्दी प्रारंभमें एनफिम्स- tion: Dr. K. P.Jayaswal, I handarkar &c.
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किरण ७८]
भारतीय इतिहासका जैनयुग
मयी देखते हैं। कुछ एक तो सारे प्राचीन युगको मुख्यतया भारतवर्ष विन्ध्य पर्वतमेस्खला द्वारा उत्तरी भारत तथा बौष्टिपे ही निरूपण करते है।
दक्षिणी भारत ऐसे दो विभागोंमें विभक्त है। इन दोनों यहाँ प्रश्न होता है कि सभ्यता एवं संस्कृति फेवल प्रदेशोंका इतिहास प्राचीनकालके अधिकांशमें एक दूसरेसे अथवा अधिकांशमें बौद्धमयी ही थी? क्या उस युगमें जैन प्रायः पृथक तथा स्वतन्त्र ही चला है। प्रस्तु दोनों प्रान्तों संस्कृति की कोई सत्ता ही न थी, उसका कोई प्रभाव क्या का पृषक २ विवेचन ही अधिक उपयुक्त होगा। कभी भी नहीं रहा क्या भारतीय इतिहाममें कभी कोई यह तो प्रायः निश्चित है कि भारतीय इतिहासके 'जैनयुग' नहीं हा? क्या वास्तव में प्राचीन भारतीय इति- प्राचीन या
ma . हासके उक्त बहभागको 'बौद्धयुग' का नाम देना संगत तथा ही धर्म निशेषरूपसे प्रचलित थे । और हममें भी कोई ऐतिहासिक सत्य है?
सन्देह नहीं कि बौद्ध धर्मकी उत्पत्ति स्विी पूर्व छठी इन प्रश्नोंका उत्तर खोजनेसे पूर्व एक और प्रश्न शमी
शताब्दी में महात्मा बुद्ध द्वारा हुई थी। उससे पूर्व स्वयं
HAIRAT होना है कि ऐतिहासिक युगविभागाका मात्र बौद्ध अनुभति एवं साहित्यके अनुसार इस धर्मका कोई प्राचीन, मध्य, अर्वाचीन-युग ही न कह कर हिन्दु, बौद्ध, अस्तित्व न था। कोई स्वतन्त्र प्रमाण भी इस मतके ममत्मान, बांग्ल भादि संस्कृत अथवा धर्मसूचक नाम ति पल: क्यों दिये जाते हैं।
हिन्दु धर्म, जिमका पूर्वरूप वैदिक था तथा उत्तर रूप वास्तव में जिस युगमें जिप संस्कृतिको सर्वाधिक महत्ता पौराणिक हिन्दु धर्म हुआ, सन् ईस्वी पूर्व जगभग ३ से प्रभाव एवं व्यापकता रही हो, प्रसिद्ध प्रसिद्ध व्यक्तियों एवं ४ हजार वर्षके बीच भारत में प्रविष्ट मार्य जातिके धर्म और प्रमुख राज्यवंशोसे जिसे प्रोत्साहन, सहायता एवं भाश्रय संस्कृतिसं संबन्धित था। और बौद्ध धर्मकी उत्पत्ति के बहुत मिला हो जनसाधारणके जीवन में जो सर्वाधिक श्रोतप्रोत पहिलेसे यह इस देश में विद्यमान था। रही हो, जातीय साहित्य, कलाओं, राजनीति, समाज
प्रबरहा जैनधर्म । गत पचास वर्षकी बोजों तथा ग्यवस्था, जनताके रहन-सहन, खान-पान, भाचार-विचार,
अध्ययनके आधार पर भाज प्रायः मर्घ ही पाश्चात्य एघ रीति-रिवाजों पर जिस संस्कृतिने विवक्षित युगमें सर्वा
पौर्वात्य प्राच्यविद्याविशारद इस विषयमे एकमत हैं कि धिक प्रभाव डाला हो उसी सस्कृतिका निर्देशपरक नाम
जैनधर्म बौद्धधर्मसे सर्वथा भिन्न, उससे अति प्राचीन, एक उक्त ऐतिहासिक युगको देदिया जाता है, और वैया करना
स्वतन्त्र धर्म है। वैदिक धर्मके साथ साथ वह इस देशमें युक्तियुक्त भी है।
नियमित इतिहासकालके प्रारंभके बहुत समय पूर्वसे प्रच. सी बात यह है कि भारतवर्ष सदैवसे एक धर्मप्राण
लित रहा है, और संभवत: पार्योंके भारत प्रवेशसे पूर्व भी देश रहा है। जितनी संस्कृतिये यहाँ जनमी और पनी
इस देशमे प्रचलित था। यह शुद्ध भारतीय धर्मो में जो उनमेसे प्रत्येकका किसी न किसी धर्मविशेषके साथ संबन्ध
मौज तक प्रचलित है, सबसे प्राचीन है। रहा है। धर्म और संस्कृतिका संबंध यहां पविनाभाषी था,
इस प्रकार, महाभारत युद्ध के उपरान्त अर्थात् भारतीय इसी कारण भिक्ष भिम धमौके नामोसे ही भिक भिन्न
इतिहासके प्राचीन युगके प्रारम्भमें इस देश में केवल दो संस्कृतिये प्रसिद्ध हुई, यथा वात्स्य, श्रमण अथवा जैन,
धर्म-वैदिक और जैन ही विशेषत: प्रचलित थे, तपा बौद्ध, हिन्दु-वैविक अथवा पौराणिक, मुसलिम इत्यादि।
बौद्ध धर्मका उस समय कोई अस्तित्व न था। अब देखना यह है कि प्राचीन भारतके उस पढ़ाई सहस वर्षके लम्बे कालमें किस संस्कृति तथा धर्मका इस "
•Studies in South Indian Jainism Pt.
IP.12, by M.S Rama Swami Ayanदेशमें सर्वाधिक व्यापक प्रभाव एवं प्रसार रहा और उप
gar & BSheshagiri Rao.& Intro. बन्ध ऐतिहासिक प्रमाण कहाँ तक उस बातकी पुष्टि to Heart of Jainism P.XIV-Mrs.
Sinclair.
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अनेकान्त
[वर्ष ६
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महाभारतसे ठीक पूर्वका समय उत्तरी भारत में परिमो- भिकारी राजा परीक्षितको नागोंके हाथ अपने प्राण खोने तर वैदिक, याझिक अथवा प्रामण संस्कतिके चरमोत्कर्षका हरे, परीक्षितके पुत्र जन्मेजयको सारा जीवम नागोके साथ युग था, किन्तु महाभारतके विनाशकारी युद्धने समस्त . सड़ते बीता, और अश्वमे उनके वंशज निधनुको तथा अन्य वैदिक राज्यों को परस्परमें बना कर शक्ति एवं श्रीहीन कर कुरु-पाचाल-देोके नागराजको स्वदेश छोड़कर पूर्वस्थ दिया। एक प्रबल क्रान्ति हुई, सैकड़ों, सम्भवतः सहस्रों कौशाम्बी श्रादिमें शरण लेनी पड़ी' । परिणामस्वरूप वोंसे दबा हुई, दबाई हुई बास्य-सत्ता देशमे सर्वत्र सिर हरितनागपुर, अहिच्छेत्र, मथुरा, पद्मावती, भोगवती. उठाने लगी। नवागत वैदिक मार्योंसे विजित, दलित, नागपुर प्रादिम नागराज्य स्थापित होगये । सिंधमे पाताल. पीडित बाय शत्रियों की, नाग यद वद्याधर श्रादि प्राचीन पुरी (पाटल) के न ग तथा दक्षिणी पंजाबमे सम्भुत्तर भारतील जातियों की सत्ता लुस नही हो गई थी। जन- महाजनपदकं साम्भवमास्य प्रबल हो उठे । पूर्वस्थ अंग, साधारण, यथा छोटे मोटे राज्यों. गणों और संबोंके रूपमे बम, विदेह, कलिंग, काशी श्रादि देशों में भी नाग नाग. वह इधर उधर बिखरी पड़ी थी, इस समय अवसर पाकर वशज (शिशुनाग), तथा लिच्छवि, बजी, भल्ल, मल, उबल उठो, ठीक उसी प्रकार जिस प्रकार कि ईसाकी १७वीं मोरिय नात श्रादि व्रात्य-सत्ताएँ प्रबल हो उठी। १८ वीं शताब्दी में अकस्मात मराठों, राजपूतों, सिक्खों, व्रात्य श्रमणों के संसर्ग और प्रभावस क शल, वरस, जाटों मादिके रूप में भड़क उठने वाली चिर सुषुप्त हिन्दु. विदेह प्रादि देशोंके वैदिक आर्य भी याज्ञिक हिंसा एवं राष्ट शक्तिके सम्मुख भारत व्यापी दीखने वाली महा वेदोंके लौकिकवाद ( Matterialism) को छोड ऐश्वर्यशाली प्रबल मुस्जिम शक्ति बिखर कर देर होगई अध्यात्मके रंग रंग गये । मारमा लीन, संसारउसी प्रकार सन् ईस्वी पूर्व दूपरे सहस्राब्दके अनमें देह-भोगोंसे विरक्त विदेह वास्योंके सम्पर्कमे ब्रह्मवादी, तत्कालीन वैदिक आर्य सत्ता भी नाग भादि प्राचीन भार- यजविरोधी, हिंसाप्रेमी जनक लोग भी विवह कहलाने तीय वाय क्षत्रियोंकी चिरदलित एवं उपेक्षित शक्तके लगे। इस धार्मिक मामन्जस्य एवं उदारताके कारण कुछ पुनहत्थानसे अस्त-व्यस्त होगई। और लगभग डेढ़ महर काल तक विदेहके जनक राजे, तत्कालीन राजनैतिक क्षेत्रमें वर्षों तक एक मामान्य गौण सत्ताके रूपमे ही रह सकी। प्रमुख रहे, किन्तु पश्चिपके वैदिक भार्य उनसे भी बास्योंकी उसके उपरान्त, इस बीवमें जब वह प्राचीन जातियोंमें भांति घृणा करने लगे, उन्हें भी अपनेसे वैसा ही हीन भली भांति सम्मिश्रित होकर अपने धर्म तथा प्राचार- समझने लगे। उधर व त्य क्षत्रियोंके प्रबल गणतन्त्र तथा विचारों में देशकाचानुपार सुधार करके अर्थात वास्य धर्म- नागों के कितने ही राज्यतन्त्र स्थान स्थानमें स्थापित होरहे विरोधी याज्ञिक हिमा आदि प्रथाओं का त्याग कर अग्नी थे। काशीमें उरगवशकी स्थापना हुई। काशीके उग्गवंशी संस्कृतिका नवसंस्कार करने में सफल होगकी तभी गुप्त राज्य जैन चक्रवर्ती ब्रह्मदत्तने समस्त तत्कालीन रज्योर अपमा काखमें (ईसाकी ३री-४थी शताब्दीमें) उसका पुनमा प्राधिपत्य स्वीकार कराया । उनके वंशज काशीनरेश हुमा, किन्तु प्राचीन वैदिक रूपमें नहीं, नवीन हिन्दु अश्वसेनकी पहरामी वामा देवीने सन् ई० पूर्व ८७७ में पौराणिक रूपमें । उस पूर्वरूप तथा इस उत्तररूपमें प्रत्यक्ष २३ वें जैन तीर्थकर भगवान पार्श्वनाथको जन्म दिया। ही भाकाश-पालाजका अन्तर था।
भगवान पार्श्वकी ऐतिहासिकता अाज निर्विवाद स्पसे जैसा कि ऊपर निर्देश किया गया है, महाभारत युद्ध १
१ भारतीय इतिहासकी रूपरेग्वा पृ० २८६ जयचन्द विद्याके पश्चात ही पशिमोत्तर प्रान्त में तक्षशिला तथा पंजाब तथा A Political History of Ancient में 'उरपयन' ( उद्यानपुरी) के नागराजने अवसर पाकर India P.16-Dr. H. Ray Choudhry. वैरिकार्योंके केन्द्र तथा शिरमौर कुर-पाचाल देशोपर २ Political History of Ancient India प्रबल माक्रमण करने प्रारंभ कर दिये। युधिष्ठिरके उत्तरा- P. 47-Dr. H. C. Raychoudhry.
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भारतीय इतिहासका जैनयुग
फिरण ७-८ ]
सिद्ध हो चुकी है। वह युग नागयुग था । भगवान पार्श्व का जन्म नागवंश ( उगवंश) में ही हुआ था । उनके अनुयायी तथा भक्तों में भी नागजातिका ही विशेष स्थान था। उनका लबन (चिन्ह विशेष) भी नाग ही था । उन की प्राचीन प्राचीन प्रतिमाएँ नागच्छत्रयुक्त दी मिलती हैं। मदोनो तथा मथुराके पुरातत्वमें अनेक नागकुमार कथा नागकुनारियाँ मोगीराज पार्श्व जिनकी भक्ति करती दीख पड़ती है। भगवान पाश्वके धर्मप्रचार रही सदी वाशिक हिंसा भी समाप्त होगई। पाशिक, देवतावादी वैदिकधर्म तथा अहिंसाप्रधान धारमवारी जैनधर्मके बीच सामन्जस्य और समन्वय बैठाने के प्रयत्न होने लगे । श्रनेक दर्शन तथा मत-मतान्तर पैदा होने लगे ।
ई० पूर्व ७७७ में बिहार प्रान्तके सम्मेद शिखरमे भगवान पार्श्वने निर्वाण लाभ लिया। वह इस जैन युगके द्वितीय युगप्रवर्तक थे ( प्रथम युगप्रवर्तक महाभारतकालीन २२ में तीर्थ अरिष्टनेमि थे) और जैनधर्मके पुनरुदारक थे । उनके प्रचारसे जैनधर्मका प्रसार अधिकाधिक विस्तृत होगया था । किन्तु इस पुनरुद्धार कार्य में वह जैन संघकी पूर्ण सुहृद व्यवस्था न कर पाये थे। उनके पश्चात अनेक नवोदित मत-मतान्तरोंके कारण जैन दार्शनिक सिद्धान्त तथा बाचार-नियम भी अच्छे व्यवस्थित एवं सुनिश्चित रूपमें न रह गये थे। स्वयं उनकी शिष्य परम्परा में बुद्धकीर्ति, मौद्गलायन, मलिगोशाल, केशीपुत्र आदि विद्वानोंमें सैातिक मतभेद होने लगा था, उन विज्ञानने अपने २ मन्तव्यका प्रचार भी स्वतन्त्र धर्मोंके रूपमें करना
Intro to Jaiva Bibbo graphy Dr. Guerinor; Camb. History of India (The History of the Jain) fol I, P. 152160; Intro to Uthradyayan P. 21-Charpenter.
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प्रारम्भ कर दिया था। ऐसे समय में एक अन्य युगप्रवर्तक महापुरुषकी श्रावश्यकता थी। अस्तु, ई० पूर्व ६०० में अन्तिम तीर्थंकर भगवान महावीरका जन्म हुआ । ३० वर्ष
की आयु तक गृहस्थ रहकर १२ वर्ष पर्यन्त उन्होंने दुद्धर तपश्चरण और योगसाधन किया । तदुपरान्त केवलज्ञान (सर्वशाच) को प्राप्त कर नापुस निर्ब्रम्य महावीर जिनेन्द्र ने ३० वर्ष पर्यन्त सर्वत्र देश-देशान्तरोंमें विहार कर धर्मोपदेश दिया। जिस प्रान्त में उनका सर्वाधिक बिहार हुआ यह विहारके ही नामसे प्रसिद्ध होगया। पूर्व २२७ में भगवानने 'पापा' से निर्माण प्राप्त किया ।
उन्होंने मुनि, श्रार्थिका, धावक श्राधिकारूप चतुर्दिक संघकी स्थापना की, आचार नियमोंने संघकी सुध्द व्यवस्था करदी । अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचयं, अपरिग्रह पांच प्रकार व्रतों को यथाशक्य मन, वचन कायसे पालन करते हुए कोषमान मायाक्षोभादि कपायोंका दमन करते हुए. सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यम्चारित्ररूप रमत्रयकी प्राप्ति ही श्रक्षय सुखके स्थान मोक्षकी प्राप्तिका मार्ग प्रतिपादन किया। वस्तुस्वरूपके यथार्थ परिज्ञानके हित अनेकान्तात्मक स्यादवाद, आत्मस्वातन्त्र्यके हित साम्यवाद, पुरुषार्थंका महत्व हृदयङ्गत करानेके हित कर्मवाद तथा स्वपर कल्याण के लिये परमावश्यक अहिंसावादका सदुपदेश दिया । उनके उपदेशका प्रभाव सर्वव्यापक दुआ, भावाद श्रीपुरुष, ऊँचनीच ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूह आर्य, चनायें सब ही उनके अनुयायी थे। उनके प्रधान शिष्य ब्रह्मा इन्द्रभूति गौतम आदि गणधरोंने उनके उपदेशित सिद्धान्तोंको द्वादशाहत के रूप में रज्नाक्डू किया और तदुपरान्त विशाल जैनसंघों द्वारा सहस्राब्दियों पर्यन्त इस देशके कोने-कोने में ही नहीं दूसरे प्रदेशोंमें भी भगवान महावीरके कल्याणमयी साधर्मका स्रोत बता रहा है।
(क्रमश:)
張
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धनपाल नामके चार विद्वान कवि
(ले० - पं० परमानन्द जैन शास्त्री )
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जैन समाज में 'धनपाल' नामके कई विद्वान् हो गये हैं जिन्होंने विभिन्न समयों में अपनी रचनाओं द्वारा साहित्यसेवाका अच्छा कार्य किया है। उनमेंमें एक तो 'भविसयत्त का' (भविष्य कथा) नामक ग्रंथके कर्ता हैं. जो गायक are भरियन्टल सीरीज बड़ौदासे प्रकाशित हो चुका है। इस प्रन्थकी अन्तिम २२ वीं संधिके ६ वें कढवकवाल धत्ते में ग्रन्थकारने अपना कुछ परिचय दिया है, जिससे मालूम होता है कि यह कवि धर्कट नामके वैश्य वंशमें उत्पन्न हुए थे इनके पिताका नाम माएसर और माताका धनश्री देवी था । इन्हें सरस्वतीका वर प्राप्त था और इन्होंने भी अन्य दिगम्बर प्रन्थकारोंके समान अपनी कथा के अवतारका सम्बन्ध विपुलाचल पर्वतवर भगवान महावीर के समवसरण में गौतम गणधर से श्रेणिककेतरसम्बन्धी प्रश्न के साथ किया है* । अपनी इस कृतिपरसे ये अच्छे प्रतिभाशाली कवि जान पड़ते हैं। साथ ही यह भी मालूम होता है कि वे दिगम्बर संप्रदाय के विद्वान् थे । क्योंकि ग्रन्थमें 'भंजि विजेया दियंवरि जाउ' ( संधि ५-२० ) जैसा वाक्य आया है, १६ वें स्वर्गके रूपमें अच्युत स्वर्गका नामोल्लेख है, और आचार्य कुंदकुंदकी मान्यतानुसार सल्लेखनाको चतुर्थ शिक्षायत | अंगीकार किया गया है। xत्ता - "घकड वणिवंसि माएसर हो समुब्भविण । मिरि देवि सुरण विरइउ सरसद संभविण ॥" *"चितिय धणत्रालि रणवरेण सरसइ बहुलद्ध महावरेण । चिउन इपिरिट्टिउकुमाणु, जसु ममवसरणु जोयमाणु ॥
गणहरु गोयर, ति तइयहुं जं सेखियो सिद्ध । पुच्छंत पंचमित्राणु तहिं श्रायउ एउ कहाणिहाणु || - भविसयत्त कहा पत्र २, श्रामे प्रति + चउथउ पुरणु सल्लेहरा भावइ, सो परलोइ सुस्तणु पात्रइ । भविसयत्तका १७-१२
जुवइउ होति चयारि वियहो, म मोहंति मिलि वि कंदमहो ।
ग्रंथकी प्रस्तावमासे भी, प्रो० जेकोबीके निर्णयको स्वीकार तथा पुष्ट करते हुए उन्हें दिगम्बर लिखा है ।
दूसरे धनपाल श्वेताम्बर सम्प्रदाय में हुए हैं । इनके पिताका नाम सर्वदेव और पितामहका देवर्षि था । गोत्र काश्यप था । जातिले ब्राह्मण थे और पहले जैनधर्भसे द्वष रखते थे परन्तु अपने लघुभ्राता के उसमें दीक्षित होजाने पर खुद भी उसके अनुयायी बन गए थे । यह संस्कृत प्राकृत के अच्छे विद्वान् थे। इनकी कई कृतियां उपलब्ध हैं इन्होंने राजा भोजकी श्राज्ञासे तिलकमंजरी नामका एक गद्य काव्य लिखा था। उपलब्ध रचनाओं में तिलकमंजरी नामका संस्कृत काव्य अपनी खास विशेषता रखता है यदि उसे संस्कृति साहित्यकी अनुपम कृति कहा जाय तो कोई अत्युक्ति न होगी। राजा मुंजने इन्हें 'सरस्वती' की उपाधि भी दी थी। ये विक्रमकी तेरहवीं शताब्दी के प्रतिभासम्पन्न विद्वान थे, इन्होंने 'पाइयलच्छी नाममाला' नामका ग्रंथ वि० सं० १२२६ में अपनी लघुभगिनी सुन्दरीके लिये बनाया था। इनकी और भी कृतियां उपलब्ध हैं. एक
माणुस देवितिरियगः संभम, चित्ति कट्ठि पादाणि सब्मिम । चद्दिमि नारिहुं मवय कायहिं,
कारियो मेहिं । पांच वि इंदियाई जो खंच, खलिय बंभयारि सो बुच्चइ ।
जो
पशु तासु अन्ड यालइ, सोनहिं संग न निहालह । नियदारहो संतोसि श्रच्छद्द,
नन्नरं विवि न नियच्छइ । भविसयत्तकहा १६-६ x विक्कमकालस्स गए उण सुत्तरे सहस्सम्मि (१०२६) मालवन रिदधाडीए लूडिए मन्नखेडम्मि || धान परिट्टिएण मगो ठिचाए श्रणवज्जे । . कज्जे विहिणीए सुंदरीनामधिजाए || पायल० ना०
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किरण ७८]
'धनपाल नामके चार विद्वान कवि
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दो कृतियां जैनसाहित्यसंशोधक नामके ऐतिहासिक पत्र में बहुत कुछ विकसित रूपको लिये हुए है। उसमें देशी प्रकाशित हुई हैं।
भाषाके शब्दोंकी बहुलता रष्टिगोचर होती है. जिससे यह तीसरे पनपान पणहिलपुरके वासी थे, इनकी जाति
स्पष्ट मालूम होता है कि विक्रमकी १५ वीं शताब्दीमें हिन्दी पल्लीवाल थी, इनके पिता समस्त शाखोंके ज्ञाता विद्वान भाषा बहुत कुछ विकास पागई थी। रचना सरस और और कवि थे, उनका नाम प्रामन था, इन्होंने 'नेमिचरित' गंभीर है और वह पदमे में रूचिकर प्रतीत होती है। नामका महाकाव्य बनाया था। इनके चार पुत्र थे
ग्रंथमें प्रग्य बनवाने में प्रेरक साह चासाधरके वंशका अनंतपाल, धनपाल, रत्नपाल और गुणपाल । अनन्तपाल
अच्छा परिचय दिया गया है। ग्रंथके प्रादिमें कविने अपना ने पट्टीगणितकी रचना की थी और धनपालने प्रज्ञ
भी कुछ परिचय देनेकी कृपा की है जो इस प्रकार है:होने पर भी अपने पिताकी प्रधान्त शिक्षा प्रभावसे 'तिलकमंजरीसार' नामका अन्य सं० १२६१ में कार्तिक
गुजरात देशके मध्य में 'पाहणपुर' नामका एक शुभता अष्टमी गुरुवार के दिन लिखकर समाप्त किया था ।
विशाल नगर था, वहां राजा पीसलदेव राज्य करते थे. जो धनपाल नामके इन तीन विद्वानोंके सिवाय महाल में पृथ्वीके मंटन और सकल उपमाछापे यक्त थे। आमेरके 'भ.महेन्द्रकीर्ति भयडार' को देखते हुए एक चौथे में निर्दोष पुरबाड वंशमें जिसमें अगणित पूर्वपुरुषतोच
लोप है 'भोवई' नामके एक राजश्रेष्टि थे जो जिनभक्त और भ्रश भाषाके 'बाहुबलिचरित' नामक ग्रन्थकी रचना की। दयागुणसे युक्त थे । यह कवि धनगलके पितामह थे। इस ग्रंथकी पत्र संख्या २७० है और उसमें भगवान श्रादिनाथ इनके पुत्र सुहडप्रभ श्रेष्टि थे जो धनपाल के पिता ये कवि के सुपुत्र भरतचक्रवर्तीय लघुभ्राता बाहबलीस्वामी जीवन- मनपालकी माताका माम सुहहा देवी था । इनके दो पत्र का चित्रण किया गया। ग्रन्थ अठारह संधियों में समाप्त और भी थे, जिनका नाम संतोष और हरराज था। इन चरित हया है। और उससे यह सहज हीमालूम होता है कि के गुरुगणि प्रभाचन्द्र थे जो अपने बहुतसे शियोंके साथ कविने यथाशक्ति चरित्रको सरस बनामेका भरसक प्रयत्न जैनतीर्थों की वंदना तथा देशाटन करते हुए उसी पाहणार किया है। ग्रंथकी भाषा पुष्पदन्तादि महाकवियोंकी भाषा में पाए थे। धनपाल ने इन्हें देखकर प्रणाम किया मनिने जैसी दसह मालम नहीं होती किन्तु वह हिन्दी भाषा देखकर उसे प्राशीर्वाद दिया कि तुम मेरे प्रपादसे विच. * अणहिल्लपुरख्यात: पल्लीगलकुलोद्भवः ।
क्षण होगे। मस्तकपर हाथ रखकर कहा कि मैं तुम्हें मंत्र
देता हूँ. तुम मेरे मुखसे निकले हुए अक्षरोंको याद करो। जयत्यशेषशास्त्रज्ञः श्रीमान् सुकविरामनः ॥ १ ॥
प्राचायके वचन सुनकर धनपालका मन मानंदित हुभा सुश्लिष्टशब्दसन्दर्भमद्भुतार्थ रसोर्मिमत् । येन श्रीनेमिचरितं महाकाव्यं विनिर्ममे ॥ २ ॥ * गुजरदेस मज्झि पवणु, वसई विउलु पल्हणपुर पट्टणु। चत्वारः सूनवस्तस्य ज्येष्ठस्तेषु विशेषवित् ।
वीसल एउराउ पय पालउ, कुवलय मडणु सयलु बमालउ। अनन्तपालश्चके साष्टा गणितपाटिकाम् ॥ ३ ॥ तहि पुग्वाहवंस जायामल, अगणिय पुन्यपुरिम णिम्मलकुल धनपालस्ततो नव्यकाव्यशिक्षापरायणः ।
पुण हुउ रायसेष्टि जिणभत्तउ भोवह णामें दयगुणजुत्तउ । रत्नपालस्फुरत्पज्ञो गुगापालश्च विश्रुत: ॥४॥ सुहडपउ तहोणंदणु जायउ गुरुसजणहिहं भुणिविक्खायउ धनगलोऽल्पज्ञश्चापि पितुरश्रान्तशिक्षया ।
बाहुबलिचरित पत्र २ सारं तिलकमंजर्याः कथायाः किञ्चिद प्रयत् । xगुज्जरपुरवाढवंसनिलउ सिरि सुइडसेष्टि गुणगणणिलउ । इन्दु-दर्शन-सूर्याति वासरे मासि कार्तिक ।
तहो मणहर छायागेहणिय सुहडाएवी णामें भणिय । शुक्नाटम्यां गुरावेषः कथासार:समापितः ॥ ६ ॥ तहो उपरि जाउ बहु विणयजुरोधणवालु वि सुउणामेण हो इनके विशेष परिचयके लिये देखो, 'जैनसाहित्य और तहो विरिण तणुभव षिउलगुण संतोसु तय हरिराउ पण॥ इतिहास' पृ० ४७०।
बाहुबलिचरित अंत्यप्रशस्ति
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अनेकान्त
[वर्ष ६
और उसने विनयसे उनके चरणकमलों की वन्दना की। समु/कुर्वाणं (णः) महारकश्रीप्रभाद्रदेवसत्शिष्याणं और गुरुके भागे भाजप्तरहित होकर शास्राभ्याम किया ब्रह्मानाथूराम । इत्याराधनापंजिकायां ग्रंथ प्रारमपठनार्थ और सुकविपना प्राप्त किया था। पश्चात मिथ्यात्वरूपी मद लिखापितम्।" के विनाशक वे गणिप्रभाचन्द्र खंभातनगर धारनगर और
कविवर धनपाल गुरु श्राज्ञासे सौरिपुर तीर्थ के प्रसिद्ध देवगिरि (दौलताबाद) होते हुए योगनीपुर ( देहली)
भगवान नेमिनाथ जिनकी वन्दना करने के लिए गप । पाए । देहली निवासियोंने उस समय एक महोत्सव किया मागेमें इन्होंने 'चंद्रवाडि या चन्द्रवार' नामका नगर देखा था और भारक रत्नकीर्तिके पट्टपर उन्हें (प्रभाचन्द्रको) जो जन धनसे परिपूर्ण और उसंग जिनालयोंसे विभूषित स्थापित किया। महारक प्रभाचन्द्रने मुहम्मदशाह तुगलक था, वहां साहू वासाधरका बनवाया हुमा जिनालय भी के मनको रंजित किया था और विद्याद्वारा बादियोंका मन देखा और वहां के श्री अरहनाथ जिनकी वन्दना कर अपनी भन्न किया था ।
गह तथा निंदा की, और अपने जन्म-जरा और मरणका
नाश होनेकी कामना भी व्यक्त की। इस गनर में विसने प्रमाचन्द्रका भट्टारकरत्रकीर्तिके पट्टपर प्रतिष्ठित होनेका
ही ऐतिहासिक पुरुष हुए हैं जिन्होंने जैनधर्मका अनुष्ठान समर्थन भगवती आराधनाकी उस पंजिकाकी लेखक
करते हुए वहांके राज्यमंत्री रहकर प्रजाका पालन यकि प्रशस्ति (पुष्पिका) से भी होता है जिसे संवत् १४१६
है। ग्रन्थों में उल्लिखित ऐतिहासिक श्राख्यानोंमे इस नगर में इन्हीं प्रभाचन्द्र के शिष्य ब्रह्मनाथरातने अपने पढ़ने के
की महत्ता एवं प्रतिष्ठाका कितना ही बोध होता है जो लिये देहली बादशाह फीरोजशाह तुगलकके शासनकाल
आज एक छोटेमे तीर्थके रूप में ही प्रसिद्धि में पारा है। में लिखपाया था। उसमें भ. प्रभाचन्द्रका रत्नकीर्तिके पट्ट - पर प्रतिष्ठित होनेका स्पष्ट उल्लेख है। वह लेखक पुरिपका * चद्वाड या चन्द्रपाट नामका यह नगर जमुना
श्रागरा के समीप फिरोजाबाद के दक्षिण में स्थित है। और निम्न प्रकार है:
आजसे बहुत पहले यह नगर अपनी विशालता एवं वैभव "संवत् १११६ वर्षे चैत्रसुदि पञ्चम्यां सोमवासरे
के लिये प्रसिद्ध था, यहाँ अनेक राजाभोंने राज्य किय। सकलराजशिरोमुकुटमाणिक्यमरीचिपिंजरकृतचरणकमल .
है । कविवर लक्ष्मणके सं० १३१३ मे बनाये गए पादपीठस्य श्रीपेरोजसाहेः सकल साम्राज्यधुरीविभ्राणम्य
'अणुवयरयणपईव' से मालूम होता है कि उस समय समये श्रीदिल्ल्यां श्रीकुन्दकुन्दाचार्यान्वये सरस्वतीगच्छे
चन्द्रबाडमे चौहान्वंशी राजाश्रोका राज्य था । और यहाँ बलात्कारगणे भट्टारकश्रीरत्नकीर्तिदेवपट्टोदयादितरुणतरणि
- इस वंशके श्राइवमल्ल, श्री वल्लाल, जाहड, अभयपाल १ पततिधि जिण तित्य णमंत उ महिनमंतु पल्दगापुर पत्तउ। और भरत नामके गजाश्रोने राज्य किया है। इनके समय सिहिपहचंद महागणि पावण बहुसीसेहि सहिउ य विरावणु। में लंबकंचुक कुलके करण (कृष्णादित्य ) शिवदेव, गंवाए सरिसरि रयणायक सुमय कणय सुपरिक्षण णाया। कोदु साहु, अमृतपाल और हल्लण साहु राज्यश्रेष्ठि और दिक गणीसे पय पणवंतउ बहुधणवालु विबुह जण भत्तउ। मंत्री हुए हैं। देखो, जैनसि० भास्कर भाग ६, किरण ३। मणिणा दिउ इत्थु विणोए दोसि बियक्खण मज्मु पसाएं। प्रस्तुत बाहुबलिचरितके कर्ताने भी संभरिराय, सारंगमंतु देमि तुह कय मत्थए करु महुमुहणिग्गउ घोसहिं अक्स्वर नरेन्द्र, अभयपाल, जयचंद और रामचंद्र नामके राजाश्री सूरिबयण सुण मणश्राणंदिउ विणएं चरएजुअलमइवंदिउ के राज्यकाल में जायस या जैसवालवंशी, जसघर, गोकणु पढिय सत्य गुरु पुरउ अणालस हुअ जससिद्धि सुकदमाणावस। (गोकर्ण) सोमदेव, वासाधर नाम के व्यक्ति राज्यमंत्री और पत्ता-पट्टणे खंभायच्चे धारणयरि देवगिरि ।
राजश्रेष्ठि रहे हैं। -देखो बाहुबलिचरितप्रशस्ति मिच्छामय विहुणंतु गणि पत्तउ जोइणिपुरि ॥१-३ इनके सिवाय सं० १५३० में कविवर श्रीधरने भविष्यतहिं भव्वहिं सुमहोच्छउ विहियउ सिरिरयणकित्तिपट्टे णिहियउ दत्तचरितकी रचना चंद्रवाड नगरके माथुरकुलके नारायण महमंदसाहि मणुरंजियउ विजहि वाहय मणु भंजियउ। के पुत्र और वासुदेवके न्येष्ठ भ्राता मतिबर सुपट्ट साहू
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किरण ७-८]
धनपाल नामके चार कवि
यह 'बाहुबबित' विक्रम संवत् १४५४ में वैशाख चतुर और धर्मात्मा थे। इन प्रष्ट पुत्रों सहित साहू वासावर शुक्ला त्रयोदशीको स्वाति नक्षत्रमें स्थित सिद्धियोगमें सोमवार अपने धर्मका साधन करते थे। के दिन जबकि चन्द्रमा तुलाराशिपर स्थित था पूर्ण किया गया इस प्रथमें कविने अपने पूर्व होनेवाले कुछ खास है, जैसाकि उसकी प्रशस्तिके निम्न पोंसे प्रक्ट है:- विद्वानोंका और उनकी कुछ प्रसिद्ध कृतियों सहित उल्लेख "विकमणरिंदभंकियसमए, चरदहसयसंवच्छरहे गए । किया है, जैसे कविचक्रवर्ती धीरसेन २ व्याकरणकर्ता पंचासवरिस चउअहिय गांण, वइमाहहो सिय तेरसि-सुदिणि- श्री देवनंदि (पूज्यपाद) जैनेन्द्रव्याकरण ३ श्री बज्रसूरि साई याक्खत्ते परिट्टियई, वरसिद्धिजोगणामें ठियई। और इनके द्वारा रचित षड्दर्शनप्रमाणा ग्रंथ, ४ महासेनससिवासरे रासिमयक्तुले, गोलम्गे मुत्त सुक्के सवलें ॥” सुलोचनाचरित्र, ५ रविषेण-
पचरित, जिनसेन हरिवंशप्रस्तुत ग्रंथ चंद्रवाहनगरके प्रसिद्ध राजश्रेष्ठि और पुराण, ७ मुनिजडिल-वरोंगचरित. दिनकरसन-कंदर्पराजमंत्री जो जायम या जैसवाल वंशके भूषण थे, साहू चरित, है पनपेन-पार्श्वचरित, १. अमृताराधना-गणि वालाधरकी प्रेरणासे की है, और उक्त ग्रंथ उन्हींके न मां- अंबसेन " चंद्रप्रभचरित, धनदत्तचरित्त, कवि विष्णु सेन, कित किया गया है । ग्रंथके आदि और अंतमें प्रथनिर्माणमें मुनिसिंहनन्दि-अनुप्रेक्षा, १३ गावकारमंत्र-शारदेव, १५ कवि प्रेरक साहू वासाधरके कुलादिका कितना ही परिचय दिया सग-धीरचरित, १५ सिद्धसेन १६ कवि गोविद, .. गया है। इनकेपिताका नाम सोमदेव था. जो संभरिनरेन्द्र कवि धवल, १८ शालिभद्र, "चतुर्मुख, २० द्रोण, २१ (कर्णदेव ) के मंत्री थे । कविने साहवासाधरको सम्यक्त्वी स्वयंभु २२ पुष्पदंत और २३ वीर कविका उसलेख विया जिन चरणोंके भक्त, जिनधर्मके पालने में तत्पर, दयालु गया है।
वीरसेवामन्दिर बहुलोकमित्र मिथ्यावरहित, और विशुद्धचित्त बतलाया *सुअ पवणुहु बिय कुमयरेणु, कइचक्कवट्टिसिरि धीरसेगु । है, साथ ही भावश्यक दैनिक षट्कर्मों में प्रवीण, राजनीति महिमंडलि वरिणडं विजुहवं दि, वायरणिकारि सिरि देवणंदि। में चतुर और अमूल गुणोंके पालनमें तत्पर प्रकट किया जहणेद णामु जडयणु दु लक्खु, किउ जेण पसिद्ध स वाय लक्खु। है। इनकी पत्नीका नाम उदयश्री था जो पतिव्रता और
सम्मत्ता .........."रायभव्वु, दसण पमाणु वरु रय उ कन्षु । शीलवतका पालन करनेवाली तथा चतुर्विधसंबके लिये
सिरिवजसरिगणि गुणणिहातु. विग्यउ मह छदंसगा पमाणु ॥ कल्पनिधि थी। इनके पाठ पुत्र थे+ (. जसपाल २ जस (य) पाल ३ रसपाल ५ चदपाल ५ विहराज ६ पुण्यपाल
महसेण महामइ विउ समहिउ घग गाय सुलोयणचरिउ कहिउ। ७ वाहट ८ रूपदेव जो अपने पिताके समान ही योग्य
रविसेणे यउमचरित्त बुत्त, जण सणे हरिवंसु वि पवित्तु । प्रेरणामे की है। श्वेताम्बरीय तीर्थमालामे भी चंद्रवाडका
मुणि जडिलि जडत्ताण वारणत्थु गण वरंगुचरिउ खंडणुपयत्यु । उल्लेख देखा जाता है. इन सब उस्लेवोपरमे उसके ऐति- दिणयरसए कदष्पचारउ. विस्थातर उ मादाह एवरसह भारङ। हासिक नगर होने और जैन धर्मका वहां असें तक बना जियपासचरिउ अइसय बसेण, विग्यउ मुणि पंगवपउमसेण। रहना उसकी महत्ताका स्पष्ट प्रतीक जान पड़ता है। इसके
अमियाराहण बिरइय विचित्त, गणि अंवसेण भवदोसचत्त । सम्बन्ध में फिर किसी समय एक स्वतंत्र लेख द्वारा प्रकाश कंदप्पहचरिउ मणोदिरामु, मुणिविण्हुसेण किउ धम्म धामु । डालनेका विचार । समाजको चाहिये कि वह ऐसे ऐतिहासिक धणयत्तचरिउ चउवमासारु, अवर हि विहिउ णाणापयारु । नगरों में पाई जाने वाली ऐतिहासिक सामग्रीका संकलन करा मुणिसीहणंदि सहत्य वासु, अणुपेदा कय संकप्पणासु। कर प्रकाशित करे। जिससे जैनधर्मका गौरव उद्दीपित हो। णवयारणेहु गरदेव वुत्तु. कासग विहिउ वीरहो चरित्तु । +पदमपुत्तु जसपालु गुणंगउ, रूवेणं पच्चक्ख अणंगउ । सिरिसिद्धसेए पवयण विणोउ, जिण सेणे विरहाउभारिसेण? हुउ जस(य)पाल वियरखगुबीयउ.पणु रउपाल पसिद्धउतीयउ। गोविंद कइ दसणकुमारू, कह रयणसमुदहो लद्धपारु । तरियउ चंदपालु सिरि मन्दिरू, पंचम सुख विहराज सहकर। जय धवलु सिद्धगुगा मुणिउ तेउ,सुय सालिहत्यु का जीवदेउ। छहउ पुण्णपाल पुण्णायक, सत्तमु वाइड णाम गुणायक ।
वर पउमचरिउ किउ सुकइ सेढु,इय अवरजाय वर वलयवीदु।
वरपर अट्ठम रूवएव रूबहउ, एहिं असअहिं चिरु यहढउ ॥ घत्ता-चउमुह दोणु सयंभु का, पप्फयंत पुणु वीरमग्ण।
-बाहुबलिचरित अंतप्रशस्ति ते णाणदुमणि उज्जोयकर, उ दीयोषमु हीणु गुरा॥१-८॥
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८६
अनेकान्त
स्वयंवरा ! [ पौराणिक खण्ड-काव्य* ] रचयिता स्व० 'भगवत' न
कुछ कहने लगे- 'राज्यका सम्बाद है पाया ! शक्कीकी इसलिए ही फोटोने या !! लगता है वीर बांका कि मज़बूत है काया । इसपर भी मात खाए तो भगवानकी माया !!"
लक्ष्मणको सुन पड़ी जो अधूरी मी ये कथा ! आगे न बढ़ सका कि जगी मनके कुछ व्यथा !! बोला कि 'भाई! मुझको कहो माजरा क्या है ? शक्की फोड केलनेको किसने बढ़ा है ? उनमें एक बोला- 'क्या तुमको न पता है ? इम राजदुलारीकी तो मशहूर कथा है
'शत्रु' राजा शक्ति शीर्षके भारी ! ''उन्हीं की है एक राजकुमारी !! मौन्दर्यकी प्रतिमा है गुणोंमे हरी भरी । भ्रम होता देखते ही नहीं है या किसरी !! कमला व दमन दोनोंकी जिसने प्रभा हरी ! यस दिन समझिए कि हैदरी !!
अपने अनूप रूपका उसको घमण्ड है । यह और भी यों है कि पिता भी प्रचण्ड है !! घृणा है कि नाम तक नही भाता ! पुलिंग शब्द कोई हो वह नहीं पाता !! इतनी है कढाई कि कहा कुछ नहीं जाता ! 'लोटा' भी उसके सामने 'लुटिया' है कहाता !!"
सुना रहा रघुवीर मुँह नहीं खोला ! चुप रहके तनिक कहनेवाला आप ही बोला !! महकी ये घोषणा दुनियामें है जाहिर ! गोवा की है घर के लिए मौत मुकरिंर !! जो मेरी शक्ति घोटको सह लेगा वीर-नर ! जितपद्माकुमारीका वही हो सकेगा बर !! महाराजकी शीसे भला कौन बचेगा ? वह मूर्ख ही होगा जो प्राण इस तरह देगा !! अनेकान के लिये छोड गये हैं, ऐसी भगवत्पाठकको अर्पित है।
-सम्पादक
के दिन थे कि मुमीवनका वक्त था ! मण भी साथ में था जी भाईका भक्त था !! सीता थी, हृदय जिसका पती-प्रेमास था ! तीनों भरा गोया मुहब्बतका रक्त था !!
थे खुश, न परेशानीका मुँहपर निशान था ! यह इसलिए ही था कि भरा दिल में ज्ञान था !! खाते थे सभी, प्रेमसहित तोड़के वन फल ! करनों अपनी प्यास बुझाते थे लेके जल !! मोने विद्या भूमि मेम्बल! चलते ये कीड़ा करते हुए बादल !! कमोंकी कुटिलताकी थी ये कर कहानी वन वनमें जो रही थी भटक रामकी रानी !! सीता थी, जिस स्वामीकी सेवाका घाव था ! मोते हुए भी जागता राघत्रका ख्वाब था !! रघुबरका हृदय सौम्यतामें लाजवाब था ! मया था चपल, कौतुकी उसका स्वभाव था !!
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धानन्द-मन, दिल में अभय लंके विसरते । आप ये लेमोन' के निकट घूमते-फिरते !! जब बैठे मिटा भोजन के उपरको !
ने कहा- भैय्या कुमयों दो!! तब बोले राम- 'क्या ?' उठा अपनी नको ! बोला कि हुक्म हो तो देखा नगरको !!" आदेश राघवेन्द्र बिदा किया ! देकर बहु वीर वीर पुर' के सभी पथ चल दिया ! पग धरते हुए जैसे हो धरतीको कँपाता ! पुर-जनमे उसे देखा यो बाजार थाना !! सब देख उठे, छोड़के धन्धेकी माता ! यह यो कि वीर-वेष जो था मनको लुभाता !!
आपसने जगे कहने- 'भद्र रूप है कैसा १ प्रांखोने नहीं आज तक देखा था ऐसा !' का भी
*
• यह और एक दूसरा और ऐसे दो
'भगवत्' जी भवनमे सुचना मिली है। अतः उनकी यह कृति ज्योंकी त्यों अनेकान्त
[ वष ७
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किरण ७८
स्वयंवरा
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कन्याकी बात क्या है स्वर्ग-राज्य भी पाए ! स्वीकार किसे होगा कि जो प्राण गवाए। प्रणापे मूल्यवान क्या है, कोई बताए ? जय प्राण ही गए तो कोई पाए या जाए?
कन्यामें गोया मृत्युका इतिहास लिखा है !
नादान-पतंगोंके लिये दीप-शिला है !! है किमको मोह मौतसे, जो भागको चाहे ? है कौन जो राजाी कुटिलताको सराहे ? मामर्थ है किमी कि जो शक्तीको निभाहे ? है कौन भाग्यवान जी कन्याको विवाहं ?'
सुनकरके सुमित्राका नन्द कह उठा मनमें !
'है कितनी अकर्मण्यता इस नरके वचन मे !! वह क्या है परुष जो कि है पुरुषावसे रीता! निग बलक परखने का भी जिसको न सुभीता!! कमजोरियों में जिन्दगीका वक्त ही बोता ! जीवनका समर जिमये नहीं जा सका जीता!!'
फिर मुस्कराके कहने लगा, रामका भाई !
'हे भद्र ! बात आपने ये खूब सुनाई !! फिर आगे बढ़ा, छोद नगर-वासियोंका दन! मनमे था ममाय। हुधा इस वक्त कुतूहल !! देख है केपी कन्या, जो दुनियाको अमंगल ! रग्बते हैं प्रजापाल भी शक्तीका कितना बल
पहले तो सुनके मनमे जरा क्रोध-पा पाया।
पर, देखनकी वालपाने उसको दबाया !! फिर क्या था, अपने पाप दोनों बढ़ने लगे पग! मनका इशारा पाक पकर बैठे राज-मग !! रह सकते कहां पग थे मनके हुक्मसे अलग! उत्सुक था क्योंकि देखने को जिस्मका रग-रग !!
देखे गगनको छूते-से, वैभव-भरे महल !
सुन्दर थे सुर-विमान-से, थे पुण्य-से उज्वल !! पाया प्रवेश द्वार सुमित्राका दुलारा ! बोला-' है देखना मुझे शक्तीका नजारा !!' प्रहरीने कहा 'भद्र ! क्या परिचय है तुम्हारा 'सेवक हूँ भरतका मैं! ये लक्ष्मणाने उभारा!!
गंभीर गिरा, वीर-वेश, इन्द्र-सी काया ! प्रहरीने देख पाई को सिर अपना मुकाया !!
FAITHILINE
प्राज्ञा ले महीपतिकी भृत्य ने पला भीतर! बैठे थे नृपति, योदा तथा दूसरे अफसर !! दारमें, वीरस्यका फैला था समुन्दर ! लेकिन नहीं समाने झुकाया किमीको सर !!
बोला बो निडर होके गरजते हुए स्वरमें !
भाया हो गोषा शेर-बबर स्थानके घरमें !! 'कहां कहाँ है तेरी अधम राजकुमारी ! उद्यत है अहंकारकी लेकर जो कटारी !! कन्या है, काल-क्न्या है कि कालकी पारी गौ है वो मरखनी, कि पाषाणकी नारी?'
आए थे तब तो मुग्ध हुए थे समाके जन !
अब कांप उठे मन, जो सुने वन-से बचन !! महाराजके मन में भी विषेला विकार था ! वह नाम होचुका था कि माया जो प्यार था!! श्रादी थे, यो सम्मानको दिल बेकरार था! लघमण प्रणाम-हीन था, यह नागवार था !!
खामोश थे अपने में नहीं लग पा हिसाया!
अब रह सकें खामोश, ये मुश्किल-सा दिखाया जलने लगी थी मनमें कुटिल-कोवकी ज्याला ! मुंह सुखं था, पाखें हुई थी रक्तका प्याला॥ कुछ मौन रहे, क्योंकि या भावेशका ताला! फिर क्रोधने ललकारके वाणीको निकाला !!
बोले कि 'कहाँ, कौन होभाय होक्यों यहां!
मैं चाहता हूँ जानना रहते हो तुम कहां?' लक्ष्मणका तभी गूजा वही फिरसं कराठ-स्वर! 'मैं हूँ प्रतापशाली भरत-राजका अनुचर !! दुनियाकी शैर करनेको निकला हूँ छोड़ घर ! यो घूमते-फिरते हुए भाया है महापर !!
भाकर सुनी यहां, तेरी कन्याकी कहानी !
पाकर पिताके बलको हुई जो दिवानी !! है देखना मुझको, दिखा शक्तीका नजारा ! सुन लोग जिसके नामको करते है किमारा!! कन्या अहंकारका है जिसको महारा ! बैठा जो बहाने किसीके खूनकी धारा !!"
बाबीको दे विश्राम थे बैठे हुए भूपाल! गो, अब रहा था दिल कि थीं मां भी लात-बार
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अनेकान्त
वे बोले, तबक करके रंग क्रोध जो लाया ! 'नादान ! क्यों मरने के लिये सामने पाया ? होकर उदयर. क्यों बमपर है लुभाया ? मा भाग, बच्चा करके जवानी-भरी काया !!"
ल चमणको हंसी भाई, हसे कोरसे इसपर !
धरती-सी लगी कांपने, थर्रा गया अम्बर !! मारी सभामें उस समय प्रातक छा गया। गज-मुरडमें जैसे कि हो गजराज भा गया !! धहरोंका नर सबका, एकदम बिमा गया! योन्द्रा था मगर फिर भी नृपति तिलमिला गया !!
जितपमा कुमारी भी झरोखेमें भा गई !
देखा जो सुमित्राका नन्द, मुस्करा गई !! मन जाने लगा हाथसे, मर्यादसे बाहर ! गोया थे निकल पाए उसके मन में भाज 'पर'' मधमणका रूप देख मुग्ध होगया अन्तर ! प्रावेशसे, प्रानन्दसे नीची हुई नजर !!
मनका गरूर दूर था मनहूस प्रभागा !
या यों ही समझ लीजिए 'नारीत्व' था जागा !! नस भोर कह रहा था अयोध्याका वीरवर ! 'कर शीघ्र अपना धार तू क्यों होरहा कायर ? जिनपर हो भरोसा वे ला तू शक्तियां जाकर ! क्या होगा एक शक्तीसे मेरे शरीर पर?
खिजवाब देखना है तेरे बलका, वारका !
देना सुयोग है तुझे शक्ती - प्रहारका !! बल तीस ले अपना कि रणकी खाज मिटाते ! या अपने अहंकारको मिट्टी में मिलाले !! कन्याकी दुष्टताको मिष्टतामें दुबाले ! मर्यादसे बाहरके वचन बोलनेवाले !!"
वैरीदमनने क्रोध में भर शही उठाई ।
लमणको तभी-'मोहकीभावाज-सी भाई!! 'क्या' देखनेके लिए भाष उठाया । कन्याको झरोखेमें था बैठे हुए पाया !! माँखों में मुहब्बत थी कि भयभीत थी काया ! समय भी हुमा मुग्ध, धन्य ! प्रेमकी माया!!
करती थी यो संकेत वो पर्देकी मोटसे ! 'प्राणेश! प्रग इजिए शक्तीकी चोटसे ॥
गर श्रापका शक्ती हुश्रा कुछ भी अमगल | तो जिन्दगी हो जाएगी मेरी सभी निष्फल !!' लक्ष्मणने इशारे में कहा-'प्रेमको पागल ! घबरानो न, रखता हूं मैं भरपूर प्रायु-बन !!'
फिर देखा, प्रजापालने शक्तीको है ताना।
है साध रहा साधना से दिलका निशाना ॥ तब बोला लखन-व्यर्थ ही क्यों देर लगाता? क्या शक्ति-बाण तक नही मारना श्राता? कजम्के पैसेकी तरह करमें दबाता ! उसपर ये गर्व है कि-है वीरवसे नाता ॥'
फिर क्या था शक्ति खीचके भूपाल ने मारी।
'उफ!' करके उधर गिरने लगी राजदुलारी॥ लेकिन ये देख करकंदग रह गए सब जन । लक्ष्मण खड़ा है और बदरसूर है जीवन ।। जितपद्माने देखा तो वहा उसके मोद मन । पर, हो रहा था बाप का चेष्टा-विहीन-तन ॥
जिसपर घमण्ड था वो बात खोखली निकली।
लघमण ने दाएँ हाथमे शक्ती थी पर ली। वह कह रहा था 'एक ही शक्तीको मारकर ! श्रो, मृद अहंकारी ! बता क्यों रहा ठहर ? ला और भी, रखता है जो शक्तिका बल अगर ! वर्ना तू वीरकी जगह कहलाएगा कायर !!'
भूले नरेश था कि जो फर्मान निकाला!
कर सोचता कानूनको है मारने वाला !! वह श्राप ही अपमानकी ज्वालामे परे थे ! कुछ क्रोधका बन था कि जो पैरोंसे खड़े धं!! गो, शर्मदार थे न बल्कि चिकने घड़े थे। शक्तीको मारकर भी जो लबनेको खडे थे॥
फिर क्या था दूसरी भी शक्ती तानके छोडी !
सीमा जो न्यायकी थीयो अन्यायसे तोडी !! अचरज कि अबकी बार भी वह दृश्य ही दीखा। पर, उससे प्रजापालने कुछ पाठ न सीखा।" थामा था बॉएँ हाथमें वह सभी सीखा ! यह देखके अन्यायीका मन और भी चीता !!
लक्ष्मणने कहा-और भी तीख्ने प्रहार कर ! रह जाए नहीं दिसके कोई सना अन्दर !!'
भले ही
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-फिर तीसरी, चौथी भी चोट कर गया कातिल !
५) बा. पनाबाबजी (जैनीमावर्स) औरणा रतनवास अपमानसे पागल की तरह हो रहा था दिल !! .
जी मादीपुरिया (पुत्रपुत्रीके विवाहकी शीमें) घबरा रहे थे और जोश होश थे गानिस !
४१)खा. फेस्मत पतरसमजी जैन माक्षिक वीर स्वदेशी धह सोच रहे थे कि 'फ़तह पाना है मुश्किल !!"
भंडार सरधना जि. मेरठ (चि. प्रकाशन विवाह चमणाने दोनों शक्तियां कांखोंमें दवाली ! , की खुशी में) मार्फत पं. जिनेश्वरदासजी। ___ यह इसलिए कि मुट्टियां उसकी न थी खाली !! ४) ला बांकेलालजी, मुरादाबाद, खा. श्यामलालजी उन चार शक्तियोंको वो थामे था इस तरह !
हरियाना, और बाहोरीलाबजी दुसारी (पुत्रों के विवाह चौदन्ता गज खड़ा हो धीर वह भयावह !!
की खुशी में) मार्फत वैच विष्णुकान्तजी मुरादाबाद । सब मोच रहे थे हृदयमें बात ये रह-रह !
३) बा. नन्दकिशोरजी जैन, बिजनौर। 'नर है कि असुर है ये शक्ति-शौर्षका संग्रह ?'
२) वा. मनोहरनाथजी जैन बी.ए.वकील बुलन्दशहर ललकारके लघमणने कहा तामसी-स्वरमे । और वा. गिरीलालजी मुख्तार, मेरठ, (पुत्री और
'जा और भी वे तीक्ष्ण-शक्तियां जो हो घरमें ॥' भाईके विवाहकी खुशीमें)। जितपमा जो कठोर थी वो आज थी कोमल !
५) ला० हरिश्चंद्रजी रामपुर जि. सहारनपुर और भय उसको अमंगल केने कर रखा था चंचल ॥
ला. पनप्रसादजी जगाधरी जि. अम्बाला (पुत्र पुत्री मुश्किल से काट पा रही थी विहला पल-पक्ष !
के विवाह की खुशी में)। यह सोच रही थी कि 'न हो स्वामीकी अकुशल' २५) बा. रामसुखजी वाकलीवाल, इन्दौर (बीशान्ति
फिर पांचवीं शनीका लखनपर प्रहार या। लाल वाकलीवाल नासिकवालों के स्वर्गवास के अवसर
जो सबसे खतरनाक और दुनिवार था ॥ पर निकाले हुए दाममेंसे । पर देखने मे दृश्य वही सामने पाया ।
२०३)
व्यवस्थापक 'भनेकाम्त' । लक्ष्मण ने 'शक्ति-बाण'को दांतोंमे दवाया ॥
वीरवामन्दिरको सहायता बैरीदमनने देखी-बदस्तूर है काया ।
पिछली किरण में प्रकाशित सहायताके बाद बीरसंवा. श्रद्धामे और प्रेमस्ये तब भाल नवाया ॥
मंदिर सरसावाको जो सहायता प्राप्त हुई है वह क्रमश: निम्न 'ला और!' जबकि भूपसे कहने लगा लचमण। प्रकार और उसके लिये दातार महोदय अभ्यवादके पात्र है
अम्बरसे बरसने लगे लघमण पुष्प-कण ॥ १२)ला. जगलकिशोरजी जैन (झबरेवाले) देहरादून 'जयघोष' सब दिशाओंसे देता था सुनाई।
(चि० पुरुषोत्तमदासके विवाहकी खुशी में)। भानन्दकी मुस्कान-सी हर मुंहपै थी छाई ॥
") वा. पन्नालालजी जैन अप्रवास देहखी और सा. जित्तपना नजर डाले हुा सामने आई।
दीपचन्दजीजैन (गुहानाबाले) न्यू देहली (चि० प्रेमसौभाग्य था जीवनकी पूर्णता थी जो पाई।।
चंद और चिकनकमाका देवीके विवाहकी खुशी में)। नवमया भी हुधा सौम्य, मुहब्बतका रंग भर। ... सेठ सेठमल दयाचन्दजी जैन कलकत्ता । (सेठ 'भगवत' यों हुघा राजकुमारीका स्वयंवर !!
बस्देवदामजीकी माताके स्वर्गवास भरपर
निकाले हुए वानसे) मार्फत पा.होटेलालजी जैन अनेकान्तको सहायता ।
ईस कलकत्ता। अनेकान्तकी गत वरया में प्रकाशित सहायताके बाद २)लामकिशोरजी जैन बिजनौर। जो सहायता प्राप्त हुई। वह क्रमशः इस प्रकार है:- ) गत सहायता, देहलीके एक सामकी भोरमे। १०) रावराजा पर 3 हुकमचंदजी जैन इन्दौर । २१) मा. हरिश्चंद्रजी म रामपुर जि. सहारनपुर और
(अनादि सस्थाका कान्त भिजवाने के लिये) मा.पप्रसादजीजैन जगाधरी जिम्बाबा (पुत्र-पुत्री २.) खा. उदयराम जिनेश्वरदासजी न बजाम महारनपुर विवाहकी खुशीमें )। (अनेकामा फ्री भिजवाने के लियं)।
११०)
अन्तिा वीरसेवामंदिर'
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वीरसेवामन्दिरके नये प्रकाशन
१ प्राचार्य प्रभाचन्द्रका तत्वार्थसूत्र-नया प्राप्त किशोरजीको ग्रंथपरीक्षाका प्रथम अंश, ग्रंथपरीक्षाओं के मेषित सूत्र, मुख्तार श्री जुगलकिशोरकी मानुवाद व्याख्या इतिहासको लियेहए १४ पेज कीनई प्रस्तावना सहित । मू01) और प्रस्तावना सहित । मूल्य ।)
५ न्यायदीपिका-(महत्वका नया संस्करण)२ मत्साधु-स्मरण-मंगलपाठ-मुस्तार की जुगल
भ्यायाचार्य पं. दाबारीलालकी बोठिया द्वारा सम्पादित किशोरकी अनेक प्राचीन पोंको लेकर नई योजना, सुन्दर और अनुवादित न्यायदीपिकाका यह विशिष्ट संस्करण हरयग्राही अनुवादादि सहित । इसमें श्रीवीर वर्द्धमान और अपनी खास विशेषता रखता है। अबतक प्रकाशित संस्करणों उसके बाद जिनसेनाचार्य पर्यन्त. २१ महान् प्राचार्योक में जो अशुद्धियां चलीबारही थीं उनक प्राचीन प्रतियोंपर भनेकों प्राचार्यों तथा विद्वानोंद्वारा किये गये महत्वक १३६ में संशोधनको लिये हुए ह संस्करण मृलप्रन्थ और उम पुण्य स्मरणोंका संग्रह है और शुरूमे १ लोकमंगलाकमना, के हिन्दी अनुवाद के साथ प्राकथन, सम्पादकीय, प्रस्तावना, नित्यकी प्रारमप्रार्थना, ३ माधुवेर्षानदर्शक जिनस्तुति, ४ विषयसूची और कोई - परिशिष्टोंसे सतित है. जिनमें परमसाधुमुखमुद्रा और ५ सत्साधुवन्दन नामके पांच एक यहा परािंशष्ट तुलनात्मक टिप्पणा का भी है। साथमें प्रकरण है। पुस्तक पढ़ने समय बड़े ही सुन्दर पवित्र सम्पादकद्वारा नवनिर्मित 'प्रकाशाख्य' नामका भी एक विचार उत्पन होते है और साथ ही प्राचार्योंका कितनाही .सस्कृत टिपण लगा हुआ है, जो ग्रंथगत कठिन शब्दो तथा इतिहास सामने पाजाता, निन्य पाठ करने योग्य है म.) विषयोंका खुलासा करता हुमा विद्याथियों तथा कितने ही
३ अध्यात्म-कमल-मानण्टु-यह पंचाध्यायी तथा विद्वानोंके लिये कामकी चीज़ है। लगभग ४०० पृष्ठोंक बाटीसंहिता मादि ग्रंथोंके कर्ता कविवर राजमझाकी अपूर्व इस वृहत्संस्करणका लागत मूल्य .) रु. है कागजकी कमी रचना है। इसमें अध्यामममतको कृजेमे बंद किया गया के कारण थोडी ही प्रतिया उपी हैं। बताइछुकाको शीघ्र है। साथ में न्यायाचार्य पं.रबारी लाल कोठिया और पं. ही मंगालेना चाहिये। . प्रकाशनविभाग परमानन्दशास्त्रीका सुन्दर अनुवाद विस्तृत विषयसूची तथा
वाग्मेवामन्दिर, मरमावा (महारनपुर) मुख्तार भीजुगल किशोरकी लगभग ८० पेजकी महत्वपूर्ण प्रस्तावना है। बड़ा ही उपयोगी ग्रंथहै। म. १॥)
४ उमास्वामिश्रावकाचार-परीक्षा--मुख्तार श्रीजगल
बाबू छाटेलालजीका स्वाध्याममाचार
पाठकोंको यह जानकर प्रसन्माना होगी कि बाप छोटेलालजी जैन नईम कलकत्साके स्वास्थ्य में जो बरामी उत्पन हुई थी वह कुछ महीने मगनपल्ली पो. प्रारोग्यनरम् में रहकर चिकिया करानेपर दूर होगई । अब उनके शरीर में चैया कोई दोष नहीं रहा। "मा परीक्षामोंमे जान परा और इम्तिय वे अप्रेस के प्रथम सप्ताह सप्ताहमें बहों मे कलकत्ता के लिये रवाना हो जावगे नया कुछ दिन मद्रास उहरते हुए कलकसा पहंगे। और अपनी प्रायोजिम संस्था
कार्यभारको संभालेंगे जिमकी स्कीमका कितना ही कार्य वे वहां रहते भी करते रहे हैं। हानिक मावना है कि आपको अपने मिशन में शीघ्र ही पण मफलताकी प्राप्ति होवे । मंपादक
If not delivered please return to.--
VIR SEWA MANDIR, SARSAWA. (SAHARANPUR)
To
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विविधनयापेक्षा
अनका ल
ती
स्याद्वादरुपिणी
अनेकान्तात्मिका
Tags
स्वात
स्यात
स्यात्
म्यान
म्यान
'गुणमुख्य कल्पा
स्यात्
नी
वर्ष ७
विधेय वायवाऽभयभय मिशिननं । क. ११-१२ सापेक्ष का गीत तत्व
सम्पादक- जुगल किशोर मुख्तार
साप
सम्यग्वस्तु-ग्राहिका
यथातत्त्व
ति
जून, जुलाई १६४५
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विषय-सूची
ध्यानारूढ प्राविजिनेन्द्र-[सम्पादक " ११ १२ अहिंसाकी विजय(कविता)-कल्याणकुमार 'शशि' ७८६ २ वैराग्य कामना, राग-विरागका अम्बर-[क.भूधरदाप१५२ १३ भगवान महावीर-[पं० सुमेरचन्द दिवाकर . ११. ३ समीचीन धर्मशान और हिन्दीभाष्य-[सम्पादक १५३ १४ भ. महावीर और भ. बुद्ध-श्री फतेहचन्द बेजानी११३ ४ विनय स्वीकारो (कविता)-4. सूरजचन्द डांगी १५८ १५ भ० महावीर-प्ररूपित अनेकान्त धर्मका वास्तविक ५ सुलोचनाचरित्र और देवसेन-[पं. परमानन्द शास्त्री १५६ स्वरू-श्री कानजी स्वामी "" 185 ६ सम्पादकीय
... १६४ १६ वीरशासनपर्वका स्वागतगान(कविता)-[ोमप्रकाश २०६ साहित्य-परिचय और समालोचन ... १६६ १७ श्री धवखाका समय-बा. ज्योतिप्रसाद जैन, एम.ए२०७ ८ इतिहाममें म. महावीरका स्थान-[बाजयभगवान १६७ १८ क्या वर्तनाका वह अर्थ गलत है-[पं० दरबारीमान ११४ । जैनमनुश्रतिका ऐतिहासिक महत्व[बा. ज्योतिप्रपाद ०७६ १६ हमारी शिक्षा-समस्या-बा. प्रभुलाज प्रेमी २११ १. प्रकाशरेखा (कविता)-[स्व. भगवरस्वरूप भगवत् १८०२० वीरसेवामंदिरमे वीर. उत्सव-[पं. दरबारीलाल २२३ "क्या रत्नकरण्ड श्रावकाचार स्वामो समन्तभद्रकी २१ जैनजातिका सूर्य अस्त !!--[जुगलकिशोर मुग्रतार २२५
कृति नहीं है ?-[पं० दरबारीलाल कोठिया ११
ला० जम्बूप्रसादजीका दुःखद वियोग ! यह प्रकट करते हुए बड़ा ही दुःख होता है कि नानौता जि. सहारनपुरके जैन रईस ना. जम्बूप्रमादजी, जो श्री दादीजीके कौटुम्पिक पौत्र थे, आज इस संसारमें नहीं हैं--ता. १५ अगस्तकी रात्रिको उनका अचानक ही स्वर्गवास होगया है। वे परे एक दिन भी बीमार नहीं रहे। पहले दिन रातको उन्हें कुछ बदहजमीकी शिकायत हुई जो साधारण-सी बात समझी गई, इसीसे उनकी कोई खास चिकित्सा न हो सकी और अगले ही दिन उनका प्राण पखेरु एकदम उड गया !! अनेक पुत्र-पुत्रियो, पुत्रवधू और पत्रीके होते हुए भी कोई भी उस समय घरपर उनके पाम नही था -सबके सब कुछ दिन पहलेसे ही दूसरे स्थानीको गये हुए थे। इसीसे वे न तो अपनी किमीमे कुछ कह सके और न दूसरों की सुन सके !! एकाएक बड़ा ही हृदयविदारक दृश्य उपस्थित होगया और सारी नगरीमे शोक छा गया !! देवकी इस विचित्र लीलाको देखकर सभी दांतोतले अंगुली दबाते थे और कुछ भी कहते नहीं बनता था।
स्व. ला० जम्बूप्रसादजी बरे ही सजन-स्वभावके युवक थे, निरभिमानी थे । सरनप्रकृति थे और धर्मसे बदा प्रेम रखते थे। धर्मके कार्योमे बराबर भाग लिया करते थे-उपका प्रचार देखनेकी उनके हृदयमें लगन थी और तप थी। पिवले दिनों उन्होंने श्रीमद्राजचंद्रनामक एक विशाल ग्रंथकी बहुत सी प्रतियां एक साथ खरीदकर उन्हें वितरण किया था--उन्हे अच्छी अच्छी लायब्रेरियों तथा खास खास अजैन विद्वानोंको भिजवाने के लिये वे उनके पने पूछा करते थे और इस बातके लिये बड़ी पातुरता व्यक्त किया करते थे कि यह ग्रन्थराज ऐसे स्थानोंपर अवश्य पहुंचे जहां इसका सदुपयोग हो सके। प्रथसंग्रहका उन्हे शौक था और कुछ ऐसे सर्वसाधारणोपयोगी ग्रंथों के नाम वे अक्सर पूछा करते थे जिन्हें मैंगाया जावे अथवा छपाकर वितरण किया जा सके । समयसारकी वर्णी गणेशप्रसादजी कृत दीकाको छपाने के लिये वे तयार हो गये थे और उसके लिये उन्होंने वीजीको लिखा भी था । हालमें वे एक कन्या पाठलालाका निर्माण करा रहे थे, जिसके कामको अधूरा ही छोड़ गये हैं।
इसके सिवाय अतिथिसेवा और मिननमारीका भी उनमें बड़ा गुण था । जब कभी मैं नानौता जाता तो वे खबर पाते ही मिखनेको भाते भोजनका भाग्रह करते और जब तक वड़ा ठहरता तब तक दिनरातमें पक दो बार बराबर मिला करते और अनेक धार्मिक तथा सामाजिक विषयोंपर घंटों बातचीत किया करते थे । अतः मापके इस पाकस्मिक वियोगमे मेरे चित्तको बड़ा प्राघात पहुंचा।समाजकी भी आपके निधनसे कुछ कम पति नहीं हुई। हार्दिक भावना है कि भापको परलोकमें सुखशान्तिकी प्राप्ति होवे। साथ ही भापके सी-बचों तथा अन्य कुटुम्बी जनों के साथ इस दुःख में मेरी हार्दिक सहानुभूति है और दिली कामना है कि उन्हें धैर्य मिले तथा बका भविष्य उज्वल होवे।
जुगलकिशोर मुख्तार
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* ॐ अहम् *
स्तितत्व-सघातक
विश्व तत्त्व-प्रकाशक
वाषिक मूल्य ४)
इस किरणका मूल्य १)
नीतिविरोषध्वंसीलोकव्यवहारवर्तक-सम्यक् । परमागमस्यबीज भुवनेकगुरुर्जयत्यनेकान्तः।
-
वर्ष ७ किरगा ११, १२ ।
सम्पादक-जुगलकिशोर मुख्तार .वीरमेवामन्दिर (समन्तभद्राश्रम ) सरसावा जिला सहारनपुर जून, जुलाई भाषाढ, भावणशुक्ल, वीरनिर्वाण संवत् २४७१, विक्रम सं० २००२ । १९४५
ध्यानारूढ आदिजिनेन्द्र
به به همه جبوت وجوججه به جمجوجه
कायोत्सर्गायताङ्गो जयति जिनपतिनोभिमनुमहात्मा मध्यान्हे पस्य भास्वानुपरिपरिगतो राजते स्मोग्रमूर्तिः। चक्रं कर्मेन्धनानामतिबहुदहतो दूरमौदास्य-वानस्फूजत्सद्ध्यानवन्हेरिव मचिरतरः प्रोगतो विस्फुलिङ्गः ॥१॥
-श्रीपद्मनन्दाचार्यः
'कायोत्सर्गरूपसे ध्यानमें स्थित विस्तीर्ण अंगके धारक वे महाराजा नाभिरायके पुत्र महामा श्रीमादिजिनेन्द्र जयवन्त हैं-अपनी तपस्याके प्रभावको लोक-हृदयों में अंकित किये हुए है-जिनके मस्तकपर दोपहरके ममय प्राप्त हुमा प्रीष्मकालीन-गर्मीकी मौसमका-अत्यन्त तलायमान सूर्य ऐसी शोमाको धारण करता हुआ मालुम होता था मानों वह सूर्य नहीं है किन्तु वैराग्यरूपी पवनसे अतीव दहकती हुई और कर्मरूप ईन्धनके समूहको भम्म करती हुई भगवानकी शुक्लध्यानाग्मक प्रचण्ड अग्निमेंसे यह प्रति देदीप्यमान (चमकता हुआ) फुलिंगा (चिनगारीके सदृश) निकल कर आकाश में दूर चला गया।
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अनेकान्त
वर्ष ७
व्याख्या-यह प्रादिजिनेन्द्र (भ. श्री ऋषभदेव) की ध्यानावस्थाका एक चित्र है जिसमें उन्होंने बहुतसी कर्मप्रकृतियोंको भस्मकर उनके समूल विनाश-द्वारा प्रारमशक्तियों को विकसित किया था। यहां प्राचार्य महोदयने सूर्यको ध्यानामिके फुलिंगेकी उपमा देकर यह भाव दर्शाया है कि जिन ज्ञानावरणादि कर्मों के वशवर्ती हुआ अनादिकालसे यह जीव चतुर्गतिरूप संसारके चक्कर में पड़कर अनेक प्रकारके परिभ्रमण करता और दुख उठाता हुश्रा फिरताहे वह कर्म कोई ऐसी वस्तु नहीं जो श्रासानीमे भस्म कर दी जाय और प्रासानीसे उसका सम्बन्ध भात्मासे छुड़ा दिया जाय । संसारमें ऐसी कोई भी अग्नि नहीं है जो प्रात्माके साथ लगे हुए अनादि कर्ममलको भस्म कर सके-हाल में आविष्कृत यूरेनियम धातु और उससे निर्मित परमाणु बमकी शक्तिसे भी वह बहुत परेकी चीज़ है । कर्माको भस्म कर उनका
आमासे सके लिये सम्बन्ध विच्छेद करनेवाली जो भग्नि है वह शुक्लध्यानाग्नि ही है, और वह ऐसी तीक्ष्ण अग्नि है जिसका फुलिंगा सूर्यकी उपमाको धारण करता है। साथ ही, प्राचार्यश्रीने यह भी सुझाया है कि जिस प्रकार अग्निसे उत्पन्न हुआ कुलिंगा उस अग्निको प्रातापकारी नहीं होता उसी प्रकार ध्यानाग्निका फुलिंगा भी ध्यानस्वरूप प्रारमाको किसी प्रकार भी श्रातापकारी नहीं हो सकता | अर्थात् श्री आदिजिनेश्वर ऐसे ध्यानारूढ थे कि ग्रीष्मकाल (ज्येष्ट-प्राषाढ मास) के सूर्यका घाम (तपिश) उनको कुछ भी आतापकारी न था और न उक्त धीरवीर महात्माके अटल और निर्विकरूप ध्यानमें किसी प्रकारसे वाधक ही था।
हो, एक महत्वकी बात यहांपर और भी प्रदर्शित की गई है और वह यह कि उक्त सद्ध्यानकी अग्नि वैराग्य-पवनसे प्रज्वलित होती है। वैराग्यकी मात्रा जितनी अधिक होगी-संसारके पदार्थों और विषयभोगोंके साथ जितनी विरक्ति, अनासक्ति, उदासीनता अथवा अलिप्तता बढ़ेगी--उतनी ही अधिक ध्यानानि प्रज्वलित होगी और वह कर्मोंके गहन वनको दहन करने में समर्थ हो सकेगी । यह हमारी राग-परिणति और आसक्ति ही है जो कर्मोके साथ बराबर सम्बन्ध बनाये रखती है, मात्माकी शक्तियोंको पूर्णत: विकसित नहीं होने देती और न उसे अपने स्वतंत्र-स्वाधीन सहजानन्द-सुखस्वरूपका अनुभवन ही करने देती। अत: इस रागपरियाति और श्रापक्तिको घटाकर आत्माके विकास. मार्गको प्रशस्त बनाना चाहिये और सदा सद्ध्यानके अभ्यासमें बगना चाहिये । यही भगवान ऋषभदेवके इस आदर्शमे शिक्षणीय है।
वैराग्य-कामना और राग-वैराग्यका अन्तर
कर गृहवाससों उदास होय धन सेऊँ, बेऊँ निजरूप गति रोक मन-करी की। रहिहों अडोल एक प्रासन अचल अंग, सहिहों परीसा शीत-धाम-मेघमरीकी ॥ सारंग-समाज खान कबर्षों खुजै है मान, ध्याना-ल जोर जीतू सेना मोह-परीकी।
एकल विहारी जथाजातलिंगधारी कब, होहुँ इच्छाचारी बलिहारि हुँ वा घरीकी।
गग-उदै भोगभाव लागत सुहावनेसे, विना राग ऐसे लागें जैसे नाग कारे हैं। राग ही सी पाग रहे तनमें सदीव जीव, गग गये पावत गिलानि होत न्यारे है॥ रागसों जगतरीति झूठी सब सांच जाने, राग मिटे सूझत असार खेज सारे है। रागी-विनरागीके विचारमें बदो ही भेद, जैसे भटा पथ्य काहु काहु को ग्यारे हैं।
कविवर भूधरदास
१ मनरूपी हाथी। २ हरिणोंका ममूह | ३ दिगम्बरवेषधारी। ४ बैंगन ।
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समीचन-धर्मशास्त्र और उसका हिन्दी भाष्य
[ सम्पादकीय ]
(गत किरणसे आगे)
अब रही 'समीचीन' विशेषणकी बात । धर्मको प्राचीन उपदेश दिया गया। उमपरसे भी फलित होता है। दोनों या अर्वाचीन आदि न बतलाकर जो समीचीन विशेषणसे में 'समीचीनधर्मशास्त्र' यह नाम प्रतिज्ञाके अधिक अनुरूप विभूषित किया गया है उसमें खास रहस्य संनिहित है। स्पष्ट और गौरवपूर्ण प्रतीत होता है। समन्तभद्रके और भी
[इस विशेषणकी व्याख्याको बहु वक्तव्यात्मक होनेसे कई ग्रंथोंके दो दो नाम हैं, जैसे देवागमका दूसरा नाम यहां छोडा जाता है, पाठक उसे कुछ महीनों के बाद प्रका. आप्तमीमांसा, स्तुति-विद्याका दूसरा नाम जिनस्तुतिशतक शित होने वाले सभाष्य ग्रन्थमें ही देखनेकी कृपा करें। (जिनशतक ) और स्वयम्भूस्तोत्रका दूसरा नाम समन्तभद्र
एकमात्र धर्म-देशना अथवा धर्म-शासनको लिये हुए स्तोत्र है, और ये सब प्रायः अपने अपने आदि-अन्तके होनेसे यह ग्रंथ 'धर्मशास्त्र' पदके योग्य है। और चूँकि पद्योंकी दृष्टिको खिये हुए हैं। अस्तु । इसमें वर्णित धर्मका अन्तिम लक्ष्य संसारी जीवोंको अक्षय. अब प्राचार्य महोदय प्रतिज्ञात धर्मके स्वरूपादिका -सुखकी प्राप्ति कराना है इस लिये प्रकारान्तरसे इसे 'सुख- वर्णन करते हुए लिखते हैंशाच' भी कह सकते हैं। शायद इसीलिये विक्रमकी ११ वी
धर्म-लक्षण शताब्दीके विद्वान् प्राचार्य वादिराजसूरिने, अपने पार्श्वनाथ- सद्दृष्टिज्ञान-वृत्तानि धर्म धर्मेश्वग विदुः । चरितमें स्वामी समन्तभद्र योगीन्द्रका स्तवन करते हुए, यदीय-प्रत्यनीकानि भवन्ति भवपद्धतिः ॥ उनके इस धर्मशानको "अक्षयसुखावहः” विशेषण देकर 'धर्मके अविनायकोंने-धर्मानुष्ठानादि-तत्पर अथवा अक्षय-सुखका भण्डार बतलाया है।
धर्मरूप परिणत प्राप्त-पुरुषोंने-सदृष्टि-सम्यग्दर्शन___कारिकामें दिये हुए 'देशयामि समीचीनं धर्म' इस सज्ञान--सम्यग्ज्ञान-और सज-सम्यक् चारित्रप्रतिज्ञा-वाक्यपरसं प्रन्यका प्रसनी अथवा मूल नाम 'समी- को 'धर्म' कहा है। इनके प्रतिकूल जो असदुद्दष्टि, चोन-धर्मशास्त्र' जान पड़ता है, जिसका प्राशय है 'समीचीन असतज्ञान, अमवृत्त-मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान, मिथ्याधर्मकी देशना ( शास्ति ) को लिये हुए ग्रंथ', और इस चारित्र-हैं वे सब भवपद्धति है-संसारके मार्ग है।' लिये यही मुख्य नाम इस सभाष्य ग्रन्धको देना यहां उचित व्याख्या-मूवमें प्रयुक्त भन्' शब्दका सम्बन्ध दृष्टि, समझा गया है, जो कि ग्रंयकी प्रकृतिके मी सर्वथा अनुकूज ज्ञान, वृत्त तीनोंके साथ है और उसका प्रयोग सम्यक, है। दूसरा 'रत्नकर' (रत्नोंका पिटारा) नाम ग्रन्यमें निर्दिष्ट शुद्ध, समीचीन, तथा बीतकलंक (निर्दोष) जैसे अर्थ में हुआ धर्मका रूप रत्नत्रय होनेसे उन रत्नोंके रक्षणोपायभूतके रूप है; जैसा कि श्रद्धानं परमार्थानां, भयाशाम्नेहलोभाच, में है और अन्य के अन्तकी एक कारिकामें 'येन स्वयं वीत- प्रथमानुयोगमा, येन स्वयं वीतकलविद्या, इत्यादि कलविद्या · दृष्टि-क्रिया - रत्नकरण्डभावं नीतः' इस कारिकाश्राम प्रकट है। हिमाऽनृतचार्यभ्यो'स कारिकामे वाक्यके द्वारा उस रत्नत्रय धर्मके साथ अपने प्रारमाको 'संहस्य' पदका 'सं' भी इसी अर्थको लिये हुए है और रत्नकरण्ड' के भावमें परियात करनेका जोवस्तु निर्देशामक इसीके लिये स्वयम्भूम्तोत्रमें 'समझ' जैसे शब्दका प्रयोग १ त्यागी स एव योगीन्द्रो येनाऽक्षय्यसुखावहः । किया गया है।
अर्थिने भव्य-मार्थाय दिष्टो रत्नकरण्डकः ॥ २ "समञ्जस-ज्ञान-विभूति-चतुषा" का. १
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अनेकान्त
[ वर्ष ७
'दृष्टि' को दर्शन तथा श्रद्धान, 'ज्ञान' को बोध तथा से स्पष्ट ध्वनित है। और इन्हें जब 'भवपति' बतलाकर विद्या और वृत्त' को चारित्र, चरण तथा क्रिया नामोंसे भी संसारके मार्ग-संसारपरिभ्रमण के कारण अथवा सांसा. इसी ग्रन्थमें उल्लेखित किया गया है। इसी तरह 'सद्- रिक दुःखोंके हेतुभूत-निर्दिष्ट किया गया है तब यह स्पष्ट तृष्टि'को सम्यग्दर्शनके अतिरिक्त सम्यक्त्व तथा निर्मोह और है कि सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यकचारित्र ये तीनों 'सतज्ञान' को 'तथामति' नाम भी दिया गया है । साथ मिले हुए ही 'मोक्षपद्धति' अर्थात् मोक्षका एक मार्ग हैंही अपनी स्तुतिविद्या (जिनशतक) में ग्रन्थकार महोदयने संसारदुःखोंसे छूटकर उत्तम सुखको पानेके उपायस्वरूप सद्दष्टि के लिये 'सुश्रद्धा' शब्दका तथा स्वयम्भूस्तोत्रमें हैं; क्योकि 'मोक्ष' 'भव' का विपरीत (प्रत्यनीक) है, और सद्वृत्तके लिये 'उपेक्षा' शब्दका भी प्रयोग किया है और यह बात स्वयं ग्रंथकार महोदयने ग्रन्थकी 'अशरणमशुइस लिये अपने अपने वर्गानुसार एक ही अर्थक वाचक भनित्यं' इत्यादि कारिका (१०५) मे भवका स्वरूप बतप्रत्येक वर्गहन शब्दों को समझना चाहिये।
जाते हुए 'मोक्षस्तविपरीतात्मा' इन शब्दोंके द्वारा व्यक्त ___यहां सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यकचारित्रको की है । इसीसे तत्त्वार्थसूत्रकी आदिमें श्रीउमास्वाति जो 'धर्म' कहा गया है वह जीवात्माके धर्मका त्रिकाला- प्राचायने भी कहा हैबाधित सामान्य लक्षण अथवा उसका मूलस्वरूप है। इसी सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्राणि मोक्षमार्गः ॥ १॥ को रत्नत्रय' धर्म भी कहते हैं जिसका उल्लेख स्वयं स्वामी
और यही बात श्रीभाचन्द्राचार्यने अपने तत्त्वार्थसूत्र समन्तभदने कारिका नं०१३ में 'रत्नत्रयपवित्रिते' पदके में 'सदृष्टिज्ञानवृत्तात्मा मोक्षमार्गः सनातनः' तथा द्वारा किया है और स्वयम्भूस्तोत्रकी कारिका ८४ में भी 'सम्यग्दर्शनावगमवृत्तानि मोक्षहेतुः' इन मंगल तथा 'रत्नत्रयातिशयतेजसि' पदके द्वारा जिसका उल्लेख है। सूत्रवाश्योंके द्वारा प्रतिपादित की है। इमी रत्नत्रयरूप ये ही वे तीन रत्न हैं जिनके स्वरूप-प्रतिपादनकी दृष्टिसे धर्मको स्वामी समन्तभदने प्रस्तुत ग्रंथमे 'मोक्षमार्ग' के आधारभूत अथवा रक्षणोपायभूत होने के कारण इस अतिरिक्त सन्मार्ग' तथा शुद्धमार्ग' भी लिखा है, और अन्धको 'रत्नकरण्ड' (नोंका पिटारा) नाम दिया गया जान शुद्धसुखात्मक मोक्षको शिव, निर्वाण तथा निःश्रेयस नाम पड़ता है। अस्तु, धर्मका यह लक्षण धर्माधिकारी प्राप्त- देकर शिवमाग' निवोणमार्ग' 'निःश्रेयसमाग' भी इसीके पुरुषों (तीथंकरादिकों) के द्वारा प्रतिपादित हुआ है, इससे
नामान्तर है ऐसा सूचित किया है । साथ ही 'ब्रह्मपथ' भी स्पर कि वह प्राचीन है, और इस तरह स्वामीजीने उस इपीका नाम है, ऐसा स्वामीजीके युक्त्यनुशासनकी ४ थी के विषयमं अपने कतृत्वका निषेध किया है।
कारिकामे प्रयुक्त हुए 'ब्रह्मस्थस्य नेता' पदोंमे जाना जाता ___ जब सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, और सम्यक्चारित्रको
है, जो उमास्वामीके 'माक्षमार्गस्य नेतार' पदोंका स्मरण 'धर्म' कहा गया है तब यह स्पष्ट है कि मिथ्यादर्शन,
कराते हैं। यही संक्षेपमें जिनशासन है जैनमार्ग है. अथवा मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारित्र 'धर्म' हैं.- पापके मूल- वास्ता
___ वास्तविक सुखमार्ग है, और इस लिये मिथ्यादर्शनादिकको रूपनलिये
प्रायोति कुमार्ग, मिथ्यामार्ग कापथ तथा दुःखमार्ग समझना चाहिये। गया है और पापको 'किल्विप' नामके द्वारा भी उल्लेखित ग्रन्थकी १४
ग्रन्थकी १४ वीं कारिकामें इसके लिये 'कापथ' शब्दका किया है, जैसा कि कारिका नं० २७, २६, ४६. १५८ धादि
स्पष्ट प्रयोग है और उसे 'दुःखानां पथि' लिखकर 'दुःख
मार्ग' भी बतलाया गया है। हवीं कारिकामें भी कापथ१ देखो, कारिका नं० ४, २१, ३१ श्रादि, ३२, ४३, ४६ श्रादि; ४६, ५०, १४६ श्रादि ।
घट्टनं' पदके द्वारा इसी कुमार्गका निर्देश और पागममें २ देखो, कारिका ३२, ३४; ४४।।
उसके खण्डन-विधानका प्ररूपण है। ३ 'सुश्रद्धा मम ते मते' इत्यादि पद्य नं. ११४
५ देखो, कारिका ११, १५, ३१, ३३, ४१, १३१ । ४ मोहरूपो रिपुः पाप: कपायभटसाधनः ।
२ 'जिनशासन' नामसे इसमार्गका उल्लेख प्रन्थकी कारिका दृष्टि संविदुपेक्षास्त्रस्त्वया धीर ! पराजितः ॥ १० ॥ १८ तथा ७८ में आया है।
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किरण ११-१२ ]
समीचीन-धर्मशास्त्र और उसका हिन्दी भाष्य
यही सम्यग्दर्शनादिरूप वह धर्म है जिसे ग्रन्थकी ग्दर्शनादि रत्नत्रय होते हैं तो उन्हें व्यवहारतः उक्त पुण्य द्वितीय कारिकामें 'कर्मनिवर्हण' बतलाया और जो स्वय. प्रकृतियोंका बन्धक कहा जाता है, और इस जिये यह म्भूस्तोत्रकी कारिका ८४ के अनुसार वह सातिशय अग्नि शुभोपयोगका ही अपराध है-शुद्धोपयोगकी दशामें ऐसा है जिसके द्वारा कर्म-प्रकृतियोंको भस्म करके उनका मामा नहीं होता। अन्यथा, रत्नत्रयधर्म वास्तव में मोच (निर्वाण) से सम्बन्ध विच्छेद करते दुप प्रारमशक्तियोंको विकसित काही हेतु है, अन्य किसी कर्मप्रकृतिके बन्धका नही; जैसा किया जाता है। और इस लिये जिसके विषय में उक्त कि आगम-रहस्यको लिये हुए श्री अमृतचन्द्राचार्य के निम्नकारिकाकी व्याख्याके समय यह बतलाया जा चुका है कि वाक्यामे प्रकट हैवह वस्तुत: कर्मबन्धका कारण नहीं, जो ठीक ही है, क्यों "सम्यक्त्व-चारित्राभ्यां तीर्थकराहारकर्मणो बन्धः । कि चार प्रकारके बन्धोमेसे प्रकृतिबन्ध तथा प्रदेशबन्ध योऽप्युपदिष्टः समये न नयविदां सोऽपि दोपाय ।। योगसे और स्थितिबन्ध तथा अनुभागबन्ध कषायसे होते हैं, सति सम्यक्त्चरित्रे तीर्थकराहारबन्धको भवतः। सम्यग्दर्शनादिक न योगरूप हैं और न कषायरूप है तब योग-कपायौ नाऽसति तत्पुनम्मिन्नदासीनम् ।। इनसे बन्ध कैसे हो सकता है ? इस पर यह शंका की जा ननु कथमेवं सिद्धयतु देवायुप्रभृतिसत्प्रकृतिबन्धः। सकती है कि आगममें सम्यग्दर्शनादि (रग्नत्रय) को तीर्थ. सकलजनसुप्रसिद्धो रत्नत्रयधारिणां मुनिवराणाम ।। कर, श्राहारक तथा देवायु श्रादि पुण्यप्रकृतियों का जो रत्नत्रयमिह हेतुनिर्वाणम्यैव भवति नान्यस्य । बन्धक बतलाया है उसकी संगति फिर कैसे बैठेगी? इस आस्रवति यत्त पुण्यं शुभोपयोगोऽयमपराधः ॥ के उत्तर में इतना ही जान लेना चाहिये कि वह सब कथन एकस्मिन्समवायादत्यन्तविरुद्ध कार्य योरपि हि। नयविविक्षाको जिये हुए है, सम्यग्दर्शनादिके साथमें जब इह दहति घृतमिति यथा व्यवहारमाहशोऽपि ढमितः॥ रागपरिणतिरूप योग और कषाय नगे रहते हैं तो उनसे
-पुरुषार्थसिद्धयुपाय उक्त कर्मप्रकृतियोका बन्ध होता है और संयोगावस्थामें दो यहां पर मैं इतना और भी बतला देना चाहता हूं कि वस्तुओंके दो अत्यन्त विरुद्ध कार्य होते हुए भी व्यवहारमें इस रत्नत्रयधर्मके मुख्य और उपचार अथवा निश्चय श्रीर एक कार्यको दूसरेका कार्य कह दिया जाता है, जैसे घीने व्यवहार ऐसे दो भेद हैं, जिनमें व्यवहारधर्म निश्चयका जला दिया-जलानेका काम अग्निका है घीका नहीं, परन्तु सहायक और परम्परा मोक्षका कारण है. जबकि निश्चय दोनोंका संयोग होनेमे अग्निका कार्य घीके साथ रूढ होगया। धर्म साचात मोज्ञका हेतु है। और इनकी भावना दो इसी तरह रागपरिणतिरूप शुभोपयोगके साथमें जब सम्य- प्रकार होता है-एक समरूपमें और दूसरी विकलारूप
में। विकलरूप पाराधना प्रायः गृहस्थोंके द्वारा बनती है १ 'हुत्वा स्वकर्म-कटुकप्रकृतीश्चतस्रो,
और सकलरूप मुनियोंके द्वारा विकलरूपये (एकदेश अथवा रत्नत्रयाऽतिशयतेजसि जातवीर्यः ।
श्रांशिक) रत्नत्रयकी भाराधना करने वालेके जो शुभराग बभ्राजिषे सकल वेदविर्धर्विनेता,
जन्म पुण्यकर्मका बन्ध होता है वह मोक्षकी साधना सहान्यभ्रे यथा वियति दीप्तचिर्विवस्वान् ।
यक होनेसे मोक्षोपायके रूपमें ही परिगणित है, बन्धनो २ जोगा पांड-पदेमा ठिदि-अणुभागा कमायदो होति ।।
पायके रूपमें नहीं। इसीसे इस ग्रंथमें, जो मुग्यतया
गृहस्थोंको और उनके अधिक उपयुक्त व्यवहार सनत्रयको ३ योगात्यदेशबन्ध: स्थितिबन्धो भवति यः कषायात्तु ।
बचय करके लिखा गया है, समीचीन धर्म और उसके दर्शन-बोध-चरित्रं न योगरूपं कपायरूपं च ॥२१॥
अंगोपाडोका फसवर्णन करते हुए उसमें नि:श्रेयम सुम्बके दर्शनमात्मविनिश्चितिगत्मपरिज्ञानमिष्यते बोधः । ४ असमयं भावयतो रत्नत्रयस्ति कर्मबन्धो यः । स्थितिगत्मनि चारित्रं कुन एतेभ्यो भवति बन्धः ।।२१६।। सविपक्षकृतोऽवश्यं मोक्षोपायो न बन्धनोपायः ॥२११|| -पुरुपार्थमिद्ध्युपाय
-पुरुषार्थमित्युगय
सावर
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अनेकान्त
[वर्ष ७
अलावा अभ्युदयसुख अथवा लौकिक सुखसमृद्धि (उत्कर्षका) चारित्त आ ही जाता है। चूंकि वह सम्यक्चारित्र और भी बहुत कुछ कीर्तन किया गया है।
सम्यक्चारित्र सम्यग्ज्ञानके बिना नहीं होता और सम्यग्ज्ञान अब एक प्रश्न यहां पर और रह जाता है और वह यह सम्यकदर्शनके बिना नहीं बनता, अत: सम्यक् चारित्र कहने से कि धर्मके अधिनायकोंने तो वस्नुस्वभाव' को धर्म कहा है, सम्यग्दर्शन तथा सम्यग्ज्ञानका भी साथमें ग्रहण हो जाता चारित्र' को धर्म कहा है, अहिंसाको परमधर्म तथा दयाको है। स्वयं प्रवचनसारमें उमसे पूर्वकी गाथामें श्रीकुन्दकुन्दाधर्मका मूल बतलाया है और उत्तम क्षमादि दश लक्षण चायने 'जीवस्स चरित्तादो दंसणणाणप्पहाणादो' इस धर्मका खाम तौरसे प्रतिपादन किया है, तब अकेले रत्नत्रय वाक्यके द्वारा चारित्रका दर्शन-ज्ञान-प्रधान विशेषण देकर को ही यहां धर्मरूपमें क्यों ग्रहण किया गया है?-क्या उसे और भी स्पष्ट कर दिया है। अहिंसा चारित्रका प्रधान दूसरे धर्म नही हैं अथवा उनमें और इनमें कोई बहुत बड़ा अंग होने मे परमधर्म कहलाता है 'दया उमीकी सुगंध है। अन्तर है , इमके उत्तरमे मैं सिर्फ इतना ही कह देना दोनोंमें एक निवृत्तिरूप है तो दूसरा प्रवृत्तिरूप है। इसी चाहता है कि धर्म तो वास्तवमे 'वस्तुस्वभाव' का ही नाम तरह दशलक्षणधर्मका भी रत्नत्र पधर्ममें ममावेश है। और है, परन्तु दृष्टि, शैली और आवश्यकतादिके भेदमे उसके इसके प्रबल प्रमाणके लिये इतना ही कह देना काफी है कि कथनमें अन्तर पर जाता है। कोई संक्षेपप्रिय शिष्यों को जिन श्री उमास्वाति प्राचार्यने तत्वार्थसूत्रके पूर्वोद्धृत प्रथम लक्ष्य करके संक्षिप्त रूपमें कहा जाता है, तो कोई विस्तार सूत्र में सम्यग्दर्शन-ज्ञान चारित्रको 'मोक्षमार्ग' बतलाया है प्रिय शिष्यों को लक्ष्यमें रखकर विस्तृत रूपमें। किसीको उन्हीने इस सूत्रके विषयका स्पष्टीकरण करते हुए संवरके धर्मके एक अगको कहने की जरूरत होती है, तो किपीको अधिकारमें दशलक्षण धर्मके सूत्रको रक्खा है, जिसमे स्पष्ट अनेक अंगों अथवा सर्वाङ्गोंकी। कोई बात सामान्यरूपसे है कि ये सब धर्म सम्यग्दर्शनादिरूप रग्नत्रय धर्मके ही कही जाती है, तो कोई विशेषरूपसे । और किमीको पूर्णतः विकसित अथवा विस्तृत रूप हैं। ऐसी हालतमे श्रापत्तिके एक स्थानपर कह दिया जाता है, तो किसीको प्रशों में विभा- लिये कोई स्थान नही रहता और धर्मका यह प्रस्तुतरूप जित करके अनेक स्थानोंपर रखा जाता है। इस तरह बहुत ही सुव्यवस्थित, मार्मिक एवं लचयके अनुरूप जान वस्तुके निर्देश में विभिन्नता भाजाती है. जिसके लिये उसकी पड़ता है। अस्तु । दृष्टि श्रादिको समझनेकी जरूरत होती है और तभी वह अब आगे धर्मके प्रथम अंग सम्यग्दर्शनका लक्षण ठीक रूपमें समझी जा सकती है। धर्मका 'वस्तुस्वभाव' प्रतिपादन करते हुए प्राचार्य महोदय लिखते हैंबक्षण वस्तुमात्रको लक्ष्य करके कहा गया है और उसमें
सम्यग्दर्शन-लक्षण जर तथा चेतन सभी पदार्थ प्राजाते हैं और वह धर्मके श्रद्धानं परमार्थानामाताऽऽगमतपोभृताम् । पूर्ण निर्देशका अतिसंक्षिप्त रूप है। इस प्रथमें जडपदार्थों त्रिमूढापोढमष्टाङ्गं सम्यग्दर्शनमस्मयम् ॥ का धर्मकथन विवक्षित नहीं है बल्कि 'सत्वान्' पदके वाच्य 'परमार्थ प्राप्तो, परमार्थ आगमों और परमार्थ जीवात्माओं का स्वभाव धर्म विवक्षित है और वह न.प्रति तपस्वियोंका जो अष्ट अङ्ग सहित, तीन मूढता-रहित संक्षेप न-प्रति विस्तारसे सम्यग्दर्शन ज्ञान-चारित्ररूप है। तथा मद-विहीन श्रद्धान है उस सम्यग्दर्शन कहते हैं।इसके सम्यक्चारित्र अंगमें 'चारित्तं खलु धम्मो' का वाच्य अर्थात यह सब गुण-समूह सम्यग्दर्शनका लक्षण है१ धम्मो वत्थुमहायो।
अभिव्यङ्गक है-अथवा यों कहिये कि प्रारमा सम्यग्दर्शन २ चारित्तं खलु धम्मो धम्मो जो मो समो ति णिहिटो ।
धर्मके प्रादुर्भावका संयोतक है।' मोदकवोद यहणो परिणामो अपणो हु मम ॥ ७॥ व्याख्या-यहाँ 'श्रद्धान' से अभिप्राय श्रद्धा, रुचि,
-प्रवचनसार प्रतीति, प्रत्यय (विश्वास), निश्चय, अनुराग, सादर मान्यता, ३ उत्तमक्षमा-मार्दवार्जव-सत्य-शौच-संयम-तपस्त्यागाकिञ्च- गुणप्रति, प्रतिप्रीति (सेवा, सस्कार) और भक्ति जैसे शब्दों के न्य-प्रहाचर्याणिधर्मः ।
-तत्त्वार्थसूत्र १ सारा तत्त्वार्थसूत्र वास्तवम इसी एक सूत्र यष्टीकरण है।
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किरण ११-१२]
समीचीन धर्मशास्त्र और उसका हिन्दी-भाष्य
१५७
भाशयसे है। इनमेंसे श्रद्धा, रुचि, गुणप्रीति, प्रतिपत्ति और शाम, ज्योतिषशास, शब्दशास्र, गणितशाब, मंत्रशास्त्र, भक्ति जैसे कुछ शब्दोंका तोस्वयं प्रन्धकारने इसी प्रथमें-- छंदःशास्त्र, अलंकारशास्त्र, निमित्तशास, अर्थशास, भूसम्यग्दर्शनके अंगों तथा फलका वर्णन करते हुए प्रयोग गर्भशास्त्र, इत्यादि। इसी तरह अनेक विद्या, कला तथा भी किया है। और दूसरे शब्दोका प्रयोग अन्यत्र प्राचीन लौकिकशाचोकी शिक्षा देनेवाले गुरु भी लोकमें प्रसिद्ध ही हैं साहित्यमें भी पाया जाता है। प्राप्तादिके ऐसे श्रद्धानका अथवा लौकिकविषयोंकी सिद्धिकेलिये अनेक प्रकारकी तपस्या फलितार्थ । तदनुकूल वर्तनकी उत्कण्ठाको लिये हुए करने वाले तपस्वी भी पाये जाते है। जैसे कि भाजकल परिणाम-अर्थात् निर्दिष्टच तपागम-तपस्वियोंके वचनोंपर स्वराज्यकी प्राप्तिके लिये अनेक प्रकारकी कठिन तपस्या विश्वास करके (ईमान लाकर) उनके द्वारा प्रतिपादित करनेवाले सत्याग्रही वीर देखने में भाते हैं अथवा अद्भुत तत्त्वोपदेशको सत्य मानकर--उसके अनुसार अथवा अद्भुत माविष्कार करनेवाले वैज्ञानिक उपलब्ध होते हैं। श्रादेशानुमार चलनेका जो भाव है वही यहां 'श्रद्धान' परमार्थ विशेषणसे इन सब लौकिक प्राप्तादिकका पृथकरण शब्दके, द्वारा अभिमत है।
होजाता है। साथ ही, परमार्थका अर्थ यथार्थ (सत्यार्थ) होने और 'परमार्थ' विशेषणके द्वारा यह प्रतिपादित किया से इस विशेषणके द्वारा यह भी प्रतिपादित किया गया है गया है कि वे प्राप्तादिक परमार्थ-विषयके-मोक्ष अथवा कि वे प्रासादिक यथार्थ अर्थात् सच्चे होने चहिये--प्रय. अध्या'मविषयके--प्राप्त-भागम (शस्त्र )-तपस्वी होने थार्थ एवं झूठे नही । क्योंकि लोकमें परमार्थ विषयकी चाहिये--मात्र लौकिक विषयके नहीं, क्योंकि लौकिक अन्यथा अथवा प्रारमीय धर्मकी मिथ्या देशना करनेवाले भी विषयोंके भी प्राप्त, शास्त्र और गुरु (तपस्वी) होते हैं। जो प्राप्तादिक होते हैं, जिन्हे प्राप्ताभाम, भागमाभाम आदि जिम विषयको प्राप्त हैं-पहचा हुश्रा है-अथवा उसका कहना चाहिये। स्वयं ग्रन्थकार महोदयने अपने प्राप्तमीविशेषज्ञ है एक्सपर्ट (Expert) है--वह उस विषयका मांसा' ग्रंथमे ऐसे प्राप्तांके अन्यथा कथन तथा मिथ्या देशना प्राप्त है । विश्वसनीय (Trustworthy, reliable), को लेकर उनकी अच्छी परीक्षा की है और उन्हें 'प्राप्ता. प्रमायापुरुष (Gaurantee) और दक्ष तथा पटु भिमानदग्ध' बतलाते हुए" वस्तुत: अनाप्त सिद्ध किया है। (Skiltul, clever) को भी प्राप्त कहते है। और इस विशेषणकं द्वारा उन सबका निरसन होकर विभिन्नता ऐसे प्राप्त लौकिक विषयों के अनेक हुआ करते हैं। प्राप्तके स्थापित होती है। यही इस विशेषण पद (परमार्थानां')के वाक्यका नाम प्रागम' है अथवा पागम शब्द शाबमात्रका प्रयोगका मुख्य उद्देश्य है और इसीको स्पष्ट करने के लिये वाचक है .-स्वयं ग्रन्थकारने भी शास्त्रशब्दके द्वारा उसका प्रन्यमें इस वाक्यके अनन्तर ही परमार्थ प्राप्तादिका यथार्थ इसी प्रन्थमे तथा अन्यत्र भी निर्देश किया है। और स्वरूप दिया हुआ है। लौकिक विषयोंके अनेक शास्त्र होते ही हैं, जैसे कि वैद्यक- परमार्थ प्राप्तादिकका श्रद्धान-उनकी भक्ति- वास्तव १ देखो, कारिका ११, १२, १३, १७, ३७, ४१ ।।
में सम्यग्दर्शन (सम्यक्त्व) का कारण है-स्वयं सम्य. २ देखो, वामन शिवराम पाटेके कोश-संस्कृत इंग्लिश
ग्दर्शन नहीं । कारण यहां कार्यका उपचार किया गया है डिक्मनरी तथा इंग्लिश सस्कृत डिक्सनरी।
५ वन्मतामृतबाह्याना मर्वथैकान्तवादिनाम् । ३ आगम: शास्त्रयागतौ (विश्वलोचन), आगमस्वागनी प्रामाभिमानदग्धाना स्वष्ट दृटेन बाध्यते ॥७॥
शास्त्रेऽपि (हेमचन्द्र अभिधानमंग्रह); आगम: शास्त्रमात्र ६ श्रावकाप्तिकी टीकामें श्री हरिभद्रमूग्नेि भी अहन्यामन (शब्दकल्पद्रुम)।
की प्रीत्यादिरूप श्रद्धाको, जो कि मम्यक्त्य का तु है, ४ देखो, इसी ग्रन्थ की 'अातोपज्ञ' इत्यादि कारिका तथा कारण में कार्यके उपचार से सम्यक्त्व बतलाया है और प्राप्तमीमासाका निम्न वाक्य
परमग मोक्षका कारण लिया है । यथा-इनरम्य तु 'स त्वमेवामि निदोषोयुक्तिशास्त्राविरोधिवाक' ॥६॥ व्यवहारन यस्य सम्यक्त्वं सम्यक्त्वहेतुरपि ईच्छामन
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अनेकान्त
[वर्ष ७
और उसके द्वारा दर्शनके इस स्वरूपकथनमें एक प्रकारसे भक्तिको स्पष्टतया सम्यक्त्व (सम्यग्दर्शन)का गुण लिखा भी भनियोगका समावेश किया गया है। प्रन्यमें सम्यग्दर्शनकी है, जैसा कि निम्नगाथासूत्रसे प्रकट है, जिसमें सवेग, निर्वेद, महिमाका वर्णन करते हुए जो निम्न वाक्य दिये हैं उनसे निन्दा, गर्दा, उपशभ, भक्ति, वात्सल्य और अनुकम्पा, ये भी भक्तियोगके इस समावेशका स्पष्ट उल्लेख पाया जाता है- सम्यक्तके आठ गुण बतलाये हैं"अमराप्परसा परिषदि चिरं रमन्ते जिनेन्द्रभक्ताः स्वर्गे:३७ संवेओ णिवेओ णिंदण गहा य उक्समो भत्ती। "लवा शिवं च जिनक्तिरपति भव्य." ॥४॥ वच्छल्लं अणुकंपा अट्टगुणा हंति सम्मत्ते ॥ और दर्शनिक प्रतिमाके स्वरूपकथन (का. १३७) में
-वसुनन्दि श्रावकाचार ४६ सम्यग्दृष्टि के लिये जो 'पञ्चगुरुचरणशरण:'--'पंचगुरुओं
पंचाध्यायी और जाटीसहितामें, इसी गाथाकं उद्धरणके चरण (पादयुगल अथवा पद-वाश्यादिक) ही है एकमात्र
के साथ, अहंद्भक्ति तथा वात्सल्य नामके गुणोंको शरण जिसको' ऐसा जो रिशेषण दिया गया है
संवेगलक्षण गुणके लक्षण बतलाकर सम्यक्तके उपलक्षण तथा अन्यकी अन्तिम कारिकामें जो दृष्टिलक्ष्मी (सम्यग्य
बतलाया है और लिखा है कि वे सवेग गुणके बिना दर्शनमम्पत्ति) को 'जिनपदपद्मप्रेक्षणी' बतलाया गया है
होते ही नही-उनक्तं अस्तित्वसे संवेग गुणका अस्तित्व वह सब भी इसी बातका द्योतक है। पचगुरुसे अभिप्राय
जाना जाता हैपंचपरमेष्टीका है, जिनमसे अहन्त और सिद्ध दोनो यहां
“यथा सम्यक्त्वभावस्य संवेगो लक्षणं गुणः । 'प्राप्त' शब्दके द्वारा परिग्रहीत हैं और शेष तीन प्राचार्य
स चोपलक्ष्यते भक्त्या वात्सल्येनाथवाऽवताम् ॥ उपाध्याय तथा साधु परमेष्ठीका संग्रह 'तपस्वी' शब्दके द्वारा
भक्तिर्वा नाम वात्सल्यं न स्यात्संवेगमन्तग। किया गया है, ऐसा जान पड़ता है । इसके सिवाय, प्रकृत
संवेगो हि दशो लक्ष्म द्वावेतावुपलक्षणी ॥ पद्यमें वर्णित सम्यग्दर्शनका लक्षण कि सरागसम्यक्त्वका
इसी तरह निन्दा और गह: गुणोंको सम्यक्रवके लपललक्षण है-वीतराग सम्यक्त्वका नहीं, इससे इसमे भक्ति
पण बतलाया है; क्यों क व प्रशम (उपशम) गुणके लक्षण योगके समावेशका होना कोई अस्वाभाविक भी नही है।
है-अभिव्यजक हैं । अर्थात् प्रशम, सवेग, अनुकम्पा और
श्रास्तिक्य ये चार गुणा सम्यग्दर्शनके लक्षण हैं, तो भईद प्रात्यादि कारणे कार्योपचागत् । एतदर शुद्धचतसा भक्ति, वात्सल्य, निन्दा और गहीं ये चार गुण उसके पारमयेणापवर्ग हेतुरिति ।"
उपलक्षण हैं । इससे भी 'भक्ति' सम्यग्दर्शनका गुण १ मराग और वीतराग ऐसे मम्यग्दर्शन के दो भेद है
ठहरता है।
(समाप्त) स द्वधा सरागीतरागविषयभेदात्"
२ देवी, पचाध्यायी उत्तगध, श्लोक ४६७ स ४७६ तथा ___ --सर्वार्थीमद्धि अ. १ मू.२ लाटीमाहता, तृतीयमर्ग श्लोक ११० से ११८ ।
-0-0-- (पं० सूरजचन्द 'सत्यप्रेमी') हे जिनदेव । विनय स्वीकारो ! मन-मंदिर में श्राज पधारो॥ अस्रव रोक बध घायकरके इस भवसागरसे उद्धारो ! अन्ता द पंच परमेश्वर सकल-सघ-पति धर्म-गणेश्वर ! हे जिनदेव ! विनय स्वीकारी मनमंदिरमें भाज पधारो ! समिति-गुप्तका बीज वपन कर इस जीवनका क्षेत्र सुधारो!! धर्माऽधर्माऽऽकाश जीवमय काल और पुद्गलका संचय ! हे जिनदेव ! विनय स्वीकारो, मनमंदिरमें आज पधारो! पट कर्मों का परिचय देकर नित्यानित्यकांत निवारो !! रागद्वेषकी प्रन्थि छुडानो रत्नत्रयका रूप दिखाओ !! हे जिनदेव! विनय स्वीकारो, मनमंदिरमें प्राज पधारो ! गुणस्थान-सोपान चढ़ाकर अष्टकर्म प्रावरण विदारो ! जगमें स्वार्थोंका प्रचार है, विषय भावका अंधकार है ! हे जिनदेव ! विनय स्वीकारो मनमदिरमें आज पधारो !! सत्यप्रेमके सूर्यचंद्रकी दिम्य ज्योति उरमें विस्तारो !! जीव-जीव विवेक करायो, पुन्य पापका मर्म बताओ! हे जिनवदेव! विनय स्वीकारो, मनमंदिरमें आज पधारो !
विनय स्वीकारो!-.-.
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सुलोचनाचरित्र और देवसेन (लेखक-पं० परमानन्द जैन, शास्त्री )
संस्कृत और प्राकृत की तरह अपभ्रंश भी साहित्यिक भाषा के कर्ता देवसेन है । जिन्होने मदविजयी होते हुए गुरुके रही है और जनसाधारण के व्यवहारमे इसका उपयोग भी उपदेशसे तपका निर्वाह किया था, जो धर्मके उपदेशक, होता रहा है । इसके साहित्यका समवलोकन करनेसे भली- संयमके परिपालक और भव्यजनरूपी कमलोंके अज्ञानान्धभॉति निश्चित हो जाता है कि यह भाषा बड़ी ही लोकप्रिय कार विनाशक रवि (सूर्य) थे । शास्त्र ही जिनका परिग्रह रही है । जैनियोंके चरित्रग्रन्थोंका अधिकतर निर्माण इसी था, कुशीलके विनाशक थे, धर्मकथाके द्वारा प्रभावना भाराम हुआ है। अब तक इस भाषाके जो ५०-६० ग्रन्थ करना उनका स्वभाव था, और वे उपशमके निलय, ग्नदेखनेको मिले हैं उनसे मैं इस निष्कर्षपर पहूँचा हूँ कि त्रयके धारक, सुजनो में सौम्य तथा जिनगुणोंमें अनुरक थे । यह भाषा अपने समय में बहुत ही उत्कर्षपर रही है। इसकी उक्त गुणोंसे विशिष्ट कविवरदेवसेनने मुलोचनाके जीवन कितनी ही रचनाएँ तो पढते समय इतनी प्रिय मालूम होती चरित्रको बड़े ही सुन्दर ढंगसे पद्धड़ी, चौपाई, सम्गिणी और हैं कि छोड़नेको जी नहीं चाहता। अस्तु ।
भुजंगप्रयात अादि विविध छन्दोमें रचा है। जिनसेनाचार्य अाज मैं पाठकोको अपभ्रंश भाषाके एक ऐसे ही चरित
तथा महाकवि पुष्पदन्त के आदिपुगणगत सुलोचनाच रत ग्रन्थका कुछ परिचय करानेका उपक्रम कर रहा हूँ जो
कसानो का भी अन्य में उपयोग किया गया है और इस तरह ग्रंथको प्रायः अब तक अनुपलब्ध था । इस ग्रंथका नाम 'सुलोयणा
खूब लोकोपयोगी बनानेकी और खास ध्यान रखा गया
र चरिउ' है। इसमे भगवान आदिनाथके सुपुत्र भरत चक्रवर्ती
मालूम होता है । मुलोचनाकाचरित्र स्वत: बड़ा ही उज्ज्वल (जिनके नामसे इस देशका नाम भारतवर्ष प्रख्यात हुश्रा
और प्रभावशाली रहा है, कविने उसे और भी सरस बनाने है) के प्रधान सेनापति जयकुमारकी धर्मपल्ली सुलोचनाका,
का प्रयत्न किया है। अन्यकी महत्ताका दूमग कारण यह जो उन्हें स्वयंबर द्वारा प्राप्त हुई थी और राजा अकंपनकी
भी है कि देवसेनकी यह प्राय: निजकी कृति नहीं है, किन्तु पुत्री थी, चरित्र दिया हुआ है।
श्राचार्य कुन्दकुन्दके एक गाथाबद्ध 'सुलोचनाचरित' का
पद्धडिया श्रादि छन्दोमें अनुवाद है, जैसा कि उसके छठे इस ग्रंथके कर्ता मुनि देवसेनगणी या गणधर है जो कडबकी निम्न पंक्तियोंसे प्रकट है:निवडिदेवके प्रशिष्य और विमलसेन गणधरके शिष्य थे।
जं गाहाबधे श्रासि उत्त, सिरिकुदकुंदगण्णिा गिरुत्त । विमलसेन पंचेन्द्रियोंके सुखरागके विनाशक, शीलगुणोंके ।
तं एत्यहि पद्धडियहि करेमि, परि किपि न गूद उ अत्यु देमि । धारक, गुणोंक रत्नाकर, उपशम, क्षमा और संयमरूपी जल ।
तेण वि कविणउ संसा लहंति, जे अत्युदेखि वसणादि विनि के सागर, मोहरूपी महामल तहके लिये उत्तम इस्ती और भव्यजनरूप कुमुदवनखंडाको विकसित करनेके लिये ...
इस उल्लेखपरसे कविकी जहाँ प्रामाणिकता दृष्टिगोचर चन्द्रमा थे। साथ ही महान तपस्वी थे, दर्शन-ज्ञान-चारि- हात
होती है वहा प्राचार्य कुन्दकुन्दके एक महत्वपूर्ण सुलोचना त्रादि पंचाचाररूप परिग्रह के धारक थे. मितिमा चरितका भी स्पष्ट पता चलता है जो श्राजतक अनुपलब्ध गुप्तियोसे समृद्ध थे, मुनिगणोंके द्वारा वंदित और लोकमें ।
है। श्रर तक सिर्फ महाकवि महासेनके सुलोचनाचरित्रका प्रसिद्ध थे। उन्होंने कामदेव के प्रसारको रोका था । दुर्धर हाउ
ही उल्लेख* उपलब्ध होता था और उसकी बड़ी प्रशंमा पंचमहावनोको धारण किया था। वे मलधारीदेवके नामसे *महासेनस्य मधुरा शीलालंकारधारिणी । भी पुकारे जाते थे। इन्हीं विमलसेनके शिष्य प्रस्तुत ग्रन्थ कथा न वणिता केन वनितेव सुलोचना ॥३३|-हरिवं रापु०
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अनेकान्त
[वर्ष ७
भी सुनी जाती है, परन्तु दुर्भाग्यवश वह ग्रन्थ भी अनुपलब्ध
ताण जाया मई पावसंसग्गिणी, है। इसी तरह अनेक महत्वपूर्ण मौलिक कृतिया श्राज एरिसो छंदश्रो बुच्चए सम्गिणी । हमारी श्राखोसे ओझल हो चुकी हैं-उनका कहीं पता भी स्वयंवर मंडपमें जब सुलोचना भरत चक्रवर्तीके पत्र नही चलता । श्राशा है विद्वानों और श्रीमानोका लक्ष्य अर्ककीर्ति जैसे राजकुमारोको छोड़कर जयकुमारके गलेमें पुरातन साहित्यके अन्वेषण एवं प्रसारकी ओर अग्रसर होगा। वरमाला डालती है, तब अर्ककीर्ति और अन्य दूसरे राज
पाठकोंकी जानकारीके लिये मैं ग्रन्थगत एक दो छन्दों कुमार, जो स्वयंवरकी नीतिसे असंतुष्ट थे, अपने अपमानका के उदाहरण भी प्रस्तुत कर देना चाहता हूँ जिससे पाटक बदला लेने के लिये जयकुमारके साथ युद्ध करने के लिये उनके स्वरूपका बोध करते हुए ग्रन्थकी रचना शैली और प्रस्तुत होगए, परन्तु उनमें कितने ही न्यायप्रिय राजाश्रोने उमके विषयसे भी परिचित हो सके । अत: सबसे प्रथम जयकुमारका भी साथ दिया। दोनों पोरकी सेनाएँ रणभूमि भगवान आदिनाथकी दीक्षाका प्ररूपक 'मगिणी छंद' नीचे में मुसज्जित होकर श्रागई और परस्पर युद्ध भी होने लगा। दिया जा रहा है, जिसमें भगवान श्रादिनाथकी दीक्षाका कविने उस समयके युद्धका जो चित्रण दिया है, उसे भी वर्णन करते हए उनके प्रेम अथवा भक्तिवश सायमें दीक्षित बतौर उदाहरणके नीचे दिया जाता है, जिससे यह सहज होनेवाले कच्छ महाकच्छादि चार हजार राजाओंका भी ही मालूम होजाता है कि प्राचीन काल में रणभूमिमें धार्मिक उल्लेग्व है, जो दुष्कर तपश्चर्यासे खेदखिन्न होकर पथभ्रष्ट मर्यादाका उल्लंघन नहीं किया जाता था। उम समय युद्धमे होगए थे-मुनिधम के विरुद्ध आचरण करने लगे थे :
धार्मिक मर्यादाका उल्लंघन करना बड़ा भारी पाप समझा “गामिणी सामिणी मेल्लिऊणं जिणो,
जाता था, इतना ही नहीं किन्तु अस्त्रविहीनोपर शत्रका मायरी माणिणी ग्वामिउणं जिणो।
प्रहार नही किया जाता था, प्रत्युत जो जिम शस्त्रका धारक थक्कु णिगंथुद्दो एवि जोईसरी, होता था उसपर उसी शस्त्रसे प्रहार करनेका उपक्रम किया मुक्कबाहो श्रवाहो हु तित्थंकरो ।
जाता था और जो भट रणभूभिसे भाग जाता था उम पीट सीस केसा असेसा विणिद्धाडिया, दिग्वाने वालेके विरुद्ध कभी शस्त्रसंचालन नही किया जाता णाई कम्मस्स मूला समुगडिया।
था परन्तु आज कल युद्धका कुछ रूप ही दूसरी तरहका हेमात्ते धरेऊण ते सक्किणा,
दृष्टिगोचर होरहा है। उसमें धार्मिकताकी तो गंध भी नही; घल्लिया खीरतोए समुद्देतिणा ।
किन्तु कुटनीतिका साम्राज्य ही यत्र तत्र दिखलाई दे रहा तं णिएऊण मारो मणा मकिउ,
है। अस्तु, उस युद्धका प्ररूपक एक कड़वक इस प्रकार हैलायणाहो फुडं अज दिवं किउ ।
भडो को वि खग्गेण खां खलंतो, सुक्कझाणासिणा णित्तुलं मारिही,
रणे सम्मुहे सम्मुहो श्राहणंतो । मज्झभजाण रंडत्तणं कारिही ।
भडो को वि वाणेण वाणो दलतो, भीमचित्तो अणंगो बुहाण पिया,
समुद्धाइ उदुद्धरो णं कयंतो ? मुक्कवासा अकेसा गरेसाथिया ।
भडो को वि कौतण कोतं सरंतो, होइ णिग्गंथरूवा सहस्सा चऊ ,
करे गाढचक्को अरी संपहुंतो । केत्तिर कालवि ते किलिहावऊ ।
भडो को वि खंडेहि खंडी कयंगो; कच्छयाई महाकच्छ भग्गा तवे,
लडर ण मुक्को सगा जो अहंगो। णाई गट्ठा अधीरा भडा श्राइवे ।
भडो को वि संगामभूमि घुलंतो, श्वेताम्बरीय विद्वान् उद्योतनसूरिने भी 'कुवलयमाला * यः शस्त्रवृत्तिः समरे रिपुः स्यात्, यः कंटको वा निजमंडलस्य के ३६ वे पद्यमें, और महाकवि धवलने हरिवंशपुराणमें अस्त्राणि तत्रैव नृपाः क्षिपन्ति, न दीन-कानीन-शुभाशयेषु ।। महासेनकी सुलोचनाका उल्लेख किया है।
, --यशस्तिलक उ. पृ०६६
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किरण ११-१२]
सुलोचना-परित्र और देवसेन
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विवरणोह गिद्धावली णीयअंतो।
अरंभीय चित्ता सुउ हुलवत्ता । भड़ो को वि घाएण गिवटि सीसो,
णियं सोययंती इणं चित्तवंती, असि वा वरेई श्ररीसाण भीसो।
अहं पावयम्मा अलजा अधम्मा । भडो को वि रत्तापवाहे तरंतो,
मई कज एयं रणं अज जायं, फुरतप्पएणं तडि सिग्धपत्तो । भडो को वि मुक्का उहे बजइत्ता,
बहूणं णराणं विणासं करेणं, रहे दिएणयाउ विवरणोह णित्ता।
मह जीविएणं ण कज्ज अणेणं । भडो को वि इत्थी विसाणेहि भिएणो,
जयाहंसताउ ( श्रो) स-मेहेमराई, भडो को विकटोछिएणोणिसरणो।
सहे मंगवाई इमो सोमराई । पत्ता-तहि अवसरि णियसेण्णु पेच्छिवि सर-जजरियउ। घना--२ सयलवि संगामि. जीवियमाणकुमारहो ।
धाविउ भुयतोलंतु जर वकु मच्छर भरियउ॥६-१२ पेच्छमि होइ पविनि, तो सरीरमाहारहो ।
युद्ध के समय सुलोचनाने जो कुछ विचार किया उसे इन नमूने के तौरपर दिये हुए दो तीन कड़वकोपरसे ग्रंथकारने गूंथनेका प्रयत्न किया है। अर्थात् सुलोचनाको पाठक प्रस्तुत ग्रन्थ के प्रतिपात विषय और कविकी भावजिनमन्दिरमें बैठे हुए जब यह मालूम हुआ कि महंतादिक भंगीका अदाजा लगाने में समर्थ हो सकेंगे। ग्रन्थका कथापत्र बल और तेज सम्पन्न पाँचसौ सैनिक वैरिपक्षने मारे भाग बड़ा ही रुचिकर है और उसे विविध छन्दोमें पढ़कर डाले हैं जो तेरी रक्षाके लिये नियुक्त किये गए थे । तब और भी श्रानन्द प्राता है। वह अपनी प्रात्मनिदा करती हुई विचार करती है कि यह कविवर देवसेनने इम ग्रन्थमे अपनी श्रोरसे कालिदास सग्राम मेरे कारण ही हुश्रा, जो बहुतसे सैनिकोका विनाशक हरिस, वाण, मयूर, हलिय, गोविन्द, चउमुम्ब, है। अत: मुझे ऐसे जीवनसे कोई प्रयोजन नहीं। यदि युद्ध स्वयंभू, पुष्पदन्त और भूपाल नामके कवियोका स्मरण मे मधेश्वर (जयकुमार) की जय हो और मैं उन्हें जीवित किया है । साथ ही, अन्यकी दशमी मधिके शुरूमें देखलूंगी, तभी शरीर के निमित्त श्राहार करूंगी। इससे स्पष्ट एक गाथामें यहाँ तक प्रकट किया है कि चतुर्मुख है कि उस समय सुलोचनाने अपने पतिकी जीवन-कामना और स्वयंभू प्रमुख कवियोंके द्वारा रक्षित और महाकवि के लिये श्राहारका भी लाग कर दिया था । इमसे उसके पुष्पदन्त द्वारा दुहित सरस्वतीरूपी गौके पयका देवसेनने पातिव्रत्य और पतिभक्ति का उच्चादर्श सामने श्राता है। पान किया जैसा कि उसके निम्न पद्यसे प्रकट हैजैसा कि निम्न कडवकसे प्रकट है
च उमुह-सयंभु-पमुहेहि स्विय दुहिय पुफियंनेण। इमं जंपिऊणं पउत्तं जयेणं,
सुरसह मुरदीए पयं पीयं सिरि देवसेणेण ।। तुम एह कराणा मनोहारवण्णा ।
रचनाकाल सुरक्खेद पूणं पुरेणेह उणं,
कविवर देवसेनने 'सुलोचनाचरित' की रचना 'मम्मल' " तउ जोइ लक्खा अणेया श्रमखा।
राजाकी नगरी में निवास करते हुए की है । 'मम्मल पुरी' सुसत्था वरिएणा महं रक्वदिण्णा,
*जहि वमीयवाम सिरि हरिसहि, रहा चारुचिघा गया जो मयंधा ।
कालियाम जे पमुह कह सरसदि । महंताय पुत्ता बला-तेयजुत्ता,
वाण-मृ यूर-हलिय-गोविन्दति । सयापंचसखा हया वैरिपक्वा ।
च उमुह श्रवरु मयंभू कइंददि । पुरीए णिहायं वरं तुग गेहं,
पु'फयंत - पाल पहाण दि , फुरतीह गीलं मणीलं करालं ।
अवर हिमि बहु सत्य वियाणहि। पिया तत्थ रम्मोवरे चित्तकम्मे,
-सुलोयणाचरिउ, आदिभाग
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१६२
अनेकान्त
[वर्ष ७
किस देशकी नगरी है यह प्रयत्न करनेपर भी अभी तक देवसेनकी अन्यकतृत्वरूपसे भी प्रसिद्धि है, किन्तु नाम-साम्य मालूम नहीं हो सका। बहुत संभव है कि उक्त नगरीका के कारण उनका समय निर्णय करने में इतिहासज्ञोंके लिये नामकरण 'मम्मल या मम्मट' राजाके द्वारा बसाये जानेके बड़ी ही कठिनाई उपस्थित हो जाती है । यहा ऐसे कुछ कारण हुश्रा हो, और वह नाम उस समय अत्यधिक देवसेन नामक विद्वानोंका परिचय एवं विचार उपस्थित प्रसिद्धि में आरहा हो, इसीसे ग्रन्थकारने उसका विशेष किया जाता हैउल्लेख करनेकी श्रावश्यकता न समझी हो।
(१) प्रथम देवसेन वह है जिनका उल्लेख श्रवणग्रन्थमें जिन विद्वानोंका नामोल्लेख किया गया है उन बेल्गोलके चन्द्रगिरि पर्वतपर शक सं०६२२ वि० सं० सबमें समयकी दृष्टि से पुष्पदन्त ही बाद के विद्वान मालूम होते ७५७ में उत्कीर्ण शिलावाक्यमें पाया जाता है । यह है, क्योंकि उनका अस्तित्वकाल शक सं०८६४ वि० सं० महामुनि देवसेन व्रतपाल स्वर्गगामी हुए हैं। १०२६ तक तो निश्चित ही है। उसके बादका उनका कोई
(२) दूसरे देवसेन वह है जो धवला टीकाके कर्ता परिचय उपलब्ध नहीं होता । मालूम होता है प्रस्तुत देवसेन श्राचार्य वीरसेनके शिष्य थे और जिनका उल्लेख प्राचार्य पुष्पदन्तक महापुराणादि ग्रन्यास अवश्य पाराचत रह ह । जिनसेनने जयधवला टीकाकी प्रशस्तिके ४४ वे पद्यमें किया अत: देवसेनके समयकी पूर्वावधि पुष्पदन्त का उक्त हे च कि वीरसेनका समय निश्रित है अत: इन देवसेन समय या उससे कुछ बादका समय हो सकता है।
का समय भी वही होना चाहिये । इस ग्रन्थकी रचना राक्षस संवत्सरमें श्रावण शुक्ला
(३) तीसरे देवसेन वे हैं जिन्होंने धारानगरीमें रहते चतुर्दशी बुधवार के दिन पूर्ण हुई है। जैसा कि उस ग्रन्थ
हुए विक्रम संवत् ६६० में 'दर्शनसार' की रचना की है। के निम्न पद्यसे प्रकट हैरक्खससंवत्सरे बुइ दिवसए । सुक्कचउद्दिसि सावगामामए।
पिटर्सन साहबने इन्हें अपनी रिपोर्ट में रामसेनका शिष्य
लिखा है। चरिउ सुलोयणादि णिप्पण्णउ, सह-अत्य-वण्णण-संपुण्ण उ॥ साठ संवत्सरोंमेंसे राक्षस संवत्सर ४६ वा है। ज्योतिष
दर्शनसारमें ग्रन्थकर्ताने अपने गण-गच्छादिका कोई की गणनानुसार एक राक्षस संवत्सर १०७५ A. D. उल्लेख नही किया है और न अपनी कोई गुरुपरम्परा ही दी (वि.सं. १९३२) २६ जुलाईको श्रावण शुक्ला चतुर्दशी है जिससे उनके जीवनादि सम्बन्धमें विशेष प्रकाश डाला बुधवार के दिन पड़ता है । और दूसरा १३१५ A. D. जाता। किन्तु उनके दशनसारको देखते हुए यह निश्चय(वि० सं० १३७२) में १६ जुलाईको उक्त चतुर्दशी और पूर्वक कहा जा सकता है कि वे मूल-संघके विद्वान थे। बुधवारको पहता है। इन दोनों समयों में २४० वर्ष का मूलसंधान्तर्गत काठासंघादिके नहीं; क्योंकि ग्रन्थकार उन्हें अन्तर है. शेष संवतों में श्रावण शक्ला चतुर्दशी बधवारका स्वयं जैनाभास लिख रहे हैं। दर्शनसारमें देवसेनने अपनी दिन नहीं पड़ता। अतः इनमेंसे यहा कौन सा संवत् उपयुक्त अन्य किसी रचनाका कोई उल्लेख नहीं किया है। फिर भी
कौनसा नही, और किस देवसेनके साथ प्रस्तुत ग्रन्थकर्ता तत्त्वसार, आराधनासार, नयचक्र और श्रालापपद्धति ये देवसेनका सामंजस्स स्थापित हो सकता है, ये दोनों बातं चार ग्रन्थ भी इन्हींकी कृति मालूम होते है, अन्यभावही विचारार्थ प्रस्तुत है।
xदेखो, जनशिलालेख संग्रह पृ.१३॥ दिगम्बर जैन सम्प्रदायमें 'देवसेन' नामके अनेक +देखो, जयधवला प्रशस्ति पद्य न. ४४ । विद्वानोंका उल्लेख मिलता है और उनमें किसी किसी = पिटसन सा ने देवसेनको रामसेनका शिष्य कैसे लिखा, * ज्योतिषकी गणनानुसार राक्षस संवत्सरका उक्त समय उसका क्या आधार है? यह कुछ समझमें नहीं आया । मित्रवर पं. नेमीचन्दजी न्याय-ज्योतिषशास्त्री, मैनेजर हो सकता है कि उन्हें कोई परम्परा ऐसी मिली हो जिसमें जैनसिद्धान्त भवन श्राराने निकाल कर भेजनेकी का देवसेनको रामसेनका शिष्य लिखा हो, यदि यह सत्य हो तो की है जिसके लिये मैं उनका प्राभारी हूँ।
भी दोनोकी एकता नहीं बनती।
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किरण ११-१२]
सुलोचना-चरिश और देवसेन
संग्रहादि नही, परन्तु पं. नाथूगमजी प्रेमी नयचक और जैसा कि उसकी निम्न दो गाथाओंमे प्रकट हैदेवसेनसूरि नामके अपने लेखमें नयचक्रादिके साथ श्रावाहिऊण देवे मुग्वइ-सिहि-कालणेरिए वरुणे । दर्शनसार और भावसंग्रहकी एक कर्तृकता ही प्रकट नहीं पवणे जखे सशूली सापय सवाहणे मसत्थे य ॥४३६|| करते किन्तु दर्शनसारके कर्ताको भी विमलमेन गणी या दाऊण पुजदब्वं बलि चरुवं तह य जगणभायं च । गणधरका शिष्य प्रकट करते हैं। प्रेमीजीकी इम एक कर्तृ- सम्वेसि मंतेदिय बीयावरणामजुत्तेहि ॥४॥ कताका आधार दर्शनमारकी कुछ गाथाश्रोका भावसंग्रहम ऊपर के इस कथनसे स्पष्ट है कि दर्शनसारके कर्ता पाया जाता है। परन्तु प्रेमीजीको उक्त कल्पना ठीक नहीं है। देवसेन विमलसेन गणीके शिष्य न होने और भावसंग्रहके दर्शनसारके कर्ता और भावसंग्रहके कर्ता देवमेन दोनों मूनसंघकी किमी एक शाखाका ग्रन्थ होने श्रादिके कारण अभिन्न व्यक्ति नही है, उनको भिन्नताके निम्न कारण है- उन दोनोका एकल नही दो मकता।
(१)दर्शनमारके कर्ता विमलसेन गणीके शिष्य नहीं हैं। इनके मित्राय जिन देवमेनका पन्थ प्रस्तुत 'सुलोचनाचरिउ' क्योकि ग्रंथमें अपने गुरुका ऐमा कोई उल्लेख नहीं किया है उन्होंने अपनी गुरुपरम्परा देते हुए अानेको विमलसेन है। जबकि भावसंग्रहके कर्ता देवसेन अपनेको विमलसेन गणीका शिध्य सूचित किया है । अत: भावमंग्रा और गणीके शिष्य लिखते हैं।
सुलोचनाचरितके कर्ता देवमेन दोनों एक ही व्यक्ति जान (२) दर्शनसारकी कतिपय गाथाओंका भावसंग्रहमे पड़ते है । क्योकि दोनोक गुरु एक है। पाया जाना भी उसकी एक कतकताका आधार अथवा इनके सिवाय, एक चतुर्थ देवमेन वह है जिनका नियामक नही हो सकता क्योंकि बादका अन्धकार भी अपने उल्लेख मुभाषिनरल सन्दोह और धर्मपरीक्षादिके कर्ता प्रन्यमे उनका उपयोग कर सकता है उन्हें प्रथमे शामिल प्राचार्य अमितगतिने अपनी गुरुपरम्पराम किया और कर उसका अंग बना सकता है। और भी कितने ही उन्हें माथुर-मघा वीरमेनका शिष्य बतलाया है। ये अमितात ग्रंथकारांने अपनेसे पूर्ववर्ती विद्वानोके ग्रन्थोके वाक्यों आदि विक्रमको ११ वा मदीके विद्वान् है। को मूलरूपमे शामिल कर लिया है।
पंचम देवमेन वह हैं जिनका उल्लेग्न दुवकुण्डके
मं० ११४५ के शिलालेखमें पाया जाता है, जो लाइसंघको छोडकर अन्य काटासंघ और द्राविड संघादिको वागडमंघके उन्नत रोहणाद्रि थे, विशुद्ध रत्नत्रय धारक समय मिध्यात्वी या जैनाभास घोषित करता है । परन्तु
थे और समस्त श्राचार्य जिनकी श्राजाको नतमस्तक होकर भावसंग्रह केवल मूलमंघका प्रयनहीहै यह मलसंमान्त. हृदयम धारण करने थेxम मन्दिर-प्रशस्तिके लेखक गंत काष्ठासंघादिका मालूम होता है। साथ ही, उसमें त्रिव- विजयकातिम देवमन कमसे कम यदि ७५ वर्ष पहले ाचारके समान ही पाचमन, मकलीकरण, यज्ञोपवीत और मान लिये जाय
जोली मान लिये जायं तो इन देवमेनका ममय वि० सं० १०७० पंचामृत अभिषेकका विधान पाया जाता है. इतना ही नही होगा और यदि मौ वर्ष कम किए जायं नो १०४५ में किन्तु इन्द्र, अग्नि, काल, नैऋत्य, वरुण, पवन, यक्ष और इन देवमेनका अस्तित्व मानना पड़ेगा। सोमादिको सशस्त्र तथा युवति, वाहन सहित श्राहानन छठ देवमेन वे हैं जिनका उल्लेग्व माथरसंघके करने, बलि चरु आदि पूज्य द्रव्य तथा यशके भागको भट्टारक गुगाकीर्तिके शिष्य यश:कालिन वि. स. १४६७ बीजाक्षर नामयुक्त मंत्रांसे देनेका विधान किया गया है, वे के अपने पाण्डवपुराणमें किया है। परन्तु यश-कीर्ति * सामसेन त्रिवर्णाचारमें भी दश दिक्पालोंका, आयुध, प्रासीद्विशुद्धतरबोधचरित्रहॉट-निःशेपमूरिनतमस्तकधारिताशः वाहन और युवति सहित पूजनेका विधान है-"ॐ श्रीलाटवागड़गणांनतरोहणादि-माणिक्यिभूतचरिती गुरुदेवसेनः इंद्राग्नियमनेऋत्यवरुणपवनकुवेरेशानधरणसोमाः सर्वेप्यायु
-दग्बो, दुवकुण्डका शिलालेख धवाइनयुवतिसहिता आयात प्रायात इदमय॑मित्यादि सिरि कटुमंघ माहुरहो गच्छ, पुस्वरगणि मु णिवई विलच्छि दिक्पालार्चनम् ।
-त्रिवर्णाचार पृ० १३६ संजायउ वीर जिणुक्कमेण, परिवाडिय जहवर णिश्यएण।
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अनेकान्त
[वर्ष
और कवि रबधूके अनुसार यह देवसेन माथुरमंघके विद्वान् थे, बाद विमलसेनका नाम रखना आपत्तिजनक होजाना है। जो संभवतः ग्वालियरकी गद्दीके पट्टपर प्राप्सीन हुए थे। परन्तु जहां तक मैं समझता हूँ प्रस्तुत विमलसेनके शिष्य किन्तु प्रशस्तिमे इन देवसेनके बाद विमलसेनका नाम ही देवसेन जान पढ़ते हैं। यदि मेरा यह विचार ठीक हो दिया हुआ है। यदि यह नाम समयक्रममे नही दिये गये तो 'भावसंग्रह' और 'सुलोचनाचरिउ' के कर्ता देवसेनको है तब तो कोई बात नहीं है । और यदि पाण्डवपुगण माथुरसंघका विद्वान् मानना होगा, और तब ६६. में रचे प्रशस्तिवाले नाम समयक्रमसे दिये गए हैं तब देवसेनके जाने वाले दर्शनमारके कर्ता देवसेनसे इनका कोई संबध सिरि देवसेणु तह विमलसेणु, तह धम्मसेणु पुणभावसेणु। नही बन सकेगा। और फिर इनका समय विक्रमकी १२ वी तहो पट्ट उवएगाउ सहसकित्ति, प्रणवग्य भमिय जासुकित्ति या तेरहवी शताब्दी मानना अनुचित नहीं होगा। तह विक्वायउ गुणाकत्तिणामु, तवतेएं जामु सरीरु ग्वामु । श्राशा हे विद्वान इसपर विचार करनेकी कृरा करेंगे। तहो णिय बंधउ जसकित्ति जाउ, श्रायग्यि पणासिय दोसु-गउ। वीरसेवामन्दिर, सरसावा
-देखो, पाण्डवपुगण देहलीप्रति। ता०५।८।४५
सम्पादकीय
१ अनेकान्तकी वर्ष समाप्ति
खरीदकर निर्दिष्ट (अधिकृत) मे अधिक कागज अपने इस किरण के साथ 'अनेकान्त' का ७वाँ वर्ष समाप्त पत्रमे इस्तेमाल नही कर सकता था। और निर्दिष्ट कागजके दोस। इस वर्ष में अनेकान्त ने अपने पाठकोंकी कितनी
स माजनिती समयपर मिलनेका सरकारकी ओरसे कोई प्रबन्ध नहीं था। सेवाकी, कितने महत्वके लेख प्रस्तुत किये, कितनी नई खोजे इसीसे दो दो महीनोकी किरणोका एक एक अंक निकालने के सामने रक्खी, क्या कुछ विचार-जागृति उत्पन्नकी और समाज लिये बाध्य होना पड़ा, और वह भी समयर कागज न के राग-द्वेषसे कितना अगल रहकर यह ठोस सेवा कार्य करता
मिलने तथा कागजके जैसे तैसे मिलनेपर प्रेसका उसे समय
पर छापकर न देने प्रादि कारणोंसे विलम्बके साथ* । इससे रहा, इन सब बातोंको बतलानेकी जरूरत नहीं पाठक उनमे भली प्रकार परिचित हैं। पर मैं इतना नरूर कहूँगा कि जितनी
पाठक एक तरफ लेखोंके कुछ टाटेमे रहे तो दूसरी तरफ उन्हे सेवाएँ की जानेको थीं और की जानी चाहिये थी वे इस
प्रीतक्षान्य कष्ट भी उठाना पड़ा, जिसका मुझे खेद है! वर्ष नहीं होसकी। उनमें सोंगरि मुख्य मेवा थी 'वीरशामनाङ्क,
प्रतीक्षाजन्य कष्ट उठाते उठाते कितने ही सजनोका तो नामक एक असाधारण विशेषाङ्कके निकालनेकी, जिसे
धैर्यका बोध दूद गया और उन्होंने यद्वा तदा शब्दोंमें सरकारके पेपरकंटोल पाईरोने अशक्य बना दिया, उसके
अव्यवस्थाकी भर्सेना तक कर डाली ! एक-दोने अपना विचारोंको बलात् दबाना पड़ा और पाठक दर्शनांके
चन्दा भी वापिस मांगा जो उन्हें भेज दिया गया, और लिये उत्कण्ठित ही हगये ! कही प्रस्तावितरूपमें यह
कुछ सज्जन ऐसे भी निकले जो प्रेम भरे शब्दोंमें इस विशेषाङ्क निकल जाता तो जैनसाहित्यमें एक बड़ी ही उपयोगी
प्रकारसे लिखते रहे-'अनेकान्त ही समाजमें एक ऐमा पत्र तथा अपूर्व चीजकी सृष्टि हो जाती। परन्तु कण्ट्रोल
है जिसे देखने और दिखलानेकी बराबर उत्कण्ठा बनी बार्डरका प्रहार हतने तक ही सीमित नहीं रहा, उसने
रहती है अतः कृपया इसे समयपर ही मेजा कीजिये। इसमें मासिक अंकों (किरणों) की कायाको भी अत्यंत क्षीण बना देशमे और भी कितने ही मासिक पत्र इसी चक्कर में पड़कर दिया । सरकारसे कागज न माँगनेपर भी, कोई चोर बाजारसे द्विमासिक त्रिमासिकके रूपमें नया विलम्बसे निकले हैं।
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किरण ११-१२]
सम्पादकीय
सन्देह नहीं कि श्रीमान्के अनवकाशके कारण ही ऐशा होगा और सभीक सहयोगसे यह पत्र ऊँचा उठकर लोकहितकी (विलम्बके साथ प्रकाशन) होना होगा तो भी 'अनेकान्त' साधना-द्वारा अपने ध्येयको पूरा करने में समर्थ हो सकेगा। प्रेमियोके लिये यह अवश्य बेचैनीका कारण है । श्राशा है यहार में उन सजनोका खामतौरसे अाभार प्रकट करता भविष्यमे श्राप अनेकान्त-प्रेमियोकी बेचैनीपर भी ध्यान है और उन्हें धन्यवाद देता हूं जिन्होंने इस वर्ष समय समय रक्वेगे।' अस्तु ।
पर अनेकान्तको आर्थिक सहायता भेजी तथा भिजवाई है जिन दो चार ग्राहकाने रोष व्यक्त किया वह मुझे बुग और जिनके नाम अनेकान्तमे प्रकट होते रहे हैं। उनमें सर नही लगा; क्योंकि मैंने देखा, उसमें उनका कोई कसूर सेठ हकमचंदजी इन्दौर, साह श्रेयासप्रसादजी बम्बई, बाबू नही-अाखिर मामिक पत्रको समय पर निकलान ही लालचन्द जी एडवोकेट रोहतक, ला. फेरूमल चनरसेनजी चाहिये । परन्तु मैं मजबूर था-परिस्थितियों के कारण पराधीन सर्धना (मेरठ), ला० रामसुखी काशलीवाल इंदौर, बा. था। फिर भी मैंने इस बातपर अधिक ध्यान रखा कि फूलचन्दजी सेठी नागपर और ला. उदयराम जिनेश्वरदास थोड़े में ही पाठकोको अधिक मैटर पढ़ने को मिले और वह जी महारनपुर के नाम विशेष उल्लेखनीय है। मब अधिक उपयोगी तथा स्थायी महत्वका हो, जिससे वे
इस वर्ष के सम्पादन-कार्यमें मुझमे जो कोई भूले हुई अधिक टोटेमें न रहे। इसके लिये अधिक चार्ज देकर हो अथवा सम्पादकीय कर्तव्यके अनुरोधवश किये गये मेरे प्राय: सभी लेखोंमें बारीक टाइपका प्रयोग कराया गया और किसी कार्यव्यवहारसे, टीका-टिप्पणीम या स्वतंत्र लेखसे लेग्योंके स्टेडर्डको सदा ही ऊचा रखनेका यत्न किया गया। किसी भाईको कल कष्ट पहचा हो तो उसके लिये में हृदय उसीका फल है कि यह पत्र अाज भी लोकमें श्रादरका पात्र से क्षमा प्रार्थी हैं। क्या कि मेग लक्ष्य जान बूझकर किसी बना हुश्रा है-परिचित जनता इसे गौरवकी दृष्टिसे देग्वती
नता इस गारवका हाटस देवता को भी व्यर्थ कष्ट पहुँचाने का नही रहा है और न सम्पादहै, इसके लिये उत्कण्ठित रहती है और समाज इसे अपना कीय कर्तव्यसे ऊपेक्षा धारण करना ही मुझे कभी इष्ट रहा है। एक श्रादर्शपत्र मानता है। और यह सब सौभाग्य इस पत्रको उन विद्वान लेखकोकी कृपासे ही प्राप्त है, जिन्होने अपने २भनेकान्तका अगला वर्षअच्छे अच्छे लेखों द्वारा इसकी सेवा की है और इसे हनना चकि अनेकान्त बहुत लेट होगया है-उसकी जूनउन्नत, उपादेय तथा स्पृहणीय बनानेमें मेरा हाथ बटाया है। जुलाईकी किरण अब सितम्बर को ममामिपर प्रकाशित होरही अतः इस अवसर पर मैं उनका धन्यवाद किये बिना नहीं है, और इस लेटको जल्दी पूरा करनेका कोई साधन नजर रह सकता। उन सजनोमे पं. नाथूरामजी प्रेमी, पं० दर- नदी पाता। अत: अगला वर्ष इन्ही महीनांके सिलसिले बारीलालजी न्यायाचार्य, पं० परमानन्दजी शास्त्री, बा. मे अर्थात् अगस्त १६४५ मे प्रारम्भ नहीं हो सकंगा-- ज्योतिप्रसादजी एम० ए०, प्रो० हीरालालजी, बा. जयभग- उसके लिये नया ही सिलासला शुरू करना होगा, और वह वानजी वकील, श्रीकानन्दजी, पं. पन्नालालजी साहित्या- भी तब जब प्रेकी ठीक व्यवस्था होकर उममें समयपर चार्य, स्व. भगवत्स्वरूपजी 'भगवत्', मुनिश्री श्रात्मागम काम मिलनेकी पूरी गारण्टी मिज जावेगी; क्यो कि मैं इस जी उपाध्याय, श्रीकानजी स्वामी, पं. रतनलाल जो संघवी, वर्ष प्रेमकी वजहसे बहुत ही तग श्रागया हूँ और उसके श्रीनगरचंदजी नाइटा, श्रीफतेहचन्दजी बेलानी, बा. माणिक- कारण मुझे कितना ही मानसिक कष्ट उठाना पड़ा है । जहाँ चन्दजी बो. ए, बा. उग्रसेन जी एम० ए०, श्रीजमनालालजी तक खयाल हैं श्राठवें वर्ष की पहली किरण दीवाली के बाद विशारद, पं. बलभद्र जी, पं० सुमेरचन्दजी दिवाकर और श्री कार्तिकी पूर्णिमा तक प्रकाशित हो सकेगी। साथ ही, यह 'पुप्पेन्दु'जीके नाम खासतौरसे उल्लेखनीय हैं। आशा है भी संभव है कि इमपत्रका रूप तब और भी उन्नत हो जाय । भविषयमें अयेकाम्तको और भी मुलेखकोंका सहयोग प्राप्त श्रत: पाठकोंको उम वक्त नकके लिये धैर्य रखना चाहिये।
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साहित्य-परिचय और समालोचन
१ तीनपुष्प-ले०, पं. कैलाशचन्द्रजी शास्त्री भादवा ३ 'सौरभ-लेखक, कवि श्री हरिप्रसाद शर्मा (जयपुर)। प्रकाशक, लालताकुमारी मत्रिणी श्रीशारदा 'अविकसिन' । प्रकाशक, दी स्टूडेण्टम श्रोन हाउस सहेली संघ, जयपुर । पृष्ठ संख्या ३४० । मूल्य २) रुपया । पबलिशर्स एण्ड स्टेशनर्स, सहारनपुर । पृष्ट १०४, मू० १॥)।
प्रस्तुत पुस्तकमे तीन मामाजिक नाटकोका संकलन किया कवि 'अविकसित' जी जम्बूविद्यालय जैन हाई स्कूल गया है। वृद्धविवाह, विधवा और उत्सग । इस पुस्तकके सहारनपुरमे हिन्दी के प्रधान अध्यापक हैं और उन्होने अपनी लिखनेका उद्देश्य स्त्री णत्री द्वारा सामाजिक रूढियोंका यह रचना मौरभ-प्रेमी रायमाहब ला० प्रद्युम्नकुमारजी जैन निरसन करना है, साथ ही जनतामे कुरीतियोंके प्रति अरुचि रईस सहारनपुरको समर्पित की है, जिनकी प्रेरणाको पाकर और सुरीतियोके प्रति प्रेम उत्पन्न करना है। लेखक महोदय ही वे अपने काव्य-कुसुमोके इस सौरभमय संग्रहको प्रकाशित अपने उद्देश्यके अनुमार उक्तनाटकांके लिखनेमे बहुत कुछ करने में प्रवृत्त हुए हैं। इसमे विभिन्न विषयोपर ३७ सफल हुए है। यद्यपि भापाकी दृष्टि से कहीं २ पर कुछ वाक्य- कविताएँ हैं। साथमे कनखल के श्री किशोरीदासजी बागपेयी विन्यास अथवा शब्द समुचित रूपमे नही हुश्रा, फिर भी की मनोरंजक 'भूमिका' भी । कविताएँ प्रायः सब सुन्दर, पुस्तक उपादेय है। और इससे राजपूतानेमे फैली हुई सरल, सुबोध, रुचिकर तथा रस-भरी हैं, हृदयको स्पर्श कुरीतियोंको दूर करनेमें जरूर सहायता मिलेगी। इसके लिये करती है और जनताके माथ सम्पर्कको लिये हुए हैं। अतः लेखक महाशय धन्यवादके पात्र हैं।
ग्राह्य है। यो छापने और गूंथनेकी कुछ भूलें मारूर है: २ भगवान महावीर का अचेलकधर्म-लेखक, पं. परन्तु भावोके सौरभके मामने सब नगण्य है। इस विषयमे कैलाशचंदजी शास्त्री, प्रधानाध्यापक स्यादाद महाविद्यालय भूमिकाको निम्न पंक्तियों पाठकोंका अच्छा पथ-प्रदर्शन भदैनीघाट, बनारस । प्रकाशक, मंत्री प्रकाशन विभाग भा० करती हैं और उनमें सांकेतिक रूपसे पुस्तककी कितनी ही दि.जैनसंघ चौरासी मथुरा । पृष्ठ ३६, मूल्य पाच पाने। अालोचना तथा गुण-ग्रहण-विषयक प्रेरणा आजाती है
यह वही निबन्ध है जो वीरशासन-महोत्सवकै अवसर "सौरभ जहाँ है, वहाँ कुछ पुरानी सूखी पत्तिया भी पर कलकत्ताम पढ़ा गया था। निबन्ध बहुत ही परिश्रमके हो सकती हैं, कुछ और भी ऐसी ही चीजे । यह स्वाभाविक साथ गवेषणापूर्ण लिखा गया है। भाषा सौम्य और सरल है। है। इनका न होना ही अनैसर्गिक है। आप सौरभ ग्रहण
इसमें विद्वान् लेखकने प्राचीन श्वेता. साहित्यके अनेक करें, जहां मिल जाय। दूसरी वैसी चीजोंकी ओर ध्यान ही अन्योद्धरणों द्वारा यह प्रमाणित किया है कि प्रारंभमे श्वे- क्यों दे ? अच्छे रस-ग्राहीका, रस लेते समय, इधर-उधर ताम्बरपरमाराम भी भ. महावीरका अचेलक धर्म ही था ध्यान जायगा ही क्यों ? सहारनपुरी-मीठे गन्नेमे क्या गाँठे
और पीछे पीछे अचेलकताके स्थानमें सचेनता बौद्धभिक्षुओं नहीं होती है? नीचे जड़ और ऊपर नीरस पत्ते क्या उसमें की तरह पाई है। वस्त्र और पात्रोकी क्रमिक बढोतरी पर कछ बट्टा लगा देते हैं? सौरभ-पूर्ण कस्तूरी काली और भी प्रकाश डाला गया है। साथ ही, दिगम्बर साहित्यसे यह सुवर्ण मौरभ-हीन ! तो, क्या इन दोनोंका महत्व कुछ घर मिद्ध किया है कि उसमें सर्वत्र भ० महावीरके अचेलक धर्म गया ? ऐमी किसकी कविता है, जिसमें कोई पख न निकाली का ही प्रतिपादन और समर्थन है। इस तरह यह पूरा ही जा सके ? यह भी एक मानवकृति है। निबन्ध बहुत ही प्रामाणिकताके साथ लिखा गया है, और आशा है इस सौरभके फूटनेसे 'अविकसित' जी अब इस लिये महत्वपूर्ण एवं प्रत्येकके लिये पठनीय है। विकसित हो उठेंगे। -परमानन्द शास्त्री
-सम्पादक 'अनेकान्त'
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इतिहासमें भगवान महावीरका स्थान (ले०-बा० जयभगवान जैन एडवोकेट, पानीपत )
महावीरसे पूर्वकी स्थिति
धारा मवहार-राब खोगोंडी इस दुनियावी ररिकी सपज दुनियाके इतिहासमें सासे ... वर्ष पहिलेका थी, जो मनुष्यके ऐहिक-जीवनको सुखी और सम्पब देखना काल भाजके कारसे बहुत कुछ मिलता जुलता हाहै. चाहती थी। तीसरी बारा वीतरागी श्रमोंके सब भरपूर इस लिये इस युगकी परिस्थिति, प्रकृति और उनके परि दोंसे निकली थी, जो इस निस्मार, :खमय जीवनये यामोंको अध्ययन करना हमारी अपनी कठिनाईयोंको इस परे किसी अक्षय अमर सचिदानन्दजीवनका मामास कर करने के लिये बहुत जरूरी है। यह वह जमाना था, जब
रहे थे। इन्हीं तीनों पाराभोंके संगमपर भगवान महावीर
का जन्म हुआ था। इन्सानका जीवन मानसिक, धार्मिक और सामाजिक रुलियों
पपि उस समय ये तीनों विचारधारा अपनी अपनी से जकडा हुधा था। उसके विकासका स्वाभाविक सोत
पराकाष्ठाको पहुँच चुकी थीं-देवताबादमें "एकमेव दि. बहते बहते कर्तव्य-विमूहतासे पककर ठहर गया था। वह
तीया " का भान हो चुका था, अपवाद अपने बौकिक भनेक देवी-देवताओंकी मा-प्रार्थना करते करते अपनी
अभ्युदय बायको चक्रवर्तियोंकी निर्वाच समृद्धिमापन गुलामीसे उप चुका था और जाति, वर्ण तया धर्मके नाम
एकमात्र राष्ट्रीयताकी ऊंचाई तक चुका था और अभ्यापर बरते-भगदते उसका मन थक गया था। तब भाजादी
त्मवाद निर्विकल्पकैवल्य' जैसे मामा सर्वोच्च पादर्शको की भावना उठ उठ कर उसे वाचाल बना रही थीं। तब
एकर परमात्मपदकी सिद्धि कर चुका था, वह 'सोऽहम्' इसका मन किसी ऐसे सस्य और हकीकत्तकी तबाशमें घूम
और तस्वमसि' के मन्त्रोंकी दीक्षा देकर सर्वसाधारणमें रहा था, जिसे पाकर वह सहज सिद शिव शान्ति और
मात्मा और परमात्माकी एकताको मान्य बना चुका थासुन्दरताका पाभास कर सके, तब वह किसी ऐसी दुनिया
परन्तु कालदोषसे बिगडकर उस समय ये तीनों धारायें की रचनामें लगा था, जहां वह सबके साथ मिलजुल कर
अपनं अपने सहय, सरज्ञान और सत्पुरुषार्थको बोडकर सुखका जीवन बिता सके।
देवन उपरी धमाकारों, मौखिक वितपडावादों और सदिक यह जमाना दुनियाकी तवारीखमें मानसिक जागृति,
क्रियाकाण्डों में फस गई थी। अहंकार, विमूढता और दुराधार्मिक क्रान्ति और सामाजिक उथल-पुथलका युग था।
प्रहने हम्हें तेरा-तीन किया हुमाया। इनके पोषक और इस जमानेने पूर्व और पखिमके सभी देशों में अनेक महा.
उपासक कुछ भी रचनात्मक कार्य न करके केवल अपनी पुरुषोंको जन्म दिया था। अब योरुपमें पाइयेगोरस और
स्तुति और दूसरोंकी निन्दा करने में ही अपनेको कृत्य एशियामें कम्प्यूमस, लामोज जैसे महाराोंने जन्म खिया
मान रहे थे । पचपात इतना बढ़ गया था कि समी सचाई था। उस समय हिन्दुस्तानमें भगवान महावीर और भग.
के उस एक पहलुको देखते जो उन्हें माम्य था, अन्य सभी वान बुद्धने इस जागृति में विशेष माग लिया था।
पहलचोकी वे अवहेलना करते थे-ये सब एकान्तवादी उस जमानेके भारतमें तीन बीपदी विचारधाराय
बने थे। इनकी बुद्धि कूटस्थ हो रखी थी। तब उनमें न काम कर रही थी, जिन्हें हम माज देवतावाद, अपवाद हमके विचारों को सुनने और समझनेकी सहनशीलता थी और अध्यात्मवादके नामसे पुकार सकते हैं। पहली पारा
बामस पुकार सकते हैं। पहला धारा न दूसरों को अपनाने की उदारता थी, न जमानेकी परिस्थिति वैशिकषियों की सरितभरी निगाहसे पैदा हो धीजो
बाषयाका उस रतभरा निगावसे पदाहुर थाना के साथ बदलने सुधरने और भागे बढ़नेकी ताकत थी। कृतिक प्रयों और मकारोंको देख देखकर उनमें इन दिनों में संकीयंवा जवानमें कटुता और पविमें मनुष्योत्तर दिव्य शक्तियोंका भान कमा रही थी। दूसरी हिंसा भरी थी।
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१६८
अनेकान्त
[ वर्ष ७
मे वातावरणमें जात पात और वर्णव्यवस्थाके और भौतिक संस्कृतिको फैजानेके लिये जदवादके प्रसिद्ध मकीर्ण भावों को फलने-फूलने की खूब प्राजादी मिली थी। प्राचार्य अजितकेशकम्बली और वृहस्पति मैदानमें पा रहे तब जन्मके भाधार पर छुटाई बाईकी रूपनाोंने भार. थे। तीसरी तरफ भौतिकवादकी निस्मारता दिखाने के लिये तोय जनताको अनेक टुकडोंमें बांट दिया था। भारतकी अक्षपाद गौतम जैसे न्यायदर्शनको जन्म दे रहे थे । इनके मूल जातियों की दशा जो मानवताके क्षेत्रमे निकाल कर साथ ही साथ मस्करी गौशाल, संजय, प्रकद कात्यायन क्षुद्रताके गढ़ में धकेल दी गई थी, पशुओंसे भी परे थी। और पूर्णकश्या जैसे कितने ही प्राध्यामिक तत्ववेत्ता उन्हें अपने विकापके लिये पार्मिक, राष्टिक और मामाजिक अपने अपने ढगसे जीवन भीर जगतकी गुत्थियोको सुलमा कोई भी अधिकार और सुविधाएँ प्राप्त न थीं। तब धर्मके नौ लगे थे। नाम पर सब ओर हिंमा, विलापिता और शिथिलाचार बढ़ जैनधर्मका उद्धार और तत्कालीन स्थिति रहा था। मांस, मदिरा और मैथुन व्यसन खूब फैल रहे का
का सुधार - थे, स्त्री गोया स्वयं मनुष्य न होकर मनुष्य के लिये भोग
ऐसे वातावरण में लोगों के दिलों में ममता, मनमे उदावस्तु बनी हुई थी। व्यर्थ के अन्धविश्वासों, क्रियाकाण्डों
रता, बर्तावमें सहिष्णुता और जीवन में संयम-सदाचार भरने और विधि-विधानमि समाजके धन, समय और शक्तिका के लिये भगवान महावीरने अपने भादश जीवन और हास हो रहा था। तब धर्म मधिमादे प्राचारकी चीज न
उपदेश-द्वारा जिस श्रमण संस्कृतिका पुनरुद्वार किया था रहकर जटिल भाडबरकी तिजारती चीज बन गई थी, वह उनके पीछे जैनधर्मके नामसे प्रसिद्ध हुई। भगवान जो यज्ञ-हवन कराकर देवी-देवताओंम, दान-दक्षिणा देकर
महावीर इस धर्मके कोई मूल-प्रवर्तक न थे वह उसके पुगेहित पुजारियोंमे स्वरीती जा रही थी।
उद्धारक ही थे, क्योंकि यह धर्म उनसे बहुत पहिले, उस समय भारतके श्रमण साधु भी विकारमे वाली वैदिक आर्यगणक धानेमे भी पहिले, यहाँके मूलवासी नथे। उनमें से बहुतमे तो ऋद्धि-सिद्धिके चमत्कारों में पड़कर द्रविड़ और नाग लोगों में महंत, यति वास्य, जिन, निम्रन्य हठयोगके अनुयायी बने थे। बहुत माधुओं जैमा बाहरी अथवा श्रमण-सस्कतिके नामसे बराबर जारी था और पीछे रंगरूप बना कर रहने में ही अपनेको सिद्ध मानते थे। बहुत से विदेह और मगध देशों में भाकर बसने वाले सूर्यवंशी सतनकी बाहरी शदिको ही अधिक प्रधानना रहे थे। पार्यगय अपनाया जाकर पार्यधर्ममें बदल गया था। बहतमे सुम्ब शीलता पर कर थोधी सैद्धान्तिक चर्चाओं यह धर्म भारत-भमिकी ऐसी ही मौलिक उपज है. जैसे और वाकसंघर्ष में ही अपने समयको बिता रहे थे। बहुन कि यहाँक शैव और शाक्त नामके प्राचीन धर्म । इस ऐतिसे दम्भ और भयसे इतने भरे थे कि वे दूसरोंको अध्याम हामिक सच्चाईको मानने के लिये गो शरू शुरूमें ऐतिहासज्ञोंको विद्या देने में अपनी हानि सममने लगे थे।
बढी कठिनता उठानी पड़ी, किन्तु आज प्राचीन साहित्य भारतकी इस परिस्थिति में जब धर्मके नामपर मान- और पुरातत्वकी नई खोजोंसे यह बात दिन पर दिन अधिक वताका खून और प्रामाका शोषण हो रहा था, सबही प्रमाणित होती जा रही है कि जैनधर्म भारतके मूलवासी हृदयों में प्रचलित विश्वासों, मान्यताओं और प्रवृत्तियोंके द्रविड नोगोंका धर्म है। और महावीरमे भी पहिले इस विरुद्ध एक विद्रोह की लहर जाग रही थी, विचारों में उयल- - पुथल मची थी, स्थितिपालको और सुधारकों में संघर्ष चल । (अ) Plot Belvalkar-Brahma Sutra रहा था। इस संघर्षके फलस्वरूप तब सभी भाराओंके P 107 विद्वान अपने अपने सिद्धान्तोंकी संभाल, शोध और उनके (91) Prof Hermann Jacobi-S B. E इकट्ठा करने में लगे थे। एक तरफ वैदिक परम्पराकी रक्षाके Vol. XLV Jaina Sutias Part II, जिय भास्कराचार्य, शौनक और भाश्वलायन जैसे विद्वान 1895-Introduction pp XIV पैदा हो रहे थे। दूसरी तरफ वैदिक संस्कृतिको मिटाने -XXXVI.
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किरण ११-१२]
इतिहास में भगवान महावीर का स्थान
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धर्मके प्रचारक ऋषभदेव आदि २३ तीर्थकर और हो चुके भान्धी तूफान, भूकम्प ज्वाजाम्फोट, दिल. चूहे और हैं। इनमेंये अरिष्टनेमि और पार्श्वनाथ तो माज बहुत सांप प्रादिक भयानक उपद्रवोंको भनेक ककर्मा र स्वअंशोंमें ऐतिहासिक म्यक्कि भी सिद्ध हो चुके हैं। भाव देवी-देवताओंकी शक्तिया कल्पित करते थे और इन __ श्रमण-संस्कृति सदा ही जीवन-वकासके लिये मात की शान्ति के लिये अनेक प्रकारक धिनावने तान्त्रिक विधान तत्वोंको मुख्यता देती रहीहै-प्रारमविश्वास, मानसिक पशुबलि और नरमेधका प्रयोग करते थे। वैदिक मार्यों के उदारता, संयम, अनामक्ति, अहिंसा पवित्रता और समता। देवता यप हनशी अपेक्षा पौम्य और सुदर थे परन्तु भगवान महावीरने इन्हें ही माधना-द्वारा अपने जीवन में रष्टि वही प्राधिदैविक था। ये इन्सानी जिन्दगीको सुखउतारा था और इन्हीं की सबको शिक्षा-दीक्षा दी थी। यही सम्पत्ति देने वाले इन्द्र, मन, वायु, वरुण प्रादि देवताभों सात प्राध्यामिक तत्व प्राज जैन दार्शनिकोंकी बौद्धिक परि को मानते थे। इस लिये धन धान्यकी प्राप्ति, पुत्र-पौत्रोंकी भाषामें जीत, अजीव, पानव, बंध, संवर, निर्जरा और उत्पत्ति, दीर्घायु मारोग्यताकी सिद्धि शत्रु विजय भादिकी मोक्षक नामसे प्रसिद्ध हैं।
भावनामि उन देवनाओको यज्ञों-वार। खूब पन्तुष्ट करते वर्णव्यवस्था और मानवता
थे। इन यज्ञोमें बनस्पति घी आदि सामग्रीके अलावा
पशुओंकी भी खूब बलि दी जाती थी। इस तरह के विश्वासों भगवानने सामाजिक क्षेत्र में जन्मक प्राधारपर बने हुए
मे मनुष्यको प्रामविश्वास और पुरषार्थम हीन बना कर मानवी भेदभावोंका घोर विरोध किया। उन्होंने बतलाया
देवताओं का दाम ही बना दिया था। इस हालतसे उभारने कि जन्मकी अपेक्षा सभी मनुष्य समान है-मय ही एक
के लिये महावीरन बतलाया था कि मनुष्य का दर्जा देव. समान गर्भ में रहते हैं, एक समान ही पैदा होते हैं । सपके
ताओं बहुत ऊंचा है। मनुष्य अपने बुद्धिबल और योगशरीर और अंगोपात भी एक समान हैं, किन्हीं दो वर्णों के
बजम न केवल देवताओं को अपने प्राधीन कर सकता समागमसे मनुष्य ही उत्पन्न होता है। हम लिये मनुष्यों
बल्कि वे काम भी कर सकता है, जो देवताओंके लिये प्रसमें जन्मकी अपेक्षा विभिन्न जातियोंकी कल्पना करना कुदरत
म्भव है। मनुष्य यांगमापनासे गिामा, गरिमा मादि नियमके खिलाफ है। जन्मसे कोई भी ब्राह्मण, समय,
अनेक मिबियों को हामिल कर सकता है और अपनेको शिल्पी और चोर नहीं होते वे पर अपने कर्म, स्वभाव
परमात्मा तकस मिजा सकता है। और गुणोंसे ही ऐसे होते है। मनुष्यों में श्रेष्ठता और नीचता उनके अपने प्राचार-विचार पर ही निर्भर है। जो मनुष्यका सुखद स्व देवतायोक माधान नहीं है। लोग कुल, गोत्र, वर्ण श्रादि लोक-व्यवहत संज्ञानोंके यक्षिक स्वयं अपनी ही वृत्तियों और कृतिया भाचीन अभिमानमे बंधे हुए हैं, वे कल्याणके मार्गमबहत दर है। है-जी जैमा कर्म करना है वह वैमा ही फल पाता है। इन अभिमानोंको छोड़े बिना मनुष्य न अपना हित कर।
कर्मम ही स्वर्ग और कर्मम ही नरक मिलता है । इस लिये सकता है, न दूसरोंका।
मनुष्यको कम करने में बहा मावधान होना चाहिये । संसार
के सभी जीव स्वभावमे मौम्य और श्रेष्ठ है, ऊध्र्वगामी हैं। देवतावाद और अध्यात्मवाद
सभीमें परमात्मस्व श्रोतप्रोत है-अन्तर केवल उनके धर्मक्षेत्र में तो यहांकी प्राम जनता पुरानी रूठियोंकी।
विकाममें है जीवोका यह विकास जहा उनके किमी भावापर अनुयायी होनेसे अजीब अन्धविश्वामों और मुल प्रथाोंमें
दिव्य संमीर काल पर भी निभा फंसी हई थी। अनार्य लोग रोग, मरी, दुभिच, जलबार । भीतर और बाहिरकी मितिका अापसम बदा () R. B Ramprasad Chanda- घनिष्ट सम्बन्ध । एकका प्रभाव परे पर निरन्तर पद्धता
Surnival of the Prehistorue civi- रहता है। इन स्थितियोंकी प्रतिकूलतामें जीवका पतन होता lisation of the Indus Valley- है और इनकी अनुकुलनाम उसका उद्धार होता है। इस pp. 25-33.
लिये मनुष्यको उचित है कि वह अपने भावोंके मुधारक
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१७०
अनेकान्त
[ वर्षे ७
साथ अपने देश कालका भी सुधार करता रहे । वास्तवमें व्यापक और ममन्वयकारक थे, उनके सिद्धान्त ऐसे प्राशा. लोकका सुधार अपना ही सुधार है। और परकी सेवा पूर्ण उत्साहवर्धक और शान्तिदायक थे कि वह अपने अपनी ही सेवा है। संपारमें जीवको जितनी जितनी मात्रा जीवनकाल में ही प्रहन्त सर्वज्ञ, तीर्थकर आदि नामोंसे में स्वतन्त्रता, सुविधा, सहायता और नेक सुझाव मिलते प्रसिद्ध हो चले थे । केवलज्ञानप्राप्तिके पीछे वह भारतके चले जाते हैं, उसका जीवन उतना ही विकसित होता चला पूर्व, पश्चिम, उत्तर, मध्य और दक्षिणके देशोमें जहां कहीं जाता है। इस लिये मनुष्य का मबसे बड़ा धर्म यह है कि भी गये, सभी राजा और रंक, पतित और प्रतिष्ठित, वह सब जीवोंको अपने समान समझे और अपने समान ब्राह्मण और क्षत्रिय, वैश्य और शूद, पुरुष और स्त्रीने ही उनके साथ मैत्रीका व्यवहार करे । जो जीव दुःख। और उनका खूब स्वागत किया, मभीने उनके उपदेशों को भयभीत है. पराधीन और असहाय हैं उना साथ दया अपनाया और सभी सनके मार्गके अनुयायी बने । का व्यवहार करे। जो अपने गुणों की अपेक्षा बड़े हैं उन इनमें वैशालीके राजा चेटक अङ्गदेशके राजा कुणिक, के प्रति श्रद्धा और प्रमोदका वर्ताव करे । जो जीव विपरीत- कलिलाके राजा जितशत्र, वरसके राजा शतानीक, सिन्धुबुद्धि वा दुर्व्यवहारी है, उनसे भी क्षुभित होकर हिंसाका मौवीरके राजा उदयन, मगधके मम्राट श्रेणिक बिम्बमार, व्यवहार न करें, बल्कि उन्हे रोग और विकारग्रस्त ममम । दक्षिण हमांगद के राजा जीवंभर विशेष उल्लेखनीय हैं। कर उनके साथ माध्यस्थ्यवृत्तिमे रहकर चिकित्सकके समान इनके अतिरिक्त सम्राट श्रेणिकके अभयकुमार, वारिषेण बर्ताव करे।
भादि २३ राजकुमार और नन्दा, नन्दमती आदि १३ एकान्तवाद और अनेकान्तवाद
रानियाँ तथा उपरोक्त राजाओंमेंसे उदयन और जीवन्धर
तो उनके समान ही जिनदीक्षा ले अनश्रमण बन गये । विचारकोंके हठामष्ठ, पक्षपात और एकान्त-पद्धतिके
इनके अलावा वैदिक वाङमयके पारंगत विद्वान इन्द्रभूति, कारण लोगों में जो अहकार सकीणता, मनोमालिन्य, कजह
भग्निभूति, वायुभूति और स्कन्दक जैसे अपनी सैकडोंकी पलेश बढ़ रहे थे। उन्होंने भगवान महावीरके ध्यानको
शिध्यमण्डली महित तथा शालिमद्र, धन्यकुमार, प्रीतंकर विशेषरूपसे प्राकर्षित किया था । भगवान ने इस एकान्त
मादि मगधके धनकुबेर, विद्यच्चर, प्रजन जैसे डाकू और पद्धतिको ही ज्ञान अवरोध, मानसिक संकीर्णता, हार्दिक
चरखककौशिक जैसे महाघातक भी उनके द्वारा दीक्षित हो द्वेष और मौखिक वितण्डोका कारण ठहराकर इसकी कठोर
जैनमुनि हो गये । सस समय उनकी मान्यता इतनी बड़ी समालोचना की थी और बतलाया था कि सत्य, जिसे
चही थी कि वह समीके लिये एक अनुपम प्रादर्श, धर्म जाननेकी सबमे जिज्ञासा बनी है, जिसके सम्यकज्ञानसे
अवतार हो गये थे। सभीके लिये परमशान्ति, परमज्ञान, मुक्तिकी सिद्धि होती है, बहुत ही गहन और गम्भीर है,
परमानन्द चौर विश्वकल्याणके प्रतीक बन गये थे । उस वह भनेक अपेक्षाओंका पुरज है, अनेक विरोधोंका संगम ..
ममानेके लोग उनके आदर्श जीवनको ही दूसरे श्रमण वह भीतर और बाहिर सब ओर फैला हुधा है, वह अनादि
भईन्तोंकी पूर्णता और सर्वज्ञता जौचनेके लिये मापदया और अनंत है, वह हमारी सारी बौद्धिक मान्यताओं और
की तरह काम में लाते थे। विधिनिषेधरूप सारे शब्द-वाक्योंसे बहुत उपर है । वह
१ (अ) बा० कामताप्रसाद-भगवान महावीर और महाअनेकान्तमय है, इस लिये उसके अध्ययनमें हमें बहुत ही
त्मा बुद्ध-पृ०६५-६६ उदार होना चाहिये और तत्सम्बन्धी सभी विचारोंको
(आ)पं. कल्याणविजयजी-श्रमण भगवान महावीरसममने और अपनानेकी कोशिश करनी चाहिये ।
तीसरा परिच्छेद भगवानके प्रति लोगोंकी श्रद्धा
२ (अ) Dr. B. C.Law-Historical glea
___nings p 78. इस तरह महावीरका जीवन इतना तपस्वी त्यागपूर्ण, (आ) Buhler-Indian Sict of the दयामय, सरल और पवित्र था, उनके विचार इतने उदार, Jainas p. 132.
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किरण ११-१२
इतिहास में भगवान महावरका स्थान
उस समयके लोगोंकी भगवानके प्रति कितनी.श्रद्वा भारतके उत्तर-दक्षिणमे काम्बोज, गान्धार और बलखम और भक्ति थी, हम बातका अन्दाजा लगाने के लिये इतना लेकर सिंहलद्वीप तक और पूर्व-पश्चिममें श्रग-वंगमे लेकर कहना ही काफी होगा कि भारतके ऐतिहासिक युगमें मब मिन्धु, सुराष्ट्र तक सब ही स्थानों और जातियोंमें फैजा से पहला सम्बत जो कायम हुअा वह इन्होंके निर्वाण की हुअा था, और इसके मानने लोकी संख्या ईमाकी १६ वी शुभ स्मृतिम कायम हुआ था । यह पवन आज भी वीर• सदी अर्थात मुगल सम्राट अकबरके शासनकाल तक करोड़ मवतके नाम जैन लोगों में प्रचलित है । छ विद्वानांका में भी अधिक रही है। वास्तव में इस धर्मका उद्गव क्षत्रिय मत है कि द्वापर युगमे महाराज युधिष्ठरके राज्यारोहणकी वीगेकी योगपाधना हुआ है और उन्हीके गजवशोंकी स्मृतिम भी एक सवत भारतमें जारी हुआ था, परन्तु संरक्षना में ईसाकी १६ वी सदी तक इसका उत्कर्ष होता इसका निहामिक युगमे कोई मम्बन्ध नहीं है । भगवान रहा है। भारतके ऐतिहासिक युगमे ईसा पूर्वकी छठी सदी के तपस्या कालकी बगालप्रान्तगत वह पर्यटन-भूमि जो में लेकर अर्थात भगवान महावीरकानमं ईमाकी पहिली कभी गढ अथवा लाइ नामम प्रसिद्ध थी, इन्ही के वीर मदी तक हम इस धर्मको लगातार विदह देशके लिच्छवी अथवा वर्धमान नामोंके कारण श्राज तक वीरभूम और और मल्ल जानके क्ष त्रयोंमे मगधक शिशुनाग, नन्द और वर्दवानकं नाम प्रसिद्ध है।
मौर्यराजवशोम मध्यभारतक काशी, पोशल वन्म, अवन्ति, भारतके धाम जैनधर्मका स्थान
मथुराके राज्यशासकामें, कलिंगके खारवशासम्राट खारवेल
श्रादिके राजघरानाम, मुराष्ट्र राजपूतानाके लोगोम, उत्तरम भगवानने अपने जीवनकाल में जिम धर्मकी देशना की थी वह उनके निर्वाणके बाद उनके अनुयायी अनेक
गान्धार तक्षशिला श्रादिक देशाम, दक्षिणके पारद्धय,
पल्लव, चेर, चोल आदि तामिल दशाम हम हम धर्मको ग्यागी और तपम्वी महात्माप्रोके अभावके कारण और भी
एक पादरणीय धर्मके रूपमे मर्वत्र फैला हुया देखने है। अधिक फैला। वह फैलने फैलते भारतके सब ही देशाम
मौर्यमाम्राज्य बिम्बर जानेक उपगन्न, ईमा पूर्वकी पहुच गया और मब ही जातियों के लोगोंने इसमें शिक्षा
दुपरी मदीम जो यूनामी, इण्डी मीथियन अथवा शक दीक्षा ग्रहण की। यद्यपि हम धर्म माननेवालांकी सच्या
जातिक लोग एक दुमरके बाद उनरीय देशाम पाकर श्राज केवल २० लाखके लगभग है और यह धर्म प्राकिल
भारतके पश्चिम उत्तरके पजाब, विध, मालवा वादि प्रोनों अधिकतर वैश्य जातियों के लोगोमे ही फैला हुआ दिखाई
के अधिकारी होगय थे, वे भी जैनधर्ममें काफी प्रभावित देता है परन्तु इसमे यह भ्रान्ति कदापि न होनी चाहिये, कि
हुए थे । भारत के प्रमिह यवन राजा मनेन्द्र ( Menयह धर्म मदामे लघुसंख्यक नोगाद्वारा ही भारतम अपनाया
nander), जो जैन श्रमणीक प्रति बढी श्रद्ध' रखते गया अथवा यह धर्म पदाप वैश्य नोगामे ही प्रचलित रहा
थं-'अपने अन्तिम जीवन में जनधर्मम दीक्षित होगये थे। है। नहीं-साहिन्य, शिलालेख,पुरातत्व और स्मारकोफ अग
क्षत्रप नहपान भी नधमक बई प्रेमी थे। उनके सम्बन्ध णित प्रमाणाम यह बात पूरे तौरपर सिद्ध है कि यह धर्म
में विद्वानांका विचार है कि वह जनधर्ममें दाक्षित हावर (इ) मनिम निकाय-१४ वा मुन, अद्गना निकाय भूताल नामक एक दिगम्बर जैन श्राचार्य बन गये थे
१-२२० जिन्होने पटवण्डागम शास्त्रकी रचना की थी । मथुराक १ (अ) महा. हीराचन्द अोझा-भारतीय प्राचीन लिकि
प्रसिद्ध जैन पुगधम सिद्ध है कि कनिष्क, हुविक और माला । पृ० २, ३ (श्रा) लोकमान्य तिलक-सन् १९०४ में जैनकान्फरमम वापर
. वासुदेव शक राजाओके शासनकाल में जैनधर्मकी मान्यता दिया हुआ भापण।
१Dr. B C. Law Historical Gleaning २ (अ) N. L. Dey. Ancient Indian Geo- p76
graphical Dictionary p. 164 २ वार-वर्ष २, ४० ४४६-४४५ (आ) नागेन्द्रनाथ वमु--बंगला विश्वकोप- १६२१ ३ बा. कामता माइ-दिगम्बन्ध पृ० १२०
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१७२
अनेकान्त
[ वर्ष ७
बहुत फैली हुई थी।
की थी यहां यह भी सिद्ध है कि यूनानी बादशाह सिकन्दर मध्यकालीन युगमे भी यह धर्म राजपूतानेके राठौर, महानके साथ भारतम जाने वाले जैन ऋषि कल्याणके परभार, चौहान, गुजरात और दक्षिाके गग, कदम्ब, समान सैकड़ों जैनश्रमण समय समय पर उक्त देशोंमे राष्ट्रकूट, चलुक्य, कलचूरि और होयमल आदि राजवशों जाकर अपने धर्मका प्रचार करते रहे हैं और उन देशोमें का राजधर्म रहा है, गुप्त, श्रान्ध्र और विजयनगर साम्राज्य अपने मठ बनाकर रहते रहे हैं। जैन साहित्यमे भी कालमें भी इस धर्मको राज्यशासकोकी ओरसे सदा सम्मान विदित है कि मौर्यसम्राट अशोकके पोते सम्राट् सनातने मिलता रहा है । यह इन्हींकी मंरक्षता और प्रोत्साहनका ईमाकी तीसरी सदीमे बहुतमे जैनश्रमणोको जैनधर्मफल है कि जैनधर्म मध्ययुगमे श्रवणबेलगोल और कारकल प्रचारार्थ अनार्य देशों में भिजवाया था। की विशालकाय गोम्मटेश्वरकी मूर्तियों और श्राबू पर्वतके जे हिना मन्दिर, चित्तौड़गढ़ के जैनकीर्तिस्तम्भ जैसे लोक- कितने ही विद्वानोका मत है कि प्रभु ईसाने इन्ही प्रसिद्ध स्मारकको पैदा कर सका है और ममन्तभद्र, पिद्ध- अमगार जोबन वदी मया मिलिस्तीन धन्दा सेन दिवाकर, मिद्धमैन गणि, पूज्यपाद-देवनन्दी, अकलक
अपने मठ बना कर रहते थे. अध्या'मविद्याके रहस्यको देव, विद्यानन्दी, वीरसेन, जिनमन, मोनदेव, माणिक्यनन्दि
पाया था। और इन्हींके आदर्श पर चल कर उसने अपने प्रभाचन्द्र, हेमचन्द्र, हरिभद्रमूरि, नमिबन्द्र मि. चक्रवर्ति
जीवनकी शुद्धिअर्थ श्राम-विश्वास, विश्वप्रेम, जीव-दया, आदि रचित अनेक माहिग्य और दर्शनशास्त्रके अमूल्य
मार्दवक्षमा, संयम, अपरिग्रह, प्रायश्चिन, ममता श्रादि धर्मो रनोंको जन्म देसका है।
की माधना की थी । इसप भी धागे बढ़ कर अनेक प्रामाजैनधर्म और बाहिरके देश
णिक युक्तियोके आधार पर अब विद्वानीका यह निश्चय
होता जा रहा है कि ईमा जब १३ मालके हुए और घरजैनधर्मको न केवल भारत में, बल्कि भारतले बाहिरके
वालोन उनकी शादीकी सलाह करना शुरू की, तो वह घर देशोंस भी सम्पर्क रखने, वहा पर सन्मान पान और वहां
छोड़ कर कुछ सौदागरोंके माथ सिन्धके रास्ते हिन्दुस्तानमे के संस्कृति-प्रवाहको प्रभावित करने का सदा गौरव प्राप्त
चले पाये, वह जन्मम ही बड़े विचारक और सत्यके खोजी रहा। महावंश' नामक बौद्ध ग्रन्थमे पाबित है कि ५३७
थे और दुनियाके भोग-विलासोंसे उदासीन थे। यहाँ ईस्वी पूर्वमे सिंहलद्वीपक राजाने अपनी राजधानो अनरुद्ध
श्राकर वे बहुत दिनों तक जैनश्रमणोंके साथ रहे, बौद्ध पुरमें जैनमन्दिर और जैनमठ बनवाये थे, जो ४०० साल
भिक्षुओंके माथ भी रहते रहे, फिर वे नेपाल और हिमालय तक कायम रहे । इतना ही नहीं भगवान महावीरके समय से लेकर ईसाकी पहिली सदी तक मध्य एशिया और लघु १ (अ) Dr. B. C. Law - Historical एशियाके अफगानिस्तान, ईरान, ईराक, फिलिस्तीन,
Gleanings. p. 12. सीरिया श्रादि देशोंके माथ अथवा मध्यसागरसे निकटवर्नि
(आ) पं०मुन्दरलाल-विश्ववाणी अप्रैल १६४२p.४६४ यूनान, मित्र, ईथोपिया ( Ethopa ) और एबा
(3) Sir William James-Asiatic सीनिया श्रादि देशोंक साथ जैन श्रमणोका सम्पर्क बरावर
Researches vol III to 6 बना रहा है। यूनानी लेखकोंके कथनसे जहां यह सिद्ध है
__ (ई) Megasthenes-Ancirent India कि पायथेगोरम (Pythagoras) पैरहो (Pyrrho),
p. 104. डायजिनेस ( Drogenes) जैसे यूनाना तत्त्व
(उ) बा० कामताप्रमाद-दिगम्बरख और दिगम्बर वेत्ताओंने भारतमे पाकर जैनश्रमणोंप शिक्षा-दीक्षा ग्रहण मुनि पृ० १११-११३, २४३, , Prof. Buhler, An Indian Sect of the २ श्री हेमचन्द्राचार्य कृत पर्गिशष्ट पर्व-लोक ६६-१०२ Jainas p. 37.
३ पं० सुन्दरलाल-दजरत ईमा और ईसाई धर्म पृ० २२
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किरण ११-१२]
इतिहास में भगवान महावीरका स्थान
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होते हुए ईरान चले गये और वहांमे अपने देशमे जाकर मुराद जीवनकी उम अवस्था थी जब मनुष्य अपनी उन्होंने अहिंसा और विश्वप्रेमका प्रचार शुरू कर दिया। समस्न इच्छाश्री, वामनाओं, पाचोकी विजय करके अपना प्रभु ईमाने अपने प्राचार-विचारके मूल तत्वों की शिक्षा स्वामा हो जाता है, जन्म मरणके सिलसिले को खतम करके भ्रमणोमे पाई थी। इस बानये भी सिद्ध है कि उन्होंने अक्षय सम्व और अमृतका मालिक होजाना है। अपने उपदंशामें जिन तीन विलक्षण सिद्धान्तो पर जोर ये उक्त सिद्धान्त फिलिस्तीनमे बमने वाली यहृदी दिया है वे देवतागधान यहूदी संस्कृतिमे सम्बन्ध नही जातिकी प्रचलित मान्यतायोंमें बिल्कुल विभिन्न थे, यहृदी रखते, वे तो भारतकी श्रमण सस्कृतिके ही मूल आधार हैं- लोग इनके प्रचार को नास्तिकता समझते थे और इन व है प्रामा और परमा माकी एक्ता, श्रामाका श्रमस्व, सिद्धान्तोक प्रचारको रोकने के लिये वे सदा प्रभु ईसाको श्रामाका दिव्यजीवन । ईसा सदा अपनको ईश्वरका बेटा कहा इंट पत्थरोप मारने को तरवार रहते थे। इन्ही सिद्धान्तोंक करने थे । जब श्रादमी उनमे पूछते कि ईश्वर वहां है प्रचारके कारण प्रभु ईमाको पकड कर उनके विरुद्ध अभिनो वह अपनी ओर सकेत करके कहते कि वह स्वयं ईश्वर योग नवाया गया और उन्हें मूलीको मजा मिली थी। का माक्षात् रूप है, जो उसे देखते और जानते हैं वे ईश्वर प्रभु इमाको अपने जिन प्राध्यामक प्राचार-विचारोंके को देखते और जानते हैं यूँ कि वह और ईश्वर दोनो कारण उमरभर अपने देशवामिलोस पीड़ा और यन्त्रण। एक है। वह अपने उपदेशामे पुनर्जन्म और अमर जीवन सहनी पड़ी, वही पीछ देशवामियोंी मतबुद्धि द्वारा क सिद्धान्तों पर भी काफी प्रकाश डाला करते थे। वह अपनाये जाकर और देश की पुरानी हदी संस्कृतिकी अनेक कहा करते थे कि यह मेरा पहिला जन्म नही है, मैं अब मान्यनाओं और प्रयाग्राम मिलकर ईसाई धर्मक रूपमे प्रकट पहिले भी मौजूद था- हजरत अब्राहमके समयमें भी हुए । बाम्नवम ईमाईधर्म श्रमसंस्कृतका ही यह दी मौजद था । जो जीवन की अमरता और पुनर्जन्ममें यकीन मकरण है। करगा वह कभी नही मरेगा। बिना पुनर्जन्म सिद्धान्तको भारत और जेन-संस्कृतिमाने दिव्य साम्राज्यकी भी प्राप्ति नही हो सकती । दिव्य
जहाँ तक भारतका सवाल है, उसके जीवन पर नो साम्राज्य (Kingdon ot heaven) में उनकी जैन-संस्कृनिने बहुत हा गहरा प्रभाव डाला है. जैसा कि १ प० सुन्दर लाल-हजग्न ईमा यार टनाइ धर्म । १६२
लोकमान्य तिलकका मत है-इमक अहिंसा नाबने तो २ Bible- St. Jolin
भारतीय रहन महन पर एक अमिट छाप लगाई है। पूर्व 5-18
काजमं यज्ञों के लिये जो अपग्य पशुओं का बलि होती थी 8-19.
वह जैन अहिपाक प्रचारम ही बन्द हई है । इस धर्मने . 10-30 ("l and my father are one")
यहांके ग्वान-पान में भी बहुत बड़ा सुधार किया है। भारतकी ५ Bible- St John 8-56-59
जो जो जातिया इसके प्रभावमें पाई मभी मामाहारको छोर (Verily, verily, I say unto you, be
कर शाक-भोजी होती पत्नी गई। इस तम्वन भारतके fore Abraham was 'I am)
फौजदारी कानुनके दण्डविधानको भी काफी नरम बनाया ६. Bible- St. John. 10-25
है। इससे सजायोकी अमानुपिक मनी और बेरहमीमें "I am the resurrection and the life, बात की हई है। इस धर्मक कारया दण्डविध नकी he that believeth in me though, he
जगह प्रायश्चिसविधानको विशेष स्थान मिला है। यह were dead, yet shall he live" ७. Bible- St. John 3-3
१५० मुदग्लाल-हजरत ईमा और माइधर्म पृ०१:३-१४० "Verily verily I say into you.except लोकमान्यनिलक-१६०४ में जेन कान्फरममे दिया a man be burn again, he cannot sec हुया व्याख्यान । the Kingdom of God"
३ श्राजा -मायकालीन भारतीय मम्कान १०३४
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अनेकान्त
[ वर्ष ६
पूजा भक्ति करने और पव मनानेकी जो प्रथायें प्राचीन कासे जारी थीं उनसे महावीरके उत्तरकालमें याज्ञिक क्रियाकाण्डों के उत्सव बन्द होजानेपर - भारत के अन्य धर्म वाले बडे प्रभावित हुए । ईसाकी पहली और दूसरी सदके करीब हम देखते हैं कि जैनियोंके समान बौद्ध और हिन्दु भी अपने अपने माननीय महापुरुषो की मूर्तियाँ और मन्दिर बनाने, उनकी भक्ति करने में लग गये। उस समय शुरू में बौद्धोंने भगवान बुद्ध और हिन्दुओंोंने भगवान कृष्ण की मृनियां निर्माण की। पीछे तो इस प्रथाने इतना जोर पकड़ा और मूर्तिकलाने इतनी उन्नति की, कि भारत में ब्रह्मा, शिव, पार्वती, गणेश, लक्ष्मी, सरस्वती, कृष्ण के अतिरिक्त विष्णुकं अन्य अवतारी, बोधिसत्व आदि अनेक प्रकारकी सौम्य मूर्तियोकी एक बादसी आगई। फिर क्या था, जैन, बौद्ध, और हिन्दु सभी धर्मवालोंने अपने अपने महापुरुषां की मूर्तिया और मन्दिर बनाकर मारे भारतको ढांक दिया।
भगवान महावीरने अपने मानेके विभिन्न विचारों
और मान्यताची एकता आनेके लिये जिम अनेकान्तवाद श्रथवा स्याद्वाद (Relativity) के मिद्धान्तो को जन्म दिया था, उसने भारतीय विचारकोंमें सत्यको अनेक पहलुओं देखने और जाननेके लिये एक विशेष स्फूर्ति पैदा करदी इमये भारतको धार्मिक साहित्यके अतिरिक्त सभी प्रकारका साहित्य सृजन करने में बड़ी प्रगति मिली। महावीरके पासकोने तो इम दिशामें खास उत्साह दिखलाया। उन्होने भारतके साहित्य और कलाका कोई क्षेत्र भी ऐसा न छोटा जिसमे उन्होंने अपनी स्वतन्त्र रचनायें और टीका करके उसे ऊँचा न उठाया हो। इसी लिये हम देखते हैं कि अन्य धर्मो की तरह जैनसाहित्य केवल दार्शनिक, नैनिक और धार्मिक विचारों ही भरडार नही है बल्कि वह इतिहास, पुराण, कथा, व्याख्यान, स्तोत्र,
धर्म लोगोंके जीवन में उतरते उतरने इतना गहरा घर कर गया कि इसके विरुद्ध चजनेस सभीको लोकनिन्द्राका भय होने लगा। इसी कारणम महावीरके उत्तरगगलमे हिन्दु स्मृतिकारी और पुराणकागेने जितना श्राधार-सम्बन्धी साहित्य लिखा है, उस सबने उन्होंने नरमेध अश्वमे पशुबति और मांसाहारको लोकविरुद्ध होनेसे त्याज्य उहगया है" ।
जैनधर्मक श्राध्यात्मिक विचारोका भी भारतीय संस्कृति पर कुछ कम प्रभाव नही पड़ा है। पशुबलि और मांसाहार के बन्द होनेस याज्ञिक क्रियाकाण्डको भी बहुत धक्का पहुंचा, और होते होते वह भी मदाके लिये भारत में विदा हो गया । उसके स्थान में मदाचारको बढी मान्यता मिली। यम नियम व्रत, उपवास, दान, संयम ही लोगों के जीवन के पुन धर्म बन गये । ज्ञन, ध्यान, सन्यास और तपस्वी त्यागी वीर मदापुरीकी मणिकं पुराने आध्यात्मिक मार्गोका पुनरुत्थान हुआ । महावीरकं उपरान्त वैदिक संहितार्थी ब्राह्मी और औसू ब्राह्मणग्रन्था श्रौतसूत्रां जैसे क्रियाका एडी साहित्यकी बजाय हिन्दुओमे उपनिषद् ब्रह्मसूत्र, गीता, योगवासिष्ट अथवा रामायण जैसे श्रध्यत्मिक और विरक धोका अधिक महत्व मिला हम सम्बन्धमें बहुतम विद्वानोका मत है कि हिन्दुम जो २४ अवतारोंकी कल्पना पैदा हुई, उसका श्रेय भी जैनियोकी २४ तीर्थङ्कर वाली मान्यताको ही है। कुछ भी हो, इतनी बात सो प्रत्यक्ष है कि इन्द्र अनि, वायु, वहया सरीखे प्रोप्रियमनोकल्पित देवताओंके स्थान जो महत्ता भगवान कृष्ण और भगवान राम जैस कमंट ऐतिहासिक क्षत्रिय वीरो को मिली है उसका श्रेय भी भारतकी उस प्राचीन श्रमण सम्कृतिको ही है, जो सदा महापुरषोको साक्षात् देवता अथवा दिव्य श्रवतार मानकर पूजनी रही है।
काव्य, नाटक चम्पू, छन्द, श्रलंकार, कोप, व्याकरण,
भारतीय कला और साहित्यमें जैनधर्म भूगोल, ज्योतिष, गणित, राजनीति यन्त्र, मन्त्र, सम्
का स्थान
इन अध्यात्मवादी धोके उपासक लोग अपने माननीय तीर्थपुरोंकी मूर्तियां और मन्दिर बनाने, उनकी १-या स्मृति १.१५६, भारदीय पुराण २२१२१६ श्राकालीन मा० संस्कृत पृ० ३४ २- श्रोझा जी मध्यकालीन भा० संस्कृति पृ० १७
श्रायुर्वेद, बनस्पतिविद्या, मृगपक्षिविद्या, वास्तुकला, मूर्तिकला, चित्रकला, शिल्पकला और संगीतकला भावके अनेक लोकोपयोगी ग्रन्थोंसे भी भरपूर इतिहासके लिये तो जैनियो के साहित्य में इतनी अधिक और प्रामाणिक १- Dr. Winternitz, History of Indian Lit vol II pp. 591,595
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किरण ११-१२]
इनिहासमें भगवान महावीरका स्थान
सामग्री भरी हुई है कि इसके अध्ययनसे भारतीय इतिहास बल्कि विदेह, काशी, कौशल, मालवा, कौशाम्बी जैसे की अनेक गुत्थियां श्रासानीसे सुलझ सकती हैं।
श्रास पास के सभी इलाकोंकी बोलियो शामिल थी। भगवान न्यायशासके क्षेत्र में तो जैन विद्वानोंकी सेवायें भारत की इस उदार परिणतिसे भारत की सभी बोलियों को अपने के लिये बहुत ही मूल्यवान हैं। ईमा पूर्वकी छठी सदीम उत्कर्षमें बड़ी सहायता मिली है। इसी कारण जैनधर्म अक्षपाद गौतमने बुद्धिवाद द्वारा भौतिकोंके जडवादका भारतकं जिन जिन देशोंमें फैला अथवा जिन जिन कालोमे निराकरण करनेके जिये जिस न्यायशास्त्रको जन्म दिया था, से गुजरा, यह सदा उन्हीकी बोलियोंमे ज्ञान देना और उसे गहरे शोध और अनुसन्धान द्वारा पूरी ऊँचाई तक साहित्य सृजन करता चला गया। इसलिये जैनसाहित्यकी उठाना और उसका अध्यात्मविद्याके माथ सम्मेलन करना यह विशेषता है कि यह सस्कृत, प्राकृत, अपभ्र श, मागधी जैननैयायिकोंका ही काम था । इसके लिये महा० उपा० शौरसेनी महाराष्टी गुजरात, राजस्थानी, हिन्दी, तामिल, सतीशचन्द्र विद्याभूषण जैसे प्रकाण्ड विद्वानने जैनन्यायकी तेलगु, कनई। श्रादि भारत के उत्तर और दक्षिणुकी, पूर्व मुक्तकण्ठसे प्रशंसा की है, उनका कहना है कि ईसाकी और पश्चिमकी सभी पुरानी और नई भाषाश्राम लिग्वा हुश्रा पहली सदीमे होनेवाले जैनाचार्य उमास्वाति जैसे श्रध्याम मिलता है। यही एक साहित्य या है, जिससे कि हम विद्याविशारद तथा छठी सदीक सिद्धसेन दिवाकर और भारतीय भाषाओंके क्रमिक विकास का भली भांति श्रध्ययन श्राठवी सदीके अकलकदेव जैसे नैयायिक इस भूमि पर कर सकते हैं। बहुत कम हुए हैं।
उपसंसार और कृतज्ञताभारतीय भाषाओंको जैनधर्मकी देन- इस तरह भगवान महावीरने अपने श्रादर्श जीवन
और उपदेशसे जिम जैनसंस्कतिका पुनरुद्धार किया था भगवान महावीरकी दृष्टि बहुत ही उदार थी और उसने भारतीय सभ्यता, माहिन्य, कला और भाषाओं के उनका उद्देश्य प्राणीमात्रका कल्याण था, वह अपने विकास और उत्थानमे बहुत बड़ा भाग लिया है। इस सन्देशको सभी तक पहुचाना चाहते थे, इसीलिये उन्होंने भगवान महावीरका, जिसने भारत के विचारको उदारता दी, ब्राह्मण की तरह कभी किसी भाषामे ईश्वरीय भाषा होने का श्राचारको पवित्रता दी, जिमने इन्सान के गौरवको श्राग्रह नही किया। उन्होंने भाषाकी अपेक्षा सदा भावाको बढ़ाया, उसके श्रादर्शको परमात्मपदकी बुलन्दी तक अधिक महत्ता दी। उनके लिये भाषाका अपना कोई मूल्य पहँचाया, जिसने इनपान और इन्मानक भेदोंकी मिटाया, न था, उस का मूल्य इसीमे था कि वह भावोको प्रकट सभीको धर्म श्रीर स्वतन्त्रताका अधिकारी बनाया, जिसने करनेका माध्यम है। जो भाषा अधिकतर लोगोंके पास भावों भारत के बाह्य देशों तक अध्यात्म प्रदेशको पहुँचाया और को पहुँचा सके वही श्रेष्ठ है । भापाकी श्रेष्ठता उपयोगितापर उनकं सांस्कृनिक मोनाको सुधारा, भारत जितना भी गर्व निर्भर है, जातीयतापर नही । इसीलिये उन्होंने अपने करे वह सब थोड़ा है । उपदेशोंके लिये संस्कृतको माध्यम न बनाकर अर्द्धमागधी पानीपत नामकी प्राकृत भाषाको माध्यम बनाया, जो उस समय २५-४-४५ हिन्दुस्तानी भाषाकी तरह भारत के सभी पूर्वीय और मध्य ,
Winternitz-History of Indian Lit देश में ग्राम लोगों द्वारा बोली और समझी जाती थी।
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vol II-pp 591,595 इस भाषामें न केवल मगधदेशकी बोली ही शामिल थी, यह लेख २५-४-४५ को महावीर-जयन्त के अवसरपर १-देग्यो, महा० सतीशचन्द्र द्वारा १६१३मे स्याद्वादविद्यालय देहली रेडियो स्टेशन में ब्राडकास्ट किये गये लेखका काशीमें दी हुई स्पीच।
मंशोधित और परिवद्धिन रूप है।
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जैन अनुश्रुतिका ऐतिहासिक महत्व (ले०–बा० ज्योतिप्रमाद जैन, 'विशाग्द' एम० ए०, एल-एल० वी० )
जिस प्रकार इतिहास जातीय साहित्यका एक महत्वपूर्ण जातीय जीवनका अङ्ग बने हुए हैं और जिनका एकमात्र अङ्ग होता है, उसी प्रकार ऐतिहासिक साधनोंमे जातीय आधार जातीय अनुश्रति ही है-उक्त कालस पूर्व होचक अनुश्रतिका भी प्रमुख स्थान है। वास्तवमै अनुश्रति इति- हैं। अन्य वैज्ञानिक साधनोंसे उनकी पुष्टि न होनेके कारण हासकी जननी है। यद्यपि इतिहासकार इतिहास सृजनका प्राजक इनिहापविशंपज्ञ उन्हे प्रामाणिक इतिहासकी कोटि प्रधान निमित्त है तथापि उसकी सफलता अधिकांशमे में नहीं रखता, किन्तु एकाएक उन्हें नितान्त कपोलकल्पित तत्सबधित उपादानोपर ही अवलवित होती है। इतिहास कहने में भी हिचकिचाता है। निर्माण के उपादान वे सर्व साधन और सामग्रियां हैं,
__ भारतीय इतिहासका प्राचीन युग महाभारत युद्ध के जिनके कुशल एवं यथार्थ उपयोगसे योग्य इतिहासकार
बादसे मुसलमानों के भारत प्रवेश (८वी शता. सन् ई०) तक अतीतका यथावत चित्र वर्तमानमें हमारी मनःचक्षुग्रोके
लगभग २२०० वर्षका लम्बा काल है। इसके बहुभागका सम्मुख ला उपस्थित करता है।
ढांचा अनुश्रुतिके ही प्राधारपर बना है, और ज्यों ज्यों जातीय अनुश्रुति उसका प्रधान उपादान होती है।
उसकी पुष्टि अलिखित-लिखित पुरातत्व, राजमुद्रामो समअनुश्रुतिका अर्थ है- 'इत्येवमनुश्रुतम्' अर्थात ऐसा अगली
मामयिक साहित्य यात्राविवरणों, राजकीय उल्लेखों एवं से सुना है, पूर्वजोंसे परम्परागत ऐसा सुनते चले आये हैं। वर्णनो, वैयक्तिक कथनों, समसामयिक तथा उत्तरकालीन मि. पाणीटरने अपने Ancient Indian Histor
इतिहासग्रन्थों हत्यादि प्रमाणोक तिहासिक उपादानोंद्वारा cal Tradition' (प्राचीन भारतीय ऐतिहासिक अनु. होती गई. तत्सम्बन्धी व्यकियां तथा घटनाएँ प्रमाणकोटि श्रुति पृ० १८) नामक ग्रन्थमे 'ट्रेडीशन' शब्दसे तथा पं०
में प्रातो गई। मध्य तथा अर्वाचीन युगके इतहासके जय चन्द्र विद्यालकारने "भारतीय इतिहासकी रूपरेखा" लिये अनश्रति अवश्य ही गौणतम साधन रह जाती है नामक ग्रन्थमे 'अनुश्रति' शब्दसे यही भाव लिया है। किंतु तथापि सर्वथा अनुपयोगी नहीं। विशेषरूपम इसका अर्थ पुराणादिक धार्मिक कथा-प्रम्धों. आख्यानों तथा धार्मिक माहित्यमे उपलब्ध अन्य ऐति
प्रारम्भमे अनुश्रुति मौखिक ही हुआ करती है किन्तु हासिक निर्देशो तक ही सीमित किया गया है । अस्तु,
कालान्तरमें प्राय: लिपिबद्ध हो जाती है। एक समय ऐसा प्रस्तुत लेखमें जैनअनुश्रुति' में हमारा अभिप्राय भी जैन
भी था जब कि जिपिका आविष्कार नहीं हुआ था किन्तु धार्मिक ग्रन्धों में उपलब्ध कथानकों, श्राख्यायिकानों, वंशा. समाज, धर्म और सभ्यताके उदयके साथ साथ परस्पर वलिनी, पट्टावलियों, गुर्वावलिओं, चारित्रो, घटनाओं
भाव-व्यञ्जनाके लिये उपयुक्त भाषाका आविष्कार अवश्य इत्यादिसे है।
ही हो चुका था। प्राचीन भारतीय अनुश्रतिक श्राधारपर
धर्म और समाजके आदि प्रवर्तक, वैदिक साहित्यके महा भाधुनिक इतिहासकार भारतवर्षके नियमित इतिहास
__ वात्य, हिन्दुपुराण-ग्रन्थोंके छठे अवतार, नाभिपुत्र ऋषभ का प्रारंभ महाभारत युद्धके उपरान्त अर्थात् लगभग
तथा जैनोंके प्रथम तीर्थकर भगवान आदिनाथ थे। उन्हीं १५०. सन ईस्वी पूर्वसे मानने लगे है । किन्तु भारत देश, प्राटिदेव अषभके ज्येष्ठ पत्र भरत चक्रवर्ती भारतके प्रथम भारतीय समाज और भारतीय संस्कृतिसे घनिष्ट तया ... सम्बद्ध अनेक महापुरुष तथा महत्वपूर्ण घटनाएँ, जो १ 'धर्मका श्रादि प्रवर्तक'-स्वामी कर्मानन्द
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किरण ११-१२]
जैन अनुतिका ऐतिहासिक महत्व
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सम्राट' थे। प्राचीन यूनानी लेखकाने भारतीय तत्कालीन 'वाद' का नृतीय भेद 'प्रथमानुयोग' था। यह अनुयोग अनुश्रतिके श्राधारपर जिन भारतीय डायोनिसियस तथा मूलमे ५००० पद प्रमाण था। इसमे बारह प्रतीत जिनउनके पुत्र हरकुलीजका वर्णन किया है वह उन्हीं पितापुत्र वंशी तथा प्रमुख राजवंशीका संक्षिप्त वर्णन था। साथ ही अपभदेव तथा भरतचकवर्तीका ही विकृत वर्णन प्रतीत तीर्थकर, चक्रवर्ती, नारायण, बलभद्र आदि मठ प्राचीन होता है।
महापुस्पीक जीवन चरित्र प्रादि तथा अन्य भी मोक्षमार्गमे भगवान ऋषभदेवने ही मन प्रथम सामाजिक व्यवस्था
प्रयत्नशील अनेक विशिष्ट स्त्री-पुरुषोंके कथानक थे। तीर्थकर स्थापित की, सभ्यताका प्रचार किया, धर्मका उपदेश दिया
धर्मप्रतिक होने के कारण प्रथमपुरुष' (पुरुषश्रेष्ठ) होते हैं, और अपनेस पूर्व भांगभूमिकी अवस्थाका वर्णन किया ।
उनके पम्यक्त्वप्राप्ति लक्षण पूर्वभव अादिकका वर्णन उनके पश्चात् समय ममयपर होने वाले अन्य जैन तीर्थकर
करनेवाला होनेमे, जिनवाण का यह अङ्ग प्रथमानुयोग अपने पूर्वकी अनुश्रत-घटनालिका पुनरुद्धार और प्रचार
कहलाया । दुमरे, जैनाचार्य भारी मनोविज्ञानवेत्ता होने थे। करते रहे और वह परम्परागत धारणाद्वारसं प्रवाहित होता
वे जानते थे कि अधिकाश मानवसमाज अल्पबुद्धि होता रही। ब्राह्मी लिपिके प्रचलनके प्रमाण प्राचीन युगके प्रारभ
है. और इमी कारण कथाप्रिय भी। एक तो अपने पूर्वजों से ही मिलते हैं। किन्तु पूर्वजोको अपनी धारणाशनि और
की स्मृतिको, उनके इतिवृनको स्थायी सम्बनेकी प्रवृत्ति मस्तिष्क-बलपर इतना भरोया था कि उन्होंने अपना
मनुप्यम स्वभावत. होता है । दृपर, वह गृन धार्मिक
सिद्धान्तो, नापज्ञान एवं शुष्कचारित्र नियमोंकी इतनी मच धार्मिक अनुश्रुतिको तब तक लिपिबदन करना श्रावश्यक नहीं समझा जब तक कि उन्हे विकृत अथवा विस्मृत हा
और शीघ्रता साथ हृदयङ्गत नहीं कर पाता जितनी कि जानेका भय नही हुआ।
अपने पूर्वमे हुए महापुरुषोक जीवन-वृत्तान्ती तथा पुण्य
पाप फलमयी दृष्टान्तीकी । इन कथानकोको पर्व ही जनजैसा कि ऊपर कहा जा चुका है, प्रत्येक जैनतीर्थकरके
माधारण-श्राबालवृद्ध स्त्री गुरुप-बड़े चाव पढते और उपदेश में अतीतकी ऐतिहासिक अनुश्रुतिका कथन अनि
सुनने हैं, प्रभावित होते हैं तथा पापसे भय और पुण्यमे वार्यरूपसे रहता था। ऐतिहासिक कालके भीतर ही महा
प्रीति करना सीग्वने हैं। यह जानकारी और विश्वास होने से भारत कालीन २२ व जैनतीधंकर अरिष्टनेमिने अपनेस
कि उक्त. कथानक सच्चे और ऐतिहासिक है, उनका प्रभाव पूर्वका अनुश्रुत ( traditional ) घटनाबलिका पुनरुद्धार
विशेष होता है । वैमा एक कपोलकल्पित समझा जानेवाली किया। उनके पश्चात् सन् ई. पू. ८४६-७७७ तक
कहानी-उपन्यापादिका नही हाता । इसी मनोवैज्ञानिक २३ व जैनतीर्थकर भगवान पार्श्वनाथने उसका प्रचार किया
तत्वको दृष्टिमें रखते हुए जैनाचार्योन 'प्रगम' का अर्थ और अन्तम सन् ५५७-५२७ ई. पू. तक अन्तिम तीर्थ
प्रव्युत्पन्न मिथ्यादृष्टि' भी किया कारण कि इस कोटिमें कर भगवान महावीरने अपने धार्मिक उपदेशके साथ माथ
अधिकाश जनमाधारण परिगाणा हो जाते है। ऐसे श्रा'मउस समय तक पूर्व इतिहासका भी यथावत वर्णन किया।
संवेदन रहित, धर्ममार्गपर न प्रारूढ़ हुए उन मामान्यबुद्ध भगवान महावीरके पश्चात भद्रबाहु श्रतकंवली एवं उनके
मनुष्योंके लिये जो माहित्यका अन, जातीय अनुश्रनिके शिप्य सम्राट चन्द्रगुप्त मौर्यक समय तक भगवान-द्वारा
आधार पर जैनाचार्योने सुरक्षित रखा उसे उन्होंने उपदेशित श्रतज्ञान ज्योंका न्यों चलता रहा।
'प्रथमानुयोग' नाम दिया। भगवान महावीरके प्रधान शिष्य गौतमादि गणपरोंने भगवानके उपदेशको द्वादशाङ्गश्रुतके रूपमे वर्गीकरण करके
___ भद्रबाहु श्रन केवल के पश्चन उम महाविपुल श्रृतज्ञान उसका सकलन किया था । द्वादशाङ्गके बारहवें अक्ष
का धीरे धीरे हाम होने लगा, किन्तु जैनाचार्योन उसके
प्रयोजनभूत तथा उपयोगा अशोको लुप्त अथवा विस्मृत १ भारतीय इतिहासकी रूपरेखा पृ०१४६, भारतका प्रथमसम्राट २ Mc. Crindle's Ancient India. ३ 'मोक्षमार्गप्रकाश'-५० टोडरमल्ल जी ।
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अनेकान्त
नहीं होने दिया और जैन तयज्ञान, जैनदर्शन तथा जैन श्राचारशास्त्रकी भाति प्राचीन भारतीय इतिहासको भी 'नामावली निबद्ध गाथाओं तथा कथासूत्रीक रूपमे सुरक्षित रक्खा। वे महावीरकालीन तथा उनके पश्चातकी घटनावलि तथा इतिहास और विशिष्ट व्यक्ति जीवनच स्त्रोको भी उन्ही में निबद्ध करते गये । श्रन्तमें, सन् ईस्वीपूर्व १ ली अन्य जैन धार्मिक विषयोंकी भांति जैन प्राचीन अनुश्रुति भी लिपिबद्ध होने लगी
1
वर्तमान मे ज्ञात अथवा उपलब्ध साहित्य की दृष्टिसे ही सन् २ ईस्वी [वि० [सं०] ६० ) में आचार्य ने ( प्राकृत 'पउमचरित' ग्रन्थको उक्त नामावलि निगाथा तथा कथासूत्रों के श्राधार पर रचना की । ३ री शताब्दी के लगभग शिवकोटेश्राचायने अपने 'भगवती श्राराधना' ग्रन्थ में पचाम अनुश्रुतियोंका उल्लेख किया है। रवी शता की 'तिलोयपत्ति' में भगवान महावीरके पश्चात्की श्राचार्य परम्परा तथा एक हजार वर्ष पर्यन्तकी राज्यवंशावलि मिलती है । ६ठी शताब्दी परम्परागत कल्पसूत्रादि श्वेताम्बर आगम ग्रन्थ मी लिपिबद्ध किये जाने लगे। इनमे प्राचीन महावीरकालीन तथा पछिकी भी अनुधुतिय सुरक्षित है यद्यपि कही कही विकृत रूपमें ० वी शताब्दि रविषेयाचार्यने पद्मचरित्र, जटामिन ने परागपरित्र महाकवि जय ने सिधान महाकाव्यकी रचनाएँ की । ८ वी शताब्दीमे श्रा० हरिषेणने प्रसिद्ध कथाकोप, प्रा० जिनसेनने श्रादिपुराण, पार्श्वभ्युदय आदि ग्रन्थ रचे । ६ वी शताब्दीमे श्र० गुणभद्रने उत्तरपुराण, जिनसेन द्वि० ने हरिवंशपुराण महाकवि पुष्पदन्त ने अप भ्रंश महापुराण, हायकुमार चरिउ, जसहर चरिउ श्रादि रचनाएँ की
1
[ वर्ष ७
रूपमें प्राचीन तथा शुद्ध भारतीय अनुश्रुति देशक कोने-कोने से सहस्र धाराश्रमं निरन्तर प्रवाहित होती रही तथा सुरक्षित बनी रही।
इसके अतिरिक्त जैन विद्वानोंने बहु संख्यक शिलालेखों, बेणाभिखी प्रतिमालेखों, मुद्रालेख, ताम्रपत्रो ज्ञ पत्रो, प्रन्थप्रशस्तियों, पुष्पिकाओं, पट्टावलियों, गच्छावलियों, गुर्वावलियों, राजवंशावलियाँ अन्यदाताओं, प्रतिलिपिकारों, तत्कालीन राज्याधिकारियों सम्बन्धी सूचनाओं तथा 'मूलनेणसीकी ख्यात' जैसे स्वतन्त्र ऐतिहासिक ग्रन्थोंके रूपमें विपुल ऐतिहासिक सामग्री अन्य भारतीय समाजकी अपेक्षा कहीं अधिक निष्पक्ष, स्पष्ट निति कालक्रमानुसार और प्रमाणीक उसे हमें प्रदान की है। उनमें प्रस प्रदेश राज्यो नगरी, स्थानविशेषोंके निर्देश भौगोलिक- इतिहास की ऐसे अत्यन्त महत्वपूर्ण है।
इसके उपरान्त उपर्युक्त तथा अन्य प्राचीन ग्रन्थो श्रनुश्रुतियों (Traditions) श्रादिके आधारपर सैकड़ो पुराण, चरित्र, कथाग्रन्थ, गद्यपद्य काव्य, चम्पू, रासा श्रादिके रूप में प्राकृत, संस्कृत, अपभ्रंश, कन्नडी, हिन्दी, गुजराती, मराठी श्रादि विविध भाषाश्रमे रचे जाते रहे हैं। सुदूर दक्षिणकी तामिल, तेलगु भाषाथों में भी ईस्वीसन्के प्रारम्भसमय से ही अनेक प्रसिद्ध एवं विशाल उच्चकोटिके जैन काव्यकथाग्रन्थ मिलते हैं। इस प्रकार जैन अनुश्रुति के
प्राचीन भारतीय पुरातत्व जैन अनुश्रुतिका पूर्णतया समर्थन करता है। डा० भगवानलाल इन्द्र, मि० लुइस राइस, प्रो० वृल्ड इत्यादि विद्वानोने उडीसा, मधुरा तथा मैसूरप्रान्तस्य जैन पुरागाय के सम्बन्धमें बहुत कुछ लिखा है। उनका मत है कि इन प्रान्तों पाये जाने वाले प्राचीन जैन शिलालेख जैनोकी प्राचीन अनुश्रुतिका अांधकाश में समर्थन करते हैं और सिद्ध करते हैं कि ईस्वी मेनु पूर्वकी शतादि जैनसमाज भारतवर्षके दूरम्य प्रदेशों तक फैला हुआ एक सम्पन्न और प्रमुख समाज था । जैन ग्रन्थों में उलिखित बातोकी सचाईका भारी समर्थन श्रभी हाल में ही प्रकाशित बीदनिकाय ग्रन्थोंसे भी होता है जो पर्याप्त प्राचीन है'।
प्रो० अपने "जैन अतिकी प्रामाणिकता नामक लेखमें अपना तथा डा० जैकोबीका मत इस विषय में उल्लेख करते हैं और सिद्ध करते हैं कि जैन अनुमतिकी सत्यतामें कोई सन्देह नहीं। उनका कहना है कि जैन अनुश्रुति ही क्यों विशेष कड़ी परीक्षा तथा श्रसाधारण श्रालोचनाकी पात्र बनाई जाय, यदि उसका समर्थन अन्य स्वतन्त्र श्राधारोंमें, ऐतिहासिक विवरणों तथा अन्य : Encyclo Brit, Vol. XXIX p. 661-662 २On the Authenticity of Jaina Tradetion-by Buhler, p. 180.
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किरण ११-१२]
जैन अनुश्रुतिका ऐतिहासिक महत्व
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सम्प्रदायोंकी अनुबनियोंपे हो तो उसे पूर्णतया विश्वसनीय अनश्रतियोके प्राचारपर ही किया जाय तो श्रापानीम मानना चाहिये । और यदि इस प्रकारका समर्थन न भी होजाय । मिले तो उक्त विषयमें जैन सिद्धान्त स्याद्वादका उपयोग जैन अनुश्रतिका अाधार जैसा कि ऊपर कहा जाचुका करना चाहिये-अर्थात यह भी सत्य हो सकता है, ऐसा है. अति प्राचीन प्राग तिहाम्पिक काल से चली आई तथा निर्णय देना चाहिये।"
उत्तर समयमें निरन्तर सर्दित होती गई परम्परा है। वह ___स्व. बैरिस्टर श्री के. पी. जायसवालने जोरके साथ
परम्परा भगवान महावीर द्वारा पुन. संगठित जैन श्रमण -- यह लिखा था कि “जैनोंके यहां कोई २५०० वर्षकी
मघमे उपाध्याय, उच्चारणाचार्य, वाचकाचार्य, पृच्छकाचार्य, संवत गणनाका हिसाब हिन्दुओं भरमें सबसे अच्छा है। उससे विदित होता है कि पुराने समयमे तिहापिक
इत्यादि अनेक वर्गके विद्वान श्रमणों द्वारा सुरक्षित रमवी परिपाटीकी वर्षगणना यहां थी। श्रीर जगह लुप्त और नष्ट
गई। उपाध्यायोंका कार्य पठन-पाठन होता था, वाचकाचार्यो होगई, केवल जैनामे बच रही। जैनोंकी गणनाके श्राधार
का कार्य अनुनि एवं सिद्धान्तका वाचन होता था,
उच्चारणाचार्य उचारणकी शुद्धता बनाये रखते थे, पर हमने पौराणिक और ऐतिहासिक बहुतसी घटनाओंको
पृच्छकाचार्य प्रश्नोत्नरों द्वारा विविक्षित विषयोको अस्पष्ट जो बुद्ध और महावीरके समयमे इधरकी हैं. समयबद्ध
अथवा विस्मृत न होने देते थे। ये जैन श्रमण गृहल्यागी, किया और देखा कि उनका ठीक मिलान जानी हुई गणना
अपरिगृही, निम्गृही, ज्ञान-ध्यान-तप-लीन परोपकारी साधु में मिल जाता है। कई एक ऐतिहासिक बानीका पता
होते थे। ईपी दंप पक्षपात आदिमे उन्हें कोई मौकार न जैनाकी ऐतिहाफिक लेख पट्टान्जियाम ही मिलता है। श्रादि।
था। धर्म साधन तथा धर्म-प्रचार ही उनका उद्देश्य था । एक अन्य अजैन विद्वान के शब्दोम-"जैन ग्रन्थोंक
श्रत. अमन्य, अमगत पक्षपातपूर्ण, अप्रामाणक बातोंक मङ्गलाचरण और प्रशस्तियों गतिहामिक दृष्टिम बड़े कामकी
प्रचारकी उनके द्वारा विशेष सम्भावना न थी। चीज है, इतिहास-प्रणेता अन्वेषके लिये ये कितने काम की हैं इस बातका सहजहीमे पता लग सकता है। बड़े
इमक अतिरिक, जैन श्रनु तिका लिपिबद्ध होना भी दु.खकी बात है कि भारतक इतिहास लेखकोंने पारसी,
हिन्दु अनुतिके साथ-साथ ही हुया, खासकर बाद अनु
श्रनिक लिम्वेबद्ध होने से काफी पहिले । इस प्रकार लिपिबद्ध अरबी श्रादि अन्यान्य सम्प्रदायक साहित्य एवं इतिहासका
होनेके समयकी अपेक्षा भी जैन अनुश्रति हिन्दु, बौद्ध, अनुशीलन करनेका कष्ट तो उठाया किन्तु भारतीय साहित्य
जैन-तीनों धाराग्राम पर्व प्राचीन ही ठहरती है। फिर तथा इतिहासके सर्वश्रेष्ठ माधन जो जैनग्रन्थ हैं उनकी ओर
बौद्ध अनुश्रनि भारतेतर प्रदेशामे विदेशियों द्वारा संकलित जरा भी ध्यान नही दिया।"
इस प्रकार जैन अनुश्रतिका मूल्य उन सभी पाश्चात्य हुई। वह म० बुद्ध पूर्व के काल के सम्बन्धमे प्राय मौन ही एवं पौर्वात्य विद्वानोने भले प्रकार मममा जिन्होंने उसका है। विदेशी प्रभाव उसमें स्पष्ट । हिन्दु अनुतिका किञ्चित भी अध्ययन किया है । वास्तवमें अनेक ऐतिहासिक
प्राधार प्राचीन वैदिक अनुश्रति था अवश्य, किन्तु वैदिक गुस्थियां जो आज तक उलझी पड़ी हैं वे जैन अनुश्रुतिके
धर्मके पौराणिक शैव, वैष्णव आदि विविध विभिन्न सदुपयोगसे श्रापानीसे मुलझाई जा सकती हैं। कितने ही
सम्प्रदायोंमें रूपान्तरित होजानेमे हिन्दु पौराणिक अनुश्रति ऐतिहाहिक भ्रमोंका उसकी सहायता निराकरण होसकता है। का सीधा एक रम सम्बन्ध प्राचीन वैदिक अनुभूतिय न रह सदाहरणके लिये, महावीर, बुद्ध, विक्रम, शक आदि संवतों मका। काल दोष और मम्प्रदाय भेदीक कारण उसमे अनेक के प्रचलनकाल-विषयक जो मतभेद और शङ्काएँ विद्वानों विचार तथा मत विरोध श्रागये । तथापि प्राचीन इतिहासक में चली प्रारही हैं उनका सबका समाधान यदि देवल जैन लिये उमका उचित मूल्य मि. पाटिर, डा. जायसवाल,
प्रो. भण्डारकर, डा. राम चौधरी, प० जयचन्द्र विद्या १ जनसाहित्य संशोधक म्ब० १ ० ४-२११ २ जेनमिद्वान्त भास्कर भा०२ पृष्ठ १०५
३ भगवान महावीर श्रीर उनका ममय -जुगलकिशोर मुख्तार
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अनेकान्त
[ वर्ष ७
लंकार पं. सत्यकेतु विद्यालंकार आदि अनेक विद्वान रन नागौर, ईडर श्रादि कई एक शास्त्र-भंडारों में बन्द कीडों इतिहासकारोंने समझा, और यथासम्भव उसका उपयोग का ग्रास बन रहे हैं। उपलब्ध ग्रन्थ भी सब ही अबतक भी किया ।
प्रकाशित नहीं होपाये। जो प्रकाशित भी हुए हैं उनमें किन्तु खेदका विषय है कि जैन अनुश्रतिका-जो कि थोडेसे ही ऐसे हैं कि जिनका जैनेतर विद्वरसमाज समुचित वैदिक अथवा हिन्दु अनुश्रुतिमे कम प्राचीन नही है. और उपयोग कर सके। बौद्ध अनुश्रतिसे अवश्य ही प्राचीन है और जो उक्त दोनों ऐसी स्थितिमें यदि भारतीय इतिहासके निर्माणमे जैन
नयाकी अपेक्षा अधिक प्रामाणिक, संगत, स्वतन्त्र दृष्टिको उपयक्त स्थान देना है. जोकि परमावश्यक है, तो ऐतिहामिक प्रमाणो तथा सामग्रियाम अनुमोदिन, विशुद्ध उसकी अनुश्रति तथा अन्य यत्र तत्र बिखरी हई ऐतिहासिक
नीय प्रनाति-जैमा उपयोग होना चाहिये था सामग्रीका एकत्रीकरण तथा वर्गीकरण करके उस विद्वत्समाज उसका शतांश भी नही होपाया। निस्पन्देह उसमे अधिक
एवं जनसाधारणके लिये सुलभ बनाना अत्यन्त श्रावदोष उक्त अनुश्रुतिकी संरक्षक जैन समाजका है, जिसने
श्यक है। तभी उनका सञ्चा मूल्य आंका जा सकता है, अपने ग्रन्थस्नोको ससारके सम्मुख सहज सुलभ और
उनका यथार्थ उपयोग किया जा सकता है और जैन संस्कृति सुबोधरूपमें न रक्खा। गत २००० वर्षों में जितना जैन
के साथ ही नहीं वरन् भारतके अतीत एवं इतिहास-विज्ञान साहित्य विविध भारतीय भषाओं में रचा गया उसके पूर्णांश समय का तो इस समय किसीको भी ज्ञान नहीं, जितनेका ज्ञान है उपका अल्पांश ही उपलब्ध है। अब भी अनेक ग्रन्थ- लखनऊ, ता०२०-६-१९४५
'प्रकाश-रेखा
इसमें कैसा भेद ?
गाते हो स्वदेशका गाना, भाता है ग्बद्दरका बाना । किन्तु ग़रीबोंको ठुकगना, यह क्या माया-वेद ?
इसमे कैमा भेद ? कलम जेवमे लगा 'पार्कर' चढे घूमते निजी कारपर । महक रहे हैं मैट लवैडर, इसका होता खेद !
इसमे कैसा भेद ?
दवा विदेशी खाते-पीते, धर्म-कर्म से होकर रीते! पशुताका बल लेकर जीते, पहिने वस्त्र सफेद !
इसमे कैसा भेद ?
हिन्दी-भाषाके हिमायती, किन्तु बोलते खुद विलायती ! क्या इसमे देखते उन्नती ? या जड़ रहे कुरेद ?
इसमें कैसा भेद ?
[स्व० 'भगवत्' जैन]
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क्या रत्नकरण्ड-श्रावकाचार स्वामी समन्तभद्रकी कृति नहीं है ?
(लेग्यक-न्यायाचार्य ५० दरबारीलाल जैन, कोठिया)
[द्वितीय लेख]
(गत किरण से आगे) अब हम प्रो.सा के द्वारा प्रस्तुत की गई प्राप्तमीमांसा जबकि केवल इन निमित्तोंमे बन्ध नहीं होता। इसी बात की ६३वी कारिकापर सूक्ष्म विचार करते हैं जिसके आधार को प्राचार्य विद्यानन्द निम्न : कारमे व्यक करते हैं:से वे यह कहते हैं कि वहाँ ग्रन्थकारको केवलीमें सुखदुःग्य "वम्मिन दावोत्पादनान पुण्यं सुग्वोपादनात्त की वेदना स्वीकार है। वह कारिका निम्न प्रकार है: -- पापमिति यदीयते तदा वीतरागो विद्वांश्च मुनिम्ताभ्यां पुण्यं ध्रुवं स्वतो दुःग्यात्यापं च मुखतो यदि । पुग यापाभ्यामात्मानं युञ्जानिमित्तसद्भावान , वीतगगवीतरागा मुनिर्विद्वांस्ताभ्यां यूज्यानिमित्ततः ॥६३ स्य कायक्लेशादिम्प दुग्यत्वर्विदपस्तवमानसंतोष___इस कारिकापर विचार करने के पहले इसके पूर्वकी लक्षणसुग्वोत्पत्तेतन्निमित्तत्वात् ।” कारिकापर भी विचार कर लेना आवश्यक है जो इस जब पूर्वपक्ष नै उपयुक्त अपनी पुराय और पापकी प्रकार है:
व्यवस्थामें उत्तापक्षी (जैन) द्वारा प्रदर्शि। उक्त दोनों पापं ध्र परे दुःखात पुण्यं च सुग्वतो यदि । जगहके दोपों का परिहार करते हुए यह कहा कि अचेतन अचेतनाकपायौ च बध्येयातां निमित्ततः ।।२२।। कगट कादिक और कपायरहित जीवके तथा वीतरागमुनि ___यहां पुण्य और पापबन्धकी व्यवस्थाका प्रकरण है के मुख दुःखोम्पादनका-दुःख अथवा मुख पहुंचानेका
और यह दोनों कारिकाएँ अन्य कारने पूर्वपक्षके रूप में अभिप्राय (कपायांश) नहीं रहता इस लिये वे सुख-दुःख रस्तुत करके परमान्यतामें दोषोद्भावन दिखाया है। प्रश्न रूप निमित्ती मात्र से ही बन्धम युक्त नही हो सकते हैं यह है कि पुण्य और पापका बन्ध किस प्रकार होता है? क्योकि अभिप्राय बन्धका कारण है । तब उसके लिये यदि यह कहा जाय कि 'दूपरेम दु.ख उत्पन्न करनेसे निश्चय उत्तर दिया कि इस तरह तो अनेकान्त ही सिद्ध हुश्राही पापबन्ध और सुख उत्पन्न करने से पुरायबन्ध होता है पुण्य पापक बन्धका उक एकान्त न रहा। यही अष्टपहली तो अचेतन कण्टक, दूध भादि वस्तुएँ और कपायरहित कारके निम्न व्याख्यान प्रकट हैजीव भी पुण्य और पापसे बंधेगे, क्योकि वे दूसरोके मुख "नेपामभिसन्धरभावान्न बन्ध इति चेत्तहि न दुःखोत्पादनमे निमित्तकारण पड़ते हैं। यदि यह कहा परत्र सुग्वदःखोत्पादनं पुण्यपापबन्धहेतुरित्येकान्तः जाय कि दूसरोंमें नहीं, किन्तु 'अपने में दुःख पैदा करनेसे सम्भवति ।” (ER) पुण्यका और सुख उत्पन्न करनेसे पापका बन्ध होता है तो म्यान्मतं-स्वम्मिन दुःग्यस्य मुम्बस्य चोत्पत्ताबपि वातराग मुनि और विद्वान् मुनि भी बन्धको प्राप्त होंगे, वीतरागस्य तत्त्वज्ञानवतस्तदभिमन्धेरभावान्न पुण्यक्योंकि वे भी अपने में दुख और सुखके उत्पन्न करनेमें पापाभ्यां योगम्तम्य नदभिसन्धिनिबन्धनवान , इति निमित्तकारण होते हैं ।' वीतराग मुनि (तपस्वी साधु) तह्म नेकान्तमिद्धिरेवायाना।" (६३) तो अपने में कायक्लेशादि दुःख उत्पन्न करता है और इससे अगली दो कारिकाओं में से १४ नं. की कारिका विद्वान् मुनि (उपाध्याय परमेष्ठी) तत्वज्ञानजन्य सन्तोष- के द्वारा तो उभयकान्त और अवाच्यतैकान में दोप दिखाये लक्षण सुख पैदा करता है। ऐसी हालत में ये दोनों भी हैं और १५ न. की कारिकाके द्वारा मिद्धान्तमत स्थापित दुःख और सुखरूप निमित्तोंसे पुण्य तथा पापसे युक्त होंगे, किया गया है और कहा गया है कि 'स्वपरम्थ सुख अथवा
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अनेकान्त
[वष ७.
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दुख यदि विशुद्धि और संक्लेशके कारण कार्य या तस्वभाव यह धापत्ति भी प्रदर्शित की है कि अज्ञानम बन्ध मानने
तो उनमें क्रमशः पुण्य और पापका बन्ध होना युक्त है पर कोई केवली ही नही हो सकता है, क्योंकि ज्ञेय और यदि वे विशुद्धि और संक्लेश के कारण आदि नहीं हैं अनन्त हैं । अतएव १५वे, १२व गुणस्थानमें वीतरागता होते तो उनसे बन्ध नही हो सकता।' यही इस प्रकाणका हुए भी अज्ञान के पहावये १३वों गुणस्थान (कैवल्यावस्था) संक्षिप्त मार है।
कदापिप्राप्त नहीं हो सकता । अकलदेव उस बन्धकारक अब पाठक ऊपर देखेंगे कि १३ वी कारिकामे जो अज्ञानको मोहरूप ही बतलाते हैं। श्राचार्य विद्यानन्दने 'वीनगगो मुनिविद्वान' शब्दका प्रयोग है वह एक पद भी मोहरहित अज्ञानसे यन्ध मानने पर यह आपत्ति नहीं है और न एक व्यकि उसका वाच्य है। किन्तु १२वी की है कि ग्यारहवें और बारहवें गुणस्थानोंमे भी शुद्ध कारिका श्राये हुए 'अचेतनाकषायों की तरह इसका अज्ञानके मद्भावये बन्धका प्रसंग आयेगा, जबकि सयोग प्रयोग है और उसके द्वारा 'वीतराग मुनि' तथा 'विद्वान् केवलीकी तरह वे दोनों गुणस्थान भी प्रबन्धक हैं। हां, मुनि' इन दो का बोध कराया गया है। प्राचार्य विद्यानन्द प्रकृति और प्रदेशवन्धकी अपेक्षा वहां बन्ध है किन्तु वह ने तो वीतरागो विद्वांश्च मुनिः' कहकर और 'च' शब्द योगनिमित्तक है, अज्ञान निमित्तक नहीं और यह सयोग का माथमें प्रयोग करके इस बातको बिल्कुल स्पष्ट कर केवलीमे भी है। अत: कषायविशिष्ट अज्ञान ही बन्धका दिया है। जान पड़ता है कि प्रो. सा. को कुछ भ्रान्ति कारण है, कपायहित अज्ञान नहीं । विद्यानन्द के इस हुई है और उनकी दृष्टि च' शब्दपर नही गई । इसीम कथन परसे और उनके द्वारा प्रयुक्त स्थित्यनुभागाख्यः उन्होंने बहुत बड़ी गलती खाई है और वे 'वीतराग विद्वान् शब्दपरसे एक और महत्वपूर्ण बात फलित होता है और मुनि' जैसा एक ही पद मानकर उसका 'कवली' अर्थ करने वह यह कि मयोगकेवली की तरह क्षीणकपाय और उप में प्रवृत्त हुए हैं। और शायद हसीम श्रापको यह कहनेका शान्तकषाय नामके ग्यारहवं और बारहवें गुणस्थानों में भी मौका मिला कि “यहा यदि सामान्य मुनिका ही ग्रहण स्थितिबंध और अनुभागबन्ध नही होते, जो कर्मसिद्धान्तकी किया जाय तो वीतराग और विद्वान् इन दो विशेषणोंका व्यवस्थाके मवथा अनुकूल है, क्योंकि कषायको ही उक्त प्रयोग सर्वथा निरर्थक होकर कारिकामें अपुष्टार्थ दोष दोनों बन्धोका कारण माना गया है। यथा-- उत्पन्न होता है।"
टिदि-अणुभागा कसायदो होति ।। प्रो. सा० ने एक और बड़ी सैद्धान्तिक भी भून की जब यह सैद्धान्तिक स्थिति है तब केवलीम बिना स्थिति है और वह यह कि प्राप्तमीमांसाकार और उनके टीकाकारो बन्ध और अनुभागवन्धके सुख और दुखकी वेरना किसी के आगे पीछेके कथनपर ध्यान न देकर अपने कथनके भी प्रकार सम्भव नहीं है। यथार्थतः संसारी ज.वोमे स्थिति समर्थनमें वे केवल अज्ञानको भी बन्धका कारण या मली- बन्ध और अनुभागबन्ध पूर्वक ही सुख-दुःखकी वंदना देखी पत्तिका जनक बतला गये हैं। जैसाकि श्रापक नम्न वाक्यो १ "अजानान्मादिनी बन्धी नाज्ञानाद् वीतमोहतः।"-श्रा०६८ से प्रकट है
"अशानाच्चेद् ध्रयो बन्धी ज्ञयानन्न्यान केवली।"-श्रा०६६ "ग्यारहवें और बारहवे गुणस्थानाम वीतरागता होते २ "मोहनीयकर्मप्रकृतिलक्षणादज्ञानाद्य तः कर्मबन्धः" । हुए भी अज्ञानके पदावरी कुछ मलोत्पत्तिकी प्राशङ्का हो ३ "क्षीणोपशान्तकायस्याप्यमानाबन्धप्रमक्त: । प्रकृतिसकती है।"
प्रदेशबन्धस्तस्याप्यस्तीति चेन्न, तस्याभिमतेतरफल दानापरन्तु सिद्धान्त में बिना मोहके प्रज्ञानको बन्धका कारणा समर्थत्वात् सयोग केवलिन्यपि संभवादविवादापनत्वात् । या मलोत्पत्तिका जनक नहीं माना है। स्वय प्राप्तमीमामा. न चागममात्रं, युक्तरपि मद्भावात् । तथा हि, विवादापन्न: कारने मोह-महित प्रज्ञानको ही बन्धका कारण प्रतिपादन पाणिनामष्टानिष्टाल दानममर्थपद्गल विशेषसम्बन्ध. किया है और मोह-रहित अज्ञानके बन्धकारणवका स्पष्टत कपायकार्थममवेताजाननिबन्धनस्तयावामध्यतरादारादि. निषेध किया है। इतना ही नहीं, बल्कि सबल ताके साथ सम्बन्धवत् ।"
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किरण ११-१२ ]
क्या रत्नकर एड श्रावकाचार स्वामी ममन्तभद्र की कृति नहीं है ?
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जाती है। केवलीमें यह दोनों ही प्रकारके बन्ध नहीं होते। व्याख्यान के आधारसे प्रस्तुत किये गये उपर्युक विवंचनको तब उनके वेदना कैसे हो सकती है? हां. केवलीके योगका भी जरूर प्रमाण मानेगे। मद्भाव रहनेमे प्रकृति और प्रदेश ये दो बन्ध अवश्य होते यहाँ हम एक बातका और उल्लेख कर देना चाहते हैं हैं, परन्तु उनका सुख-दुखकी वेदनाके साथ कोई सम्बन्ध और वह यह कि जब हमने प्रो. सा. के इस कथनको कि नही है। विद्यानन्दने तो 'तस्य (प्रकृतिप्रदेशबन्धस्य ) 'स्वय अष्टसहस्रीकारने भी यहाँ भीतरागो मुनिर्विद्वान्' से अभिमतेतरफलदावालमर्थस्वात" शब्दोंके द्वारा बहुत ही अपाय वीतरागत वज्ञानी (कवली) ही अर्थ ग्रहण किया स्पष्टताके साथ खुलासा कर दिया है। यही कारण है है। जैसा कि उनके टीका वायोस स्पष्ट है-स्वस्मिन् कि तीर्थकरके समवरण सम्बन्धी अपार बाह्य दुःख मुग्वस्य चाम्पत्ती श्रपि वीतरागस्य तम्बज्ञानवतातविभूति होते हुए भी उसम उन्हें कोई सुखका दभियन्धेरभावात् न पुण्यपापाभ्या योगस्तस्य तदभवेदन नही होता । इससे यह स्पष्ट है कि केवलीमे माता मन्धिानबन्धनवान दनि नयनकान्तमिद्धिरेवायात!। व असाताका स्थिति व अनुभागबन्ध न होनेम सुख और प्रात्ममुम्बदु ग्वाभ्या पापेरैकान्तकृतान्ने पुनरकपायस्यापि दुखकी वेदना नहीं होती। अत: 'वीतरागो मुनिविद्वान' ध्र रमेव बन्ध' स्यात -- इत्यादि । -- अष्टमहमी प्रमाणित शब्दीय विद्यानन्द के अभिप्रायानुसार उम मुनिका ग्रहण करने के लिये उसे बोल कर देखा और उसमे मिलान किया करना चाहिए जिसके कायक्लेशादि दुख और तत्वज्ञान तो मैं बहुत ही निराश हुश्रा और मुझे वहीं उनकी संतोषलक्षण सुग्व सभव है और वह माधु परमष्ठी ही है, दो बड़ी भूल दृष्टिगोचर हुई । एक तो उन्होंने 'श्राममुखकेवली नही, क्योंकि उनके न तो कायक्लेशादि संभव है दुःखाभ्यां आदि वाक्योकी, जो कल देवकी अष्टशतीके और न लोभका पर्यायरूप सन्तोप । यहां प्रो० साल की हैं, अष्ट महम्राकारके बतला दिये हैं। यदि इस भुत्त पर शंका है कि य द बीनरागो मुनिर्विद्वान्' शब्दमे केवल का कोई ध्यान न भी दिया जाय तो भी उनकी दुसरी भुल ग्रहण न हो, माधु परमेष्टी और उपाध्याय परमेष्ठीका ही उपेक्षणीय नही है। उपर जो उन्होंने अष्टपहनीकार के ग्रहण किया जाय तो उनके तो प्रमाद और कषाय रहनेसे नामसे पंक्तिया प्रमाणरूपमे प्रस्तुत की हैं वे अपहनीकार बन्ध होगा ही फिर कारिकामे जो बन्धका प्रसंग दिया गया का स्वमत नहीं हैं। अपहरोकारने उन्हें केवल शकाकार है उसकी संगति कैम बैठेगी ? इस शंकाका समाधान यह की ओरम प्रस्तुत की है। र्थात 'स्वस्मिन्' में लगा कर है कि पूर्वपक्षी प्रमाद और कपायको बन्धका कारण नही
'इनि' तकक वा शकाकार के हैं और उनके द्वारा उसने मानना चाहता वह तो केवल एकान्ततः द.खापत्तिको ही अपने पक्षगत दोषोका परिहार किया है और 'नयनकाम्न. बन्धकारण कहना चाहता है और उसके इस कथनमें ही
सिन्दिरवायाता' यह वाक्य समाधान-वाक्य है और यथाउपर्युक्त दोष दिये गये हैं। जब उसने अपने एकान्त पक्ष
थतः यही अष्टपहनीकारका म्वमत है। मालूम नहीं प्रा. को छोडकर यह कहा कि 'अभिसन्धि' (प्रमाद और कपाय) मा० ने पाठकों के सामने वस्तुस्थितिको अन्यथारूपमे क्यों भी उसमें कारण है तब उससे कहा गया कि यह नो रकवा ? जब कि अष्टपहीकारने कारिकांक नीचे अपना अनेकान्त सिद्धि प्रा गई-पापका 'परत्र सखद बोम्पादनं स्पष्ट व्याख्यान भी दे दिया था। और यदि उन्होंने यह पुण्यपापबन्धहेतुः' इत्यादि एकान्त नही रखा। इसमें यह जान बूझ कर नहीं किया तो 'म्वस्मिन' के पहले लगे हुए माफ है कि यहां छठे आदि गुणस्थानवर्ती मुनिकी ही
___ स्थान्मत' पदको क्यों छिपाया गया-3मे भी रद्भुत क्यों विवक्षा है। यह हम अन्धकार और विद्यानन्दके स्पष्ट- व्या नई किया ? जो कि वस्तुत: शकार्यका सूचक था। जोहो ख्यानसे भनी प्रकार समझ सकते हैं।
यह अवश्य है कि प्रो० मा० ने अष्टपहनीकारके नामय जो
उल्लिखित पंक्तियों उद्धत की है वे उनकी अपनी नहीं हैं। इस हमें यह प्रसन्नता है कि प्रो. सा. प्राचार्य विद्यानन्द लिये इन पंक्तियों परसे यह कहना कि 'स्वयं अष्टमहस्रीऔर उनके व्याख्यानको प्रमाण मानते हैं। इसलिये उनके कारने भी यहां 'वीतरागो मुनिविद्वान्' से अपाय वीतराग
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अनेकान्त
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तत्वज्ञानी ही अर्थ ग्रहण किया है।" किसी भी तरह संगत श्लोकों) के आधारस मुख्तारसाहबने अपने 'स्वामीममन्तनहीं है। क्योंकि परीक्षा करक देख लिया गया है कि वे भद्र' की प्रस्तावना ( पृष्ठ 11 ) में यह प्रतिपादन किया है पंक्तिग स्वयं अष्टपहर कारका मत नहीं हैं - श का कारका कि 'इस ग्रंथ (पार्श्वनाथचरित ) में माफ तौरमे देवागम मन हैं। दूपरे, यहों वीतरागस्य तत्वज्ञानवत:' ऐमा जुदा और रत्नकरण्डक दोनोंक कर्ता स्वामी समन्तभद्को हो ही विभक्तिक प्रयोग है जिसका अर्थ है 'वीतरागके और सूचित किया है।" इस पर प्रो. मा. मुझपर आक्षेप तस्वज्ञानीक' । यदि उसका 'अपाय वीतराग तत्वज्ञानी ही करते हुए लिम्बने है-- अर्थ हो तो 'वीतरागतत्वज्ञानवत:' ऐसा समस्तरूप प्रयोग 'इन (मुख्तार मा० की) पंनियों को देखते हुए हमें होना अधिक संभव था परन्तु ऐसा प्रयोग न करके विद्या. पाश्चर्य होता है कि न्यायाचार्यजीने अपने प्रस्तुत लेखमें नन्दने 'वीतरागस्य तत्वज्ञानवत.'एमा व्यस्त ही प्रयोग किया इस प्रबल प्रमागाका उपयोग क्यो नही किया ? उसे तो है जो उनके अपने वीतरागी विद्वांश्च मुनिः', 'वीतरागस्य उन्हें अपने मतकी पुष्टिमे अधिकसे अधिक प्रबलताके साथ कायक्लेशादिरूपदु खोपत्तेपिदुपस्तत्वज्ञानसंतोषलक्षणमुखो. प्रस्तुत करना चाहिये था । पर उन्होने वादिगजके रन. त्पत्त:' व्य व्यानके सर्वथा अनुकृत और सुसात जान करण्डक सम्बन्धी उल्लेख का नो कथन किया, किन्तु उन्ही पड़ता है। वास्तवमे प्रो० सा० को यहां यही भ्रम हुश्रा के द्वारा मुस्तार मा० के अवतरणानुसार ठीक उसी पूर्वके है कि वीतराग' और 'विद्वान्' ये दो एक ही मुनिरूप श्लोकमे उल्लिखित अप्तमीमामाकी बातकी व मर्वथा छपा व्यक्तिक विशेषण हैं। जब कि वस्तुस्थिति इसके प्रतिकृल गये । इसका कारण हमे तब ममममे पाया जब हमने है और वे एक एक सातत्र ही दो मुनिव्यक्तियोके विशेषण वादिराजकृत पार्श्वनाथ चरितको उठा कर देखा।" हैं। अर्थात-वीतरागमुनि श्रीर विद्वान मुनि ये दो उसके परन्तु उनके इस लिखने में कुछ भी मार मालूम नही वाच्य हैं।
देता। किसी भी विचारकके लिये यह कोई लाजिमी नहीं अत: यह साफ है कि 'वीतरागो मुनिर्विद्वान्' में वीत. होना कि उसे अपने पूर्ववर्ती विचारकोके मभी विचारामे रागमुनि -माधुपरमेष्ठी और विद्वान् मुनि- उपाध्याय सहमत ही होना चाहिए । विचारकोमे विचार-भेद परमेष्ठी अर्थ ही प्रथकार तथा टीकाकार विद्यानन्दको विव- भी होना स्वाभाविक है। मुस्तार मा० ने वादिराजसूरिके क्षित है और इस तरह सुख दुखकी वेदना उन्हीके स्वीकृत जिन दो श्लोकोक प्राधारसे अपना उक्त प्रतिपादन किया था की गई है, केवजीक नहीं। केवजीके सुख-दुःखकी वेदना वे दोनो श्लोक और उनका उक्त प्रतिपादन उस समय मेरे माननेपर उनके अनन्त सुख नहीं बन सकता, जिम स्वय लिये विशेष विचारणीय थे । एक तो वे दोनों श्लोक उक्त प्राप्तमामांसाकारने मी 'शर्म शाश्वतमवाप शङ्करः' शब्दों ग्रन्थमे व्यवधान महित हैं । दूसरे, कुछ विद्वान् उससे द्वारा स्वीकार किया है क्योंकि सजातीय व्याप्यवृत्ति दो विरुद्ध भी कुछ विचार रखते हैं । अतएव मैं उस समय गुण एक जगह नहीं रह सकते। यह मैं पहले भी कह चुका कुछ गहरे विचारकी श्रावश्यकता महसूस कर रहा था और है और जिसपर प्रो. मा. ने कोई ध्यान नहीं दिया है। इसलिये न तो मुख्तार साहबके उक कथनस सहमत ही
अब हम वादिराजसूरिके पार्श्वनाथ चरितगत उस उल्लेख हो सका और न अपहमत - तटस्थ रहा। चूंकि वहां मुझे को लेते हैं जिसक द्वारा मैंने यह कहा था कि-"रत्नकरण्ड वादिराजके जितने असंदिग्ध उल्लेखमे प्रयोजन था उतने वि. की ११ वी शताब्दी (१००२ वि.) से पूर्वकी रचना ही को उपस्थित किया, शेषको छोड़ दिया गया । इसके है और वह शताब्दियों पूर्व रची जा चुकी थी। तभी वह अतिरिक्त एक मच्चे विचारकका कोई अच्छा तरीका नहीं वादिराजके सामने इतनी अधिक प्रसिद्ध और महत्वपूर्ण १ 'स्वामिनश्चारतं तस्य कस्य नो विस्मयावहम् । कृति समझी जाती रही कि प्रा. वादिराज स्वयं उसे देवागमेन मर्वजो येनाद्यापि प्रदीने ॥ १७ ॥ 'अक्षयसुखावह' बतलाते हैं और 'दिष्टः' कहकर उसे अागम त्यागी स एव योगीन्द्र येनाक्षय्यसुखावहम् । होने का संकेत करते हैं।" वादिराजके इसी उल्लेख (दो अर्थिने भव्यसार्थाय दिष्टो रत्नकरण्डकः ॥” १६ ॥
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किरण ११-१२]
क्या रत्नकरण्डश्रावकाचार म्वामी ममन्तभद्रकी कृति नहीं है।
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है। ऐसी स्थिति में मेरे लिये यह कहना कि देवागम और भद्रके पाय 'देव' उपपद भी जुड़ा हुआ पाया जाता है" रस्नकरण्डकको एककर्तृक सिद्ध करनेके लिये मुख्तार सा. और इसलिये उक्त मध्यवर्ती श्खोकमें पाये हुए देव' पद के उक्त प्रतिपादन प्रमाणका मुझे उपयोग करना ही केवाच्य समन्तभद्र भी हो सकते हैं ।" भागे चलकर चाहिये था, उचित नही जान पड़ता। वह तो मेरे विचार योगीन्द्र पद भी समन्तभद्र के लिये प्रयुक्त हुमा बतलाया
और इच्छापर निर्भर था । अतएव प्रो.सा. का उक्त है और इसके प्रमाणस्वरूप वादिराजमूरिमे कुछ पूर्ववर्ती लिम्बना कुछ भी महत्व नहीं रखता और न उसका विचार प्रभाचन्द्र के गद्य कथाकोषका उल्लेख प्रकट किया है। इस के साथ कोई सम्बन्ध । उनकी अन्तिम पंक्ति तो बहुत तरह उन्होंने पार्श्वनायचरितके उन नीनों ही श्लोकोंको
आपत्तिके योग्य है, क्योंकि उनके इस कथनम यह मला ममन्तभदके लिये पभावित बतलाया है। मुम्तार माहबका होता है कि उन्होंने अपने प्रस्तुत लेख लिखने तक पार्श्वनाथ यह प्रमाण महित किया गया कथन जीको लगता है और चरितको उठाकर नहीं देखा था और अब मेरे द्वारा वादि- अब यदि इन तीनों श्लाको यथास्थन प्राधारम भी यह राजसम्बन्धी पाश्वनाथरितका उन्लेख प्रम्नत किये जाने कहा जाय कि वादिराजदेवागम श्रीर रस्नकरण्डकका एक पर ही सके देखनेकी और आपकी प्रवृत्ति हहै। परन्तु ही कना-वामी समन्तभद्र मानते थे तो कोई बाधा नहीं यह बात नही है, आपने इसके पहले भी अनेक बार उमं है। दो श्लोकीके मध्यका व्यवधान भी अब नहीं रहता। विचारपूर्वक देखा है और उसके प्रस्तुन प्रकरणोपयोगी पदी दूसरी बात यह है कि वादिराज जब प्रभाचन्द्र के उत्तरवर्ती श्रीरलीकाको दूसरे स्थलापर उद्धत किया है । 'त्यागीम हैं नी यह पूर्णत सम्भव है कि उन्होन प्रभाचन्द्र के गद्य एव योगीन्द्रो' आदि श्लोकगत 'अक्षयमखावह पदको कथाकोष और रनकी रानकरगडटीकाको जिममे रत्नकरण्ड धवलाकी चतुर्थ पुस्तककी प्रस्तावना (पृ. १२) तथा
का का स्पष्टत. स्वामी समन्तभद्रोही बनाया गया है. 'सिद्धान्त और उनके अध्ययनका अधिकार' नामक लेखमे
अवश्य देखा होगा और इस तरह वादिगजने म्वामी दिया है, जिन्हें प्रकाशित हुए लगभग तीन वर्षमें कुछ
समन्तभद्रशे लक्ष्य (मन.स्थित ) करक उनक लिये ही ऊपर होचुके हैं। हमके बाद 'जैन इतिहासका एक विलुप्त
'योगीन्द्र' पदका प्रयोग किया है तथा उसके द्वारा उन्हें रख
यागीन्द्र' पदका प्रयोग किया। अध्याय' नामके निबन्धमे,जो कि यथार्थत: प्रस्तुन चर्चाका करण्डका कना बन
करण्डका कनां बतलाया तो कोई असम्भव नही है। स्रोत है. 'स्वामिनश्चरित' प्रादि पूरा ही पद्य उसके फुटनोट यदि बिना कोई नुदिये ( प्रमाण ) इम बातपर जोर में उद्धृत है, और मजेकी बात यह है कि पद्यके बराबरमें दिया जाय कि वादिराज योगीन्द्र' पदकं प्रयोगद्वारा स्वामी (पार्थ नाथचरित ) इन शब्दोंके साथ ग्रन्थका नामोल्लेख ममन्तभद्र भिम दूमर ही विद्वानको रनकरण्डका कर्ता प्रति भी है। ऐसी हालतमे यह कहना कि पार्श्वनाथचरितको पादन है, जिनकी गोगीन्द्र उपाधि थी तो इसके लिये निम्न आपने अभी हाल हीमें उठाकर देखा है-इसके पहले नही दो बात मिद करनी होगी-एक तो यह किवादिराज करते देखा था, असंगत जान पड़ता है।
उन उल्लेम्बकं विषयमे पूर्णत. अभ्रान्त है-वे भ्रान्ति . अभी हाल में मुख्तार मा० ने एक महत्वका विचारपर्ण नहीं कर सकते हैं। दूसरी यह कि जैन साहिग्यमें से लेग्य' लिखा है और उसमें उन्होंने वादिराजके उन सीन विद्वानका अम्तिाव । जी योगान्द्र उपाधप भूपन
विद्वानका अस्तित्व है जो योगीन्द्र' उपाधि भूपिन रहे हों श्लोकोंकी और दष्टि रखते हुए बतलाया है कि "समस और जो रनमालाकार शिबकोट के गुरु ही तथा समन्तभद्र १ देखो, अनेकान्त वर्ष ७ किरण ५-६ में उनका 'स्वामी "अचिन्त्यमहिमा देव: मा.भिवन्द्यो हिनापिगा। समन्तभद्र धर्मशास्त्री, तार्किक और योगी तीनो थ' शीर्षक शब्दाभ येन मिन्न माधुन्वं प्रतिलम्मिना: ॥ १८ ॥ सम्पादकीय लेख।
३ "श्रा समनभद्रम्वामी रत्नान। रक्षणोपायभूतग्नकरण्डक२ दो श्लोक तो पीछे फुटनोटमें उद्धृत कर आये हैं और प्ररव्यं मम्यग्दर्शनादिग्नाना पालनो गयगन रत्नकरण्डकाव्यं तीसरा उनके मध्यका श्लोक यह है
शाम्ब कतुकामा।"
लक० टी० पृ०१
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अनेकान्त
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जिनका नाम हो । परन्तु ये दोनो ही बातें सिद्ध नहीं समन्तभद्रको ही योगीन्द्र' पदके द्वारा स्नकरण्डका कर्ता होती। क्योंकि वादिराज भ्रान्ति भी कर सकते हैं। जैसे कि प्रकट किया है। यहां हम यह भी कह देना चाहते हैं कि एक भ्रान्ति उन्होंने न्यायविनिश्चर्याववरण में की है । यथा- जो विद्वान् पार्श्वनाथ चरितके उक्त मध्यवर्ती लोकमे आये 'न्यायं प्राहुः स्वामिममातभद्रादय. । किं प्रशब्देन, पाहुरिति हुए देव' पदका वाच्य देवनन्दि ( पूज्यपाद ) को बतलाते पयाप्तवादिति चेन्न प्रबन्धेनाचार्योपदेशपारम्पर्येणागतमाहुः हैं उन्हे अब उसे स्वामी 'समन्तभद्र' के अर्थमे ही प्रारितिव्याख्यानार्थयात । न्याय कि प्राहः ? वेदनं देखना चाहिये । ज्ञानं । कथ प्राहु. ? स्पष्टं शब्दतादिकत्वेन परिस्फुटं यथा यहाँ हम एक बातका उल्लेख और कर देना चाहते हैं भवति तत्त्वज्ञान प्रमाणमित्यादिना नर्थव प्रवचनात ।” कि प्रो. मा. ने वादिगजके उक्त उल्लेख पर जहाँ जोर ___ यहां प्रत्यक्ष लक्षण प्राहु: इम कारिकाका व्याख्यान दिया है वहां प्रभाचन्द्र के सुस्पष्ट एवं अभ्रान्त ऐतिहामिक करते हुए वादिराज 'प्राहुः' क्रिया का का स्वामी समन्त- उल्लेखकी पर्वथा उपेक्षा की है-जसकी आपने चर्चा नक भद्रादिको बतलाते हैं जब कि वस्तुत: उस क्रियाका कर्ता भी नहीं की है, जो कि यथार्थत: समस्त प्रमाणोंमें दिनकरअक्ल कदेव और विद्यानन्दने तत्त्वार्थसूत्रकारको बतलाया प्रकाशकी तरह विशद प्रमाण है। और वादिगजसे पूर्ववर्ती है। जो कि ठीक है। क्योंकि अकलंकने स्वय राजवार्तिकमे है। सच पूछा जाय तो आपने इस ज्यादा मुस्पष्ट ऐनिहामिक अपना ऐसा भाव प्रकट किया है । अत इसमे स्पष्ट है कि प्रमाणको दबाया है और जिसका आपने कोई कारण भी वादिराज उक उल्लेखक विषयमे भ्रान्त भी हो सकते हैं। नही बतलाया है। अस्तु । क्यों कि प्रभाचन्द्र का स्पष्ट उल्लेख श्रादि प्रमाणा रत्नकरण्ड इसी मिलपिले में आपने एक बहुत ही विचित्र कल्पन! का कर्ता स्वामी समन्तभद्र को ही बतलाते हैं। साहि- और की है कि सनकरण्डके अन्तमें जो 'येन स्वय' श्रादि त्यमे ऐम समन्तभद्रका कोई अस्तित्व भी नहीं है और न १४६ वां पद्य है उसमें ग्रथकारने 'श्लेषरूपमे अपनी रचना कोई उल्लेख है जिनकी 'योगीन्द्र' उपाधि हो और जो के अाधारभून ग्रन्थों व अन्य कारोंका उल्लेख किया है।' एनमालाकार शिवकोटिके गुरु हों तथा योगीन्त' कहे श्राप लिखते हैं-'यहाँ टीकाकार प्रभाचन्द्रद्वारा बतलाये जाते हों। मुम्तार मा० ने खोजके साथ दूसरे अनेक सम- गये वान्यार्थके अतिरिक्त श्लेषरूपम यह अर्थ भी मुझे न्तभद्रोंका परिचय कराया है पर उनमें से 'योगीन्द्र स्पष्ट दिखाई देना है कि "जिमने अपने को अकलंक और समन्तभद्र' कोई भी नहीं हैं जो वादिराजके पूर्ववर्ती हो। विद्यानन्दके द्वारा प्रतिपादित निर्मल ज्ञान, दर्शन और चारित्र योगीन्द्रदेव नामक एक श्राचार्य जरूर हुए हैं जिन्होंने रूपी रत्नोंकी पिटारी बना लिया है उसे तीनों स्थलोपर परमात्मप्रकाश श्रादिकी रचना की है। पर वे एनकरण्डके सर्व अर्थों की सिद्धिरूप सर्वार्थासद्धि स्वयं प्राप्त हो जाती कर्ता नही है। कारण, एक तो उनकी प्राय अध्यात्म और है. म इच्छामात्रमे पतिकी अपनी पत्नो।' यहां निस्सन्देह योग पर ही रचनाएँ प्राप्त होती हैं जो कि उनके दोनों ही स्नकरण्डकारने तवार्थसूत्रपर लिखी गई तीनों टीकाश्रीका प्यारे विषय थे। दूसरे, उत्तरवर्ती किसी भी ग्रन्थकारने इन्हें उल्लेख किया है। सर्वार्थ सिद्धि कही शब्दश: और कहीं रत्नकरण्डश्रावकाचारके कर्तारूपस उल्लेखित नही किया। अर्थतः अकलककृत राजवातिक एव विद्यानन्दीकृत श्लोकपद्मप्रभमल धारिदेवने तो दोनाका जुदा २ उल्लेख भी किया वार्तिकमे प्रायः पूरी ही प्रथित है। अत: जिमने अकलं ककृत है। तीसरे, स्वयं प्रो० मा० भी उन्हें रत्नकरण्डका कर्ता और विद्यानन्दिकी रचनात्रोंको हृदयंगम किया है उसे नहीं मानने । शास्त्रमारसमुच्चयके कर्ता माघनन्दि भी सर्वार्थ सिद्धि स्वयं श्रा जाती है।" परन्तु आपका यह 'योगीन्द्र' कहलाते थे पर वे वादिगजके उत्तरकालीन हैं लिखना प्रमाणवाधित है। प्रथम तो आपकी यह काल्पनिक
और जिनका समय प्रेमीजीने 'वि. स. १२६७ के लगभग' बात किसी भी शास्त्राधारसे सिद्ध नहीं है, इसके लिये अर्थात् १३ वी शताब्दी अनुमानित किया है। ऐसी दशामे आपने कोई शास्त्रप्रमाण प्रस्तुत भी नहीं किया । दूसरे, यही निषकर्ष निकाल ना उचित है कि वादिराजने 'स्वामी जो श्रापने श्लोकके 'त्रिपु विष्टपेषु' का श्लेषार्थ 'तीनों
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किरण ११-१२]
क्या रत्नकरण्डश्रावकाचार स्वामी समन्तभद्रकी कृति नहीं है ?
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स्थलोंपर' किया है, कृपया बतलाइये कि वे तीन स्थल काम और मोक्षरूप अर्थोकी सिद्धि रूप अर्थमे उसका प्रयोग कौन हैं ? जहाँपर सर्व अर्थोकी सिद्धिरूप 'सर्वार्थ सिद्धि' हुआ है। अत प्रो०मा० की उपरोक्त कलाना शााधारमे, स्वयं प्राप्त हो जाती है। शायद आप तस्वार्थसूत्रपर लिखी युक्तिये, स्वयं प्रन्थकारके वर्णनमे और अनुभवमे बाधित गई तीनों टीकाएँ तीन स्थल कहें, सो उनमें एक तो स्वयं होने किसी भी तरह संगत नहीं है। यह हम उपर्युक्त सर्वार्थसिद्धि ही है जिसका ग्रहण तीन स्थलोंके अन्तर्गत विवेचनद्वारा देख चुके हैं। किसी भी प्रकार नहीं आ सकता। क्योंकि उसका श्लोकमें इस सबका फलितार्थ यह हुआ कि कोई बाधक प्रमाण अलग ही उल्लेख है। तब तत्वार्थसूत्रकी दो ही टीका न होने तथा साधक प्रमाणोंके होने से वादिराजका भी अभिशेष रहती हैं। एक तरवार्यवार्तिक और दूसरी विद्यानन्दकी प्राय रस्नकरण्डको प्राप्तमामांपाकारकृत ही बनल नेका है। श्लोकवार्तिक टीका। जिनमे जरूर सर्वामिद्धि कहीं शब्दश: और इसलिये वह विद्यानन(हवीं शता.) के बाद की रचनाऔर कहीं अर्थत: पूरी ही प्रथित है। लेकिन फिर सिद्ध नही होसकती क्योंकि विद्यानन्दके भी पूर्ववर्ती मिद्धमन श्लोकमें 'त्रिषु' और 'बिष्टपेषु' पद नहीं होना चाहिये दिवाकारने, जिनका समय वि. की ७ वी शताब्दी माना 'द्वयोः' और 'विष्टपयोः' पद ही होना चाहिये था, जाता है, अपने 'न्यायावतार' में स्नकरण्डके 'प्राप्तोपज्ञ' जो न तो छन्दृष्टिसे संगत हैं और न ग्रंथकारके नामके श्लोकको अपनाया है। जैसा कि हम पूर्व लेखमें मयु. श्राशयके अनुकूल ही हैं। वास्तव में प्रो. मा० ने श्लोकमें क्तिक बतला पाये हैं और जिसका प्रो० मा० ने कोई श्राये हुए वीतकलंक, विद्या और सर्वार्थ सिद्धि इन तीन खण्डन भी नहीं किया है। अब चूंकि रत्नकरण्डका अधार पदोको देखकर ही उक्त कल्पना कर डाली है और 'सर्वार्थ प्रो. सा. की कल्पनानुसार न तो अकलङ्क और विद्यानन्द सिद्धि' पद को तो एक जुदे ही टाइप में रक्खा है। यदि वे के तत्वार्थवार्तिक और श्लोकवार्तिक ही सिद्ध हो सके हैं उसी ग्रन्थके श्रादिमें पाये हुए तीसरे श्लोकको' भी देख और न पूज्यपादकी सर्वार्थसिद्धि । श्रतएव 'सवार्थमिद्धि' में लेते तो उक्त कल्पनाका उद्भव शायद न होता, जहाँ ग्रंथ. जो रत्नकरण्डये तुलनात्मक वाक्य पाये जाने हैं उन परमे कारने स्पष्टत: सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यकचारित्र भी रत्नकरयडश्रावकाचारकी रचना पूमपार (४५०ई०) इन तीन रत्नोंका ही उद्देश करके उन्हें धर्मका स्वरूप से पूर्व पहुंच जाती है। जैसा कि पिछले लेखमें कहा जा बतलाया है अर्थात उन्हें ही धर्म कहा है और मोक्षपद्धति चुका है। अतः इन सब प्रमाणीकी रोशनीम रनकरण्डको होनेका संकेत किया है। तथा 'उद्देशानुसारेण लक्षण. स्वामी ममन्तभद्रकी ही कृति मानना चाहिये। कथनम्' इस न्यायानुसार आगे ग्रन्थमें उनका ही लक्षण- अब हम प्रो. सा. की उन तीन बातों पर और निर्देश किया है । तमाम ग्रन्थमें इन्हीं तीनका विवेचन है। विचार करना चाहते हैं जिन्हे उन्होंने अपने लेखके यन्त अतएव ग्रन्थकर्ताने अन्तमें उपसहाररूपसे उन्हीं तीन 'सद में मेरी एक बातके उत्तरमें उपसहाररूपसे चलती सी दृष्टि-ज्ञान वृत्तान' को दोहराया है और उन्हे भव्य-जीवों लेखनीमे प्रस्तुत की हैं। वे इस प्रकार हैं . के लिये अपनी प्रामाका पिटारा बनानेकी प्रेरणा की। (१) श्राप्तमीमांपामें दोषका स्वरूप क्षुधादि स्वीकार यहां यह भी ध्यान देने योग्य है कि 'सदृष्टि-ज्ञान-वृत्तानि' नह
। नहीं किया है। वाक्यमें आये हुए 'सत्' शब्दक अर्थमें ही 'बीतकल' पर
(२) विद्यानन्दको भी दोषका स्वरूप क्षुधादि इष्ट
नहीं है। का और 'दृष्टि-ज्ञान-वृत्तानि के स्थानमें 'विद्या-दृष्टि क्रिया' पद
(३) अष्टसहस्री और श्लोकवातिकके व्याख्यानमें कोई का उक्तश्लोकमें प्रयोग किया गया है, अकलंक और विद्यानन्दि
विरोध नहीं है। के अर्थ में नहीं और न 'सर्वार्थ सिद्धि' पदका प्रयोग पूज्यपाद (१) पहली बातके समर्थन में मापने केवल दोषावरणकी मर्वार्थ सिद्धि प्रन्यमें अर्थ में हुआ है। अपितु धर्म, अर्थ, योहानिः', '
निर्दोषः' 'विशीर्णदोषाशयपाशबन्धम्' 'स्वदोष१ "सदृष्टि-ज्ञान-वृत्तानि धर्म धमेश्वरा विदः।
मूलं स्वपमाधितेजसा' जैसे कुछ पद वाक्योंका ही अवलम्बन यदीयमत्यनीकानि भवन्ति भवपद्धतिः ॥"-रत्नक०३ लिया है. जिनमें वस्तुत: 'दोष' शब्दके प्रयोगके अतिरिक्त
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अनेकान्त
[वर्ष ७
उपका स्वरूप कुछ भी नहीं बतलाया । हो, विद्यानन्दने मान्यताको स्पष्टत: और अष्टसहस्त्रीमें गौणत: स्थान दिया अवश्य दोषार सावदज्ञान-राग-द्वेषादयः' कह कर प्रज्ञान, गया है। प्राशा है प्रो. सा. इस पर विशेषत ध्यान देंगे। राग और द्वेषादिको दोषका स्वरूप बतलाया है; पर मैं उस प्रश्नके पोषणमें जो दलीलें दी गई हैं वे बहुत ही प्रापत्ति. के सम्बन्धमें यह स्पष्ट कर पाया हूं कि "विद्यानन्दके व्या. जनक और बाधित हैं। क्या किसी टीकाकार या उत्तरवर्तीख्यानका भी, जो उन्होंने का० ५-६ में किया है, यही ग्रंथकारके लिये यह लाजिमी है कि वह पूर्ववर्ती सभी प्राशय लेना चाहिये। दूसरे वहीं उनका दृष्टिकोण दार्श. ग्रन्थोंपर टीका लिखे ही? यदि ऐसा हो तो स्वयं विद्यानंद निक भी है। अत: उमको लेकर उन्होंने दोषका निश्लेषण के सन्मुख स्वामी समन्तभद्र का ही स्वयम्भूस्तोत्र भी था किया है और दर्शनान्तरों में भी मान्य अज्ञान राग और सब उस पर उन्होने टीका क्यों नहीं लिखी ? अकलंकदेवके द्वेषको कण्ठोक्त कह कर आदि शब्द द्वारा अन्यों-तुधारिकों सामने युक्त्यनुशासन और स्वयम्भू स्तोत्र दोनों अटीक थे का ग्रहण किया है। यदि ऐसा न हो तो उन्हींके श्लोक- एवं मौजूद थे तब उन्होंने भी उन पर अपनी टीकाएँ क्यों वार्तिकगत (पृ. ४१२) व्याख्यानमे, जहां मचलतासे नहीं लिखी ? प्रभाचन्द्र ने एनकरण्ड और स्वयम्भूस्तोत्र
धादि वेदनाओंका केवलीमें प्रभाव सिद्ध किया है, विरोध दोनोंकी टीकाएं की हैं और वे केवलीमें धादिवेदनाओं के भावेगा जो विद्यानन्के लिये किसी प्रकार इष्ट नहीं कहा जा अभाव सम्बन्धी मतके प्रबल पोषक भी थे तब उन्होंने भी सकता।" और । पहले इसी लेखमें यह अच्छी तरह स्वयम्भूस्तोत्रकी टीका या कमसे कम प्रमेयकमलमार्तण्ड मिद्ध भी कर पाया हूँ कि प्राप्तमीमांसाकार और उनके में अपने मतके समर्थनार्थ रत्नकरण्डके 'क्षुत्पिपासाजरातङ्क' टीकाकारोंको दोषका स्वरूप क्षुधादि अभिमत है और उसे मादि उल्लिखित श्लोकका अवतरण क्यों नहीं दिया? और उन्होंने कारिका २ में प्रकट भी कर दिया है। अत: इस उसमे अपने मतको विशेषत: प्रमाणित क्यों नहीं किया ? सम्बन्धमे घव और अधिक कहना अनावश्यक है। इससे स्पष्ट है कि उत्तरवर्ती टीकाकार या ग्रंथकारकी इच्छा
(२) दुसरी बातके समर्थनमे श्राप कहते हैं कि "यदि पर यह निर्भर है कि वह पूर्ववर्ती ग्रन्थपर टीका लिखे या विद्यानन्दको प्राप्तमीमांसाकारके दोष' शब्दसे वही भर्य न लिखे या अपने विषयके समर्थनार्थ उसके प्रमाणको अभीष्ट था, जो स्नकरण्डकारको है तो मैं न्यायाचार्यजीस उपस्थित करे या न करे । अत: विद्यानन्दके रत्नकरण्डपर पूछता हूं कि उन्होंने वही स्वरूप वहां क्यों नहीं प्रकट टीका न लिखने या उसका अष्टहस्त्री आदिमें अवतरण न किया? ... ' इस परसे स्वभावत: यह अनुमान भी किया देनेसे यह अनुमान करना कि 'उनके समक्ष स्वामी समन्तजा सकता है कि यदि उनके सन्मुख उन्ही समन्तभद्रकृत भद्रकी रनकरण्डश्रावकाचार जैसी कोई रचना विद्यमान न रस्नकण्डश्रावकाचार जैमा ग्रंथ होता तो वे उस पर भी थी। सर्वथा भ्रमपूर्ण है और वह अनुमानाभासकोटिमें अपनी टीका लिखते या कमसे कम उसका अवतरण देकर स्थित है। इस सम्बन्धमें बहुत कुछ लिखा जा सकता है। भाप्तमीमांसामें दोषका अर्थ अवश्य ही उसीके अनुसार पर विद्वानों के लिये संकेत ही काफी है। अत: विद्यानन्दके करते, क्यों कि वे केवलीमें सुधादिवेदनामोंके प्रभावसम्ब. समक्ष रस्नकरण्डके रहते हुए भी उनकी उस ओर इच्छा न न्धी मतके प्रबल पोषक थे।" यहां जो मुबसे प्रश्न किया होनेसे उन्होंने उस पर न टीका लिखी और न उसके अवगया है उसका उत्तर मैं पहले विस्तारसे दे पाया हूं और तरणको देना आवश्यक समझा। कह पाया हूं कि विद्यानन्दने प्राप्तमी० का०२ के व्याख्यान (३) अष्टसहस्रीमें दोषका स्वरूप क्षुधादि न माननेपर में दोषका स्वरूप वही स्वीकार किया है जो रत्नकरण्डमें हमने श्लोकवार्तिकके व्याख्यानके साथ विरोध प्रदर्शित किया है-उसे छोदा नहीं गया है। सायमें हमें यह भी नहीं था। उसके परिहारका प्रयत्न करते हुए प्रो० सा. लिखते भूलना चाहिये कि अष्टसहस्री जहां मूलत: दार्शनिक रचना है कि "विचार करनेसे ज्ञात होता है कि यथार्थत: वहां है वहां श्लोकवार्तिक दार्शनिक होते हुए भी मूलत: भाग- ऐसा कोई विरोष उत्पन्न नहीं होता। टीकाकारका कर्तव्य मिक रचना है। अत: रखोकवार्तिकमें तो रस्नकरण्डकी है मूल ग्रंयके अभिप्रायको उनकी परिपाटीके अनुसार व्यक्त
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किरण ११-१२]
अहिंसाकी विज्य
करना।" परन्तु इस विधानको प्रागे आकर यह कहते हुए कृपया देखें, उन ममीमें दोषका स्वरूप धादि माना गया कि "यदि विचार कर देखा जावे तो वहां पर भी उनका मिलेगा। जिन दो विचार-पारामोंको वे उनमें देख रहे हैं, तथा उनसे पूर्ववर्ती दोनों टीकाओं अर्थात् सर्वार्थ सिद्धि और वह केवल भ्रम है। राजवानिकका मत तस्वार्थसूत्रकारके मतसे मेल नही अतएव दोषके स्वरूपसम्बन्धी प्रातमीमांसा और साता।" उपेक्षित कर दिया है। ऐसी हालतमें उसके रत्नकरण्ड दोनोंका एक ही अभिप्राय है और इस लिये माधारसे जो विरोध-परिहारका प्रयत्न किया गया है वह इस बाषकाभाव और दूसरे साधक प्रमाणस यह स्थिर कोई स्थिरता एवं समीचीनताको लिये हुए नहीं है। अतः हुआ कि दोनों प्रथोंका कर्ता एक ही व्यक्ति और वे प्रो. सा. पूर्वोक्त विवेचनके प्रकाशमें प्राप्तमीमांसा, अष्ट. भातमीमांसाके का स्वामी समन्तभद्र । सहबी, श्लोकवातिक और तस्वार्थसत्र मादिको समनासे
वीरसेवामन्दिर, ११-८-४१
॥अहिंसाकी विजय
विश्वके हित बह रहा हो, प्रेमका अविगम निर्भर-- रोम रोम स्वतन्त्र हो, बन्दी न हो जीवन तथा स्वर । एकता समता क्षमा सौहार्द, जागे उत्तरोत्तर, बह रही हो शान्ति जननी, शुद्ध हार्दिकतर निरन्तर ।
विश्व-क्षाके लिये अन्तर, मदा हो प्रोत्माहित, हो धगमय घोर हिसा, भावना होकर पराजित । घोर हिंसा अाज है, बुझते प्रदीपोका उजाला, विश्वमें होगा अहिंसा, मन्यका फिर बोल बाला।
फिर बहाएगा जगत में, रक्त मानवका न मानव, गुजरित होगा अहिंसक, वीरके सन्देशका रव । जग जलानेके लिये, कोई न फिर दीपक जलेगा, अमर जीवन दीप जलकर, विश्वभरका तम हरेगा।
आज हिसा दानवीके, केन्द्र में भीषण प्रलय हो, विश्वके सौभाग्य हित, क्षण-क्षण अहिमाकी विजय हो।
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कल्याणकुमार जैन 'शशि'
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भगवान महावीर
(ले०- श्री. सुमेरचन्द्र दिवाकर न्यायतीर्थ शास्त्री, बी० ए० एल-एल० बी०)
जि
नमेनाचार्य कहते हैं, जब विश्वमें अशांतिका हुना। मयूरकी ध्वनिके सुननेमात्रम जैसे चंदनके वृक्ष में साम्राज्य छा जाता है. धर्मका प्रदीप बुमनेमा लिपटे हुए विषधर ढीले होजाते हैं, वैस ही उन महान लगता है और लोग पापोंकी ओर उन्मुख प्रामाके गर्भ मानेपर हिसाम लोगोंकी विरक्ति शुरु हो होने लगते हैं, तब जिनोत्तम तीर्थकर प्रभुका चली। देवोने, दानवोंने, मानवोंने और प्रकृतिने भी अपना जन्म होता है । आजसे लगभग ढाईहजार महान् प्रानंद व्यक्त किया । जब चैत्र शुक्ला त्रयोदशीको वर्ष पहले इस भारतवर्षका वसुधातल महान सीपमेसे मोतीके समान, अत्यन्त क्रान्ति, प्रताप तेज प्रभृति
पाखंडो और पापप्रचारको द्वारा कलंकित गुणभूषित शिशुने माता त्रिशलाके उदरसे जन्म लिया, तब होरहा था । अनेक लोगोंने अपने पापापे छूटनेका तरीका सम्पूर्ण विश्वमें शांति और श्रानदका मिन्धु हिलोरें मारने जीवोंके वधको समझ रखा था । 'धर्मम्य मूलम् दया' के लगा। और की तो बात ही क्या नारकीयोंको भी अंतर्महर्त भावको पूर्णतया भुलाकर तत्कालीन पुरोहित श्रादिकोने के लिए शान्तिसे सांस लेनेका मौका मिला । देवदेवेन्द्रोंक जीवित हाणियोंकी बलि करनेका मार्ग प्रचारित किया था। प्रासन कपित हुए । उनके मस्तक झुक गए । मानों वे यह उस पापमयी निविद निशामें सन्मार्गप्रकाशकका दर्शन बताते थे कि विश्वमें सबमे पूज्य और पवित्र पारमा माता दुर्लभ न रहा था । जुगनूके समान करुणाके मार्गका त्रिशलाके यहां अवतरित हुआ है, तुम लोग यहां कैसे प्रकाशन करने वालेकी भी प्राप्ति कठिन थी। यज्ञमें होमे बैठे हो । सभीने उस दिन अपनेको धन्य माना । लोग उस जाने वाले पशुओंके करुण कन्दनसे श्राकाश फटा जा रहा महापुरुषको महावीर प्रभुके नामसे कहने लगे। वैसे तो था। उनके रक्तसे यह जमीन जाज होरही थी । वेदादि लोकोत्तर गुणों के कारण उनको अनेक नामोंसे संकीर्तित शास्त्रोंकी दुहाई देकर तत्कालीन विप्रवर्ग पशुबलिकी तो करते थे, किन्तु प्रचलित नाम 'महावीर' था। महावीर प्रभु बात ही क्या है, नर-बलि तकका समर्थन करके लोगोंको कहने में और देखनेमे शिशु थे, किन्तु उनका धारमा 'अवधि' गुमराह कर रहा था। उसी भीषण स्थितिको लक्ष्यमे रख नामक दिव्यज्ञानसे अधिकृत था। ममय जाते और सुखकी कर कविकालिदासने अपने 'मेघदूत' में चबल नदीको घनियां बीतते देर न लगी । शिशुवसे वर्धमान होकर "चर्मवती' के रूप में वर्णित किया है. क्योंकि वह रक्तको उन्होने कुमारावस्था प्राप्त की। उनका तेज, उनकी शांति प्रवाहित करनेवाला महान् नद होगया था।
उनका बल, सब कुछ अतुलनीय था । एक दिन दो इसी पापके युगमें जगत यही चाह रहा था कि कोई
श्राकाशगामी महान् तपस्वी योगियों को तबके विषयमें
सूक्ष्म शंका होगई थी । उन्होने जब कुमार महावीरका अहिंसाका अधिदेवता करुणाकी सजीव प्रतिमा अवतरित
दर्शन किया, तो शंकाका निराकरण होगया । इससे उन होकर उन अगणित मूक जीवोके कष्टोंका निवारण करे।
मुनियोंने न्हं 'सम्मति' नामसे संकीर्तित किया। बोगोंकी और मूक प्राणियोंकी अभ्यर्थनाई विफल नहीं हुई। कारण, विहारप्रांतके भूषणरूप कुंडपुर ( कुंडलपुर एक समय अनेक राजकुमारोंके साथ प्रभु ऊद्यानमें मगर) में महाराज सिद्धार्थ के यहां महारानी त्रिशलादेवी कीड़ा कर रहे थे। एक महान सर्पराज वहां दिखाई पड़ा। के गर्भमें एक पुण्य पुरुप अवतरित हुए । तबसे ही ये सभी राजकुमार एक विशाल वृक्षपर चढ़े हुए थे। जब पापियोकी, हिंसकोंकी मनोवृत्तिमे अन्तर पड़ना प्रारंभ उस नागराजने वृक्षपर चढ़ना भारम्भ किया, तो सभी
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किरण ११-१२]
भगवान महावीर
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राजकुमार घबचाकर कूदे और जान छोड़ कर भागे, किन्तु स्व और अज्ञानमे निमन जगतको कल्याणके मार्गपर प्रभुकी गंभीरता और दृढ़तामें तनिक भी परिवर्तन न हुश्रा। लगाऊँगा, जिमसे सबका दुःख दूर हो। वे उस नागराजको वशमें करते हुए सरलतासे नीचे उतर महावीरका निश्चय डिग और अचल था । उनका श्राए ।
युनिवाद भी अजेय था । उनने आजन्म ब्रह्मचर्यकी महान इसी प्रकार महावीर प्रभुके बाल्यकालकी प्रत्येक घटना प्रतिज्ञा ली और सपूर्ण राजकीय वैभवका परित्याग कर महत्वपूर्ण और आश्चर्यकारी हुआ करती थी। ऐसे प्रतापी प्रकृतिः दत्त दिगम्बर मुद्रा धारग की। वे बालककी भांति पुत्रके कारण महाराज सिद्धार्थ और महारानी त्रिशलाको निर्विकार थे। दिगम्बर अवस्थामें प्रभु ऐसे मनोहर एवं अवर्णनीय श्रानंद, शांति तथा गौरवकी प्राप्ति होती थी। दिव्य मालूम पडते थे, मानो मेघघटास शून्य भासमान
भुकी रूपराशि तो लावण्यका समुद्र ही प्रतीत होती भास्कर ही हो। थी। अनेक सुरवालाएँ अनिमिष नयनोमे उनकी मनोरम
मुनिपदको अंगीकार करके प्रभुने अद्भुत प्रारिमक दृढ़ता मुद्राका दर्शन कर तृप्त नहीं होती थीं, किन्तु महावीरका का दिया। बोलेको
प्रारमनियामें अत:करण विकारविहीन था। वह पूर्णतया निर्जिप्त था।
तनिक भी बाधा नहीं पहुँचा सकते थे। शैलशिला उनकी एक कवि कहता है
शय्या थी। गिरिगुहा वमतिका थी । प्रकृतिकी सपूर्ण चित्रं किमत्र यदि ते त्रिदशांगनाभि
मामग्रीक मध्य वे मजीव प्रकृतिके देवता जैसे प्रतीत होते तिंमनागाये मनो न विकारमार्गम ।
थे। पाणिपात्रमें वे शुद्ध आहार लेते थे। मन वचन और कल्पान्तकालमरुता चलिातचलेन
काय उनके अधीन थे। निंदा, स्तुति, शत्रु-मित्रकी कल्पना कि मंदगदिशिखरं चलितं कदाचित ।।
से वे परे होकर वीतराग बन गए थे। महान मौनबती थे। 'देवांगना हर सकी मनको न तेरे,
विना पूर्णता प्राप्त किए उनने उपदेश देना ठीक नहीं अाश्चर्य, नाथ ! इसमें कुछ भी नहीं है।
समझा। उनकी तपस्या अचिंतनीय थी । द्वादश वर्षकी कल्पान्तक पवनसे उड़ते पहाड,
महान साधनाके फलस्वरूप वैशाख सुदी दशमीके अपराह्न पै मंदरादि हिलता तक है कभी क्या ?
में प्रभुको कैवल्यकी-सर्वज्ञताकी-लोकोत्तर ज्योति प्राप्त महावीरके समक्ष लोकोत्तर अपार श्रानदप्रद सामग्री
होगई। अब संपूर्ण विश्वके पदार्थ अपनी त्रिकालवर्ती थी जिपके द्वारा अन्य जन तीवविषयासक्त हुए बिना न पर्यायों महित उनके दिव्यज्ञानके गोचर हो उठे। रहते, किन्तु महान तवदर्शी होनेके कारण ! भुका वैभव,
बुद्धदेवने स्वयं उनकी सर्वज्ञताकी चर्चा करते हुए विभूतिसे उतना ही सम्बन्ध था, जितना कि सरोजका
कहा है 'क्या कहूँ ! मुझे नातपुत्न (ज्ञानृपुत्र मवज्ञ महावीर सरोवरमे। एक दिन प्रभुको तारुण्यश्रीस समन्वित देखकर माता
की पर्वज्ञता नही प्राप्त हुई । क्या उमका कोई अन्य
उपाय है।" पिताने उनके विवाहका विचार किया। जब यह बात प्रभु को ज्ञात हुई, तब उनने अत्यन्त नम्रतापूर्वक इस विषय में
योगविद्याके पारगामी भगवान महावीरने जो सस्यका अपनी अनिच्छा प्रगट की। उनने कहा 'तात | मेरे जीवन सवामीण दशन किया था, उपका प्रतिपादन श्रावण कृष्णा का ३० वर्ष जैसा बहुमूल्य समय विषयोंके मध्य में व्यतीत के सुप्रभानमंगजगिरिके विपुलाचल शैलपर प्रारम्भ किया। होगया. अब केवल ४२ वर्षका जीवन और शेष है। प्रत मनुष्यों, देवेन्द्रोंकी तो बात ही क्या पशु पक्षी तक प्रभुकं एवं इस अमूल्य समयको मैं विषयासक्तिमे अपव्यय नही प्रवचनोंको सुननेको बाते थे और अपना कल्याण करते थे। करना चाहता । विषयोंकी आराधनासे त्रिकाल में भी जीव प्रभुने कहा-"प्राणीमात्र शांतिलाभके लिये प्रयत्न करते की तृप्ति नहीं हो सकती है। मैं श्रात्म जागृतिके निमित्त है, किन्तु फिर भी दुखी देखे जाते हैं । सुखका सचा तपस्वीका जीवन व्यतीत करूँगा। कर्मजाल में जकड़े, मिथ्या- उपाय प्रारिमक पवित्रता है । यह जीव अपने कर्मों के
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अनेकान्त
[वष ७
अनुसार सुख दुःम्ब मोगता है । कर्मोंका बंध करने या दायित्वपूर्ण जीवन में लगे हुए नरेशों प्रादिको अकारण उनका उच्छेदन करनेमें प्रत्येक प्रारमा स्वतंत्र है । प्रारम- हिंसा करनेका निषेध किया है, जिससे अन्यायपूर्ण वृत्तिका शक्तिको जागृत कर यह जीव स्वयं परमात्मा बन सकता प्रतिकार तथा प्रतिरोष हो । 'शमः भूषणं यत्तीनां, न तु है। विषयवासना, अंधश्रद्धा, अज्ञानके कारण यह अनंत भूपतीनां' । अहिंसाका पाराधक अावश्यकता पड़नेपर ज्ञान प्रानंद तथा शक्तिका अधीश्वर अामा अनंत संसारमें उचित उपायान्तरके प्रभाव में शस्त्रादिकका संचालन करके ठोकरें खाता हुमा परिभ्रमण करना है । प्रारमनिर्भरता, अन्यायका निराकरण तथा न्याय देवताकी प्रतिष्ठाका संरक्षण अामनिर्मलता, आत्मज्ञान, आत्मनिमग्नताके अवलबनसे यह कर सार्वजनिक अहिंसाकी रक्षा करता है। जीव संमारके संपूर्ण दुःस्वोका प्रात्यंतिक क्षय करके मुक्ति कुछ सांप्रदायिक दृष्टिवाले भारतवर्षकी पराधीनताका निर्वाणका परमपद प्राप्त करता है। विषयोंकी आराधना, दोष महावीरकी अहिंसापर लादते हैं। वे यह भूल जाते हैं इन्द्रियों की पुष्टि से निकाल में भी शांति न मिलकर प्रांतरिक कि देशका पवन धर्मान्धता, फूट, कलह श्रादिके कारण श्राकुजता तथा व्यथाकी वृद्धि होती है।
हुश्रा । जब तक देशने महावीरकी हिमाके अनुसार प्रवृत्ति प्रभुने बताया कि जीव-वलिदान या प्राणि हिंसाप कभी की, तब तक वह विश्वका गुरु, शांति तथा समृद्धिका भी सथी शांति नही मिलेगी । अत्मामे जो रागद्वेष, मोह क्रीड़ास्थल रहा था । जबसे महावीरकी शिक्षा भुलाई गई, प्रादि पशु-प्रवृत्तियां हैं उनका बलिदान करना चाहिए। तबसे ही पतनकी पीडापद कथा प्रारम्भ होती है। बिम्बजो दूसरे जीवोंकी रक्षा न करेगा, उसे कभी भी शांति नहीं सार. चन्द्रगुप्त श्रादि महावीर के आराधक नरेशोंके राज्यमें मिलेगी। भानदके फूल करुणाकी शाखापर लगा करते हैं। भारतवर्ष सर्वप्रकारमे समुन्नत रहा है, इस बातका साक्षी
भगवामने कहा-'तव अनेक धारमक है । तस्वके एक इनिहास भी है। अशको पूर्ण सत्य मानकर ही दार्शनिक लोग खंडन-मडन भगवानके शिक्षण के एक अंग अहिंसा तत्वका विशेष के चक्रमे घूमा करते हैं। सत्यांशको पूर्ण सत्य समझना जोरके साथ बुद्धदेवने भी प्रचार किया । इसी प्रकार मत्यकी प्रतिष्ठाके विरद्ध है। उचित यह है कि अन्य के पश्चात्वर्ती हजारों महापुरुषोने भी अहिंसातत्वका प्रचार सत्यके दृष्टिकोण को जानकर उपकी मिदंयना या निर्भयता- किया । महावीर भगवानकी अहिंसाके प्रबल प्रचारके पूर्वक हत्या न करना चाहिए। सत्यांशका तिरस्कार करने कारण उस समय वैदिक हिंसा बंद होगई थी। इसे वैदिक वाला स्वय अपने पावॉपर कुठाराघात करता है । वस्तुके पंडित स्व. लोकमान्य तिलकने भी स्वीकार किया है। जिस अशको हम प्रधान करते हैं वह मुख्य बन जाता है, प्रभुने सस्यके प्रत्येक स्वरूपको अपनी दिव्य देशनाके अन्य अंशोंपर प्रकाश न पड़ने से वे गौण होजाते हैं, उनका द्वारा प्रकाशित किया था, जिसको उनके पश्चात्वर्ती जैनपूर्णतया प्रभाव नहीं होता हे । बौद्धिक जगतमें यदि मान- ग्रंथकारीने लिपिबद्ध किया है। उसमें प्रारमशुद्धि तथा सिक निष्पक्षपात (Intillectual impartiality) विश्वशान्तिका अपूर्व भंडार भरा है । ३० वर्ष पर्यन्त स काम लिया जाय, तो वहां भी मैत्री स्थापित की जा विभिन्न देशो विहार करके भगवानने कार्तिक कृष्णा चतुसकती है। अपने भिन्न रष्टिकोणको सहसा मिथ्या कह र्दशीकी रात्रि के अंतिम प्रहरमें पावापुरी (विहार) से निर्वाणदेना ही विरोध और कलहका मूल है
मुक्ति प्राप्त की। उस पुण्य दिवसकी स्मृतिमें दीपावल्लीका वौद्धिक मैत्रीका उपाय बताकर प्रभुने विश्वमैत्रीके लिये उत्सव अब तक संपूर्ण देशमें मनाया जाता है। लिए जीवरक्षा-अहिंसाका मार्ग बनाया । गृहस्थके लिये यदि हम महावीर प्रभुकी वाणीका मनन और अनुगमन यथाशक्ति और यथासंभव पररक्षाका उपदेश दिया। प्रभुने करें, तो हम भी महावीर बन जायंगे । हममें 'सन्मति' गृहस्थों को मर्यादापूर्ण अहिंसाकी शिक्षा दी, जिससे उनकी का प्रकाश होगा और हम पूर्णतया 'बर्द्धमान' होंगे। लोकयात्रा निष्कण्टक होवे । प्रभुने उत्कृष्ट शांतिको तपोवन- हमारा कर्तव्य है कि महावीरके उपदेशामृतको स्वयं वसी तपस्वियोंका भूषण कहा है, किन्तु संसारके सत्तर- पान करें और अन्य दूसरोंको भी पान करावें।
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भ० महावीर और भ० बुद्ध
(ले०-श्री फतेहचन्द बेलानी)
यह नुलना कोई दार्शनिक या सैद्धान्तिक नहीं है और भ. महावीर और भ० बुद्धको जो विचार आए, और न इन महात्माश्रोके उपदेश और जीवन की गहरी छान-बान जो मार्ग मानवताके कल्यागमें वास्तविक ऊँचा बद्दी उन्होंने है। वैसी तुलना के लिए तो एक महाग्रन्थ लिखा जामकता समस्त ममारके लिए बताया । फिरभी उममे मम्प्रदायवाद है। यह तो एक नमूना है और एक दो बाते इसमे लिखी जो घुम गया है शायद उनके अनुयश्रीने उसे उनके हैं । परन्तु तुलनात्मक से इसका गहरा अभ्यास और नामपर गट लिया है। अवगाहन आवश्यक है।
नहीं तो भला महावीर ऐमा क्यों कहते कि मेरे मार्गमें सच्ची तुलना शुद्ध सात्विकभावसे सत्यनिष्ठामे शका करने वाले मिथ्यात्वी हैं या उनका सम्यक्त्व नष्ट निष्पक्षतया और संस्कारिता के ऊंचे दर्जेपर होनी जरूरी है। हो जाता है।
हममे ई शक नहीं कि भ० महावीर और भ. बुद्ध अथवा बुद्ध ऐमा उपदेश क्यों देते कि बुद्ध और बुद्ध भारन की बड़ी विभूतियाँ हैं। भारतीय संस्कृति के ये मर्जक मंघ को शरण लेनेवाले का ही कल्याण होसकता है।
और आत्मबोधक है तथा 'स्व' के भोगपर विश्वकल्याण के उन्दाने तो शायद ऐमा हा कदा होगा कि मुझे ऐमा मार्गदर्शक है, भारतका यह गौरव है और हम उनके प्रतीत होता है कि कल्यागाका मार्ग यह है तुम उसपर ऋणी है ।
चलो नी सही, न चला तामही । चला तब भी श्राशी दि दुनिया जब किमीके मतमे वानर अवस्था में थी तब है, न चलो नब भी श्राशीर्वाद है। भारतमे मानवताके शिखर जैसे मन्तोने संस्कृतका श्रादर्श पर आज स्वपक्षमे ही कल्याण और बाहर मिथ्यात्व कायम कर दिया था । दुनियाके मध्य भारत उस जमाने में की बाते उनके नामपर चढ़ गयी है और उन दोनांके स्थितप्रज्ञ साबित हो चुका था।
नामसे काफी दलयान्दया होगयी है। ऐसे महापुरुषोंके लिए भारतकी विभूतिकी समझ गौण ऐमा क्यों नही है कि दोनों महात्माग्री को एक जगद बनाकर उहे दम किमी सम्प्रदायके नायक और प्रणेता बना स्थापित करके भारतीय विभूति ममझ कर, भारतीयके नाते देते हैं, तब, मैं ममझता हूँ, कि हम उन्हें अपनी कोटिमे हम दोनों की एकमाय स्तुनि-पृजा करते रहे। नीचे गिरा देते हैं । इहना ही क्यो हम भारतीता को भी दोनों तरतमता होमकनी है। पर जनताके लिए और कलङ्क लगाते हैं। फिरतो ऐसे महात्मामि दोष देखने विश्वके लिए आत्मकल्याणका मार्ग ढूंढनेम जो कष्ट लगजाते और उनका नाम ले लेकर परस्पर लडा करते हैं। उन्होंने झेले हैं, जिस गहराईपर वे पहुंचे हैं, और जो यह भात्मिक और मानसिक क्षद्रता है, हम उमे और क्षुद्र श्रान्मभोग उन्होने दिया है वह हर इन्सान के लिए वंदनीय बनानेकी कोशिश करते हैं।
है, पूजनीय है। सम्प्रदायके नेताओंमें इष्टकी भक्तिका अंध अतिरेक भ. महावीर और भ. बुद्धके विषयमें एक दो बातें बढ़ जाता है तब आपसमें तानस्वीच होती है धीमेधीमे-दुराग्रह पेश करना चाहता हूँ। और यह देखना चाहता हूँ कि बन कर प्रसंग प्रसंगपर विद्वेष फैलता रहता है । परिणामतः उन दोनोम तारतम्य क्या था । वह भक्ति इष्टको कलंकित करने का कारण होजाती है। बुद्ध का चरित पटक ग्रन्यमि स्वमुखोच्चारित-मा भक्ति का अंध अतिरेक इस तरह इन्सानमें क्षुद्रता पैदा उपलब्ध है । 'ललित विस्तार में भी है । महावीरका चरित्र करता है और मनुष्यत्वको मिटाता है।
प्रागम ग्रन्थों में कहीं कही और कल्पसूत्र में है । स्वतंत्र
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अनेकान्त
[वर्ष ७
चरित्र भी संस्कृत-प्राकृतमे लिये गये हैं।
के उपदेशसे मालूम होता है कि वह वैराग्य स्वयं प्रेरणा है। १.ग्रहत्याग
उपदेशका श्रीगणेश जो किया है वह श्रात्माकी भीतरी सबसे पहली बात है दोनांके गृहत्यागकी। बुद्ध के अावाजसे किया है। जैसा कि 'पायाराङ्ग सून' में कहा हैवैराग्यमे यह कारगा बनाया जाता है-गा, वृद्ध ओर के अहं आसी? के वा इयो चुओ ? इह पेधा मृतका दर्शन । उन्हे देख कर बुद्धको म्लानि श्राजानी है। भविस्सामि ? अत्थि मे आया उववाइए, नस्थि मे उसमेंसे जन्म, जग, व्याधि और मृत्यु के विचार उटते है। आया उववाइए। जं पुरण जाणेज्जा सइ-सम्मइयाए। अात्मा उद्विग्न हो उठता है। इसी उद्विग्नताने वैगम्य पैदा मैं कौन हूँ ? यहां कहासे आया हूँ? और यदाम कहा कर दिया। उमममे गृहत्याग की भावना उठी | भिम जाऊंगा ? श्रात्माका पुनर्जन्म है या ही है ? वह स्वबुद्धि निकाय' मे 'अग्यिरिएमनमुन' से यह पता चला है कि से समझ लेना चाहिए।" उनकी आत्मा विह्वल हो उटी, स्त्री और पुत्र परिवार को इस प्रकार सोचते सोचते उन्होने अपनी एक दिशा छोडना भी कुछ कष्ट देग्दा था, मायमे रहने को भी दिल पाली और मार्ग तय कर लिया । अपने वैराग्यकी बात नहीं चाहता था। इस लिए एक रातको माता पिता और मब पर प्रकट करदी, गृहत्यागका निर्णय भी सुनाया। पत्नी-पुत्रको संते हुए छाड कर वे जगलमे चले गये। . पर वे संसारी थे, कुटुम्ब-कबीला भी था। उन्हें कष्ट 'अस्यिपरिणमनसुन'म कहा है
कैसे पहुंचाया जाय ? समारीको संसार का भी कुछ कर्जा है, "मोब्बनेन ममन्नागतो पढमेन वयसा अकाम कानं
माता-पितादि मे भी हमारा कुछ फर्ज है । उसे अदा करना है। मातापितुन्नं अस्मुमुखानं रुदन्तानं कसमस्सु ओहारेत्वा
इस लिए, गर्भकी प्रतिणाकी बात कोई न भी माने कामायानि बत्थानि अच्छादेव अगारम्मा अनगारियं
तो भी माता पिताकी विह्वलताको देख उनके मृत्यु तक पबजि । मो एवं पब जती परिएसमानो येन श्रालारो
गृहत्याग स्थगित कर दिया। भीतरसे वैराग्य बढ़ता रहा। कालामा तेन उपसंकमि।"
"निवृत्तरागस्य गृहं तपोवनम् ' समझ कर राजमहलको
भी तपोवन बनाते रहे। "अरियपरियेसनसुत्त-मज्झिमनिकाय “योवन की प्रथम वयमे अनिच्छुक और ग्वाम इस कारण माता-पिताके स्वर्गवासके बाद भी बड़े श्रोसू भरे है ऐसे माता-पिताको छोड़ केश-मूछ मुडवा भाईने दो साल के लिए और श्राग्रह किया उसे भी मान कर, घर छोड अनगार प्रवजित हश्रा । इस तरह प्रवजित लिया। पत्नीको भी समझा लिया। और जब सभी सतुए होकर ......"अालारकालामके पास पहुँचा" ।
हो जाते हैं, या ऐमा कहें कि सबको यह प्रतीति हो जाती हो सकता है कि वैगम और प्रव्रज्याका यह तरीका है कि महावीरको वैराग्यमे वापस लौटाना असम्भव है तब किसीकोन ऊँचे । शायद यह समझ लिया जाय कि यह सबने उनका प्रस्ताव मंजूर रख लिया और गृइत्यागको उनकी मानसिक कमजोरी थी। उनक, मनमे भय और आज्ञा दे दी। संकोच था । अपने वेरापका प्रभाव उन पर जमा नहीं सके। महावीर मानो संसारकी प्रयोगशाला थी। जिनको जो
रातको यशोधराको छोड़ते समय उनकी मानसिक परि- जो उपाय आजमाना हो आजमाअो, प्रलोभन जो रखना हो स्थितिका वर्णन बद्ध ग्रन्थोमे जो दिया है इससे यह अनु- रखो, ताकत हो तो वापम भी लौटालो, वैराग्य मेरा कममान किया जा सकता है कि उस समय वह व्यग्र और जोर है तो जगलमे जाकर भी क्या कर सकुंगा ? सबल व्याकुल थे। यह भी कहा जा सकता है कि पत्नीको भी वैराग्यकी परीक्षा जगलम नही संसारमे साबित होती है। अज्ञात रखकर, रातको छोड़ कर चला जाना औदार्य और * यहाँ वैराग्य-दीक्षाका दो बार स्थगित किया जाना और क्षमता नहीं हो सकती। पर खैर, बुद्ध आखिर महात्मा हैं। फनी श्रादिकी कुछ बाते श्वेताम्बरीय श्रागमोकी दृष्टि से
महावीरके वैराग्यकी बात कुछ और है । उनको किसी सम्बन्ध रखती हैं, दिगम्बर आगमोकी दृष्टि उनसे बाहरी कारणसे बैराग्यका होना उल्लिखित नहीं, बल्कि उन भिन्न है।
--सम्पादक
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किरण ११-१२
भ० महावीर और भ० बुद्ध
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और एक दिन णमो मिद्धस्म' कहकर गृह-त्याग कर दिया। आगे जाकर उन्होंने अपने उपदेशमे तपस्याको अनुपादेय
२ ज्ञानप्राप्ति-दानोंको ज्ञान प्राम है नाम भले ही कहा है। कहते हैंजुदा जुदा हो । कोई बोधि कहो, कोई केवलज्ञान कहो। हे भिक्षी ! प्रव्रज्या लेन बालेको दो मिरका सेवन ___ 'मज्झिम निकाय' के 'महामञ्चकसूत्त' से पता चलता न करना चाहिए । कामोपभोग एक सिग है । वह हीन, है, जैसा कि ऊपर कहा गया, भ. बुद्ध गृह-त्याग करक अनार्य, अनावद, ग्राम्य श्री अज्ञानजनमे-वत है। योगी श्रालार कालामके पास गये। उनके शिष्य बन कर देहदंडन दमग मिग है। वह भी दुवकारक, अनार्य, उनके मार्गकी उपासना की।
अनावह है।" फिर वद उद्दक रामपुत्रके पास गये। उनका शिप अर्थात् कामोपभोग श्रोर तपस्या दोनोको अनार्य श्रोर बन कर वहाँ ममाधि मीया। उनमे अलग होकर जैन अनावह बताया है। इम fun उन्हाने मध्यग मार्गका श्रमणोंकी तपस्याका सिद्धान्त ग्रहण किया। यह तास्या जब अनुगरण किया। इमलिए अष्टगिक मार्ग बताया । मध्यम काठन मालूम हुई तो उन्होने मभ्यम माग शुरू किया,
मार्ग शायद इम लिए कहा होगा कि न तो वह श्रालार उमीम ज्ञान प्राप्त करते चले।
कालाम और उहक गमपत्र जितना नीचा है, न जैनश्रमण ___ महावीरकी बात इसमें कुछ भिन्न है। यह किमीक
मार्ग नितना ऊँचा है। दोनोके बीचका गस्ता अपने लिए पाम गये नही। अपना मार्ग उन्होने प्रथममें मोच लिया
निश्चित कर लिया है । और उमे मन्यममार्गके नामसे था । उसी पर वह चलते रहे। श्रात्मामसे जो अावाज
घोषित किया। उठी उसका विकाम करने गये। उनी मार्गसे प्रात्मामद्धि 'चुल दुक्वग्नध' में तपम्याके प्रति कुछ कट गेष प्रकट
किया हैबोधि, केवल जो कुछ कहे, प्राप्त किया
एक दफा व गनगृहम गये हैं। वहा जैन श्रमण तप ३ तपस्या-भ० बुद्गने नपस्या शुरू की है । पर वीच
कर रहे हैं। उन्हें देख कर भ० बुद्व कहने लगे-- में वह शायद थक जाते हैं वह जैन श्रमणमे कहते हैं--
"दम तरह तप करके शर्गक क्यो कष्ट पहुंचा रहे है ?" 'हे अग्गिवेमन ! मैंने श्वामाश्वासको गकना शुरू किया जैन श्रमण-"तपम पूर्वजन्मके पाप नष्ट करके और पर सरम भयंकर वंदना दाने लगी। पेटमे भी रीमा ही कष्ट नये पाप न करके अगले जन्मम कर्मक्षय और सर्वदुःन्यौका होता रहा, शरीग्म दाद होने लगा, देह कृश होगया श्राग्वे नाश हो जाता है।" गहरी चली गई, और शरीरमौदर्य भी जाता रहा।' ।
भ० बुद- पूर्व जन्मम तुम थे कि नही इमका तुम्हें ___फिर कहते हैं "मुझे प्रतीत नहीं होता कि इम दुष्कर पता कर्ममे लोकोत्ताधर्मजान प्राप्त हो, इस लिये निर्वाण-प्रानि श्रमण-नहीं, पता नही है।" के लिए कोई दूनरा मार्ग खोजना चाहिए। इस दुर्बल बुढ--"जिसका नुम्हे पता नही, फिर उम जन्मका शरीरसे यह सुम्बग्गध्य नहीं होसकता. इस लिए शरीर-रक्षण पाप धोने के लिए तप करते हैं ऐमा नहीं माना जा सकना ? के लिए पर्यात खुगक श्रावश्यक है।"
अर्थात् तुम लोग पारधि जैम कूर कर्म वाले हो ऐमा "फिर मैंने स्वाना शुरू किया । अन्नग्रहणमे धीमेधीमे अर्थ नही हो सकता?" शक्ति पाने लगी मैं समाधिमुग्व अनुभव करने लगा।" संवाद तो बहुत लम्बा चला गया है पर यहो इतनी
इससे पता चलता है कि नपस्यासे जब बुद्ध थक जाते गंजाईश नहीं कि पूग पृग रख मकः । हैं, तो एक आसान और सुखसाध्य मध्यम मार्ग प्रति- इममें श्रमणोपर कटाक्ष, और नपका उपहाम दीखता पादित करते हैं। वह मध्यम मार्ग वास्तवमे देखा जाय है. माथ माथ गेपमे पूर्वजन्मका भी ग्बगडन हो गया है । ये
और ऐतिहासिक गवेपणासे कसा जाय तो श्रमणोका जयणा- बान शायद लोगोको ठीक न ऊँचे । धर्मका ही अंश है।
____ पूर्वजन्म-पुनर्जन्मके विषयम 'महापरिनिब्यान सूत' में तपस्यासे उन्हे तिरस्कार भी हो गया है। क्यों कि उन्होंने कहा है
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अनेकान्त
[वर्ष
चतुन्नं अरियमचानं यथाभूत अदम्सना।
महाधीरकी बात तो और है पर उनके एक साधुकी मंग्तिं दीघमहानं तास ताम्वेव जातिमु ॥ तस्याका वर्णन 'भगवती मृत्र' में आता है । भ० बुद्धकी नानि एतानि दिट्टानि भवनेति समूहता। तपस्याके माय उसे देख लेना अनावश्यक न होगा। उच्छिन्नमृजदुबम्प नन्थि दानि पुनम्भवो॥ उममे लिग्वा है
"चार आर्य महामन्योका यथाभूत जान न होनेसे "आर्य स्कन्दकका शरीर कई किस्मकी तपस्या करने के बाद दीर्घकाल तक उन उन योगियोमे भटका किया, पर अब 'शरीर नपसे शुष्क, कक्ष, मासरहित और दुर्बल हो गया है, मत्य का जान हुअा है तृगाका तय हश्रा हे, दु.खका ड्डियों खड़बड़ आवाज करने लगी, चमड़ी इंडिपोके माय मलना हुआ है, इमलिये अब पुनर्जन् । नही रहा। चिपट रही है, नाडिया मभी ऊपर उठाई है, बोलना संयुनानकायेम एक जगह लिखा है
मुश्किल हो रहा है। शरीर ऐसा है मानों मूवी इरण्टीको 'अनमानगोयं ममारः, पन्या कोहि न पजानि
लकड़ामे या मुग्वे पत्नीने भर अगिठी हो और अंगिटीको अविनानी वग्णानं मनानं तर हामज्जोजनाना संधावतं समरत'
घसीटतं ममय जेमी अावाज होती है वैसे स्कन्दक जब भमार अनादि है, अविद्यामे प्राचादित और तृष्णासे
चलने हैं, तो हड्डियोंकी भावान हो रही है।" बद हम मनारमे जकड़े हुए प्राणियों की पूर्व स्थिात क्या
आर्य म्कन्दक मोचते हैं-"शरीरमें चलनेकी ताकत या कुछ समझ मे नही आन।
रही है, बोलनेसे भी ग्लानि आजाती है, केवल श्रात्मबल के “यो खो आवमो गगवम्बयो दोसक्खयो मोह
जाए चलना मभव हो रहा है, फिर भी जब तक उत्थान, क्खयां इदं वुति निवाग” ___
कर्म, वन, वीर्य, पराक्रम है तब तक भगवानके पास जाऊं ग, द्वेष और माह के क्षगको निर्वाण करते हैं"। श्रच दे कि जनश्रमण जो तपस्या करते थे गग, द्वेष, मोह,
शौर मलेखनाको अाज्ञा लू। भगवती सूत्र' श० २ उ. १
इननी दुर्बलताम भी वह नपकी हं। सोच रहे हैं । तृष्णा और दुःखके क्षयक लिए करते हैं नो क्यों भागन
४ उपदेश-पटक ग्रन्थों में बुद्ध के उपदेशम रत्नत्रया हो मकती है?
जाति का उपदेश है। उनमे तीन रन इन तरह प्रतिगदित है-- समाम्म अपनी पूर्वस्थिान का उन्हे भी पता नहीं है ऐसे
"शुद्ध मरणं, धम्म सरणं, संघं मरणं" अजानके कारण अगर जेन श्रमण तपस्या करे तो उनका
इस विषय में सोचते सोचते दिलम प्रश्न हो उसता है उपहास क्यों दीमकता है, और खुद भ० बुद्धने ऐमा उपहास
कि का वास्तवम यह बुद्धकी ही ताजा है ? क्यों कि ऐसी और कटाक्ष क्यों किया होगा, कुछ ममक्रमे नह। श्रारदा है !
भावना मनुष्य के मानसका प्रतिवीप है। बार-बार सोचा पर इन बातोसे यह नतीजा निकल पाता है कि नरः
कि इममें कदी व्यापक भाव दोनो दूट निकालू । पर में प्रति प्रेमी तात्रता और निमार व्यक्त किया है। और
मफल न दो मका, मुझे इमम साम्प्रदायिकभाव ही प्रतीत अपने मिद्धान्तोको कक्षाको नाच ले पाये हैं।
रहा । हो सकता है कि इसे समझनेम मेरी गलती हो। मैं भ० भदावारको नपरका मिद्वान्त और है। तमे चाहता हूँ कि मेरी गल । दो। उन्हें क्लेश नही हुश्रा । बल्कि भाखिर तक शानयुक्त नप
श्रागमाम महावीर के उपदेशमें भी रत्नत्रयीका उपदेश है। करके प्रति भ. बुद्धको रोध हो पाया था, इमलिये ताके "सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यकमारित्र" स्थाको ही प्रधान माना, त्याग और तर अात्म-विकासका यह महावीरका रत्नत्रयी है। अब अगर दोनोंकी तुलना माधन, कल्याणका मार्ग, और राग, दूप, मोइके क्षयका की जाय तो मानमिक श्रौदार्य और व्यापकभाव किसमे कागा बताया और ऐसा ही उपदेश अन्त तक देते रहे। अधिक है यह मोचने पर स्पष्ट होजाता है। साढ़े बारह सालमे ३४६ दिन श्राहार लेकर यह साबित चाहे किसी वादका हो,, किसी सम्प्रदायका हो, किसी किया कि प्रात्मबल मनबूत है तो यह शरीर-वाहन तपसे जातिका हो, मेरा भक्त हो चाहे न हो, भेरी शरण हो, चाहे थकता नहीं बल्कि अात्माका तेज और प्रभाव बढ़ना रहता है। किमीकी शरण हो पर सच्चा ज्ञान सच्चा दर्शन और सच्चा
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किरण ११-१२]
भगवान महावीर और भ० बुद्ध
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चारित्र जिम किसीम भी हो वह मोक्षका अधिकारी है। "बद्न भगानने धर्मका कोई नया अविकार या नयी __इस तरह भ. बुद्ध और भ. महावीर के वैरायके ज्ञानोपनब्धि नहीं की, उन्होंने समारत्याग, विशुद्ध जीवन, निमित्त, गृहत्याग, ज्ञानप्राप्त, नप उपदेश इन मबमे धार्मिक विचार यादि बातो का जो उपदेश किया है वह रमना दीग्ब पड़ती है । यह निर्णय में नहीं देना चाहूंगा पर तत्कालीन दूसरे श्रमण उपदेश देने और अनुष्ठान करने थे जैन धर्ममूत्र और बौद्ध धर्मसूत्रो की तुलना जब कभी का वही है।" नायगी तब स्वत: स्पष्ट होना मकता है।
एक दनिहामविज महाशपने अपनी पस्तकमे लिखा हैनग और दृष्टि में मोचं - बुद्धके ममयम जैन श्रमण "बुद्धने जो उपदेश किया वह मदाचारम अतिरिक्त मंस्कृातका ग्वामा विकास होता चला भारहा था उसका कुछ नही है" । प्रचार और प्रभाव जनतामे जमा हुआ था । बुद्ध उस वक्त फिरभी वह एक अलग धर्म क्या बनाया गया इमके नये नये और ताजे जनताके मामने श्रारह थ ।
कारण कुछ और है, पर उमका चर्चा में यहा जरूरी नहीं श्रालार-कालाम और गमपुत्र श्राादक वादाम उन्हें समझता है। मतोप नहीं मिला, वैदिक संस्कृतिक विकाग्मे तो वह
मैं इतना ही भमझता हूँ कि महावीर और बुहमें अमंतुष्ट थही, तब श्रमणसंस्कृतिकी तरफ ही उनका मुकाव
नारतम्य कितना ही ही दोनों भारत की विभूति है, हुआ, उनके उपदेशमे इसी मस्कृति की पृर्गछारागई:
भारतके गाग्व है। तब उन्होने उसका अनुकरण और उपदश किया है तो
ममा श्राशा और अभिलाषा प्रकट कर मकता हूँ काई आश्चर्य की बात नही है । काध की भी इमम काई
कि भारतीय नान, भारतीय होकर दाना को एक स्थानम बात नहीं है।
स्थापित करके दोनों को श्रागधना और उनके उपदेश का टिक ग्रंथी को पढनेसे पता चलता है कि जैन श्रमण
श्राचग्गा करते रहे। मस्कृति की उनपर इतनी गहरी छाप है कि स्टिक प्रधाममे जैन परिमापिक शब्दो का संचय करें तो एक छोटासा कोश
में नहीं ममझ मकता कि यह क्या और कैमे शक्य (Dictionary) हो जा सकता है । जैमा कि-श्रमण,
होगया ।क. महावीर का उपामक मारनाथकी भव्य प्रशान्त अणगार, प्रव्रज्या, चातुर्याम, निजग, निर्वाण, मबुद्ध,
बुद्द प्रतिभामे अोर एक बुद्धभक्त जैनन्दिग्मे नफरत रनत्रया, वगैरह वगैरह ।
कर मकता है । ज्य कि दोनो भागक भारतीय हैं और हमको पढ़कर किमी को यह भी अनुमान होमकता है
पागम्य में भारतीय है ओर -यागा है। फिर भी इतिहासम कि चद्र जैसे सूर्यमे प्रकाश पाकर पृथ्वी को प्रकाशित करता।
इममे बढ़कर हमारा कलंक-कथाएँ कम नही है। है, बुद्धने भी जैन श्रमणासस्कृतिके उपदेशाक प्राचारवादक लेकिन श्राज नो हम कह रहे हैं कि विकाम की ओर कुछ कुछ अशी को लेकर अपने आपको जनताम प्रकाशित हमार्ग प्रगान है, हम अागे बट रहे हैं, दुनिया एक होन्ही किया। उनका उपदेश जैन मंस्कृति का अंश है इममें और इननी ननदीक कि मुट्टीम पारदी है। शायद ही अब अत्युक्ति होमकती है।
पर देखा तो यह जाता है कि हम नजदीक होकर भी रमेशचद्रदत्त इतिहास और बौद्वमाहित्य के प्रकाण्ड मनमे एक दूमरेमे दर दूर है, बुद्धि दममे है नो इम लिए विद्वान माने गये हैं । उन्होंने अपने "Ancient कि परम्पर मनम हम दूर भागत हैं. नफरत करते रहे और India" की दूमरी जिल्दमे एक जगह लिखा है और लड़त हैं । क्या यही विकाम है, श्रार उन्नति में आप अपनी राय प्रकट की है कि
बन्धुभाव । कुछ ममझम नहीं बारहा है।"
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भ० महावीर-प्ररूपित अनेकान्त धर्मका वास्तविक स्वरूप -(शासनोपकारी सद्गुरुदेव श्री कानजी स्वामीका समयसारी व्याख्यान )
[श्रीकानजी स्वामी गुजगन-काठियावाड़ के एक प्रसिद्ध श्रात्मार्थो साधु परुष हैं और श्रानकन मानगढ़ (काठियावाड़) में निवास करते हैं। श्रारक' अध्यात्मज्ञान बटा-चटा हे और श्राप उसके अच्छे रसिक एनं सुलझे हा प्रवक्ता हैं । श्रापके उपदेशमे हजारों स्त्री-परुप धर्म में स्थिरताको प्रान दो चुके हैं । पिछले दिनों इन्दोर के सर सेठ हुकमचन्द जी भी सपरिवार अापके दर्शनीको सोनगट गये थे और उपदेशको मुनकर इतने प्रभावित हुए थे कि पहले दिनके उपदेशम ५ हजार की जिम रकमके दानकी घोषणा की थी अगले दिनके उपदेशम उमीको उन्होंने अपनी खुशीमे २५ हजारमे पारणत कर दिया । अस्तु, आप श्री कुन्दकुन्दाचाप-प्रणीन 'सममार' के अच्छे मर्मज हैं और श्रापको शास्त्रसभाम स्त्री-पुरुषाका काफी जमाव होता हे । ना० ११-१२ जुलाई सन् १६४४ को आपने ममयसारके याच कलशाका जो व्याख्यान किया है उसे भावनगरमे भायाण श्री दग्लिाल जीवगज भाईने अनेकान्त के विशेषाङ्कमे प्रकाशनार्थ भेजा था। मरकारी अड़चनोंके कारण विशेषाङ्क प्रकाशन नही दोग्दा है अतः अाज उस व्याख्यानकी यदा प्रकाशन किया जाता है । आशा है पाटा इमग यथष्ट लाभ उटाएंगे।-सम्पादक ]
सर्वद्रव्यमयं प्रपद्य पुरुपं दुर्वामनावासितः।
कुनयकी वासनासे वामित हुश्रा एकांतवादी-अज्ञानी स्वं द्रव्यभ्रमतः पशुः किल परद्रव्येपु विश्राम्यति । मानता है कि शरीरादि अच्छा रहे, धनादिकी अनुकूलता स्याद्वादी तु समम्तव पु परद्रव्यात्मना नास्तिता, हो, कुटुम्बादि अनुकून हो तब धर्म हो सकता है । ऐसा जानन्निर्मलशुद्ध बोधहिमा स्वद्रव्यमेवाश्रये ॥२५३
माननेवालेने पारमाका धर्म परक श्राधीन माना है अर्थात्
उसने श्रामा और परपदार्थको एक माना है, उसको हर एक वस्तु स्वपणे (स्वकी अपेक्षा) है और परपणे
श्राचार्यदेवने इधर पशु कहा है। (परकी अपेक्षा) नहीं है, यह अनेकान्त है । श्रान्मा पर
श्रामा परकी अपेक्षासे नास्तिरूप है और पर प्रारमा स्वरूपसे नहीं है; पर, श्रान्मा स्वरूपसे नहीं है । दोनों
की अपेक्षासे नास्तिरूप है। इस प्रकार अनेकान्तका स्वरूप पदार्थ अनाद्यनन्तभिन्न हैं एक पदार्थको दूसरे पदार्थका श्राश्रय
नहीं स्वीकार कर जो परवस्तुमे निज श्रात्माका अस्तित्व मानना यह ही संमारका कारण है । हर एक वस्तु और
मानकर-पारमाका स्वभाव पबित मानकर और परद्रव्य उसका गुण-पर्याय स्वपणे है और परपण प्रभावस्वरूप है।
में स्वपनके भ्रमसे परद्रव्यों में लक्ष करके अटकता है ऐसा परका परपणे अस्तित्ल है और प्रारमपणे नास्तित्व है। इस
स्व-परको एक मानने वाला जीव एकांतवादी पशु है ऐमा तरह मारमा आत्मपणे है, परपणे नहीं है। जिम स्वरूपसे
इस कलशमे कहा है। श्राप नहीं है उस स्वरूपस अपनेको मानना यह एकान्त
एक दुग्यको अन्य द्रव्यस सहाय मिले ऐसा जिसने वाद है। प्राचार्यदेवने इस कलशमें एकासवादीको पशु
माना है उसने सर्वद्रव्यमे एकपना माना है। पर वस्तुसे कहा है, वह संसारमे अनतकाल भ्रमण करनेवाला है।
निको किचित्मात्र गुण-दोषका होना जो मानते हैं वे इस अनेकान्तके चौदह प्रकारमें तो जैन दार्शनिक रहस्य मूह है। पर वस्तु कुछ भी हो किंतु वह मुझको जाभ-अलाभ श्रा जाता है । हरेक वस्तुका अस्ति-नास्ति स्वतन्त्र स्वभाव करनेमे समर्थ नहीं है-इमका जिसको ज्ञान नही है और है। हरेक वस्तु स्वसे अस्तिरूप है और परसे नास्तिरूप परवस्तु अनुकूल हो तो मुझको लाभ होंगे ऐसा मानकर है। एक वस्तु को दूसरी वस्तुका किंचिनमात्र सहाय मानने जो परमे रुक जाता है वह मूढ पशु जैसा है ऐसा प्राचार्य वाला एकांतवादी है, वह जैनदर्शनका नाश करनेवाला है। देव कहते हैं।
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किरण ११-१२]
भ० महावीर-प्ररूपित अनेकान्त धमका वम्तविक स्वरूप
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पर वस्तु अ.मा प्राधीन नहीं है और प्रारमा पर पर है उससे वह श्रात्माको हैरान नही कर सकता। वस्तु के अधीन नहीं है, हमये यह फलित हुअा कि यह अनेकान्त जैन दर्शन की जड (मूल) है। यह सिद्धांत पर वस्तुप प्राप्माको किंचित मात्र भी लाभ हानि अनादिसे समारी जीवोंके खयाल मे पाया नही है कि नहीं है । मेग स्वभाव मुझमे मुझसे ही हैं, ऐसा श्रद्धान प्रारमामे परका प्रभाव है और परमें प्रारमाका अभाव है। जिसका नही है वह श्रा'माव। धर्म परमें मानकर- अपना हर एक वस्तु मे अस्तिरूप और परस नास्तिरूप है स्वभाव परके श्राधार है ऐमामानकर परद्रव्यमें स्वपना मानता ऐमा नहीं माननेवाला एका वादी है, उसको परमे भिन्न है वह एकांतवादी है। अनेकांतवादी ज्ञानी जानता है कि अपना रूपका ज्ञान नही है। मेरे स्वभावमे पा नही, पर वस्तुमें मैं नही हूँ, तब जिस स्वरणे है और परपण नही ऐपा कहनेमे परपदार्थवस्तुका मुझमे आभाव है वह अभावरूप वस्तु मुझको की भी मिद्ध हो जाती है। यदि सर्प मिलकर एक ही लाभ-हानि पहुंचायगी ऐसा कभी नही बनेगा। श्रभावरूप वस्तु हो तब एकमे विकार नही होगा क्योंकि स्वभावमें वस्तप यदि किसी को कुछ भी होवे तब शशकका सीग विकार नही है। यदि अकेला पदार्थ में विकार हो तब लगनेसे अमुक पुरुष मर गया ऐसा प्रसग श्रावेगा। किंतु विकार ही स्वभाव हो जायगा, इममे विकारक वक्त अन्य मेरे प्रात्माम कर्म नही, कर्ममे मैं नहीं, शीर में आत्मा नही, यस्तुकी हाजरी होती है, उपका लक्ष करके श्रा'मा स्वय भाग्मामें शरीर नहीं, दोनो वस्तु भिन्न हैं, एक वस्तु का अपनेमे विकार करता । वस्तुका अस्तिष तो है ही स्नुि अन्य वस्तुम अभाव है, ऐसा जानने वाला अनेकांतवादी प्रत्येक स्वपणे, परपणे नही है। एक वस्तुको 'सपणे है" मम्यष्टि धर्मात्मा ममन परवस्तकी अपेक्षा अपना प्रभाव ऐसा कहते ही परपणे नही है' ऐसा अनेकान्त स्वयमेव मानता है और स्व की अपेक्षा परका प्रभाव मानता है, ही प्रकाशना है । वस्तु स्वपणे है ऐसा कहते समय उसमे हमपे वह पावस्तुम किंचित् भी लाभ-हानि मानता नही परका अभाव है ऐमा प्राजाता है । स्वमे जिसका प्रभाव है है किन्तु हरेक वस्तुका एक दूसरे में नास्तिपण है इसमें वह वस्तु स्वको कुछ लाभ या हानी नही कर सकता। मेरा स्वभाव मुझमें है, स्वभावकी शुद्ध श्रद्धा ज्ञान और शरीरकी किमी चेष्टाय श्रा'माको लाभ वा हानि नहीं होती चारित्र वह भी मुझसे ही है ऐसा मानना है और 'जसकी क्योंकि प्रात्माकी अपेक्षा शरीरका प्रामामे अभाव है। शुद्ध ज्ञानमहिमा निर्मल है ऐसे स्वद्रव्य का ही श्राय उसी तरह प्रात्माकी इच्छामे शरीरको अवस्था होती नहीं करता है। प्रत्येक द्रव्य अनाद्यनत भिन्न रहकर सर्व निज है, क्योंकि इच्छाका शरीर में प्रभाव है इस अनेकान्तका निज की अवस्थामें कार्य कर रहा है, कोई किसीको सहायक ज्ञान जिसको नी है उसको प्राचार्यदेवने पशु कहा है। नहीं होता है, ऐसा जाननेवाला धर्मारमा परद्रव्यका श्रात्मा शरीरका कुछ करने की इच्छा करे किन्तु उस इच्छाका श्राश्रय कैसे करे ?
शरीरमें प्रभाव है, इससे जो इच्छा शरीर में प्रभावरूप है भावाय 'मैं परपणे नहीं हैं. स्वपणे ऐ ऐसा वह शरीरका क्या करे इच्छा राग है; उसका प्रामाकी नहीं मानने वाले पशु समान एकांतवादी पारमाको अवस्थामें सद्भाव है, किन्तु शरीरमं तो रागका अभाव है, सर्व परद्रयरूप मानता है उसको अपना भिन्न स्वभावका जो अभावरूप है वह क्या करे' उपही प्रकार इच्छामें ज्ञान नहीं है, भिन्न-वकी श्रद्धा भिन्नत्वका ज्ञान और शरीरका तथा कर्मका अभाव है तब शरीर वा कर्म इच्छामें भिन्नविकी स्थिरता बिना मुक्त नहीं हो सकता। जो वस्तु क्या कर ? अर्थात शीर वा कर्म इच्छा नहीं करता है। मुझमें नहीं है वह मुझको क्या करे ? मुझमें अभावरूप इच्छामें कर्मकी नास्ति है तब कम इच्छाको क्या करे ? कर्म वस्तु मुझमें कुछ भी कार्य नहीं कर सकती। पारमा परमे निमित्त है और इच्छाम निमित्तका प्रभाव है हममे कर्मके अभावरूप होनेमे, वह परमे कुछ भी नहीं कर सकती और कारणम इच्छा नहीं है। परवस्तु आरमाकी अपेक्षासे भारमा अभावरूप होनेसे इच्छामें परका प्रभाव है और परमें इच्छाका प्रभाव परवस्तु मारमाका कुछ भी नहीं कर सकती। कर्म प्रारमासे है। इच्छ। पारमाकी क्षणिक विकारी अवस्था है, उसमें
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अनेकान्त
[ वर्ष ७
कर्मका प्रभाव है नब कर्म इछामें क्या करे ? इस तरह भिन्नक्षेत्र-निपगण बोध्य-नियत-व्यापार-निष्ठः सदा अनेकान्त को जाननेवाला जानी सर्व परसे अपना नास्तित्व सीदत्येव बहिः पततमभितः पश्यन्पुमा पशुः । मानकर स्वद्ररयमें रहता है।
स्वक्षेत्रास्तितया निरुद्धग्भसः म्याद्वादवेद' पुनपरद्रव्यका विषय छोडकर चलिये धेर। अब रही स्तिष्ठत्यात्मनिखात-वोध्य-नियत-व्यापारशक्तभवन।४ इच्छा। इक्छा यात्मामें होनेवाली विकारी क्षणिक अवस्था र एक वस्तु अनेकान्नामक होनेपर भी वस्तुका एक है. उस क्षणिक इच्छा जितना प्रारमा नहीं है। निकाली ही पक्ष मानकर सर्व पक्षका नहीं देखने वाला एकातिवादी स्वभावकी अपेक्षामें कणिक इच्छाका अभाव है और इच्छामें एक अपेक्षा पकहकर उतना ही वस्तुको मान लेगा है वह त्रिकाली स्वभावका अभाव है। इस तरह म्वभावम इक्छा वस्नुस्वरूपसे अज्ञाा है। एक बार चार जन्मांच पुरुप, नहीं और इरछामें स्वभाव नही। सणिक इच्छा जो होती जिन्होंने हाथीको कभी भी नहीं देखा था हाथी कैमा होता है उसको अपनी मानना वही ही संसार है। वस्तु दृष्टिसे है, इसका निर्णय करनेको बैठे उनसे एक के हाथ में हाथी विकारका प्रभाव है, इससे वस्तुदृष्टि में संपर नहीं है। की छ श्राई, वह पूछको ही हाथी मानकर कहता है मात्र इच्छा मेरी ऐसी र एकी विपरीत मान्यत में मसार है। कि 'हाथी रस्सी जैसा है": दूपरेके हाथमे हाथीका ।
हर एक वस्तु स्वपणे है, परपणे नहीं है। यदि वस्तु प्राया, वह उसको ही हाथी मानकर कहता है कि 'हाथी परपणे भी अस्तिरूप हो तब दो वस्तु एक होजायँ, किन्तु स्तम्भ जैसा है". तीसरेके हाथमे हाथीका कान पाया, वह दोनों वस्तु भित्र हानेसे एककी दूसरीमें नास्ति है। देव- उसको ही हाथी मानकर कहता है कि हामी मुप जैमा गुर-शास्त्र भी पर है, उसका मेरेमे अभाय है । वह प्रभाव है". चीके हाथमे हाथीकी सूड पाई, उसको ही हाथी वस्तुके आधारमे (देव गुरु-शाके आधारस मेग धर्म नहीं मानकर वह कहता है कि "हाथी मृपल जैसा है" । इस है, मेरा स्वभाव मेगपणे है और मेरे धर्मका सबंध मेरी सरह हाथीके मन्य-स्वरूपसे अन न ऐसे मर्व ही साथ हीहै। इस तरह अपने स्वभावके श्राश्रयमे ही अंध पुरुषोंने हाथ के एक एक गो ही हाथी
ही हाथी मान लिया। वैसे ही अज्ञानी-श्रारम-रूपका तू धर्म करना चाहता है कि नहीं ऐसा प्रथम तू निर्णय अनजान ऐसा जीव एक अपेक्षाको ही पूरा वस्नुका स्वरूप कर । यदि धर्म करना चाहता है। तब "परके प्रश्रित मेरा मान बैठता है। जैसे कि वस्नु परपने में नास्तिरूप है ऐसा धर्म नहीं है" ऐसी श्रद्धा द्वारा पराश्रय छाद । परसे जो जो कहनेपर स्वपने भी नास्तिरूप मान बैठता है, स्वपने है ऐसा अपने होना माना है उस मान्यताको सम्यग्ज्ञानस जलादे कहनेपर परपने भी है एमा मान बैठता है, परकी अपनपने "मेरा स्वभाव मुझमे है, वह कभी भी परमे नही गया है" नास्त है ऐसा कहने पर परकी सर्वथा नास्ति मान लेता है ऐमा श्रद्धान कर स्वद्रव्यमें ही स्थिरता र यह हीधा है। और सामने होने वाली वस्तु उसकापने है ऐसा कहने पर __ जगतकी अपेक्षासे प्रारमा श्रमत है, मामाकी अपेक्षासे अपने में भी परकी अस्ति मान बैठता है, इस प्रकार एक जगत अमन है, किन्तु प्रारमाकी अपेक्षासे श्रामा और अपेक्षाको पकड़ कर उस ही के प्रमाण पुरी वस्तुका म्वरूप जगतकी अपेक्षास जगत दोनों मत् है. इस तरह परसे मान बैठता है वह वस्तुके सच्चे स्वरूपसे अनजान हैअसत और स्वसे मत ऐसा अपने स्वरूपको जानकर ज्ञानी एकान्तवादी है. उसको प्राचर्यने इस कलशमें पशु कहा है। स्वद्रव्यमें विश्राम करता है, उससे विरुद्ध अपने स्वरूपको अामा सदा अपने असंख्य प्रदेशोंमें ही है । पर क्षेत्रमें परपणे मानने वाले अज्ञानीको कहीं भी विश्रामस्थान नहीं रहने वाले ज्ञेय पदार्थों को प्रारमा मात्र ज्ञाता होनेपर भी है। इस तरह कलश २५३ मे परद्रव्यमे असत्पनेका "यह परक्षेत्र मेरा है' इस तरह परक्षेत्रोंको स्त्र क्षेत्रपने प्रक र कहा।
मानकर सर्वथा एकान्तवादी अपना नाश करता है: शरीरादि अब कलश २५४ में स्वक्षेत्रमे अस्ति वका प्रकार परज्ञेयरूप अपनेको मानकर अज्ञानी पर नक्षमे मवर्तता कहा जाता है।
है, ज्ञानका म्व-परप्रकाशक स्वभार होने के कारणसे ज्ञानमें
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किरण ११-१२]
म० महावीर-प्ररूपित अनेकान्त धर्मका वास्तविक स्वरूप
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पर वस्तु दीखती है उधर 'मेरा अस्तित्व परमें गया हो जाता नहीं है । आत्मा प्रात्माके ही क्षेत्रमें है अज्ञानी परऐमा मानकर परदव्यकी ओर लक्ष देवर अपना नाश क्षेत्र में अपना अस्तिाव मान कर निजका नाश करता है, करता है, किनु प्रात्माम परवस्तुका श्राकार प्रवेश पाता ज्ञाना स्वक्षेत्रमें परकी नास्ति मान कर स्वमे टिकता-स्थिर नही है, वैसे ही प्राप्माका श्राकार परमे प्रवेश पाता नहीं है, रहता है। इस त ह अनेकान्त वस्तु का स्वरूप है, सबका प्रारमा तो मदा क्षेत्रमे ही है उसका अज्ञानीको भान नहीं है, ऐमा म्वरूप जोनहीं समझेगा उसको निगोद में जाना पड़ेगा, ___ प्रथम २५३ वे कल शम द्रव्यकी बात थी, इस कलशमें और जो समझेगा वह सिद्ध भगमन त्रिल कनाथ होगा ही। क्षेत्रकी बात है। परक्षेत्रके प्राकारको जाननेका अरमाका सिद्ध और निगांद ही मुख्य गति है। शुद्ध निश्चयगति स्वभाव है ही, ज्ञानमें परक्षेत्र दीखता है उस परक्षत्रो अपना सिद्ध है और अशुद्ध निश्नयगति निगोद है, बीचकी चारों मानकर और अपनेको परपने मान कर एकांतवादी अपने गनियाँ व्यवहार है. उनका कान अल्प है ॥ २५४ ॥ स्वरूपका नाश करता है।
वनस्थितये पृथग्विधपरक्षेत्रस्थिताज्झनान् । प्रारमा नित्य असख्यप्रदेशी है उसके प्रत्येक प्रदेशमे तुच्छीभूय पशुः प्रणश्यति चिदाकारान सहाथैमन ।। अनंतगुण हैं, उसका क्षेत्र अपनेमे ही है। भाई । स्याद्वादी तु वसन स्वधानि परतंत्र विदनास्तितां । नेरा तेरे में है, तेग क्षेत्र अमरूप प्रदेशाकार है । नार्थापन तुच्छतामनुभवत्याकारकर्षी परान । इस तरह अपने को मिल न मान कर जी परक्षेत्रमें ज्ञानका स्वभाव जानने का है, इससे परवस्तु जब ज्ञान एकपना मानता है उसकी प्राचार्य भगवामने इस में दीखती है तव अज्ञानी मानो कि परवस्तु ज्ञानमें घुस कलशमें एकान्तवादी पशु कहा है। स्थाद्वादका जाननेवाना गई हो" ऐसे भ्रमपे, ज्ञानमें जो परवातुका श्राकार दीखता ज्ञानी स्वक्षेत्र अना अस्तित्व मानता है इससे परक्षेत्र में है उसको निकाल दू अर्थात ज्ञानकी अवस्थाको निकाल दू स्वपनेकी मान्यता नहीं है, इतना परता फका वेग रुक गया तब अकेला ज्ञान ही रह जाय ऐसा मान कर तुच्छ होता है। 'स्वक्षेत्री असंख्य प्रदेशोंका पिंड है' ऐसा मानने वाला हुअा नाश पाता है। अज्ञानी ऐसा मानता है कि ज्ञानमें ज्ञानी स्वक्षेत्रमें वर्तना हुआ भी आत्मामे हा श्राकाररूप गृह, स्त्री, बालक श्रादि याद आता है इसम मुझको राग बना हुआ परशेयोंकी माथ एकपना मानता नही है किन्तु हुए बिना रहता नहीं है, यह बात बिल्कुज झूठ है। घर मेरे ज्ञानमें ही परको जानने की शक्ति है ऐसा ममम कर का ज्ञान होना रागका कारण नहीं है किन्तु घर प्रति जो स्वद्रव्यमें ही रहता है। परवस्तु मेरे ज्ञानका ज्ञोय है, पर ममन्वभाव है वह रागका कारण है, उसमे गृहादिका ज्ञान वस्तु मैं नहीं है किन्तु मेरा ज्ञान ही मै हुँ एम अपने ज्ञान भले हो किन्नु "यह गृह मेग है" ऐसी मान्यताको विस्मका निश्चय व्यापाररूप शक्तिराला बन कर, स्वद्रव्यमे स्थित रण करनेका है। ज्ञानको तू किस तरह भूलेगा? भाई! रह कर स्वको जीवित रखता है-स्वरूप में ही रहता है। जाननेका तो तेरा स्वभाव है, उपमे परवस्तु महज ही प्रका
वीतराग होने के पहले शुभराग होता है और शुभराग शती है, परवस्तु को भूलने का नहीं है किन्त 'पर मेरा' ऐसी में निमित्त देव-गुरु बादि भी होते हैं, किन्नु वह राग और मान्यताको निकालदो। परका ज्ञान रागद्वेषका कारण नहीं रागका निमित्त मेरा नहीं है। मैं परक्षेत्रये भिन्न है, मेरा है किन्तु पग मेरा ऐसी मान्यता ही राग-द्वेषका कारण है, धर्म मेरे क्षेत्रमें ही है, ऐमा न मानने वाला अज्ञानी स्व. उसी मान्यताको ही बदजने की मावश्यकता है; उपके बदले भावको परपने मान कर अपना नाश करता है और ऐमा अज्ञानी परवस्तु को जाननेरूप अपने ज्ञानकी अवस्थाको जानने वाला ज्ञाना परपने अपने को नहीं मान कर स्वपने ही निकालनेको इरछना है, किन्तु वह किमको निकालेगा भाई! अपने को स्थिर रख कर अपना नाश नही होने देता। ज्ञान तो तेरा स्वभाव है, क्षणा क्षणमें उपकी अवस्था बद
प्रभो । तेरा क्षेत्र तेरे पास है, परक्षेत्र तुझसे भिन्न लती है, और उस ज्ञानको अवस्थाका ऐसा ही स्वभाव है। परक्षेत्रको जाननेका नेरा स्वभाव है किन्तु अन्य कोई कि परपदार्थ उसमें मजकता है, वहा अज्ञानी मानता है तुममें भाजाता नहीं है, वैदेही तेरा क्षेत्र अन्य परवस्तुमें कि परवस्तुका ज्ञान ही भूल जाऊं अर्थात मेरा ज्ञान ही
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अनेकान्त
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निकाल दूँ । इम तरह ज्ञेय पदार्थमे मेरे ज्ञनकी अवस्था भिन्न है ऐसा नहीं मानने वाला अज्ञानी ज्ञानी अवस्था भी शेयरूप मान कर अपने ज्ञानको अवस्थाको छ बना मांगता है, जबकि अनेकान्त धर्मको जानने वाला ज्ञानी जानता है कि परपदार्थको जानने पर भी मेरे ज्ञानवी श्रवस्था है, मेरे ज्ञानमें शेय पदार्थका प्रवेश नहीं होता है ऐसे परखे नास्तित्व जानता परवस्तु अपनेको खींचकर स्वक्षेत्र में रहता, राग-द्वेषको स्वागता, स्वक्षेत्र मे ही ज्ञानको एकाग्र करता है ।
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[वर्ष ७
अस्तित्वं निजकालतोऽस्य कलयन स्याद्वाद वेदी पुनः । पूर्णस्तितिावस्तुषु मुहुर्भूत्वा विनश्यत्स्वपि ॥
परक्षेत्र ज्ञानमें प्रकाशता है वह तो मेरे ज्ञ नस्वरूपका सामर्थ्य है, जानना मेरा स्वरूप है, परक्षेत्र मेरा स्वरूप नहीं है ऐसा जानता हुआ ज्ञानी ज्ञानमें परपदार्थ प्रकाशता है तब भी ज्ञानको तुच्छ नही मानता है किन्तु ज्ञानका सामर्थ्य मानता है। और भी ज्ञानीका निर्णय है कि मेरे ज्ञाना स्वभाव तो एक समयकी एक पर्याय मे तीन-काल सनिलोक को जानने का है, ज्ञानका स्वरूप ही जानने का है, जानने का कारण राग नहीं है, किन्तु परमे में हूं वा पर मुझमें है' ऐसी मान्यता ही राग-द्वेषका कारण है, श्रज्ञनो स्व-परको एक मान कर राग-द्वेप करता रहता है I
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आत्मा देहम भिन्न तत्व है। देह और श्रात्मा एक नही तुम हैं। एक मासे देह-मन-वाणी-कर्म और पर श्रात्माएँ त्रिकाल - भिन्न हैं । हरेक श्रारमाका तत्व भिन्न है, अभी वस्तु है प्रत्येक वस्तु मिश्र मिश्र वस्तु की शक्ति भी भिन्न है और प्रत्येककी अवस्था भी भिन्न भिन्न है। श्रामाकी अवस्था श्रात्मामें होती है, शरीरकी अवस्था शरीरमें होती है। देह और श्रारमा एक क्षेत्रावगाही होने पर भी दोनोकी अवस्था भिन्न भिन्न अपने श्राप होती है। यह नहीं जानने वाला अज्ञानी- एकान्तवादी देहक श्राश्रित अपना ज्ञान मानता है अर्थात् जब तक देह रहेगा तब तक मैं रहूगा और देहका नाश होने पर मेरा भी नाश होगा, इस तरह शेयपदार्थ से भिन्न ऐसा अपने ज्ञानका श्रस्तित्व नही जानता अत्यन्त तुच्छ होकर नाश पाता है। किन्तु शेषको अवस्थाका नाश होने पर शामकी - स्था में नाशपाती है। भामा देहमे मिश्र पदार्थ है, उसमें ज्ञान, दर्शन, अस्तित्वादि गुण हैं, उनकी अवस्था समय २ होती रहती है। शरीर जड़परमार्थीका बना है। परम सु भी द्रव्य हैं वे द्रव्यपने कायम रह कर अपनी अवस्था
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श्रव
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परक्षेत्र में रहा हुआ शेषपदार्थका धाकाररूप शानकी अवस्था होती है। किन्तु उस अवस्था यदि मैं मेरी मगाते ही रहते हैं। तब स्वक्षेत्र में ही रहने के बदले में मैं परक्षत्र में चला जाऊंगा।' ऐसा मानकर अनेकान्तको नही जाननेवाला अज्ञानी परवस्तुकी साथ ही अपने ज्ञानको भी छोड़ देता है और इस तरह स्वयं चैतन्यके श्राकार- ज्ञानकी अवस्थास रहित तुच्छ होकर नाश पाता है, और स्याद्वादको जानने वाला ज्ञानी परक्षेत्र में ज्ञानकी नास्ति जानता हुआ शेय पदार्थोंको छोड़ता हुआ भी अपने ज्ञानकी अवस्थाको छोड़ता नही है, इससे यह सुख नही होता है, किन्तु स्वक्षेत्रमें ही स्थित है । वह जानता है कि परको जाननेका मेरा स्वभाव है. परमे मैं नहीं हूं और परको जाननेरूप मेरे ज्ञानकी व स्थासे में भिन्न नहीं हूं, जो अवस्था है वह मेरा ान ऐसा जान कर वह स्वभावमें ही स्थिर रहता है। इस तरह जानकर स्वभावमें स्थिर रहना ही धर्म है ॥ २२५ ॥
रहता
पूर्वा लंबित बोध्यनाशममये ज्ञानस्य नाशं विदन । सीदत्येव न किंचनापि कलयन्नत्यंत तुच्छः पशुः ॥
आमा चैतन्य ज्ञानमूर्ति है, शरीर जड है, उसमें समय २ अवस्था बदलती है वह ज्ञान में दीखती है उस जगह श्रात्मस्वभावका अनजान थज्ञानी जीव ज्ञेयकी श्रवस्था पलटते ही मैं पलट गया ऐसा मानता है । शरीर दुर्बल हो जाय कृश हो जाय वहां वह जानता है कि मैं कृश हो गया और शरीर-इन्द्रियका बल बढ़ने पर मेरी शक्ति बढ़ गई। ऐसा मानने वाला अज्ञानी शरीरसे भिन श्रामको मानता नहीं है, इसमें वह वस्तुका नाश करता है। परकी अवस्था बदलने पर समग्र श्रात्मा बदल जाता है ऐसा मान कर अपने मिश्र अस्तित्वको जो नहीं मानता है वह वस्तुका नाश करने वाला है।
जहां इन्द्रिय शिथिल हो जाय, शरीर कृश हो जाय वहां मैं कृश हो गया ऐसा मानने वाला आमाकी स्वतंत्र शक्ति शरीर मिन है ऐसा नहीं मानता है। शरीरादि ठीक रहे तब मैं ठीक रहूंगा ऐसा मानने वाला ज्ञानकी
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किरण ११-१२]
भ० महावीर-प्रापित अनेमन्त धर्मका वास्तविक स्वरूप
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स्वाधीन अवस्थाका नाश करता है।
वस्तकी अवमाके नाशमे अपना नाश नही मानता है, किंतु पारमा स्वाभाविक त्रिकाल स्वतन्त्र वस्तु है, उसमे श्रद्धा, मम मयं पूर्ण रहता है । मेरी अवस्था मुझमे है, शेयकी जान, अस्तित्व प्रादि अनंत गुण हैं, उन गुणाकी समय२ अवस्था कुछ भी हो उससे मेरी अवस्था बदलती नहीं है, अवस्था होने पर भी मेरी अवस्था पर होती है. याश्रित बावनु बदज जानेपर भी मेरा ज्ञान तो पूर्ण हो रहता है। मेरे ज्ञानी अवस्था होती है ऐसा मानने वाला निज समय बदलने युद्ध बदल जाती है यह माननेवाजा श्रको पराधीन मानता है, त्रिकाल आधीन नाव पागल है। समय अनुमार धर्म भी बदबते रहते हैं यह पराधीन मानना ही अनंत ससारका मूल है। 'थर जाने बानीन काजमें नही बनती है। वह तो जगतकी गप्प है। हुए ज्ञेयपदार्थोका पीछेके कालमें नाश होने पर मेरा ज्ञान धनाद चले जानेपर जगत कहता है कि "अफसोप! भी जमकी साथ नष्ट हो जाता है, या मानने वा ना निजा- हमारा मब चला गया, हमारे पास बनादि था तबमब मजानकी मिन RAI-भिन्न अस्तित्व मानना नही है। श्रन था, लेकिन तेरे पाप क्या था धन तो धूलि है, वह तेरा ममक्ष आई हुई वस्तुकी अवस्था समय बदलती है वह क्व था मारकी रुचि है उसपे धृबके ढेरको याद म्वज्ञानमें प्रकाशने पर यह बदल जानेपर मै भी बदल करता है किन्तु तीर्थकर भगवानको याद नहीं करता। नाना हु" ऐसा मानने वाला अपने ज्ञानकी स्वतन्त्र अब कि 'भात क्षेत्रमं भी नीकर भगवान विच ते थे और धर्म स्थाको मानता नहीं है. मुझमें कुछ भी मामय ही नहीं, का धुन्धर मार्ग प्रवर्तता था, अहो ! वह धर्मकाज था।" परवस्तुसे ही मेरी जाननकी शनि थी, ऐसे वह ज्ञानके
अनेकान्त में ना चौदह पूर्वका रहस्य है। इन्द्रिय पुष्ट म्वतंत्र सामर्थ्यको नहीं मानना है अर्थात अपने भिन्न होवे, शरीर मोटा होवे, धन खूब बढ़े, इससे प्रामाका अम्निम्वको वह स्वीकार करना नहीं है। शरीर में युवावमा ज्ञान श्रद्धान पुष्ट नहीं होता है। अपना म्वरूप कोई भी होवा वृद्धावस्था हो विन्न मेरा ज्ञान ना उभिन ऐसा प्रकारम दूषित नहीं मानकर, मेरा स्वरूप निदोष वीतराग नही माननेवाला एकान्तवादी पशु है. इस प्रकार प्राचार्य सिद्ध ममान है पी श्रद्धा करक जो स्थिर रहता है उसका महागजका कहना है।
मात्मा ही पुष्ट बनता है अर्थान शरीरादि कृश होनेपर भी भाई ! तेरा तव परमे भिन्न है उमकं भान विना तू ज्ञान उग्र रहता है। परक माय मरा सबध तीनकालमें क्या करेगा पूर्वपुण्यसे माना कि बाद्य सामग्री मिली हो नहीं है, परवस्नु मुझसे भिन्न है, परक पलटनेमे मैं नहीं वह नेग वर्तमान वुद्धिका फल नहीं है. विन्तु जब पूर्वपुण्य पलट जाता है, मैं ना अब ज्ञायक ही हूँ । जानने में पर जल गया तब म मामग्रीको प्राप्त हुई। वह मामी अनुकूल हो तब गग और पर निकृन हो नच द्वेष होता जह है, तुममे भिन्न है, उसकी रक्षा करने पर भी वह नही है, वह मेग म्वरूप नहीं है। गुड़ की मिठाम कभी भी गुड रहेगी क्षण में नष्ट हो जायगी, क्योंकि वह नाव म्वतंत्र है। मे भिन्न नही है वैम ही मेरा ज्ञान मुममे भिन्न नहीं है। नेरी अवस्था उपके प्राधीन नही और उसकी अनस्था नेरे पनी ऐसा ही है किन्नु अज्ञानी उलटा मान रहा है। प्राधीन नहीं।
सामने आई हुई वस्तु बदलनेपर में भी बदल जाता है अामा म्वतत्र तत्व है, म्वत्र नविकी अवस्था परक सामानने गला दो वातको एक मानता है, वह पारमा।। आधीन माननेवाला एकान्तवादी अपनी म्वाधीनताका ग्वन अदन नहीं करता है। करता है । म्याद्वादका जाननेवाला अनेकान्त दी जानता है परका नाश होनेपर भी मेरी अवम्या मुझमे है ऐसा कि प्रामामें समय ममयपर ज्ञानकी अवस्था होती है जाननेगला, अपना अस्तित्व अपनेसे ही जानता हुश्रा, वह मेरे साधीन है. नेत्र मद हो, इन्दिर शिथिल हो. शेय पदार्थका नाश हो जानेपर नष्ट नहीं होता है। परके शीर कृश हो तब भी मेरा ज्ञान मंद नहीं होता है। मेरी प्रार्धन मामाके जानकी अवस्था जो मानना है वह प्रामा अवस्थाये मेरा अस्तित्व परकी अवस्था मुझमे भित्र का निर्माल्य और पराधीन मानता है, मेरी अवस्था क्षण इस तरह स्वकाल अपना अस्मिन्य जानता ज्ञानी जय क्षण मुझमे है उसमें परकी अवस्था नहीं है. ऐमा नहीं
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अनेकान्त
[ वर्ष
न61
जानता हुअा एकान्तवाद ज्ञाय पदार्थके न शसं ज्ञानका भी भूला तब परको रखने की इच्छा हुई, और वह इच्छाकी नाश मानता है, और अनेकान्तवादी ज्ञानी तो स्वकाल प्रवृत्तिमे ठहरा उसको विषय' कहते हैं, अज्ञानी उसमे अर्थात अपनी अवस्था में अपना अस्तित्व मानता हुश्रा सुख मानता है, वह अपने स्वाधीन सुख-स्वभावको मानता अपने ही स्थित रहता है ॥ २१६ ॥
नहीं है, बम ' यह ही संसार है। अब परकी अवस्थामे श्रान्मा असन है यह कहा शशेयदि ठीक होवे तो मै ठीक इसका अर्थ ऐसा हुधा जाता है :
कि मुझमें सुख है ही नहीं, मैं तो पंगुम पंगु, पराधीन, अथांलंबनकाल एव कलयन ज्ञानस्य सत्वं बाह निर्मात्य हूं । शरीर पगु हो तो उसको तो दो तकदीका जे यालंवनलालसन मनमा भ्राम्यन पशुनश्यति । रेका चाहिए लेकिन जो मान्यनामें पंगु है उसको तो अनन नास्तित्वं परकालतास्य कलयन स्यावादावेदा पुन- परवस्तुरूपल दोके टेककी श्रावश्यकता है। अहो । मै कौन स्तिष्कृत्यात्मनिखानिन्यमहजज्ञानकपुञ्जाभवन २५७ हृयामा क्या?' स्वक्या, पर क्या ? उमकान किसको नहीं
परको देखनेवाला किन्तु अपनेको नहीं देखनेवाला है उसके जन्म-मरणका अंत कब होगा? संपूर्ण स्वाधीन तत्त्व एकान्तवादी ज्ञानमें जब तक परवस्तु प्रकाश ती हे तब तक की जो पराधीन मान बैठा उसके दो अंत (छोर) कही भी ही ज्ञानका अस्तित्व मानता है और जय अच्छा रहे नी में मिलेंगे नहीं। नरें ज्ञानतावको जयकी लालसा न हो। भी अच्छा रह सकं इस तरह शेयके अाधान ज्ञानको परवस्तुको अवस्था टिके नी मैं टिकृगा, अन्यथा मेरी मानता है, किन्तु पावस्तुमे मैं अमन और मुझम परवस्त। अवस्था चली जायगी गम जा परकी लालसा रखता है वह असन ऐसा नहीं मानता है।
स्वतत्र श्रामनवको अठाकमे अठीक मानता है और पर हरेक तस्वकी अस्ति है, 'अस्ति' कहते ही उसकी चम्नुको ठीक ठीक मानना है, एसा मुढामा बाहरकी वस्तु परपणे नास्ति है। जो परपणे अपन नही है उम 'परकी ठीक रहे तो मैटीक रहगा इस प्रकार बाहरको वस्तुका और लक्ष गया है उसमे ही कहना है कि 'भाई । तू तुझ रक्षक अपनका मानना है किन्तु बाहरकी वस्तु उसकी से है-परमे तू नहीं है, तू मुझको समझ-तू तेग स्व मालिकी की कहा है कि उसकी रक्षा वह रहेगी ? पर. रूपको पिछान ।" किन्न इस तरह "मेरी अवस्था मुझम है पदार्थको मयोग ती अतबार पाया और गया। अनत बार परसे नहीं है" ऐसा नही मानता परज्ञेय कायम रहे तो बहा गजा हुश्रा और अनंबर रंक भी हुा । कोई भी मेरा ज्ञान ताजा रहे एसा मानना है, इसम परविषयमे परवस्तुका परिणमन श्रान्मा श्राधीन नहीं है। देह भी एकाग्र होता है। विपयका अर्थ क्या ? शरीरादि तो जड श्राका स्थित अनुपार रहता है. उसको आत्मा नही रख वस्तु है. रूपी, श्रा'मा चैतन्य अरूपी है. वह रूपी नस्तु पकना है। कोई भी प्रकारमे बाहरकी वस्तु स्त्री, धन. का भोग नही कर सकता लेकिन वर परकी ओर लक्ष कर बालकादि ठीक रहे तो मुझे ठीक रहे ऐस मानकर अज्ञानी के रागमे एकाग्र होता है, यह हो विषय है । प्रात्मा अप जीव बाउकी वस्तु की अवम्याकी व्यवस्था ठीक रखने में चैतन्यम्वरूपी सर्व परसे भिन्न तव है। परवस्तु मेरे समक्ष चित्तको भ्रमना है और स्वलक्ष चूक जाता है। मेरी अवहोवे नब उसका ज्ञान होवे ऐसा माननेवाला अपने भिन्न म्था मुझप होती है मेरा और परका कोई नाता नही है, ज्ञानस्वभावको मानता नही है।।
एमा नहीं मानने वाला प्रामाकी हिंसा करता है। ज्ञान क्या करे ? लक्ष करे, इच्छा हो तो उस इच्छा प्रश्न-कोई जीवको मारा तो नहीं है तब हिसा को भी ज्ञानने जाना । जानने मे राग करके रुक गया तब किसकी की ? मान बैठा कि मैंने विषयको भोगा किन्तु उस समय ज्ञानके उत्तर परजीव जीवित रहे वा न रहे उसकी साथ लक्षमे वह पाया है और उसकी हरछा हुई है, यह विषय हिंसा-अहिंसाका संबंध तीन काल में नहीं है । किन्तु परहै। बाहरका पदार्थ अपने आप (स्वाधीनपनस) श्राता जाता वस्तु की अवस्था इस प्रकार रहे तो ठीक और इस प्रकार न है. वह आमाके श्राधीन नहीं है। जब श्राामा स्वम्पको रहे तो अठीक ऐसा जिसने माना उसने परवस्तुका परिणमन
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फिरण ११-१२]
भ० महावीर-प्रपिन अनेकान्नधर्मका व स्तविक स्वरूप
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अपने प्राचीन माना है यह ही अनंनी रिहै। परनाकी घग्न घट जल न होवे तब तालाब में नही पाता प्रतिकृन्त अवस्था है उसका निवारण करूँ तब मुझको टक है किन्तु घट लकर तालाबममे जन भरने के लिये जाना रहेगा ऐमा उमने माना किन्नु मेरे रागका निवारण कर परना है, उसी तरह जिमको श्राम्माकी गरज हो मत नब ठीक ऐसे स्वतत्वको भिन्न नहीं माना उममे ही समझनी लगन हो, मिजामा हो, वह पतकी खोज करके हिसा भागई।
सुनने के लियं को जा.गा। जो सतको समझना मांगता है परकाल अर्थान परकी अवस्थामे मैं नास्तिरूप है और उसको मन अवश्य मिलेगा। लेक्नि प्रारमा भान बिना म्बकाबस-स्वपर्यायसे अम्निम्प हूँ, इसमे पर बदल जाने इस जगतकी हो हो और हरिफाई मे मर गया-उममेमे पर मैं बदन नही जाता है ऐसा जानता हुश्रा धर्मामा स्टकर जामन समझना चाहत है उपका मनका निमित्त अपने बाग्मामें दृढपनामे रहा हश्रा निन्य महज ज्ञानका मिलेगा ही। एक समूहरूप बनता हरा स्थित रहता है-.नष्ट नही
म गीरको पहाडी अनेक प्रकारको वनम्पनि पकती होता है।
है, वह प्रायुष्य लेकर पाती है, इसम स्मको बदना मेग स्वभाव अविनाशी एक रूप शुद्ध जायक है, पर तब उसको वर्षाका निमित्त श्राये बिना रहना नहीं है, जैसे की अवस्था बदलनेपर भी में एकरूप निन्य है पर वस्तुमे ही जीमन ममझनेके लिये तैयार हश्रा उसको मनका मेग अहंपना नहीं है। मी श्रद्धाके भानमें परवस्न प्रनि निमित्त न मिले ऐसा कभी नहीं बनना । किन्तु माम्प्रन गग-द्वंय नहीं होना वह ही स्थिरता है और परमं भिन्न कालम तो कमाना कमाना और कमाना । गरीबीको कमाना आम्माकी श्रद्धा वह सम्यग्दर्शन है । उमस विरुद्ध (उत्तम) और धन मेंकी भी कमाना। ग्रामदनी करनेमे बोडी निवृति प्रदान और वर्तन वह संपार और मुलटा श्रद्धान और ले तय नी अामाको मममनकी दरकार करेंगे । धनमे चनन वह मोच है। जो मात्र परको देखना नकोनी शान्ति कहाँ है" तेरी शांति कहीं बाहर नही है न दखता है वहप के अस्तित्वसं अपना अस्तित्व माननेवाला नझमे हो भ नेर स्वभाव शान्तिके लिये परकी एकान्तवादी है।
श्रावश्यकता नहीं। अज्ञानी मानता है कि परवस्तु अनुकूल जगतके व्यापारमे लोग च्याला' करते हैं. समन हे नब मुझो शान्ति रहे, यह मान्यता ही उसकी शोग्न बम्बई शहरका व तज एलायची इत्यादि एकट्र। करके होने ना देनी । ज्ञानीको भी जघन्य अवस्थामें अस्थिरता एक हथु जमा करनेके बार अपने मनपसंद भाव विकरांजाकिन्न वह जानता है कि यह अस्थिरता में करूगा, सा मानता है किन्तु बाद्य सामग्रीका पाना वा स्वभाव नती है और परवस्तुके कारण अस्थिरता नहीं है, नही श्राना सब पुण्याधीन है उपमे श्रान्माका कुछ पामर्थ्य मात्र वर्तमान अवस्थाकी भूमिका अनुसार पुस्पार्थकी नही तो भी मैं कर सकता है या मानकर मपारमे हीननाम अस्थिरता आ जाती है। परनम्नु नगई जैसा परिभ्रमण करनेका 'व्याला करता है।
परिणमे किन्तु मैं उसमे भिन्न है तो वह मुझको क्या परवस्तुम थोबा भी फरफार होव ब "अफसाम। नुकमान करे ? इस प्रकार मानकर जानी नी महज ज्ञानअब मेरा क्या होगा ?" एम परवस्नु की कीमत कर करके स्वरूप ही अपनको टिकाना है। अज्ञानी क्या करना है। . अपनेको बिल्कुल निर्माल्य मान बैठा है, किन्तु तू महगा किमी परका अज्ञानी भी किचित मात्र नहीं कर सकता है, है कि सस्ता १ तुझमे कुछ माल है कि वाली बा दाना वह भी मात्र जानता है और नानने उपकी मान्यताका है ? तू गुणवाला है कि गुणसं खाली है? बाप । तमे घोडा दौड़ाता है। शरीर कृश होव, नादीकी गति मद अनत शक्ति है. पर तो सब विष्ठाका वहिवट ( प्यार होवे, तब वह कहना है कि मेरा जी (जीव) उहा उतरता समान है। समझ । मम ।। तू स्वतंत्र तत्व है शान्ति है, किन्तु यह तो क्या है। शरीर अलग होने देहरष्टिवाले म्वरूप है, ज्ञानस्वरूप है. तुझको परकी जरूरत पर मा को शान्ति किस तरह रहेगी शरीरके उपर दृष्टि होने नू नहीं है।
शरीर कृश होते ही मानो कि आग्मा ही कृश हो जाता है
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अनेकान्त
वर्ष ७
मा अज्ञानी मानता है, उपसं वह कहता है कि जीव स्वभाव मुझमें है ऐसा जानता हुअा धर्मात्मा परसे अपना ॐडा ऊँडा उतर जाता है। किन्तु जीव कहां ऊँडा न.वि मानता हुअा अपना नाश नहीं होने देता, प्रात्मा उतरेगा? प्रामा तो शरीर-प्रमाण पाढे न'न हाथका में दृढ नाये रहा हुआ निग्य सहज ज्ञानका एक पुंजरूप अमूर्त तत्व बूटा पडा है। परवस्तु चाहे जैसा फिरे उमस वर्तता हुश्री स्वप स्थिर रहता है। प्रभो! तू तेरे गुणसे मैं सिंचित मात्र कृश नहीं होता है, इस तरह जो जानता पार पूर्ण भरा हो ? किन्तु तुझको तेरे स्वभाव की पिछान है और श्रद्धान करता है इसके एक तरफ शरीर कृश नही है उमम नेग गुण परसे मानकर अनादिसे भ्रमण होगा और दूसरी तरफ श्रात्माका अानंद बढ़ता जायगा। कर रहा हो. ने। धर्म मामें है, ते। स्वभाव नुमसे, जीवन में प्रथम श्रद्धान-ज्ञान किया हो तब तो अंत समयमे परमे नेरी नास्ति है, परके प्राधीन तेरा धर्म नही है. ऐसे दृढता रह सकती है। बिना भान दृढ़ता किपको करेंगे नहीं मान कर जो मृढ-अज्ञाना-एकान्तवादी परवम्नु मे -- प्रथम पिछान की हो तब तो अंतमें वह पाकर खडी पुण्यमे वा रागसे धर्मकी श्राशा रखता है वह भिखारी है, रहेगी। देहादि परवस्तु की कुछ भी अवस्था है। विन्त मेरा उपको अनेकान्तको पहिच न नहीं है।
वीर-शासन-पर्वका स्वागत-गान
(ले०-वैद्य श्रीमप्रकाश 'श्रायल)
भाज निमम नद्र मानव बन गया है विश्व-पड़ा। मुक पशुाक धिरसे कर रहा नित मोद-क्रीड़ा! मानवाक भी शरीरोंपर पड़ा हा ! टूट दानव । कण-भेदी हो रहा है चोर हाहाकारका व
तुम अहिमा-ज्ञानका मंसारमे संगीत गाओ ! वीर-शामन-जयन्तीके आज पावन पव आओ।
दासताकी श्रृंग्यलाएँ टूट जाए कट-कडा कर । विश्वको कुछ कह मके यह दोन भारत सर उठाकर ! ले अहिन्मा शस्त्र समता-प्रेमकी सेना सजाएँ ! युद्धकी इम आगमे भी शान्तिकी सरिता बहार ! जाग जाग भाव सोये वह मधुर बीणा बजाओ! वीर-शामन-जयन्तीक आज पावन पर्व आओ!
घोर है आतंक देखो, धगि तल सब उगमस्या ' अनिके प्रत्येक कणसे स्वार्थताकी गन्ध आती। उप-
मिचार-हिन्माका यहा माम्राज्य द्रश्या' लोभ-पापाचार-अत्याचार फैला विश्व-घाती ! वामन ही जनों के मानमोंमें छल-छ लागे । गृजता है भूग्बम मरते हओका आह-क्रन्दन । हाथ में प्याला सुगही ले सुराके गान गाएँ ' भेद-भावांका यहाँपर हो रहा है नग्न नर्तन !
वीरक मद ज्ञानका फिर यहाँपर नद बहाओ। दलित-पतितांसे अछतो का उठा उरस लगाओ!
वीर-शामन-जयन्तीके आज पावन व या प्रो. वीर-शामन-जयन्तीके आज पावन पर्व आया ! फट राक्षमनी यहापर कर रही है नृत्य भारी वीरके मद्वानकी छाएँ यहॉपर शुभ घटाएँ । म्वार्थ-वश जिमको नचाना काका यह मदारी । वृष्टि समता-भावको हा, चल पडे प्रेमिल हवा ! पा रही दुवृत्तियों जिससे दुखद ऊलाम भारी चीर के मन्देशको लेकर सदा-सम मास सावन ! हस्ति-भुक्त-कपित्थ-मम होती यहां घटनाएं मारी। आगए तुम, धन्य हम, स्वागत तुम्हारा पर्व पावन !
इम नगशा-निशा उनके पाशदीपालन्त अाओ! दो नया उत्माह हममें, वह अमर-गाथा सुनाओ! वीर-शान-जयन्तीके आज पावन पर्व आअं! वीर-शामन जयन्तीके आज पावन पर्व भाषा!
* यह 'स्वागतगान' वीरशामननयनीक उन्मवर गत ५जलाई कस्वा कधिने वीर मेवामन्दिरमे गाकर सुनाया।
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श्री धवलाका समय (ल-बा० ज्योतिप्रमाद जैन, M. A., LL B)
पटवडागम सिद्धान्तकी प्राचार्य वग्मेनस्वामि-विर- इनके अतिरिक्त-'अटनीमा दवा स्पष्ट सामान्य अर्थ अड़चिन 'धवला' टीकाका ममाप्तिकाल, उक्त ग्रन्थ के ही अन्नम तीम (३८) है । अब यदि यह वर्पसंख्या क्रिम अथवा दी हुई प्रशस्तिके श्राघारपर, धवलाके हिन्दी मग दक शक मबत्के अनुमार दी गई दी, जैसा कि प्रतान होता है, पं० हीरालालजीने कार्तिक शुक्ला १३ शक मवत् ७३८, नो माराम उपयुक्त मैकड़ा (शतका) का सूचक पद भी तदनुमार बुधवार ता०८ अक्तूबर मन् ८१६ ई० का प्रात: चाहिये, जाहन गाथाश्राम नही दाव पड़ता। गाथा ७ काल-जब कि सूर्य, बुध और गुरु तुलाशिम, गह और ८ मे जो ज्योति क-ग्रह मम्बन्धी सूचना है उनमें
और मंगल कुभगशिम, केतु और शुक्र मिहाशिम, शान, मगल, बुध और केतु कहा टिगाचर नदी हाने और शान धनुराशिम और चन्द्रमा मीनगशिम स्थित थ, चन्द्रमाको मिनि मा अस्पए है। और मान्यग्वेटम राप्रकट जगतुंगदेव गव्य त्याग चुक थे मामी वीर मेन प्राचार्य [जनमेनके गुरु थे और श्राचार्य तथा उनके पुत्र अमोघवर्ष गज्य कर रहे थे--निश्चित जिनमनने जपचवला टाकाको ममात मान्यग्वटक राष्ट्रकट
नरेश अमाघ वष प्रथमक शामनकालम शकमवत् ०५६ __जयधवला टीकाके हिन्दी मम्पादक प. महेन्द्रकुमार (मन ८३७ ई.) में की था। किन्तु इसी सनक ८ वी जी श्रादिने भी इमी समयको बिना किसी ऊहारोहके स्वा-हवा शताब्दियाम किमी बाद गय नामक गनाक दाने कार कर लिया है।
का कही कोई उल्लेख ना मिलना । माथ ही, गटकट वश प्रशस्तिकी विविक्षित गाथाएँ निम्नलिखित हैं:- म अमघवर्ष प्रथमसे पूर्व जगतग नामधारी गजा कबल अतीमम्हि सासिय विकमरायम्हि एसु मंगरमो। एक ही हुआ है और वह था अमोघवर्षका पिता गोविन्द पासे सुतेरसीए भाव-विलग्गे धवलपक्व ।।६ तृतीय नानुगदेव प्रभूतवर्ष। जगतुंगदेव-रज्जे रिम्हि कुम्हि राहणा कोणे। इस प्रकार इन गायाश्राम स्पष्ट सूचना नी मात्र इतनी सूरे तुलाए संते गुम्हि कुलविल्लए होते ७ मिनना है कि जगनुगदेवके गन्यकाल में विक्रम नामाङ्कन चावम्हि वणिवुत्त मिंधे सुम्मिमिवंदम्मि। संवत्के ३८ (या कुछ मी ३८) वपमें कार्तिक शुक्ला कनिममासे एमा टीकाहु समाणिआ धवला ॥ १३ के दिन, जब गहू कुभम था मर्य और गुरु नुलाम बोदणरायणरिंदे णरिदचूडामणिम्हि भजंत। तथा शुक्र निहशिम था, यह गका ममाप्त हुई। सिद्धतर्गथमत्थिय गुरुप्रसारण विगत्ता सा प्रोफसर होगालाल जीने इन गाथाओंका मंश धन करके
इन गाथाओंमे कुछ पाठ अशुद्ध है अतएव अर्थ भी अस्पष्ट अर्थको स्पष्ट करनेका प्रयत्न किया है । अर्थात् दुमरी अस्पष्ट है, यथा--प्रथम पंक्तिम "एमु मगरमो", दूसराम लाइनके 'पाम' शब्दको 'बामे' मावि गंगे' को 'भाणु 'पामे' और 'भावविलग्गे', तीसर्गमे 'रियाम्द', चोयाम विलग्ग' और पाचवी लाइनके गमि च दम्मि' को 'मंसि 'कुलविल्लए', पोचवीम 'वरणिवुत्ते' और 'णेमिचंदांम्म'। चंदम्मि' पढ़ा है। सो टीक ही है।
- - किन्तु प्रशस्नमें सट पाठ सामिय विक्कमगांम्ह होते १ पटम्बंडागम-घबलाटीका १, १, १, प्रस्तावना पृ०४४-४५ २ जयधवला टीका १, १, प्रस्तावना पृ० ७२
१ जयधवला १,१, प्रस्तावना पृ०७२ ३ धवला टीका १, १, १, प्रस्तावना पृ० ३५
२ धवला टीका १,१, १, प्रस्तावना पृ० ४३-४५
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अनेकान्त
विष ७
हए भी न जाने क्यो उनकी यह धारणा होगई कि यह प्रोफेसर माहब द्वारा निश्चित धवलाके इस समाधि शक मंवत् ही हो मकता है विक्रम संवत् नग। और शक कालमे कई भाग बाधाएँ हैमबत् ६३८ वा ८३८ यह हो नही मकता, क्यो कि पहला प्रथम ता, प्रशस्तिमे 'सासिय विकमरायम्हि' पाट गएकट वंशकी स्थापनासे भा पूर्व पहुँच जाता है और दूमग सष्ट रहते हुए उसका सीधा अर्थ 'विक्रमादित्यक शामन क. श्राचार्य जिनमेन तथा अमोघवर्ष प्रथमकी मृत्युके भी बहुत (कुछ भौ) अइतीमवे वर्षम' न करके उन शब्दोको तोड़ बाद जाकर पड़ता है। अतः यह शक संवत् ७३८ ही हो मराड़ कर उनका अर्थ शकका ३८ वाँ वर्ष करना श्रममकता है। अपनी इस धारणाके अनुमार ही अापने पाठका गत है, विक्रम मवतका ८३८ वा वर्ष इस घटनाके लिये मशोधन किया है और पहला लाइन के 'मामिय' शब्दका उतना ही नही किन्तु अधिक उपयुक्त तथा मंगत हो सकता 'सतमय' 'विक्कम राम्हि ' का 'विक्कमराकिए', है जितना कि शक ७३८। दोनोम मात्र ३५-३६ वर्षका 'एसुसंगरमो' को 'सुसगणामे' कर दिया । वर्तमान शक अन्तर है। संवतममे ७३८ घटा कर गत वर्षोंम मन्दगति गह, ,गुरु प्राफेसर माहबने इसके विक्रम संवत् होनेमे जो बाधाय श्रादि गृहोकी द्वादश राशि सम्बन्धी परिक्रमाएँ तथा स्थूलपमे दी हैं वे निस्मार है। श्राप कहते हैं दक्षिणके प्रायः मर्व अन्दामन स्थिति निकाल कर उम समयकी कुंडली बनालं ही जैन लेखकाने शक संवतका ही उपयोग किया है, इस शोर धनराशिम शनिकी स्थिति निश्चित करके 'वर्गगावुत्ते' लिये वीरसेन स्वामीने मी शक हा मंवतका उपयोग किया पाठका 'तण वत्ते' कर दिया । गहुका मंबंध कुभगाश होगा। प्रथम तो, यह श्रावश्यक नहीं कि अन्य लेग्यकाने से करके 'कोणं' का अर्थ मगल किया हे श्रार उमे राहु यदि विक्रम संवतका उपयोग नहीं किया तो वरमेन भी न के साथ कुभराशिम बैठाग है ।।
करें । दूसरे, प्राचार्य अमित गति, देवमन, वामदेव, मेकफिर भी इस समयम दो ऐतिहाामक बाधाएँ अा ग्वही तुग, इन्द्रनान्द हत्यादि अनेक लेखकोंने अपने ग्रन्थोम हई । अमाघ पं प्रथमका राज्य-शामन नविनरूपम शक विक्रम सवतका हा उल्लेख किया है, उसी के अनुमार कालमंवत् ७३६ (सन् ८१४ ई.) में प्रारंभ हो जाता है । अतः गणनाएँ नथा घटनाप्रोकी नाथये दा है। अमाधवर्षका काई निक न करके उमक पूर्वज जगनुगदेव उत्तर भारत के जैनलेखक तो प्रायः वि म संवतका ही के राज्योल्लेबमें क्या अभिप्राय ? म बाधाका प्राफेभर उपयोग करते थे। वास्तव में प्राचीन कालमे विक्रम सबका साहिबने बड़ी ग्वबीके माथ निवारण कर दिया। श्रार कहत मर्वाधिक उपयोग जनाद्वारा ही हुआ है। बहुत सम' हे है कि रियाद' शब्द जो 'जगतुंगदेवरज्जे' के बाद कि अपने जीवन के प्रारंभिक कालम वीरसेन स्वामीका प्रयुक्त हश्रा हे उसका अर्थ यह है कि जगतुगदेव जीवित उत्तरी भारतमे अधिक सम्पर्क रहा हो उनके चित्रकूटपरमे ता थर गज्य त्याग चुके थे। यह शब्द 'मृत' या रिक्त नाचार्यजीके पास सिद्धानका अध्ययन करने के स्पष्ट का पर्यायवानी है। श्रार अमोघवर्षके राज्यकालके उल्लेग्व मा मिलने है। श्रदय प्रेमीजी तथा धवला, जयप्रारंभम हा जो विप्लव हुए वे शक मत् ७२८ तक इमी धवलाक हिन्दी सम्पादक इस चित्रकूटपुरकी स्थितिको निश्चिन कारणमे नहीं हुए कि जगतुगदेव उम समय तक जीवित नहीं कर सके। किन्तु ईमाकी ८,६ वी शताब्द में यह थे । साथ ही, बांदणरायस अभिप्राय श्रार अमोघवर्षका एक प्रसिद्ध स्थान था । बुन्देलखण्डके पूर्वीय कोनेमे प्रयाग लेते हैं, क्योंकि अमोघवर्पम लगभग १०० वर्ष पश्चात् में लगभग ५० मील पश्चिम और कालंजरमे २५ मील होने वाले उनके एक वशजकी उपाधि वदिग या बाड्डग थी। उनर-पश्चिममे चित्रकटपुर एक समृद्धशानी राजधानी थी। १ धवला टीका १, १, १, प्रस्तावना पृ० ४४
यहाँका किला बड़ा सुदृढ था । वीरसेन स्वामीके समकालीन २ धवला टीका १, १, १, प्रस्तावना पृ. ४१-४२
राष्ट्रकुट जगतुंगदेव गोविन्द तृतीयने सन् ८०६ ई. के ३ धवला टीका १, १, १, प्रस्तावना पृ० ४१
१ इन्द्रनन्दि-श्रुतायतार-लोक १७६-१७८ ४ धवला टीका १, १, १, प्रस्तावना पृ. ४१
२ विद्वद् रत्नमाना-प्रथम भाग, पृ० १० (फुटनोट)
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किरण ११-१२]
श्री धवलाका समय
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लगभग अपनी उत्तर भारतकी दिग्विजय के मिलसिलेम इम पगतत्वज डा. मोतीचन्द्र में मुझे मालूम हुअा है चित्रकुटपुरके रानाको हराकर अपने गज्यका विस्तार प्रयाग कि ईस्वी मन्की ७ वी शताब्दीकं उपरान्त के उल्लेखोमे तक किया था। उसके वंशज कृ तृतीयने मन ६४० श्रटुनीमम्हि' पाटके अर्थ श्राटमी तीम भी हो सकते हैं। मे फिरसे चित्रकुटका किला जीता। राष्ट्रकटीकी स्वयंकी किन्तु विक्रम संवत् ८३० (मन ७७३ ई.) में जगतुगदेव गजधानी अमोघवर्ष प्रथमके पूर्व मान्यग्वेट नही थी और के गज्यके दोनेकी बहुत कम संभावना है; क्योंकि ७७२ बहुत संभव है कि मान्यग्वेटमे बहुत उत्तर बग'प्रान्तके ई. के लगभग तो उनके ताऊ गोविन्द द्वितीयका शासन अचलपूर . अथवा एलापुर नामक स्थानोममे किमी एकमे प्रारम हो हुअा था और उनके राज्यमें घटने वाली घधनाओ ही हो। हम स्थान के समीप एलोग और अजन्ताकी प्रामद्ध के निये कमसे कम ४-५ वर्षका ममय चाहिये ही। गुफाये हैं। क्या आश्चर्य है कि स्वामी तथा वीरसेन जिनमेन अस्तु, यह ममय व मं०८३० के बाद ही होना चाहिये, अादिका स्थायी निवाम स्थान उपयुक्त दोनोमसे किसी एकके किन्तु वि०म०८४० मे पहिले पहिले । पार्वनीय गुह्यमन्दिगमे हो और वह स्थान उम ममय बाट अब यदि अटुनामांम्हका अर्थ ८३० लिया जाय तो ग्रामके नामसे प्रसिद्ध हो। इन ऐतिहासिक गुफाप्रीम कई इकाई के किमी अंक मभवतया ८ का सूचक शब्द पाटमे कई प्राचीन जैन गुफाएँ निश्चित रूसे हैं भी। और यह होना चाहिये और यदि हमके अर्थ ३८ हैं तो ८०० का स्थान उत्तरी तथा दक्षिणी भारतकी मन्धिके समीप ही मृचक शब्द होना चाहिये और मोभी प्रशस्तिकी गाथा ६ पडने है।
की पहली पंक्तिक अन्तिम पद 'एमु मंगरमो' से, जो कि यदि यह कहा जाय कि वीरमन म्वामीने अन्यत्र मर्वत्र अस्पष्ट और अशुद्ध है, प्राम होना चाहिये। शक मंवतका ही उपयोग किया है, विक्रमका नहीं, तो यह दूमरी जबरदस्त बाधा प्रोफेमर मादिबके मतमे यह है बान भी नहीं है-उन्होंने अन्यत्र न कहा शक मवत्का ही कि शक मंवत् ७३८ (मन८१६ ई.) मे दो वर्ष पूर्व जगउपयोग किया और न विक्रमका ही। धवलाके, वेदनाग्बडम तुगदेवका गज्य ममाप्त हो चुका था। शक संवत् ७३६ नो वीरनिर्वाणमे ६०५ वर्ष ५ माम पश्चात शक के हाने (मन ८.४१०) के प्रारम्भमे ही उनक' मृत्यु हो चुकी थी। और प्रचलिन शक मवत्मे यह मंग्व्या जोडकर वार निर्वाण और उनकी मृत्युकं उपगन्न ही उनका ६ वर्षका एकमात्र सवत् निकालनेका कथन है वह एक प्रसिद्ध महत्वपूर्ण अनु- बालक पत्र अमोघवर्ष प्रथम अपने चचानाद भाई कर्ककी अनिकी पुनरुक्तिमात्र है। उम परम यह कदा न कहा अभिभावकनामे मिहामनास्ट हो चुका था। जा सकता कि वीसिन स्वामी शक मंवतका हा उपयोग प्राफेमर साहिबका कहना है कि जगनग ८१४० में करते थे। अतः प्रशस्ति-उल्लिवित मंचतके विक्रम संवत मग न होगा वग्न धवला प्रशम्निमें वह उल्लेख दो जानेके होने में कोई बाधा नही है।
बाद ८१६ ई० में ही मर गया होगा। किन्तु उमने ८१४ई. यदि वीरमनस्वामीक चार पाच मो वर्ष याद हाने में गत्य न्याग कर पुत्र अमोघवर्षको मार दिया होगा, स्वय वाले 'अकलकरित' के लेग्वकको या त्रिलोकमारके टीका- धर्म ध्यानमें ग्त हो गया होगा। अब प्रश्न यह है कि कार माधवचन्द्र विद्यदेवका शक और विक्रम मबनके अमोघवर्षका जन्म ८० ई. में हुआ था। सन् ८१४ बीच कुछ भ्रम रहा है नो इसका यह अर्थ कदापि नही कि ३ Altekar - Rashtrakutas and their वीरसेन जैसे बहुविज्ञ और प्राचीनतर विद्वानको भी वही भ्रम Times p. 52 (F N.) रहे । उपर्युक्त दोनो विद्वानों और बाग्मनके बीचमे हने वाले ४ Ibid-p.69, and p 71 (F N.) पचामो विद्वानोमसे किमी और को नो यह भ्रम हुश्रा नहीं। ५ धवला टीका प्रस्तावना प्र.४०-४१ १ Altekar - Rashtrakutas and their ६ Ibid.-p 69 Times P. 66.
७ धवना टीका १, १, १, प्रस्तावना पृ. ४२ २ Ibid p. 48.
८ Ibid.-p. 69
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अनेकान्त
[वर्ष ७
ई० मे जब वह सिहासनारूढ़ हुआ उसकी श्रायु केवल कमसे कम राज्याभिषेकके सम से तो उसका यह नाम ६ वर्षकी थी। जगतुग एक प्रबल प्रतापी शामक ओर अवश्य ही था। उसके और भी अनेक विरुद मिलते हैं भारी विजेता था। उसकी प्रवृत्ति भी कुछ विशेष धार्मिक यशा-नृस्तुग, शदेव, पृथ्वीवल्लभ, लक्ष्मीवल्लभ । उमके न थी, कमसे कम वैराग्यप्रधान जैनधर्मका तो विशिष्ट भक्त अनेक तास मिलते हैं। जिनाचार्य-रागाभटाचार्य वह था नही। उसकी श्रायु भी ६० वर्ष के भीतर ही थी मासिके अतिरिक्त अन्य साहित्यमें भी उसके अनेक विषयोंमें
और सन् ८१२ ई. तक तो वह मुदूर प्रान्तोकी दिग्विजय अनेक उल्लेख उपलब्ध हैं पर कही भी उमके लिये ही करता रहा था। तब ऐसे व्यक्तिका एकाएक अपने बगगय' नाम प्रयुक्त नही हश्रा । उसके एक दा अवध बालक पत्रको गजपाट सौपकर समारसे विरक्त हा वंशजी उपाधब दृग या बडिगदेव थी इमसे उमा जाना कुछ जीको नही लगता। और फिर उम मसार-त्यागी नाम बोहणगय हुश्रा यह बात तो हास्यास्पद है। पूर्व जके के जीवित रहने के कारण ही दो वर्ष तक बालक अमोघवर्ष
नामा नुमार वंशजका नामतो होमकता है किन्तु बशजके के शासनमें होने वाले विप्लवोका न होना एक असंगत सो सामान निकामना माता यह Rममे नही बात है। इसके अतिरिक्त नवमारीम प्राम मन् ८१६ ई.
श्राता । फिर 'बडिगदेव' और 'बोदणराय' शब्दोंमे के कर्क मुवर्णवर्षके ताम्रपट साम्राट् अमघवर्ष के शासनका कोई साम्य भी तो नहीं। तो उल्लेख है और जगतु गका कोई उल्लेख नही' । डा.
इसके अतिरिक्त, ७-८ वर्षके बालकको, जो अभी वासुदेवशरणजी अग्रवाल से मुझे मालूम हुश्रा है कि "ऋत' अभी मिहामनारूढ हया है और नाममात्रका गजा है, तो यारिके' शब्द, जिसे प्रोफेसर साहिबने रियन्हि' का नरेन्ट और नरेन्टजटागा
नरेन्द्र और नरेन्द्रच डार्माण कहना और उसके पिता प्रबल पर्यायवाची ममझा, के इन अर्थोम (राज्य त्य गनेके अर्थोम)
प्रतापी माम्राटको--जिनके गज्यका नमें प्रथकी रचना साहित्य अथवा शिलालेखामे प्रयुक्त होने के काई उल्लेख शान्तिपूर्वक होती रही, जिनका पूरा नाम जगतुगदेव नहीं मिलते। तब इस शब्दका यह उपयोग विचित्र और
प्रभूतवर्ष गोविन्द था और जो प्रो० मा० के कथनानुमार असाधारण है। वास्तवमें जगतुगदेवकी मृत्यु ती जैमा कि
उम समय तक जीवित थे और वास्तविक शासक थे-केवल राष्ट्रकट इतिहासके विशेषज्ञ डा. अल्तकरने निर्णय किया है
जगतुगदेव करके लिग्वना भी कुछ संगत नही जान पड़ता। सन् ८१४ ई. के प्रारंभमे ही हो होचुकी थी और प्रोफेसर
जब प्रशस्तिमे दी हुई ज्योतिष-ग्रहोंकी स्थिति पर साहिबके अनुसार धवलाका समय सन् ८१६ के अन्तके
विचार करते हैं तो प्रफिमर माहिब की नसंबंधी व्याख्या लगभग आता है।
भी मदोष ही प्रतीत होती है । अवश्य ही संवत्मरके निर्णयमे प्रशस्तिमे श्रमोघवर्षका भी कोई उलेख नह।। केत, गह, शनि और गरु ये चार मन्दगनि ग्रह ही उपयोगी जगतुंगके अतिरिक्त एक 'नरेन्द्रचूडामणि बौदणगय परत और नमी सर्वाधिक माह तथा नकाशा नरेन्द्र' का उल्लेख है। प्राफेमर साहिवका कहना है कि यह कि १२ राशियोकी परिक्रमाम राहु-केतु लगभग १६ बोदणगय अमोघवर्षका ही नाम होगा। वह उस समय वर्ष. शनि लगभग ३० वर्ष और गुरु लगभग १२ वर्ष तक बोद्दणरायके ही नामसे प्रसिद्ध होगा अमोघवर्षके नामसे
लेते हैं । लगभग कहनेसे अभिप्राय यह है कि बिल्कुल नही । किन्तु उपयुक्त नवसारीका सन् ८१६ ई० का इतना ही नहीं कुछ न्यूनाधिक समय लेते हैं। इनमे शनि ताम्रपट स्पष्ट सूचित कर रहा है कि बालक साम्राट् और गुरु की गन्दगति हो जाते हैं, कभी तीब्रगति, कभी श्रमोधवर्ष नामसे ही प्रसिद्ध था । यदि पहिलेसे नहीं तो मार्गा, कभी वक्री। किन्तु राहु और केतु सदैव एक रस १JB. B. R. A. S. XX P. 135,
एक ही चालसे गमन करते हैं। इनकी गति ३ कला ११ २ धवला टीका १,१,१, प्रस्तावना पृ०४१, तथा जयधवला विकला है इससे न कभी कम होती हे न ज्यादा, और १,१, प्रस्तावना पृ०७३ ।
४ अमोघवर्ष तृतीयको उपाधि, इसकी मृत्यु सन् ३ J. B. B. R. A SXX P. 135
६३६ ई० मे हुई।
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किरण ११-१२]
श्री धवलाका समय
ये दोनों सदा बक्री ही रहते हैं । इम हिमाबसे गहु और केतु बनिस्वन 'त' के 'व' होनेके । मंगल के लिये 'धरणिज' शब्द बारह राशियोंकी परिक्रमा १८ वर्ष ७ महीने और करीब स्वामी वीरमेनके प्रशिष्य गुणाभद्राचार्यने भी अपनी उत्तर२ दिन में पूरी करते हैं । केतु राहुसे मदेव सात राशिके पुराणकी प्रशम्तिमे प्रयुक किया है। अन्तरपर रहता है। इसके अनुसार गणित करनेसे शक प्रोफेसर साहिबने एक युक्ति यह भी दी है कि कार्तिक संवत् ७३८ की कार्तिक शुक्ला १३ को राहुकी स्थिति मासमे सूर्य मदैव तुलाके ही रहते हैं । सो भी गलत हैधनुगशि और कुडलीके तीसरे घरमें पाती है और केतुकी कभी तुलाके कभी वृश्चिकके रहते हैं। बात यह है कि स्थिति मिथुनगशिमें। प्रोफेसर साहिबने स्थूल रूपसे गहु उक्त शताब्दीमें तुलाकी सक्रान्ति २२-२३ सितम्बर को की परिक्रमा १८ वर्षसे लेकर गत ११२३ वर्षमै किननी पड़ती थी। अत: २२-२३ अक्तूबर तक सूर्य तुलाके रहते परिक्रमाएँ हुई इत्यादि निकाल कर प्रशस्तिका 'कु भम्हि थे, तत्पश्चात् वृश्चिकके । अब कार्तिकका अन्त यदि २२ गहुगा' पाठ सिद्ध करने के लिये राहु को कुंभराशिम बिठा अक्तूबरके भीतर ही पड़ जाता था तो मूर्य तुलाके ही होते थे दिया' । फलत: केतुको भी सिंहराशिमे बिठा दिया । अतः और उस तारीखके बाद तक यदि कार्तिक चलता था नो केवल गहु-केतुकी स्थिति ही ठीक न बैठनेसे प्रोफेसर साहिब शुक्लपक्ष में प्राय: वृश्चिकके सूर्य हो जाते थे। सयोगसे शक द्वारा निर्मित धवलाकी कुडली ग़लत सिद्ध होजाती है और ७३८ के कार्तिकमे सूर्य तुलाके ही थे । और विक्रम ८३८ फलतः उसके आधारसे निश्चित की हुई तिथि--शक की कार्तिक शुक्ला त्रयोदशीको भी सूर्य तुलाके थे ही। ७३८ अक्तूबर ८, सन् ८१३ ई०-भी।
अपने मत की पुष्टिमे आपने एक और भी युक्ति दी है। परन्तु विक्रम संवत्के ८३८ वे वर्षमे अर्थात् मन् वह यह कि स्वामी वीरसेनने अपने हम विशाल ग्रंथराजका ७८० ई. की कार्तिक शुकला १३ चन्द्रवार ता. १६ नाम 'धवला' इमलिये रमवा गा, क्योंकि मम्राट् अमोघवर्षकी अक्तूबरको राहु की स्थिति कुंभगशिमे, और तुला लग्न एक उपाधि 'अतिशय धवल' भी थी। आपके कथनानुमार होनेमे कुडलीके पाचवे घर में, जो कोण भी कहलाता है, ही अमोघवर्षकी श्रायु ८ वर्षकी भी न थी जब धवला पड़ती है और साथ ही केतुकी शुक्रके साथ सिहराशिमे। ममात हुई । उमके गज्यके प्राथमिक १०-१२ वर्षों में सूर्य, गुरु तथा बुध प्रोफेमर माहिबके गणित के अनुमार लिखाये गये ताम्रपत्रों अथवा अन्य विवरणोंमे कहीं इस ही यदि शक ७३८ मे तुला राशि और लग्नम पड़ते हैं उपाधिका कोई उल्लेख नहीं। और धवलाको रचनामें तो विक्रम संवत् ८३८ में भी वहाँ उसी स्थानमे पड़ते हैं। आप दीके अनुसार करीब २४-२५ वर्ष लगे होगे । अत: चन्द्रमा भी दोनों ही तारीखोमे मीन राशिका हो सकता है। ऐसे विशाल मैद्धान्तिक ग्रन्धका नाम-करण उसके इतने
शनिकी स्थिति भी उन्दीके हिसाबसे सन् ८१६ ई० मे लम्बे रचनाकालमे तो लेखकको सूझा नहीं। और अन्तमें घनुराशिके बजाये मकरराशिमे आती है और मंगलकी सूझा भी तो उस उपाधिके अाधारपर जो तत्कालीन बालक स्थिति भी संदिग्ध है। वास्तवमें शनिकी द्वादशराशि- सम्राटको अपनी युवा अथवा प्रौढ़ावस्थामे इस कारणसे परिक्रमा भी पूरे ३०ही वर्षमें समाप्त नहीं होती वरन् २९ मिलनेवाली थी कि वह अपनी वृद्धावस्थामें वैराग्यपूर्ण वर्ष और लगभग ७मासमे होती है, और इस हिसाबमे घवल परिणामों को प्रास होकर गज्य त्याग देगा !!! शक ७३८ में शनिकी स्थिति मेषराशिमें भाती है न २ उत्तरपुराण-प्रशस्ति श्लोक ३३ ।। कि कुभराशिमें, जबकि विक्रम ८३८ सन् ७० ई.मे ३ धवलाटीका १,१,१, प्रस्तावना पृ. ४३। उसकी स्थिति कुभराशि में ही जाती है।
४ प्रो० कीलहानने शक ७०६ की मकर, संक्रान्ति २२ मंगलकी स्थिति विक्रम ८३८ के कार्तिकमें धनु
दिसम्बर सन् ७७६ ई. के दिन निश्चित् की थी--
E. I. Vol. VIII P. 183. n. 2. राशिमें श्राही सकती है। और प्रतिलिपिकारकी असावधानीसे ।।
५ वास्तवमे अपनी रचनाका धवला नाम लेखकने प्रारंभमें 'वरणिवुत्ते' पदमें 'ध' का 'व' होजाना अधिक संभव है, ही सोच लिया था, ग्रन्थमें धवल शब्द का प्रयोग शुरुसे १ धरला टीका १,१,१, प्रस्तावना पृ० ४३
ही मिलता है-धवला टीका १, १, १, पृ० ६७
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२१२
अनेकान्त
[वर्ष ७
साहित्यिक और दार्शनिक बातों में तो सब तरहकी में उनका जन्म हुआ था। अत: शक ७४५ से पूर्व उक्त पाँधलिया चल जाती हैं और कभी २ मेद्धान्तिक विषयोंमें काव्यका रचा जाना भी कठिन ही दीखता है। भी, किन्तु विशुद्ध ऐतिहासिक घटनाश्री तथा वैज्ञानिक तथ्यों इस प्रकार शक ७०० से शक ७४५ तक लगभग की इमारत मात्र ऐसे बेतुके अनुमानों और धांधलियोंकी ४५ वर्ष तक प्राचार्य जिनसेनने कुछ रचा ही नही और जा बुनियादपर खड़ी करना नो अनुचित ही है।
कुछ रचा वह अपनी २५ वर्षकी श्रायु होने से पहले पहले या अपनी इस (निर्माणसमय-विषयक) मान्यताके उत्माहमें ७० वर्ष श्रायु होने के बाद ! इस बीच में कौनस राजकीय धवला-जयधवलाके मम्पादकोको इस बात का भी ध्यान नदी अथवा गृहस्थ संबंधी कार्य मे वे अविद्धकर्ण बाल ब्रह्मचारी रहा कि उनके मतानुमार आचार्य जनमन जैसे भारी प्रासद्ध विद्वान् और जयघवला आदि ग्रन्थगजोके रचयिता लेविकको अपने जीवन के मध्यकालीन चालीम वर्घ वाली बैठे प्राचार्य जिनसेन व्यस्त रहे, यह जान नहीं पड़ता ! बैठे ही बिनाने पडेंगे । हरिवंश के रचयिता पुन्न टमंघ। जिन- अत: धवला टाकाका समाप्तिकाल श्री धवल, जयसेनने अपने ग्रंथकी समाप्ति शक ७०५ मे की' । उम मथकी धवल के हिन्दी सम्पादकों द्वारानिश्चित शक ७३८ अथवा रचना उसके ७-८ वर्ष पूर्व प्रारंभ हुई होगी। उसके प्रारम्भमे मन् ८१६ ई० की ८ - क्तूबर बुधवार सर्वप्रकार सदोष और गुरु बरसेन और उनके शिष्य जिनसेगका श्रादग्के साथ असंगत सिद्ध होता है। स्मरण किया गया है । जिनसेनके रचे हुए जिनेन्द्रगुणसंस्तुति इसके स्थान कार्तिक शुक्ला १३ विक्रम संवत् ८३८ नामक खास ग्रन्थका उल्लेग्व किया है । अस्तु, शक ६६८ के (चालू ) तदनुसार चन्द्रवार ता १६ अक्तूबर सन् ७८० लगभग जिनसेनाचार्य विद्वत्ममा न में प्रमिद्धिको प्राप्त हो ई०' का पूर्वाह्न-जबकि तुलाके सूर्य उदय हो रहे थे, चुके थे और दो एक ग्रंथ भी रच चुके थे। और उनकी गुरु और बुध भी सूर्यके साथ ही स्थित थे, शनि के साथ श्रायु भी उस ममय कमसे कम २५ वर्ष की थी । प्रोफेसर राहु कुंभगशिका शुक्र और केतु सिंहके, मंगल धनुका साहिबकी गणनाके अनुमार स्वामी नीरसेन शक ७४५ के तथा चन्द्रमा मीन राशिका था-कहीं अधिक उपयुक्त लगभग जयधवलाको अधूरी छोड़कर स्वर्गस्थ हुए | तुरन्त और संगत बैठता है । तदनुमार प्रशस्तिकी विवक्षत ही जिनसेनने जयधरलाके शेषाशका रचना प्रारंभ करदिया गाथाओंका शुद्ध पाठ निम्न प्रकार होना चाहिये:-- और शक ७५६ में उक्त ग्रन्थको पूग करदिया। उसके बाद मतीमम्हि साम्पिय विक्कमरायम्हि वसुमतोवरमे । श्रादिपुराणका रचना प्रारंभ किया और शक ७६५ के वासे सुतेरसीए माणु-विजग्गे धवलपक्खे ॥ ६ ॥ लगभग उस प्रथको अधूग छोड कर वह स्वर्ग मिधार जगतुगदेवरज्जे रविजे कुंभम्हि राहणा कोणे। गये। श्राचार्य जिनमेनके पाश्र्वाभ्युदयमें भी अमोघवर्ष सूरे तुलाए संते गुरुम्हि कुलविल्लए होते ॥७॥ का नामोल्लेख है, और उस काव्यको रचनाके मंबंधमे चावम्हि परणिवुत्ते सिंधे सुक्कम्मि मीणे चंदम्मि। भी जो कथा प्रचलित है उ. के अनुसार उनकी रचनाके कत्तियमासे एमा टीका हु समाणिमा धवला ॥८॥ समय सम्राट अमघवर्ष वयस्क होने च दिये। । शक ७३० बोदणरायणरिंदे णरिंदचूनामणिम्हि भुजंते । १ जिनमेनीय हरिवंशपगण की प्रशस्ति ।
सिद्धृतगंथ-मस्थिय गुरु पेसारण विगता सा॥४॥ २ हरिवंशपुराण श्लाक ३६-४० ।
भावार्थ-विक्रमराजाके शासनके ८३८ वें वर्षम ३ जयधवला १. १, प्रस्तावना पृ. ७६ ।
कार्तिक मासके धवल पक्षकी प्रयोदशीके दिन सूर्योदयके ४ धवला टीका १, १, १, प्रस्तावना पृ० ४२ ।
समय जब कि शनि (रविम) राहुके माथ कुंभराशि तथा ५ जयधवला १, १, प्रस्तावना पृ० ७७, विद्वदग्नमाला
कोण (पंचम स्थान) में स्थित था. सूर्य और गुरु तुलाराशि प्रथम भाग पृ०८४।
में थे और बुधका विलय भी उन्हींके साथ उसी गशिमें हो ६ प्रो० पाठकका निबंध भतृहरि और कुमारलभट्ट R.A.S. १ Swami Kannu Pillai's Indian Ephe७ योगिराट पंडिताचार्यकी पार्वाभ्युदयको टीका ।
meris Vol. 1, Part II p. 165.
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किरण ११-१२]
श्री धवलाका समय
रहा था, मंगल धनुराशिका, शुक्र (केतु सहित) सिंहगशि तुग गोविन्द था, इसी लिये ज्येष्ठ पुत्र न होते हुए भी ध्रुवने का, चन्द्रमा मीनगशका था (और वार भी चन्द्रवार था) उसे ही अपना उत्तराधिकारी चुना और उसके मना करने जगतुगदेवका राज्य था और नरेन्द्रचूड़ामणि बोहगणराय- पर भी अपने जीवनमें ही उसका युवराज्याभिषेक ही नहीं नरेन्द्र (ध्रवराज धारावर्ष श्रीवल्लभगय ) साम्राज्याधिपति महाराज्याभिषेक कर दिया। इस प्रकार चाहे वास्तावेक थे, उस समय गुरुके प्रसादसे सिद्धान्त ग्रंथोकों मथकर इस साम्राट् ध्रव स्वयं ही रहा, उसने नाम लिये जगतुंगको ही धवला टीकाको पूर्ण किया गया।
सम्राट बना दिया। चूकि उमने अपने भाई के प्रात विद्रोह ६ ।
किया था और संभवतया उसे मार कर ही उसका गज्य इस पाठके अनुसार
हथियाया था इस लिये संभव है कि ऐसी राज्यकान्तिके बु७गु
पश्चात् स्वयं मिहामनारूढ होनेमे कुछ बाधाएँ देखी दो और धवलाके ममाप्ति-कालकी
नामके लिये गोविन्द द्वितीयके पश्चात् अपने पुत्र जगतु गको ज्योतिष-कृण्डली निम्न
गोविन्द तृतीयके नामस गद्दीपर बैठा दिया हो।
ध्रुवकी मृत्यु सन् ७६३ ई. के लगभग हुई। अत: प्रकार बनती है:- ग.
यह घटना सन् ७७५ से सन् ७६३ ई. के बीच कभी भी
हो सकती है। इसकी तिथिके सम्बन्धमें ऐतिहास विद्वान् इस तिथिमें ऐतिहामिक बाधा भी कोई नही पाती।
अनिश्चित हैं । दो, जगतुगके राज्य की अन्तिम अवधि सन् ७७२ ई. में राष्ट्रकुट कृष्णप्रथमकी मृत्यु दोगई बार ८१४ (वि०८७०) निश्चित है, इससे प्रोफेसर साहिब भा उमका ज्येष्ठ पत्र गोविन्द द्वितीय गद्दीपर बेठा'। वह वीर सहमत है। अस्तु । योद्धा अवश्य था किन्तु एक दुराचारी और निकम्मा सन् ७८० मे जगनुगदेव राष्ट्रकूटोके सिंहासनपर शासक । उसके छोटे भाई ध्वधारावर्षने विद्रोह किया आसान हो सकता है। और यदि उसका अभिषेक इस
और संभवतः उसे गद्दीपरसे उतार कर राज्य स्वयं हथिया तारीख के बाद भी हुआ हो तो भी वह उक्त प्रान्तका शासक लिया। यह घटना मन् ७७५ और सन् ७७६ के बीच किमी या जागीरदार तो हो ही सकता है, जिसके अन्तर्गत वीरसेन समय हई। मन् ७७५ का पिम्पसे प्राप्त लेख इसे ७७५ स्वामीने रहकर धवल प्रथकी रचना की। ई. में रखता है और सन् ७७६ का धूलियामे प्राम ताम्रपट घ्वराजकी स्थिति राष्ट्रकुट इतिहासमे कुछ भेदपूर्ण ७७६ में, किन्तु धूलियाका ताम्रपट सन्दिग्ध और जाली और विचित्रसी है। वह एक भारी योद्धा और विजेता समझा जाता है। फिर भी इसमें तो मन्देह नहीं कि गोविन्द था। भाईसे राज्य छीन भी सकता था और पुत्रको जीते नी, द्वितीयकी मृत्यु सन् ७७९-८० मे हो चुकी थी और राष्ट्रकूट राज्य स्वयं समर्थ रहते हुए, राज्य सौप भी सकता था। उनके स्वयं का एकच्छत्र अधिपति श्रीवल्लभ कलिवल्लभ धारावर्प आदि के काई ताम्रपट अादि नहीं मिलते । संभव है जनसाधारण उपाधिधारी ध्रवगज निरुपम था। इसकी श्रायु उस समय लग- में वह बोद्दागय करके प्रसिद्ध हो अथवा उसकी उगघि भग ५० वर्षकी थी। इसके उम समय कमसे कम चार वयस्क श्रीवल्लभ' के ही अपभ्रंशका प्रतिलिपिकारकी असावधानीसे सुयोग्य समर्थ पत्र थे। ये चारों ही उस ममय भी भिन्न बोहण हो गया हो। भिन्न प्रान्तोंके शासक थे। इन सबमें सर्वाधिक सुयोग्य जग- शक ७०५ में समाप्त होनेवाले तथा शक ६६७-८
६ Ibid-p. p. 59-60 १_Altekar-Rashtrakutas and their ७ Ibid-p. 58 Times p. 48.
८ धवला टीका १, १, १, प्रस्तावना पृ० ४० २ Ibid-p.50. ३E. 1. Vol. Xp.81.
१ हरि० तथा श्रवण नं० २०, मटकरी थि० ले०E.C. ४ E. I. Vol. viII p. 182.
Vol IV p. 13 ५ Altekar-p. 53
Altekar p. 4211
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२१४
अनेकान्त
[वर्ष ७
में प्रारंभ होने वाले इरिवंशके श्रादिमें श्रा०वीरसेनके साथ सुपर्ण वर्ष व्यर्थ ही नही चले जाते। धवल ग्रन्थका उल्लेख न होना कोई श्राश्चर्य की बात नहीं- इस तिथिमें एक विशेषता और है कि यह चन्द्रवारके क्योकि वह उस उल्लेखके लगभग ५ वर्ष बाद समाप्त दिन पड़ती है। धवलाको 'चन्द्रज्ज्वल धवल' कहा भी हुअा था।
है। जब लेखक आचार्यने अपने ग्रन्थकी समाप्तिके लिये धवलाकी इम नव निश्चित तिथिके अनुसार वीरसेन उसके नामानुकुल 'धवल पक्ष' चुना सी भी अष्टान्दिका जैसे स्वामीकी मृत्यु सन् ७६० ई. के लगभग होनी चाहिये धवल पर्वम, तो वह उन १५ अथवा ८ दिनोंमें दिन भी
और उनका जन्म सन् ७१० ई० के लगभग। साथ ही ऐसा ही चुनते जो उसके उपयुक्त ही होता अर्थात् चन्द्रवार । प्राचार्य जिनसेनको भी जयधवला टीकाके लिखने के लिये प्रशस्तिम उल्लिखित ग्रहोमे चन्द्रमाको सबसे अन्तम देनेका तथा उसके लिये आवश्यक विपल मामग्रीके अध्ययन करने अभिप्राय भी प्रायः यही हो सकता है। के लिये और अपने अन्य ग्रन्थोंको रचने के लिये भी पर्यात ....
_ लखनऊ, ता०६-८-४५ समय मिल जाता है। उनके बहुमूल्य जीवनके मध्यकालीन १ आदिपराण प्र० श्लोक ५८, तथा ज० प्र० का अ० अंश
क्या वर्तनाका वह अर्थ गलत है ? (लेखक-न्यायाचार्य पं० दरबारीलाल जैन, कोठिया)
[यह लेख लगभग चार मास पहले लिखा गया था और उसे उसी समय जैनगजटमें प्रकाशनार्थ भेजा था, जिससे उसके पाठकों में फैले हुए भ्रमका उसके द्वारा निरसन होजाय । परन्तु जैनगजटने दो दो पत्र देनेपर भी न तो उसे प्रकाशित किया, न वापिस किया न पत्रोंका कोई उत्तर दिया, और इस तरह अपने पाठकोंको अन्धेरेमें रखकर भ्रममें डाले रखना ही उचित समझा, यह बडे ही खेदका विषय है !! अखिल भारतीय जैनसमाजके प्रतिनिधित्वका दावा करनेवाले पत्रकी ऐसी नीति बहुत ही अखरती है । अस्तु, मजबूर होकर आज यह लेख अनेकान्तमें प्रकाशित कराया जाता है।-लेखक ]
'जैनगजर' वर्ष ५० अङ्क २५ के सम्पादकीयमें पं. करने आदि कारणोसे वे कभी कभी रह ही जाती हैं । और वंशीधरजी सोलापुरने वीर सेवामन्दिरसे प्रकाशित 'अध्यात्म- यदि 'चैतन्य स्वरूप' जैसी मिलानेकी अशुद्धियों को लिया जावे कमलमार्तण्ड' पर अपना अभिप्राय-समालोचन प्रकट तो शायद ही कोई उत्तमसे उत्तम संस्करण शुद्ध ठहरेगा। किया है । आपने उसके प्रकाशनकी कुछेक रूक्ष-रूक्ष, दूसरे चैतन्य और स्वरूप ये दोनो स्वतन्त्र ही पद हैं और उन्हें चैतन्य स्वरूप-चैतन्यस्वरूप जैसी साधारण अशुद्धियों को अलग अलग रहने देनेपर-न मिलानेपर कभी वह कोई दिखलाते हुए उनके अनुवाद की भी एक गलती दिखानेका अशुद्धि नही ममझी जाती--दोनों ही प्रकारसे उन्हे लिखा प्रयत्न किया है । यद्यपि शुद्ध समालोचनाकी दृष्टिसे जाता है। हिन्दी और संस्कृत के नियम जुदेजुदे हैं। संस्कृतमे अशुद्धियाँ या गलतियाँ दिखलाना बुरा नही है, इससे तो अविभक्तिक पदको दूसरे विभक्तिक पदके साथ मिला ही लेवकगण अपनी लेखनी अधिक मावधानसे चलाते हैं। होना चाहिये, परन्तु हिन्दीमें यह बात नहीं है । और तो क्या इसलिये इस दृष्टि से हम पण्डितजीका धन्यवाद करते हैं । (प्रेस) हिन्दीमें 'ने', 'को' 'केलिये' श्रादि विभक्तिसूचक चिन्होको पर प्रकाशन सम्बन्धी उन मामुली अशुद्धियोंको यदि मान भी अलग अलग लिग्वनेका रिवाज अब भी प्रचलित है। भी लिया जाय जो सावधानासे मावधान प्रफरीडरसे होना परन्तु यहाँ तो हमें पण्डितजीने जो अनुवाद-सम्बन्धी असम्भव नही है क्योंकि चार-चार, पाच-पाँच पूफोको देख गलती दिखलानेकी कोशिश की है और उसके लिये गजटका जानेपर भी चाकचिक्य या दृष्टिदोष और प्रेसके करैक्शन न श्राधा कालमके करीब लिखा है उसपर विचार करना है,
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किरण ११-१२]
क्या वर्तनाका वह अर्थ ग़लत है ?
२१५
जिससे पाठकोको उस गलतीकी यथार्थता-अयथार्थता मूलके ही अनुमार किया गया है। मूल में जो वर्तनाका मालूम हो सके और वे भ्रममे न पड़े।
लक्षण 'द्रव्याणामात्मना मत्परिणमनमिदं वर्तना' किया पण्डितजीने 'अध्यात्मकमलमार्तड' पृ. ८३मे काल- गया है वही--'द्रव्योके अपने रूपसे सत्परिणाम का नाम द्रव्यस-वन्धी वर्णन करनेवाले पद्यमें आये हुए वर्तना- वर्नना है-हिन्दी अर्थ में किया है। अपनी ओर से न तो लक्षण के हिन्दी अर्थको गलत ठहराते हुए लिखा है- किसी शब्दको वृद्धि की है और न अपना कोई नया विचार
"पृ० ८३मे कालद्रव्यका वर्णन पाया है, वहाँ वर्तना ही उसमें प्रविष्ट किया है। अत: यदि हिन्दी अर्थ गलत का हिन्दी अर्थ गलत होगया है। वर्तनाका अर्थ लिखा है कहा जायगा तो मूल को भी गलत बताना होगा। किन्तु कि-द्रव्योके अपने रूपसे सत्यरिणामका नाम वर्तना है। मूलको न तो गलन बनलाया गया है और न वह गलत यह जो अर्थ लिखा गया है वह परिणामका अर्थ है, वर्तन हो हो सकता है। इस लिये कहना होगा कि पण्डितजीने का यह अर्थ नहीं है । वर्तना शब्द णिजन्त है। उसका मूलपर और मिद्धान्त ग्रन्थोंकी वर्तनालक्षण चर्चा पर ध्यान अर्थ सीधी द्रव्यवर्तना नही है किन्तु द्रव्योंको वर्ताना अर्थ नहीं दिया और यदि कुछ दिया भी हो तो उसपर सूक्ष्म है। इसी लिये वर्तनारूप पर्याय खास अथवा सीधा काल तथा गहरा विचार नही किया । पर्याय माना गया है और इसी सबबसे वर्तना द्वारा निश्चय वास्तवम अधिकाश विद्वान यही समझते हैं कि वर्तना कालद्रव्यको मिद्धि होती है। ..."यदि वर्तनाका अर्थ जैमा काल द्रव्यको ही खास पर्याय, पारणमन अथवा गुण है' कि यहार हिन्दी अर्थ में बताया गया है कि द्रव्योंका मत्परिण. और वह मांधी कालपर्याा है। पर यथार्थमे यह बात नही मन वर्तना है तो कालके अस्तित्वका ममर्थ दमरा हेतु है। बतेना जावादि छहो द्रव्योका अस्तित्वरूप (उत्पादमलना कठिन होजायगा। इस लिये पूर्वग्रन्थोंके नाजुक एवं व्यय-धोव्यात्मक) स्वात्म-परिणमन हे और इस अस्तित्वमहत्वयुक्त विवेचनोंगर अाधुनिक लेखकोंको श्रादरसे ध्यान रूप स्वात्म पनिगमनमे उपादान कारण तो तत्तद्रव्य है रखकर अपनी लेखनी चलानी चाहिये।"
और साधारण ब ह्य निमित्तकारण अथवा उदामीन-अप्रेरक ___ इमपर विचार करने के पहले मैं अध्यात्मकमलमानण्ड'
कारण काल द्रव्य है । यदि प्रत्येक द्रव्य स्वतः वर्तनशील के उम पूरे पद्य और हिन्दी अर्थको भी यहाँ प्रस्तुत कर
न हा तो वर्तनाको केवल काल द्रव्यकी मीधी पर्याय मानकर देना चाहता हूँ। इससे पाठकोंके लिये समझनेमे सहूलियत
भी कालको उनको वयिता---वर्तानेवाला नही कहा जा
भा कालका होगी। पद्य और उमका हिन्दी अर्थ इस प्रकार है--
सकता और न वह हा ही सकता है। किन्तु जब प्रत्येक "द्रव्यं कालाणुमात्र गुणगणकलितं चाश्रितं शुद्धभाव
द्रव्य प्रतिसमय वन रहे होंगे तो वह प्रत्येक समय-कालाणु स्तच्छुद्धं कालसंझं कथयति जिनपोनिश्चयाद् द्रव्यनीतेः।
(कालद्रव्य) उनके वर्तानेमे निमित्तकारण हो जाता है। द्रव्याणामात्मना सत्परिणममिदं वतना तत्र हेतु,
अतएव जिस प्रकार धर्मादि द्रव्य न हो तो जीव पुद्गलोकी कालस्यायं च धर्मः स्वगणपरिणतिधर्मपर्याय एषः॥” गत्यादि नहा हा मकता अथवा कुम्हारक चाकका काला न
अर्थ-गुणोंसे महित और शुद्ध पर्यायोसे युक्त काला- १ उदाहरणस्वरूप देग्यो, जयधवला (मृद्रित) पृ. ४.। णुमात्र द्रव्यको जिनेन्द्र भगवान्ने द्रव्यार्थिक निश्चयनयसे २“उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्त सत्" "सद्रव्यलक्षणम्"तत्वार्थसूत्र शुद्ध कालद्रव्य--अर्थात् निश्चयकाल का है। द्रव्योके ३ 'जो समस्त द्रव्योके परिणमनमें उदासीन सहकारी अपने रूपसे सत्परिणामका नाम वर्तना है। इस वर्तनामें कारण है, उसको कालद्रव्य कहते हैं । जैसे कुम्भकार निश्चयकाल निमित्त कारण होता है-द्रव्योंके अस्तित्व के चाककी नीचेकी कोली यदि चाक भ्रमण करें तो रूप वर्तनमें निश्चयकाल निमित्तकारण होता है। अपने सहकारी कारण है किन्तु ठहरे हुए चाकको जबरदस्ती गुणों में अपने ही गुणोंद्वारा परिणमन करना कालद्रव्यका से नहीं चलाती। इम ही प्रकार कालको उदासीन धर्म है-शुद्ध अर्थक्रिया और यह उसकी धर्मपर्याय है। कारण समझना चाहिये।"विद्वान् पाठक देखेंगे कि यहा पद्यका हिन्दी अर्थ हूबहू
-जैनसिद्धान्तदर्पण प्र०भा० पृ०७२।
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हो तो चाक घुम नही सकता उसी प्रकार कालद्रव्य न हो तो होता है वह वर्तना है। अर्थात् एक अविभागी समयम निमित्त-कारण के चिना उन द्रव्योका वर्तन नहीं हो सकता धर्मादि छहों द्रव्य स्वतः ही अपनी मादि और अनादि है। इसी निमित्तकारणताकी अपेक्षामे ही धर्मादि द्रव्य के पर्यायोंसे, जो उत्पाद, व्यय और ध्रौव्यरूप हैं, वत रहे हैं गत्याद उपकारकी तरह वर्तनाको कानद्रव्यका उपकार उनके इष वर्तनको ही वर्तन' कहते हैं और चूँ कि तत्तत कहा गया है। इसी बातको सर्वार्थासद्धिकार श्रा० पूज्यपाद समय उसमें अप्रेग्क बाह्य निमित्तकारण होता है । इस लिये ने कहा है
वर्तनाके द्वारा निमित्त कारणरूपसे कालद्रव्य अनुमेय है।' धर्मादीनां द्रव्याणां स्वपर्यायनिवृत्ति प्रति स्वा- इमसे वर्तनाको कालद्रव्य के अस्तित्वका समर्थक मुख्य हेतु मनव वर्तमानानां बाह्य पमहाद्विना तद्वत्यभावात्तत्प्रव- कहा जाता है। नोपलक्षितः कालइति कृत्वा वर्तना कालस्यो कारः।" श्रा० विद्यानन्दने' भी इसी तरह का विस्तृत वर्णन
-सर्वाथ०१-२२ किया है। तत्त्वावलोकवा कके पृ० ४१४ पर एक अनुविवर्य पं. राजमल्ल जाने अपना पूर्वोक्त वर्तनालक्षण मान ही ऐमा प्रस्तुत है जिसमें उन्होंने स फतौरमे जीन, पृज्यपादक इमी वर्तनालक्षण के अाधारपर रचा जान पड़ता पुद्गन, धर्म, अधर्म, अाकाश और इनकी व्यापक सत्ता है। क्योंकि दोनो लक्षणोको जब सामने रख कर एक तथा सूर्यगति श्रादिकी दी वर्तना स्वीकार का है और उनके साथ पढा जाना है तो वैमा स्पष्ट प्रतीत होता है । अकलङ्क- द्वाग बहिरगकारए रूपसे कालकी सिद्धि की है। जब शंकादेव भी यही कहते हैं
___ कारके द्वारा कालवर्तनाके साथ व्यभिचार दोष उपस्थित "प्रतिद्रव्यपर्यायमन्तन, तकसमया स्वसत्तानुभूति- किया गया तब उन्होंने काल की मुख्यवर्तमान होनेका ही वर्तना ...... एकस्मिन्नविभागिनि समये धमादीनि सिद्धान्त स्थापित किया है और धर्मादिद्रव्योको ही मुख्य द्रव्याणि पडपि स्वपर्यायरादिमदनादिमद्भिरुत्पदव्यय- वर्तना बतलाई है। कालद्रव्यकी भा मुख्य वर्तन। माननेपर ध्रौव्यविकल्पवर्तन्ते इति कृत्वा तद्विषया चतना। अनवस्था दोष दिया गया है । मायमे यह भी कहा गया है साऽऽनुमानिकी व्यावहारिकदर्शनात पाकवत । यथा कि कालमे वृत्ति और वर्तकका विभाग न होनेमे मुरुपवर्तना व्यावहारिकस्य पाकस्य तन्दुलविक्लेदनलक्षणस्यौदन- बन भी नहीं सकता। यदि शक्तिभेदसे वृत्ति और वर्तकका परिणामस्य दर्शनादनुमीयते अम्ति प्रथमसमयादार- विभाग माना जावे तो कालद्रव्य की भी तैना की जा भ्य सूक्ष्मपाकाभिनिवृत्तिः प्रतिसममिति । यदि हि सकती है, क्योकि कालवर्तनाका बहिरंगकारण वर्तक प्रथमसमयेऽग्न्युदकमन्निधाने कश्चित पाकविशेषो न , “वर्तना हि जीवपद्ग नधर्माधर्माकाशाना तत्सनायाश्च स्यिात् । एवं द्विनीये तृतीये च न स्यात इति पाकाभाव साधारण्या सूर्यगत्यादीना च स्वकार्यविशेषानुमितस्वम वाना एव स्यात् । तथा सर्वेषामीि द्रव्याणां स्वपर्यायाभिनि- बहिरंगकारणापेक्षा कार्यत्वात् तन्दुल कवत् । यत्तावद्वाहवृत्तौ प्रति समयं दुरधिगमा निःपत्तिरभ्यु गन्तव्या। रंगकारणं स काल: । ननु कालवर्तनया व्याभचार: स्वयं तल्लक्षणः कालः । सा वर्तना लक्षणं यस्य स काल वर्तमानेषु कालापुष तदभावात् । इति केचित् ; कालवर्त इत्यवमेयः। समपादोनां क्रियाविशेषाणां समयादि- नाया अनुपचन्तिरूपेणासद्भावात् । यस्यासावन्येन वर्त्तते निवृत्त्यानां च पर्यायाणां पाकादोनां स्वात्मसद्भावानु- तस्य सा मुख्यवर्तना। कर्मसाधनत्वात्तस्याः । कालस्य तु भवनेन स्वत एव वर्तमानानां निवृत्तेबहिरङ्गो हेतुः नान्येन वर्तते तस्य स्वयं स्वसत्तावृत्तिहेतुत्वादन्यथाऽनवस्थासमय पाक इत्येवमादिस्वसंज्ञारूढि नद्भावे काल इत्ययं प्रसङ्गात् । तत: कालमा (कालस्य ?) स्वतो वृनिरेवो चारतो व्यवहागे कस्मान्न भवतोति तद्व्यवहारहेतुनाऽन्येन वर्तना, वृत्ति वर्तकयोविभागाभावान्भुख्यवर्तनानुपपत्तेः । शक्तभवितव्यमित्यनुमेयः।" -तत्वार्थवा० १-२२। भेदात्तयोविभागे तु सा कानस्य यथा मुख्या तथा च बहिरंग-.
यहाँ अकलङ्कदेवने बहुत ही विशदताके साथ कहा है निमित्तापेक्षात्वं वर्त्तकशक्तर्बहिरंगकारणत्वात्।" कि 'हरेक द्रव्यपर्यायमे जो हर समय स्वसतानुभवन-वर्तन
--तत्वार्थश्लो०१-२२
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किरण ११-१२]
क्या वर्तनाका वह अर्थ ग़लत है ?
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शक्ति हो जाती है। इस तरह विद्यानन्द स्वामीने अनुमान- द्रव्यके उपकार बतलाये गये हैं वे वर्तनाके ही भेद है। गत भिचार दोषको उत्मारिन किया है। विद्यानन्दके जैसा कि श्रा० उपपादके निम्न कथनमे प्रकट है। इस स्फुट विवेचनसे हम इस निष्कर्ष पर पहुंच जाते हैं कि "ननु वर्तनाग्रहणमेवास्तु तद्भेदाः परिणामादयवास्तवमे वर्तनी सभी द्रव्यगत है और काल उममें केवल स्तेषां पृथाग्रहणमनर्थकम् ; नानर्थकम; कालवयसूचनबहिरग कारण है। द्रव्यांक इम वर्तन-अस्तित्वरूप परिण- थत्वात्प्रपञ्चम्य।" -सर्वार्थसि०पृ० १८६ मनम बहिरंगकारण न नो प्राकाश है और न जीवादिद्रव्य यहाँ यह शंका उपस्थित की है कि एक वर्तनामात्रका है, क्यों कि वे सब तो उसके उपादान कारण हैं और ग्रहण करना पर्याप्त है। परिणाम श्रादि तो उसीक भेद हैं। प्रत्येक कार्य उपादान तथा निमित्त इन दो कारणोस होता अत: वर्तनाग्रहण से उनका मा ग्रहण हो जायगा--उनका है । अतः वर्तनाके उगदान कारण जीवादिसे अतिरिक्त पृथक् ग्रहगा करना व्यर्थ है। इस शंकाका प्राचार्य उत्तर निमित्त कारणरूपसे निश्चयकालद्रव्सकी सिद्धि होती है। देते हैं कि सूत्रमें उनका पृथक् ग्रहण व्यर्थ नहीं है। काल
सर्वार्थसिद्धि ( सोलापूर संस्करण ) पृ० १८३ में एक के दो भेदों की सूचना-जापन करनेके लिये प्रपञ्च विस्तार अतिस्पष्ट फुटनोट दिया गया है जो श्रा० श्रनसागरमूरिकी किया है । नात्पर्य यद् कि पूज्यपादके लिये परिणाम आदि श्रुतसागरी तत्त्वार्थवृत्तिका जान पड़ता है और जिम में भी यह को वर्तनाके मेद मानना स्पष्टत: अभीष्ट है। दूसरे, सत्वरिस्पष्ट हो जाता है कि सभी द्रव्याका प्रतिसमय वर्तनस्वभाव है णमनको वर्नना माननेर वनना और परिणाम दोनों एक तथा प्रतिक्षण उनकी उत्तरोत्तर सूक्ष्मपर्यायोमे जा परमाणु- नही हो जाते। प्रनिक्षण ममस्त द्रव्योका अपनी उत्तरोत्तर रूप बाह्य निश्चयकालकी अपेक्षा लेकर वर्तन--पारणमन सूक्ष्म पर्यायाम जो वतन मवारणमन हो ।। है वह तो वतना हाता है वह वतना है। यहाँ फुटनोटकी कुछ उपयागी है। जैमा कि पूर्वोक्त विवेचन और सर्वाथसाद्धके उल्लिखित पाक्तयोका दिया जाता है--
फुटनोटमे राष्ट्र हे अोर पूर्व पर्यायके त्याग और उत्तरपर्यायके "एवं सर्वेपा द्रव्याणां प्रतिसमयं स्थूलपर्याय- उत्गदरूप जो द्रव्यम अपरिस्सन्दात्मक विकार--पर्याय ह तो विलोकनात् स्वयमेव वतनस्वभावत्वेन बाह्य निश्चय- है उसे परिणाम कहते है। जमा कि स्वयं पूज्यपादके ही कालं परमाणुरूपं अपेक्ष्य प्रतिक्षणं उत्तरोत्तरसूक्ष्म- निम्न कथनसे प्रकट हैपर्यायेपु वर्तनं परिणमन यद्भवति सावतेना नीयते।"
"द्रव्यस्य पर्यायो धर्मान्तानिवृत्तिधर्मान्तरोपजननयहाँ पाटक देखेंगे कि 'वतनं परिणमनं' कह कर तो
रूपः अपरिमन्दात्मकः परिणामो जीवस्य क्रोधादिः, वतेनाका अर्थ परिणाम भी स्पष्टतया प्रतिपादन किया है।
पुद्गलस्य वर्णा देः, धमाधर्माकाशानामगुरुलघुगुणइस तरह मिद्धान्त ग्रन्थोसे यह ज्ञात हो जाना है कि विद्.
वृद्धिहानिकृतः।" च्छिरामाण ५० गजमल्लज ने वर्तनाका जो 'द्रव्याणामात्मना सत्परिणमनमिदं वर्तना' लक्षण किया है और
पूज्यपादके अनुगामी अकलक और विद्यानन्द भी हमने उसका जो 'द्रव्योंके अपने रूपमे सत्परिणामका नाम
अपना यही अभिप्राय प्रकट करते हैं ।। यदि पं० वशीधर वतंना है' हिन्दी अर्थ किया है दोनों ही सिद्धान्तसम्मत
जी इसी अध्यात्मकमल-मातण्डके उससे अगले ही पृष्ट हैं--गलत नहीं हैं।
(८४) पर देखते तो उन्हें उन्ही सत्परिणमनको वर्तना कहने
वाले अध्यात्मकमलमार्तण्डकारके शब्दों में परिणामका भी अब यह विचारके लिये शेष रह जाता है कि यदि
लक्षण मिल जाता और फिर उन्हें उनकी एकताका मत्परिणमन वर्तना है तो परिणाम और वर्तनाम भेद क्या
भ्रम न होता। में उनके उस परिणामलक्षणको नीचे है ? क्योंकि काल द्रव्यके उपकारों में परिणाम और वर्तनाको
देता हूँजुदा जुदा बतलाया गया है ? इसका खुलामा इस प्रकार है
प्रथम तो सामान्यतया वर्तना और परिणाममें कोई १ देग्यो, नत्वार्थवा. पृ० २२४ ओर तत्त्वार्थ श्लोकवा. भेद नहीं है। क्योंकि वस्तुत: परिणाम प्रादि जो काल पृ० ४१४ ।
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"पर्यायः किल जीवपुद्गलभवो योऽशुद्धशुद्धावयः।" निमित्तरूपसे कारीष-अग्निनिष्ठ भी माना जाता है उसी प्रकार
अर्थात्-जव और पद्गलसे होने वाले शुद्ध और अशुद्ध वर्तना वस्तुत: समस्त द्रव्यपर्यायमत ही है फिर भी निमित्त परिणमनो-विकारोंको पर्याय--परिणाम करते हैं। यहाँ होनेमे वर्तानाको कालगत भी मान लिया गया है। अत: यह ध्यान देने योग्य है कि ग्रन्थकार जीव और पुद्गल जन्य वर्तनाका अर्थ मुख्यत: 'द्रव्यवर्तना' हे और उपचारतः पर्याय (विकार) को ही परिणाम कहते हैं, धर्मादिद्रव्योके 'द्रव्योंको वताना' है । सीधी द्रव्यवतेनाका व्यवच्छेद करके विकारको वे परिणाम नही मानते। जबकि तत्त्वार्थ के सभी टीका- एक मात्र 'द्रव्योंको वर्ताना वर्तनाका अर्थ कदापि नहीं है। कारोने द्रव्यविकारको पारणाम होनेकी ओर दृष्टि रखते हुए अन्यथा सर्वाथ सिद्धकार वर्तते द्रव्यपर्यायः, इतने वाक्याश धर्मादिद्रव्योंक भी अगुरुलधुगुणकृत विकार स्वीकार किया को न लिखकर केवल 'द्रव्यपर्यायस्य वर्तयिता कालः' है और उसे भी परिणाम कहा है। जो सिद्धान्तत: ठीक इतना ही वाक्य लिखते । इससे स्पष्ट है कि सत्परिणमनको है। परन्तु अनुवादक मूलके साथ बंधा होनेसे उक्त पंक्तिका जो हमने वर्तना निखा वह मूलकार एवं सिद्धान्तकारोंके अर्थ भी वैसा ही दिया गया है। अस्तु । तालर्य यह कि न तो विरुद्ध है और न गलत ही है। केवल पण्डितजाके द्रव्यर्यायोमे प्रतिसमय होने वाला परिणमन तो वतेना है समझनेकी भूल है। अन्तमे एक बात जो पं. जीने यह और वे द्रव्यपर्याये पारणाम हैं। यही वतना और परिणाम कही है कि सत्ररिणमनको वर्तना माननेपर कालके मे सिद्धान्तसम्मन भेद है। जिमपर पण्डितजीने मर्वथा ही अस्तित्वका समर्थक कोई दूसरा हेतु मिल नहीं सकता उम ध्यान एवं विचार नहीं किया। यद्यपि यह ठीक है कि वतना सम्बन्धमे मुझे यह कहना है कि सत्परिणमनको वर्तना शब्द णिजन्त है, किन्तु यह भी देखना चाहिए कि णिज् मानने र कालके अस्तित्यकी साधक वह क्यो नही रहेगी ? का अर्थ यहाँ क्या और कैमा सिद्धान्तकारीके लिये विवक्षित दूसरे द्रव्य जो उस सत्परिणमनरूा वर्तनामे उपादान ही है। सर्वार्थ सिद्धिकारके णिजर्थमम्बन्धी पूरे अभिप्रायको होंगे निमित्त कारण रूपसे, जो प्रत्येक कायमें अवश्य यहाँ दिया जाता है
अपेक्षित होता है, कालकी अपेक्षा होगी दी और इस तरह "को रिजर्थः ? वर्तते द्रव्यपर्यायस्तस्य वर्तयिता वर्तनाके द्वारा निमित्तकारणरूपसे कालकी मिद्धि होती दी कालः। यद्येवं कालस्य क्रियावत्वं प्राप्नोति । यथा
है। यदि इस रूपमें वर्तनाका अर्थ वर्ताना इष्ट हो तो उसमे शिष्योऽधीते, उपाध्यायोऽध्यापयति इति; नैष दोषः,
हमे कोई आपत्ति नही है। सत्परिणमन भी वहा वर्तना निमित्तमात्रेऽपि हेतकर्तृव्यपदेशो दृष्टः । यथा कारीषो- रूप है। विवक्षित होसकता है। यहा हम यह भी कह देना अग्निरध्यापयति । एवं कालस्य हेतुकता।”
चाहते हैं कि 'वर्तनाहेतुत्व' नहीं किन्तु वर्तना पूज्यपाद' और
अकलङ्कदेवके अभिप्रायसे कालका अमाधारण गुण और _शिजका अर्थ क्या है ? द्रव्यपर्याय वतं रही है, विद्यानन्दके अभिप्रायानमार पर्याय माना गया है । श्राशा उसका वर्तानेवाला काल है। यदि ऐसा है तो कालक है जैनगज के सम्पादकजी इम विवेचनके प्रकाशमें क्रियापना प्राप्त होजायगा । जैसे शिष्य पढ़ता है, उपाध्याय अपनी भ्रान्तिको दर करलेगे, और वेसा अपने पत्र में प्रकट पढ़ाता है ? यह कोई दोष नहीं; क्योकि निमित्तमात्रमे भी
कर देगे। कारणको कता कह दिया जाता है। जैसे कण्डेकी अग्नि बोरसेवामति माया पढाती है। यहाँ करडे की अग्निको पढ़ने मे निमित्तकारण
८-५-४५ होने मात्रसे कर्ता कहा गया है । इसी प्रकार स्वतः वर्त रही द्रव्यपर्यायोके वर्तनमे काल निमित्तकारण होनेमात्रसे उसे १ देखो सर्वार्थ सिद्धि पृ० २००। वर्तायता-वर्तनकर्ता (वर्तानेवाला) कहा है । तार्य यह २ तत्त्वार्थवार्तिक पृ० २४३ । कि जिस प्रकार 'पढ़ाना' वस्तुतः उपाध्यायनिष्ठ ही है किन्तु ३ तत्वार्थ श्लोकवार्तिक पृ० ४३७ ।
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हमारी शिक्षा-समस्या (लेखक-बा० प्रभुलाल प्रेमी' पाहरी)
आजके भारत में प्राचीन गुरुता, महानता, गौरवता और इहलौकिक और पारलौकिक कल्याण होसके। यही कारण सुग्बमम्पचता लाने के लिये अनेक समस्याको सुलझाना था कि उस समय मनुष्योकी कौन कहे, देवगण भी पखेगा। उनमें सबसे प्रमुख समस्या जिस, 'एके माधे सब भारतमे जन्म धारण करने के लिये सदैव लालायित रहते थे। सधे कह सकते है वह शिक्षा-समस्या ही सर्व प्रथम इस विषयमे निम्न वाक्य भूखने योग्य नहीं है। हमे सच्ची शिक्षाका परिभाषिक ज्ञान होना आवश्क है।
"गार्यान्त देवाः किल गीतकानि शिक्षा--जिसके द्वारा बालकके शरीर मन और प्रामा
धन्यान्तु ये भारतभूमिभागे। का अधिक सुन्दर सुखद और उल्लासमय विकाम ही उमे
स्वगांपवर्गस्य च हेतुभूने; हम शिक्षा कह मकते हैं। सरवी शिक्षा वही है जिस
भवन्ति भूयः पुरुषाः सुरत्वान ॥ पाकर मनुष्य अपने शरीर, मन और आमाके उत्तम
प्रोफेसर हेरिन्मने भारत सम्बन्ध में अपनी विचारधारा गुणोंका पर्वाङ्गीण विकास कर सके और उन्हें प्रकाशम इस प्रकार प्रकट की हैजायके। शिक्षा यांत्रिक वस्तु नहीं है। किमीको यंत्रकी तरह "India is the source which not only पढ़ा लिखाकर उस सच्चे प्रोंमे शिक्षित नहीं बना सकते। the rest of Asia but the whole western शिक्षाका अर्थ है समाजकी कटीली डालांके कांटोंको world derived their knowledge and छीलछान कर निकना बना देना, अनुचित तथा हानिकारक their religion" पर्दायोंको समाजसे बीन २ कर निकालना, स्नेहका अर्थात--भारतग्वइ वह उद्गम स्थान है, जहोंमे म बीज बोना, विश्वबन्धुन्धकी वेन मीचना, मानमिक कंवल सम्पूर्ण एशियाने ही, अपि तुमचे पाश्चात्य निजताको तिनाजलि देना, माहमिकता तथा धीरताको संमारने ज्ञान तथा धर्मका पाठ सीखा।" । अमर बनाना और मनुप्यकं हृदयको जागृत करके उमे
पाश्चान्य-मभ्यताभिमानी प्रोफेसर मम्ममूलरने भारत मानवममाजका एक उपयोगी अग बनाना । यही वास्तविक की विद्या और वैभवका क्या ही अनूठं शब्दाम वर्णन शिक्षाका कर्तव्य है। जो शिक्षा केवल दूमरों के ऊपर बोझ कियाहोनवाले अकर्मण्य प्रादमी पैदा करती है, चाहे वे अमीर
"It I were to look over the whole हों या गरीब, सब तरहसे बुरी है। ऐसी शिक्षा समाजको
world to find out country most richlyकाम करने और पैदा करनेकी शकिको ही हानि नहीं
endowed with all the wealth, power पहुंचाती बलिक लोगोंमें एक भयंकर अनैतिक मनोवृत्ति
and beauty that nature bestowed in पैदा करती है।
some parts-a very paradise on earth, प्राचीन गौरव-प्राचीन भारत उमति-सुमेह कहा I should point to India. It I were जाता था, उसका कारण केवल यही है कि उस समय asked undel what sky the human यहां वास्तविकशिक्षाकी कमीन थी। शिक्षाधिकारियों की ही mind has most fully developed on the शिक्षा देनेका अधिकार या । गुरुकुलोंमें गुरु शिस्यों को अपने greastest problems of life, and found निमिपादों द्वारा ऐसी शिक्षा देते थे जिससे उनका solution of some at them which will
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deserve the attention even of those "येषां न विद्या न तपो न दानं who have Plats and Kant, I should ज्ञानं न शीलं न गुणो न धर्मः। point to India".
ते मत्यलोके भुवि भाग्भूता अर्यात यदि मैं ऐसे देशको खोजू, जिसे प्रकृतिने
मनुष्यरूपेण मृगाश्चरन्ति"। समस्त वैभव शक्ति तथा सौन्दर्य प्रदान किया है, जिसे
इममें सर्व प्रथम गुण विद्या ही मनुष्यस्व प्राप्तिका लक्षण पृथ्वीवर स्वर्गरूपमें निर्मित किया है, तो मैं भारतकी ओर बतलाया गया है। अन्य गुण सच्चा विद्या प्राप्त हानेपर इङ्गित करूंगा। यदि मुझस प्रश्न किया जावे कि किम व्योम स्वतः ही पाजाते हैं। विदुरजीन तो यहां तक कहा है कि मण्डल के नीचे मानव मस्तिष्कने अपनी शक्तियोंका विकाम कोऽर्थः पुत्रेण जातेन योन विद्वान धार्मिकः" । अत: समार किया है. जीवनकी महत्वपूर्ण समस्याओंर विवेचन कर में अपना अस्तित्व कायम रखने और प्राचीन गौरवकी रक्षा उनमेमे कितनों हीके ऐसे समाधान खोज निकाले हैं, जिनकी करनेके लिये वर्तमान दक्षित शिक्षा और शिक्षाप्रणाली दोनो और उनका भी ध्यान प्रारर्षित होगा, जिनके पाप 'लेटो को ही परिवर्तित करना होगा। शासकवर्गने अपनी स्वार्थतथा कांट हैं तो मैं भारतकी भोर इङ्गित करूँगा। साधनाके हेतु, प्राजकी शिक्षा और उसकी दूषित पढ़तिको
जिस भारतके सम्बन्ध में पाश्चान्य लोगों तक ऐपे उद्- प्रसारित कर हमें हमारे देश की और समाजको किस प्रकार गार निकलते हैं, श्राज उसका इस प्रकार अधःपतन देख अकर्मण्य, अपंग और अपने ही हाथकी कठपुतली बना ऐसा कौन पाषाण हृदय भारतीय होगा, जिसकी प्रांस्वासे डाला, विज्ञ पाठक इसकी अनुभूतिमे वचित न होंगे। प्रश्रधाराका अविरल वात न उमड़ पडता हो। इस सबका शिक्षामें दोप-प्राजकी शिक्षामे सदाचारके लिये एकमात्र कारण यही है कि उस समय शिक्षा प्राजकी तरह प्राय: कोई स्थान नही है, इसके विपरत कभी २ तो हम पैसोस वाजारु भाव क्रय-विक्रय नहीं की जाती थी । गुरु उन शिक्षकोको जिनके हाथों में राष्ट्र निर्माता बाज कोंका अपने ही श्राश्रमों में ब्रह्मचारियोको रखकर उनकी पात्रता भावी भविष्य अवलम्बित है, विद्यार्थियोंकी कुरिमत प्रवऔर योग्यताके अनुसार ही स्वावलम्बी शिक्षा देते थे। त्तियोंको प्रोत्साहित करते देखते हैं।
"Knowledge without character is वर्तमान शिक्षा प्रणालीने देशक नवयुवको, हिन्दुस्तान sin" अर्थात बिना सदाचारके विद्या पाप है, और की भाषाओं और देशकी सर्वमान्य संस्कृतिको जो अपार हानि "श्राचारहीनान् पुनन्ति वेदाः” इन्ही बातोको शिक्षाका पहचाई है वह लिखनेका नहीं, अनुभव करनेका विषय है। आधारभूत समझा जाता था। उस समय मैडागास्कर और ग्राम जिम शिक्षा-पद्धतिका दौर-दौरा है उसमें पूर्ण शक्ति गोबीका रेगिस्तान, क्लाइवकी कस्टनीनि और ना दरशाह किताबी पढ़ाई में ही व्यय कर दी जाती है और उसके द्वारा के हमले आदि बातोंको कटुताके साथ रटाकर पास करा देने केवल दूसरोंके अनुभवों, दूसरों की कल्पनाओं और दूसरोंके को प्रथा प्रचलित नही थी। हां गुरु मदा मय बोलो, तर्कों को ही रटानेकी रीति प्रचलित है। इसमें मानव-जीवन कभी क्रोध मत करो, किमी जीवको मन सतायो, मधुर और उसकी परिस्थितियोंका कोई स्थान ही नहीं रक्ख। भाषण करो, परनिन्दासे बची, सयमी बनो श्रादि वाक्य जाना । इने गिने वैज्ञानिकोंने भले ही कुछ अद्भुत प्राविपट्टियॉपर लिख देते थे। उन्हींको हृदयगम कर जीवनमें कार किये हों लेकिन सर्व-साधारणकी शिक्षाका प्राधार तो श्राचरण करना यही परीक्षाकी कमौटी थी। गुरुओकी दिन- थोधी किताबोंका बोझा ही रहा है। जिस अवस्थामे बालकों चा, व्यवहार और नीति शिक्षाके उच्चतम आदर्श थे। की सर्वशक्तियोंका विकास होता है और सदाचारकी नीव
यदि प्राज वास्तवमे ही हमें अपनी दशाप दुख है, डाली जाती है उसी अवस्थामें परावलम्बी और पराश्रित यदि हम सुख और शान्ति प्राप्त करना चाहते हैं, तो हमें शिक्षा प्राप्त करनेसे ममूचे राष्ट्रकी कितनी बड़ी हानि हो रही उसी शिक्षण-पद्धतिको अपनाना होगा। नातिमें बतलाया है, इसका कोई विचार ही नहीं करता । भारतमें आयुका
औसत जहां २३ वर्ष है वहां स्त्री अथवा पुरुषको अपने
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किरण ११-१२]
हमारी शिक्षा-ममम्या
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जीवनके२०, २५ वर्ष इस शिक्षा-पद्धतिके कारण इस करुणाका भडार होती हैं, और उनका प्रभाव भी बालकों प्रकार निरुहेश बिताने पड़ते हैं, फिर उनमें दीर्घमूत्रता, पर चिरस्थायी होता है। माताओं के प्रभावमें यदि यह काम संशयवृत्ति, अनिश्चितता और अपने पाप किमी निर्णय पर पुरुषों को ही दिया जाय, तो सबसे योग्य अनुभवी और पहुंचने की अक्षमता पाना स्वाभा वक ही है। इतना ही नहीं सदाचारप्रिय शिक्षकको ही देना चाहिये । छोटे बच्चोंके परिमाणत: जीवनक्षेत्र में अवतीर्ण होने पर अधिकांश लोग शिक्षा देनेके महत्वपूर्ण व गृढ विषयपर उसकी महत्ताक व्यावहारिक ज्ञानस सर्वथा शुन्य पाये जाते हैं।
अनुकृत्त ही ध्यान देना चाहिये। नन्हे शिशुओं की अवस्था विद्यार्थियोको पात्रता, अपात्रता तथा किसी विषय- एक कोमल उगते हुए पादेके समान है, जिसकी भती. विशेषके लिये अभिरुचि, अनभिरुचि, योग्यता अयोग्यता भाति रक्षा न करनेपर वह दूपित वातावरणाम प्रभावित का विचार किये बिना ही श्रेणीबद्ध रूपमें पढ़ाया जाता है, हाकर भलीभाति फलफूल नही पाता। बालकाको शिक्षाका जो कि देश तथा समाजकं लिये महान् घातक है। प्रारम्भ ही चारित्रिक और धामिक शिक्षा द्वारा करना
उन नवजाति बालकोकी प्राथमिक शिक्षाका जो राष्टकी चाहिये। क्योंकि भावी समाजकी विशाल हमारत हली भावी श्राशाएँ हैं, और जिनके गुलाबी चहरीपर भावुकता, नीवपर रवी जा सकेगी। बालिकाओकी शिक्षापर हमें कर्मण्यता और उरचाकाक्षाओंकी रेखाय सदैव अटवलिया विशेष ध्यान देना चाहिये । उन्हें बाल्यकाल में ही धार्मिक, किया करती हैं, जो कि गष्ट व समाजके सच्चे निर्णायक गास्थिक और समाजोपयोगी शिक्षा देकर इस योग्य बना तथा भावी शिक्षक व पिता हैं, उचित ध्यान नहीं रखते हैं। देना चाहिये, कि भविष्य में हमारी सन्ताने बिना विशेष बाल-शिक्षाका कार्य अयोग्य शिक्षकोक हाथमें देकर हम उन प्रयासक ही सुसंस्कारी और धार्मिक उत्पन्न होसके। बालकोंके जीवनोको ही नहीं बिगाइते, किन्तु भविश्यमें हमें शिक्षणपद्धनिमें मातृभाषाको प्रधानता देनी अकर्मण्यता, कुसंस्कारिता और अयोग्यताको जन्म देकर चाहिये । अन्तरप्रान्तीय-विचारविनिमय और संगठनके उनका अविरोध स्वागत करते हैं।।
लिये अपने देशकी एक भाषा बनाना चाहिये और वह यह है आज हमारी सरकारी शालाश्री और महा वद्या-हिन्दी ग्रामों की अधिकांश जनसख्य का ध्यान रग्बकर लयोकी शिक्षाका हाल । फिर हमारी मामा जक और शिक्षामें शहरकी अपेक्षा ग्रामीण संस्कृतिकी प्रधानता रखनी धामिक विद्यापीठों, श्राश्रमों, कन्याशालाओं, विधवाश्रमोकी चाहिये तथा उनकी श्रावश्यकनाश्री और दरिदताओंको शिक्षा, पारस्परिक व्यवहार, गरु-शिष्य-भकि, एकांगीपन, देखते हुए स्वावलम्बनी ही शिक्षा देनी चाहिये। शिक्षाका शिक्षण विभिन्नना, कार्यकताकी स्वार्थ-नीति श्रादि बानी माध्यम अग्रेजी नही सम्बना चाहिये और जो विद्यार्थी विना का स्पष्ट प्रदर्शन करनेमे अनुभूतिप्राप्त हृदय मकुचाता है, अंग्रेजी लिये अपनी शिक्षा पूरी करना चाहें, उनपर अग्रेजी लेखनी रुक जाती है। श्राज इनमे क्या होरहा है । लघय का भार नही लादना चाहिये। वर्धा-शिक्षा प्रणालीके अनु. और लक्ष्यपूर्तिमें कितना अन्तर है !! इमपर धार्मिक और सार हम शिक्षाशालाओम प्रौद्योगिक शिक्षणको अवश्य सामाजिक शालाओंके शिक्षादाता महानुभाव एकाग्रचित्त स्थान देना चाहिये । पर उसमें विद्याथियोंकी रुचियोका हो शांतिसे विचारें। साथ होताअपने परम पवित्र पद और अवश्य ध्यान रखना चाहिये । इतिहास, अर्थशास्त्र और महान उत्तरदायित्वका स्मरण कर, पश्चात्तापक श्रासुप्रसि समाजशास्त्र आदि मास्कृतिक विपय भारत के इतिहाससिबू अपनी भूलोको धोने का प्रयत्न करे । उन्हें निजत्वक भान सर्वोच्च श्रादर्शकी ही दृष्टि से सिखाये जाने चाहिये। जिसमे और पदमहानता गौरवमे सत्यपथकी झलक स्वय ही जिन वीगेन मनुष्यको पशुताकी श्रीरम मानवताकी और दृष्टिगोचर होने लगेगी।
लानेकी कोशिश की है, इनकी शांतिमय विजय कहानियों सुधारयोजनाएँ-बालशिक्षाका कार्य जहां तक बन का ही पाठ्यक्रम में प्रधान म्धान हो मानवजातिक इतिसके पुरुषांकी अपेक्षा माताओं को देना चाहिये । क्योंकि वे हाससे उदाहरण लेकर यह बार बार दिखाना चाहिये कि प्रेमकी प्रतिमा, दयाकी मूर्ति, सहिदगुताकी देवी और कपट, हिंसा, झूट, अन्याय, कुशील प्रादिसे सत्य, अहिंसा,
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निष्कपटता, न्याय, शील, संयम, तप, त्याग श्रादि गुणों में शिक्षकोंसे निवेदन--श्राप ही विश्वके सच्चे पथही अधिक शक्ति है। इससे उनका जीवन धार्मिक और प्रदर्शक और अगुश्रा हैं । "प्राचार्यः परमः पिता" तथा पवित्र बन सकेगा । धार्मिक ग्रन्थोंके प्रात:स्मरण तथा "यथा गुरुस्तथा शिष्यः" इन सिद्धान्नोंके आधारपर किसी धार्मिक कथाओं द्वारा भी उनकी रुचि जागत करते रहना भी रष्ट अथवा समाजका भावी भविष्य अापके चरित्र और चाहिये।
आदर्शपर अवलम्बित है। आपको अपने ही निजी श्रादर्श विचार कितने ही क्यों न जगे. जब तक वे क्रियात्मक से शिक्षा और सदाचारकी विशाल इमारत खड़ी करनी होकर फजप्रद नही होते. उनका कोई मूल्य नहीं माना होगी। जो अकर्मण्य हैं, प्रमादी हैं जिनसे संसारमें कोई जाता। यही बात भावनाओं और अनुभूतिको शिक्षाके काम करते धरते नही बनता, वे ही लोग शिक्षकके श्रापन सम्बन्धमे कही जा सकती है। श्रार आवश्यकता इस बात पर प्रामीन हो जाते हैं, हम भ्रान्तिभूलक लोकविश्रुत, की है कि देशके नवयुवक सचरित्र और कर्मठ बन। जनश्रुतिको भापको अपने अनवरत अध्यवसाय, अटूट लगन शिक्षाक द्वारा उनके चरित्रका ऐसा निर्माण किया जाय कि और अम्बंड कार्यसाधना द्वारा मिटाना होगा । "सर्वेषामेव म्यवहारिक कार्य करनेकी और कुछ सेवा करनेकी शकि. दानानां विद्यादानं विशिष्यते” ! आपको अपने पूर्वोपार्जित पैदा हो। श्राज एमे नागरिकोंकी आवश्यकता है जो परि- शुभ कर्मोदयसे यही सर्वश्रेष्ट विद्यादान देनेका सौभाग्य स्थिति और संयोगोंके कारण किसी भी क्षेत्रमे या न पडे प्राप्त होगया है। श्राप विश्वास रखें-"गुणा' पूजा-स्थानं हों वहां भी कुछ न कुछ उत्तम रचना करके जगन में ही गुणपु लिंगं न च वयः" । यदि आज नही तो कल श्राप मंगल कर सकें। शिक्षा या अध्ययनके प्रत्येक विषयका के गुणोंके लिये श्रापकी और आपके श्रादर्शकी पूजा अवध्येय सदाचार ही होना चा िये । शिक्षको सब विषयोंकी श्य होगी। आपकी इस महती मेवा, सचे त्याग और श्रेष्ठ शिक्षा ऐसी पद्धतिसे देनी चाहिये, जिससे विद्यार्थीके चरित्र दान का मूल्य मुद्राओके द्वारा चुकाया नही जा सकगा। का विकास हो. क्योंकि व्यक्ति या राष्ट्र दोनों के लिये चरित्र यह प्रापकी दानरूपी शुभ कृत्योको धरोहर भविष्यमे स्वत: ही एकमात्र जीवनका निश्चित प्रापर है।
ही प्राप्त होगी। आपको इस महती सेवाके बदले जितना शिक्षाका श्रादर्श केवल धनप्राप्ति या प्रतिष्टाप्राप्ति न हो भी कम पारिश्रमिक मिलेगा, आप अपने द्वारा उतनी ही देशमाजसेवाही उनका भाव रहे।सायी पवित्रता अधिक देश को आर्थिक महायता पहुंचा सकेंगे, साथ ही लोकसेवा. सर्वधर्म-समभाव और उरचचरित्रकी उसमें प्रकृति कोषमे भविष्यके लिये मंचय भी होगा। मानवीय प्रधानता हो । सभी धर्मोक समान और प्रादर्श तत्व अश होने के नाते जब कभी श्राप लोगोंको लोभादि श्रावप्रत्येक बाजकको सिखाये जाने चाहिये। ये तत्व पुस्तको रण वेग्ने लगे, दरिद्रता सताने लगे, अथवा किसी अन्य अथवा शब्दो द्वारा नहीं मिखलाये जा सकेगे । इन तचों को परीपद द्वारा श्रापकी परीक्षाका सुअवसर उपस्थित होजावे बालक गुरुके दैनिक जीवन-द्वारा ही सीख सकेगे । यदि तो श्राप अपने ही उस परम पवित्र और महान पदका शिक्षक न्याय, तप, सत्य, परोपकार, दया और त्यागके ध्यान कीजियेगा, जिसपर प्राप्तीन हैं। “Where there
आध रपर जीवनयापन करें तो यह प्रासानीसे सीख सकेंगे is will there is way, where there is कि ये तत्व सभी धर्मोक श्राधार हैं।
sorrow there is holy ground, someday सुविधानुकूल एक एक प्रान्त अथवा जिलेमे प्रतिवर्ष iman will understand it". अर्थात् जहां इच्छ। कमसे कम दो माहका शिक्षण शिविर खोलना चाहिये। है वहां अवश्य रास्ता मिलता है । जहां दुःख है वहीं उसमें देश अथवा समाजके लिये सर्वस्व अर्पण कर देने पवित्र भूमि है, मनुष्य एक दिन इस समझेगा । इस वाले महापुरुषोंके पूर्वनिश्चित विषयोपर भाषण कराने सिद्धान्तपर अटल विश्वास रखियेगा। कहा हैचाहिये, जिससे शिक्षक लोग अनुभव व ज्ञान संपादन कर धनहीनो न हीनश्च, धनिकः स सुनिश्चयः । सके तथा उनके जीवनोंसे स्फूर्ति ले सके।
विद्यारत्नेन हीनश्च स हीनः सर्ववस्तुपु ।"
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किरण ११-१२]
वीरसेवामन्दिरमें वीर-शामन-जयन्तीकात्मक
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धनहीन दरिद्र नहीं होता, पर जिसके पास विद्यारन कि जो महानुभाव अर्थ-संग्रह करना चाहे, अथवा उसमें नही है. अथवा जो विद्या जैसे रनको पाकर उसके आलोक विशेष ममता है. उन्हे हम महान् स्याग और कठिन से पालोकित नही करता वही दरिद्र है ! नातिने तो यहाँ तपश्चर्या को परीचामे पृथक रहनेका प्रयत्न करना चाहिये। तक कहा है कि-"यस्यास्ति सद्मविमशेभाग्यं, कि यद्यपि प्राजकी धारा विपरीत बह रही है। पर धाराके तस्य शुष्करचपलाविनोदैः" । अर्थात् जिम भाग्यशाल को माथ बह जानेमे श्रानन्द और प्रारमोल्लाम नही। उत्तमोत्तम प्रन्योंका अनुशीलन करनेको मिल जाता है उसके धाराके वेगको पराजित कर अपनेको ऊंचा उठाने में ही लिये लघमीके शक विनोद किस कामके। सच तो यह है आनन्द है।
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वीर-सेवा-मन्दिरमें वीरशासन-जयन्तीका उत्सव
हम वर्ष बीरसंवामन्दिर सामावाम श्रावण-प्रनिपटा चंदजी मुख्तार, लाला उदयराम जिनेवादासजी, बाला और द्विनीया ता. २५-२६ जुलाई मन १६४५ दिन स्ढामलजी शामियानवाले, मुशी सुमतिप्रसादजी अमीन, बुधवार-बृहस्पतिवारको वीरशामन-जयन्तीका उग्सन बड़े ला० मिहरचन्दजी. ला. इंद्रसेनजी टिम्बर मरचेन्ट, ना. प्रानन्द और ममारोहके साथ मनाया गया । ता. २५के प्रान पदमप्रसादकी, ला. सुमनिप्रमादजी और गायक मा. प्रभातफेरी निकली और उसके बाढ झंडाभिवादन हुअा। पाषाके नाम उल्लेखनीय हैं। विशेष खुशीकी बात यह है मध्याह्न के समय गाजे बाजे के साथ जलम निकला । जलपके कि पूज्य न्यायाचार्य पं. गणेशप्रमादजी वीके अन्यतम बीच बीमे जलूमका प्रयोजन और जल्मेकी घोषणा एवं शिष्य ३. मनोहरलालजी न्यायतीर्थ भी महारनपुरसे वीरशासनका महत्व बतलाया जाना था। देहली अनाथालय मम्मिलित हुए थे। महिला-समाजम श्रीमती पंडिता की भजनमंडलीके पानेका वचन मिन जानेपर भी ठीक मकिपर जयवन्नी देवी, श्री. गिरनारादवी (ध. १० जा. जुगल. जब कि दूसरी मजनमहनीका प्रबन्ध नहीं हो सकता था, किशोरजी दहली). श्री. कुमारी विमनावती (मुपुत्री बा. निषेधामक पत्र प्राजानम लोगोमे उनके इस वचनभंगके जुगलक्शिारजी) और श्री. भगवनीदेवी महारनपुर भादि प्रति असन्तोष जरूर रहा। इस लिये जलूममे उतना पधारी थी। श्रानन्द नही आ पाया। फिर भी जल्मेका का कार्य दोनों मेंर मगलाचरण और मभाध्यक्ष के चुनावके बाद ही दिन और प्रथम रात्रिको बड़े अच्छे ढंगमे सम्पन हुआ। भापणादिका कार्य प्रारम हुमा । प्रथमन: स्थानीय जैन जनमेके मनोनीत सभापति थे जैन समाजके सुप्रभिद्ध कन्या पाठशालाकी चार बालकाप्रोमा मु दर गायन हुमा । श्रीमान बाबू जयभगवानजी वकील पानीपत।
इसके बाद प. जुगलकिशोरजी मुग्नार, प.परमेष्ठीदामजी, उत्सवमें स्थानीय भाईयोंके अतिरिक्त बाहरसे-दहली, न्यायतीर्थ. स्वामी कानदी, 3. मनोहरलालजी वैद्य पानीपत, मुलनान, मथुरा, महारनपुर, जगाधरी, अब्दुल्लापुर रामनाथजी बा. काशजप्रसादजी, बा. त्रिलोकचंदजीके
और नानौता आदि स्थानीये अनेक सज्जन पधारे थे। प्रभावक भाषण हुप । मुन्नार मा०ने अपना 'महावीर जिनमें बा. जयभगवानजी वकीन, ला. जुगलकिशोरगी संदेश' मुनाया और उसका भाव जनताको समझाया। कागजी (मालिक फर्म ला० धूमीमल धमंदास चावड़ी मुग्लार मा. जब यही है महावीर मंदेश' पद बोलने घेतो बाजार देहबी), बाबू पन्नालालजी अग्रवान, वाबू विमन- उधर महिलाय 'हा' क्या बब दिया उपदेश, पन्य यह प्रसादजी, पंडित परमेष्ठीदामजी न्यायतीर्थ सह सम्पादक महावीर संदेश' पद बोलती थी जो बड़ाही सुन्दर जान 'वीर', स्वामी कर्मानन्दजी, पंडित शंकरलालजी न्यायतीर्थ, पडताधा। पं. परमेष्टीदामजीने एक मालोचनामक अपना बाबू कौशलप्रसादजी, बाबू नेमीचंदजी वकील, बाबू रतन बकम्य दिया। उनके बकव्यमें लोगोंमें कुछ असन्तोष
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हुप्रा।
हुआ जिसके लिये सभापतिजीने पत्रकारको नीति बतलाते सभापतिजीका महत्वपूर्ण अभिभाषण प्रादि हुए। रात्रिक हुए सबसे क्षमा याचना की और कहा कि हमारे अदरसे इस जल्समें दिनकी अपेक्षा ज्यादा उपस्थिति थी और सभी बुराईयां दूर होनी चाहिए । बा. कौशल प्रसादजीने वर्गके लोग ममानभावसे सम्मिलित थे । सभापतिजीने वीर-शामन जयन्ती उत्सवको व्यापक रूपसे मनाने के लिये जैनपुरातत्वपर बहुत ही अच्छा प्रकाश डाला । बतलाया स्थानीय समाजस प्रेरणा की। स्वामी कर्मानंदजीका बहुन कि बारडोली (मारवाड) में वीर सं० ८४ का एक प्राचीन हृदयग्राही सरल भाषामें वीरशासनके सम्बन्धमें भाषण लेख प्राप्त हुआ है जिससे पता चलता है कि उस समय
वीर सवतका व्यापक प्रचार हो ही चुका था। साथ में म. आपने बतलाया कि जब माहादीर पाये थे तब सब महावी का उपदेश भी विहार प्रान्तके बाहर मारवाड़ जैसे त्राहि त्राहि करते थे। मत-मतांतर काफी फैले हुए थे। दूरवर्ती प्रदेशीम विस्तृत रूपसे फैल चुका था। इस तरह भ. महावारने धर्मका प्रचार त्याग और उपदेशस किया सभापतिजीका पूरा ही भाषण बहुत ही महत्वपूर्ण हुआ। था। वृक्षकी तरह हमे अन्तरंग और बहिरङ्ग दोनो ही इसके बाद धन्यवादपूर्वक प्रथम दिनकी कार्रवाई समाप्त तरह की उन्नति करनी चाहिये । आज हम केवल बाहरम की गई। ही अपनी उमति करनी चाहते हैं, अन्तरंगसे नहीं। हम दूसरे दिन इधर महिला समाजकी एक बजे दिनसे दन्थ हिंसाको ज्यादा महत्व देते हैं भावहिंसाको नहीं । श्रीमती गिरनारी देवीजीकी सभाध्यक्षतामें लगातार चार आपने स्यादाद श्रादि विषयोंपर भी सुन्दर विवेचन किया। पांच घंटे अच्छे रूपमें सभा हुई, जिसमें अध्यक्षाजीके इसके बाद स्थानीय कवि प्रोमप्रकाशजी शर्माको चीरशासन अलावा श्रीमती पंडिता जयवन्ती देवी, श्री फूलवाई जयन्ती' के सम्बन्धमें बहुत ही भावपूर्ण ओजस्वी कविता (अध्यापिका जैन पाठशाला सरसावा) कुमारी शांति देवी, (जो इसी अंकमे अन्यत्र प्रकाशित है) हुई।
कुमारी पुष्पा, कौशल कुमारी, शीलादेवी, किरण लता, कुमारी ब्र. मनोहरलालजीने अपने महत्वपूर्ण व्याख्यानमें विमलावती (अध्यक्षाजीकी सुपुत्री)श्रीभगवतीदेवीसहारनपुर, चारित्रपर विशेष जोर दिया । वैद्य रामनाथजी शर्माने श्रीमती मौ० चमेलादेवी, श्रीमती मौ० इन्दुकुमारी हिन्दीरत्न बतलाया कि भ. महावीरकी अनेक विशेषतायोमे एक श्रादिने भाग लिया। इस सभामे दो कार्य विशेष हुए। विशेषता अहिसा है, जिसे उन्होंने अमली जीवन बनाया। एक रेशमके कपड़े पहिननेका त्याग और दूसरा, परिवारमेसे यद्यपि अहिंसा भ. महावीरके पहिले भी थी परन्तु उसका किसीकी मृत्यु हो जानेके उपरान्त ६ महीने तक मन्दिरजी पूर्णत विस्तार और व्यापकता उन्होंने की । अहिंसाको न जानेकी कुप्रथाका त्याग । अध्यक्षाजीने स्थानीय जैन आपने तलवार बतलाया और कहा कि श्राप यदि अहिमा कन्या पाठशालाके लिये ५१) और कुछ महिलाओंने १४) मानते हैं तो इसका म भी पहिनना चाहिये। अन्त में फुटकर प्रदान किये। इस तरह महिलासभा भी महत्वपूर्ण आपने वीरशासन-जयन्तीके उद्गमका सौभाग्य सरसावाके हुई। उधर ३ बजेसे ६ बजे तक बा. जयभगवानजी, होनेपर प्रसन्नता प्रकट की । कुमारी विमलावतीका हारमो- मुख्तार सा०, पनालालजी, ला. जुगल किशोरजी, ला. नियमपर सुन्दर संगीत हुश्रा । अन्तमें मा. पाधाजीका रुढामल जी सहारनपुर, पं. परमानंदजी और मैं इनकी हारमोनियमके साथ त्यागपर गायन होकर शाम के लिये एक मीटिंग हुई। उसमें परस्पर विचार-विनिमय द्वधा। सभाका शेष कार्य स्थगित कर दिया गया।
इस तरह वीरशामनजयन्तिीका यह दोनों दिनका उत्सव ॥ बजे रात्रिको पुन: बा. जयभगवानजीकी अध्य. बहुत आनंद और भगवान महावीरके शासनकी जयध्यनिक्षतामे श्राम जल्सा हुश्रा। जिसमें स्वामी कर्मानन्दजीका के साथ समाप्त हुआ। प्रभावशाली भाषण, मा० पाधाका उपदेशी गायन और वीरसेवामन्दिर, सरसावा दरबारीलाल जैन कोठिया
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जैनजातिका सूर्य अस्त!
उस दिन २१ सितम्बरको, जब मैं महारनपुर जा रहा पर प्रकाश डालूं. उनके स्वभाव परिणाम तथा लोकव्यवथा, मुझे दो कोने कटे पत्र एक साथ मिले-एक चिरंजीव हारको दिखलाऊँ अथवा उनके जीवनमे मिलने वाली कुजतरापका और दूसरा चिरजीव मुखवन्तरायका। दोनो शिक्षायोंका ही निदर्शन करूं? चाकरमें है कि क्या लिखू सुहृदर बाबू मूरजभान मी वकील के पुत्र, और दोनोंके पत्री और क्या न लिव ॥ में एक ही दु.समाचार-१६ सितम्बरको पूज्य पिताजीका फिर भी मैं अनेकान्तके पाठकों को इस समय सिर्फ स्वर्गवास हो गया !' मैं देखकर धकमे रह गया !! महा इतना ही बतला देना चाहता हूं कि प्राज जैन जातिके उम रनपुर गया ज़रूर, परन्नु चिरमाथीके इस वियोग-समाचार महान सूर्यका अम्न हो गया है :से चित्तको ऐमा धक्का लगा कि वह उढाम हो रहा और जो अन्धकारमं लड़ा, जिसने अन्धकारको परास्त किया भूउससे उस्माहके साथ कुछ करते धरते नही बना-जैप तैमे मडलपर अपनेप्रकाशकी किरणे फैलाई. भूले भटकोको मार्ग वहाक कामको निमटाकर चला आया । श्राकर पं० दिखलाया, मार्गके काटी तथा कंकर-पाथराको मुझाया, उन्हें दरबारीलान जीपर इस दुखद समाचारको प्रकट किया और दूरकर मार्गको सुधारने और उसपर चलनेकी प्रेरणा की। बाबुजीके गुणोकी कुछ चर्चा की। पं. परमानन्दजी जिमने लोकहितकी भावनाओं को लेकर जगह जगह नजीबाबाद गये हुए थे-उन्हे महारनपुरसे ही इस भ्रमण क्यिा, समाजकी दशाका निरीक्षण किया, उसकी दुर्घटनाको सूचनाका पत्र दे दिया था । रानको जल्दी ही खराबियोंको मालूम किया और उममें सुधारके बीज बोए । मोनके लिये लेटा और इस तरह चित्तको कुछ हलका करना जिसने मरणोन्मुग्व जैनसमाजकी नब्ज़-नाडीको टटोला, चाहा, तो बाबू साहवकी स्मृतियोने या घेरा-चित्रपटके उमके विकार-कारणोंका अनुभव किया उम्मकी नाडियों में ऊपर चित्रपट खुलने लगे, उनका तांतामा बँध गया, मै रक्तका संचार किया और उसे जीना मिम्बलाया। परेशान होगया और तीन बज गये । आखिर जीवनके
जिसने जनजागृतिको जन्म दिया. मोते हुभांको जगाया, अधिकांश भागका सम्बन्ध ठहरा, इस अर्मेमे न मालूम
कर्तव्यका बोध कराया और कर्नव्यके पालन में बाबजी-सम्बन्धी कितने चित्र हृदय-पटल पर अंकित हुए हैं, निरन्तर मावधान किया। कितने उनमें से हृदयभूमिमें दबे पड़े हैं. कितने विस्मृतिम
जिसके उदित होते ही जैन कमलवनामे हलचल मच घिस घिमर मिट गये अथवा धुंधलेपड़ गये हैं और
गई-मुद्रित पकजोंने निद्रा त्यागी, भानम्य छोड़ा, वे कितने अभी सजीव है, कुछ समझमे नही पाता ! चित्र
विकम्मित हो उठे, अविकमित कलियाँ विकासोन्मुग्व बन पटोंके आवागमनको रोकनेकी बहुत चेष्टा की परन्तु मब
गई, मर्वत्र सौरभ छा गया और उसमे आकर्षित होकर व्यर्थ हई। अन्तको निद्रादेवीने कुछ कृपा की और उसमे
प्रेमी भ्रमरगण मैंडगन तथा गुन-गुनाने लगे । थोडीपी मान्स्वना मिली।
जिमने लोकहदय भूमिपर पड़े और धूल में दबे जैन आज उमी दुःखद समाचारको अनेकान्त में प्रकट करने बीजीको अंकुरित किया, अकुरोंको ऊँचा उठाया-बढ़ाया, का मेरे सामने कर्तव्य पान पहा! मैं सोचता है-श्रदय उन्हें पल्लवित पुष्पित तथा फलित होने का अवसर दिया। बाबू सूरजभानजीके सम्बन्ध में क्या कहूं और क्या न कह? जिमने मुरझाएहुए निराशहृदयोंमे जीवनीशक्तिका सचार उनका शोक मनाऊँ या उनका यशोगान गाऊँ, उनके गुणोंका किया, मिथ्या भयको भगाया और रूदियोके बीहड़ जंगलमे कीर्तन करूं या उनके उपकारोंकी याद दिलाऊँ, उनके कुछ निकलकर निरापदस्थानको प्राप्त करने की ओर संकेत किया। संस्मरण जिखू या उनके जीवनका कोई अध्याय खोजकर जिममे नेज और प्रकाशको पाकर लोक-हदयोंमें रपर, उनके ज्ञान-श्रद्धानकी चर्चा करूँ या उनके आधार-विचार स्फूर्ति उत्पन दुई, जीवन ज्योति जगी, कुरीतियां मिटीं
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अनेकान्त
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और समाज सुधारकी ओर काम ही काम दिखलाई देने हिन्दी साप्ताहिक पत्र जैनगजट'को जन्म दिया है. समाज लगा-सुधारकी लहर सर्वत्र दौड़ गई।
की निद्रा भंग करनेके लिये वकालतके अवकाश-समय में जिसे एक दो बार प्रकाश-विरोधिनी काली काली कई बार स्वयं उपदेशकी दौरा किया है, जिसमें एक बार घटानोंने आ बेग और उसकी गतिको रोकना चाहा, परन्तु मुझे भी शामिल होनेका सौभाग्य प्राप्त हुआ था। जो भागेकी ही बढ़ता चला गया । जिसने उन काली
जैन ग्रन्थों के प्रकाशनका प्रापने ही महान बीड़ा उठाया घटाओंपर ही अपना तेज और प्रकाश फैला दिया, अपनी
था और उसके लिये जानको हथेलीपर रखकर वह गुरुत्तर किरणोंसे उन्हें बेचैन बना दिया-वे तप्तायमान होगई,
कार्य किया है जिसका सुमधुर फल, ज्ञानके उपकरण उद्विग्न हो उठी, रो पड़ी और आखिर छिस भित हो गई।
शास्त्रांकी सुलभप्राप्तिके रूपमें, श्राज सारा जैनसमाज चव इस तरह उन लोगोंको पुनः प्रकाश मिला जो कुछ समय के
रहा है। इस कार्यको सफल बनाने में श्रापको बड़ी बर्ड। लिये प्रकाशसे वंचित हो गये थे । वे अब पहलेसे भी
कठिनाइयों-मुसीबतोका सामना करना पड़ा है. यातनाएं अधिक प्रकाशके उपासक बन गये, प्रकाशदाताके पदचिन्ही
झजनी पड़ी हैं, जानसे मार डालनेकी धमकीको भी सहना पर चलने लगे और प्रकाशन-कार्यको धडाधड भागे
पड़ा है, अार्थिक हानियों उठानी पड़ी है गुरुजनों तथा बढ़ाने लगे।
मित्रोंके अनुरोधको भी टालना पड़ा है, और जातिसं और जिसके प्रकाश-संस्कार अथवा प्रकाश-सन्ततिके
बहिष्कृत होनेका वडवा घूट भी पीना पड़ा है। परन्तु यह फलस्वरूप ही श्राज समाज में अनेक सभा-सोसाइटियों:
सब उन्होंने बही खुशीमे किया-श्रन्तरात्माकी प्रेरणाको प्रकाशनसंस्थाएँ प्रन्थमालाएँ शिक्षासस्था---पाठशालाएँ,
पाकर किया। वे अपने ध्येय एवं निश्चयपर अटल-अडोल विद्यालय, पुस्तकालय, स्वाध्यायमडल, स्कूल, कालिज,
रहे और उन्होंने कई बार अपनी सत्यनिष्ठा एवं तर्कशकिके गुरुकुल, बोर्डिङ्ग हाउस, पत्र-कार्यालय, अनाथालय और
बल पर न्यायदिवाकर पं. पानाजजीको बादमें परास्त ब्रह्मचर्याश्रम आदि प्रकाशकेन्द्र स्थापित होर अपना
किया, जो तबके समाजके सर्वप्रधान विद्वान समजाते थे। अपना कार्य करते हुए नजर आ रहे हैं, जगह जगह नई नई प्रकाशग्रन्थियाँ प्रस्फुटित होकर अपना अपना प्रकाश
इसी सम्बन्ध में उन्हें हिन्दी जैनगटकी सम्पादकीसे दिखला रही है, और प्रकाशके उपासक ऐसी कुछ उस्कण्ठा हस्तीफा देना पदा, जो कि महामभाका पत्र था, और तब व्यक्त कर रहे है जिससे मा. म होता है कि वे प्रकाशकी आपने 'ज्ञानप्रकाशक' नामका अपना एक स्वतंत्र हिन्दीपत्र मूल जननी जिनवाणीमाताको प्रब बन्दीगृहमें नही रहने देंगे जारी किया था इसी अवसरके लगभग चारने देवबन्द में और न उसे मरने ही देगे, जिससे हमारे हम 'सूर्य' ने भी जहां वकालत करते थे, जैन सिद्धान्तोंके प्रचारके लिये एक प्रकाश पाया था और वह प्रकाश-पुज बनकर जननीकी मंडल कायम किया था, जिसके द्वारा कितने ही जैनमन्ध सेवामे अम्रपर हुआ था।
छपकर प्रकाशित हुए हैं। प्रापसे ही प्रोत्तेजन पाकर आपके निःसन्देह, बाबू सूरजभानजी जनजातिकी एक बहत रिश्तेदार (समधी) बाबू ज्ञानचन्द्रजीने लाहौर में जैनबड़ी विभूति थे, उसके अनुपम न थे, भूषण थे और ग्रंथांके प्रकाशनका एक कार्यालय खोला था, जिसमें भी गौरव थे। वे स्वभावसे उदार थे, महामना थे, निष्कपट थे. कितने ही ग्रन्थ प्रकाशित हुए हैं, और साथ ही हिन्दी में सत्यप्रेमी थे. गुणग्राही थे और सेवाभावी थे । उनका प्रायः मालिक रूपसे एक 'जैनपत्रिका' भी जारी की थी। सारा जीवन जैनसमाजकी नि:स्वार्थ-सेवा करते बीता है। मेरे देवबन्दमें मुख्तारकारी करते हुए, आपने ही मुझे उन्होंने बड़े बड़े सेवाकार्य किये हैं-मृतप्राय दिगम्बर जैन महासभाकी ओरसे मिले हुए हिन्दी जैनगजटकी सम्पादकी महासभा में जान डाली है. जैनियोंको जगानेके लिये सबसे के प्रोफ़र (offer) को स्वीकार करने के लिये बाध्य किय पहज्जे उर्दू में 'जैन-हित-उपदेशक' नामका मासिक पत्र था, और इस गरह जैनगजटको फिरसे उसकी जन्मभूमि निकाला है और उसके बाद (दिसम्बर सन् १८.५ मे) (देवबन्द) में बुलाकर उसके द्वारा अपनी कितनी ही सेवा
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किरण ११-१२]
जैन जातिका सूर्य अस्त !!
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भावनाको पूरा किया था । श्राप उसमे बराबर लेख तथा लेखोंको लेकर जब समाजने उनका पुन बहिष्कार लिखा करते थे और अपने सस्पगमों द्वारा मेरी सहायता किया, और इस तरह उनके विचारों को दबाने कुचजने का किया करते थ । उस समय 'प्रार्यमतकी लीला' नामसे जो कुस्मित मार्ग अख्तियार किया तथा उनके सारे किये कराये एक लम्बी लेखमाला प्रकाशित हुई थी उसके मूल लेखक पर पानी फेरकर कृतघ्नताका भाव प्रदर्शित किया, तब उन्हें श्राप ही थे।
उसपर बढ़ा खेद हुश्रा और उनके चित्तको भारी प्राघात ___समाजपेवाके भावोसे प्रेरित होकर ही आपने मेरे
पहुँना, जिसे वे अपनी वृद्धावस्थाके कारण सहन नहीं कर मुख्तारकारी छोडनेके साथ-एक ही दिन १२ फरवरी सन्
मके । और इस लिये कुछ समय बाद सामाजिक प्रवृत्तियों १६१४ को-खूब चलती हुई वकालतको छोडा था। और
स ऊबर अथवा उद्विग्न होकर उन्होंने विरक्ति धारण तबपे श्राप सामाजिक उत्थानके कार्योमें और भी तत्परताके
करली। उनकी यह विरक्ति उन्हीके शब्दों में बारह वर्ष तक साथ योग देने लगे थे-जगह जगह जाना भाना, सभा.
स्थिर रही। इस अर्से में, वे कहते थे, उन्होंने कुछ नही सोसाइटियोंमे भाग लेना, लेख लिखना, पत्रव्यवहार करना
लिखा, लेखनीको एकदम विश्राम दे दिया और पुत्रों के पास आदि कार्य आपके बढ़ गये थे। कुछ समयके लिये घरपर
रहकर उनके बच्चोम ही चित्तको बहलाने रहे। कन्यापाठशाला ही श्राप ले बैठे थे, जिसकी एक कन्या
आस्विर उनकी यह विरक्ति तबभंगहई जब लगातारके मेरे वर्तमान में प्रसिद्ध कार्यकर्ती लेखवती जैन है । खतौलीके
अनुरोध और प्राग्रहपर वे वीर सेवामन्दिग्में भा गये। यहां दस्मा बीमा केसमे विद्वद्वर पं. गोपाल दासजीका सहयोग
श्राते ही उनकी लेखनी फिर चल पड़ी, उनमें जवानीका. प्राप्त कर लेना और दस्सोंक पक्षमे उनकी गवाही दिला
मा जोश प्रागया--जिम वे 'बामी कदीमें फिरसे उबाल देना भी प्रापका ही काम था। पं०गोपालदासजीक बाईकाट
भाना' कहा करते थे--और उन्होंने लेख ही लेख लिख अथवा बहिष्कारको विफल करने में भी प्रापका प्रधान हाथ रहा है।
डाले । इन लेखोंपे अनेकान्तके दूसरे तथा तीसरे वर्षकी ऋषभ ब्रह्मचर्याश्रम हस्तिनापुरमें पहुँचकर अापने फाइल भरी हुई हैं और उनसे अनेकान्तक पाठकोंको बहुत उसकी भारी सेवाऐं की हैं, और जब यह देखा कि उसमें लाभ पहुंचा है। हम दो -ढाई वर्षके अमें उन्होंने अने. कुछ ऐसे व्यक्यिोंका प्राबल्य होगया है जो समाज के हिता- कान्तको ही लेख नहीं दिये बल्कि दुसरे जैन तथा अजैन हितपर ध्यान न रखकर अपनी ही चलाना चाहते हैं और पत्रोको भी कितने ही लेग्व दिये हैं। इसके अलावा, यहाँ उनकी सुनने को तय्यार नहीं, तब आपने उस छोड दिया रहते उन्होंने वीरमवामन्दिरकी कन्यापाठशालामें कन्याओं
और दूसरे रूपमे समाजकी सेवा करने लगे । वे अपने का शिक्षा भी दी है, मन्दिरमें लोगोंक प्राग्रहपर उन्हे दो विचारके धनी थे, धुनके पक्के थे और अपने विचारोका दो वटे रोजाना शास्त्र भी सुनाया है और प्राश्रमके विद्वानों खून करके कुछ भी करना नहीं चाहते थे।
मंचर्चा-वामि जब जुट जाते थे तो उन्हें छका देते थे। सत्योदय, जैनहितैषी और जैनजगत ग्रादि पत्रोंमे वे श्रापकी वाणमि रम था, माधुर्य था, भोज था और तेज था। बराबर लिखते रहे हैं और अपने विचारोको उनके द्वारा कुछ कौटुबिक परिस्थितियों के कारण भापको लगभग व्यक्त करते रहे हैं। उन्होंने सैकडो लेख लिग्य और 'ज्ञान ढाई वर्षके बाद वीरमवामन्दिरको छोडना पर -मापके सूर्योदय' आदि पचासों पुस्तके लिख डाली । लेखनकलामे भाई बा. चेतनदासजी वकीलको फालिज ( लकवा ) पद वे बडे सिद्धहस्त थे, जल्दी लिख लेने थं और जो कुछ गया था, उनकी तीमारदारीके लिये भापको उनके पास लिखते थे युक्ति पुरस्सर लिखते थे तथा समाजकं हितकी (देवयन्द) जाना पदा और फिर चि० मुग्ववन्तरायकी परिभावनासे प्रेरित होकर ही लिखते थे--भले ही उममें स्थितियोंके वश उसके पास देहली कंट, देहरादून तथा उनसे कुछ मूल तथा ग़लतिय हो गई हों. परन्तु इलाहाबाद रहना पड़ा । तदनन्तर चि. कुलवन्तराय उन उनका उद्देश्य बुरा नहीं था।
डालमियानगर ले गया, जहाँ उनकी बीमारीका कु' मादिपुराण-समीक्षादि जैसी कुछ पालोचनामक पुस्तकों समाचार सुन पहा, और अन्तको कलकत्तमें जाकर "
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अनेकान्त
[ वर्ष ७
और समाजमें सुधारकी ओर काम ही काम दिखलाई देने हिन्दी साप्ताहिक पत्र 'जैनगजट'को जन्म दिया है. समाज लगा ---सुधारकी लहर मर्वत्र दौड़ गई।
की निद्रा भंग करनेके लिये वकालतके अवकाश-समयम जिसे एक दो बार प्रकाश-विरोधनी काली काली कई बार स्वयं उपदेशकी दौरा किया है, जिसमें एकबार घटानाने प्राबेग और उसकी गतिको रोकना चाहा, परन्तु मुझ भी शामिल होनेका सौभाग्य प्राप्त हुआ था। जो भागेकी ही बढ़ता चला गया । जिसने उन काली
जैनग्रन्थों के प्रकाशनका आपने ही महान बीड़ा उठाया घटाघोंपर ही अपना तेज और प्रकाश फैला दिया, अपनी
था और उसके लिये जानको हथेलीपर रखकर वह गुरुतर किरणोंसे उन्हें बेचैन बना दिया-वे तप्तायमान होगई,
कार्य किया है जिसका सुमधुर फल, ज्ञानके उपकरण उद्विग्न हो उठी, रो पड़ीं और पारिखर छिन्न भित हो गई।
शास्त्रोंकी सुलभप्राप्तिके रूपमें, श्राज सारा जैनसमाज चख इस तरह उन लोगोको पुनः प्रकाश मिला जो कुछ समय के
रहा है। इस कार्यको सफल बनाने में श्रापको बड़ी बड़ी लिये प्रकाशसे वंचित हो गये थे । वे अब पहलेसे भी
कठिनाइयों-मुसीबतोंका सामना करना पड़ा है, यातनाएं अधिक प्रकाशके उपासक बन गये, प्रकाशदाताके पदचिन्हो
झजनी पड़ी है, जानसे मार डालनेकी धमकीको भी सहना पर चलने लगे और प्रकाशन-कार्यको धदाधर श्रागे
पहा है, अार्थिक हानियों उठानी पड़ी है गुरुजनों तथा बढ़ाने लगे।
मित्रों के अनुरोधको भी टालना पड़ा है, और जातिमे ___ और जिसके प्रकाश-संस्कार अथवा प्रकाश-सन्ततिके
बहिष्कृत होनेका वडवा घूट भी पीना पड़ा है। परन्तु यह फलस्वरूप ही श्राज समाज में अनेक सभा-सोमाइटियों;
पब उन्होंने बड़ी खुशीसे किया-अन्तरात्माकी प्रेरणाको प्रकाशनसंस्था, ग्रन्थमालाएँ, शिक्षासंस्थाएँ--पाठशालाएँ,
पाकर किया। वे अपने ध्येय एवं निश्चयपर अटल-ढोल विद्यालय, पुस्तकालय, स्वाध्यायमंडल, स्कूल, कालिज,
रहे और उन्होंने कई बार अपनी सत्यनिष्ठा एवं तर्कशफिके गुरुकुल, बोर्डिङ्ग हाउस, पत्र-कार्यालय, अनाथालय और
बल पर न्यायदिवाकर पं० पसानालजीको बादमे परास्त ब्रह्मचर्याश्रम प्रादि प्रकाशकेन्द्र स्थापित होकर अपना
किया, जो तबके समाजके सर्वप्रधान विद्वान समझजाते थे। अपना कार्य करते हुए नज़र आ रहे हैं, जगह जगह नई नई प्रकाशग्रन्थियों प्रस्फुटित होकर अपना अपना प्रकाश इसी सम्बन्धमें उन्हें हिन्दी जैनगाटकी सम्पादकीसे दिखला रही हैं, और प्रकाशके उपासक ऐमी कुछ उत्कण्ठा इस्तीफा देना पदा, जो कि महासभाका पत्र था, और तब व्यक्त कर रहे हैं जिससे मा. म होता है कि वे प्रकाशकी आपने 'ज्ञानप्रकाशक' नामका अपना एक स्वतंत्र हिन्दीपत्र मूल जननी जिनवाणीमाताको प्रब बन्दीगृहमें नही रहने देंगे जारी किया था इसी अवसरके जगभग पारने देवबन्द में, श्रीर न उसे मरने ही देंगे, जिससे हमारे इस 'सूर्य' ने भी जहां वकालत करते थे, जैन सिद्धान्तोंके प्रचारके लिये एक प्रकाश पाया था और वह प्रकाश-पुरुज बनकर जननीकी मंडल कायम किया था, जिसके द्वारा कितने ही जैनग्रन्ध सेवामे अग्रपर हुआ था।
छपकर प्रकाशित हुए हैं। प्रापसे ही प्रोत्तेजन पाकर श्राप के निःसन्देह, बाबू सूरजभानजी जैनजातिकी एक बहुत रिश्तेदार (समधी) बाबू ज्ञानचन्द्रजीने लाहौर में जैनबड़ी विभूति थे, उसके अनुपम न थे, भूषण थे और ग्रंथोंके प्रकाशनका एक कार्यालय खोला था, जिसमें भी गौरव थे। वे स्वभावसे उदार थे, महामना थे, निष्कपट थे. कितने ही ग्रन्थ प्रकाशित हुए हैं, और साथ ही हिन्दी में सत्यप्रेमी थे. गुणग्राही थे और संवाभावी थे । उनका प्रायः मासिक रूपसं एक 'जैनपत्रिका' भी जारी की थी। सारा जोवन जैनसमाजकी निःस्वार्थ सेवा करते बीता है। मेरे देवबन्दमें मुख्तारकारी करते हुए, आपने ही मुझे उन्होंने बड़े बड़े सेवाकार्य किये हैं--मृतप्राय दिगम्बर जैन महासभाकी ओरसे मिले हुए हिन्दी जैनगजटकी सम्पादकी महासभामे जान डाली है; जैनयोंको जगाने के लिये सबसे के प्रोफ़र (offer) को स्वीकार करने के लिये बाध्य किया पहजे उर्दू में 'जैन-हित-उपदेशक' नामका मासिक पत्र था, और इस गरह जैनगजटको फिरसे उसकी जन्मभूमि निकाला है और उसके बाद (दिसम्बर सन् १८१५ में) (देवबन्द) में बुलाकर उसके द्वारा अपनी कितनी ही सेवा
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किरण ११:१०]
जैन जातिका सूर्य अस्त !
भावनानोको पूरा किया था । आप उसमें बराबर लेख तथा लेखोंको लेकर जब समाजने उनका पुन बहिष्कार लिखा करते थे और अपने सत्पगमों द्वारा मेरी महायता किया, और इस तरह उनके विचारोंको दबाने कुचलनेका किया करते थ । उस समय 'आर्यमतकी लीला' नाममे जो कुरिमत मार्ग अख्तियार किया तथा उनके सारे किये कराये एक लम्बी लेखमाला प्रकाशित हुई थी उसके मूल लेखक पर पानी फेरकर कृतघ्नताका भाव प्रदर्शित किया, तब उन्हे श्राप ही थे।
उसपर बड़ा खेद हुया और उनके चित्तको भारी श्राघात समाजसेवाके भावोमे प्रेरित होकर ही आपने मेरे
पहुँचा, जिस वे अपनी वृद्धावस्थाके कारण सहन नहीं कर मुख्तारकारी छोड़ने के साथ-एक ही दिन १२ फरवरी सन्
पके । और इस लिये कुछ समयके बाद सामाजिक प्रवृत्तियों १९१४ को-खूब चलती हुई वकालतको छोडा था। श्रीर
में ऊबार अथवा उद्विग्न होकर उन्होंने विरक्ति धारण तब प्राप सामाजिक उन्धानके कार्यों में और भी तत्परताके
करली। उनकी यह विरकि, उन्हीके शब्दों में बारह वर्ष तक साथ योग देने लगे थे-जगह जगह जाना श्राना, मभा.
म्धिर रही। इस अर्मे में, वे कहते थे, उन्होंने कुछ नहीं पोसाइटियोंमें भाग लेना, लेख लिखना, पत्रव्यवहार करना
लिखा, लेखनीको एकदम विश्राम दे दिया और पुत्रोंके पास आदि कार्य आपके बढ़ गये थे। कुछ समयके लिये घरपर
रहकर उनके बच्चोंस ही चित्त को बहलाने रहे। कन्यापाठशाला ही श्राप ले बैठे थे, जिसकी एक कन्या
अाखिर उनकी यह विरक्ति तब भंग हुई जब बगातारके मेरे वर्तमानमें प्रसिद्ध कार्यकत्री लेखवती जैन है । खतौलीक
अनुरोध और श्राग्रहपर वे वीरसेवामन्दिरमें मा गये। यहां दस्सा बीमा केसमें विद्वद्वर पं. गोपालदासजीका सहयोग
श्राते ही उनकी लेखनी फिर चल पड़ी, उनमें जवानीका. प्राप्त कर लेना और दस्मौके पक्षमे उनकी गवाही दिला
मा जोश आगया--जिम वे 'वामी कदीमें फिरसे उबाल देना भी प्रापका ही काम था। पंगोपालदासजीक बाई काट
श्राना' कहा करतेध---और उन्होंने लेख ही लेख लिख अथवा बहिष्कारको विफल करनेमें भी प्रापका प्रधान हाथ रहा है।
डाले । इन लेखोंमे अनकान्तके दूसरे तथा तीसरे वर्षकी ___ ऋषभ ब्रह्मचर्याश्रम हस्तिनापुरमे पहुँचकर अापने फाहले भरी हुई हैं और उनमें अनेकान्त के पाठकों को बहुत उसकी भारी सेवाएँ की है, और जब यह देखा कि उममे लाभ पहुंचा है । इम दो-ढाई वर्ष के अर्से में उन्होंने अनेकुछ ऐसे व्यक्यिोंका प्राबल्य होगया है जो समाज के हिता- कान्तको ही लेख नहीं दिये बल्कि दुसरे जैन तथा अजैन हितपर ध्यान न रखकर अपनी ही चलाना चाहते हैं और पत्रीको भी कितने ही लेख दिये हैं। इसके अलावा, यहो इनकी सुननेको तय्यार नहीं, तब आपने उसे छोड दिया रहने उन्होंने वीरसेवामन्दिरकी कन्यापाठशालामें कन्याओं
और दूसरे रूपमे समाजकी सेवा करने लगे । वे अपने को शिक्षा भी दी है, मन्दिर में लोगोंक प्राग्रहपर उन्हें दो विचारके धनी थे. धुनके पक्के थे और अपने विचारोका दो घटे रोजाना शास्त्र भी सुनाया है और प्राश्रमके विद्वानों खून करके कुछ भी करना नहीं चाहते थे।
म चर्चा-यामि जब जुट जाते थे तो उन्हें छका देते थे। सत्योदय, जैनहितैषी और जैनजगत यादि पत्रीमे वे श्रापकी वाणमि रम था, माधुयं था, योज था और तेज था। बराबर लिखते रहे हैं और अपने विचारोको उनक द्वारा कुछ कोटुम्बिक परिस्थितियोंके कारण भापको लगभग व्यक्त करते रहे हैं। उन्होंने सैकड़ों लेख लिखे और 'ज्ञान ढाई वर्ष के बाद वीरवान्दिरको छाना पका- पापके सूर्योदय' श्रादि पचासों पुस्तके लिख डाली । लेखनकलाम भाई बा० चेतनदामजी वकीलको फालिज (लकवा) पर वे बड़े सिद्धहस्त थे, जल्दी लिख लेते थे और जो कुछ गया था, उनकी तीमारदारीके लिये भापको उनके पास लिखते थे युक्ति पुरस्सर लिखते थे तथा समाजके हितकी (देवबन्द) जाना पड़ा और फिर चि. सुग्यवन्तरायकी परिभावनासे प्रेरित होकर ही लिखते थे--भले ही उममें स्थितियोकं वश उसके पास देहली केट, देहरादून तथा उनसे कुछ मूले तथा ग़लतिय हो गई हो. परन्तु इलाहाबाद रहना पड़ा । तदनन्तर चि. कुलवन्तराय उमे उनका उद्देश्य बुरा नहीं था।
डालमियानगर ले गया, जहां उनकी बीमारीका कु: प्रादिपुराण-समीक्षादि जैसी कुछ मालोचनात्मक पुस्तकों समाचार सुन पहा, और अन्तको कलकत्तेमें जाकर ।
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अनेकान्त
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[व.
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सितम्बरकी संध्याके समय ७७ वर्ष की अवस्थामें उनकी बा. पन्नालालजी अग्रवाल देहली मंत्री वरसेवामन्दिरने यह जीवन-लीला समाप्त होगई और इस तरह जैनजाति उन्हें लेखक लिये प्रेरणा की थी तो उन्होंने एक लेख उन के एक महान सवक 'सूर्य' का सदाके लिये अस्त होगया!!! के पास भेजा था, जो संभवत: उनका अन्तिम लेखगा,
भले ही आज बाबूजी अपने भौतिक शरीरमे नही हैं, उनके विचारोंका प्रतीक था और जिससे जाना जाता है कि परन्नु अपने साहित्य-शरीरमे वे आज भी जीवित समाज के प्रति उनकी लगन और शुभ भावना बराबर बनी विद्यमान हैं और जब तक उनका यह साहित्य रहेगा वे रही है। मालूम नही वह लेख अब किसके पास है, उसको अमर रहेंगे तथा लोकको प्रकाश देते रहेंगे।
प्रकाशित करना चाहिये। अपने इस पिछले चार वर्षक जीवनमे यद्यपि उनमे इममें सन्देश नहीं कि बाबू सूरजभानजी समाजके उपर समाजकी कोई खाम मेया नहीं बन सकी । एक दो बार अपनी संवाओं तथा उपकारोंका एक बहुत बड़ा ऋण छोड़ लेखोंके लिये जो उन्हें प्रेरणा की, तो उन्होने यही कहा कि गये हैं। और इस लिये उससे उऋण होनेके लिये समाज 'काम ठियेपर बैठकर ही होता है, यहाँ मेरे पास कोई का कर्तव्य है कि वह उनका कोई अच्छा स्मारक खडा करे साधन नही' फिर भी वे समाजके कामोंमे कुछ न कुछ और उनके उमसाहित्यका संरक्षण एव एकत्र प्रकाशन करें । भाग बराबर लेते रहे हैं। एक बार देवबन्दम वीरशामन जो समाजके उत्थान और सको नवजीवन प्रदान करने में जयन्तीके उत्सव में परमावा पधारे थे । और पिछले कल- सहायक है।
दुःखितहृदय साम होने वाले वीर-शासन-महोत्सबके लिये जब
जुगलकिशोर मुख्तार
बाबू सूरजभानजीके वियोगमें शोकसभा तार्गस्त्र २८ मितम्बरको वीग्मेवामन्दिर सरमावामे बाबु नानक चन्दजी जैन रिटायई श्रोवरसियरके मभापतित्वम जैन समाज के पगने कर्मट नेता यौर मादित्यसेवी बाब माजभान जी वकीलके १६ मितम्बरको कलकत्ताम हुए वियोगम शोक.मभा की गई, जिसमे श्रीमान पं. जुगलकिशोर जी, पं. परमानन्दजी शास्त्री, लाला महाराजामादजी, सभापतिजी और मैंने बाब माहबके कार्यो और जीवनीपर प्रकाश डाला तथा हार्दिक शोक प्रकट करते हुए श्रद्वाजनियाँ अर्पण की। और निम्न शोक-प्रस्ताव पास करने के अनन्तर मबने पांच मिनट खड़े होकर स्वर्गीय श्रात्माके लिये शान्तिकी भावना की।
-दरबारीलाल जैन, कोठिया।
शोक-प्राताव जैनसमाजके वृद्ध साहित्यमेवी और वर्तमान प्रवृत्तियों के अग्रदूत एवं निर्भीक कर्मठनेता बाबू सूरजभानजीका ७७ वर्षकी अवस्थामे जो कलकत्तामें १६ सितम्बर सन् १९४५को वियोग होगया है उससे जैन समाजकी भारी क्षति हुई है, जिसकी पूर्ति होना बहुत ही कठिन है। उन्होंने जैनसमाज और जैन साहित्यके लिये चिरस्मरणीय संवाएँ की हैं। जैन ग्रन्थोंके प्रकाशनकी प्रवृत्तिका श्रेय तो खास रहीको है। खेद है कि जैनसमाज बाबू साहबकी सेवाओंके उपलक्ष में मम्मानादिके रूपमें उनके सामने कोई खास कार्य नहीं कर पाया और उमके दिली अरमान दिल में ही रह गये ! अब समाजको उनकी महान् सेवाओंको लक्ष्य में रखते हुए उनका कोई स्मारक अवश्य ही बनाना चाहिये। उनके वियोगसे समाजको जो ख हुआ है वह अवर्णनीय है। आजकी यह वीरसेवान्दिरके विद्वानों और स्थानीय जैनसमाजकी सभा के वियोगपर हार्दिक शोक व्यक्त करती है और स्वर्गीय श्रात्माके लिये परलोकमें शान्ति-सुखकी कामना ती हुई उनके पुत्रों तथा कुटुम्बी जनों के प्रति अपनी दिली समवेदना प्रकट करती है।
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वीर-सेवा-मन्दिरको सहायता २५) श्रीमती जयवन्तीदेवी, नानौता जि० सहारनपुर श्रीदादी
जीके दानमेसे। गत किरण नं. ७-८में प्रकाशित सहायताके बद २) श्रीदिगम्बर जैन पंचान सरसावा (दशलक्षण पर्वक बीरसेवामन्दिर सरमावाको साधारण सदस्य फीसके अलावा - उपलक्षण)। व्यवस्थापक, अनेकान्त जो सहायता प्राप्त हुई। वह क्रमशः निम्न प्रकार है. और ३२ उसके लिये दातार महानुभाव धन्यवारके पात्र हैं:- बीरसेवामंदिर-लायब्रेरीको सहायता-वचन १२५) बाबू निर्मलकुमारजी जैन रईस भारा (आजीवन
नजीबाबाद जि. बिजनौरके जैन संस साहू अजित. सदस्य फीम)
प्रसादजीके सुपुत्र साहू प्रकाशचन्द्रजीने दशलक्षण पर्वक १०१) ५०१ बाबू राजकृष्ण हरिचन्दजी जैन, दरियागंज
अवसर पर पं. परमानन्दजी शास्त्रीकी प्रेरणाको पाकर देहली, अध्यामकमलमार्तण्डकी मिर्फ छपाई. पंचाई
वीरसंवामन्दिर लायब्रेरीको श्री नगेन्द्रनाथ वसुका 'हिन्दी और कागज खर्च ७६७)in के मध्ये ।
विश्वकोष', जो हिन्दीका सबसे बड़ा कोष है और अब तक २५१॥) श्रीमती गेंदोबीबीजी धर्मपत्नी श्रीमान् लाला
जिसकी २२ जिल्दं प्रकाशित हो चुकी हैं, खरीदकर देनेका पमालालजी जैन, मानिक फर्म जैनी ग्रादर्स, बतौर
वचन दिया है। इस कृपा एवं उदारताके लिये आप हार्दिक कुल खर्च छपाई बंधाई प्रादि प्रभाद्रीय
धन्यवाद के पात्र हैं। प्राशा है दूसरे सजन भी इसी तरह तन्वार्थसूत्र ।
अपने सहयोग-द्वारा इस लायब्रेरीको समृद्ध बनाने का पूरा 1) गुप्तमहायता, देहलीके एक मानकी पोरसे।।
प्रयत्न करेंगे। २१.) श्रीसकल दिगम्बरजैन पंचान कलकत्ता गत वि० सं० २००५के भादोमाय में निकाले दुए दान मेंसे)।
जरूरी सूचना ५१) श्रीदिगम्बर जैन पंचान सरसावा, जि. सहारनपुर
पिछली किरणके साथ अनेकान्त के छठे वर्षकी वह दशलक्षणपर्वके उपलक्षमें। ११) श्रीदिगम्बर जैन समाज नजीबाबाद जिला बिजनौर,
वार्षिक विषय-सची भेजी गई है जो कंट्रोल प्रारकी वजह दशलक्षणापर्व के उपलक्ष में, मार्फत पं० परमानन्द
से छठे वर्ष के अन्त में नहीं दी जा सकी थी. माहक जन उसे भी जैन शासी सरसावा।
छठे वर्षकी फाइक में लगाने । जो सजन छठे वर्ष में प्राहक १.) दिगम्बरजैनसमाज नजीबाबाद सफर खर्चकी सहा.
न रहे हों उन्हे कृपाकर वह सी अपने निकटवर्ती उन
ग्राहकों से किसीको देदेनी चाहिये जो छठे वर्ष में तो ग्राहक यता मार्फत श्री पं० परमानन्दजी।
हो किन्तु सातवे वर्ष में ग्राहक न रहे हों। सात वर्षकी १.१) श्रीमती पद्मावतीदेवी धर्मपत्नी स्व. साहू सुमति
वार्षिक विषय-सची इस किरण के साथ दी गई है, जिसे --- प्रसादजी जैन नजीबाबाद, जिला बिजनौर (प्रन्थ
जिल्द बंधाते समय निकाल कर शुरूमें बगा लेना चाहिये। 1४४२ मालाकी सहायतार्थ, अध्यात्म-कमल मार्तयटकी
-प्रकाशक प्रतियां अपनी ओरम कुछ जैन मन्दिरों तथा संस्थानों को फ्री भिजवाने के लिये मार्फत पं० परमा- अनेकान्तके प्रेमियोंसे निवेदन नन्द जैन शास्त्री सरसावा। अधिष्ठाता, वीरसेवामन्दिर अनेकात के प्रथम, चतुर्थ पंचम षष्ठम और सप्तम
वर्षकी कुछ फाइलें विक्रियार्थ मौजूद हैं जिन महानुभावोंको अनेकान्तको सहायता
भावश्यकता हो वे आर्डर देकर उन्हें मंगवा लेवे। अन्यथा
कुछ समय बाद इनका मिलना भी दुष्कर हो जायगा। पिछली किरया में प्रकाशित सहायताके बाद अनेकान्त
२ अनेकाम्तके चतुर्थ और पंचम वर्षके विशेषांकोंको को जो सहायता प्राप्त हुई। वह क्रमश: निम्न प्रकार है,
कुछ कापियों भी विक्रियार्थ अवशिष्ट हैं । प्रत्येक विशेषांक का जिपके लिये दातार महानुभाव धन्यवाद के पात्र हैं- मुल्य है। आर्डर देने वालोंको प्रचारकी दृष्टिसे रिया५) बाबू रामगोपालजी जैन बाहौर, मार्फत पं. अजित- यती मूल्य ।) में की अंक दिया जायगा। कुमारजी जैन शास्त्री, मुखतान ।
व्यवस्थापक, अनेकान्त
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