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भनेकान्त
[वर्ष
करण, संगीन, शिल्पशास्त्र-स्यात् ही कोई विषय ऐसा शाक्यवंश प्रायः नष्ट होगया था। सिकन्दर और मेगस्थनीज़ बचा इ. जिसार जेनविद्वानोंने सफलतापूर्वक कलम चला के समय बौद्ध सम्प्रदाय कुछ एक "झगडालु व्यक्तियों" का कर भारतीके भंडारको समृद्ध एवं अलंकृत न किया हो। सामान्य सा सम्प्रदाय मात्र था । अशोकके समय तक स्थान्त्य, मूर्ति, चित्र, नाटक, संगीत, काव्य सर्व प्रकारको बौद्ध तीर्थोपर राज्यकी अोरसे यात्री कर लगा हुआ था। ललित कलाप्रोमें जैनोंने नायकत्व किया । इस सबके इस सम्प्रदायके प्रति शासनकी कठोरता और उपेक्षाके प्रमाण उपलब्ध जैनसाहित्य और परातत्वमे पर्याप्त मिलते हैं। कारण उस समयके बौदधर्माध्यक्ष तिस्मने बौद्ध भिक्षों
भाषायों और लिपिक विकासमें सर्वाधिक भाग जैनोंने को देशान्तरमें सो भी उजडु, असभ्य सुदूर प्रदेशोमें जाकर ही लिया और इसी जैनयुगमें। ब्राह्मालिपिका आविष्कार निवास करने और धर्म प्रचार करनेकी श्राज्ञा दी। इस देश कहा जाता है भगवान ऋषभदेवने किया था, किन्तु वह में तो मात्र कुछ कट्टर बौद्ध भिक्षुओंने जैसे तैसे अपना हमारे युगसे पूर्वकी बात है, तथापि ब्राह्मी लिपिका सर्व अस्तित्व बनाये रखा और जब जब राज्यक्रान्तियों अथवा प्रथम उपयोग अधिकतर जैनोंद्वारा ही हुश्रा मिलता है। सामाजिक उथल-पुथलके कारण उन्हें सुयोग मिला, महेन्नादडोके मुद्रालेखोंके अतिरिक्त ई० पूर्व ५वीं शतान्दी उन्होंने अपना धार्मिक स्वार्थसाधन किया, किन्तु विशेष का बड़ली अभिलेख, मौर्यकालीन गुहाभिलेख, सफल फिर भी न होसके, और इसी युगमें सन् ई० ७वीं ८वी शिनाभिलेख, स्तंभले वादि, खारवेल के अभिलेख, गुजरात शताब्दी तक इस देशसे उनका नामशेष होगथा। सीमान्त यथा दक्षिणके अमिलेग्व इसके साक्षी है । देशके प्रदेशोंमे तथा बाह्यदेशोंमे अवश्य ही वह शक, हूण, मङ्गोल कोने कोनेमे और प्रधान एवं महत्वपूर्ण स्थानोंमें जैन- आदि विदेशी आक्रान्ताश्रीको प्रभावित कर अपनी शक्ति तीर्य उसी प्राचीन कालले चले श्राते है । ब्राह्मीसे नागरी बढ़ाने के प्रयत्नमें लगे रहे । सिंहल, पूर्वाभिद्वीपसमूह, स्वर्णलिपिका विकास जैन विद्वानों द्वारा ही हुश्रा । स्थापत्य-कला द्वाप (मलाया), ब्रह्मा, चीन, जापान, तिब्बत मङ्गोलिया की नागरशैलीके अधिष्ठाना भी वही थे । चित्रकलाका आदिमे अवश्य ही अत्यधिक सफल हुए, ठीक उसी तरह शुद्ध भारतीय प्रारंभ भी इन्होंने किया । स्तूप, गुफाये, चैत्य, जैस १५ वी १६ वी शताब्द में इगलैंडसे बहिष्कृत, राज्य मन्दिर, मूर्ति इत्यादिके प्रथम जन्मदाता इस जैन युगक और प्रजा दोनों द्वारा पीड़ित थाड़ेसे धर्मयात्री Pirim जैन ही थे।
Falliers) आज अमरीका जैमा महाशक्तिशाली राष्ट्र ममा नपवस्था, नथा आधुनिक जातियोंकी पूर्वज व्य- निर्माण करने में सफल होगये। वसायिक श्रेणियों और निगमोंका संगठन एवं निर्माण जैन जैनों की प्राजकी राजनैतिक, सामाजिक स्थिति, अल्प युगमे जैन नीतिशास्त्रके प्राचार्यो तथा जैन गृहस्थ मंख्या, अपने महत्वको स्वयं न समझने तथा अपने प्राचीन व्यवसायिक द्वारा ही हुश्रा।
साहित्य के अमूल्य रत्नोको प्रकाशित न कर तालेमे बन्द जन व्यापारियों तथा श्रमणाचार्यों द्वारा भारतका भंडारोंमे कीड़ोका ग्रास बनाने, पुरातत्वसंबंधी अमूल्य निधि प्रकाश भारतेतर देशों तक फैला, वृहद् भारतके निर्माणमें को न पहचानने और जानने का यत्न न करने आदिसे उन इनका पूरा पूरा हाथ था।
के इस युगमे प्राप्त महत्व तथा प्रधानताका अनुमान करना देशके कोने कोनेसे उस युग सम्बन्धी जैन स्मारक श्राज तनिक कठिन है । किन्तु निष्पक्ष इतिहासप्रेमीको अब भी भी उपलब्ध है, और चाहे अल्प अल्प संख्यामे हो देश इम लेखमे विवेचित तथ्योंकी साक्षीमे पर्याप्त प्रबल प्रमाण के प्रत्येक भागमें जैनांका अस्तित्व है।
मिल सकते हैं और मिलते हैं। किसी जातिकी वर्तमान हीन वास्तवमें बौद्धधर्मकी स्थिति तो उस युगमें जहाँ तक अवस्थासे यह निष्कर्ष निकालना कि यह सदैवसे वैसी ही भारतवर्षका संबंध प्राय: नगण्य ही थी । गौतमबुद्धका रही होगी युक्तियुक्त नहीं है । महात्मा ईसाके पश्चात् भी स्वयं तत्कालीन राज्य-वंशोपर कोई प्रभाव नहीं पड़ा, उनके १ यह कर अशोकने माफ किया बताया जाता है-देखो जीवनकाल में ही उनके पिनाका राज्य, राजधानी तथा अशोकके गौण शिलालेख ।