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अनेकान्त
[वर्ष ७
में प्रारंभ होने वाले इरिवंशके श्रादिमें श्रा०वीरसेनके साथ सुपर्ण वर्ष व्यर्थ ही नही चले जाते। धवल ग्रन्थका उल्लेख न होना कोई श्राश्चर्य की बात नहीं- इस तिथिमें एक विशेषता और है कि यह चन्द्रवारके क्योकि वह उस उल्लेखके लगभग ५ वर्ष बाद समाप्त दिन पड़ती है। धवलाको 'चन्द्रज्ज्वल धवल' कहा भी हुअा था।
है। जब लेखक आचार्यने अपने ग्रन्थकी समाप्तिके लिये धवलाकी इम नव निश्चित तिथिके अनुसार वीरसेन उसके नामानुकुल 'धवल पक्ष' चुना सी भी अष्टान्दिका जैसे स्वामीकी मृत्यु सन् ७६० ई. के लगभग होनी चाहिये धवल पर्वम, तो वह उन १५ अथवा ८ दिनोंमें दिन भी
और उनका जन्म सन् ७१० ई० के लगभग। साथ ही ऐसा ही चुनते जो उसके उपयुक्त ही होता अर्थात् चन्द्रवार । प्राचार्य जिनसेनको भी जयधवला टीकाके लिखने के लिये प्रशस्तिम उल्लिखित ग्रहोमे चन्द्रमाको सबसे अन्तम देनेका तथा उसके लिये आवश्यक विपल मामग्रीके अध्ययन करने अभिप्राय भी प्रायः यही हो सकता है। के लिये और अपने अन्य ग्रन्थोंको रचने के लिये भी पर्यात ....
_ लखनऊ, ता०६-८-४५ समय मिल जाता है। उनके बहुमूल्य जीवनके मध्यकालीन १ आदिपराण प्र० श्लोक ५८, तथा ज० प्र० का अ० अंश
क्या वर्तनाका वह अर्थ गलत है ? (लेखक-न्यायाचार्य पं० दरबारीलाल जैन, कोठिया)
[यह लेख लगभग चार मास पहले लिखा गया था और उसे उसी समय जैनगजटमें प्रकाशनार्थ भेजा था, जिससे उसके पाठकों में फैले हुए भ्रमका उसके द्वारा निरसन होजाय । परन्तु जैनगजटने दो दो पत्र देनेपर भी न तो उसे प्रकाशित किया, न वापिस किया न पत्रोंका कोई उत्तर दिया, और इस तरह अपने पाठकोंको अन्धेरेमें रखकर भ्रममें डाले रखना ही उचित समझा, यह बडे ही खेदका विषय है !! अखिल भारतीय जैनसमाजके प्रतिनिधित्वका दावा करनेवाले पत्रकी ऐसी नीति बहुत ही अखरती है । अस्तु, मजबूर होकर आज यह लेख अनेकान्तमें प्रकाशित कराया जाता है।-लेखक ]
'जैनगजर' वर्ष ५० अङ्क २५ के सम्पादकीयमें पं. करने आदि कारणोसे वे कभी कभी रह ही जाती हैं । और वंशीधरजी सोलापुरने वीर सेवामन्दिरसे प्रकाशित 'अध्यात्म- यदि 'चैतन्य स्वरूप' जैसी मिलानेकी अशुद्धियों को लिया जावे कमलमार्तण्ड' पर अपना अभिप्राय-समालोचन प्रकट तो शायद ही कोई उत्तमसे उत्तम संस्करण शुद्ध ठहरेगा। किया है । आपने उसके प्रकाशनकी कुछेक रूक्ष-रूक्ष, दूसरे चैतन्य और स्वरूप ये दोनो स्वतन्त्र ही पद हैं और उन्हें चैतन्य स्वरूप-चैतन्यस्वरूप जैसी साधारण अशुद्धियों को अलग अलग रहने देनेपर-न मिलानेपर कभी वह कोई दिखलाते हुए उनके अनुवाद की भी एक गलती दिखानेका अशुद्धि नही ममझी जाती--दोनों ही प्रकारसे उन्हे लिखा प्रयत्न किया है । यद्यपि शुद्ध समालोचनाकी दृष्टिसे जाता है। हिन्दी और संस्कृत के नियम जुदेजुदे हैं। संस्कृतमे अशुद्धियाँ या गलतियाँ दिखलाना बुरा नही है, इससे तो अविभक्तिक पदको दूसरे विभक्तिक पदके साथ मिला ही लेवकगण अपनी लेखनी अधिक मावधानसे चलाते हैं। होना चाहिये, परन्तु हिन्दीमें यह बात नहीं है । और तो क्या इसलिये इस दृष्टि से हम पण्डितजीका धन्यवाद करते हैं । (प्रेस) हिन्दीमें 'ने', 'को' 'केलिये' श्रादि विभक्तिसूचक चिन्होको पर प्रकाशन सम्बन्धी उन मामुली अशुद्धियोंको यदि मान भी अलग अलग लिग्वनेका रिवाज अब भी प्रचलित है। भी लिया जाय जो सावधानासे मावधान प्रफरीडरसे होना परन्तु यहाँ तो हमें पण्डितजीने जो अनुवाद-सम्बन्धी असम्भव नही है क्योंकि चार-चार, पाच-पाँच पूफोको देख गलती दिखलानेकी कोशिश की है और उसके लिये गजटका जानेपर भी चाकचिक्य या दृष्टिदोष और प्रेसके करैक्शन न श्राधा कालमके करीब लिखा है उसपर विचार करना है,