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किरण ११-१२]
क्या वर्तनाका वह अर्थ ग़लत है ?
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जिससे पाठकोको उस गलतीकी यथार्थता-अयथार्थता मूलके ही अनुमार किया गया है। मूल में जो वर्तनाका मालूम हो सके और वे भ्रममे न पड़े।
लक्षण 'द्रव्याणामात्मना मत्परिणमनमिदं वर्तना' किया पण्डितजीने 'अध्यात्मकमलमार्तड' पृ. ८३मे काल- गया है वही--'द्रव्योके अपने रूपसे सत्परिणाम का नाम द्रव्यस-वन्धी वर्णन करनेवाले पद्यमें आये हुए वर्तना- वर्नना है-हिन्दी अर्थ में किया है। अपनी ओर से न तो लक्षण के हिन्दी अर्थको गलत ठहराते हुए लिखा है- किसी शब्दको वृद्धि की है और न अपना कोई नया विचार
"पृ० ८३मे कालद्रव्यका वर्णन पाया है, वहाँ वर्तना ही उसमें प्रविष्ट किया है। अत: यदि हिन्दी अर्थ गलत का हिन्दी अर्थ गलत होगया है। वर्तनाका अर्थ लिखा है कहा जायगा तो मूल को भी गलत बताना होगा। किन्तु कि-द्रव्योके अपने रूपसे सत्यरिणामका नाम वर्तना है। मूलको न तो गलन बनलाया गया है और न वह गलत यह जो अर्थ लिखा गया है वह परिणामका अर्थ है, वर्तन हो हो सकता है। इस लिये कहना होगा कि पण्डितजीने का यह अर्थ नहीं है । वर्तना शब्द णिजन्त है। उसका मूलपर और मिद्धान्त ग्रन्थोंकी वर्तनालक्षण चर्चा पर ध्यान अर्थ सीधी द्रव्यवर्तना नही है किन्तु द्रव्योंको वर्ताना अर्थ नहीं दिया और यदि कुछ दिया भी हो तो उसपर सूक्ष्म है। इसी लिये वर्तनारूप पर्याय खास अथवा सीधा काल तथा गहरा विचार नही किया । पर्याय माना गया है और इसी सबबसे वर्तना द्वारा निश्चय वास्तवम अधिकाश विद्वान यही समझते हैं कि वर्तना कालद्रव्यको मिद्धि होती है। ..."यदि वर्तनाका अर्थ जैमा काल द्रव्यको ही खास पर्याय, पारणमन अथवा गुण है' कि यहार हिन्दी अर्थ में बताया गया है कि द्रव्योंका मत्परिण. और वह मांधी कालपर्याा है। पर यथार्थमे यह बात नही मन वर्तना है तो कालके अस्तित्वका ममर्थ दमरा हेतु है। बतेना जावादि छहो द्रव्योका अस्तित्वरूप (उत्पादमलना कठिन होजायगा। इस लिये पूर्वग्रन्थोंके नाजुक एवं व्यय-धोव्यात्मक) स्वात्म-परिणमन हे और इस अस्तित्वमहत्वयुक्त विवेचनोंगर अाधुनिक लेखकोंको श्रादरसे ध्यान रूप स्वात्म पनिगमनमे उपादान कारण तो तत्तद्रव्य है रखकर अपनी लेखनी चलानी चाहिये।"
और साधारण ब ह्य निमित्तकारण अथवा उदामीन-अप्रेरक ___ इमपर विचार करने के पहले मैं अध्यात्मकमलमानण्ड'
कारण काल द्रव्य है । यदि प्रत्येक द्रव्य स्वतः वर्तनशील के उम पूरे पद्य और हिन्दी अर्थको भी यहाँ प्रस्तुत कर
न हा तो वर्तनाको केवल काल द्रव्यकी मीधी पर्याय मानकर देना चाहता हूँ। इससे पाठकोंके लिये समझनेमे सहूलियत
भी कालको उनको वयिता---वर्तानेवाला नही कहा जा
भा कालका होगी। पद्य और उमका हिन्दी अर्थ इस प्रकार है--
सकता और न वह हा ही सकता है। किन्तु जब प्रत्येक "द्रव्यं कालाणुमात्र गुणगणकलितं चाश्रितं शुद्धभाव
द्रव्य प्रतिसमय वन रहे होंगे तो वह प्रत्येक समय-कालाणु स्तच्छुद्धं कालसंझं कथयति जिनपोनिश्चयाद् द्रव्यनीतेः।
(कालद्रव्य) उनके वर्तानेमे निमित्तकारण हो जाता है। द्रव्याणामात्मना सत्परिणममिदं वतना तत्र हेतु,
अतएव जिस प्रकार धर्मादि द्रव्य न हो तो जीव पुद्गलोकी कालस्यायं च धर्मः स्वगणपरिणतिधर्मपर्याय एषः॥” गत्यादि नहा हा मकता अथवा कुम्हारक चाकका काला न
अर्थ-गुणोंसे महित और शुद्ध पर्यायोसे युक्त काला- १ उदाहरणस्वरूप देग्यो, जयधवला (मृद्रित) पृ. ४.। णुमात्र द्रव्यको जिनेन्द्र भगवान्ने द्रव्यार्थिक निश्चयनयसे २“उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्त सत्" "सद्रव्यलक्षणम्"तत्वार्थसूत्र शुद्ध कालद्रव्य--अर्थात् निश्चयकाल का है। द्रव्योके ३ 'जो समस्त द्रव्योके परिणमनमें उदासीन सहकारी अपने रूपसे सत्परिणामका नाम वर्तना है। इस वर्तनामें कारण है, उसको कालद्रव्य कहते हैं । जैसे कुम्भकार निश्चयकाल निमित्त कारण होता है-द्रव्योंके अस्तित्व के चाककी नीचेकी कोली यदि चाक भ्रमण करें तो रूप वर्तनमें निश्चयकाल निमित्तकारण होता है। अपने सहकारी कारण है किन्तु ठहरे हुए चाकको जबरदस्ती गुणों में अपने ही गुणोंद्वारा परिणमन करना कालद्रव्यका से नहीं चलाती। इम ही प्रकार कालको उदासीन धर्म है-शुद्ध अर्थक्रिया और यह उसकी धर्मपर्याय है। कारण समझना चाहिये।"विद्वान् पाठक देखेंगे कि यहा पद्यका हिन्दी अर्थ हूबहू
-जैनसिद्धान्तदर्पण प्र०भा० पृ०७२।