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अनेकान्त
[वष ७
हो तो चाक घुम नही सकता उसी प्रकार कालद्रव्य न हो तो होता है वह वर्तना है। अर्थात् एक अविभागी समयम निमित्त-कारण के चिना उन द्रव्योका वर्तन नहीं हो सकता धर्मादि छहों द्रव्य स्वतः ही अपनी मादि और अनादि है। इसी निमित्तकारणताकी अपेक्षामे ही धर्मादि द्रव्य के पर्यायोंसे, जो उत्पाद, व्यय और ध्रौव्यरूप हैं, वत रहे हैं गत्याद उपकारकी तरह वर्तनाको कानद्रव्यका उपकार उनके इष वर्तनको ही वर्तन' कहते हैं और चूँ कि तत्तत कहा गया है। इसी बातको सर्वार्थासद्धिकार श्रा० पूज्यपाद समय उसमें अप्रेग्क बाह्य निमित्तकारण होता है । इस लिये ने कहा है
वर्तनाके द्वारा निमित्त कारणरूपसे कालद्रव्य अनुमेय है।' धर्मादीनां द्रव्याणां स्वपर्यायनिवृत्ति प्रति स्वा- इमसे वर्तनाको कालद्रव्य के अस्तित्वका समर्थक मुख्य हेतु मनव वर्तमानानां बाह्य पमहाद्विना तद्वत्यभावात्तत्प्रव- कहा जाता है। नोपलक्षितः कालइति कृत्वा वर्तना कालस्यो कारः।" श्रा० विद्यानन्दने' भी इसी तरह का विस्तृत वर्णन
-सर्वाथ०१-२२ किया है। तत्त्वावलोकवा कके पृ० ४१४ पर एक अनुविवर्य पं. राजमल्ल जाने अपना पूर्वोक्त वर्तनालक्षण मान ही ऐमा प्रस्तुत है जिसमें उन्होंने स फतौरमे जीन, पृज्यपादक इमी वर्तनालक्षण के अाधारपर रचा जान पड़ता पुद्गन, धर्म, अधर्म, अाकाश और इनकी व्यापक सत्ता है। क्योंकि दोनो लक्षणोको जब सामने रख कर एक तथा सूर्यगति श्रादिकी दी वर्तना स्वीकार का है और उनके साथ पढा जाना है तो वैमा स्पष्ट प्रतीत होता है । अकलङ्क- द्वाग बहिरगकारए रूपसे कालकी सिद्धि की है। जब शंकादेव भी यही कहते हैं
___ कारके द्वारा कालवर्तनाके साथ व्यभिचार दोष उपस्थित "प्रतिद्रव्यपर्यायमन्तन, तकसमया स्वसत्तानुभूति- किया गया तब उन्होंने काल की मुख्यवर्तमान होनेका ही वर्तना ...... एकस्मिन्नविभागिनि समये धमादीनि सिद्धान्त स्थापित किया है और धर्मादिद्रव्योको ही मुख्य द्रव्याणि पडपि स्वपर्यायरादिमदनादिमद्भिरुत्पदव्यय- वर्तना बतलाई है। कालद्रव्यकी भा मुख्य वर्तन। माननेपर ध्रौव्यविकल्पवर्तन्ते इति कृत्वा तद्विषया चतना। अनवस्था दोष दिया गया है । मायमे यह भी कहा गया है साऽऽनुमानिकी व्यावहारिकदर्शनात पाकवत । यथा कि कालमे वृत्ति और वर्तकका विभाग न होनेमे मुरुपवर्तना व्यावहारिकस्य पाकस्य तन्दुलविक्लेदनलक्षणस्यौदन- बन भी नहीं सकता। यदि शक्तिभेदसे वृत्ति और वर्तकका परिणामस्य दर्शनादनुमीयते अम्ति प्रथमसमयादार- विभाग माना जावे तो कालद्रव्य की भी तैना की जा भ्य सूक्ष्मपाकाभिनिवृत्तिः प्रतिसममिति । यदि हि सकती है, क्योकि कालवर्तनाका बहिरंगकारण वर्तक प्रथमसमयेऽग्न्युदकमन्निधाने कश्चित पाकविशेषो न , “वर्तना हि जीवपद्ग नधर्माधर्माकाशाना तत्सनायाश्च स्यिात् । एवं द्विनीये तृतीये च न स्यात इति पाकाभाव साधारण्या सूर्यगत्यादीना च स्वकार्यविशेषानुमितस्वम वाना एव स्यात् । तथा सर्वेषामीि द्रव्याणां स्वपर्यायाभिनि- बहिरंगकारणापेक्षा कार्यत्वात् तन्दुल कवत् । यत्तावद्वाहवृत्तौ प्रति समयं दुरधिगमा निःपत्तिरभ्यु गन्तव्या। रंगकारणं स काल: । ननु कालवर्तनया व्याभचार: स्वयं तल्लक्षणः कालः । सा वर्तना लक्षणं यस्य स काल वर्तमानेषु कालापुष तदभावात् । इति केचित् ; कालवर्त इत्यवमेयः। समपादोनां क्रियाविशेषाणां समयादि- नाया अनुपचन्तिरूपेणासद्भावात् । यस्यासावन्येन वर्त्तते निवृत्त्यानां च पर्यायाणां पाकादोनां स्वात्मसद्भावानु- तस्य सा मुख्यवर्तना। कर्मसाधनत्वात्तस्याः । कालस्य तु भवनेन स्वत एव वर्तमानानां निवृत्तेबहिरङ्गो हेतुः नान्येन वर्तते तस्य स्वयं स्वसत्तावृत्तिहेतुत्वादन्यथाऽनवस्थासमय पाक इत्येवमादिस्वसंज्ञारूढि नद्भावे काल इत्ययं प्रसङ्गात् । तत: कालमा (कालस्य ?) स्वतो वृनिरेवो चारतो व्यवहागे कस्मान्न भवतोति तद्व्यवहारहेतुनाऽन्येन वर्तना, वृत्ति वर्तकयोविभागाभावान्भुख्यवर्तनानुपपत्तेः । शक्तभवितव्यमित्यनुमेयः।" -तत्वार्थवा० १-२२। भेदात्तयोविभागे तु सा कानस्य यथा मुख्या तथा च बहिरंग-.
यहाँ अकलङ्कदेवने बहुत ही विशदताके साथ कहा है निमित्तापेक्षात्वं वर्त्तकशक्तर्बहिरंगकारणत्वात्।" कि 'हरेक द्रव्यपर्यायमे जो हर समय स्वसतानुभवन-वर्तन
--तत्वार्थश्लो०१-२२