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किरण ११-१२]
क्या वर्तनाका वह अर्थ ग़लत है ?
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शक्ति हो जाती है। इस तरह विद्यानन्द स्वामीने अनुमान- द्रव्यके उपकार बतलाये गये हैं वे वर्तनाके ही भेद है। गत भिचार दोषको उत्मारिन किया है। विद्यानन्दके जैसा कि श्रा० उपपादके निम्न कथनमे प्रकट है। इस स्फुट विवेचनसे हम इस निष्कर्ष पर पहुंच जाते हैं कि "ननु वर्तनाग्रहणमेवास्तु तद्भेदाः परिणामादयवास्तवमे वर्तनी सभी द्रव्यगत है और काल उममें केवल स्तेषां पृथाग्रहणमनर्थकम् ; नानर्थकम; कालवयसूचनबहिरग कारण है। द्रव्यांक इम वर्तन-अस्तित्वरूप परिण- थत्वात्प्रपञ्चम्य।" -सर्वार्थसि०पृ० १८६ मनम बहिरंगकारण न नो प्राकाश है और न जीवादिद्रव्य यहाँ यह शंका उपस्थित की है कि एक वर्तनामात्रका है, क्यों कि वे सब तो उसके उपादान कारण हैं और ग्रहण करना पर्याप्त है। परिणाम श्रादि तो उसीक भेद हैं। प्रत्येक कार्य उपादान तथा निमित्त इन दो कारणोस होता अत: वर्तनाग्रहण से उनका मा ग्रहण हो जायगा--उनका है । अतः वर्तनाके उगदान कारण जीवादिसे अतिरिक्त पृथक् ग्रहगा करना व्यर्थ है। इस शंकाका प्राचार्य उत्तर निमित्त कारणरूपसे निश्चयकालद्रव्सकी सिद्धि होती है। देते हैं कि सूत्रमें उनका पृथक् ग्रहण व्यर्थ नहीं है। काल
सर्वार्थसिद्धि ( सोलापूर संस्करण ) पृ० १८३ में एक के दो भेदों की सूचना-जापन करनेके लिये प्रपञ्च विस्तार अतिस्पष्ट फुटनोट दिया गया है जो श्रा० श्रनसागरमूरिकी किया है । नात्पर्य यद् कि पूज्यपादके लिये परिणाम आदि श्रुतसागरी तत्त्वार्थवृत्तिका जान पड़ता है और जिम में भी यह को वर्तनाके मेद मानना स्पष्टत: अभीष्ट है। दूसरे, सत्वरिस्पष्ट हो जाता है कि सभी द्रव्याका प्रतिसमय वर्तनस्वभाव है णमनको वर्नना माननेर वनना और परिणाम दोनों एक तथा प्रतिक्षण उनकी उत्तरोत्तर सूक्ष्मपर्यायोमे जा परमाणु- नही हो जाते। प्रनिक्षण ममस्त द्रव्योका अपनी उत्तरोत्तर रूप बाह्य निश्चयकालकी अपेक्षा लेकर वर्तन--पारणमन सूक्ष्म पर्यायाम जो वतन मवारणमन हो ।। है वह तो वतना हाता है वह वतना है। यहाँ फुटनोटकी कुछ उपयागी है। जैमा कि पूर्वोक्त विवेचन और सर्वाथसाद्धके उल्लिखित पाक्तयोका दिया जाता है--
फुटनोटमे राष्ट्र हे अोर पूर्व पर्यायके त्याग और उत्तरपर्यायके "एवं सर्वेपा द्रव्याणां प्रतिसमयं स्थूलपर्याय- उत्गदरूप जो द्रव्यम अपरिस्सन्दात्मक विकार--पर्याय ह तो विलोकनात् स्वयमेव वतनस्वभावत्वेन बाह्य निश्चय- है उसे परिणाम कहते है। जमा कि स्वयं पूज्यपादके ही कालं परमाणुरूपं अपेक्ष्य प्रतिक्षणं उत्तरोत्तरसूक्ष्म- निम्न कथनसे प्रकट हैपर्यायेपु वर्तनं परिणमन यद्भवति सावतेना नीयते।"
"द्रव्यस्य पर्यायो धर्मान्तानिवृत्तिधर्मान्तरोपजननयहाँ पाटक देखेंगे कि 'वतनं परिणमनं' कह कर तो
रूपः अपरिमन्दात्मकः परिणामो जीवस्य क्रोधादिः, वतेनाका अर्थ परिणाम भी स्पष्टतया प्रतिपादन किया है।
पुद्गलस्य वर्णा देः, धमाधर्माकाशानामगुरुलघुगुणइस तरह मिद्धान्त ग्रन्थोसे यह ज्ञात हो जाना है कि विद्.
वृद्धिहानिकृतः।" च्छिरामाण ५० गजमल्लज ने वर्तनाका जो 'द्रव्याणामात्मना सत्परिणमनमिदं वर्तना' लक्षण किया है और
पूज्यपादके अनुगामी अकलक और विद्यानन्द भी हमने उसका जो 'द्रव्योंके अपने रूपमे सत्परिणामका नाम
अपना यही अभिप्राय प्रकट करते हैं ।। यदि पं० वशीधर वतंना है' हिन्दी अर्थ किया है दोनों ही सिद्धान्तसम्मत
जी इसी अध्यात्मकमल-मातण्डके उससे अगले ही पृष्ट हैं--गलत नहीं हैं।
(८४) पर देखते तो उन्हें उन्ही सत्परिणमनको वर्तना कहने
वाले अध्यात्मकमलमार्तण्डकारके शब्दों में परिणामका भी अब यह विचारके लिये शेष रह जाता है कि यदि
लक्षण मिल जाता और फिर उन्हें उनकी एकताका मत्परिणमन वर्तना है तो परिणाम और वर्तनाम भेद क्या
भ्रम न होता। में उनके उस परिणामलक्षणको नीचे है ? क्योंकि काल द्रव्यके उपकारों में परिणाम और वर्तनाको
देता हूँजुदा जुदा बतलाया गया है ? इसका खुलामा इस प्रकार है
प्रथम तो सामान्यतया वर्तना और परिणाममें कोई १ देग्यो, नत्वार्थवा. पृ० २२४ ओर तत्त्वार्थ श्लोकवा. भेद नहीं है। क्योंकि वस्तुत: परिणाम प्रादि जो काल पृ० ४१४ ।