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अनेकान्त
वर्ष ७
"पर्यायः किल जीवपुद्गलभवो योऽशुद्धशुद्धावयः।" निमित्तरूपसे कारीष-अग्निनिष्ठ भी माना जाता है उसी प्रकार
अर्थात्-जव और पद्गलसे होने वाले शुद्ध और अशुद्ध वर्तना वस्तुत: समस्त द्रव्यपर्यायमत ही है फिर भी निमित्त परिणमनो-विकारोंको पर्याय--परिणाम करते हैं। यहाँ होनेमे वर्तानाको कालगत भी मान लिया गया है। अत: यह ध्यान देने योग्य है कि ग्रन्थकार जीव और पुद्गल जन्य वर्तनाका अर्थ मुख्यत: 'द्रव्यवर्तना' हे और उपचारतः पर्याय (विकार) को ही परिणाम कहते हैं, धर्मादिद्रव्योके 'द्रव्योंको वताना' है । सीधी द्रव्यवतेनाका व्यवच्छेद करके विकारको वे परिणाम नही मानते। जबकि तत्त्वार्थ के सभी टीका- एक मात्र 'द्रव्योंको वर्ताना वर्तनाका अर्थ कदापि नहीं है। कारोने द्रव्यविकारको पारणाम होनेकी ओर दृष्टि रखते हुए अन्यथा सर्वाथ सिद्धकार वर्तते द्रव्यपर्यायः, इतने वाक्याश धर्मादिद्रव्योंक भी अगुरुलधुगुणकृत विकार स्वीकार किया को न लिखकर केवल 'द्रव्यपर्यायस्य वर्तयिता कालः' है और उसे भी परिणाम कहा है। जो सिद्धान्तत: ठीक इतना ही वाक्य लिखते । इससे स्पष्ट है कि सत्परिणमनको है। परन्तु अनुवादक मूलके साथ बंधा होनेसे उक्त पंक्तिका जो हमने वर्तना निखा वह मूलकार एवं सिद्धान्तकारोंके अर्थ भी वैसा ही दिया गया है। अस्तु । तालर्य यह कि न तो विरुद्ध है और न गलत ही है। केवल पण्डितजाके द्रव्यर्यायोमे प्रतिसमय होने वाला परिणमन तो वतेना है समझनेकी भूल है। अन्तमे एक बात जो पं. जीने यह और वे द्रव्यपर्याये पारणाम हैं। यही वतना और परिणाम कही है कि सत्ररिणमनको वर्तना माननेपर कालके मे सिद्धान्तसम्मन भेद है। जिमपर पण्डितजीने मर्वथा ही अस्तित्वका समर्थक कोई दूसरा हेतु मिल नहीं सकता उम ध्यान एवं विचार नहीं किया। यद्यपि यह ठीक है कि वतना सम्बन्धमे मुझे यह कहना है कि सत्परिणमनको वर्तना शब्द णिजन्त है, किन्तु यह भी देखना चाहिए कि णिज् मानने र कालके अस्तित्यकी साधक वह क्यो नही रहेगी ? का अर्थ यहाँ क्या और कैमा सिद्धान्तकारीके लिये विवक्षित दूसरे द्रव्य जो उस सत्परिणमनरूा वर्तनामे उपादान ही है। सर्वार्थ सिद्धिकारके णिजर्थमम्बन्धी पूरे अभिप्रायको होंगे निमित्त कारण रूपसे, जो प्रत्येक कायमें अवश्य यहाँ दिया जाता है
अपेक्षित होता है, कालकी अपेक्षा होगी दी और इस तरह "को रिजर्थः ? वर्तते द्रव्यपर्यायस्तस्य वर्तयिता वर्तनाके द्वारा निमित्तकारणरूपसे कालकी मिद्धि होती दी कालः। यद्येवं कालस्य क्रियावत्वं प्राप्नोति । यथा
है। यदि इस रूपमें वर्तनाका अर्थ वर्ताना इष्ट हो तो उसमे शिष्योऽधीते, उपाध्यायोऽध्यापयति इति; नैष दोषः,
हमे कोई आपत्ति नही है। सत्परिणमन भी वहा वर्तना निमित्तमात्रेऽपि हेतकर्तृव्यपदेशो दृष्टः । यथा कारीषो- रूप है। विवक्षित होसकता है। यहा हम यह भी कह देना अग्निरध्यापयति । एवं कालस्य हेतुकता।”
चाहते हैं कि 'वर्तनाहेतुत्व' नहीं किन्तु वर्तना पूज्यपाद' और
अकलङ्कदेवके अभिप्रायसे कालका अमाधारण गुण और _शिजका अर्थ क्या है ? द्रव्यपर्याय वतं रही है, विद्यानन्दके अभिप्रायानमार पर्याय माना गया है । श्राशा उसका वर्तानेवाला काल है। यदि ऐसा है तो कालक है जैनगज के सम्पादकजी इम विवेचनके प्रकाशमें क्रियापना प्राप्त होजायगा । जैसे शिष्य पढ़ता है, उपाध्याय अपनी भ्रान्तिको दर करलेगे, और वेसा अपने पत्र में प्रकट पढ़ाता है ? यह कोई दोष नहीं; क्योकि निमित्तमात्रमे भी
कर देगे। कारणको कता कह दिया जाता है। जैसे कण्डेकी अग्नि बोरसेवामति माया पढाती है। यहाँ करडे की अग्निको पढ़ने मे निमित्तकारण
८-५-४५ होने मात्रसे कर्ता कहा गया है । इसी प्रकार स्वतः वर्त रही द्रव्यपर्यायोके वर्तनमे काल निमित्तकारण होनेमात्रसे उसे १ देखो सर्वार्थ सिद्धि पृ० २००। वर्तायता-वर्तनकर्ता (वर्तानेवाला) कहा है । तार्य यह २ तत्त्वार्थवार्तिक पृ० २४३ । कि जिस प्रकार 'पढ़ाना' वस्तुतः उपाध्यायनिष्ठ ही है किन्तु ३ तत्वार्थ श्लोकवार्तिक पृ० ४३७ ।