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किरण ११-१२]
श्री धवलाका समय
रहा था, मंगल धनुराशिका, शुक्र (केतु सहित) सिंहगशि तुग गोविन्द था, इसी लिये ज्येष्ठ पुत्र न होते हुए भी ध्रुवने का, चन्द्रमा मीनगशका था (और वार भी चन्द्रवार था) उसे ही अपना उत्तराधिकारी चुना और उसके मना करने जगतुगदेवका राज्य था और नरेन्द्रचूड़ामणि बोहगणराय- पर भी अपने जीवनमें ही उसका युवराज्याभिषेक ही नहीं नरेन्द्र (ध्रवराज धारावर्ष श्रीवल्लभगय ) साम्राज्याधिपति महाराज्याभिषेक कर दिया। इस प्रकार चाहे वास्तावेक थे, उस समय गुरुके प्रसादसे सिद्धान्त ग्रंथोकों मथकर इस साम्राट् ध्रव स्वयं ही रहा, उसने नाम लिये जगतुंगको ही धवला टीकाको पूर्ण किया गया।
सम्राट बना दिया। चूकि उमने अपने भाई के प्रात विद्रोह ६ ।
किया था और संभवतया उसे मार कर ही उसका गज्य इस पाठके अनुसार
हथियाया था इस लिये संभव है कि ऐसी राज्यकान्तिके बु७गु
पश्चात् स्वयं मिहामनारूढ होनेमे कुछ बाधाएँ देखी दो और धवलाके ममाप्ति-कालकी
नामके लिये गोविन्द द्वितीयके पश्चात् अपने पुत्र जगतु गको ज्योतिष-कृण्डली निम्न
गोविन्द तृतीयके नामस गद्दीपर बैठा दिया हो।
ध्रुवकी मृत्यु सन् ७६३ ई. के लगभग हुई। अत: प्रकार बनती है:- ग.
यह घटना सन् ७७५ से सन् ७६३ ई. के बीच कभी भी
हो सकती है। इसकी तिथिके सम्बन्धमें ऐतिहास विद्वान् इस तिथिमें ऐतिहामिक बाधा भी कोई नही पाती।
अनिश्चित हैं । दो, जगतुगके राज्य की अन्तिम अवधि सन् ७७२ ई. में राष्ट्रकुट कृष्णप्रथमकी मृत्यु दोगई बार ८१४ (वि०८७०) निश्चित है, इससे प्रोफेसर साहिब भा उमका ज्येष्ठ पत्र गोविन्द द्वितीय गद्दीपर बेठा'। वह वीर सहमत है। अस्तु । योद्धा अवश्य था किन्तु एक दुराचारी और निकम्मा सन् ७८० मे जगनुगदेव राष्ट्रकूटोके सिंहासनपर शासक । उसके छोटे भाई ध्वधारावर्षने विद्रोह किया आसान हो सकता है। और यदि उसका अभिषेक इस
और संभवतः उसे गद्दीपरसे उतार कर राज्य स्वयं हथिया तारीख के बाद भी हुआ हो तो भी वह उक्त प्रान्तका शासक लिया। यह घटना मन् ७७५ और सन् ७७६ के बीच किमी या जागीरदार तो हो ही सकता है, जिसके अन्तर्गत वीरसेन समय हई। मन् ७७५ का पिम्पसे प्राप्त लेख इसे ७७५ स्वामीने रहकर धवल प्रथकी रचना की। ई. में रखता है और सन् ७७६ का धूलियामे प्राम ताम्रपट घ्वराजकी स्थिति राष्ट्रकुट इतिहासमे कुछ भेदपूर्ण ७७६ में, किन्तु धूलियाका ताम्रपट सन्दिग्ध और जाली और विचित्रसी है। वह एक भारी योद्धा और विजेता समझा जाता है। फिर भी इसमें तो मन्देह नहीं कि गोविन्द था। भाईसे राज्य छीन भी सकता था और पुत्रको जीते नी, द्वितीयकी मृत्यु सन् ७७९-८० मे हो चुकी थी और राष्ट्रकूट राज्य स्वयं समर्थ रहते हुए, राज्य सौप भी सकता था। उनके स्वयं का एकच्छत्र अधिपति श्रीवल्लभ कलिवल्लभ धारावर्प आदि के काई ताम्रपट अादि नहीं मिलते । संभव है जनसाधारण उपाधिधारी ध्रवगज निरुपम था। इसकी श्रायु उस समय लग- में वह बोद्दागय करके प्रसिद्ध हो अथवा उसकी उगघि भग ५० वर्षकी थी। इसके उम समय कमसे कम चार वयस्क श्रीवल्लभ' के ही अपभ्रंशका प्रतिलिपिकारकी असावधानीसे सुयोग्य समर्थ पत्र थे। ये चारों ही उस ममय भी भिन्न बोहण हो गया हो। भिन्न प्रान्तोंके शासक थे। इन सबमें सर्वाधिक सुयोग्य जग- शक ७०५ में समाप्त होनेवाले तथा शक ६६७-८
६ Ibid-p. p. 59-60 १_Altekar-Rashtrakutas and their ७ Ibid-p. 58 Times p. 48.
८ धवला टीका १, १, १, प्रस्तावना पृ० ४० २ Ibid-p.50. ३E. 1. Vol. Xp.81.
१ हरि० तथा श्रवण नं० २०, मटकरी थि० ले०E.C. ४ E. I. Vol. viII p. 182.
Vol IV p. 13 ५ Altekar-p. 53
Altekar p. 4211