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अनेकान्त
[वर्ष ७
साहित्यिक और दार्शनिक बातों में तो सब तरहकी में उनका जन्म हुआ था। अत: शक ७४५ से पूर्व उक्त पाँधलिया चल जाती हैं और कभी २ मेद्धान्तिक विषयोंमें काव्यका रचा जाना भी कठिन ही दीखता है। भी, किन्तु विशुद्ध ऐतिहासिक घटनाश्री तथा वैज्ञानिक तथ्यों इस प्रकार शक ७०० से शक ७४५ तक लगभग की इमारत मात्र ऐसे बेतुके अनुमानों और धांधलियोंकी ४५ वर्ष तक प्राचार्य जिनसेनने कुछ रचा ही नही और जा बुनियादपर खड़ी करना नो अनुचित ही है।
कुछ रचा वह अपनी २५ वर्षकी श्रायु होने से पहले पहले या अपनी इस (निर्माणसमय-विषयक) मान्यताके उत्माहमें ७० वर्ष श्रायु होने के बाद ! इस बीच में कौनस राजकीय धवला-जयधवलाके मम्पादकोको इस बात का भी ध्यान नदी अथवा गृहस्थ संबंधी कार्य मे वे अविद्धकर्ण बाल ब्रह्मचारी रहा कि उनके मतानुमार आचार्य जनमन जैसे भारी प्रासद्ध विद्वान् और जयघवला आदि ग्रन्थगजोके रचयिता लेविकको अपने जीवन के मध्यकालीन चालीम वर्घ वाली बैठे प्राचार्य जिनसेन व्यस्त रहे, यह जान नहीं पड़ता ! बैठे ही बिनाने पडेंगे । हरिवंश के रचयिता पुन्न टमंघ। जिन- अत: धवला टाकाका समाप्तिकाल श्री धवल, जयसेनने अपने ग्रंथकी समाप्ति शक ७०५ मे की' । उम मथकी धवल के हिन्दी सम्पादकों द्वारानिश्चित शक ७३८ अथवा रचना उसके ७-८ वर्ष पूर्व प्रारंभ हुई होगी। उसके प्रारम्भमे मन् ८१६ ई० की ८ - क्तूबर बुधवार सर्वप्रकार सदोष और गुरु बरसेन और उनके शिष्य जिनसेगका श्रादग्के साथ असंगत सिद्ध होता है। स्मरण किया गया है । जिनसेनके रचे हुए जिनेन्द्रगुणसंस्तुति इसके स्थान कार्तिक शुक्ला १३ विक्रम संवत् ८३८ नामक खास ग्रन्थका उल्लेग्व किया है । अस्तु, शक ६६८ के (चालू ) तदनुसार चन्द्रवार ता १६ अक्तूबर सन् ७८० लगभग जिनसेनाचार्य विद्वत्ममा न में प्रमिद्धिको प्राप्त हो ई०' का पूर्वाह्न-जबकि तुलाके सूर्य उदय हो रहे थे, चुके थे और दो एक ग्रंथ भी रच चुके थे। और उनकी गुरु और बुध भी सूर्यके साथ ही स्थित थे, शनि के साथ श्रायु भी उस ममय कमसे कम २५ वर्ष की थी । प्रोफेसर राहु कुंभगशिका शुक्र और केतु सिंहके, मंगल धनुका साहिबकी गणनाके अनुमार स्वामी नीरसेन शक ७४५ के तथा चन्द्रमा मीन राशिका था-कहीं अधिक उपयुक्त लगभग जयधवलाको अधूरी छोड़कर स्वर्गस्थ हुए | तुरन्त और संगत बैठता है । तदनुमार प्रशस्तिकी विवक्षत ही जिनसेनने जयधरलाके शेषाशका रचना प्रारंभ करदिया गाथाओंका शुद्ध पाठ निम्न प्रकार होना चाहिये:-- और शक ७५६ में उक्त ग्रन्थको पूग करदिया। उसके बाद मतीमम्हि साम्पिय विक्कमरायम्हि वसुमतोवरमे । श्रादिपुराणका रचना प्रारंभ किया और शक ७६५ के वासे सुतेरसीए माणु-विजग्गे धवलपक्खे ॥ ६ ॥ लगभग उस प्रथको अधूग छोड कर वह स्वर्ग मिधार जगतुगदेवरज्जे रविजे कुंभम्हि राहणा कोणे। गये। श्राचार्य जिनमेनके पाश्र्वाभ्युदयमें भी अमोघवर्ष सूरे तुलाए संते गुरुम्हि कुलविल्लए होते ॥७॥ का नामोल्लेख है, और उस काव्यको रचनाके मंबंधमे चावम्हि परणिवुत्ते सिंधे सुक्कम्मि मीणे चंदम्मि। भी जो कथा प्रचलित है उ. के अनुसार उनकी रचनाके कत्तियमासे एमा टीका हु समाणिमा धवला ॥८॥ समय सम्राट अमघवर्ष वयस्क होने च दिये। । शक ७३० बोदणरायणरिंदे णरिंदचूनामणिम्हि भुजंते । १ जिनमेनीय हरिवंशपगण की प्रशस्ति ।
सिद्धृतगंथ-मस्थिय गुरु पेसारण विगता सा॥४॥ २ हरिवंशपुराण श्लाक ३६-४० ।
भावार्थ-विक्रमराजाके शासनके ८३८ वें वर्षम ३ जयधवला १. १, प्रस्तावना पृ. ७६ ।
कार्तिक मासके धवल पक्षकी प्रयोदशीके दिन सूर्योदयके ४ धवला टीका १, १, १, प्रस्तावना पृ० ४२ ।
समय जब कि शनि (रविम) राहुके माथ कुंभराशि तथा ५ जयधवला १, १, प्रस्तावना पृ० ७७, विद्वदग्नमाला
कोण (पंचम स्थान) में स्थित था. सूर्य और गुरु तुलाराशि प्रथम भाग पृ०८४।
में थे और बुधका विलय भी उन्हींके साथ उसी गशिमें हो ६ प्रो० पाठकका निबंध भतृहरि और कुमारलभट्ट R.A.S. १ Swami Kannu Pillai's Indian Ephe७ योगिराट पंडिताचार्यकी पार्वाभ्युदयको टीका ।
meris Vol. 1, Part II p. 165.