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किरण ११-१२]
श्री धवलाका समय
ये दोनों सदा बक्री ही रहते हैं । इम हिमाबसे गहु और केतु बनिस्वन 'त' के 'व' होनेके । मंगल के लिये 'धरणिज' शब्द बारह राशियोंकी परिक्रमा १८ वर्ष ७ महीने और करीब स्वामी वीरमेनके प्रशिष्य गुणाभद्राचार्यने भी अपनी उत्तर२ दिन में पूरी करते हैं । केतु राहुसे मदेव सात राशिके पुराणकी प्रशम्तिमे प्रयुक किया है। अन्तरपर रहता है। इसके अनुसार गणित करनेसे शक प्रोफेसर साहिबने एक युक्ति यह भी दी है कि कार्तिक संवत् ७३८ की कार्तिक शुक्ला १३ को राहुकी स्थिति मासमे सूर्य मदैव तुलाके ही रहते हैं । सो भी गलत हैधनुगशि और कुडलीके तीसरे घरमें पाती है और केतुकी कभी तुलाके कभी वृश्चिकके रहते हैं। बात यह है कि स्थिति मिथुनगशिमें। प्रोफेसर साहिबने स्थूल रूपसे गहु उक्त शताब्दीमें तुलाकी सक्रान्ति २२-२३ सितम्बर को की परिक्रमा १८ वर्षसे लेकर गत ११२३ वर्षमै किननी पड़ती थी। अत: २२-२३ अक्तूबर तक सूर्य तुलाके रहते परिक्रमाएँ हुई इत्यादि निकाल कर प्रशस्तिका 'कु भम्हि थे, तत्पश्चात् वृश्चिकके । अब कार्तिकका अन्त यदि २२ गहुगा' पाठ सिद्ध करने के लिये राहु को कुंभराशिम बिठा अक्तूबरके भीतर ही पड़ जाता था तो मूर्य तुलाके ही होते थे दिया' । फलत: केतुको भी सिंहराशिमे बिठा दिया । अतः और उस तारीखके बाद तक यदि कार्तिक चलता था नो केवल गहु-केतुकी स्थिति ही ठीक न बैठनेसे प्रोफेसर साहिब शुक्लपक्ष में प्राय: वृश्चिकके सूर्य हो जाते थे। सयोगसे शक द्वारा निर्मित धवलाकी कुडली ग़लत सिद्ध होजाती है और ७३८ के कार्तिकमे सूर्य तुलाके ही थे । और विक्रम ८३८ फलतः उसके आधारसे निश्चित की हुई तिथि--शक की कार्तिक शुक्ला त्रयोदशीको भी सूर्य तुलाके थे ही। ७३८ अक्तूबर ८, सन् ८१३ ई०-भी।
अपने मत की पुष्टिमे आपने एक और भी युक्ति दी है। परन्तु विक्रम संवत्के ८३८ वे वर्षमे अर्थात् मन् वह यह कि स्वामी वीरसेनने अपने हम विशाल ग्रंथराजका ७८० ई. की कार्तिक शुकला १३ चन्द्रवार ता. १६ नाम 'धवला' इमलिये रमवा गा, क्योंकि मम्राट् अमोघवर्षकी अक्तूबरको राहु की स्थिति कुंभगशिमे, और तुला लग्न एक उपाधि 'अतिशय धवल' भी थी। आपके कथनानुमार होनेमे कुडलीके पाचवे घर में, जो कोण भी कहलाता है, ही अमोघवर्षकी श्रायु ८ वर्षकी भी न थी जब धवला पड़ती है और साथ ही केतुकी शुक्रके साथ सिहराशिमे। ममात हुई । उमके गज्यके प्राथमिक १०-१२ वर्षों में सूर्य, गुरु तथा बुध प्रोफेमर माहिबके गणित के अनुमार लिखाये गये ताम्रपत्रों अथवा अन्य विवरणोंमे कहीं इस ही यदि शक ७३८ मे तुला राशि और लग्नम पड़ते हैं उपाधिका कोई उल्लेख नहीं। और धवलाको रचनामें तो विक्रम संवत् ८३८ में भी वहाँ उसी स्थानमे पड़ते हैं। आप दीके अनुसार करीब २४-२५ वर्ष लगे होगे । अत: चन्द्रमा भी दोनों ही तारीखोमे मीन राशिका हो सकता है। ऐसे विशाल मैद्धान्तिक ग्रन्धका नाम-करण उसके इतने
शनिकी स्थिति भी उन्दीके हिसाबसे सन् ८१६ ई० मे लम्बे रचनाकालमे तो लेखकको सूझा नहीं। और अन्तमें घनुराशिके बजाये मकरराशिमे आती है और मंगलकी सूझा भी तो उस उपाधिके अाधारपर जो तत्कालीन बालक स्थिति भी संदिग्ध है। वास्तवमें शनिकी द्वादशराशि- सम्राटको अपनी युवा अथवा प्रौढ़ावस्थामे इस कारणसे परिक्रमा भी पूरे ३०ही वर्षमें समाप्त नहीं होती वरन् २९ मिलनेवाली थी कि वह अपनी वृद्धावस्थामें वैराग्यपूर्ण वर्ष और लगभग ७मासमे होती है, और इस हिसाबमे घवल परिणामों को प्रास होकर गज्य त्याग देगा !!! शक ७३८ में शनिकी स्थिति मेषराशिमें भाती है न २ उत्तरपुराण-प्रशस्ति श्लोक ३३ ।। कि कुभराशिमें, जबकि विक्रम ८३८ सन् ७० ई.मे ३ धवलाटीका १,१,१, प्रस्तावना पृ. ४३। उसकी स्थिति कुभराशि में ही जाती है।
४ प्रो० कीलहानने शक ७०६ की मकर, संक्रान्ति २२ मंगलकी स्थिति विक्रम ८३८ के कार्तिकमें धनु
दिसम्बर सन् ७७६ ई. के दिन निश्चित् की थी--
E. I. Vol. VIII P. 183. n. 2. राशिमें श्राही सकती है। और प्रतिलिपिकारकी असावधानीसे ।।
५ वास्तवमे अपनी रचनाका धवला नाम लेखकने प्रारंभमें 'वरणिवुत्ते' पदमें 'ध' का 'व' होजाना अधिक संभव है, ही सोच लिया था, ग्रन्थमें धवल शब्द का प्रयोग शुरुसे १ धरला टीका १,१,१, प्रस्तावना पृ० ४३
ही मिलता है-धवला टीका १, १, १, पृ० ६७