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अनेकान्त
[वर्ष ७
ई० मे जब वह सिहासनारूढ़ हुआ उसकी श्रायु केवल कमसे कम राज्याभिषेकके सम से तो उसका यह नाम ६ वर्षकी थी। जगतुग एक प्रबल प्रतापी शामक ओर अवश्य ही था। उसके और भी अनेक विरुद मिलते हैं भारी विजेता था। उसकी प्रवृत्ति भी कुछ विशेष धार्मिक यशा-नृस्तुग, शदेव, पृथ्वीवल्लभ, लक्ष्मीवल्लभ । उमके न थी, कमसे कम वैराग्यप्रधान जैनधर्मका तो विशिष्ट भक्त अनेक तास मिलते हैं। जिनाचार्य-रागाभटाचार्य वह था नही। उसकी श्रायु भी ६० वर्ष के भीतर ही थी मासिके अतिरिक्त अन्य साहित्यमें भी उसके अनेक विषयोंमें
और सन् ८१२ ई. तक तो वह मुदूर प्रान्तोकी दिग्विजय अनेक उल्लेख उपलब्ध हैं पर कही भी उमके लिये ही करता रहा था। तब ऐसे व्यक्तिका एकाएक अपने बगगय' नाम प्रयुक्त नही हश्रा । उसके एक दा अवध बालक पत्रको गजपाट सौपकर समारसे विरक्त हा वंशजी उपाधब दृग या बडिगदेव थी इमसे उमा जाना कुछ जीको नही लगता। और फिर उम मसार-त्यागी नाम बोहणगय हुश्रा यह बात तो हास्यास्पद है। पूर्व जके के जीवित रहने के कारण ही दो वर्ष तक बालक अमोघवर्ष
नामा नुमार वंशजका नामतो होमकता है किन्तु बशजके के शासनमें होने वाले विप्लवोका न होना एक असंगत सो सामान निकामना माता यह Rममे नही बात है। इसके अतिरिक्त नवमारीम प्राम मन् ८१६ ई.
श्राता । फिर 'बडिगदेव' और 'बोदणराय' शब्दोंमे के कर्क मुवर्णवर्षके ताम्रपट साम्राट् अमघवर्ष के शासनका कोई साम्य भी तो नहीं। तो उल्लेख है और जगतु गका कोई उल्लेख नही' । डा.
इसके अतिरिक्त, ७-८ वर्षके बालकको, जो अभी वासुदेवशरणजी अग्रवाल से मुझे मालूम हुश्रा है कि "ऋत' अभी मिहामनारूढ हया है और नाममात्रका गजा है, तो यारिके' शब्द, जिसे प्रोफेसर साहिबने रियन्हि' का नरेन्ट और नरेन्टजटागा
नरेन्द्र और नरेन्द्रच डार्माण कहना और उसके पिता प्रबल पर्यायवाची ममझा, के इन अर्थोम (राज्य त्य गनेके अर्थोम)
प्रतापी माम्राटको--जिनके गज्यका नमें प्रथकी रचना साहित्य अथवा शिलालेखामे प्रयुक्त होने के काई उल्लेख शान्तिपूर्वक होती रही, जिनका पूरा नाम जगतुगदेव नहीं मिलते। तब इस शब्दका यह उपयोग विचित्र और
प्रभूतवर्ष गोविन्द था और जो प्रो० मा० के कथनानुमार असाधारण है। वास्तवमें जगतुगदेवकी मृत्यु ती जैमा कि
उम समय तक जीवित थे और वास्तविक शासक थे-केवल राष्ट्रकट इतिहासके विशेषज्ञ डा. अल्तकरने निर्णय किया है
जगतुगदेव करके लिग्वना भी कुछ संगत नही जान पड़ता। सन् ८१४ ई. के प्रारंभमे ही हो होचुकी थी और प्रोफेसर
जब प्रशस्तिमे दी हुई ज्योतिष-ग्रहोंकी स्थिति पर साहिबके अनुसार धवलाका समय सन् ८१६ के अन्तके
विचार करते हैं तो प्रफिमर माहिब की नसंबंधी व्याख्या लगभग आता है।
भी मदोष ही प्रतीत होती है । अवश्य ही संवत्मरके निर्णयमे प्रशस्तिमे श्रमोघवर्षका भी कोई उलेख नह।। केत, गह, शनि और गरु ये चार मन्दगनि ग्रह ही उपयोगी जगतुंगके अतिरिक्त एक 'नरेन्द्रचूडामणि बौदणगय परत और नमी सर्वाधिक माह तथा नकाशा नरेन्द्र' का उल्लेख है। प्राफेमर साहिवका कहना है कि यह कि १२ राशियोकी परिक्रमाम राहु-केतु लगभग १६ बोदणगय अमोघवर्षका ही नाम होगा। वह उस समय वर्ष. शनि लगभग ३० वर्ष और गुरु लगभग १२ वर्ष तक बोद्दणरायके ही नामसे प्रसिद्ध होगा अमोघवर्षके नामसे
लेते हैं । लगभग कहनेसे अभिप्राय यह है कि बिल्कुल नही । किन्तु उपयुक्त नवसारीका सन् ८१६ ई० का इतना ही नहीं कुछ न्यूनाधिक समय लेते हैं। इनमे शनि ताम्रपट स्पष्ट सूचित कर रहा है कि बालक साम्राट् और गुरु की गन्दगति हो जाते हैं, कभी तीब्रगति, कभी श्रमोधवर्ष नामसे ही प्रसिद्ध था । यदि पहिलेसे नहीं तो मार्गा, कभी वक्री। किन्तु राहु और केतु सदैव एक रस १JB. B. R. A. S. XX P. 135,
एक ही चालसे गमन करते हैं। इनकी गति ३ कला ११ २ धवला टीका १,१,१, प्रस्तावना पृ०४१, तथा जयधवला विकला है इससे न कभी कम होती हे न ज्यादा, और १,१, प्रस्तावना पृ०७३ ।
४ अमोघवर्ष तृतीयको उपाधि, इसकी मृत्यु सन् ३ J. B. B. R. A SXX P. 135
६३६ ई० मे हुई।