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भ० महावीर-प्ररूपित अनेकान्त धर्मका वास्तविक स्वरूप -(शासनोपकारी सद्गुरुदेव श्री कानजी स्वामीका समयसारी व्याख्यान )
[श्रीकानजी स्वामी गुजगन-काठियावाड़ के एक प्रसिद्ध श्रात्मार्थो साधु परुष हैं और श्रानकन मानगढ़ (काठियावाड़) में निवास करते हैं। श्रारक' अध्यात्मज्ञान बटा-चटा हे और श्राप उसके अच्छे रसिक एनं सुलझे हा प्रवक्ता हैं । श्रापके उपदेशमे हजारों स्त्री-परुप धर्म में स्थिरताको प्रान दो चुके हैं । पिछले दिनों इन्दोर के सर सेठ हुकमचन्द जी भी सपरिवार अापके दर्शनीको सोनगट गये थे और उपदेशको मुनकर इतने प्रभावित हुए थे कि पहले दिनके उपदेशम ५ हजार की जिम रकमके दानकी घोषणा की थी अगले दिनके उपदेशम उमीको उन्होंने अपनी खुशीमे २५ हजारमे पारणत कर दिया । अस्तु, आप श्री कुन्दकुन्दाचाप-प्रणीन 'सममार' के अच्छे मर्मज हैं और श्रापको शास्त्रसभाम स्त्री-पुरुषाका काफी जमाव होता हे । ना० ११-१२ जुलाई सन् १६४४ को आपने ममयसारके याच कलशाका जो व्याख्यान किया है उसे भावनगरमे भायाण श्री दग्लिाल जीवगज भाईने अनेकान्त के विशेषाङ्कमे प्रकाशनार्थ भेजा था। मरकारी अड़चनोंके कारण विशेषाङ्क प्रकाशन नही दोग्दा है अतः अाज उस व्याख्यानकी यदा प्रकाशन किया जाता है । आशा है पाटा इमग यथष्ट लाभ उटाएंगे।-सम्पादक ]
सर्वद्रव्यमयं प्रपद्य पुरुपं दुर्वामनावासितः।
कुनयकी वासनासे वामित हुश्रा एकांतवादी-अज्ञानी स्वं द्रव्यभ्रमतः पशुः किल परद्रव्येपु विश्राम्यति । मानता है कि शरीरादि अच्छा रहे, धनादिकी अनुकूलता स्याद्वादी तु समम्तव पु परद्रव्यात्मना नास्तिता, हो, कुटुम्बादि अनुकून हो तब धर्म हो सकता है । ऐसा जानन्निर्मलशुद्ध बोधहिमा स्वद्रव्यमेवाश्रये ॥२५३
माननेवालेने पारमाका धर्म परक श्राधीन माना है अर्थात्
उसने श्रामा और परपदार्थको एक माना है, उसको हर एक वस्तु स्वपणे (स्वकी अपेक्षा) है और परपणे
श्राचार्यदेवने इधर पशु कहा है। (परकी अपेक्षा) नहीं है, यह अनेकान्त है । श्रान्मा पर
श्रामा परकी अपेक्षासे नास्तिरूप है और पर प्रारमा स्वरूपसे नहीं है; पर, श्रान्मा स्वरूपसे नहीं है । दोनों
की अपेक्षासे नास्तिरूप है। इस प्रकार अनेकान्तका स्वरूप पदार्थ अनाद्यनन्तभिन्न हैं एक पदार्थको दूसरे पदार्थका श्राश्रय
नहीं स्वीकार कर जो परवस्तुमे निज श्रात्माका अस्तित्व मानना यह ही संमारका कारण है । हर एक वस्तु और
मानकर-पारमाका स्वभाव पबित मानकर और परद्रव्य उसका गुण-पर्याय स्वपणे है और परपण प्रभावस्वरूप है।
में स्वपनके भ्रमसे परद्रव्यों में लक्ष करके अटकता है ऐसा परका परपणे अस्तित्ल है और प्रारमपणे नास्तित्व है। इस
स्व-परको एक मानने वाला जीव एकांतवादी पशु है ऐमा तरह मारमा आत्मपणे है, परपणे नहीं है। जिम स्वरूपसे
इस कलशमे कहा है। श्राप नहीं है उस स्वरूपस अपनेको मानना यह एकान्त
एक दुग्यको अन्य द्रव्यस सहाय मिले ऐसा जिसने वाद है। प्राचार्यदेवने इस कलशमें एकासवादीको पशु
माना है उसने सर्वद्रव्यमे एकपना माना है। पर वस्तुसे कहा है, वह संसारमे अनतकाल भ्रमण करनेवाला है।
निको किचित्मात्र गुण-दोषका होना जो मानते हैं वे इस अनेकान्तके चौदह प्रकारमें तो जैन दार्शनिक रहस्य मूह है। पर वस्तु कुछ भी हो किंतु वह मुझको जाभ-अलाभ श्रा जाता है । हरेक वस्तुका अस्ति-नास्ति स्वतन्त्र स्वभाव करनेमे समर्थ नहीं है-इमका जिसको ज्ञान नही है और है। हरेक वस्तु स्वसे अस्तिरूप है और परसे नास्तिरूप परवस्तु अनुकूल हो तो मुझको लाभ होंगे ऐसा मानकर है। एक वस्तु को दूसरी वस्तुका किंचिनमात्र सहाय मानने जो परमे रुक जाता है वह मूढ पशु जैसा है ऐसा प्राचार्य वाला एकांतवादी है, वह जैनदर्शनका नाश करनेवाला है। देव कहते हैं।