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किरण ११-१२]
भगवान महावीर और भ० बुद्ध
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चारित्र जिम किसीम भी हो वह मोक्षका अधिकारी है। "बद्न भगानने धर्मका कोई नया अविकार या नयी __इस तरह भ. बुद्ध और भ. महावीर के वैरायके ज्ञानोपनब्धि नहीं की, उन्होंने समारत्याग, विशुद्ध जीवन, निमित्त, गृहत्याग, ज्ञानप्राप्त, नप उपदेश इन मबमे धार्मिक विचार यादि बातो का जो उपदेश किया है वह रमना दीग्ब पड़ती है । यह निर्णय में नहीं देना चाहूंगा पर तत्कालीन दूसरे श्रमण उपदेश देने और अनुष्ठान करने थे जैन धर्ममूत्र और बौद्ध धर्मसूत्रो की तुलना जब कभी का वही है।" नायगी तब स्वत: स्पष्ट होना मकता है।
एक दनिहामविज महाशपने अपनी पस्तकमे लिखा हैनग और दृष्टि में मोचं - बुद्धके ममयम जैन श्रमण "बुद्धने जो उपदेश किया वह मदाचारम अतिरिक्त मंस्कृातका ग्वामा विकास होता चला भारहा था उसका कुछ नही है" । प्रचार और प्रभाव जनतामे जमा हुआ था । बुद्ध उस वक्त फिरभी वह एक अलग धर्म क्या बनाया गया इमके नये नये और ताजे जनताके मामने श्रारह थ ।
कारण कुछ और है, पर उमका चर्चा में यहा जरूरी नहीं श्रालार-कालाम और गमपुत्र श्राादक वादाम उन्हें समझता है। मतोप नहीं मिला, वैदिक संस्कृतिक विकाग्मे तो वह
मैं इतना ही भमझता हूँ कि महावीर और बुहमें अमंतुष्ट थही, तब श्रमणसंस्कृतिकी तरफ ही उनका मुकाव
नारतम्य कितना ही ही दोनों भारत की विभूति है, हुआ, उनके उपदेशमे इसी मस्कृति की पृर्गछारागई:
भारतके गाग्व है। तब उन्होने उसका अनुकरण और उपदश किया है तो
ममा श्राशा और अभिलाषा प्रकट कर मकता हूँ काई आश्चर्य की बात नही है । काध की भी इमम काई
कि भारतीय नान, भारतीय होकर दाना को एक स्थानम बात नहीं है।
स्थापित करके दोनों को श्रागधना और उनके उपदेश का टिक ग्रंथी को पढनेसे पता चलता है कि जैन श्रमण
श्राचग्गा करते रहे। मस्कृति की उनपर इतनी गहरी छाप है कि स्टिक प्रधाममे जैन परिमापिक शब्दो का संचय करें तो एक छोटासा कोश
में नहीं ममझ मकता कि यह क्या और कैमे शक्य (Dictionary) हो जा सकता है । जैमा कि-श्रमण,
होगया ।क. महावीर का उपामक मारनाथकी भव्य प्रशान्त अणगार, प्रव्रज्या, चातुर्याम, निजग, निर्वाण, मबुद्ध,
बुद्द प्रतिभामे अोर एक बुद्धभक्त जैनन्दिग्मे नफरत रनत्रया, वगैरह वगैरह ।
कर मकता है । ज्य कि दोनो भागक भारतीय हैं और हमको पढ़कर किमी को यह भी अनुमान होमकता है
पागम्य में भारतीय है ओर -यागा है। फिर भी इतिहासम कि चद्र जैसे सूर्यमे प्रकाश पाकर पृथ्वी को प्रकाशित करता।
इममे बढ़कर हमारा कलंक-कथाएँ कम नही है। है, बुद्धने भी जैन श्रमणासस्कृतिके उपदेशाक प्राचारवादक लेकिन श्राज नो हम कह रहे हैं कि विकाम की ओर कुछ कुछ अशी को लेकर अपने आपको जनताम प्रकाशित हमार्ग प्रगान है, हम अागे बट रहे हैं, दुनिया एक होन्ही किया। उनका उपदेश जैन मंस्कृति का अंश है इममें और इननी ननदीक कि मुट्टीम पारदी है। शायद ही अब अत्युक्ति होमकती है।
पर देखा तो यह जाता है कि हम नजदीक होकर भी रमेशचद्रदत्त इतिहास और बौद्वमाहित्य के प्रकाण्ड मनमे एक दूमरेमे दर दूर है, बुद्धि दममे है नो इम लिए विद्वान माने गये हैं । उन्होंने अपने "Ancient कि परम्पर मनम हम दूर भागत हैं. नफरत करते रहे और India" की दूमरी जिल्दमे एक जगह लिखा है और लड़त हैं । क्या यही विकाम है, श्रार उन्नति में आप अपनी राय प्रकट की है कि
बन्धुभाव । कुछ ममझम नहीं बारहा है।"