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अनेकान्त
[वर्ष
चतुन्नं अरियमचानं यथाभूत अदम्सना।
महाधीरकी बात तो और है पर उनके एक साधुकी मंग्तिं दीघमहानं तास ताम्वेव जातिमु ॥ तस्याका वर्णन 'भगवती मृत्र' में आता है । भ० बुद्धकी नानि एतानि दिट्टानि भवनेति समूहता। तपस्याके माय उसे देख लेना अनावश्यक न होगा। उच्छिन्नमृजदुबम्प नन्थि दानि पुनम्भवो॥ उममे लिग्वा है
"चार आर्य महामन्योका यथाभूत जान न होनेसे "आर्य स्कन्दकका शरीर कई किस्मकी तपस्या करने के बाद दीर्घकाल तक उन उन योगियोमे भटका किया, पर अब 'शरीर नपसे शुष्क, कक्ष, मासरहित और दुर्बल हो गया है, मत्य का जान हुअा है तृगाका तय हश्रा हे, दु.खका ड्डियों खड़बड़ आवाज करने लगी, चमड़ी इंडिपोके माय मलना हुआ है, इमलिये अब पुनर्जन् । नही रहा। चिपट रही है, नाडिया मभी ऊपर उठाई है, बोलना संयुनानकायेम एक जगह लिखा है
मुश्किल हो रहा है। शरीर ऐसा है मानों मूवी इरण्टीको 'अनमानगोयं ममारः, पन्या कोहि न पजानि
लकड़ामे या मुग्वे पत्नीने भर अगिठी हो और अंगिटीको अविनानी वग्णानं मनानं तर हामज्जोजनाना संधावतं समरत'
घसीटतं ममय जेमी अावाज होती है वैसे स्कन्दक जब भमार अनादि है, अविद्यामे प्राचादित और तृष्णासे
चलने हैं, तो हड्डियोंकी भावान हो रही है।" बद हम मनारमे जकड़े हुए प्राणियों की पूर्व स्थिात क्या
आर्य म्कन्दक मोचते हैं-"शरीरमें चलनेकी ताकत या कुछ समझ मे नही आन।
रही है, बोलनेसे भी ग्लानि आजाती है, केवल श्रात्मबल के “यो खो आवमो गगवम्बयो दोसक्खयो मोह
जाए चलना मभव हो रहा है, फिर भी जब तक उत्थान, क्खयां इदं वुति निवाग” ___
कर्म, वन, वीर्य, पराक्रम है तब तक भगवानके पास जाऊं ग, द्वेष और माह के क्षगको निर्वाण करते हैं"। श्रच दे कि जनश्रमण जो तपस्या करते थे गग, द्वेष, मोह,
शौर मलेखनाको अाज्ञा लू। भगवती सूत्र' श० २ उ. १
इननी दुर्बलताम भी वह नपकी हं। सोच रहे हैं । तृष्णा और दुःखके क्षयक लिए करते हैं नो क्यों भागन
४ उपदेश-पटक ग्रन्थों में बुद्ध के उपदेशम रत्नत्रया हो मकती है?
जाति का उपदेश है। उनमे तीन रन इन तरह प्रतिगदित है-- समाम्म अपनी पूर्वस्थिान का उन्हे भी पता नहीं है ऐसे
"शुद्ध मरणं, धम्म सरणं, संघं मरणं" अजानके कारण अगर जेन श्रमण तपस्या करे तो उनका
इस विषय में सोचते सोचते दिलम प्रश्न हो उसता है उपहास क्यों दीमकता है, और खुद भ० बुद्धने ऐमा उपहास
कि का वास्तवम यह बुद्धकी ही ताजा है ? क्यों कि ऐसी और कटाक्ष क्यों किया होगा, कुछ ममक्रमे नह। श्रारदा है !
भावना मनुष्य के मानसका प्रतिवीप है। बार-बार सोचा पर इन बातोसे यह नतीजा निकल पाता है कि नरः
कि इममें कदी व्यापक भाव दोनो दूट निकालू । पर में प्रति प्रेमी तात्रता और निमार व्यक्त किया है। और
मफल न दो मका, मुझे इमम साम्प्रदायिकभाव ही प्रतीत अपने मिद्धान्तोको कक्षाको नाच ले पाये हैं।
रहा । हो सकता है कि इसे समझनेम मेरी गलती हो। मैं भ० भदावारको नपरका मिद्वान्त और है। तमे चाहता हूँ कि मेरी गल । दो। उन्हें क्लेश नही हुश्रा । बल्कि भाखिर तक शानयुक्त नप
श्रागमाम महावीर के उपदेशमें भी रत्नत्रयीका उपदेश है। करके प्रति भ. बुद्धको रोध हो पाया था, इमलिये ताके "सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यकमारित्र" स्थाको ही प्रधान माना, त्याग और तर अात्म-विकासका यह महावीरका रत्नत्रयी है। अब अगर दोनोंकी तुलना माधन, कल्याणका मार्ग, और राग, दूप, मोइके क्षयका की जाय तो मानमिक श्रौदार्य और व्यापकभाव किसमे कागा बताया और ऐसा ही उपदेश अन्त तक देते रहे। अधिक है यह मोचने पर स्पष्ट होजाता है। साढ़े बारह सालमे ३४६ दिन श्राहार लेकर यह साबित चाहे किसी वादका हो,, किसी सम्प्रदायका हो, किसी किया कि प्रात्मबल मनबूत है तो यह शरीर-वाहन तपसे जातिका हो, मेरा भक्त हो चाहे न हो, भेरी शरण हो, चाहे थकता नहीं बल्कि अात्माका तेज और प्रभाव बढ़ना रहता है। किमीकी शरण हो पर सच्चा ज्ञान सच्चा दर्शन और सच्चा