________________
किरण ११-१२]
भ० महावीर-प्ररूपित अनेकान्त धमका वम्तविक स्वरूप
१६६
पर वस्तु अ.मा प्राधीन नहीं है और प्रारमा पर पर है उससे वह श्रात्माको हैरान नही कर सकता। वस्तु के अधीन नहीं है, हमये यह फलित हुअा कि यह अनेकान्त जैन दर्शन की जड (मूल) है। यह सिद्धांत पर वस्तुप प्राप्माको किंचित मात्र भी लाभ हानि अनादिसे समारी जीवोंके खयाल मे पाया नही है कि नहीं है । मेग स्वभाव मुझमे मुझसे ही हैं, ऐसा श्रद्धान प्रारमामे परका प्रभाव है और परमें प्रारमाका अभाव है। जिसका नही है वह श्रा'माव। धर्म परमें मानकर- अपना हर एक वस्तु मे अस्तिरूप और परस नास्तिरूप है स्वभाव परके श्राधार है ऐमामानकर परद्रव्यमें स्वपना मानता ऐमा नहीं माननेवाला एका वादी है, उसको परमे भिन्न है वह एकांतवादी है। अनेकांतवादी ज्ञानी जानता है कि अपना रूपका ज्ञान नही है। मेरे स्वभावमे पा नही, पर वस्तुमें मैं नही हूँ, तब जिस स्वरणे है और परपण नही ऐपा कहनेमे परपदार्थवस्तुका मुझमे आभाव है वह अभावरूप वस्तु मुझको की भी मिद्ध हो जाती है। यदि सर्प मिलकर एक ही लाभ-हानि पहुंचायगी ऐसा कभी नही बनेगा। श्रभावरूप वस्तु हो तब एकमे विकार नही होगा क्योंकि स्वभावमें वस्तप यदि किसी को कुछ भी होवे तब शशकका सीग विकार नही है। यदि अकेला पदार्थ में विकार हो तब लगनेसे अमुक पुरुष मर गया ऐसा प्रसग श्रावेगा। किंतु विकार ही स्वभाव हो जायगा, इममे विकारक वक्त अन्य मेरे प्रात्माम कर्म नही, कर्ममे मैं नहीं, शीर में आत्मा नही, यस्तुकी हाजरी होती है, उपका लक्ष करके श्रा'मा स्वय भाग्मामें शरीर नहीं, दोनो वस्तु भिन्न हैं, एक वस्तु का अपनेमे विकार करता । वस्तुका अस्तिष तो है ही स्नुि अन्य वस्तुम अभाव है, ऐसा जानने वाला अनेकांतवादी प्रत्येक स्वपणे, परपणे नही है। एक वस्तुको 'सपणे है" मम्यष्टि धर्मात्मा ममन परवस्तकी अपेक्षा अपना प्रभाव ऐसा कहते ही परपणे नही है' ऐसा अनेकान्त स्वयमेव मानता है और स्व की अपेक्षा परका प्रभाव मानता है, ही प्रकाशना है । वस्तु स्वपणे है ऐसा कहते समय उसमे हमपे वह पावस्तुम किंचित् भी लाभ-हानि मानता नही परका अभाव है ऐमा प्राजाता है । स्वमे जिसका प्रभाव है है किन्तु हरेक वस्तुका एक दूसरे में नास्तिपण है इसमें वह वस्तु स्वको कुछ लाभ या हानी नही कर सकता। मेरा स्वभाव मुझमें है, स्वभावकी शुद्ध श्रद्धा ज्ञान और शरीरकी किमी चेष्टाय श्रा'माको लाभ वा हानि नहीं होती चारित्र वह भी मुझसे ही है ऐसा मानना है और 'जसकी क्योंकि प्रात्माकी अपेक्षा शरीरका प्रामामे अभाव है। शुद्ध ज्ञानमहिमा निर्मल है ऐसे स्वद्रव्य का ही श्राय उसी तरह प्रात्माकी इच्छामे शरीरको अवस्था होती नहीं करता है। प्रत्येक द्रव्य अनाद्यनत भिन्न रहकर सर्व निज है, क्योंकि इच्छाका शरीर में प्रभाव है इस अनेकान्तका निज की अवस्थामें कार्य कर रहा है, कोई किसीको सहायक ज्ञान जिसको नी है उसको प्राचार्यदेवने पशु कहा है। नहीं होता है, ऐसा जाननेवाला धर्मारमा परद्रव्यका श्रात्मा शरीरका कुछ करने की इच्छा करे किन्तु उस इच्छाका श्राश्रय कैसे करे ?
शरीरमें प्रभाव है, इससे जो इच्छा शरीर में प्रभावरूप है भावाय 'मैं परपणे नहीं हैं. स्वपणे ऐ ऐसा वह शरीरका क्या करे इच्छा राग है; उसका प्रामाकी नहीं मानने वाले पशु समान एकांतवादी पारमाको अवस्थामें सद्भाव है, किन्तु शरीरमं तो रागका अभाव है, सर्व परद्रयरूप मानता है उसको अपना भिन्न स्वभावका जो अभावरूप है वह क्या करे' उपही प्रकार इच्छामें ज्ञान नहीं है, भिन्न-वकी श्रद्धा भिन्नत्वका ज्ञान और शरीरका तथा कर्मका अभाव है तब शरीर वा कर्म इच्छामें भिन्नविकी स्थिरता बिना मुक्त नहीं हो सकता। जो वस्तु क्या कर ? अर्थात शीर वा कर्म इच्छा नहीं करता है। मुझमें नहीं है वह मुझको क्या करे ? मुझमें अभावरूप इच्छामें कर्मकी नास्ति है तब कम इच्छाको क्या करे ? कर्म वस्तु मुझमें कुछ भी कार्य नहीं कर सकती। पारमा परमे निमित्त है और इच्छाम निमित्तका प्रभाव है हममे कर्मके अभावरूप होनेमे, वह परमे कुछ भी नहीं कर सकती और कारणम इच्छा नहीं है। परवस्तु आरमाकी अपेक्षासे भारमा अभावरूप होनेसे इच्छामें परका प्रभाव है और परमें इच्छाका प्रभाव परवस्तु मारमाका कुछ भी नहीं कर सकती। कर्म प्रारमासे है। इच्छ। पारमाकी क्षणिक विकारी अवस्था है, उसमें