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अनेकान्त
[ वर्ष ७
कर्मका प्रभाव है नब कर्म इछामें क्या करे ? इस तरह भिन्नक्षेत्र-निपगण बोध्य-नियत-व्यापार-निष्ठः सदा अनेकान्त को जाननेवाला जानी सर्व परसे अपना नास्तित्व सीदत्येव बहिः पततमभितः पश्यन्पुमा पशुः । मानकर स्वद्ररयमें रहता है।
स्वक्षेत्रास्तितया निरुद्धग्भसः म्याद्वादवेद' पुनपरद्रव्यका विषय छोडकर चलिये धेर। अब रही स्तिष्ठत्यात्मनिखात-वोध्य-नियत-व्यापारशक्तभवन।४ इच्छा। इक्छा यात्मामें होनेवाली विकारी क्षणिक अवस्था र एक वस्तु अनेकान्नामक होनेपर भी वस्तुका एक है. उस क्षणिक इच्छा जितना प्रारमा नहीं है। निकाली ही पक्ष मानकर सर्व पक्षका नहीं देखने वाला एकातिवादी स्वभावकी अपेक्षामें कणिक इच्छाका अभाव है और इच्छामें एक अपेक्षा पकहकर उतना ही वस्तुको मान लेगा है वह त्रिकाली स्वभावका अभाव है। इस तरह म्वभावम इक्छा वस्नुस्वरूपसे अज्ञाा है। एक बार चार जन्मांच पुरुप, नहीं और इरछामें स्वभाव नही। सणिक इच्छा जो होती जिन्होंने हाथीको कभी भी नहीं देखा था हाथी कैमा होता है उसको अपनी मानना वही ही संसार है। वस्तु दृष्टिसे है, इसका निर्णय करनेको बैठे उनसे एक के हाथ में हाथी विकारका प्रभाव है, इससे वस्तुदृष्टि में संपर नहीं है। की छ श्राई, वह पूछको ही हाथी मानकर कहता है मात्र इच्छा मेरी ऐसी र एकी विपरीत मान्यत में मसार है। कि 'हाथी रस्सी जैसा है": दूपरेके हाथमे हाथीका ।
हर एक वस्तु स्वपणे है, परपणे नहीं है। यदि वस्तु प्राया, वह उसको ही हाथी मानकर कहता है कि 'हाथी परपणे भी अस्तिरूप हो तब दो वस्तु एक होजायँ, किन्तु स्तम्भ जैसा है". तीसरेके हाथमे हाथीका कान पाया, वह दोनों वस्तु भित्र हानेसे एककी दूसरीमें नास्ति है। देव- उसको ही हाथी मानकर कहता है कि हामी मुप जैमा गुर-शास्त्र भी पर है, उसका मेरेमे अभाय है । वह प्रभाव है". चीके हाथमे हाथीकी सूड पाई, उसको ही हाथी वस्तुके आधारमे (देव गुरु-शाके आधारस मेग धर्म नहीं मानकर वह कहता है कि "हाथी मृपल जैसा है" । इस है, मेरा स्वभाव मेगपणे है और मेरे धर्मका सबंध मेरी सरह हाथीके मन्य-स्वरूपसे अन न ऐसे मर्व ही साथ हीहै। इस तरह अपने स्वभावके श्राश्रयमे ही अंध पुरुषोंने हाथ के एक एक गो ही हाथी
ही हाथी मान लिया। वैसे ही अज्ञानी-श्रारम-रूपका तू धर्म करना चाहता है कि नहीं ऐसा प्रथम तू निर्णय अनजान ऐसा जीव एक अपेक्षाको ही पूरा वस्नुका स्वरूप कर । यदि धर्म करना चाहता है। तब "परके प्रश्रित मेरा मान बैठता है। जैसे कि वस्नु परपने में नास्तिरूप है ऐसा धर्म नहीं है" ऐसी श्रद्धा द्वारा पराश्रय छाद । परसे जो जो कहनेपर स्वपने भी नास्तिरूप मान बैठता है, स्वपने है ऐसा अपने होना माना है उस मान्यताको सम्यग्ज्ञानस जलादे कहनेपर परपने भी है एमा मान बैठता है, परकी अपनपने "मेरा स्वभाव मुझमे है, वह कभी भी परमे नही गया है" नास्त है ऐसा कहने पर परकी सर्वथा नास्ति मान लेता है ऐमा श्रद्धान कर स्वद्रव्यमें ही स्थिरता र यह हीधा है। और सामने होने वाली वस्तु उसकापने है ऐसा कहने पर __ जगतकी अपेक्षासे प्रारमा श्रमत है, मामाकी अपेक्षासे अपने में भी परकी अस्ति मान बैठता है, इस प्रकार एक जगत अमन है, किन्तु प्रारमाकी अपेक्षासे श्रामा और अपेक्षाको पकड़ कर उस ही के प्रमाण पुरी वस्तुका म्वरूप जगतकी अपेक्षास जगत दोनों मत् है. इस तरह परसे मान बैठता है वह वस्तुके सच्चे स्वरूपसे अनजान हैअसत और स्वसे मत ऐसा अपने स्वरूपको जानकर ज्ञानी एकान्तवादी है. उसको प्राचर्यने इस कलशमें पशु कहा है। स्वद्रव्यमें विश्राम करता है, उससे विरुद्ध अपने स्वरूपको अामा सदा अपने असंख्य प्रदेशोंमें ही है । पर क्षेत्रमें परपणे मानने वाले अज्ञानीको कहीं भी विश्रामस्थान नहीं रहने वाले ज्ञेय पदार्थों को प्रारमा मात्र ज्ञाता होनेपर भी है। इस तरह कलश २५३ मे परद्रव्यमे असत्पनेका "यह परक्षेत्र मेरा है' इस तरह परक्षेत्रोंको स्त्र क्षेत्रपने प्रक र कहा।
मानकर सर्वथा एकान्तवादी अपना नाश करता है: शरीरादि अब कलश २५४ में स्वक्षेत्रमे अस्ति वका प्रकार परज्ञेयरूप अपनेको मानकर अज्ञानी पर नक्षमे मवर्तता कहा जाता है।
है, ज्ञानका म्व-परप्रकाशक स्वभार होने के कारणसे ज्ञानमें