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किरण ११-१२]
म० महावीर-प्ररूपित अनेकान्त धर्मका वास्तविक स्वरूप
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पर वस्तु दीखती है उधर 'मेरा अस्तित्व परमें गया हो जाता नहीं है । आत्मा प्रात्माके ही क्षेत्रमें है अज्ञानी परऐमा मानकर परदव्यकी ओर लक्ष देवर अपना नाश क्षेत्र में अपना अस्तिाव मान कर निजका नाश करता है, करता है, किनु प्रात्माम परवस्तुका श्राकार प्रवेश पाता ज्ञाना स्वक्षेत्रमें परकी नास्ति मान कर स्वमे टिकता-स्थिर नही है, वैसे ही प्राप्माका श्राकार परमे प्रवेश पाता नहीं है, रहता है। इस त ह अनेकान्त वस्तु का स्वरूप है, सबका प्रारमा तो मदा क्षेत्रमे ही है उसका अज्ञानीको भान नहीं है, ऐमा म्वरूप जोनहीं समझेगा उसको निगोद में जाना पड़ेगा, ___ प्रथम २५३ वे कल शम द्रव्यकी बात थी, इस कलशमें और जो समझेगा वह सिद्ध भगमन त्रिल कनाथ होगा ही। क्षेत्रकी बात है। परक्षेत्रके प्राकारको जाननेका अरमाका सिद्ध और निगांद ही मुख्य गति है। शुद्ध निश्चयगति स्वभाव है ही, ज्ञानमें परक्षेत्र दीखता है उस परक्षत्रो अपना सिद्ध है और अशुद्ध निश्नयगति निगोद है, बीचकी चारों मानकर और अपनेको परपने मान कर एकांतवादी अपने गनियाँ व्यवहार है. उनका कान अल्प है ॥ २५४ ॥ स्वरूपका नाश करता है।
वनस्थितये पृथग्विधपरक्षेत्रस्थिताज्झनान् । प्रारमा नित्य असख्यप्रदेशी है उसके प्रत्येक प्रदेशमे तुच्छीभूय पशुः प्रणश्यति चिदाकारान सहाथैमन ।। अनंतगुण हैं, उसका क्षेत्र अपनेमे ही है। भाई । स्याद्वादी तु वसन स्वधानि परतंत्र विदनास्तितां । नेरा तेरे में है, तेग क्षेत्र अमरूप प्रदेशाकार है । नार्थापन तुच्छतामनुभवत्याकारकर्षी परान । इस तरह अपने को मिल न मान कर जी परक्षेत्रमें ज्ञानका स्वभाव जानने का है, इससे परवस्तु जब ज्ञान एकपना मानता है उसकी प्राचार्य भगवामने इस में दीखती है तव अज्ञानी मानो कि परवस्तु ज्ञानमें घुस कलशमें एकान्तवादी पशु कहा है। स्थाद्वादका जाननेवाना गई हो" ऐसे भ्रमपे, ज्ञानमें जो परवातुका श्राकार दीखता ज्ञानी स्वक्षेत्र अना अस्तित्व मानता है इससे परक्षेत्र में है उसको निकाल दू अर्थात ज्ञानकी अवस्थाको निकाल दू स्वपनेकी मान्यता नहीं है, इतना परता फका वेग रुक गया तब अकेला ज्ञान ही रह जाय ऐसा मान कर तुच्छ होता है। 'स्वक्षेत्री असंख्य प्रदेशोंका पिंड है' ऐसा मानने वाला हुअा नाश पाता है। अज्ञानी ऐसा मानता है कि ज्ञानमें ज्ञानी स्वक्षेत्रमें वर्तना हुआ भी आत्मामे हा श्राकाररूप गृह, स्त्री, बालक श्रादि याद आता है इसम मुझको राग बना हुआ परशेयोंकी माथ एकपना मानता नही है किन्तु हुए बिना रहता नहीं है, यह बात बिल्कुज झूठ है। घर मेरे ज्ञानमें ही परको जानने की शक्ति है ऐसा ममम कर का ज्ञान होना रागका कारण नहीं है किन्तु घर प्रति जो स्वद्रव्यमें ही रहता है। परवस्तु मेरे ज्ञानका ज्ञोय है, पर ममन्वभाव है वह रागका कारण है, उसमे गृहादिका ज्ञान वस्तु मैं नहीं है किन्तु मेरा ज्ञान ही मै हुँ एम अपने ज्ञान भले हो किन्नु "यह गृह मेग है" ऐसी मान्यताको विस्मका निश्चय व्यापाररूप शक्तिराला बन कर, स्वद्रव्यमे स्थित रण करनेका है। ज्ञानको तू किस तरह भूलेगा? भाई! रह कर स्वको जीवित रखता है-स्वरूप में ही रहता है। जाननेका तो तेरा स्वभाव है, उपमे परवस्तु महज ही प्रका
वीतराग होने के पहले शुभराग होता है और शुभराग शती है, परवस्तु को भूलने का नहीं है किन्त 'पर मेरा' ऐसी में निमित्त देव-गुरु बादि भी होते हैं, किन्नु वह राग और मान्यताको निकालदो। परका ज्ञान रागद्वेषका कारण नहीं रागका निमित्त मेरा नहीं है। मैं परक्षेत्रये भिन्न है, मेरा है किन्तु पग मेरा ऐसी मान्यता ही राग-द्वेषका कारण है, धर्म मेरे क्षेत्रमें ही है, ऐमा न मानने वाला अज्ञानी स्व. उसी मान्यताको ही बदजने की मावश्यकता है; उपके बदले भावको परपने मान कर अपना नाश करता है और ऐमा अज्ञानी परवस्तु को जाननेरूप अपने ज्ञानकी अवस्थाको जानने वाला ज्ञाना परपने अपने को नहीं मान कर स्वपने ही निकालनेको इरछना है, किन्तु वह किमको निकालेगा भाई! अपने को स्थिर रख कर अपना नाश नही होने देता। ज्ञान तो तेरा स्वभाव है, क्षणा क्षणमें उपकी अवस्था बद
प्रभो । तेरा क्षेत्र तेरे पास है, परक्षेत्र तुझसे भिन्न लती है, और उस ज्ञानको अवस्थाका ऐसा ही स्वभाव है। परक्षेत्रको जाननेका नेरा स्वभाव है किन्तु अन्य कोई कि परपदार्थ उसमें मजकता है, वहा अज्ञानी मानता है तुममें भाजाता नहीं है, वैदेही तेरा क्षेत्र अन्य परवस्तुमें कि परवस्तुका ज्ञान ही भूल जाऊं अर्थात मेरा ज्ञान ही