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अनेकान्त
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निकाल दूँ । इम तरह ज्ञेय पदार्थमे मेरे ज्ञनकी अवस्था भिन्न है ऐसा नहीं मानने वाला अज्ञानी ज्ञानी अवस्था भी शेयरूप मान कर अपने ज्ञानको अवस्थाको छ बना मांगता है, जबकि अनेकान्त धर्मको जानने वाला ज्ञानी जानता है कि परपदार्थको जानने पर भी मेरे ज्ञानवी श्रवस्था है, मेरे ज्ञानमें शेय पदार्थका प्रवेश नहीं होता है ऐसे परखे नास्तित्व जानता परवस्तु अपनेको खींचकर स्वक्षेत्र में रहता, राग-द्वेषको स्वागता, स्वक्षेत्र मे ही ज्ञानको एकाग्र करता है ।
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[वर्ष ७
अस्तित्वं निजकालतोऽस्य कलयन स्याद्वाद वेदी पुनः । पूर्णस्तितिावस्तुषु मुहुर्भूत्वा विनश्यत्स्वपि ॥
परक्षेत्र ज्ञानमें प्रकाशता है वह तो मेरे ज्ञ नस्वरूपका सामर्थ्य है, जानना मेरा स्वरूप है, परक्षेत्र मेरा स्वरूप नहीं है ऐसा जानता हुआ ज्ञानी ज्ञानमें परपदार्थ प्रकाशता है तब भी ज्ञानको तुच्छ नही मानता है किन्तु ज्ञानका सामर्थ्य मानता है। और भी ज्ञानीका निर्णय है कि मेरे ज्ञाना स्वभाव तो एक समयकी एक पर्याय मे तीन-काल सनिलोक को जानने का है, ज्ञानका स्वरूप ही जानने का है, जानने का कारण राग नहीं है, किन्तु परमे में हूं वा पर मुझमें है' ऐसी मान्यता ही राग-द्वेषका कारण है, श्रज्ञनो स्व-परको एक मान कर राग-द्वेप करता रहता है I
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आत्मा देहम भिन्न तत्व है। देह और श्रात्मा एक नही तुम हैं। एक मासे देह-मन-वाणी-कर्म और पर श्रात्माएँ त्रिकाल - भिन्न हैं । हरेक श्रारमाका तत्व भिन्न है, अभी वस्तु है प्रत्येक वस्तु मिश्र मिश्र वस्तु की शक्ति भी भिन्न है और प्रत्येककी अवस्था भी भिन्न भिन्न है। श्रामाकी अवस्था श्रात्मामें होती है, शरीरकी अवस्था शरीरमें होती है। देह और श्रारमा एक क्षेत्रावगाही होने पर भी दोनोकी अवस्था भिन्न भिन्न अपने श्राप होती है। यह नहीं जानने वाला अज्ञानी- एकान्तवादी देहक श्राश्रित अपना ज्ञान मानता है अर्थात् जब तक देह रहेगा तब तक मैं रहूगा और देहका नाश होने पर मेरा भी नाश होगा, इस तरह शेयपदार्थ से भिन्न ऐसा अपने ज्ञानका श्रस्तित्व नही जानता अत्यन्त तुच्छ होकर नाश पाता है। किन्तु शेषको अवस्थाका नाश होने पर शामकी - स्था में नाशपाती है। भामा देहमे मिश्र पदार्थ है, उसमें ज्ञान, दर्शन, अस्तित्वादि गुण हैं, उनकी अवस्था समय २ होती रहती है। शरीर जड़परमार्थीका बना है। परम सु भी द्रव्य हैं वे द्रव्यपने कायम रह कर अपनी अवस्था
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श्रव
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परक्षेत्र में रहा हुआ शेषपदार्थका धाकाररूप शानकी अवस्था होती है। किन्तु उस अवस्था यदि मैं मेरी मगाते ही रहते हैं। तब स्वक्षेत्र में ही रहने के बदले में मैं परक्षत्र में चला जाऊंगा।' ऐसा मानकर अनेकान्तको नही जाननेवाला अज्ञानी परवस्तुकी साथ ही अपने ज्ञानको भी छोड़ देता है और इस तरह स्वयं चैतन्यके श्राकार- ज्ञानकी अवस्थास रहित तुच्छ होकर नाश पाता है, और स्याद्वादको जानने वाला ज्ञानी परक्षेत्र में ज्ञानकी नास्ति जानता हुआ शेय पदार्थोंको छोड़ता हुआ भी अपने ज्ञानकी अवस्थाको छोड़ता नही है, इससे यह सुख नही होता है, किन्तु स्वक्षेत्रमें ही स्थित है । वह जानता है कि परको जाननेका मेरा स्वभाव है. परमे मैं नहीं हूं और परको जाननेरूप मेरे ज्ञानकी व स्थासे में भिन्न नहीं हूं, जो अवस्था है वह मेरा ान ऐसा जान कर वह स्वभावमें ही स्थिर रहता है। इस तरह जानकर स्वभावमें स्थिर रहना ही धर्म है ॥ २२५ ॥
रहता
पूर्वा लंबित बोध्यनाशममये ज्ञानस्य नाशं विदन । सीदत्येव न किंचनापि कलयन्नत्यंत तुच्छः पशुः ॥
आमा चैतन्य ज्ञानमूर्ति है, शरीर जड है, उसमें समय २ अवस्था बदलती है वह ज्ञान में दीखती है उस जगह श्रात्मस्वभावका अनजान थज्ञानी जीव ज्ञेयकी श्रवस्था पलटते ही मैं पलट गया ऐसा मानता है । शरीर दुर्बल हो जाय कृश हो जाय वहां वह जानता है कि मैं कृश हो गया और शरीर-इन्द्रियका बल बढ़ने पर मेरी शक्ति बढ़ गई। ऐसा मानने वाला अज्ञानी शरीरसे भिन श्रामको मानता नहीं है, इसमें वह वस्तुका नाश करता है। परकी अवस्था बदलने पर समग्र श्रात्मा बदल जाता है ऐसा मान कर अपने मिश्र अस्तित्वको जो नहीं मानता है वह वस्तुका नाश करने वाला है।
जहां इन्द्रिय शिथिल हो जाय, शरीर कृश हो जाय वहां मैं कृश हो गया ऐसा मानने वाला आमाकी स्वतंत्र शक्ति शरीर मिन है ऐसा नहीं मानता है। शरीरादि ठीक रहे तब मैं ठीक रहूंगा ऐसा मानने वाला ज्ञानकी