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किरण ११-१२]
भ० महावीर-प्रापित अनेमन्त धर्मका वास्तविक स्वरूप
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स्वाधीन अवस्थाका नाश करता है।
वस्तकी अवमाके नाशमे अपना नाश नही मानता है, किंतु पारमा स्वाभाविक त्रिकाल स्वतन्त्र वस्तु है, उसमे श्रद्धा, मम मयं पूर्ण रहता है । मेरी अवस्था मुझमे है, शेयकी जान, अस्तित्व प्रादि अनंत गुण हैं, उन गुणाकी समय२ अवस्था कुछ भी हो उससे मेरी अवस्था बदलती नहीं है, अवस्था होने पर भी मेरी अवस्था पर होती है. याश्रित बावनु बदज जानेपर भी मेरा ज्ञान तो पूर्ण हो रहता है। मेरे ज्ञानी अवस्था होती है ऐसा मानने वाला निज समय बदलने युद्ध बदल जाती है यह माननेवाजा श्रको पराधीन मानता है, त्रिकाल आधीन नाव पागल है। समय अनुमार धर्म भी बदबते रहते हैं यह पराधीन मानना ही अनंत ससारका मूल है। 'थर जाने बानीन काजमें नही बनती है। वह तो जगतकी गप्प है। हुए ज्ञेयपदार्थोका पीछेके कालमें नाश होने पर मेरा ज्ञान धनाद चले जानेपर जगत कहता है कि "अफसोप! भी जमकी साथ नष्ट हो जाता है, या मानने वा ना निजा- हमारा मब चला गया, हमारे पास बनादि था तबमब मजानकी मिन RAI-भिन्न अस्तित्व मानना नही है। श्रन था, लेकिन तेरे पाप क्या था धन तो धूलि है, वह तेरा ममक्ष आई हुई वस्तुकी अवस्था समय बदलती है वह क्व था मारकी रुचि है उसपे धृबके ढेरको याद म्वज्ञानमें प्रकाशने पर यह बदल जानेपर मै भी बदल करता है किन्तु तीर्थकर भगवानको याद नहीं करता। नाना हु" ऐसा मानने वाला अपने ज्ञानकी स्वतन्त्र अब कि 'भात क्षेत्रमं भी नीकर भगवान विच ते थे और धर्म स्थाको मानता नहीं है. मुझमें कुछ भी मामय ही नहीं, का धुन्धर मार्ग प्रवर्तता था, अहो ! वह धर्मकाज था।" परवस्तुसे ही मेरी जाननकी शनि थी, ऐसे वह ज्ञानके
अनेकान्त में ना चौदह पूर्वका रहस्य है। इन्द्रिय पुष्ट म्वतंत्र सामर्थ्यको नहीं मानना है अर्थात अपने भिन्न होवे, शरीर मोटा होवे, धन खूब बढ़े, इससे प्रामाका अम्निम्वको वह स्वीकार करना नहीं है। शरीर में युवावमा ज्ञान श्रद्धान पुष्ट नहीं होता है। अपना म्वरूप कोई भी होवा वृद्धावस्था हो विन्न मेरा ज्ञान ना उभिन ऐसा प्रकारम दूषित नहीं मानकर, मेरा स्वरूप निदोष वीतराग नही माननेवाला एकान्तवादी पशु है. इस प्रकार प्राचार्य सिद्ध ममान है पी श्रद्धा करक जो स्थिर रहता है उसका महागजका कहना है।
मात्मा ही पुष्ट बनता है अर्थान शरीरादि कृश होनेपर भी भाई ! तेरा तव परमे भिन्न है उमकं भान विना तू ज्ञान उग्र रहता है। परक माय मरा सबध तीनकालमें क्या करेगा पूर्वपुण्यसे माना कि बाद्य सामग्री मिली हो नहीं है, परवस्नु मुझसे भिन्न है, परक पलटनेमे मैं नहीं वह नेग वर्तमान वुद्धिका फल नहीं है. विन्तु जब पूर्वपुण्य पलट जाता है, मैं ना अब ज्ञायक ही हूँ । जानने में पर जल गया तब म मामग्रीको प्राप्त हुई। वह मामी अनुकूल हो तब गग और पर निकृन हो नच द्वेष होता जह है, तुममे भिन्न है, उसकी रक्षा करने पर भी वह नही है, वह मेग म्वरूप नहीं है। गुड़ की मिठाम कभी भी गुड रहेगी क्षण में नष्ट हो जायगी, क्योंकि वह नाव म्वतंत्र है। मे भिन्न नही है वैम ही मेरा ज्ञान मुममे भिन्न नहीं है। नेरी अवस्था उपके प्राधीन नही और उसकी अनस्था नेरे पनी ऐसा ही है किन्नु अज्ञानी उलटा मान रहा है। प्राधीन नहीं।
सामने आई हुई वस्तु बदलनेपर में भी बदल जाता है अामा म्वतत्र तत्व है, म्वत्र नविकी अवस्था परक सामानने गला दो वातको एक मानता है, वह पारमा।। आधीन माननेवाला एकान्तवादी अपनी म्वाधीनताका ग्वन अदन नहीं करता है। करता है । म्याद्वादका जाननेवाला अनेकान्त दी जानता है परका नाश होनेपर भी मेरी अवम्या मुझमे है ऐसा कि प्रामामें समय ममयपर ज्ञानकी अवस्था होती है जाननेगला, अपना अस्तित्व अपनेसे ही जानता हुश्रा, वह मेरे साधीन है. नेत्र मद हो, इन्दिर शिथिल हो. शेय पदार्थका नाश हो जानेपर नष्ट नहीं होता है। परके शीर कृश हो तब भी मेरा ज्ञान मंद नहीं होता है। मेरी प्रार्धन मामाके जानकी अवस्था जो मानना है वह प्रामा अवस्थाये मेरा अस्तित्व परकी अवस्था मुझमे भित्र का निर्माल्य और पराधीन मानता है, मेरी अवस्था क्षण इस तरह स्वकाल अपना अस्मिन्य जानता ज्ञानी जय क्षण मुझमे है उसमें परकी अवस्था नहीं है. ऐमा नहीं