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अनेकान्त
[ वर्ष
न61
जानता हुअा एकान्तवाद ज्ञाय पदार्थके न शसं ज्ञानका भी भूला तब परको रखने की इच्छा हुई, और वह इच्छाकी नाश मानता है, और अनेकान्तवादी ज्ञानी तो स्वकाल प्रवृत्तिमे ठहरा उसको विषय' कहते हैं, अज्ञानी उसमे अर्थात अपनी अवस्था में अपना अस्तित्व मानता हुश्रा सुख मानता है, वह अपने स्वाधीन सुख-स्वभावको मानता अपने ही स्थित रहता है ॥ २१६ ॥
नहीं है, बम ' यह ही संसार है। अब परकी अवस्थामे श्रान्मा असन है यह कहा शशेयदि ठीक होवे तो मै ठीक इसका अर्थ ऐसा हुधा जाता है :
कि मुझमें सुख है ही नहीं, मैं तो पंगुम पंगु, पराधीन, अथांलंबनकाल एव कलयन ज्ञानस्य सत्वं बाह निर्मात्य हूं । शरीर पगु हो तो उसको तो दो तकदीका जे यालंवनलालसन मनमा भ्राम्यन पशुनश्यति । रेका चाहिए लेकिन जो मान्यनामें पंगु है उसको तो अनन नास्तित्वं परकालतास्य कलयन स्यावादावेदा पुन- परवस्तुरूपल दोके टेककी श्रावश्यकता है। अहो । मै कौन स्तिष्कृत्यात्मनिखानिन्यमहजज्ञानकपुञ्जाभवन २५७ हृयामा क्या?' स्वक्या, पर क्या ? उमकान किसको नहीं
परको देखनेवाला किन्तु अपनेको नहीं देखनेवाला है उसके जन्म-मरणका अंत कब होगा? संपूर्ण स्वाधीन तत्त्व एकान्तवादी ज्ञानमें जब तक परवस्तु प्रकाश ती हे तब तक की जो पराधीन मान बैठा उसके दो अंत (छोर) कही भी ही ज्ञानका अस्तित्व मानता है और जय अच्छा रहे नी में मिलेंगे नहीं। नरें ज्ञानतावको जयकी लालसा न हो। भी अच्छा रह सकं इस तरह शेयके अाधान ज्ञानको परवस्तुको अवस्था टिके नी मैं टिकृगा, अन्यथा मेरी मानता है, किन्तु पावस्तुमे मैं अमन और मुझम परवस्त। अवस्था चली जायगी गम जा परकी लालसा रखता है वह असन ऐसा नहीं मानता है।
स्वतत्र श्रामनवको अठाकमे अठीक मानता है और पर हरेक तस्वकी अस्ति है, 'अस्ति' कहते ही उसकी चम्नुको ठीक ठीक मानना है, एसा मुढामा बाहरकी वस्तु परपणे नास्ति है। जो परपणे अपन नही है उम 'परकी ठीक रहे तो मैटीक रहगा इस प्रकार बाहरको वस्तुका और लक्ष गया है उसमे ही कहना है कि 'भाई । तू तुझ रक्षक अपनका मानना है किन्तु बाहरकी वस्तु उसकी से है-परमे तू नहीं है, तू मुझको समझ-तू तेग स्व मालिकी की कहा है कि उसकी रक्षा वह रहेगी ? पर. रूपको पिछान ।" किन्न इस तरह "मेरी अवस्था मुझम है पदार्थको मयोग ती अतबार पाया और गया। अनत बार परसे नहीं है" ऐसा नही मानता परज्ञेय कायम रहे तो बहा गजा हुश्रा और अनंबर रंक भी हुा । कोई भी मेरा ज्ञान ताजा रहे एसा मानना है, इसम परविषयमे परवस्तुका परिणमन श्रान्मा श्राधीन नहीं है। देह भी एकाग्र होता है। विपयका अर्थ क्या ? शरीरादि तो जड श्राका स्थित अनुपार रहता है. उसको आत्मा नही रख वस्तु है. रूपी, श्रा'मा चैतन्य अरूपी है. वह रूपी नस्तु पकना है। कोई भी प्रकारमे बाहरकी वस्तु स्त्री, धन. का भोग नही कर सकता लेकिन वर परकी ओर लक्ष कर बालकादि ठीक रहे तो मुझे ठीक रहे ऐस मानकर अज्ञानी के रागमे एकाग्र होता है, यह हो विषय है । प्रात्मा अप जीव बाउकी वस्तु की अवम्याकी व्यवस्था ठीक रखने में चैतन्यम्वरूपी सर्व परसे भिन्न तव है। परवस्तु मेरे समक्ष चित्तको भ्रमना है और स्वलक्ष चूक जाता है। मेरी अवहोवे नब उसका ज्ञान होवे ऐसा माननेवाला अपने भिन्न म्था मुझप होती है मेरा और परका कोई नाता नही है, ज्ञानस्वभावको मानता नही है।।
एमा नहीं मानने वाला प्रामाकी हिंसा करता है। ज्ञान क्या करे ? लक्ष करे, इच्छा हो तो उस इच्छा प्रश्न-कोई जीवको मारा तो नहीं है तब हिसा को भी ज्ञानने जाना । जानने मे राग करके रुक गया तब किसकी की ? मान बैठा कि मैंने विषयको भोगा किन्तु उस समय ज्ञानके उत्तर परजीव जीवित रहे वा न रहे उसकी साथ लक्षमे वह पाया है और उसकी हरछा हुई है, यह विषय हिंसा-अहिंसाका संबंध तीन काल में नहीं है । किन्तु परहै। बाहरका पदार्थ अपने आप (स्वाधीनपनस) श्राता जाता वस्तु की अवस्था इस प्रकार रहे तो ठीक और इस प्रकार न है. वह आमाके श्राधीन नहीं है। जब श्राामा स्वम्पको रहे तो अठीक ऐसा जिसने माना उसने परवस्तुका परिणमन