________________
फिरण ११-१२]
भ० महावीर-प्रपिन अनेकान्नधर्मका व स्तविक स्वरूप
२०५
अपने प्राचीन माना है यह ही अनंनी रिहै। परनाकी घग्न घट जल न होवे तब तालाब में नही पाता प्रतिकृन्त अवस्था है उसका निवारण करूँ तब मुझको टक है किन्तु घट लकर तालाबममे जन भरने के लिये जाना रहेगा ऐमा उमने माना किन्नु मेरे रागका निवारण कर परना है, उसी तरह जिमको श्राम्माकी गरज हो मत नब ठीक ऐसे स्वतत्वको भिन्न नहीं माना उममे ही समझनी लगन हो, मिजामा हो, वह पतकी खोज करके हिसा भागई।
सुनने के लियं को जा.गा। जो सतको समझना मांगता है परकाल अर्थान परकी अवस्थामे मैं नास्तिरूप है और उसको मन अवश्य मिलेगा। लेक्नि प्रारमा भान बिना म्बकाबस-स्वपर्यायसे अम्निम्प हूँ, इसमे पर बदल जाने इस जगतकी हो हो और हरिफाई मे मर गया-उममेमे पर मैं बदन नही जाता है ऐसा जानता हुश्रा धर्मामा स्टकर जामन समझना चाहत है उपका मनका निमित्त अपने बाग्मामें दृढपनामे रहा हश्रा निन्य महज ज्ञानका मिलेगा ही। एक समूहरूप बनता हरा स्थित रहता है-.नष्ट नही
म गीरको पहाडी अनेक प्रकारको वनम्पनि पकती होता है।
है, वह प्रायुष्य लेकर पाती है, इसम स्मको बदना मेग स्वभाव अविनाशी एक रूप शुद्ध जायक है, पर तब उसको वर्षाका निमित्त श्राये बिना रहना नहीं है, जैसे की अवस्था बदलनेपर भी में एकरूप निन्य है पर वस्तुमे ही जीमन ममझनेके लिये तैयार हश्रा उसको मनका मेग अहंपना नहीं है। मी श्रद्धाके भानमें परवस्न प्रनि निमित्त न मिले ऐसा कभी नहीं बनना । किन्तु माम्प्रन गग-द्वंय नहीं होना वह ही स्थिरता है और परमं भिन्न कालम तो कमाना कमाना और कमाना । गरीबीको कमाना आम्माकी श्रद्धा वह सम्यग्दर्शन है । उमस विरुद्ध (उत्तम) और धन मेंकी भी कमाना। ग्रामदनी करनेमे बोडी निवृति प्रदान और वर्तन वह संपार और मुलटा श्रद्धान और ले तय नी अामाको मममनकी दरकार करेंगे । धनमे चनन वह मोच है। जो मात्र परको देखना नकोनी शान्ति कहाँ है" तेरी शांति कहीं बाहर नही है न दखता है वहप के अस्तित्वसं अपना अस्तित्व माननेवाला नझमे हो भ नेर स्वभाव शान्तिके लिये परकी एकान्तवादी है।
श्रावश्यकता नहीं। अज्ञानी मानता है कि परवस्तु अनुकूल जगतके व्यापारमे लोग च्याला' करते हैं. समन हे नब मुझो शान्ति रहे, यह मान्यता ही उसकी शोग्न बम्बई शहरका व तज एलायची इत्यादि एकट्र। करके होने ना देनी । ज्ञानीको भी जघन्य अवस्थामें अस्थिरता एक हथु जमा करनेके बार अपने मनपसंद भाव विकरांजाकिन्न वह जानता है कि यह अस्थिरता में करूगा, सा मानता है किन्तु बाद्य सामग्रीका पाना वा स्वभाव नती है और परवस्तुके कारण अस्थिरता नहीं है, नही श्राना सब पुण्याधीन है उपमे श्रान्माका कुछ पामर्थ्य मात्र वर्तमान अवस्थाकी भूमिका अनुसार पुस्पार्थकी नही तो भी मैं कर सकता है या मानकर मपारमे हीननाम अस्थिरता आ जाती है। परनम्नु नगई जैसा परिभ्रमण करनेका 'व्याला करता है।
परिणमे किन्तु मैं उसमे भिन्न है तो वह मुझको क्या परवस्तुम थोबा भी फरफार होव ब "अफसाम। नुकमान करे ? इस प्रकार मानकर जानी नी महज ज्ञानअब मेरा क्या होगा ?" एम परवस्नु की कीमत कर करके स्वरूप ही अपनको टिकाना है। अज्ञानी क्या करना है। . अपनेको बिल्कुल निर्माल्य मान बैठा है, किन्तु तू महगा किमी परका अज्ञानी भी किचित मात्र नहीं कर सकता है, है कि सस्ता १ तुझमे कुछ माल है कि वाली बा दाना वह भी मात्र जानता है और नानने उपकी मान्यताका है ? तू गुणवाला है कि गुणसं खाली है? बाप । तमे घोडा दौड़ाता है। शरीर कृश होव, नादीकी गति मद अनत शक्ति है. पर तो सब विष्ठाका वहिवट ( प्यार होवे, तब वह कहना है कि मेरा जी (जीव) उहा उतरता समान है। समझ । मम ।। तू स्वतंत्र तत्व है शान्ति है, किन्तु यह तो क्या है। शरीर अलग होने देहरष्टिवाले म्वरूप है, ज्ञानस्वरूप है. तुझको परकी जरूरत पर मा को शान्ति किस तरह रहेगी शरीरके उपर दृष्टि होने नू नहीं है।
शरीर कृश होते ही मानो कि आग्मा ही कृश हो जाता है