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गजपन्थ क्षेत्रके पुराने उल्लेख
(ले-श्री पं० नाथूराम प्रेमी )
मैंने 'हमारे तीर्थक्षेत्र' शीर्षक लेख में लिखा था कि वर्तमाम् इस लम्बे समांसपदमें गजध्वज और गजपन्थ दोनों गजपम्य तीर्थका कोई प्राचीन उल्लेख नहीं मिखता और न नाम एक साथ नासिक नगरके समीप बताये हैं। ऐसा उक्त तीर्थ पर ही अब तक उसकी प्राचीनताका कोई हि नहीं जाम पड़ता कि एकका नाम देकर फिर उसका पर्याय. मिला है। परन्तु अभी गत मार्च अप्रैल में जब मैं उक्त तीर्थ वाची नाम दिया है। तब क्या गजभ्वज और गजपन्य दो की धर्मशाला बगभग डेढ़ महीने तक डहरा, तब वहाँके जुदा जुदा पर्वत हैं? मुनीम बंसीलालजीने मुझसे कहा कि प्रसग कविके शान्ति- मेरा अनुमान है कि श्रुतसागर बहुश्रुत विद्वान थे। माथचरितमें इस तीर्थका उल्लेख है। सौभाग्यसे वहां उक्त उन्होंने शान्तिमायचरितके पूर्वोक्त श्लोकका गजध्वज ग्रंथ भी मिल गया। उसके सातवें सर्गमें नीचे लिखा अवश्य पदा होगा और प्राकृत निर्वाणकाण्डका 'गजपंथे हुधा रखोक मिला
गिरिसिहरे' पाठ भी उनसे छुपा न होगा, इस लिए उन्हों अपश्यन्नापरं किञ्चिद्रक्षोपायमथात्मनः।
ने गजध्वज और गजपन्थ दो पर्वत समझ लिये होंगे शैलं गजध्वज प्रापन्नासिक्यनगराबहिः||१८||
और विशेष जांच पड़ताल किये बिना दोनों ही माम दे प्रसंग यह है कि अमिततेज और श्रीविजयने अपनी
देना निरापद समझा होगा। नासिक्यसमीपवर्ती लिखना सेनासहित जब शनिवेग विद्याधरका पीछा किया तब
इस लिए आवश्यक हुआ कि उनकी रधिमें गजपन्थ कहीं वह अपनी रक्षाका और कोई उपाय न देख कर भाग खड़ा
अन्यत्र था नहीं। हुमा भीरमसिक्य नगरके बाहर गजध्वज नामक पर्वतपर पहुंचा जहां कि विजय बलभदवली विराजमान थे।
निर्वाणकांडके अनुसार गजपन्थसे कुछ बलभद्रोंको पहले तो मुझे शका हुई कि 'गजध्वज' पाठ शायद माल प्राप्त हुआ है और शान्तिनाथ चरितमें जिमकी। प्रशद्ध हो सकता कि लेखकों प्रमादसे 'गजाध्वानं' अशनिवेगने की थी वे विजय केवक्षी पहले बलभत थे। का 'गजध्वज' बन गया हो। क्यों कि 'गजाध्वानं' (गजों इस लिए सभावना वही है कि निर्वाणकाण्डके ग या हाथियोंका रास्ता या पन्थ) और 'गजपन्य' का ही एक हो शान्सिरितके कर्माका अभिप्राय है । अब प्रश्म यह ही अर्थ होता है। पन्ना उसी समय बोधप्राभृत' का रह जाता है कि गजपन्थको गजध्वज क्यों लिखा? उत्तर
र स्वाध्याय करते हुए उसकी २७वी गाथाकी श्रुतसागरी
यही सूझता है कि या तो यह दूसरा माम होगा और या टीकाकी निन्न पंक्तियोपर मेरी नजर पड़ी, जिनमें तमाम
फिर लेखकोंके प्रमादसे ही 'गजाध्वाज' का गजबज' तीर्थोके नाम दिये हुए हैं
लिख गया होगा। "ऊर्जयन्त - शत्रुजय - लाटदेशपावागिरि-आमीर- असगने अपना महावीरचरित शक सं० ११० (वि. देशतंगीगिरि-नासिक्यनगरसमीपवतिगजध्वज-गजपंथ सं० १०४५) में समाप्त किया था और उसके बाद शान्तिसिद्धकूट-तारापुर.कैलासाष्टापद-वम्यापुरी-पावापुर- माथचरित । अर्थात् वि० सं० १०५० के लगभग गजपन्थवाराणसीनगरक्षेत्र - हस्तिनागपत्तन-सम्मेदपर्वत-सह्या- तीर्थ नासिक नगरके बाहर माना जाता था। चल-मेद्रागिरि-वैभारगिरि-रूप्यगिरि-सुवर्णगिरि-रत्न- श्रुतसागरसूरिका समय १६ वीं शताब्दि है और उस गिरि-शौर्यपुर-चूलाचल-नर्मदातट-द्रोणीगिरि-कुन्थु- समय भी वह नासिकके समीप समझा जाता था। गिरि-कोटिकशिलागिरि-जम्बूकवन-चलनानदीतटतीर्थ- बाहर' और 'समीप' से गजपन्थको उसके वर्तमान स्थान करपङ्ग कल्याणस्थानानि ।"
में भी माना जा सकता है परन्तु ये शब्द पासके अन्य किसी १ जैनसाहित्य और इतिहास, पृ० १६५
स्थानकी संभावनाको मेटने के लिए काफी नहीं जान पकते।