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किरण ७-८]
रत्नकरण्डश्रा० और प्राप्तमीमांसाका कर्तृत्व
एवं जो उन कोंके पाथ ही केवलीमे विनष्ट हो चुकी हैं। का वर्तव्य है मूल ग्रंथकारके अभिप्रायको उनकी परिपाटीके स्वयंभूस्तोत्रके 'स्वदोषमुलं स्वसमाधितेजसा मिनाय यो अनुमार व्यक्त करना। अतएव प्राप्तमीमांसाकारका उन्हें निर्दयभस्ममारिकयाम्' (३) आदि वाक्य भी ठीक इसी मैसा अभिमत अर्थ ठीक जंचा उसी प्रकार उन्होंने वहां अर्थका प्रतिपादन करते हैं. क्योंकि पयोगी केवली जिन अर्थ किया है और इस कार्य में उन्होंने एक सो टीकाकार दोषोंके मूलको भस्मसान कर सके हैं वे घातिया कर्म ही हैं सातव्य निवाहा है। पर श्लोकवार्तिक की रचना उन्होंने न कि अघातिया म।
एक ऐसे ग्रंथ पर की है जिसपर उनसे पूर्ववर्ती दो टीकाए (२) ऊपर हम देख ही चुके कि विद्यानन्दिने अपनी
उन्हें उपलब्ध थीं। अतएव उन्हीकी अर्थ परिपाटीके अनुअष्टमहस्रीटीकामें दोषका क्या अर्थ किया है । यदि उन्हें
सार उन्होंने वहां वह भर्य किया है। पर यदि विचार कर आप्तमीमांसाकारके दोष शब्दसे वही अर्थ अभीष्ट था जो
देखा जाये तो वहां पर भी उनका तथा उनमे पूर्ववर्ती रस्नकरण्डकारको है तो मैं न्यायाचार्यजीसे पूछता हूं कि,
दोनों टोकाओं अर्थात् सर्वार्थ सिद्धि और राजवार्तिकका मत उन्होंने वही स्वरूप वहां क्यों नहीं प्रकट किया ? यह बात
तस्वार्थसूत्रकारके मतसे मेल नहीं खाता जैसा कि मैं जैन सत्य है कि विद्यानन्दिने अपने श्लोकवार्तिकमें केवल के
सिद्धान्त भास्कर(भाग १०, किरण २) में प्रकाशित "क्या तुवादि वेदनाांका प्रभाव माना है, या न्यायाचार्यजीके
तस्वार्थसूत्रकार और उनके टीकाकागेका अभिप्राय एक ही शब्दोंमें उन वेदनाओंका उन्होंने "सबलता अभाव सिद्ध
है" शीर्षक अपने एक लेख में प्रकट कर चुका है।न्यायाकिया है।" ऐसी अवस्थामें यदि वे भातमीमांसाके सदर्भ
चार्यजीने उसे अवश्य देखा होगा, यदि नहीं तो कृपया वे परसे या उन्ही प्रन्थकारकी अन्य कृतियों परसे दोपका
उसपर अवश्य ध्यान दे ले। इस विषम परिस्थितिपर कुछ वैमा अर्थ कर सकनेकी गंजाइश पा जाते तो अवश्य उसी
गम्भीरतासे चिन्तन करनेपर दिगम्बर साहित्यमें हमे दो प्रकार अर्थ करते, या यही कह देते कि यहाँ उसी प्रकार
विचारधारा स्पष्ट दिखाई देती हैं। एक है षट्खंडागम विशेषार्थ ग्रहण करना चाहिए जैसा उन्होंने श्लोकवानिकम
सूत्रों, पासमीमांमादि ग्रन्थों तस्वार्थसूत्र एव पश्चात्कालीन किया है, जैसा कि अन्य स्थलोंपर उन्होंने उल्लेख किया
कर्मसिद्धान्तप्रन्यों में स्वीकृत वह मान्यता जिसके अनुसार है। पर उन्होंने वैसा नहीं किया जिससे स्पष्ट है कि उन्हें
साता व असाता वेदनीय कर्मका उदय अयोगी गुणस्थान वहां वैसा अर्थ करने के लिये सर्वथा ही कोई आधार नहीं
तक बराबर बना रहता है जिससे केवबीमें सुख-दुख रूप मिला। हम परसे स्वभावत: यह अनुमान भी किया जा
वेदनाएं सिद्ध होती हैं। दूमरी विचारधारा हमें कुन्दकुन्दासकता है कि यदि उनके सन्मुख उन्हीं समन्तभद्र कृत
चार्यके अन्यों मे दिखाई देती है जिसके अनुसार केवली रस्नकरण्डश्रावकाचार जैसा ग्रंथ होता तो वे उस पर भी
तधादि वेदनाघोंसे रहित माने जाते हैं। इस मान्यताका अपनी टीका लिखते या कमसे कम उसका अवतरण देकर
पूर्वोक्त मान्यताके साथ मेल बैठानेका प्रयान पूज्यपादाचायने प्राप्तमीमांना दोषका अर्थ अवश्य ही उसीके अनुसार
अग्नी सर्वार्थमिद्धि टीकाम किया है और उसीका अनुसरण करते, क्योंकि वे केवलीमें क्षुधादि वेदनाभोंके प्रभाव
अकलंकके राजवानिक व विद्यानन्दिके श्लोकवार्तिकमें भी सम्बन्धी मनके प्रवज पोवक थे। इससे भी यही बात
प्राप्त होता है। इसी परम्पराका ग्रहण रस्नकरण्डश्रावकाप्रमाणित होती है कि विद्यानन्दिको न तो प्राप्तमीमांसामे
चारमे भी किया गया है और उसके कर्नाने अपनी यह दोषका पैसा अर्थ कर सकने की गंजाइश मिली और न
परम्परा प्रथके उपान्त पद्यमें प्रकट भी करदी है जैसा कि उनके समक्ष समन्तभद्रस्वामीकी रत्नकरण्डश्रावकाचार जैसी कोई रचना विद्यमान थी।
हम ऊपर देख चुके हैं। चिसोबास जातील विद्या प्रतएव प्राप्तमीमांसा और श्रावकाचारके कर्ता एक नन्दिके अष्टसहलीगत व्याख्यानके श्लोकवानिकगत व्या- नहीं दो भिन्न भिन्न व्यक्ति हैं। वादिराजके उल्लेखानुसार ज्यानसे विरोध की। पर विचार करनेसे ज्ञात होता है कि श्रावकाचारके कर्ता 'योगीन्द्र' कहलाते थे और देवागम या यथार्थत: वहां ऐसा कोई विरोध उपसनहीं होता। टीकाकार प्राप्तमीमांसाके कर्ताकी उपाधि थी 'स्वामी'।