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रत्नकरण्डश्रावकाचार और प्राप्तमीमांसाका कर्तृत्व
(ले०-प्रो० हीरालाल जैन, एम० ए० )
४ [गत किरणस आगे] अब यहाँ मुझे केवल एक बात पर और विचार करना इसी प्रकारकी बात हैं । अष्टसहस्रीकारने विग्रहादि महोदय' भावश्यक प्रतीत होता है। न्यायाचार्य जी ने कहा है कि का अर्थ किया है 'शश्वन्निस्वेदस्वादिः' अर्थात् पसीनाका "रस्नकाण्डश्रावकाचारकारको जो दोषका स्वरूप क्षुधादि कभी नहीं भाना, इत्यादि जिससे और भी स्पष्ट हो जाता अभिमत है वही प्राप्तमीमांसाकारको भी अभिमत है, और है कि शरीर सम्बन्धी गुणधर्मोंका प्रक्ट होना न होना इसी लिये विद्यानन्दके व्याख्यानका भी यही प्राशय लेना प्राप्तके स्वरूपचिन्तनमें कोई महत्व नहीं रखते । प्राप्तका चाहिये। यदि ऐसा न हो तो उन्हीं के श्लोकवार्तिकगत अर्थ है ऐसा गुरु जिसके वचनपर विश्वास किया जा सके व्याख्यानसे जहां सबलतामे तुधादि वेदनाओंका अभाव और ऐसे वचन वे ही हो सकते हैं जिनका युक्ति और सिद्ध किया है, विरोध भावेगा, जो विद्यानन्दके लिये किसी और शास्त्रमे विरोध नहीं पाता एवं प्रत्यक्षसे भी जो बाधित प्रकार इष्ट नहीं कहा जा सकता।" यहां पुनः हमारे सन्मुख नहीं होते । ऐसे वचन बही निर्दोषी महापुरुष कह सकता तीन प्रश्न उत्पन्न होते हैं-(१) क्या प्राप्तमीमांसान्तर्गत है जिसके राग-द्वेष और अज्ञान सर्वथा नष्ट हो चुके हैं और दोष शब्दका वही अर्थ स्वीकार किया जा सकता है जो पूर्ण ज्ञानका प्रकाश हो गया है। विद्यानन्दिने कारिका ४ व रत्नकरण्डकारको भभिमत है ? (२) क्या विद्यानन्दिके दोष ६ की टीकामें यही बात अच्छी तरह स्पष्ट की है। जैसेशब्दके व्याख्यानका वह अभिप्राय हो सकता है जो रत्न- "कः पुनर्दोषो नामावरणादिन्नस्वभाव इति चेदुच्यते, करण्रकार द्वारा प्रकट किया गया, (३) यदि उनके वचनसामर्थ्यादज्ञानादिदोषः स्वपरपरिणामतः।" "श्राव. व्याख्यानका वही अभिप्राय नहीं है तो उनके श्लोकवार्तिक रणस्य द्रब्यकर्मणो दोषस्य च भावकर्मणो भूभृत इव गत व्याख्यानसे विरोव उत्पन्न होकर कैसी परिस्थिति महतोऽत्यन्तनिवृत्तिसिद्धेः कर्मभूभृतां भेत्ता मोक्षमार्गस्य प्रकट होती है।
प्रणेता स्तोतव्य समवनिष्ठते विश्वतत्वानां ज्ञाता च ।" (१) प्रासमीमांसाकारको दोषसे क्षुधादि अभिमत होना "दोषास्तावदज्ञान-राग द्वेषादय उक्ताः" प्रादि । यहां सर्वत्र माननेके लिये न्यायाचार्यजीके प्राधार वे ही थे जिन पर उन्हीं ज्ञामावरणादि घातियाकर्मों व तजन्य दोषाका ग्रहण हम ऊपर विचार कर चुके और देख चुके हैं कि उन किया गया है जिनसे जीवकी दृष्टि व समझदारीमें त्रुटि उल्लेखों परसे ग्रन्थकारका वैसा अभिप्राय मिन्न नहीं होता। उत्पन्न हो जाती है। यहां अघातिया कर्मों द्वारा उत्पन्न स्वयं प्राप्तमीमांसामें जो 'दोषावरणयोहानि' 'बहिरन्तर्मल- परिणामोको कहीं भी दोषरूपसे ग्रहण नहीं किया। यह। क्षयः' 'निर्दोष' जैसे विशेषणोंका उपयोग किया गया है बात युक्त्यनुशासन की प्रथम कारिका पर धान देनेसे और उनका तात्विक अर्थ समझने के हमे दो उपाय उपलब्ध भी स्पष्ट हो जाती है। इस कारिकामें ग्रन्थकारने वीर हैं-एक तो स्वय उसी ग्रंयका सन्दर्भ, और दूसरे धनका भगवान्को "विशीर्णदोषाशयपाशबन्धम्" ऐसा विशेषण टीकाकारों द्वारा स्पष्टीकरण । प्राप्तमीमांसामें प्राप्तका लक्षण लगाया है जिसका अर्थ होता है वे केवली जिनके दोषोंके करते समय ग्रन्थकारने न केवल उन्हीं गुणोंको स्पष्ट किया प्राशय रूप कर्मबन्ध सर्वथा नष्ट हो चुके हैं। अब यदि है जिनका होना प्राप्तमें श्रावश्यक है, किन्तु उन विभूतियों प्रघातिया कर्मजन्य वृत्तियों को भी प्राप्तसम्बन्धी दोषों में को भी स्पष्टत. पृथक बतला दिया है जो मायावियों और सम्मिलित किया जाय तो देवलीमें अघातिया कर्मोके भी सरागियों में भी पाई जाती हैं अतएव प्राप्तके लक्षणमें नाशका प्रसंग आता है जो सर्वसम्मत कमसिद्धान्त के कदापि ग्राहा नहीं हैं। देवोंका श्राना, अाकाशगमन, चम- विरुद्ध है। अतएव दोषसे चेही वृत्तियां ग्रहण की जा रादि, व विग्रह प्रर्थात् शरीरसम्बन्धी चमकार भादि सकती हैं जो ज्ञनावरणादि घातियाकर्मोंसे उत्पन्न होती हैं