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अपमान या अत्याचार ?
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कल शुक्रवारको, कोई पहर रात गये खुली छतके प्रायः पुरुषोंकी स्वार्थपूर्ण चेष्टाएँ और उनकी विवेव शुन्य मध्यमें शप्यापर लेटा हुमा, मैं स्त्रियोंकी पराधीनना और क्रियाएँ तथा निरंकुश प्रवृत्तियों ही हैं. जिमसे किसी भी उनके साथ पुरुषजानिने जो अबतक सलूक किया है उसका विचारशीन तथा न्यायप्रिय व्यक्तिको इनकार नहीं होसकता। गहग विचार कर रहा था । एकाएक शील मन-सगंध और अब तो प्रायः सभी विवेकी तथा निष्पक्ष विद्वान इस पवनके झोकोंने मुझे निद्रादेवीकी गोद में पहुंचा दिया और सत्यको स्वीकार करते जाते हैं। ऐसी हालतमे स्त्रियोंपर इस तरहपर मेरा वह सुचम विचारचक्र कुछ देर के लिये उपयुक्त कलंकका जगाया जाना बिलकुल ही निमूल प्रतीत बद हो गया।
होगा है। और वह निजता और भी अधिकताके साथ निद्रादेवीके आश्रय में पहुँचने ही अच्छे अच्छे सुन्दर सुदृढ तथा सुस्पष्ट हो जाती है जबकि भारत और भारतस्से और मुमनोहर स्वप्नोंने मुझे प्राधेरा । उस स्वप्नावस्थामें मैं बाहरकी उन दादागी गुजराती, पारसी तथ. जागनी आदि क्या देखनाहं कि. एक प्रौढास्त्री, जिपके चेहरेसे तेज बिटक उच्च जातियों के उदाहरणोंको सामने रखा जाता है जिनमें रहा है और जो अपने रंग-रूप, वेष-भूषा तथा बोल-चालसे घूघटकी प्रथा नहीं है और जिनकी स्त्रियोंके चरित्र बहुत यह प्रकट कर रही है कि वह 'अखिल भारतीय महिला- कुछ उज्वल तथा उदात्त पाये जाते हैं। भरपका भी निम्य महासभा के सभापतिके प्रासनपर श्रापीन होकर पा रही ही ऐसी कितनी ही स्त्रियोंमे माहाकार होता और वे है, अपनी कुछ सखियोंके माथ मुझम मिलने के लिये आई। खुले मुंह अापको देखती हैं। बतलाइये उनमें से भाजतक अभी कुशनप्रश्न भी पूरी तौरसे समाप्त नहीं हो पाया था कितनी स्त्रियां प्राप पर अनुरक्त हुई और उन्होंने आपसे कि उस महिलारत्नने एक दम बढी ही सतर्क-भाषामें मुझ प्रेमभिक्षाकी याचना की? उत्तर कोई नहीं' के सिवाय से यह प्रश्न किया कि, आप लोग स्त्रियांस जो घट और कुछ भी न होगा। आपने स्वतः ही दृष्टिपातके अत्र. निकलवाते हो---उन्हें पर्दा करने के लिये मजबूर करते सर पर इस बातका अनुभव किया होगा कि उनमें कितना हो इसका क्या कारण है?'
संकोच और कितनी कज्जाशीलता होती है। विकारकी रेखा मैं इस विलक्षण प्रश्नको सुनकर कुछ चाक उठा तक उनके चेहरे पर नहीं पाती। पर्दा उनकी धास्वोंमें ही और उत्तर सोचना ही चाहता था कि वह विदुषी स्त्री स्वत: समाया रहता है, जिसपर उन्हें स्वतंत्रता के साथ अधिकार ही बोल उठी-'या तो यह कहिये कि आप लोगोंका होता है और वे यथेष्ट रीतिमे उस अधिकारका प्रयोग खियों पर विश्वास नहीं है। आप यह समझते हैं कि करती है। उन्हें कृत्रिम पर्देकी-उम बनावटी पकी जिसमें स्त्रियों पुरुषोंको देखकर कामवायसे विकल हो जाती हैं, लालसा भरा रहती है और जो चित्तको उद्विग्न तथा शंकाउनके मन में विकार आजाता है और व्यभिचारकी ओर तुर करने वाला है--जरूरत ही नहीं रहती। और इसलिये उनकी प्रवृत्ति होने लगती है। उसी की रोकथामके लिये यह कहना कि पुरुषों को देखकर खिणेच मन स्वभाव ही यह बंघटकी प्रथा जारी की गई है। यदि ऐसा है तो विकृत होजाता है--वे दुराचारकी ओर प्रवृत्ति करने लगती यह स्त्री-जातिका घोर अपमान है। खियां स्वभाव ही है-कोरी कल्पना और स्त्रीजानिकी अबहेमानाके सिवाय पापभीरु तथा बजाशील होती हैं, उनमें धार्मिक निधा और कुछ भी नहीं है। इस प्रकारकी पाम बीजातिक पुरुषोंमे प्राय अधिक पाई जाती है। चित्त भी उनका शीलपर नितान्त मिथ्या भारोप होता है और उससे उसक सहज ही में विकृत होने वाला नहीं होता। उन्हें व्यभि- अपमानकी सीमा नहीं रहती। साथ ही, इस बातकी मी चारादिमागोंकी और यदि कोई प्रवृत्त करता है तो वह कोई गारटी नहीं है कि जो नियां पदेंमें रहती है ये समोर