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अनेकान्त
(वर्ष ६
उज्जपरित्रवानी होती है। ऐसी बहुतसी सियों के बड़े भव नहीं किया? मैंने तो ऐसी सैंकों स्त्रियोंको देखा है हीकाले चरित्र पाये गये हैं। अत: घूघटकी प्रथाको जारी जो चूंघट निकाले हुए अंधोंकी तरहसे चलती हैं, मार्गमें रखनेके लिये उक्त हेतुमें कुछ भी सार अथवा दम नज़र घोबा, गाबी, प्रादमी तथा दर-दीवार और वृक्षसे टकरा नहीं पाता।
___ जाती है, इंट पत्थर लकडीसे ठोकर खा जाती हैं; मार्ग भूल जरामी देर इक कर और मेरे मुखी ओर कुछ प्रतीक्षा कर इधर उधर भटकने लगती हैं। किसी भाक्रमणकारीसे दृष्टिसे देख कर वह उदारचरिता फिर बोली
अपनी रक्षा नहीं कर सकतीं, और इस तरह पर बहुत कुछ 'यदि आप ऐसा कहना नहीं चाहते और न उक्त हेतुका दुःख उठाती हुई अपनी उस घूघटकी प्रथा पर खेद प्रकट प्रयोग करना ही प्रापको इष्ट मालूम देता है तो क्या फिर करती हैं। उन्हें यह भी मालूम नहीं होता कि संसार में भाप यह कहना चाहते हैं कि-पुरुषों का मन स्त्रियों क्या हो रहा है और देश तथा राष्ट्रके प्रति हमारा क्या को देख कर द्रवीभूत हो जाता है, पुरुष नवनीतके तब्ध है। वे प्रायः मकानकी चारदीवारीमें बंद रह कर समान और स्रियां अंगारके सदृश हैं- 'अंगार उच्च संस्कारों के विकामके अवसरसे वंचित रह जाती हैं, सशी नारी नवनीतसमा नराः"-अंगारोंके समीप जिस इतना ही नहीं बल्कि अपने स्वास्थ्यको भी खो बैठती हैं। प्रकार घी पिघल जाता है उसी प्रकार स्त्रियोंके दर्शनसे ऐसी स्त्रियां अपनी संतानका यथेष्टरीतिसे पालन-पोषण भी पुरुषों का मन चलायमान होजाता है--विकृत हो उठता है। नहीं कर सकतीं और न उसे ठीक तौरसे शिक्षित ही बना उसी मनोविकारको रोकनेके लिये--उसे उत्पन्न होनेका सकती हैं। मैं तो जेलखानेके एक भाजन्म कैदीकी और अवसर न देनेके लिये ही यह चूंघट निकलवाया जाता। उनकी हालतमें कुछ भी अन्तर नहीं देखती। यह सब अथवा पर्दा कराया जाता है। यदि ऐसा है तो यह स्त्रियों कितना अत्याचार है! बिना अपराध ही स्त्रियां ये सब पर घोर अत्याचार है । स्त्रियों को देख कर पुरुषों की यदि दुःख, कष्ट तथा हानियां उठाती हैं और अपने मनुष्योचित सचमुच ही राल टपक जाती है, उनमें इतना ही नैतिक अधिकारों तथा लाभोंसे वचित रखी जाती हैं, इस अन्याय बल है और वे इतने ही पुरुषार्थ के धनी हैं कि अपनी और अन्धेरका भी कहीं कुछ ठिकाना है!!' 'अब बतलाइये प्रकृतिको स्थिर भी नहीं रख सकते तो यह उन्हींका दोष दोनों से भाप अपनी इस मनहूस प्रथाका कौनसा कारण है। उन्हें उसका परिमार्जन अपने ही मुँह पर बुर्का डाल ठहराते हैं ? पहला कारण बतलाकर व्यर्थ ही स्त्रीजातिका कर अथवा धुंघट निकाल कर क्यों न करना चाहिये ? यह अपमान करना चाहते हैं या दूसरे कारणको मान कर कहांका न्याय है कि अपराध तो करें पुरुष और सजा उस स्त्रियों पर अपने प्रत्याचारको स्वीकार करते हैं ? दोनों में से की दी जाय नियोंको? यह तो 'अंधेर नगरी और चौपट कोई एक कारण जरूर मानना और बतलाना पड़ेगा अथवा राजा' वाली कहावत हुई-एक मोटा प्रश्गधी यदि फांसी दोनोंको ही स्वीकार करना होगा। परंतु वह कारण चाहे की रस्सी में नहीं पाता तो किसी पसले-दुबले निरपराधीको कोई हो, पुरुषोंके लिये यह बात क्लंककी, लज्जाकी और ही फांसी पर लटका दिया जाय ! कैसा विलक्षण न्याय सभ्यसंसारमें उनके गौरवको घटाने वाली जरूर है कि उन्हें है!! क्या स्त्रियोंको अबला और कमजोर समझ कर ही प्रकृति तथा न्याय-नियमोंके विरुद्ध अपनी स्त्रियोंको पर्देसे उनके साथ यह सलूक (न्याय) किया गया है ! और क्या रखना पड़ता है।' न्यायसत्ता पानेका यही उपयोग है और यही मनुष्योंका मैं उस वीरांगनाके इस दिग्यमाषणको सुन कर दंग मनुष्यत्व है? मैं तो इसे मानव-जाति और उस संस्कृतिके रह गया और मुझसे उस वक्त यही कहते बना कि, जरा लिये महान् कलंक समझती हूँ।'
सोचकर भापके प्रश्नका समुचित उत्तर फिर निवेदन लियो पाँमें रहने की वजहसे अपने स्वास्थ्य, अपनी करूंगा। जानकारी, अपनी संस्कृति और अपनी प्रात्मरक्षा वगैरह की मेरा इतना कहना ही था कि भाकास में मेघोंकी कितनी हानियां उठाती, क्या इसका मापने कभी मनु- गर्जना और वर्षाकी दोंने मेरा वह स्वम भंग कर